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________________ १९२ Jain Edu मात्र पुरुषों के लिए प्रतिक्रमण के समय बोलनेवाले की मुद्रा । मूल सूत्र विशाल - लोचन - दलं, प्रोद्यद्दन्तांशु-केसरम् । प्रातर्वीर - जिनेन्द्रस्य, अपवादिक मुद्रा । अशुद्ध प्रद्यत्तांशु त्रणमपि अपूर्वचन्द्र बुधैनमस्कृतम् ४१. श्री विशाललोचन सूत्र : श्री विशाललोचन सूत्र विषय : : प्रातःकालीन वीरस्तुति इस प्रभातिक स्तुति : ३ : १२ यह सूत्र पूर्व में से उद्धृत किया गया है । अतः बहेनो (छह आवश्यक के बाद : १२ इसके 'संसार दावानल गुणगण-गर्भित : २३ १०१ी स्तवना के साथ की : १२४ | तीन गाथाए बोलें । जानेवाली प्रार्थना है । : आदान नाम गौण नाम गाथा पद संपदा छंद का नाम : अनुष्टुप्; राग उच्चारण में सहायक विशाल - लोचन - दलम्, प्रोद्-यद्-दन्-तान्-शु केस - रम् । प्रातर् - वीर- जिनेन्द्र-स्य, कलंक-निर्मुक्त-ममुक्त पूर्णतं, कुतर्क - राहु-ग्रसनं सदोदयम् । अपूर्व-चंद्रं जिनचंद्र - भाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥३॥ गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्ष शुद्ध प्रोद्यद्-दंतांशु तृणमपि अपूर्वचन्द्र बुधैर्नमस्कृतम् देदीप्यमान दांतों की किरण रूपी पुष्प केशरवाला प्रातः काल में जिनेश्वर का मुखपद्मं पुनातु वः ॥१॥ मुख-पद्-मम् पुनातु वः ॥१॥ मुख तुम्हे पवित्र करो । १. गाथार्थ : विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला और देदीप्यमान दंत-किरण रूपी केसर वाला, श्री महावीर जिनेश्वर का मुख रूपी कमल प्रातः काल में तुम्हे पवित्र करो । १. छंद का नाम : औपच्छन्दसिक; । राग : वंदे मातरम् ! सुजलां सुफलाम् (देश गीत ) जिनकी अभिषेक क्रिया करके येषाम-भिषेक-कर्म कृत्वा, येषामभिषेक-कर्म कृत-वा, मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः । मत्-ता हर्ष-भरात्-सुखम् सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, तृण-मपि गण-यन्-ति नै व नाकम्, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ प्रातः सन्-तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ गाथार्थ : जिनकी अभिषेक क्रिया करके हर्ष समुह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र प्रातः काल में शिव सुख के लिये हो । २. में बदले दर्शन देव देवस्य (प्रभु स्तुति ) पद क्रमानुसारी अर्थ विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला हर्ष के समूह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते स्वर्ग के छंद का नाम : वंशस्थ; राग : कल्लाण कंदं (पंच जिनस्तुति) क- लङ् क निर् मुक् त म मुक्-तपूर्ण-तम्, कुतर्क राहु-ग्रस-नम् सदो -दयम् । अ-पूर्-व चन् द्रम् जिन- चन्द्र-भाषितम्, दिना-गमे - नौमि - बुधैर्-नमस्-कृतम् ॥३॥ प्रातः काल में शिव सुख के लिए हो वे जिनेश्वर । २. स्वर्ग सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते, वे जिनेश्वर कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले कुतर्क रूपी राहुको ग्रसने वाले सदा उदयवान अपूर्व चंद्र (श्रुत) को जिनेश्वरों द्वारा कथित प्रातः काल में, मैं स्तुति करता हूँ । ३. गाथार्थ : कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले, कुतर्क रूपी राहु को ग्रसने वाले, सदा उदयवान, जिनेश्वरों द्वारा कथित और पंडितों द्वारा नमस्कृत अपूर्व चंद्र (श्रुत) की मैं प्रातः काल में स्तुति करता हूँ । ३. www.Minelibrary.org
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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