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हो तथा असमाधि होने की सम्भावना हो तब तिविहार का पच्चक्खाण करनेवाले महानुभाव लोटा-गलास या जग लोटा-गलास या जग भरकर पानी गटगटा जाने के बदले औषध के रूप में कम से कम, कम बार तथा कम से कम मात्रा में, गला भीग जाए, इतना ही दुःखी मन से पीना चाहिए।
तिविहार पच्चक्खाण करने में असमर्थ फिर भी उस दिशा में आगे बढ़ने की पूर्ण भावना वाले महानुभाव यदि किसी असाध्य रोग के कारण औषध लिए बिना रात्रि में समाधि टिकाए रखना यदि असम्भव हो तथा गुरुभगवंत के पास उससे सम्बन्धित निर्बलता तथा असमाधि होने के कारणों का निवेदन कर सम्मति ले ली हो, तो रात्रिभोजन त्याग की भावना वाले आराधकों को सूर्यास्त से पहले दुविहार का पच्चक्खाण दिया जाता है। उसमें जितना सम्भव हो उतना टालने का प्रयत्न करे, फिर भी यदि लेना ही पड़े, ऐसे संजोग उपस्थित हो जाएं तो सूर्यास्त के बाद औषध तथा पानी लिया जा सकता है।
सूर्यास्त के बाद भोजन करनेवाले को चडविहार तिविहार- दुविहार का पच्चक्खाण नहीं करना चाहिए। उन्हें गुरुभगवंत के पास जाकर 'धारणा अभिग्रह पच्चक्खाण' (भोजन के बाद कुछ भी नहीं खाने का नियम) लेना चाहिए । उन्हें रात्रिभोजन का दोष लगता है, इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए ।
पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत दीक्षाग्रहण करते हैं, तब से जब तक जीते हैं, तब तक चाहे कैसा भी शारीरिक-मानसिक आदि संजोग उपस्थित हो तो भी कभी भी रात्रि में चारों प्रकार के आहार में से कोई भी आहार ग्रहण नहीं करते हैं। जीवन पर्यंत रात्रिभोजन त्याग रुप छठे व्रत का पालन करते हैं।
पू. गुरुभगवंत पच्चक्खाण दें, तो एक या दो बार खाने की छूट आदि का पच्चक्खाण नहीं देते है । परन्तु एकासणा पच्चक्खाण में एक बार के अतिरिक्त अन्य समय के भोजन के त्याग का पच्चकखाण देते हैं। इसके अनुसार सारे पच्चक्खाणों में समझ लेना चाहिए।
नवकारशी का पच्चक्खाण करनेवाले किन्हीं संजोगों में ‘पोरिसी' अथवा 'साढपोरिसि' तक कुछ भी खाए पीए बिना रहे तथा आगे का पच्चक्खाण न करे तो उसे मात्र नवकारशी का ही लाभ मिलता है। शायद समय अधिक होने पर ध्यान आए तथा आगे का पच्चक्खाण करे तो उस पच्चक्खाण का लाभ मिलता है। परन्तु सूर्योदय से पहले लिए गए पच्चक्खाण जितना लाभ नहीं मिल सकता है।
आयंबिल -एकासणा अथवा बियासणा का पच्चक्खाण किया हो तथा उपवास करने की भावना जगे, तो यदि पानी नहीं पीया हो तो तथा उपवास का पच्चक्खाण करे, तभी उपवास का लाभ मिलता है। उसी
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प्रकार एकासणा का पच्चक्खाण लेने के बाद आयंबिल की रूक्ष नीवि करने की भावना जागे तो नीवि करने की भावना जागे तो कुछ भी खाए पीए बिना यदि पच्चक्खाण लिया हो तभी पच्चक्खाण का लाभ मिल सकता है। शायद प्रथम बियासणा करने के बाद दूसरा बियासणा करने की भावना न हो तो तिविहार का पच्चक्खाण किया जा सकता है। अन्य पच्चक्खाणों में पानी पीया गया हो तथा उससे विशेष तप करने की भावना जागे तो 'धारणा अभिग्रह पच्चक्खाण किया जा सकता है।
लिए गए पच्चक्खाण की अपेक्षा से विशेष पच्चक्खाण किया जा सकता है, परन्तु प्राणान्त कष्ट आए तो भी उससे कम नहीं करने का ध्यान रखना चाहिए ।
तिविहार या चडविहार उपवास के पच्चक्खाण एक से अधिक एक साथ ( यथाशक्ति ) लेने से विशेष लाभ मिलता है। एक साथ १६ उपवास का पच्चक्खाण लिया जा सकता है।
जैनधर्म की प्राप्ति के कारण जीवन में कभी आचरण करने की सम्भावना न हो, ऐसे अनाचारों का पच्चक्खाण करने से उन पापों से बचा जा सकता है। जीवन के दौरान कभी भी उन पापों का सेवन न करते हुए पच्चक्खाण न करने के कारण उन पापों के विपाकों की भयंकरता सहन करनी पड़ती है।
त्याग करने योग्य अनाचार सात व्यसन = मांस, मदिरा, जुआ, परस्त्री (परपुरुष) सेवन, चोरी, शिकार तथा वेश्यागमन, चार महाविगड़ - मधु (Honey), मदिरा (शराब), मक्खन (Butter ) तथा मांस ( Mutton), तैरना, घुड़सवारी, उड़नखटोला, सर्कस, प्राणी संग्रहालय (200) देखने जाना, पंचेन्द्रिय जीवों का वध, आईस्क्रीम, ठंडा पेय (Cold Drinks), परदेशगमन आदि अनाचारों में से जितना सम्भव हो, उतनी वस्तुओं का 'धारणा अभिग्रह' पच्चक्खाण देव-गुरु- आत्मसाक्षी में करने से उन पापों से बचा जा सकता है। सम्भव हो तो श्रावक-श्राविकागण सम्यक्त्वमूल १२ व्रत ग्रहण करना चाहिए ।
दिन और रात सम्बन्धी प्रतिदिन उपभोग में आनेवाली वस्तुओं आदि का भी नवकारशी तथा चउविहार पच्चक्खाण लेते समय परिमाण करके 'देशावगासिक' का पच्चक्खाण करना चाहिए। देशावगासिक पच्चक्खाण में १४ नियमों की धारणा करने से उसके अतिरिक्त संसार की सभी वस्तुओं के पाप से बचा जा सकता है। प्रातः काल धारणा किए गए १४ नियमों तथा सूर्यास्त के समय रात्रि से सम्बन्धित नियम ग्रहण करने होते हैं। रात्रि के नियमों को प्रातःकाल संकलित कर नए नियम लेने होते हैं। परन्तु वे सामायिक अथवा पौषध में नहीं संकलित किये जा सकते हैं और धारण भी नही कर सकते हैं।
देवसिअ तथा राइअ प्रतिक्रमण के साथ-साथ पूरे दिन आठ सामायिक करने से देशावगासिक व्रत का पालन होता है। मानवभव में ही जहाँ तक सम्भव हो सर्वसंग त्याग स्वरूप सर्वविरतिधर्म को (संयम को) प्राप्त करने के लक्ष्य के साथ-साथ यथाशक्ति व्रतनियम-पच्चक्खाण करना चाहिए ।
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