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मंगल-भावना मम मंगल-मरिहंता, मम मङ्-गल-मरि-हन्-ता,
मुझे मंगल रूप हो अरिहंत सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ। सिद्-धा साहू सुअम् च धम्-मो अ। सिद्ध, श्रुत और धर्म, साधु, सम्मद्दिट्टि देवा, सम्-मद्-दिट्-ठि देवा,
सम्यग्दृष्टि देव दितु समाहिं च बोहिं च ॥४७॥ दिन्-तु समा-हिम् च बो-हिम् च ॥४७॥ समाधि और बोधि प्रदान करें। ४७. गाथार्थ : १. अरिहंत परमात्मा, २. सिद्ध भगवंतो, ३. साधु भगवंतो, ४. श्रुत (ज्ञान) धर्म और ५. चारित्र धर्म, ये पांचों मेरे लिए मंगलभूत हो तथा सम्यग्दष्टि देवता (मुझ को) समाधि और सम्यकत्व दीजिए। ४७.
प्रतिक्रमण किस लिए करना जरुरी है ? पडिसिद्धाणं करणे, पडि-सिद्-धाणम् करणे,
निषिद्ध कार्य करने से किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं। किच-चाण-म-कर-णे पडिक-कम-णम्। करने योग्य कार्यनकरनेसे, प्रतिक्रमण करना चाहिए असहहणे अतहा, असद-दहणे अ तहा,
और जिन वचन पर अविश्वास करने से । विवरीअ-परूवणाए अ॥४८॥ विव-रीअ-परू-वणा-ए अ॥४८॥ और शास्त्र विरुद्ध विपरीत प्ररूपणा के कारण। ४८. गाथार्थ : १. शास्त्रो में निषिद्ध कार्य किया हो, २. शास्त्रों मे विहित कार्य न किया हो, ३. जिनेश्वर परमात्मा के वचन पर अविश्वास किया हो और ४. शास्त्र विरुद्ध प्ररुपणा की हो, इन चार कारणों से उपार्जित किये गए पापों से पीछे फिरने के लिए प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। ४८.
विकलेन्द्रिय
ATAसार
खामेमिसजीव
तिर्यंच देव. J तिर्यंच
नरक
चउब्दीसजिणविणिग्गयकहाइ
बोलतु मे दिअहा
दिदेवा
समाहित घोहिच
सभी जीवों के साथ क्षमा याचना खामेमि सव्व जीवे, खामे-मि सव-व-जीवे,
। सर्व जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। सव्वे जीवा खमंतु मे। सव-वे जीवा खमन्-तु मे।
सर्व जीव मुझे क्षमा करे, मित्ती मे सव्वभूएसु, मित्-ती मे सव-व-भूए-सु,
सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्री है वेरं मज्झ न केणइ ॥४९॥ वेरम्-मज्-झन केणइ ॥४९॥
मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। ४९. गाथार्थ : सर्व जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। सर्व जीव मुझे क्षमा करे। सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्री है। मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। ४९.
प्रतिक्रमण का उपसंहार और अंतिम मंगल एवमहं आलोइअ, एव-महम्-आलो-इअ,
इस तरह आलोचना, निदिअगरहिअनिन्-दिअ-गर-हिअ
सम्यग् प्रकार से निंदा, गर्हा, दुगंछिअंसम्मं । दुगञ् (गन्)-छिअम्-सम्-मम्।
और दुर्गंछा करके तिविहेण पडिक्कंतो, तिवि-हेण पडिक्-कन्-तो,
तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥५०॥ वन्-दामि जिणे चउव-वीसम् ॥५०॥ वंदन करता है। जिनेश्वरों चौबीस को।५०. गाथार्थ : इस तरह सम्यक् प्रकार से (पापो की) आलोचना, निंदा, गर्दा और अरुचि व्यक्त करके, तीन प्रकार से (मनवचन-काय से) प्रतिक्रमण करते हुए चौबीस जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ।५०.
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