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________________ श्री नमस्कार महामंत्र के रहस्य 'प्रणाम' के अद्भुत लाभ समस्त विश्व में (परम =) सर्वश्रेष्ठ स्थान में बिराजमान, जब अरस-परस साधर्मिक (समान धर्म के पालक) बंधओं अतः इच्छित ऐसे पंच परमेष्ठि को किया गया नमस्कार, सर्व मिले, तब 'जय जिनेन्द्र' बोलने की जगह दो हाथ जोडकर पापो का नाश करता है। 'प्रणाम' बोलना चाहिए। श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व सर्वसाधु भगवंत कोई भी उमरवाले अर्थात् छोटे या बडे हो, तो भी 'प्रणाम' स्वरुप परम पावन पंच परमेष्ठि को नमस्कार करने से सर्व । बोलना चाहिए। प्रकार के पापकर्म का नाश होता है और उसके अन्तिम फल 'प्रणाम' बोलने से उस व्यक्ति को ही नमन होता है, ऐसा अति स्वरुप मोक्ष की प्राप्ति होती है। संक्षिप्त अर्थ न करके, उस व्यक्ति में जैनधर्म की प्राप्ति के माध्यम श्री नमस्कार महामंत्र में पूजनीय परमेष्ठि के नामोच्चार से से खिले हुए आत्मिक गुणों (जैसे कि, समता, धीरता, उदारता, पहले 'नमो'शब्द का उल्लेख (निर्देश) पहले किया गया है। सरलता आदि...) को भी 'प्रणाम' होता है। ऐसा अर्थ करें। 'नमो' शब्द विनय, नम्रता, निहंकार द्योतक है। यह गुण •गुणवान साधर्मिक को सच्चे हृदय से 'प्रणाम करने से अपने में आने के बाद ही भावपूर्वक किया हुआ नमस्कार सर्व पापों वह गुण प्रगट होता है। का नाश करता है। •जिसको 'प्रणाम' किया हो, उसके साथ कलह-क्रोध आदि • इसलिए जैन धर्म में विनयगुण को अतिमहत्त्व का स्थान अपने आप बन्ध हो जाता है। दिया गया है। । 'प्रणाम' से अहंकार का त्याग होता है और नम्रता का स्वीकार • श्री नमस्कार महामंत्र के जप से नव निधियाँ और आठ होता है। सिद्धिया भी प्राप्त होती है। 'प्रणाम' करने से विनय'नाम केअभ्यंतर तपकी आराधना होती है। • यह महामंत्र स्वयं ही सिद्ध होने से उसे सिद्ध मंत्र भी कहते हैं। 'प्रणाम' करने से दूसरों के दोष देखने का त्याग और गुणों के यह महामंत्र आत्म स्वरुप की प्राप्ति हेतु क्रमशः साधु- प्रति अनुराग पेदा होता है। उपाध्याय-आचार्य व सिद्ध पद देने में समर्थ बनता है और 'प्रणाम' करने से संसारवर्धक मिथ्यात्व का त्याग और विशिष्ट पुण्यशाली भव्यात्मा को अरिहंत पद भी देता है। संसारमोचक सम्यकत्व का लाभ होता है। • यह महामंत्र में आकार संपन्न व्यक्ति की नहीं, मगर निराकार.'प्रणाम करने से एक-दूसरे के प्रति बंधी हुई कटुता-शत्रुता का गुणों की स्तवना है। त्याग होता है। • यह महामंत्र चौदह पूर्व का सार और पंचमंगल महाश्रुत 'प्रणाम' करने से एक-दुसरे के प्रति मित्रता-सहकारिता व स्कन्ध के नाम से विख्यात है। सौहार्दता बढ़ती है। • यह महामंत्र अनादि-अनंत स्वरुप शाश्वत व त्रिकाल, 'प्रणाम' करने से अक्कड़ता व जड़ता का त्याग अपनेआप हो त्रिलोक स्थायी मंत्र है। जाता है। • इस महामंत्र के नव लाख जाप से नरक गमन का निवारण प्रणाम' से अभिमान का त्याग होते ही पशुयोनि स्वरुप दुर्गति और विघ्न प्रणाशन होता है। के द्वार बन्ध हो जाते हैं। इस महामंत्र के नौ करोड जाप से प्रायः ८ या ९ भव में 'प्रणाम से लोगों में प्रियपात्र बनने के साथ प्रशंसापात्र भी बनते हैं। मुक्तिपुरी में वास प्राप्त होता है। 'प्रणाम' से अहंकारी भी नम्र बन जाता है और आत्महितवचन इस महामंत्र १००८ विद्याओं व देवों से अधिष्ठित कहा गया ग्राह्य बनते हैं। 'प्रणाम' शब्द प्रेम, करुणा, मुदृता, कोमलता व गुणानुरागका • इस महामंत्र के ६८ अक्षर का भावपूर्वक स्मरण ६८ वाचक हैं। तीर्थयात्रा का फल देता है। .'प्रणाम'शब्द के उच्चार से अंतर में पडे हए क्लिष्ट कर्म भी नाश इस महामंत्र के एक अक्षर से सात, एक पद से ५० और पूर्ण होते हैं। मंत्र से ५०० सागरोपम के नरकगति के अति दुःखदायी.'प्रणाम' शब्द विनय गुण द्योतक है, सभी प्रकार की ऋद्धि, पापो का नाश होता है। सिद्धियों की प्राप्ति विनय से होती है। इस महामंत्र में रहे हुए शिर्फ 'न' अक्षर का उच्चार करने में 'प्रणाम' शब्द आठों कर्मो को नाश करने में अमोघ शस्त्र समान है। वही सफल बनता है, जो सभी कर्मों की स्थिति एक कोटा 'प्रणाम' शब्द आधि- व्याधि - उपाधि को शान्त करके परम कोटी सागरोपम से न्युन बना देता है, अर्थात् जो ग्रन्थि प्रदेश समाधि देता है। पर आती है, वह आत्मा समर्थ बनती है। 'प्रणाम' बोलते समय मुख-शुद्ध होना चाहिए और जुत्ते आदि द्रव्य नमस्कार : दो हाथ जोडकर मस्तक को झुकाकर शरीर का त्याग करना और दो हाथ जोडकर मस्तक को विनम्रता से को संकुचित करना। जुकाना जरुरी है। भाव नमस्कार : संसार वर्धक वर्तन-व्यवहार-उच्चार-विचार •भाव अरिहंत प्रभु समवसरण में सिंहासन पर बैठने से पहले से अपने आप को मोडना और जिनाज्ञा अनुसार जीवन अवश्यमेव 'नमो तित्थस्स' बोलकर कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हैं। बनाना। भाव नमस्कार भक्त को भगवान बनाता है। जैन धर्म सिवाय के अनुयायी (अजैन) को 'जय जिनेन्द्र' रोज कम से कम महामंत्र की एक पूर्ण माला अवश्य गिननी उपरोक्त सर्व प्रकार की शुद्धि के साथ बहुमानभाव पूर्वक चाहिए। प्रभुजी को लक्ष्य में रखकर बोलना चाहिए। For Private & Personal Use Only 1.6g९ है। Jain Education International
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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