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इच्छामि खमासमणो से
निसीहिआए
निसीहि
वांदणा लेने की मुद्रा
२१ ला अवनत, २१ ला प्रवेश २ रा प्रवेश
११ यथाजात मुद्रा
अहो कार्य काय संफासं
जत्ता भे, जवणि, ज्जं च भे! ६ ३ आवर्त्त
खामेमि खमासमणो आवस्सिआए
प्रस्तुत सूत्र में यह निम्न प्रकार सम्भव है ?
पहेली वांदणा में
६ ३ आवर्त्त
२१ ला शीर्ष नमन
मन में अर्थ का चिंतन
स्पष्ट शुद्ध उच्चारण काया से २५ आवश्यक देना कुल २५
२३ रा शीर्षनमन १/१ निष्क्रमण
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११ मन गुप्ति का पालन
११ वचन गुप्ति का पालन
१ काय गुप्ति का पालन
१
दूसरी वांदणा में |
२ रा अवनत
('बंदिठं' बोलते समय झुकना)
(गुरुभगवंत के मित- अवग्रह में प्रवेश करना। ) (माँ के गर्भ में जिस प्रकार बालक रहता है, उस प्रकार बैठकर वांदणा देना । )
३ आवर्त १२ रा शीर्षनमन
(नीचे उपर दसों ऊंगलियों का स्पर्श करना। ) ( यह बोलते हुए दोनों हथेलियों को नीचे स्थापित कर पीछे से ऊँचा हुए बिना, वहाँ मस्तक का स्पर्श करना) (नीचे ऊपर दसों ऊँगलियों के नाखून लगे, इस प्रकार स्पर्श न करें।)
३ आवर्त
४ था शीर्षनमन (ऊपर लिखे हुए शीर्षनमन के अनुसार करना ।) (पहली वांदणा में मित अवग्रह के बाहर निकलते समय की जानेवाली क्रिया)
अवग्रह से सम्बन्धित सरल जानकारी
पू. गुरुभगवंत तथा श्रावकों के बीच जो अन्तर रखा जाता है, वह अवग्रह कहलाता है। गुरु भगवन्त की आज्ञा के बिना उनके अवग्रह में प्रवेश करना, वह एक प्रकार का अविनय कहलाता है। वांदणा में आज्ञा माँगकर दो बार प्रवेश किया जाता है।
साध्वीजी से साधु तथा श्रावक का १३ हाथ का ।
यदि कटासणा के पिछले छोड़ पर खड़े हों, तो उस समय गुरुवांदणा में अवग्रह के बाहर कहलाता है तथा 'निसीहि' कहने के बाद कटासणा के अगले छोड़ के पास आने से अवग्रह में प्रवेश करना कहा जाता है ।
अवग्रह में प्रवेश करने के बाद यथाजात मुद्रा में बैठना, मुँहपत्ति / रजोहरण के ऊपर गुरुचरण की स्थापना करनी चाहिए । द्वादशावर्त्त वंदन कब और किस प्रकार करना चाहिए
द्वादशावर्त्त वन्दन करना चाहिए। यदि प्रतिदिन करना सम्भव न हो तो १५ दिनों में पक्खी प्रतिक्रमण के बाद अथवा चार महीने में चौमासी प्रतिक्रमण के बाद अथवा अन्त में एक वर्ष में संवत्सरी प्रतिक्रमण के बाद द्वादशावर्त्त वंदन अवश्य करना चाहिए ।
यदि द्वादशावर्त्त मन-वचन-काया की एकाग्रता के साथ प्रणिधान पूर्वक २५ आवश्यकों का भली-भांति पालन करने के साथ-साथ किया जाए तो यह मोक्ष फल देने में समर्थ होता है तथा संपूर्ण उपयोग रखते हुए भी यदि कहीं त्रुटि रह जाए तो अन्ततः वैमानिक देवलोक का आयुष्य अवश्य बँधाता है । परन्तु ध्यान होने पर भी इसका उपयोग नहीं रखने से चारित्राचार का दोष लगता है और शक्ति का पूर्ण सदुपयोग न करने के कारण वीर्याचार का दोष भी लगता है।
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अवग्रह दो प्रकार के होते हैं (१) स्वपक्ष- अवग्रह- साधु से साधु का, साधु से श्रावक का, (साढ़े तीन हाथ का ) । साध्वीजी से साध्वीजी का, साध्वीजी से श्राविका का । (२) परपक्ष अवग्रह : साधु से साध्वीजी तथा श्राविका का ( १३ हाथ का ),
पहली वांदणा छह आवर्त्त तथा दूसरी वांदणा छह आवर्त्त इस प्रकार कुल १२ आवर्त को द्वादशावर्त्त वंदन कहा जाता है। यह वन्दन पदवीधारी पदस्थ गुरुभगवंतों को नित्य एक बार करना चाहिए। पौषधव्रत में 'राइअ मुंहपत्ति' - की क्रिया की जाती है, उसे द्वादशावर्त्त वंदन कहा जाता है। पौषव्रत में मुनिभगवंत से ऊपरी पदवीधारी गुरुभगवंत के समक्ष स्थापनाचार्यजी (अक्षादि) के बिना भी यह क्रिया की जा सकती है, परन्तु पदवीधारी न हों तो उन गुरुभगवंत के आगे स्थापनाचार्यजी (अक्षादि) रखकर राइअ मुँहपत्ति (द्वादशावर्त) क्रिया की जा सकती है। पौषध में यह क्रिया अवश्य करनी चाहिए । यह (पौषध) के अतिरिक्त भी पदवीधारी गुरु भगवन्त को चरवला मुँहपत्ति का उपयोग रखने के साथ श्रावक-श्राविकाओं को आज्ञा प्राप्त कर
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