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________________ ५७. श्री बृहच्छान्ति सूत्र प्रतिक्रमण के समय जिनमुद्रा में सुनने की मुद्रा। प्रतिक्रमण के समय आदान नाम : श्री भो भो भव्याः सूत्र | विषय : सर्व विघ्न निवारक, योगमुद्रा में बोलने गौण नाम : बडी शांति सूत्र | परम मंगल वाचक, श्री शांतिनाथ की मुद्रा। गाथा : २२ | प्रभु की भाववाही स्तवना। छंद : गाहा-मंदाक्रान्ता, राग-भावावनाम सुरदानव....(संसारदावा सूत्र गाथा-२) मूल सूत्र | उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थं भो भो भव्याः ! शृणुत वचनं- भो भो भव-याः ! श-णुत वच-नम्- हे भव्यजनो ! सुनिये (मेरा) वचनप्रस्तुतं सर्वमेतद्, प्रस्-तुतम् सर-व-मेतद्, प्रासंगिक यह सभी, ये यात्रायां-त्रिभुवन- । ये यात्-रायाम्-त्रि-भुवन जो यात्रा में त्रिभुवन गुरु ऐसे जिनेश्वर की, गुरोराहता-भक्ति-भाजः । गुरो-रार-हता-भक्-ति-भाजः । हे श्रावको ! भक्ति भाव से युक्त (हो)तेषां शान्ति-र्भवतुतेषाम्-शान्-तिर्-भव-तु उन्हों को शान्ति हो, भवता-महदादि-प्रभावा- भ-वता-मर-हदा-दि-प्रभा-वा- अरिहंत आदि पंच परमेष्ठि की प्रभा से दारोग्य-श्री-धृति-मति-करी- दारोग्-य-श्री-धृ-ति-मति-करी- आरोग्य, लक्ष्मी, संतोष, विशिष्ट बुद्धि को करनेवाली, क्लेश-विध्वंस-हेतुः॥१॥ क्ले-श-विधु-वन्-स-हेतुः ॥१॥ सभी कलेश-पीडा का नाश करने में कारणभूत । १. अर्थ : हे हे भव्यजनो! आप सब मेरा यह प्रासङ्गिक वचन सुनिये, जो श्रावक जिनेश्वर की रथयत्रा में भक्तिभाव वाले हैं। उन्हें अर्हद् आदि के प्रभाव से आरोग्य, लक्ष्मी, चित्त की स्वस्थता और बुद्धि को देनेवाले, सब क्लेश-पीडा का नाश करने में कारणभूत, ऐसी शान्ति प्राप्त हो । १. भो भो भव्य लोकाः! भो भो भव-य-लोकाः ! हे भव्यजनो! इह हि भरतैरावत-विदेह- इह हि भर-तै-रा-वत-वि-देह यही ढाई द्वीप में भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में सम्भवानां समस्त-तीर्थकृतां सम्-भ-वा-नाम् समस्-त-तीर-थ-कृताम्- उत्पन्न सर्व तीर्थंकरों के जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर- जन्-म-न्या-सन-प्र-कम्-पा-नन्-तर- जन्म के समय अपना आसन कम्पित होने के कारण मवधिना विज्ञाय, मव-धिना विज्ञा-य, अवधिज्ञान से जानकरसौधर्माधिपतिः, सौ-धर्-मा-धि-ति:-, सौधर्माधिपति नेसुघोषा-घण्टा-चालनानन्तरं, सु-घोषा-घण्-टा-चाल-ना-नन्-तरम्, सुघोषा घण्टा बजवाकरसकल-सुरासुरेन्द्रैःसह समागत्य, सक-ल-सुरा-सुरेन्-द्रैः सह-समा-गत्-य, सभी सुर-असुरों के साथ आकर सविनयमहद्-भट्टारकं- स-विन-य-मर-हद्-भट्-टा-रकम्- विनयपूर्वक श्री अरिहंत भगवंत को गृहीत्वा, गत्वा कनकाद्रि शृङ्गे, गृहीत्-वा, गत्-वा कन-काद्रि-शृङ्-गे, ग्रहण करने के पश्चात् जैसे विहित-जन्माभिषेक:- वि-हित-जन्-मा-भिषे-कः जन्माभिषेक करने के पश्चात् शान्तिमुद्घोषयति, यथा शान्-ति-मुद्-घोष-यति, यथा शान्ति की उद्घोषणा करते है, वैसे ततोऽहं कृतानुततो-हम् कृता-नु मैं भी किये हुए का कारमिति कृत्वाकार-मिति कृत्-वा अनुकरण करना चाहिए, ऐसा मानकर "महाजनो येन गतः स पन्थाः " "महा-जनो येन गतः स पन्-थाः" 'महाजन जिस मार्ग से जाए, वही मार्ग' इति भव्यजनैः सह समेत्य, इति भव-य-जनैः सह समेत्-य-, एसा मानकर भव्यजनों के साथ आकर, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय- स्ना-त्र-पीठे स्ना-त्रम् वि-धाय- स्नात्र पीठ पर स्नात्र करके, शान्ति मुद्घोषयामि, शान्-ति मुद्-घोष-यामि, शान्ति की उद्घोषणा करता हूँ। तत्पूजा-यात्रा-स्नात्रादि- तत्-पूजा-यात्रा-स्ना-त्रादि अतः सभी पूजा-यात्रा स्नात्र आदि महोत्सवा-नन्तरमिति महोत्-सवा-नन्-तर-मिति महोत्सव आदि की पूर्णाहुति कृत्वा कर्णं दत्त्वा कृत्-वा कर-णम् दत्-त्वा करके, कान देकर निशम्यतां निशम्यतां नि-शम्-य-ताम् नि-शम्-य-ताम् सुनिये ! सुनिये ! स्वाहा ॥२॥ स्वा-हा ॥२॥ स्वाहा!२. dalian intematomall www.jainelimary &
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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