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थुअ-वंदिअस्सारिसि-गण-देव- गणेहिं,
तो देव-वहुहिं, पयओ
पणमिअस्सा |
जस्स- जगुत्तम
सासण अस्सा,
सास-ण-अस्-सा, भत्-ति-वसा-गय
पिण्- डिअ-या- हिम् । देव-वरच्-छ र-सा- बहु-आहिम्सुर-वर-इ-गुण-पण्-डि-अ या- हिम् ॥ ३० ॥ ( भासु-रयम् )
वंस-सद्द-तंति-ताल-मेलिए-वन्- स- सद्-द-तन्-ति-ताल-मेलि-ए
ति उक्-ख- राभि-रामसद्-द-मीस-ए-कए (अ), सुइ-स-माण-णे असुद्-धसज्ज - गीय-पायजाल - घण्-टि-आहिम् । वल-य-मेह-ला-कला-वने- उराभि-राम- सद्-दमी-स-ए कए अ, देव-नट्- टि- आहिम्- हाव-भावविब्- भमप्-प-गार- एहिम्नच्-चि-ऊण अङ्-ग- हार - एहिम् । वन्- दिआ य जस्- स ते सुविक्-कमा-कमा,
मी-सए कए अ देव-नट्टिआहिं हाव-भावविब्भम-प्पगारएहिंनच्चिउण अंगहारएहिं । वंदिआ य जस्स ते
सुविक्कमा कमा तयं तिलोय-सव्व( सत्त ) - संतिकारयं ।
तयम् ति-लोय - सव्-व(सत्-त ) - सन्-ति-कार-यम् ।
पसंत-सव्व-पाव - दोसमेस हं, पसन्-त- सव्-व-पाव - दोस - मेस हम्, नमामि सन्-ति-मुत्-त-मम्जिणम् ॥ ३१ ॥ ( नारा-यओ)
भक्ति-वसागय
पिंडिअयाहिं । देव- वरच्छरसा - बहुआहिं, सुर-वर- रइगुण- पंडिअयाहिं ॥ ३० ॥ ( भासुरयं )
तिउक्खरा-भिराम
सह-मीसए - कए (अ),
सुइ- समाण-णे अ सुद्धसज्ज-गीय-पायजाल - घंटिआहिं ।
वलय- मेहला-कला-व
ने- उराभिराम- सद्द
नमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ (नारायओ)
थुअ-वन्- दिअस्-सारिसि-गण-देव-गणे - हिम्, तो देव-वहु-हिम्, पय-ओ
पण -मि-अस्- सा ।
जस्-स- जगुत्-तम
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स्तुत है, वंदित है, ऋषिओं के समुदाय द्वारा-देवों के समुदाय द्वारा उसके बाद देवियों द्वारा आदर पूर्वक
प्रणाम किये हुए।
जिनका जगत में उत्तम
शासन हैं,
भक्ति के वश से
आकर एकत्रित हुई....
नर्तक वादक श्रेष्ठ देव और नृत्य कुशल देवांगनाओं सहित बहुत देवों के साथ श्रेष्ठ रति क्रीडा गुण के विषय में पण्डिता । ३०.
वंशी का शब्द, कुच, ताल आदि वाद्यंत्र मिलने से त्रिपुष्कर नाम के वाद्यंत्र के मनोहर शब्द से मिश्रित होने के कारण सुनने की समानता, निर्दोष और
गुण युक्त गीत गानेवाली, पैरों में जाली के आकार वाली घूघरियों वाली कंकण, मेखला, कलाप
नुपुर की ध्वनि में मिलती जाती हैं।
देवनर्तकियों के द्वारा हाव-भाव और विलास के प्रकाश द्वारा नृत्य करके अंगों के मरोड द्वारा वंदित, मोक्षदातार, वे पराक्रमवाले दो चरण कमल
वे (श्री शान्तिनाथजी) तीनों लोकों के सभी प्राणियों को शान्ति प्रदान करनेवाले, विशेष शान्त हुए है, सभी पाप, ,दोष जिनके एसे उनको मैं नमस्कार करता हूँ। श्री शान्तिनाथजी उत्तम जिनेश्वर के । ३१.
अर्थ : देवों को उत्तम प्रकार की प्रीति उत्पन्न करने में कुशल ऐसी स्वर्ग की सुन्दरियाँ भक्ति वश एकत्रित होती हैं। उनमें से कुछ वंशी आदि सुस्वर वाद्य बजाती हैं, कुच ताल आदि धानवाद्य बजाती हैं और कुछ नृत्य करती जाती हैं, पाँवों मे पहने हुए पायजेब की घुघरियों के शब्द को कंकण, मेखला-कलाप और नूपुर की ध्वनि में मिलाती जाती हैं। उस समय जिनके मुक्ति देने योग्य, जगत में उत्तम शासन करनेवाले तथा सुन्दर पराक्रमशाली चरणों को पहले ऋषि और देवताओं के समूह से स्तुत हैं-वन्दित हैं । बाद में देवियों द्वारा प्रणिधानपूर्वक प्रणाम किये जाते हैं और तत्पश्चात् हाव, भाव, विभ्रम और अङ्गहार करती देवनर्तकियों से वंदित, ऐसे तीनों लोकों के सर्व जीवों को शान्ति प्रदान करनेवाले, सर्व पाप और दोष से रहित उत्तम ऐसे श्री शान्तिनाथजी को मैं नमस्कार करता हूँ । २९-३०-३१-३२.
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