SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इलाइपुत्तो (३४ ) इलाचीपुत्र : इलावर्धन नगर के शेठधारिणी के पुत्र । वैराग्य वासित देखकर पिता ने नीच मित्रों की संगत कराने से लंखीकार नट की पुत्री पर मोहित हुआ । नट ने नाट्यकला में प्रवीण होकर राजा को रिझाने की शर्त रखी। जिससे उसकी नाट्यकला सीखकर बेनातट के महीपाल राजा के पास नटकला दिखलाया । अद्भुत खेल करते हुए नटी के मोह में पड़कर राजा बारम्बार खेल कराता है । तब परस्त्री लंपटता तथा विषयवासना पर वैराग्य आया। तभी अत्यंत निर्विकार भाव से गोचरी वहोरते हुए साधु को देखकर भक्तिभाव जाग्रत हुआ तथा | क्षपकश्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त किया। बाहुमणी Jain Education International ( ३६ ) बाहुमुनि : | जिसका मूल नाम युगबाहु था । वह पाटलिपुत्र के विक्रमबाहु राजा मदनरेखा रानी के पुत्र । पूर्वभव की ज्ञानपंचमी की आराधना के पुण्यबल से सरस्वती देवी तथा विद्याधरों की कृपा प्राप्त होने | पर अनेक विद्याएँ प्राप्त कर तथा चार प्रश्नों का प्रत्युत्तर देने की प्रतिज्ञा पूतली के पास कराई । अनंगसुंदरी के साथ विवाह किया । अंत में चारित्र ग्रहण कर ज्ञानपंचमी की आराधना कर केवली बने । भाविकों पर उपकार कर मोक्ष में पधारें । अज्जरक्खिअ CLAS (३५) चिलातीपुत्र : विवाह पुणे राजगृही में चिलाती दासी के पुत्र । धन सार्थवाह के यहा नौकरी करते थे । परन्तु अपलक्षण देखकर निकाल दिए जाने के कारण जंगल में चोरों का सरदार बना। 'धन तुम्हारा, श्रेष्ठिपुत्री सुसीमा मेरी' ऐसा करार कर चोरों को साथ लेकर धावा बोला और सबकुछ उठाकर ले चला। शोरगुल होने पर राजा के सैनिकों ने पीछा किया । अतः धन का पोटला छोड़कर तथा सुसीमा का मस्तक | काटकर उसका शरीर वहीं छोड़कर भागा। रास्ते में मुनिराज के मिलते ही तलवार की नोंक पर धर्म पूछा 'उपशम-विवेकसंवर' तीन पद देकर चारणलब्धि से साधुमहाराज वहाँ से उड़ गए। चिलातीपुत्र तीन पदों का ध्यान करते हुए, वहीं शुभ ध्यान में मग्न हो गया । रक्त की सुगंध से वहाँ आई हुई चीटिंयों | का उपद्रव ढ़ाई दिनों तक सहन कर स्वर्गवासी हुए । अज्जसुहत्थी अज्ज गिरी ( ३७ ) आर्यमहागिरि तथा (३८) आर्यसुहस्तिसूरि : दोनों श्री स्थूलभद्रजी के दसपूर्वी शिष्य थे । आर्य महागिरि ने गच्छ में रहकर जिनकल्प की तुलना की, कड़े से कड़ा चारित्र पालन करते तथा कराते थे। अंत में गजपद तीर्थ में 'अनशन' कर स्वर्ग में गए । आर्य सुहस्तिसूरि ने एक भिक्षुक को दुष्काल के समय में भोजन निमित्तक दीक्षा दी, जो अगले जन्म में संप्रति महाराज हुए तथा अविस्मरणीय शासन प्रभावना की । आचार्यश्री ने भी भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर शासन प्रभावना के विशिष्ट कार्य कर अंत में स्वर्गवासी बनें । (३९) आर्यरक्षितसूरि : ब्राह्मण शास्त्रों में प्रकांड विद्वत्ता प्राप्त कर राजसम्मान प्राप्त किया । परन्तु आत्महितेच्छु माता के द्वारा दृष्टिवाद पढ़ने की प्रेरणा दिए जाने के कारण आचार्य तोसलिपुत्र के पास आकर चारित्र लेकर उनके पास तथा वज्रस्वामिजी के पास साढ़े नौ पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त किया। दशपुर के राजा, पाटलिपुत्र के राजा आदि राजाओं को जैन बनाया। अपने परिवार को भी दीक्षा दिलाकर आराधना में स्थिर किया । जैन श्रुतज्ञान का द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणानुयोग तथा धर्मकथानुयोग, इस प्रकार चार अनुयोगों में विभाजित किया। अंत में स्वर्गवासी हुए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrar
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy