SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोग-विरुद्धच्-चाओ, लोक विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग, लोग - विरुद्ध-च्चाओ, गुरुजणपूआ-परत्थकरणं च । गुरु-जण-पूआ-परत्-थ-कर-णम् च । गुरुजनों के प्रति सन्मान और परोपकार की प्रवृत्ति, सुहगुरु जोगो तव्वयण सुह-गुरु-जोगो तव्-व-यण सद्गुरु का योग, उनकी आज्ञा सेवणा आभव-मखंडा ॥२॥ सेव - णा - आभ-व- मखण्डा ॥२॥ पालन में प्रवृत्ति पूरी भव परंपरा में अखंडित रूप से । २. गाथार्थ : लोक विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग, गुरुजनों के प्रति सन्मान, परोपकार प्रवृत्ति, सद्गुरुओं का योग और उनकी आज्ञा के पालन की प्रवृत्ति पूरी भव परंपरा में अखंडित रूप से मुझे प्राप्त हो । २. आज्ञा स्वीकार पुरुजनपूजा पितृसेवा निन्दा • लोकविरुद्धत्याग मश्करी धर्मी की हसी ९८ ईर्ष्या बहुजनविन का संग देशाचा रोल्लंघन उद्भट भोग परसंकटतोष आदि लोकविरुद्ध कार्यो का त्याग (५) लोगविरूद्धच्चाओ = धार्मिक लोगों का उपहास, मजाक, निंदा, ईर्ष्या, बहुजनविरुद्ध का साथ, देश के आचार का उल्लंघन, दूसरे को दुःखी देखकर आनंदित होना, इत्यादि लोक विरुद्ध आचरणों का त्याग करूँ, ऐसी प्रभु से प्रार्थना । सद्गुरु योग = (८) सुहगुरु जोगो पंचमहाव्रतधारी, संसार शोषक-मोक्ष पोषक, देशना दक्ष ऐसे सद्गुरु भगवंतों का सदा समागम हो, ऐसी | प्रभुजी से प्रार्थना....। (९) तव्वयणसे वणा (सद्गुरुवयण सेवणा) = ऐसे सद्गुरुभगवंत के मुख से निकलती जिनवाणी को एकाग्रचित्त से श्रवण करना तथा उसके वचनों के अनुसार देवदर्शन पूजन, गुरुजन पूजन, जीवरक्षा कार्य, - वारिज्जइ जइ वि, नियाण बंधणं वीयराय !तुह समये । तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ रामचन्द्रजा (६) गुरुजणपूआ = पू. माता-पिताजी की सेवा-शुश्रुषा, विद्यादाता गुरु का यथोचित सम्मान, पू. श्रेष्ठ लोगों की आज्ञा का सहर्ष स्वीकार, निंदा-चुगाली-मजाक का सदा त्याग हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना । गुरुवचनसेवा साधर्मिक भक्ति - वात्सल्य, रथयात्रा-जलयात्रा आदि शासनप्रभावक कार्य, सामायिक-पौषधव्रत स्वीकार, संयमग्रहण की तीव्र उत्कंठा, तत्त्व-चिंतन, अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय, तप, त्याग आदि कार्य करने की भावना मेरी अंतरात्मा में सदा हों, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना... ( यह सब मुझे जब तक मोक्ष प्राप्ति न हो, तब तक अखंडित हों, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए । ) वारिज् - जइ जइ वि, निया-ण बन्-ध-णम् वीय-राय !तुह समये । तह वि मम हुज्-ज सेवा, हितोपदेश & Personal Use Only तप परार्थकरण (७) परत्थकरणं = दूसरों को सहायक बनने की तीव्र भावना, अपेक्षारहित परोपकार करने में आनंद, रोगिष्ठबीमार - पराधीन की सेवा-शुश्रुषा, यथायोग्य पात्र को हितकारी बातों का उपदेश इत्यादि परार्थकरण की भावना मुझे सदा हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना...। दया परोपकार चारित्र सामायिक व्रत श्रील दान जिवयक्ति (१०) 'भवे भवे तुम्ह चलणाणं '= प्रत्येक भव में प्रभुजी आपकी सेवापूजा-दर्शन का लाभ मिलने के साथ आपके वचनों के प्रति अविचल श्रद्धा मुझे प्राप्त हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना । यद्यपि निदान बंधन का निषेध किया जाता है, हे वीतराग ! आपके शास्त्र में तथापि आपके चरणों की सेवा मुझे भवों-भव (मोक्ष प्राप्त होने तक ) प्राप्त हो ! ३. भवे भवे तुम्-ह चल-णा - णम् ॥३॥ गाथार्थ : हे वीतराग ! आपके शास्त्र में यद्यपि निदान बंधन निषेध किया गया है, तथापि भवोभव मुझे आपकी चरण सेवा प्राप्त हो । ३. www.jainelibra
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy