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मुहपत्ति पडिलेहण के २५ बोल तथा शरीर पडिलेहण के २५ बोल 'कुल ५० बोल का विवेचन तथा विधि से सम्बन्धित मार्गदर्शन प्रसंग पर किया जाएगा। वह इस प्रकार है : 'हास्य, रति, अरति, परिहरु' तथा 'भय, शोक, जुगुप्सा परिहरु' अर्थात् जो हास्यादि षट्क (छह) (चारित्रमोहनीय) कषाय से उत्पन्न होता है, उसका त्याग करने से मेरा चारित्र संपूर्णतया निर्मल हो जाए ।
'कृष्ण लेश्या, नील लेश्या तथा कापोत लेश्या परिहरु' कारण कि इन तीनों लेश्याओं में अशुभ अध्यवसायों की प्रधानता है, और उसका फल आध्यात्मिक पतन है, अतः इनका त्याग करता हूँ ।
'रसगारव, ऋद्धिगारव तथा सातागारव परिहरु' कारण कि उसका फल भी साधना में विक्षेप तथा आध्यात्मिक पतन है, अतः उनका त्याग करता हूँ ।
उसके साथ 'मायाशल्य, नियाणशल्य तथा मिथ्यात्वशल्य परिहरु' कारण कि वह धर्मकरणी के अमूल्य फल का नाश करनेवाला है।
इन सबों का उपसंहार करते हुए मैं ऐसी भावना रखता हूँ कि 'क्रोध, मान, माया तथा लोभ परिहरु' जो अनुक्रम से राग तथा द्वेष स्वरूप हैं । सामायिक की साधना को सफल बनानेवाली जो मैत्रीभावना है, उसका मैं यथाशक्ति प्रयोग में लाकर 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय', इन छह कायों के जीवों की हिंसा से बचूँ, यदि इतना करूँ तो मुँहपत्ति रूपी साधुता का जो प्रतीक मैंने हाथ में लिया है, वह सफल होगा।
वृद्धसंप्रदाय के अनुसार यह 'बोल' मन में ही बोला जाता है और उसके अर्थ का विचार किया जाता है। उसमें 'उपादेय' तथा 'हेय' वस्तुओं का विवेक अत्यन्त विशेष रूप से किया गया है। उदाहरण के लिए प्रवचन, यह तीर्थ होने के कारण प्रथम उसके अंगरूप 'सूत्र की तथा अर्थ की तत्त्व के द्वारा श्रद्धा की जाती है।' अर्थात् सूत्र व अर्थ दोनों को तत्वरूप - सत्यरूप स्वीकार कर उसमें श्रद्धा रखनी चाहिए और उस श्रद्धा में अंतरायरूप सम्यक्त्व मोहनीय आदि कर्म होने के कारण उनके परिहार की भावना की जाती है। मोहनीय कर्म में भी राग का विशेष रूप से परिहार करना चाहिए। उसमें सर्वप्रथम कामराग को, उसके बाद स्नेहराग को तथा अन्त में दृष्टिराग को छोड़ना चाहिए । कारण कि यह राग छूटे बिना सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म का आदर नहीं किया जा सकता है । यहाँ सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म की महत्ता विचारकर उनके आदर की भावना करनी है। जिससे कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म के परिहार करने का दृढ संकल्प करना है। यदि इतना हो जाए तो ज्ञान, दर्शन व चारित्र का आदर करना है । जिसका दूसरा नाम 'सामायकि' है, उसकी साधना यथार्थ हो सकती है।
ऐसी आराधना करने के लिए ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना तथा चारित्र विराधना के परिहार करने की आवश्यकता है । संक्षेप में मनगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति का पालन करने योग्य हैं, अतः उपादेय है तथा मनदंड, वचनदंड व कायदंड परिहार करने योग्य है, अतः हेय है।
इस प्रकार 'उपादेय' तथा 'हेय' से सम्बन्धी भावना करने के बाद जो वस्तुएँ विशेष रूप से त्याग करने योग्य हैं, तथा जिनके लिए प्रयत्न करने की विशेष आवश्यकता है, उनका विचार शरीर की पडिलेहणा के
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मुहपत्ति पडिलेहण करते समय मन में बोलने-विचारने योग्य २५ बोल
गुरुवंदन करनेवाले प्रथम सत्रह संडासापूर्वक खमासमणा देकर तथा गुरु की आज्ञा लेकर मुँहपत्ति पडिलेहण उत्कटिक आसन ( दोनों पैरों के पंजे के सहारे) बैठे। नीचे बैठकर दोनों पैरों के बीच दो हाथ रखना चाहिए। उसमें मुँहपत्ति के २५ बोल ( १ ) दृष्टि पडिलेहणा + (६) उर्ध्व पप्फोडा (पुरिम) + (९) अक्खोडा + (९) पक्खोडा = २५ ( १ ) दृष्टि पडिलेहणा : मुँहपत्ति के परतों को उलटकर दृष्टि विस्तार कर मुँहपत्ति के ऊपर सूक्ष्म दृष्टि से भली-भांति निरीक्षण करें। यदि उसमें कोई जीव जंतु दिखलाई पड़े तो उसे सावधानीपूर्वक योग्य स्थान पर रखें। उसके बाद मन में बोलें अथवा (नीचे बड़े अक्षरों में जो छपे हुए हैं, उन्हें मन में बोलें तथा उसके अर्थ का विचार करें। )
१ सूत्र
(इस समय मुँहपत्ति के एक तरफ की प्रतिलेखना होती है । अर्थात् उसके एक ओर के परत का निरीक्षण भली-भांति करें ।) (२) उसके बाद मुँहपत्ति को दोनों हाथों से पकड़कर ऊपर का भाग बाएँ हाथ पर ( दाहिने हाथ से ) रखकर उसे दूसरी ओर इस तरह उलट देना चाहिए कि पहले बाएँ हाथ में पकड़ा हुआ कोना दाहिने हाथ में आए तथा दूसरा कोना दृष्टि के समक्ष हो जाए। उसके बाद उस तरफ के परत को भी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करें। इस प्रकार मुँहपत्ति के दोनों परतों का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करने को निरीक्षण करने की क्रिया को 'दृष्टि पडिलेहण' मानें। उस समय मन में बोलें । 'अर्थ, तत्त्व करी सद्दहुं.'
सूत्र तथा अर्थ दोनों को तत्त्वरूप अर्थात् सत्य स्वरूप समझता हूँ तथा उसकी प्रतीति कर, उसके ऊपर श्रद्धा करता हूँ। इस समय मुहपत्ति की दूसरी ओर की प्रतिलेखना होती है । अर्थात् मुहपत्ति की दूसरी परत का भली-भांति निरीक्षण किया जाता है।