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आलोअणा बहुविहा,
आलो- अणा बहु-विहा,
न य संभरिआ पडिक्कमण-काले । न य सम्-भ रिआ पडिक्-कम् ण काले । मूलगुण- उत्तरगुणे,
आलोचना बहुत प्रकार की है। परन्तु प्रतिक्रमण के समय याद न आई हो ऐसी मूल गुण और उत्तर गुण संबंधी उसकी मैं निंदा और गर्हा करता हूँ । ४२.
मूल-गुण- उत् तर-गुणे,
तम् - निन्-दे तम्-च गरि हामि ॥ ४२ ॥
तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ४२ ॥ गाथार्थ : (प्रतिक्रमण ) आवश्यक के समय पर मूल गुण और उत्तर गुण के प्रति (जो ) अनेक प्रकार की आलोचना याद न आई हो, उसकी मैं निंदा और गर्हा करता हूँ । ४२.
तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स-तस्-स-धम्-मस् स केव-लि- पन् नत्-तस्-स-: उस धर्म की केवली भगवंत द्वारा प्ररूपित अब्-भुट्-ठिओ मि आरा-हणा-ए, विर-ओमि विरा-हणा-ए, तिवि-हेण पडिक्-कन्-तो,
मैं आराधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ, मैं विराधनाओं से विराम पाता हूँ
अब्भुट्टिओमि आराहणाए, विरओमि विराहणाए,
तिविहेण पडिक्कतो,
तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए चोबीस जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ । ४३.
वन्दामि जिणे चउव्वी सम् ॥४३॥
वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥ गाथार्थ : केवली भगवंत द्वारा प्ररूपित उस धर्म की आराधना के लिये मैं तत्पर हूँ और विराधनाओं से मैं निवृत्त होता हूँ । तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए मैं चौबीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ । ४३. ('अब्भुट्टिओमि' बोलते हुए योगमुद्रा में खडे रहना है ।)
सर्व चैत्य वंदना जा-वन्-ति चेड़-आ इम्,
जितने जिन बिंब
उड् ढे अ अहे अ तिरि-अ-लोए अ । सव्-वा-इम्-ताइम् वन्-दे,
उर्ध्व लोक, अधोलोक और तिर्च्छा लोक में उन सबको मैं वंदन करता हूँ । यहां रहा हुआ वहां रही हुई को । ४४.
इह सन्-तो तत्-थ सन्-ता- इम् ॥४४॥
इह संतो तत्थ संताई ॥४४॥ गाथार्थ : ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यग् लोक में जितनी जिन प्रतिमाएं हैं, यहां रहा हुआ मैं, वहां रही हुई उन सब (प्रतिमाओं) को वंदन करता हूँ । ४४.
जावंति चेइआई,
उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाइं ताइं वंदे,
सर्व साधु वंदना
जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ,
जा-वन्-त के वि साहू, भर-हे-रव-य-महा-विदे-हे अ । सव्-वे-सिम् तेसिम् पण-ओ,
तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥ ४५ ॥ तिवि-हेण ति-दण्ड- विर- या - णम् ॥४५ ॥ गाथार्थ : भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में जितने कोई भी साधु तीन प्रकार हूँ। ४५
चिर- संचिय - पावपणासणीड़, भवसयसहस्स-महणीए । चडवीस-जिण - विणिग्गय-कहाइ,
श्रावक किस तरह से दिन व्यतित करने की भावना रखे ? चिर-सञ (सन्) -चिय-पाव-पणा सणीइ, भव-सय-सहस्-स-मह-णीए । चउ-वीस जिण - विणिग्-गय-कहाइ,
जितने कोई भी साधु
भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में उन सबको मैं प्रणाम करता हूँ ।
तीन प्रकार से तीन प्रकार के दंड से निवृत्त । ४५ से, तीन दंड से निवृत्त हैं, उन सबको मैं प्रणाम
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चीरकाल से संचित पाप को नाश करने वाली लाखो भवों का मंथन करने वाली चौबीस जिनेश्वरों के मुख से प्रकाशित धर्म कथाओं से
वोलंतु मे दिअहा ॥४६॥
वोलन्-तु मे दि-अहा ॥४६॥
मेरे दिन व्यतित हों । ४६.
गाथार्थ : चिर काल से संचित पाप नष्ट करने वाली और भव को नष्ट करने वाली चौबीस जिनेश्वरों के मुख से कथित कथाओं से मेरे दिन व्यतीत हो । ४६
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