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शाम के पच्चक्खाण पाणाहार
उसके बादखमासमण देने के बाद प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न आनन्द को पाणहारदिवसचरिम, पच्चक्खाइ,(पच्चक्खामि) व्यक्त करने के लिए स्तति बोलनी चाहिए। जैसे- आव्यो शरणे तमारा. अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, भवोभव तम चरणोनी सेवा...,जिने-भक्तिजिने भक्ति...,अद्य मे सफल सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं,वोसिड(वोसिरामि)।
जन्म..., पाताले यानि बिम्बानि..., अन्यथा शरणं नास्ति... अन्त में चउविहार-तिविहार-दुविहार
उपसर्गाः क्षयं यान्ति तथा सर्व मंगल मांगल्यं बोलना चाहिए।) दिवसचरिमं पच्चक्खाइ, (पच्चक्खामि),
अन्त में जमीन पर घुटनों को रखकर दाहिने हाथ की हथेली की मुट्ठी चउव्विहंपि, तिविहंपि, दुविहंपि आहारं, असणं,
बनाकर "प्रभुभक्ति करते हुए यदि कोई भी अविधि-अशातना हुई हो, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि
उन सब के लिए मैं मन-वचन-कायासे मिच्छामि दुक्कडंमांगता हूँ,"ऐसा वत्तियागारेणं, वोसिरह (वोसिरामि)।
अवश्य बोलना चाहिए। (पच्चखाण करनेवाले को 'पच्चक्खामि व
चैत्यवन्दन पूर्ण होने के बाद पाटला पर रखी हुई सारी सामग्री तथा वोसिरामि'अवश्य बोलना चाहिए)
पाटला को योग्य स्थान परस्वयं व्यवस्थित रख देना चाहिए।
प्रभुजी को बधाने की विधि चैत्यवन्दन स्वरूप भावपूजा की समाप्ति होने के बाद सोना-चांदीहीरा-माणेक-मोती आदि से प्रभुजी को दोनों हाथों को बधाया जाता है। बधाने के लिए उपरोक्त महगी सामग्री लाना सम्भव न हो तो चांदी अथवा सोने के रंग का वरख चढाए हुए कमल के आकार के फूल तथा सच्चे मोती व चावल से बधाया जा सकता है। स्वस्तिक आदि के चावल में से (पाटला पर से) चावल लेकर नहीं
बधाया जा सकता है। • दोनों हाथों में बधाने योग्य सामग्री लेकर बोलने योग्य भाववाही दोहे: "श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा के गीत". "उत्सव रंग वधामणां, प्रभु पार्श्वने नामे ॥ कल्याण उत्सव कियो, चढ़ते परिणामे, शत वर्षायु जीवीने अक्षय सुख स्वामी ।। तुम पद सेवा भक्ति मां, नवि राखं खामी, साची भक्ते साहिबा, रीझो एक वेळा ॥ श्री शुभवीर हुवे सदा, मनवांछित मेला" वधाते हुए दोहे बोले ....... तीरथ पद ध्यावो गुण गावो, पंचरंगी रयण मिलावो रे॥ थाल भरी भरी मोतीडे वधावो, गुण अनंत दिल लावो रे॥ भलुं थयु ने अमे प्रभु गुण गाया, रसना नो रस पीधो रे॥
रावण राये नाटक कीधो, अष्टापद गिरि उपर रे॥ इस तरह प्रभुजी को बधाया जाता है।
थैया थैया नाटक करतां, तीर्थंकर पद लीधुं रे॥
मंदिर के बाहर निकलते समय की विधि प्रभुजी के सम्मुख दृष्टि रखकर हृदय में । आंतरिक आनन्द तथा शान्ति के अनुभव को प्रगट करने के लिए अन्य प्रभु का वास कराते हुए, प्रभुजी को अपनी आराधको को अंतराय न हो, इस प्रकार तीन बार घंटनाद करना चाहिए। पीठ नहीं दिखाई पड़े, इस प्रकार आगे-. घंटनाद के बाद बिना पलक झपकाए अनिमेष दृष्टि से प्रभु की निःस्पृह पीछे तथा दोनों ओर भली-भांति ध्यान करुणादृष्टि का अमीपान करते करते अत्यन्त दुःखपूर्वक प्रभु का सान्निध्य रखते हुए पूजा की सामग्री के साथ पीछे छोड़कर पाप से भरे संसार में वापस जाना पड़ रहा हो, इस प्रकार खेद
की ओर चलते हुए प्रवेश द्वार के पास रहे प्रगट करते हुए पीछे पैर रखते हुए प्रवेशद्वार की ओर जाना चाहिए। हए मनोहर घंट के पास आना चाहिए। मौन-धारण, जयणा-पालन, दुःखार्त हृदय आदि का सहजता से अनुभव
प्रभुजी की भक्ति करने से उत्पन्न असीम करते हुए आराधक के नेत्र अश्रुपूर्ण हो जाए, यह भी सम्भव है। १३६
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