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शरीर की पडिलेहना करते समय विचारने योग्य २५ बोल (१) अब ऊंगलियों में स्थित मुंहपत्ति से बाएं हाथ के ऊपर
४२. मान परिहरूं दोनों ओर तथा नीचे, इस प्रकार तीन स्थानों पर प्रदक्षिणाकार में (८) उसके बाद इसी प्रकार दोनों हाथों में मुँहपत्ति प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना चाहिए...
रखकर बाएं हाथ की कांख पर से नीचे की ओर प्रमार्जना २६. हास्य २७. रति २८. अरति परिहरूं।
करते हुए मन में बोलना चाहिए। (२) इसी प्रकार बाएं हाथ की उंगलियों में स्थित मुहपत्ति से
४३. माया दाएं हाथ के दोनों ओर तथा नीचे, इस प्रकार तीन स्थानों पर (९)उसके बाद इसी प्रकार दोनों हाथों में महपत्ति प्रदक्षिणाकार में प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना चाहिए। रखकर दाएँ हाथ की कांख पर से नीचे की ओर प्रमार्जना
२९. भय ३०. शोक ३१. दुर्गच्छा परिहरूं। करते हुए मन में बोलना चाहिए। (३) उसके बाद ऊंगलियों में से महपत्ति को निकालकर,
४४.लोभ परिहरूं दुहरी रखकर दोनों हाथों की उंगलियों के बीच में रखकर, मुंहपत्ति (इस प्रकार पीठ कन्धे की ४ प्रमार्जना हुई । इन चार के नीचे का भाग सीधा रहे, इस प्रकार रखना चाहिए । (देखें चित्र पडिलेहणाओं को दोनों कन्धों पर पीठ की पडिलेहणा सं. १८ व ) महपत्ति से सुयोग्य प्रमार्जना हो, इस प्रकार मस्तक मानने का व्यवहार प्रसिद्ध है। उसके बाद चरवला के मध्यभाग में (बीच में) तथा दाएं-बाए दोनों ओर इस प्रकार (ओघा) से बाएं पैर के मध्यभाग में (बीच में ) तथा तीन स्थानों में प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना बाएँ-दाएँ भाग इस प्रकार तीनों जगहों पर प्रमार्जना करते चाहिए।
हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए (पू. साधु-साध्वीजी ३२. कृष्णलेश्या ३३. नीललेश्या
भगवंत 'रक्षा करूं' बोलें) ३४. कापोतलेश्या परिहरूं।
४५. पृथ्वीकाय ४६. अप्काय (४) इसी प्रकार मुँहपत्ति से मुख के बीच में तथा दाएं-बाएँ ४७. तेउकाय की जयणा करूं ( रक्षा करूं.) दोनों ओर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। उसके बाद चरवला (ओघा) से दाएं पैर के मध्यभाग ३५. रसगारव ३६. ऋद्धिगारव
में (बीच में ) तथा भाग इस प्रकार तीन जगहों ३७. सातागारव परिहरु
पर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। (५) इसी प्रकार मुंहपत्ति से हृदय के बीच में तथा दाएं-बाएँ ४८. वायुकाय ४९. वनस्पतिकाय दोनों ओर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। ५०. त्रसकाय की जयणा (रक्षा) करु। ३८. मायाशल्य ३९. नियाणशल्य
(मुँहपत्ति + शरीर पडिलेहण विशेष सुयोग्य अनुभवी ४०. मिथ्यात्वशल्य परिहरूं.
के पास सीखना चाहिए।) (६) इसी प्रकार दोनों हाथों में मुहपत्ति रखकर बाएं कन्धे पर द्वादशावर्त वन्दन के २५ आवश्यक तथा उपलक्षण से से घुमाकर कन्धे (पीठ के ऊपर के भाग ) का प्रमार्जन करते हुए मुहपत्ति व शरीर की २५-२५ पडिलेहणा मन-वचन-काया मन में बोलना चाहिए।
रूप तीन करण से उपयोगवाला होकर तथा न्यूनाधिक अंश ४१. क्रोध
रहित संपूर्ण रूप से प्रयत्नपूर्वक जो जीवात्मा आराधना करत (७) इसी प्रकार महपत्ति को दाएं कन्धे पर से घमाकर कन्धे है, वह अधिक से अधिक कर्म निर्जरा को साधता है। तथ (पीठ के ऊपर के भाग ) का प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना उपयोग रहित अविधि से हीन-अधिक आराधना करनेवाले चाहिए।
मुनिभगवंत भी विराधक कहलाते हैं। स्त्री के शरीर की १५ पडिलेहणा से सम्बन्धी बातें। स्त्रियों का शिर, हृदय तथा कन्धा वस्त्र से हमेशा ढंका होता है। अतः शिर मुहपत्ति तथा शरीर की प्रतिलेखन के तीन, हृदय के तीन तथा कन्धे के ( कांख के भी) चार इस प्रकार कुल १० विधिपूर्वक भली-भांति हो, परन्तु माः प्रतिलेखना नहीं होती है। अतः उन्हें मात्र दो हाथों की, तीन-तीन =छह, इस मुहपत्ति का स्पर्श न हो, इस बात का ध्यान प्रकार कुल १५ प्रतिलेखना होती हैं, उनमें साध्वीजी भगवंत को प्रतिक्रमण रखते हुए उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना करने करते समय शिर खुला रखने का व्यवहार होने के कारण शिर की तीन चाहिए। प्रतिलेखना के साथ १८ प्रतिलेखना होती हैं।
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