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सफा
भक्तानां जन्तूनां, भक्-ता-नाम्-जन्-तू-नाम्,
भक्त जीवों का शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि !। शुभा-वहे ! नित्-य-मुद्-यते ! देवि !। कल्याण करने में नित्य ( हमेंशा ) तत्पर, ऐसी हे दे सम्यग्दष्टीनां धृतिसम्-यग्-दष्-टी-नाम्-धृति
सम्यग्दृष्टि जीवों को धैर्यरति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ॥१०॥ रति-मति-बुद्-धि-प्रदा-नाय ॥१०॥ प्रीति-मित औरबुद्धि देने के लिए(सदातत्पर हो)। गाथर्थ : हे देवी! आप भक्त जीवों का कल्याण करनेवाले, तथा सम्यग्दष्टि जीवों को धीरता, प्रीति, मित और बुद्धि में सदा तत्पर हो । १०. जिन-शासन-निरताना, जिन-शासन-निरता-नाम्,
जिनशासन के प्रति प्रेमवाले शान्ति-नतानां च जगति- शान्-ति-नता-नाम् च-जगति
तथा श्री शान्तिनाथजी को नमन जगतानाम्। जन-ता-नाम्।
करनेवाले जगत के जन समुदायों के श्री सम्पत्कीर्ति-यशोश्री-सम्-पत्-की-ति-यशो
लक्ष्मी, संपत्ति, कीर्ति और यश को वर्द्धनि ! देवि! विजयस्व ॥११॥ वर-द्ध-नि!जय-देवि!-विज-यस्-व-॥११॥ बढानेवाली,हे जयादेवी!आपजयपाओ। गाथार्थ : जिनशासन के प्रति प्रेमवाले तथा श्री शान्तिनाथजी को नमस्कार करनेवाले ऐसे जगत के जन समुदायों के ला संपत्ति, कीर्ति और यश को बढानेवाली हे जयादेवी ! आप जय पाओ ! ११. सलिला-नल-विष-विषधर- सलिला-नल-विष-विषधर- जल, अग्नि, विष, सर्पदुष्ट-ग्रह-राजरोग-रण-भयतः। दुष्-ट-ग्रह-राज-रोग-रण-भयतः। दुष्ट ग्रह, दुष्ट राजा, रोग, रण (युद्ध ) के भय सेराक्षस-रिपु-गण-मारी- राक्-षस-रिपु-गण-मारी- राक्षस,शत्रुओ का समुह-मरकीचौरेति-श्वापदा-दिभ्यः ॥१२॥ चौरे-ति श्वा-पदा-दिभ्-यः ॥१२॥ चोर, सात ईतिओ और जंगली प्राणीओ के भय से १ गाथार्थ : जल, अग्नि, विष, सर्प, दुषित (दुष्ट) ग्रह, उपद्रवी (दुष्ट) राजा, दुष्ट रोग, युद्ध के भय से, राक्षस, शत्रुओं समुह, मारी-मरकी, चोर, सात ईतिओं (१. अतिवृष्टि, २. अनावृष्टि, ३. चुहे, ४. तीड़, ५. तोता (पोपट), ६. स्वचक्र (अ सैन्य ) के भय से और ७. परचक्र ( दूसरे राजा के सैन्य ) के भय से और जंगली प्राणीओं के भय से...) १२. अथ रक्ष रक्ष अथ-रक्-ष-रक्-ष
उन सब से अब रक्षण करो, और अतिशय सुशिवं, सुशि-वम्,
निरुपद्रवता निरंतर करो, कुरु कुरुशान्तिंच कुरु कुरु-सदेति। कुरु-कुरु-शान्-तिम् च कुरु-कुरु-सदेति। शान्ति करो,शान्ति करो,इस तरह नित्य करोतुष्टिं कुरु कु पुष्टिं,
तुष्-टिम्-कुरु-कुरु-पुष्-टिम्, संतुष्टि करो, पुष्टि करो, कुरु-कुरु स्वस्ति च कुरु- कुरु-कुरु-स्व-स्-तिम् च कुरु- करो-करो कल्याण, करो-करो कुरु त्वम् ॥१३॥ कुरु-त्वम् ॥१३॥
हे देवी ! १३. गाथार्थ : हे देवी ! अब आप उन सभी से मेरा रक्षण करो-रक्षण करो, अतिशय-निरुपद्रवता करो-करो, संतुष्टि करो, पुष्टि और कल्याण करो-करो, इस तरह नित्य करते रहो-करते रहो।१३. भगवति! गुणवति!-शिवशान्ति- भग-वति!गुण-वति! शिव-शान्-ति- हेगुणसंपन्न भगवतिदेवी,आपकल्याण-शान्तितुष्टि-पुष्टि-स्वस्तीहतुष्-टि-पुष्-टि-स्व-स्तीह
संतुष्टि-पुष्टि-कुशलता ! कुरु कुरु-जनानाम्। कुरु-कुरु-जना-नाम्।
इस जगत के मनुष्यों को अनवरत करो... ओमिति नमो नमः हा ही- ओमि-ति-नमो-नमः हाम्-ह्रीम्- ॐ रुप ज्योति स्वरुपिणी हे देवी ! हा-हीहु हः यः क्षः ही फुट फुट्- ह-रुम्-ह-र:-यः क्षः ह्-रीम्- हूँ हूँः यः क्षः ही मंत्राक्षरों (फट्-फट् स्वाहा ॥१४॥ फुट-फुट (फट-फट) स्वा-हा ॥१४॥ सहित आपको सदा नमस्कार हो-नमस्कार हो। गाथार्थ : हे गुणसंपन्न भगवति देवी ! आप यहाँ जगत के मनुष्यों को निरुपद्रवता, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और कल्याण-कुश करनेवाली बनो-बनो । ॐ रुप ज्योति स्वरुपिणी देवी ! हाँ, ही आदि मंत्राक्षरों ('हाँ, ही हुँ हः यः क्षः हीं - ये सात मंत्राक्षर
के बीज रुप हैं और 'फट् फट् स्वाहा' = यह विघ्ननाशक बीज मंत्र है। ) सहित आपको सदा नमस्कार हो-नमस्कार हो ।१६ १९८
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