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गुरुवन्दना से होनेवाले लाभ
श्री हरिभद्रसूरिजी ने श्री ललितविस्तरा चैत्यस्तवन की वृत्ति में 'धर्म प्रतिमूल-भूता वंदना' शब्द के द्वारा वंदना को धर्म का मूल कहा है। कारण की गुरुवंदना से धर्म-चिंतनादि रूप अंकुर फूटते हैं । धर्मश्रवण, धर्म-आचरण रूप शाखाओं -प्रशाखाओं का विस्तार होता है तथा अंत में स्वर्ग और मोक्ष के सुखों की प्राप्ति रूप फूल व फल प्रगट होते हैं।
सुगुरु वन्दना से होनेवाले ६ गुणों की प्राप्ति रूप लाभ
(१) विनय (२) अहंकार भंग (३) गुरुजन की पूजा (४) जिनाज्ञा का पालन, (५) श्रुतधर्म की आराधना तथा (६) सिद्धिपद की प्राप्ति होती है।
सुगुरु की वन्दना नहीं करने से लगनेवाले ६ दोषों की प्राप्तिरूप हानि
१.
(१) अविनय ( २ ) अभिमान (३) निंदा (४) नीचगोत्रकर्म बंधन ( ५ ) अज्ञानता तथा (६) संसार की वृद्धि प्राप्त होती है। छह आवश्यक में वांदणां (गुरुवन्दन) का समावेश क्यों ? आत्म-विशुद्धि के लिए आयोजित छह आवश्यक की लोकोत्तर क्रिया में (समता की प्राप्ति के लिए जिसका निर्धारण किया है, ऐसे कर्मों से छूटने की इच्छावाला) मुमुक्षु सामायिक आवश्यक की सुन्दर साधना करता हैं। उस समय समत्व की अनुभूति करने के साथ ही इस मार्ग का उपदेश देनेवाले श्री अरिहंत भगवंत के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का पूर्ण पालन करने से सर्व कर्म-मल से मुक्त श्री सिद्धभगवंतों की भावपूर्वक वन्दना कर चतुर्विंशतिस्तव ( चउविसत्थो) आवश्यक की उपासना से दर्शनाचार की शुद्धि करता है तथा सुगुरुभगवंत की संयमयात्रा आदि से सम्बन्धित प्रश्र पूछकर स्वयं से जाने-अनजाने मन-वचन-काया से होनेवाली आशातना की क्षमा माँगने के द्वारा ज्ञानाचार की विशुद्धि करता है । इसप्रकार दर्शनाचार तथा ज्ञानाचार से विशुद्ध हुआ मुमुक्ष प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण आवश्यक का५. सच्चा अधिकारी बनता है। जिसके द्वारा वह क्रमशः चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार की विशुद्धि करके अपना इच्छित ऐसा मोक्ष साधने में सफल बनता है ।
इस प्रकार वांदणा (वंदन) आवश्यक, आध्यात्मिक अनुष्ठान की संपूर्ण सफलता के लिए पूर्वसेवा रूप है,
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जिससे वह नित्य आवश्यक (अवश्य करने योग्य ) है ।
सुगुरु भगवंत की मिताक्षरी सुंदर व्याख्या : "जो संसार का शोषण तथा मोक्ष का पोषण करे, वे गुरु कहलाते हैं। " इस वांदणां सूत्र में प्रत्येक प्रतिक्रमण के समय करने योग्य परिवर्तन के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी :
देवसिअ प्रतिक्रमण में 'दिवसो वइक्कंतो' तथा 'देवसिअं वइक्कम्मं' और 'देवसिआए आसायणाए' बोलें ।
२.
राइअ प्रतिक्रमण में 'राइओ वइक्कंतो' तथा 'राइअं वइक्कम्मं' 'राइआए आसायणाए' बोलना चाहिए।
और
३.
४.
पक्खी प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कंतो' तथा 'पक्खिअं वइक्कम्मं' और 'पक्खिआए आसायणाए' बोलना चाहिए । चौमासी प्रतिक्रमण में 'चउमासी वइक्कंतो' तथा 'चउमासिअं वइक्कम्मं' और 'चउमासीआए आसायणाए' 'बोलें । संवत्सरी प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइक्कंतो' तथा 'संवच्छरिअं वइक्कम्मं' और 'संवच्छरिआए आसायणाए' बोलें । यह द्वादशावर्त्त वंदन कौन, कब तथा किस प्रकार किया जाता है उसका विस्तृत वर्णन 'श्री गुरुवंदनभाष्य' से जान ले। फिर भी ' श्री पंचिदियसूत्र' आदि में उस सम्बन्ध में कुछ आंशिक वर्णन किया गया है, वह देख लेना आवश्यक है।
सुगुरु भगवंत को द्वादशावर्त वंदन करते हुए निम्नलिखित ३२ दोषों को अवश्य त्याग देना चाहिए ।
(१) आदर रहित वन्दन करे, वह अनाद्दत दोष, (२) अक्कडता रखकर वन्दन करे, वह स्तब्धदोष, (३) किरायेदार, की तरह वन्दन करके भाग जाए, वह अपविद्ध दोष, (४) एक वंदन से एकत्र सभी साधुओं की वन्दना करे, वह परिपिंडित दोष ( ५ ) तीड़ के समान उछलते हुए अथवा ढोल के समान उठ उठकर वन्दन करे, वह टोलगति दोष, (६) रजोहरण/चरवला को अंकुश के समान ग्रहण कर वन्दन करे, वह अंकुश दोष, (७) कछुए के समान रेंगते हुए वन्दन करे, वह कच्छपगति दोष, (८) मछली की भांति उछलते हुए वन्दन करे, वह मत्स्याद्वर्त दोष, (९) मन में आचार्यादि के दोषों का चिंतन करते हुए वंदन करे, वह मनःप्रदुष्ट दोष, (१०) हाथों को पैरों के बीच में रखकर वन्दन करने के बदले, बाहर रखकर वन्दन करे, वह वेदिका
बद्ध दोष, (११) विद्यामन्त्र आदि की लालच से वन्दन करे, वह भजंत दोष, (१२) संघ से बाहर निकाल दिए जाने के भय से वन्दन करे, वह भयदोष, (१३) सामाचारी में स्वयं कुशल है, ऐसे अहंकार से वन्दन करे, वह गौरवदोष (१४) मित्रता के कारण से ( सम्मान के अभाव से) वन्दन करे, वह मित्र दोष, (१५) वन्दन करने से मुझे उत्तम वस्त्रादि मिलेंगे, इस आशय से वन्दन करे, वह कारण दोष, (१६) चौरों की भांति छिपकर वन्दन करे, वह स्तैन्य दोष, (१७) गुरुवंदन के अवसर के बिना अपनी ही अनुकूलता देखकर वन्दन करे, वह प्रत्यनीक दोष, (१८) स्वयं अथवा गुरुभगवंत जब क्रोधित हों तब वन्दन करे, वह रूष्ट दोष (१९) अंगुली से तर्जना करते हुए वन्दन करे, वह तर्जित दोष (२०) विश्वास पैदा करने के लिए कपट से वन्दन करे, वह शठ दोष,
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