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छत्त-चामर-पडागछत्-त-चाम-र-पडा-ग
छत्र, चवर, पताकाजूअ-जव-मंडिआ, जूअ-जव-मण्-डि-आ,
स्तम्भ, यव, लक्षणों के द्वारा शोभित, झयवर-मगर-तुरयझय-वर-मग-र-तुर-य
श्रेष्ठ ध्वज, मगरमच्छ, अश्व, सिरि-वच्छ-सुलंछणा।
सिरि-वच्-छ-सुलञ् (न्)-छणा। श्री वत्स, ऐसे शुभ लांछण है जिनके, दीव-समुद्द-मंदरदीव-समुद्-द-मन्-दर
द्वीप, समुद्र, मेरु पर्वत और ऐरावत हाथी दिसागय-सोहिया, दिसा-गय-सोहि-या,
आदि से शोभित, सत्थिअ-वसह-सीह-रहसत्-थिअ-वस-ह सीह-रह
स्वस्तिक, वृषभ, सिंह, रथ और चक्क-वरंकिया॥३२॥(ललिययं) चक्-क-वरङ्-किया ॥३२॥(ललिययम्) श्रेष्ठ चक्र से अंकित ।३२. सहाव-लट्ठा सम-प्पइट्ठा, सहा-व-लट्-ठा समप्-पइट्-ठा, स्वभाव से सुंदर, समता भाव में स्थिर, अदोस-दुट्ठा गुणेहि जिट्ठा। । अदोस-दुट्-ठा गुणे-हिम् जिट्-ठा। दोष रहित, गुणों के द्वारा श्रेष्ठ, पसाय-सिट्ठा तवेण पुट्ठा, पसा-य-सिट्-ठा तवे-ण पुट्-ठा, निर्मलता में श्रेष्ठ, तप द्वारा पुष्ट, सिरीहिं इट्ठा रिसीहिंसिरी-हिम् इट्-ठा रिसी-हिम्
लक्ष्मी से पूजित, ऋषियों से जुट्ठा ॥३३॥(वाण-वासिआ) जुट्-ठा ॥३३॥ (वाण-वासि-आ) सेवित । ३३. ते तवेण धुअ-सव्व-पावया, ते तवे-ण धुअ-सव-व-पावया, तप के द्वारा सर्व पापों को दूर करनेवाले, सव्वलोअ-हिअ-मूल-पावया। सव्-व-लोअ-हिअ-मूल-पाव-या। सर्व प्राणियों को हित का मार्ग दिखाने-वाले, संथुआ अजिअसन्-थुआ अजि-अ
स्तुत श्री अजितनाथजी और संति पायया, सन्-ति-पाय-या,
श्री शान्तिनाथजी पूज्य हुंतु मे सिव-सुहाणहुन्-तु मे सिव-सुहा-ण
हों, मुझे शिव सुख को दायया ॥३४॥(अपरांतिका) दाय-या ॥३४॥(अप-रान्-तिका) देनेवाले । ३४. अर्थ : जो छत्र, चवर, पताका, स्तम्भ, यव, श्रेष्ठ ध्वज, मगरमच्छ, अश्व, श्रीवत्स, द्वीप, समुद्र, मेरु पर्वत और ऐरावत हाथी आदि के शुभ लक्षणों से शोभित जो स्वरुप से सुन्दर, समभाव में स्थिर, दोष-रहित, गुण-श्रेष्ठ, बहुत तप करनेवाले, लक्ष्मी से पूजित, ऋषियों से सेवित, तप के द्वारा सर्व पापों को दूर करनेवाले और समग्र प्राणि-समूह को हित का मार्ग दिखानेवाले हैं, वे अच्छी तरह स्तुत, पूज्य श्री अजितनाथ और श्री शान्तिनाथ मुझे मोक्षसुख को देनेवाले हों । ३२-३३-३४. एवं तव-बल-विउलं, एवम् तव-बल-विउलम्,
इस तरह तप सामर्थ्य द्वारा विशाल थअंमए अजिअथुअम्मए अजिअ
स्तुति की मैंने श्री अजितनाथ संति-जिण-जुअलं । सन्-ति-जिण-जुअ-लम् ।
श्री शान्तिनाथ जिनेश्वर युगल को, ववगय-कम्म-रय-मलं,
वव-गय-कम्-म-रय-मलम्, कर्म रुपी रज और मल से रहित, गई गयं सासयंगइम् गयम् सास-यम्
विस्तीर्ण और शाश्वत गति को प्राप्त । ३५. विउलं ॥ ३५ ॥(गाहा) विउलम् ॥३५॥(गाहा) अर्थ : तपोबल से महान्, कर्म रूपी रज और मल से रहित, शाश्वत और पवित्र गति को प्राप्त ऐसे श्री अजितनाथ और श्री शान्तिनाथ के युगल की मैंने इस प्रकार स्तुति की। ३५. तं बहु-गुण-प्पसायं, तम् बहु-गुणप्-प सा-यम्,
वे अनेक गुणों के प्रसादवाले, मुक्ख-सुहेण परमेण-अविसायं। मुक्-ख-सुहे-ण पर-मेण-अवि-सायम्। मोक्ष सुख द्वारा उत्कृष्ट विषाद रहित, नासेउ मे विसायं, कुणउ अ- नासे-उ मे विसा-यम्, कुण-उ अ
नाश करो मेरे विवाद को और परिसाविअ-प्पसायं ॥ ३६॥ (गाहा) परि-सावि-अप-पसा-यम् ॥३६॥ (गाहा) सभा पर अनुग्रह । ३६. अर्थ : अतः अनेक गुणों से समृद्ध और परम-मोक्ष-सुख के कारण, सकल क्लेशों से रहित (श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ का युगल) मेरे विषाद का नाश करें ३६.
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