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________________ श्री सङ्घ- जगज्जनपद श्री - सङ्घ- जगज्-जन-पद श्री संघ, जगत, देश, राजा-महाराजा, , उनके निवास स्थान राजाधिप-राज-सन्निवेशानाम् । राजा-धिप-राज- सन् -नि-वेशा-नाम् । गोष्- ठिक-पुर-मुख्याणाम्, व्याह-रणैर्-व्या-हरे धर्मसभा के सदस्य, नगर के मुख्य नागरिकों के नाम ग्रहण करके उद्घोषणा करनी चाहिएशान्ति की । १५. च्छान्तिम् ॥ १५ ॥ च्-छान्-तिम् ॥ १५ ॥ अर्थ : श्री सङ्घ, जगत के जनपद, महाराजा और राजाओं के निवास-स्थान, धर्मसभा के सदस्य तथा अग्रगण्य नागरिकों के नाम लेकर शान्ति बोलनी चाहिये । १५. गोष्ठिक - पुरमुख्याणां, व्याहरणैर्व्याहरे श्री श्रमणसङ्घस्यशान्तिर्भवतु । श्री जनपदानांशान्तिर्भवतु । श्री राजाधिपानांशान्तिर्भवतु । श्री राजसन्निवेशानांशान्तिर्भवतु । श्री गोष्ठिकानांशान्तिर्भवतु । श्री पौरमुख्याणां - शान्तिर्भवतु । श्री पौरजनस्यशान्तिर्भवतु । श्री ब्रह्मलोकस्यशान्तिर्भवतु । ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ १६ ॥ एषा शान्तिः प्रतिष्ठा - यात्रा स्नात्राद्यवसानेषु - शान्ति-कलशं गृहीत्वा श्री - श्रम-ण- सङ्घस्-यशान्-तिर्भवतु । श्री-जन-पदा-नाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री- राजा-धिपानाम्शान्-तिर्भवतु । श्री-राज- सन् नि वेशा-नाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री-गोष्- ठिका-नाम्शान्-तिर्भवतु । श्री पौर-मुख्याणाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री- पौर-जनस्यशान्-तिर्-भ-वतु । श्री ब्रह-म लोकस्-यशान्-तिर्भवतु । ओम् स्वाहा ओम् स्वा-हा ओम् श्री पार्श्व ना-थाय स्वाहा ॥१६॥ कुङ्कुम-चन्दन कर्पूरागरु-धूपवास- कुसुमाञ्जलि समेत:स्नात्र - चतुष्किकायांश्रीसङ्गसमेतः, शुचि - शुचि - वपुः पुष्प - वस्त्र-चन्दना भरणालङ्कृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा - शान्ति मुद्घोषयित्वा - शान्ति - पानीयं Jain Education International श्री श्रमण संघ के लिए शान्ति हों । श्री जनपदों (देशों) के लिए शान्ति हों । श्री महाराजाओं के लिए शान्ति हों । श्री राजाओं के निवास स्थानो के लिए शान्ति हो । श्री राजाओं शान्ति हों । के निवासस्थानों के लिये शान्ति हो । श्री गोष्ठिकों के- धर्मसभा के सदस्यों श्री धर्मसभा के सदस्यों के लिए शान्ति हों । श्री अग्रगण्य नागरिको के लिए शान्ति हों । श्री नगरजनो के लिए शान्ति हों । श्री समस्त जीवलोक के लिए शान्ति हों । ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा ॐ श्री पार्श्वनाथ भगवंत को स्वाहा । १६. एषा शान्-तिः प्रतिष् ठा - यात्-रास्ना-त्रा-द्य (द्य ) -वसा - नेषु शान्-ति-कलशम् गृहीत्वा कुङ् - कुम- चन्- दनकर्पूरा-गरु-धूप वास- कुसुमाञ्- (मान्) -जलि - समे-त: स्नात्र चतुष् कि कायाम् श्री सङ्घ-समे-तः, शुचि - शुचि - वपुः पुष्-प-वस्-त्र-चन्-दनाभरणा लङ्कृतः पुष्प मालाम् कण्ठे कृत्-वा शान् ति मुद् घोष-यि-त्वा शान्-ति-पानी-यम् अर्थ : श्री श्रमणसङ्घ के लिये शान्ति हो । श्री जनपदों (देशों) के लिये शान्ति हो । श्री राजाधिपों ( महाराजाओं) के लिये For Private Persone Use Only के लिये शान्ति हो । श्री अग्रगण्य नागरिकों के लिये शान्ति हो । श्री नगरजनों के लिये शान्ति हो । श्री ब्रह्मलोक के लिये शान्ति हो । ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा, ॐ श्री पार्श्वनाथ भगवंत को स्वाहा । १६. यह शान्ति पाठ प्रतिष्ठा, यात्रा, स्नात्र आदि के अंत में शान्ति कलश को ग्रहण करकेकेशर, चन्दन, मस्तके दातव्यमिति ॥ १७ ॥ मस्तके दातव् य-मिति ॥ १७ ॥ अर्थ : यह शान्तिपाठ, जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा, रथयात्रा और स्नात्र आदि महोत्सव के अन्त में (बोलना, इसकी विधि इस प्रकार है कि) केसर - चन्दन, कपूर, अगर का धूप, वास (क्षेप) और कुसुमाञ्जलि में विविध रंगों के पुष्प रखकर, बाँये हाथ में शान्तिकलश ग्रहण करके ( तथा उस पर दाँया हाथ ढककर) श्री संघ के साथ स्नात्र मण्डप में खड़े होकर, बाह्य अभ्यन्तर मल से रहित तथा श्वेत वस्त्र, चन्दन और आभरणों से अलङ्कृत होना चाहिये । फूलों का हार गले में धारण करके शान्ति की उद्घोषणा करें और उद्घोषणा के पश्चात् शान्ति-कलश का जल, (अपने तथा अन्य के ) मस्तक पर लगाना चाहिये । १७. कपूर, अगर का धूप, वास (क्षेप), कुसुमांजलि सहित, स्नात्र मण्डप में श्री संघ के साथ अंदर बहार के मल से रहित पवित्र शरीरवाला श्वेतवस्त्र, चन्दन, पुष्प, अलंकारों से सुशोभित पुष्प माला कण्ठ में धारण करकेशान्ति की उद्घोषणा करके शान्ति कलश का जल (अपने व दूसरों के) मस्तक पर लगाना चाहिये । १७. २७१ www.jainelibrary.org 412440
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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