________________
सत्कार ELP(वस्वालंकारादि से
-पूजन पुष्पादिसे)
MODOG:006
पंदनी
सन्मान (स्तुति आदि मे)
भरिहतचझ्याण
६ निरुपमर्ग (मोक्ष) शुदा
मेवाण-womamimmeमाश्मा विमोnyaarpan जीवादितत्व प्रतीति सेकेआदर कौशल्प मे मनासमाथिम्पर्य में
सामा
durana
जलशोधकमसिन चिनमालिन्यशोधक
अद्धा
औषध के समान
चनामणि सामान
सिनो धर्म की वितरोगनाशक सध्यण्णायके गाण
चिन्तामुदित आदर-कौशल्य मेघाति -धर्य
मोनीमाला ये पाये मोतीवर चिन्तनपार्थों का दुइ संकलन धारणा
मसाल से कर्मकमणगोधक
ग्निमाम अनपेशा अलमल अध्याथिोष
परभाविद्वता अधिकाधिक संप्रन्यायकामशानहान
RATARALARALSARAATAASY
(१) अरिहंत चेइआणं =अष्टप्रातिहार्य युक्त श्री अरिहंत परमात्मा के
जिनालय में जिनप्रतिमा की कल्पना कर नमस्कार करना चाहिए। (२) वंदणवत्तियाए =प्रभुजी के गर्भगृह के बाहर प्रभुजी को देखते
ही आधा झुककर वंदन करते हुए महानुभावों को देखें। (३) पूअणवत्तियाए =प्रभुजी के हाथ की अंजलि में पंचवर्णीय पुष्प
लेकर प्रभुजी की पुष्प पूजा करते हुए श्रद्धालु लोगों को देखें। (४) सक्कार-वत्तियाए =प्रभुजी की भव्य अंगरचना (आंगी) करने के
बाद सवर्णादि अंलकार चढाते हुए महानभावों को देखें। (५) सम्माण-वत्तियाए =प्रभुजी के गर्भगृह से बाहर खड़े रहकर
विनम्रभाव से भाववाही स्तुति बोलते हुए प्रभुजी का सम्मान
करते हुए महानुभावों को देखें। (६) बोलिलाभ-वत्तियाए =प्रभुजी के वचन के प्रति अविचल श्रद्धा
स्वरूप बोधि (सम्यक्त्व) का लाभ प्राप्त करते हुए महानुभावों
को देखें। (७) निरुवसग्ग-वत्तियाए =सर्वकर्म मल विमुक्त श्री सिद्ध भगवंतों
के स्थान रूप उपसर्ग रहित एवं मोक्ष को प्राप्ति के लिए तरसते हुए महानुभावों को देखें । (कायोत्सर्ग में सहायक ५ साधनों की वृद्धि हेतु।)
सद्धाए =जल को स्वच्छ करनेवाले मणिरत्न की भांति, श्रद्धा भी चित्त की मलिनता को दूर
करने में सहायक बनती है। (२) मेहाए =जिस प्रकार रोगी को औषध के प्रति
प्रेम होता है, उसी प्रकार मेधा (बुद्धि) भी शास्त्रग्रहण के प्रति अत्यन्त आदर, सत्कार तथा
कौशल्य स्वरूप है। (३)धिईए = जिस प्रकार चितामणिरत्न इच्छित वस्त
को प्रदान करने में समर्थ है, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवंत प्ररूपित जिनधर्म भी धैर्य-धृति को
प्रदान करने में समर्थ है। (४) धारणाए =मोती की माला में पिरोए हुए मोतियों
के समान चिंतन करने योग्य पदार्थों की दृढ
श्रेणीबद्ध संकलना भी धारणा से सम्भव बनती है। (५) अणुप्पेहाए =जिस प्रकार अग्नि हरे-भरे वृक्ष को
क्षण भर में भस्मीभूत कर देती है, उसी प्रकार परम संवेग की दृढता आदि के द्वारा तत्त्वार्थ चिंतन स्वरूप अनुप्रेक्षा सर्वकर्म रूपी मल को भस्मीभूत करने में समर्थ बनती है।
co
१०१ www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Peradreal Use Only