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सर्वदुरितौ-घनाशन-कराय, सर-व-दुरि-तौ-घ-नाश-न-करा-य, सर्व प्रकार के भय के समूह को नाश करने वाले सर्वाशिव-प्रशमनाय। सर-वा-शिव प्र-शम-नाय ।
सर्व उपद्रवों का शमन करनेवाले दुष्ट-ग्रह-भूत-पिशाच- दुष्-ट ग्रह-भूत-पिशा-च-
दुष्ट ग्रह भूत, पिशाच औरशाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ शाकि-नी-नाम् प्रम-थ-नाय ॥५॥ शाकिनियों के उत्पात का, संपूर्ण नाश करने वाले ।५. गाथार्थ : सर्व प्रकार के भयों का नाश करनेवाले, सर्व उपद्रवों का शमन करनेवाले, दुष्ट ग्रह, भूत, पिशाच और शाकिनियों के उत्पात का संपूर्णतया नाश करने वाले (ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार हो।) ५. यस्तयेति नाम-मन्त्र- यस्-येति-नाम-मन्-त्र
जो शान्तिनाथजी का पहले कहा हुआ नाम रुपी मंत्र सेप्रधान-वाक्यो-पयोग- प्रधान-वाक्-यो-पयोग
प्रधान वाक्य के उपयोग से संतुष्ट बनी कृत-तोषा। कृत-तोषा।
हुई (स्तुति की हुई) विजया कुरुते जन हित- विजया-कुरुते-जन हित
विजया देवी करें, लोगो का हित मिति च नुता नमत तं- मिति-च-नुता-नमत-तम्- इसलिए (आप) उस शांतिनाथजी को शान्तिम् ॥६॥ शान्-तिम्॥६॥
नमस्कार करो।६. गाथार्थ : जो श्री शान्तिनाथजी के पहले कहे गए नाम रुप मंत्र से सर्वोत्तम (प्रधान) वचन के उपयोग से जिस को संतुष्ठित की गई है तथा (आगे की गाथा में कही जानेवाली विधि अनुसार) स्तुति की हुई श्री विजयादेवी लोगों का कल्याण (हित) करती है। ऐसे श्री शान्तिनाथजी को आप नमस्कार करो । ६. भवतु नमस्ते भगवति !, भवतु-नमस्-ते-भग-वति !, । हो नमस्कार, वह हे भगवति ! विजये सुजये परपरैरजिते। विजये-सुजये-परापर-रजिते।। अच्छी जयवाली और दूसरे देवों से पराजय नहीं
पानेवाली हे विजयादेवी ! अपराजिते ! जगत्यां, अपरा-जिते !-जगत्-याम, इस जगत में कही पर भी पराजय नही पानेवाली जयतीति जयावहे!जय-तीति-जया-वहे!
'आप जय पाती हो !'इस तरह स्तुति करने से स्तुति भवति ॥७॥ भवति ॥७॥
करनेवाले को 'जय' देनेवाली, ऐसी हे विजयादेवी ! ७ गाथार्थ : हे भगवति विजयादेवी ! अच्छी जयवाली (सुजयादेवी), दूसरे देवों से पराभव नहीं पानेवाली (अजिता-देवी) और जगत में पराभव नहीं पानेवाली (अपराजिता देवी)'आप जयवती हो', इस तरह स्तुति करनेवाले को 'जय' देनेवाली, (ऐसी हे देवी!) आपको नमस्कार हो । ७.. सर्वस्यापि च सयस्य, सर्-वस्-यापि-च-सङ्-घस्-य, (चतुर्विध) श्री संघ को भी, भद्र कल्याण मगल-प्रददे। भद्-र-कल्-याण-मङ्-गल-प्रददे। सुख,उपद्रव रहितता और मंगल को देनेवाली, साधूणां च सदाशिव- साधू-नाम् च-सदा-शिव
और साधुओ को सदा के लिए निरुपद्रवतासुतुष्टि-पुष्टि-प्रदे ! जीयाः ॥८॥ सु-तुष्-टि-पुष-टि-प्रदे ! जीयाः॥८॥ चित्त की शांति और धर्म की वृद्धि करनेवाली
हे देवी! आप जयवंता हो!। ८. गाथार्थ : (चतुर्विध) सभी संघ को भी सुख, उपद्रव रहितता और मंगल को देनेवाली ऐसी (हे देवी!) आप जयवती हो। ८. भव्यानां कृत-सिद्धे!भव्-या-नाम्-कृत-सिद्-धे!
भव्य प्राणिओं को सिद्धि देनेवाली, निर्वृत्ति-निर्वाण-जननि !
निर्-वृत्-ति-निर्-वाण-जननि !- चित्त की समाधि, मोक्ष को उत्पन्नसत्त्वानाम् । सत्-त्वा-नाम्।
करनेवाली तथा प्राणिओं को अभय-प्रदान-निरते !, अभय-प्रदान-निरते !,
निर्भयता देने में तत्पर तथा नमोऽस्तु स्वस्ति प्रदे!नमोस्-तु-स्व-स्ति-प्रदे
कल्याण को देनेवाली हे देवी! तुभ्यम् ॥९॥ तुभ्-यम् ॥९॥
आपको नमस्कार हो । ९. गाथार्थ : भव्यप्राणिओं को सिद्धि देनेवाली, चित्त की समाधि और मोक्ष को उत्पन्न करनेवाली, निर्भयता देने में तत्पर तथा कल्याण को देनेवाली हे देवी! आपको नमस्कार हो । ९.
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