SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँच प्रकार के अभिगम (विनय) १. सचित्त त्याग : प्रभुभक्ति में उपयोग में न आए, ऐसी खाने-पीने की सचित्त वस्तुओं का त्याग। २. अचित्त अत्याग : निर्जीव वस्त्र-अलंकार आदि तथा प्रभु-भक्ति में उपयोगी वस्तुओं का त्याग नहीं करना । ३. उत्तरासन : दोनों छोर सहित एक परत वाला स्वच्छ चादर धारण करना चाहिए। ४. अंजलि : प्रभुजी के दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि करनी चाहिए। 1-.-- एकाग्रता : मन की एकाग्रता बनाए रखनी चाहिए। दश-त्रिक (दस प्रकार से तीन-तीन वस्तुओं का पालन) १. निसीहि त्रिक: पहली निसीहि - मंदिर के मुख्य दरवाजे में प्रवेश करते समय संसार के त्याग स्वरूप । दूसरी निसीहि गर्भगृह में प्रवेश करते समय जिनालय से सम्बन्धित त्याग स्वरूप। तीसरी निसीहि चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पूर्व द्रव्यपूजा के त्याग स्वरूप । २. प्रदक्षिणा त्रिक: प्रभुजी के दर्शन-पूजन करने से पहले सम्पूर्ण जिनालय को/मूलनायक भगवान को/ त्रिगडे में स्थापित भगवान को सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए 'काल अनादि अनंत थी...'दोहा बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी। ३. प्रणाम त्रिक (१) अंजलिबद्ध प्रणाम : जिनालय के शिखर का दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाना चाहिए। (२) अर्द्ध अवनत प्रणाम : गर्भद्वार के पास पहुंचते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाकर आधा झुक जाना चाहिए। (३) पंचांग-प्रणिपात प्रणाम : खमासमण देते समय पांचों अंगों को विधिवत् झुकाना चाहिए। ४. पूजा त्रिक (१) अंग पूजा : प्रभुजी के स्पर्श करके होनेवाली पक्षाल, चंदन, केसर तथा पूष्प पूजा। (२) अग्र पूजा : प्रभुजी के आगे खड़े होकर की जानेवाली धूप, दीप, चामर, दर्पण, अक्षत, नैवेद्य, फल तथा घंट पूजा। (३) भाव पूजा : प्रभुजी की स्तवना स्वरूप चैत्यवन्दन आदि करना। (नोट : अन्य प्रकार से भी पूजा त्रिक होती है। पाँच प्रकारी पूजा : चंदन, पुष्प, धूप, दीप तथा अक्षत पूजा। अष्ट प्रकारी पूजा : न्हवण, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य तथा फल पूजा। सर्वप्रकारी पूजा : उत्तम वस्तुओं के द्वारा प्रभुजी की विशिष्ट भक्ति करना। ५. अवस्था त्रिक (१)पिंडस्थ अवस्था : प्रभुजी की समकित प्राप्ति से अन्तिम भव युवराज पद तक की अवस्था का चिंतन करना। (२) पदस्थ अवस्था : प्रभुजी के अन्तिम भव में राज्यावस्था से केवली अवस्था तक का चिंतन करना। (३)रूपातीत अवस्था : प्रभुजी के अष्टकर्म नाश के द्वारा प्राप्त सिद्धावस्था का चिंतन करना। (नोट : प्रक्षाल तथा द्रव्य पूजा के द्वारा प्रभुजी की अवस्था का भावन) (१) जन्म-अवस्था : प्रक्षाल। (२) राज्य-अवस्था : चन्दन, पुष्प, अलंकार, आंगी। (३) श्रमण-अवस्था : केश रहित मस्तक, मुख देखकर भाव से तथा आठ प्रातिहार्य द्वारा प्रभुजी की केवली अवस्था के भाव से तथा प्रभुजी को पर्यंकासन में काउस्सग्ग मुद्रा में देखते हुए सिद्धावस्था की भावना । cation interat
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy