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________________ अशुद्ध पंच-महव्वय-धारा, पञ् (पन्)-च महव-वय-धारा, पाँच महाव्रतों को धारण करने वाले, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग-धारा । अट्-ठा-रस-सहस्-स सी-लङ्-ग-धारा । अट्ठारह हजार शील के अंगों को धारण करने वाले, अक्खुया-यार-चरित्ता, अक्-खुया-यार-चरित्-ता, अखंड आचाररुप चारित्र को धारण करने वाले. ते सव्वे सिरसा मणसा- ते सव-वे सिरसा मण-सा उन सब को मैं शिर,मन मत्थएण वंदामि ॥२॥ मत्-थ एण वन्-दामि ॥२॥ और मस्तक द्वारा वंदन करता हूँ। २. गाथार्थ : पाँच महाव्रतों को धारण करने वाले, अट्ठारह हजार शील के अंगों को धारण करने वाले, अखंड़ आचार रुप चारित्र को धारण करने वाले हैं, उन सबको शिर, मन और मस्तक से वंदन कर उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध यह सूत्र बोलते-सुनते समय करने योग्य उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार शुभ मानसिक संकल्प अढाइ जेसु अड्राइज्जेसु ढ़ाईद्वीप में स्थित मानवभव को सार्थक करनेवाले पूज्य महात्माओं का पनरसु ध्यान करे । उनके आत्मगण वैभव को पहचानने के लिए बाह्य-अभ्यन्तर पनरससु पडिगहधारा पडिग्गहधारा स्वरूप का निरीक्षण करे । उसमें रजोहरण का ध्यान करते हुए 'जीवनरक्षा पंचमहावयधारा पंचमहव्वयधारा हेतु प्रमार्जना से रजकण को दूर करने के साथ-साथ अनादिकाल से आत्मा अठार सहस अट्ठार ससहस्स के ऊपर लगे हुए कर्म रूपी रजकण को दूर करनेवाले महात्माओं की अक्खयायारचरित्ता - अक्खुयायारचरित्ता कल्पना करे । काष्ठ (लकड़ी) के पात्र के ऊपर नीचे ऊन का टुकड़ा रखते मथेण वंदामि । मत्थएण वंदामि हुए विशिष्ट जयणा का पालन करते हुए (गुच्छक धारण करनेवाले )। तथा |जिनेश्वरों के द्वारा बतलाए हुए ४२ दोष रहित आहार की करावण-अनुमोदन = ) x ३ करण =९x ४ (आहार, भय, गवेषणा करते समय, उस आहार-पानी को धारण करने में मैथुन और परिग्रह) संज्ञा = ३६ x ५ इन्द्रिया( स्पर्शनेन्द्रिय, समर्थ काष्ठ के पात्र से सुशोभित । तथा गोचरी ग्रहण करते रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय) = १८० हुए कर्म निर्जरा को साधते हुए अहिंसा, जूठ, चोरी, मैथुन- १० पृथ्वीकायादि (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, परिग्रह से सर्वथा विराम पाने के लिए पाँच महाव्रतों को वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, धारण करते हुए । तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, पंचेन्द्रिय तथा अजीव) = १८०० x १० यतिधर्म (= क्षमा, तपाचार तथा वीर्याचार रूप पंचाचार का सुविशुद्ध रूप से नम्रता, सरलता, मुक्ति (संतोष), तप, संयम, सत्य, शौच, पालन करने के साथ-साथ शुद्ध निर्विकार (विकार रहित) अकिंचन तथा ब्रह्मचर्य) = १८०००( अठारह हजार) शील हृदय वृत्ति को अखंडित धारण करनेवाले महात्माओं को के अंग को धारण करनेवाले पू. महात्माओं को मन से तथा वन्दन करें। तथा (मन-वचन-काया=)३ योग... (करण- मस्तक से भावपूर्वक वंदना करनी चाहिए। १९५ Jain Foucatio n al or Pate & F
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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