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'खमासमण' देते
समय की स्पष्ट मुद्रा ।
मूल सूत्र
इच्छामि खमा-समणो ! ॥१॥ वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए ॥२॥ मत्थएण वंदामि ॥३॥
अशुद्ध ईच्छामी खमासणो
निसीयाओ
वंदिउ (वंदेउ) जावणिजाए मत्थेण वंदामि
'खमासमण' देते समय
पीछे से ऊँचा नहीं
होना चाहिए।
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शुद्ध इच्छामि खमासमणो निसीहिआए
वंदिडं जावणिज्जाए मत्थएण वंदामि
१. पीछे कमर के भाग से नीचे पैरों की एड़ी तक चरवला से दाएँ, बीच तथा बाएँ में क्रमशः प्रमार्जन करना चाहिए। (१ से ३) २. आगे पैरों के मूल से नीचे पैरों के तलवे तक चरवला से दाएँ, बीच तथा बाए में क्रमश: प्रमार्जन करना चाहिए । (४ से ६ )
३. घुटने रखने की जगह पर नीचे जमीन पर चरवला से तीन बार प्रमार्जन करना चाहिए ( ७ से ९ )
४. मुँहपत्ति से बाईं ओर के अर्धमुख से कन्धा,
iterational
३. श्री खमासमण सूत्र
विषय :
:
श्री खमासमण सूत्र : पंचांग प्रणिपात सूत्र
(अत्यन्त संक्षेप में)
: २
: २
: ३
: २५
: २८
'क्षमाश्रमण'
जिससे संसार का लाभ अर्थात् संसार की अभिवृद्धि जिससे होती है, उसे कषाय कहते है । कषाय चार प्रकार के हैं । १. क्रोध २. मान ३. माया और ४. लोभ ।
जीवन के उच्च शिखरों पर पहुंचे हुए धर्मात्मा को भी भयंकर पतन की ओर क्रोध-कषाय ले जाता है । सब से खतरनाक दोष ' क्रोध' है, तो उसका प्रतिपक्षी आत्म गुण सत्रह प्रमार्जना या
आदान नाम गौण नाम
उच्चारण में सहायक
पद क्रमानुसारी अर्थ
इच्-छा-मि खमा-सम-णो ! ॥ १ ॥ मैं चाहता हूँ हे क्षमावान् महाराज ! १. वंदन करने के लिए शक्ति के अनुसार
वन्- दिउम् जाव- णिज्-जाएनि-सी - हि आए ॥२॥ मत्-थ-एण वन्
- दामि ॥३॥
पद
संपदा
गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर
परमात्मा तथा
| गुरुभगवंतों की वंदना |
गाथार्थ : हे क्षमावान महाराज ! आपको मैं
शक्ति के अनुसार पापमय प्रवृत्तियों को त्याग कर मस्तक ( आदि पाँच अंगों ) से वंदन करता हूँ । १.
पापमय प्रवृत्तिओं (व्यापारों ) को त्याग कर, २. मस्तक (आदि पाच अंगों) से मैं वंदन करता हुँ । ३.
1
शब्द का तात्पर्यार्थ
विकास में सहायक गुण 'क्षमा' है ।
श्री अरिहंत भगवंत में यह 'क्षमा' गुण पूर्णतया विकसित होता है । जब पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत इह क्षमा गुण को पूर्ण विकसित करने के लिए उद्यमशील होते हैं ।
अतः श्री अरिहंतादि पंच परमेष्ठि को 'क्षमाश्रमण' कहते हैं और उनको इस 'खमासमण सूत्र' के माध्यम से वन्दना की जाती है। संदशक का क्रमबद्ध वर्णन
हाथ, कुहनी, पंजा तथा हाथ के पीछे के आधे भाग तक और इसी तरह दाई ओर से प्रमार्जन करना चाहिए। (१० से ११)
५.
जिस स्थान पर मस्तक टिकाना हो उस स्थान का मुँहपत्ति से तीन बार प्रमार्जन करना चाहिए। (१२ से १४ )
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६.
दोनों हाथों को जोड़कर, दोनों कुहनियों को पेट पर रखकर, चरवला को गोद में रखकर, दोनों हाथों को जमीन पर पैरों के बिल्कुल नजदीक रखकर, पीछे से जरा भी ऊँचा हुए बिना, प्रमार्जन की हुई भूमि पर मस्तक टिकाकर 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। वंदन करने के बाद खड़े होते समय पैरों के पीछे दृष्टि करने के बाद चरवला से तीन बार प्रमार्जन कर खड़े होना चाहिए । (१५ से १७)
७.
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