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________________ १२. श्री जग चिंतामणि चैत्यवंदन सूत्र विषय : आदान नाम : श्री जगचिन्तामणि सत्र गौण नाम : चैत्यवंदन सूत्र शाश्वत-अशाश्वत गाथा जिनालय, जिनप्रतिमाएं, गुरु-अक्षर देववंदन, चैत्यवंदन तथा तीर्थ, विचरण करते : ३३ राइअ प्रतिक्रमण के समय लघु-अक्षर : २९८ अरिहंत तथा अरिहंत के यह सूत्र बोलते-सुनते अपवादिक मुद्रा। सर्व अक्षर समय की मुद्रा। : ३३१ गुणों की वंदना। मूल सूत्र उच्चारण मंसहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छा-कारेण संदिसह भगवन् ! इच्-छ-कारे-ण सन्-दि-सहभग-वन्! है भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करो चैत्यवंदन करूं? इच्छं, चैत्-य-वन्-दन करुम् ? इच्-छम्, (मैं) चैत्य-वंदन करूं(मैं)आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूं। गाथार्थ : हे भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करो । (मैं) चैत्यवंदन करूँ ? (मैं) आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। छंद का नाम : रोला; राग : "भीमपलाश"'श्री पार्श्वनाथजी दादा वात सुणो एक मोरी रे...' जग चिंतामणि ! जग नाह! जग-चिन्-ता-मणि ! जग-नाह! जगत के जीवों के लिये चिंतामणि रत्न समान! जगत के स्वामी ! जगगुरु! जग रक्खण! जग-गुरु!जग-रक्-खण! जगत के गुरु! जगत के जीवों का रक्षण करने वाले! जगबंधव! जगसत्थवाह! जग-बन-धव!जग-सत्-थ-वाह! जगत के बन्धु ! जगत के सार्थवाह! जग भाव विअक्खण! जग-भाव-वि-अक्-खण! जगत के सर्व भावों को जानने और प्रकाशित करने वाले! अट्ठावय संठविअ-रुव! अट्-ठा-वय-सण-ठ-विअ-रुव! अष्टापद पर्वत पर स्थापित की गई हैं प्रतिमाएं जिनकी ऐसे! कम्मट्ठ-विणासण! कम्-मट्-ठ-विणा-सण! |आठों कर्मों का नाश करने वाले! चउवीसं पिजिणवर! चउ-वीसम्-पिजिण-वर! है चोबीसों जिनेश्वर! जयंतु अप्पडिहय-सासण॥१॥ जयन्-तुअप्-पडि-हय-सा-सण॥१॥ आपकी जयहो,अखंडित शासनवाले।१. गाथार्थ : जगत् के लिये चिंतामणि रत्न समान !, जगत् के स्वामी!, जगत् के बंधु !, जगत् के सार्थवाह!, जगत् के सर्व भावों को जानने और प्रकाशित करने में निपुण !, अष्टापद पर्वत पर स्थापित की गई हैं जिनकी प्रतिमाएं ऐसे ! ,आठों कर्मों को नाश करने वाले!, अखंडित शासन वाले ! हे चौबीसों जिनेश्वर! आपकी जय हो । १. छंद का नाम : वस्तु; राग : अवधिज्ञाने अवधिज्ञाने..... (स्नात्र पूजा) कम्म भूमिहि कम्म भूमिहिं कम्-म-भूमि-हिम् कम्-म-भूमि-हिम् । कर्म भूमियों में (जहाँ आजीविका के लिये प्रजा को कर्म/कार्य करना पड़ता हैं।) पढम-संघयणि, पढ-म-सङ्-(सन्)-घ-यणि, प्रथम संघयण(अस्थियों की उत्कृष्ट रचना) वाले छंद का नाम : वस्तु; राग : मचकुंद चंपमालई.... (स्नात्र पूजा) उक्कोसयसत्तरिसयउक्-को सय सत्-तरि-सय, उत्कृष्ट से एक सौ सित्तर जिणवराण विहरंत लब्भइ, जिण-वरा-ण विह-रन्-त लब्-भइ, जिनेश्वर विचरण करते हुए पाये जाते हैं, नवकोडिहिं केवलिण, नव-कोडि-हिम केव-लिण, नवक्रोड़ केवली कोडिसहस्सनव साहू गम्मइ, कोडि-सहस्-स-नवसाहूगम्-मइ, नव हजार क्रोड(नब्बे अरब) साधु होते हैं, छंद का नाम : वस्तु; राग : कुसुमाभरण उतारीने... (स्नात्र पूजा) संपइ जिणवर वीस। सम्-पइ जिण-वर- वीस वर्तमान काल के बीसमुणि बिहुँ कोडिहिं वरनाण, मुणि बिहुम् कोडि-हिम् वर-नाण, जिनेश्वर मुनि दो क्रोड़ केवल-ज्ञानी / केवली समणह कोडि सहस्स दुअ, सम-णह-कोडि सहस्-स दुअ, दो हजार क्रोड़ (बीस अबज) साधु थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ थुणिज्-जइ निच-च विहा-णि ॥२॥ स्तवन किया जाता है नित्य प्रातः काल में । २. गाथार्थ : कर्म भूमियों में प्रथम संघयण वाले उत्कृष्ट से एक सौ सत्तर जिनेश्वर नव क्रोड़ केवली और नव हजार क्रोड़ (९० अरब) साधु विचारण करते हुए पाए जाते हैं। वर्तमान काले के बीस जिनेश्वर मुनि, दो क्रोड़ केवलज्ञानी और दो हजार क्रोड़ (२० अरब ) साधुओं का प्रातःकाल में नित्य स्तवन किया जाता है । २. GRO waliorary.org
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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