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मंदिर में प्रवेश करते समय की विधि
• पूजा की सामग्री के साथ मंदिर में प्रवेश करते समय प्रभुजी की दृष्टि पड़ते ही सिर
झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर मंद स्वर में 'नमो जिणाणं' का उच्चार करना चाहिए। विद्यार्थी स्कूल बैग तथा ऑफिस जानेवाले व्यक्ति पर्श, सूटकेस आदि किसी भी प्रकार की वस्तु तथा अन्य दर्शनार्थी खाने-पीने की वस्तु, शृंगार की वस्तु आदि मंदिर के बाहर ही रखकर प्रवेश करें। उन्हें भी मस्तक झुकाकर'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए।
पिता के साथ
मंदिर में प्रवेश
पहली निस्सीहि
शकरते समय
मंडप में प्रवेश
पहली निसीहि बोलते समय की विधि । मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय तीन
बार निसीहि बोलना चाहिए । (निसीहि = निषेध, मनाई) इस निसीहि में मंदिर में प्रवेश करते समय आधा झुककर दोनों हाथों को जोड़कर सन्मान का भाव प्रगट करना चाहिए। 'पहली निसीहि' बोलने से संसार की सभी प्रकार की वस्तुओं का मन-वचन-काया से त्याग किया जाता है। • मंदिर सम्बन्धी किसी भी प्रकार के सूचन तथा स्वयं सफाई आदि कार्य करने की छूट होती है। अधिकृत व्यक्ति आज्ञा करे तो वह उचित कहलाता है। आराधक वर्ग अत्यन्त कोमलता पूर्वक निर्देश करें।
जयणा पूर्वक मंदिर की शुद्धि-रक्षण-पोषण-पालन का कार्य
प्रदक्षिणा त्रिक स्वयं करने से अनन्त गुणा लाभ मिलता है। प्रदक्षिणा के दोहे
प्रदक्षिणा देने की विधि काल अनादि अनंतथी, भव भ्रमण नो नहि पार,
मूलनायक प्रभुजी की दाहिनी ते भव भ्रमण निवारवा, प्रदक्षिणा दऊंत्रण वार . १
ओर से (प्रदक्षिणा देनेवाले की भमती मां भमता थकां, भव भावठ दूर पलाय,
बांई ओर से) ईर्यासमिति के दर्शन ज्ञान चारित्र रूप, प्रदक्षिणा त्रण देवाय .२
पालन पूर्वक तीन प्रदक्षिणा
करनी चाहिए। जन्म मरणादि सवि भय टळे, सीझे जो दर्शन काज, रत्नत्रयी प्राप्ति भणी, दर्शन करो जिनराज .३
हो सके तो मंदिर के पूरे परिसर
की अथवा मूलनायक प्रभुजी ज्ञान वर्ल्ड संसारमा, ज्ञान परमसुख हेत,
की अथवा त्रिगड़े में बिराजमान ज्ञान विना जग जीवडा, न लहे तत्त्व संकेत . ४
प्रभुजी की प्रदक्षिणा करनी चय ते संचय कर्मनो, रिक्त करे वळी जेह,
चाहिए। चारित्र नियुक्तिए का, वंदो ते गुण गेह .५ . शत्रंजयतीर्थ का दोहा बोलने के बदले 'काल अनादि अनंतथी...' दोहे | दर्शन ज्ञान चारित्र ए, रत्नत्रयी शिवद्वार, तीन प्रदक्षिणा में बोलने चाहिए। त्रण प्रदक्षिणा ते कारणे, भवदुःख भंजनहार .६
दोहा मन्दस्वर में, गम्भीर आवाज में तथा एक लय में 'सम्यग् दर्शनप्रदक्षिणा देने के बाद प्रभुजी सन्मुख
ज्ञान-चारित्र' की प्राप्ति के लिए बोलना चाहिए। मंदस्वर में भाववाही स्तुति बोलनी चाहिए।
प्रदक्षिणा देते समय कपड़े व्यवस्थित करना व इधर-उधर देखना, वह
दोष कहलाता है। पूजा की सामग्री साथ में रखकर ध्यान पूर्वक जयणा का पालन करते हुए प्रदक्षिणा देनी चाहिए। प्रदक्षिणा नहीं देनी, एक ही प्रदक्षिणा देनी, अधूरी प्रदक्षिणा देनी अथवा पूजा करने के बाद प्रदक्षिणा देनी, यह अविधि कहलाती है।
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