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२१. श्री कल्लाण कंदं सूत्र
आदान नाम : श्री कल्लाणकंदं सूत्र गौण नाम : श्री पंच जिनस्तुति सूत्र
| श्री पांच जिनेश्वरों, पद संपदा :१६
सर्व तीर्थंकरो, गुरु-अक्षर :२३
| श्रुतज्ञान और 'देववंदन-चैत्यवंदन में कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग में
लघु-अक्षर : १५३ पारके बोलते समय की मुद्रा'।
| श्रुतदेवी की स्तुति। सर्व अक्षर : १७६ सुनते समय की मुद्रा। __ छंद का नाम : इन्द्रवज्रा; राग : भोगी यदालोक नतोऽपि योगी...(श्री पार्श्व पंच कल्याणक पूजा श्लोक) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक
पद क्रमानुसारी अर्थ कल्लाण कंदंकल्-लाण-कन्-दम्
कल्याण के मूल समान पढम जिणिदं, पढ-मम् जिणिन्-दम्,
प्रथम जिनेश्वर(श्रीऋषभदेव) को, संतिं तओ नेमिजिणं- सन्-तिम्-तओ नेमि-जिणम्
श्री शांतिनाथ को तथा मुनियों के स्वामी( तीर्थंकर) मुणीदं। मुणीन्-दम्।
श्री नेमिनाथ जिनेश्वर को, पासं पयासं सुगुणिक्क-ठाणं, पासम् पया-सम् सु-गुणिक्-क ठा-णम्, प्रकाश स्वरूप एवं सद्गुणों के स्थान रूप श्री पार्श्वनाथ को, भत्तीइ वंदे भित्-तीइ वन्-दे
श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी को मैं, भक्तिभाव सिरि-वद्धमाणं ॥१॥ सिरि-वद्-ध-माणम् ॥१॥
पूर्वक वंदन करता हूँ। १. गाथार्थ : कल्याण के मूल समान प्रथम जिनेश्वर (श्री ऋषभदेव), श्री शांतिनाथ, मुनियों के स्वामी श्री नेमिनाथ जिनेश्वर, प्रकाश स्वरूप और सद्गुणों के स्थानरूप श्री पार्श्वनाथ एवं श्री महावीर स्वामी को मैं भक्तिभाव पूर्वक वंदन करता हूँ।१.
छंद :-उपजाति; राग "भोगी यदालोकनतोऽपि योगी" (पंचकल्याणक पूजा श्लोक) अपार संसार समुद्दपारं, | अपा-र-सन्-सार-समुद्-द-पारम्, पार बिना के संसार समुद्र के किनारे को प्राप्त किये हुए, पत्ता सिवं दितुपत्-ता सिवम्-दिन्-तु
शास्त्र के सार रूप शिव-सुख सुइक्कसारं। सुइक-क-सा-रम् ।
(मोक्ष) को प्रदान करें, सव्वे जिणिंदा सुरविंद-वंदा, सव-वे-जिणिन्-दा-सुर-विन्-द-वन्-दा, देव समूह से वंदित सर्व जिनेश्वरकल्लाण-वल्लीणकल्-लाण-वल्-लीण
कल्याण रूपी लता के विसाल-कंदा ॥२॥ विसा-ल-कन्-दा ॥२॥
विशाल मूल समान । २. गाथार्थ : पार बिना के संसार समुद्र के किनारे को प्राप्त किये हुए, देव समूह से वंदित और कल्याण रुपी लता के विशाल मूल समान ऐसे सर्व जिनेश्वर शास्त्र के सार रुप शिव (मोक्ष) सुख को प्रदान करें । २. निव्वाण मग्गे वरजाण कप्पं, निव-वाण-मग्-गे वर जाण-कप्-पम्, निर्वाण (मोक्ष) मार्ग में श्रेष्ठ वाहन समान, पणासियासेस-कुवाइ-दप्पं । पणा-सिया-सेस-कुवा-इ-दप्-पम्। कवादियों के अभिमान को पूर्णतया नष्ट करने वाले, मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, मयम्-जिणा-णम् सर-णम् बुहा-णम्, जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित मत को विद्वानों को शरण रूप, नमामि निच्चंनमा-मि-निच-चम्
मैं नित्य नमस्कार करता हूँ तिजगप्पहाणं ॥३॥ ति-ज-ग-प-प-हा-णम् ॥३॥ तीनों लोक में श्रेष्ठ । ३. गाथार्थ : निर्वाण मार्ग में श्रेष्ठ वाहन समान, कुवादियों के अभिमान को पूर्णतया नष्ट करने वाले, विद्वानों के शरण रूप और तीनों लोक में श्रेष्ठ जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित मत को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। ३. कुंर्दिदु-गोक्खीरकुन्-दिन्-दु-गोक्-खीर
मचकुंद पुष्प, चंद्रमा, गाय के दूध और तुसार-वन्ना, तु-सार वन्-ना,
हिम जैसे (श्वेत) वर्ण वाली, सरोजहत्थासरो-ज हत्-था
(एक) हाथ में कमल को धारण करने वाली , कमले निसन्ना। कम-ले निसन्-ना।
कमल पर बैठी हुई, वाए(इ)सिरी पुत्थयवाए (इ)-सिरी-पुत्-थय
वागीश्वरी (सरस्वती) देवी (विद्या देवी)(दूसरे) वग्ग-हत्था, वग्-ग-हत्-था,
हाथ में पुस्तकों के समूह को (धारण करने वाली) सुहाय सा अम्ह सया पसत्था ॥४॥ सुहा-य सा अम्-ह सया-पसत्-था ॥४॥ सुख देनेवाली (हो) वह हमें सदा प्रशंसनीय है। ४. गाथार्थ : मचकुंद पुष्प, चंद्रमा, गाय के दूधऔर हिम जैसे श्वेत वर्णवाली, (एक) हाथों में कमल को धारण करने वाली और कमल पर
बैठी हुई तथा (दूसरे) हाथ में पुस्तकों के समूह को धारण करने वाली, वह प्रशंसनीय सरस्वती देवी हमें सदा सुख देने वाली हो । ४. १३८ Jain Education
हा-णम्, कवादियों के मार्ग में हो
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