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दुक्ख-खओ कम्म-खओ, दुक्-ख-खओ-कम्-म-खओ,
दुःख का नाश, कर्म का नाश, समाहिमरणं च बोहिलाभो अ। समा-हि मर-णम् च बोहि-लाभो अ। और समाधिमरण और बोधिलाभ संपज्जउ मह एअं, सम्-पज्-जउ मह-ए-अम्,
यह मुझे प्राप्त हो। तुह नाह ! पणाम करणेणं ॥४॥ तुह नाह ! पणाम-कर-णे-णम् ॥४॥ हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से ४. गाथार्थ : हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से दुःख का नाश, कर्म का नाश, समाधिमरण और बोधिलाभ मुझे प्राप्त हो। ४.
दुरखक्षय
का शाका
कर्मक्षय
बोधिलाभ
सहर्ष सहन
वही
लहानता
आधि-चिता
आभामा
समाधिमरण
(१४) बोहिलाभो= प्रभुजी (११) दुक्ख-खओ= रोग (१२) कम्म-खओ =
की आत्मा को 'नयसार' के का नाश, दौर्भाग्य का नाश, अशाता वेदनीयकर्म से (१३) समाहि-मरणं =
भव में 'बोधिलाभ' की प्राप्ति दीनता का त्याग, मानसिक होने वाली अस्वस्थता, किसी भी तरह की
हुई, उसी प्रकार मुझे भी अस्वस्थता का नाश, आधि- लाभान्तराय कर्म से लाभ में अस्वस्थता में तथा किन्हीं
बोधिलाभ की प्राप्ति हो तथा व्याधि-उपाधि का त्याग, विघ्न, ज्ञानावरणीय कर्म के
संयोगों में अंतिम समय में
उसके प्रभाव से जिनवचन के विषयों की लोलुपता का उदय से अज्ञानता, जीवदया
(तथा जीवन पर्यंत) चित्त
प्रति श्रद्धा, सम्यग्ज्ञानत्याग, कषायों की पराधीनता | नहीं पालने के कारण उत्पन्न
की प्रसन्नता स्वरूप
दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयी की का त्याग...इत्यादि दुःख का चिन्ता ...इत्यादि कर्मों का
समाधिमरण की प्राप्ति हो,
प्राप्ति आदि सम्यक्त्व का क्षय हो, ऐसी प्रभुजी से क्षय हो, ऐसी प्रभुजी से
ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना।
लाभ हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना...। प्रार्थना...।
प्रार्थना...। (१५) संपज्जउ मह एअंतुह नाह पणाम करणेणं = हे नाथ ! मुझे आपके प्रणाम के प्रभाव से उपरं बतलाई गई १३ वस्तुओं की सदा प्राप्ति हो।
छंद का नाम : अनुष्टप राग : दर्शनं देवदेवस्य (प्रभु स्तुति) सर्व-मंगल मांगल्यं, सर-व-मङ्ग ल-माग-ल-यम्,
सर्व मंगलों में मंगल रूप, सर्व-कल्याण-कारणम् । सर-व-कल्-याण कार-णम्।
सर्व कल्याणों का कारण, प्रधानं सर्वधर्माणां, प्रधा-नम् सर-व धर्-मा-णाम्,
सर्व धर्मों में श्रेष्ठजैन जयति शासनम् ॥५॥ जै-न्म-ज-य-ति-शा-स-नम् ॥५॥
जैन शासन जयवंत है।५. गाथार्थ : सर्व मंगलों में मंगल, सर्व (१६) सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण कारणं । प्रधानं TM
जैन जयति शासनम् । कल्याणों का कारण, सर्व धर्मों में श्रेष्ठ, जैन सर्वधर्माणां,जैन जंयति शासनम् ॥= श्री अरिहंत परमात्मा शासन जयवंत है।५.
तथा उनका शासन और प्रथम गणधर तथा जिनबिंब
जिनमंदिर-जिनागम व चतुर्विध श्री संघ (साधु-साध्वीअशुद्ध
श्रावक-श्राविका) तथा रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन-ज्ञानजय वीराय जयवीयराय
चारित्र) इस जगत के सर्व मंगलों में मंगल, सर्व कल्याण होउमम होउ ममं
का कारण तथा सर्व धर्मों में प्रधान है, ऐसा जैनशासन सदा मग्गा अणुसारिआ मग्गाणुसारिआ
जय प्राप्त करे-विजय प्राप्त करे। लोगविरुद्धचाओ लोगविरुद्धच्चाओ
प्रस्तुत सूत्र से सम्बन्धित कुछ विशेष जानकारी तवयणसेवणा तब्बयणसेवणा
इस सूत्र की पहली दो गाथाएँ श्री गणधर भगवंत के द्वारा रचित है तथा वारिजई वारिज्जइ
अन्तिम तीन गाथाओं की रचना बाद में की गई है। प्रभुजी के प्रभाव से अर्थात् नियाणबंधण नियाणबंधणां
भक्ति के प्रभाव से आठवस्तुओं की याचना ( पहली दो गाथाओं में ) करते समय प्रणामकर्णेणं पणाम करणेणं
मुक्ताशुक्ति मुद्रा करनी चाहिए तथा प्रभुजी के प्रणाम से चार वस्तुओं की याचना प्रधान सर्वधर्माण प्रधानं सर्वधर्माणां
(अन्तिम तीन गाथाओं में ) करते समय योगमुद्रा करनी चाहिए।
याकवि
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