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मात्र पुरुषों के लिए प्रतिक्रमण के समय बोलनेवाले की मुद्रा ।
मूल सूत्र विशाल - लोचन - दलं, प्रोद्यद्दन्तांशु-केसरम् । प्रातर्वीर - जिनेन्द्रस्य,
अपवादिक मुद्रा ।
अशुद्ध प्रद्यत्तांशु त्रणमपि
अपूर्वचन्द्र बुधैनमस्कृतम्
४१. श्री विशाललोचन सूत्र
: श्री विशाललोचन सूत्र विषय :
: प्रातःकालीन वीरस्तुति
इस प्रभातिक स्तुति
: ३ : १२
यह सूत्र पूर्व में से उद्धृत किया गया है । अतः बहेनो
(छह आवश्यक के बाद
: १२
इसके 'संसार दावानल
गुणगण-गर्भित
: २३
१०१ी स्तवना के साथ की : १२४ | तीन गाथाए बोलें । जानेवाली प्रार्थना है ।
:
आदान नाम गौण नाम
गाथा
पद
संपदा
छंद का नाम : अनुष्टुप्; राग उच्चारण में सहायक विशाल - लोचन - दलम्, प्रोद्-यद्-दन्-तान्-शु केस - रम् । प्रातर् - वीर- जिनेन्द्र-स्य,
कलंक-निर्मुक्त-ममुक्त
पूर्णतं,
कुतर्क - राहु-ग्रसनं सदोदयम् ।
अपूर्व-चंद्रं जिनचंद्र - भाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥३॥
गुरु-अक्षर
लघु-अक्षर सर्व अक्ष
शुद्ध प्रोद्यद्-दंतांशु
तृणमपि
अपूर्वचन्द्र बुधैर्नमस्कृतम्
देदीप्यमान दांतों की किरण रूपी पुष्प केशरवाला प्रातः काल में जिनेश्वर का
मुखपद्मं पुनातु वः ॥१॥
मुख-पद्-मम् पुनातु वः ॥१॥
मुख तुम्हे पवित्र करो । १.
गाथार्थ : विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला और देदीप्यमान दंत-किरण रूपी केसर वाला, श्री महावीर जिनेश्वर का मुख रूपी कमल प्रातः काल में तुम्हे पवित्र करो । १.
छंद का नाम : औपच्छन्दसिक; । राग : वंदे मातरम् ! सुजलां सुफलाम् (देश गीत ) जिनकी अभिषेक क्रिया करके
येषाम-भिषेक-कर्म कृत्वा, येषामभिषेक-कर्म कृत-वा, मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः । मत्-ता हर्ष-भरात्-सुखम् सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, तृण-मपि गण-यन्-ति नै व नाकम्, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ प्रातः सन्-तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ गाथार्थ : जिनकी अभिषेक क्रिया करके हर्ष समुह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र
प्रातः काल में शिव सुख के लिये हो । २.
में बदले
दर्शन देव देवस्य (प्रभु स्तुति )
पद क्रमानुसारी अर्थ विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला
हर्ष के समूह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते स्वर्ग के
छंद का नाम : वंशस्थ; राग : कल्लाण कंदं (पंच जिनस्तुति) क- लङ् क निर् मुक् त म मुक्-तपूर्ण-तम्,
कुतर्क राहु-ग्रस-नम् सदो -दयम् । अ-पूर्-व चन् द्रम् जिन- चन्द्र-भाषितम्, दिना-गमे - नौमि - बुधैर्-नमस्-कृतम् ॥३॥
प्रातः काल में शिव सुख के लिए हो वे जिनेश्वर । २. स्वर्ग सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते, वे जिनेश्वर
कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले
कुतर्क रूपी राहुको ग्रसने वाले सदा उदयवान अपूर्व चंद्र (श्रुत) को जिनेश्वरों द्वारा कथित प्रातः काल में, मैं स्तुति करता हूँ । ३.
गाथार्थ : कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले, कुतर्क रूपी राहु को ग्रसने वाले, सदा उदयवान, जिनेश्वरों द्वारा कथित और पंडितों द्वारा नमस्कृत अपूर्व चंद्र (श्रुत) की मैं प्रातः काल में स्तुति करता हूँ । ३.
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