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________________ पिता छंद का नाम : वस्तु; राग : मचकुंद चंपमालई... (स्नात्र पूजा) जयउसामिअ! जयउ सामिअ! जय-उसामि-अ! जय-उसामि-अ! हे स्वामी ! आपकी जय हो रिसह ! सत्तुंजि, रिस-ह ! सत्-तुन्-जि! शत्रुजय तीर्थ में विराजित श्री ऋषभदेव भगवान ! उज्जिति पहु नेमि जिण ! उज्-जिन्-ति-पहु-नेमि-जिण ! गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ प्रभु ! जयउ वीर! सच्चउरिमंडण! जय-उ वीर! सच्-च-उरिमण-डण ! सत्यपुर (सांचोर) के शृंगार रूप हे श्री महावीर स्वामी ! भरु अच्छहिं मुणि सुव्वय ! भरु-अच्-छहिम् मुणि-सुव्-वय ! भरूच में विराजित हे श्री मुनिसुव्रत स्वामी ! मुहरि पास ! दुह-दुरिअ-खंडण ! मुहरि-पास ! दुह-दुरि-अ-खण्-डण! दुःख और दुरित (पाप) का नाश करने वाले, मथुरा में विराजित हे श्री मुहरि पार्श्वनाथ ! अवरविदेहि तित्थयरा, अव-र-विदे-हिम् तित्-थ-यरा, महाविदेह क्षेत्र के अन्य तीर्थकर, चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि, चिहुम्-दिसि वि-दिसि-जिङ्(जिम्)-के वि ! चारों दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई भी तीआणा गय संपइअ, तीआ-णा-गय सम्-प-इ-अ, भूत काल में हुए हों, भविष्य काल में होने वाले हों और वर्तमान काल में विहरते हैं, . वंदं जिण सव्वे वि ॥३॥ 'वन्-दुं जिण सव्-वे-वि ॥३॥ सर्व जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ। गाथार्थ : हे स्वामी ! आपकी जय हो ! हे स्वामी ! आपकी जय हो ! शत्रुजय तीर्थ पर विराजित हे श्री ऋषभदेव भगवान !, गिरनार पर्वत पर विराजमान हे श्री नेमिनाथ प्रभु !, साचोर के शृंगार रूप हे श्री महावीर स्वामी!, भरूच में विराजित हे श्री मुनिसुव्रत स्वामी ! दुःख और पाप का नाश करने वाले मथुरा में विराजित हे श्री मुहरि पार्श्वनाथ ! आपकी जय हो ! महाविदेह क्षेत्र के तथा चारों दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई भी अन्य तीर्थंकर भूतकाल में हुए हों, भविष्यकाल में होने वाले हों और वर्तमानकाल में हुए हों, (उन) सर्व जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ। ३. छंद का नाम : गाहा; राग : "जिणजम्म समये मेरु सिहरे" (स्नात्र पूजा) सत्ताणवइ-सहस्सा, । सत्-ताण-वइ-सहसू-सा, । सत्तानवे(९७)हजार लक्खा छप्पन्न अट्ठकोडीओ।। लक्-खाछप-पन्-न अट्-ठ-कोडीओ। छप्पन (५६)लाख, आठ(८)क्रोड़ बत्तीस सय-बासीआई, बत्-तीस-सय-बासी-आ-इम्, बत्तीस सौ बयासी(३२८२) तिअलोएचेइएवंदे ॥४॥ तिअ-लोएचेइ-एवन्-दे॥४॥ । तीनों लोक में स्थित चैत्यों(मंदिरों)को मैं वंदन करता हूँ।४. गाथार्थ : तीनों लोक में स्थित आठ क्रोड़ सत्तानवे लाख दो सौ बयासी (८,५७,००,२८२) जिन चैत्यों को मैं वंदन करता हूँ। ४. पनरस-कोडि-सयाई, पन-रस-कोडि-सया-इम्, पंद्रहसौ(१५००)क्रोड़(पंद्रह अरब) कोडिबायाल लक्ख अडवन्ना। कोडिबाया-ललक्-ख अड-वन्-ना। बयालीस(४२)क्रोड़ अट्ठावन (५८)लाख छत्तीस-सहस्स असीइं, छत्-तीस-सहस्-स-असी-इम्, छत्तीस,हजारअस्सी(३६०८०) सासय बिंबाई पणमामि ॥५॥ सास-य-बिम्-बा-इम् पण-मामि ॥५॥ शाश्वत प्रतिमाओं को मैं वंदन करता हूँ।५. | उपयोग के अभाव से होनेवाले गाथार्थ : तीनों लोक में स्थित पंद्रह अरब बयालीस क्रोड़ अट्ठावन लाख छत्तीस हजार अशुद्ध उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार अस्सी (१५,४२,५८,३६,०८०)शाश्वत जिन प्रतिमाओं को मैं वंदन करता हूँ। ५ अशुद्ध श्री गौतमस्वामी गणधर अष्टापदजी महातीर्थ की यात्रा करने पधारे, तब प्रभुजी के समक्ष अपडिहय अप्पडिहय इस सूत्र की पहली दो गाथाओं की रचना की। इसके अतिरिक्त की तीन गाथाएं बाद में जोड़ी मुणि बिहु मुणि बिह गई हैं । इस चैत्यवंदन सूत्र के अतिरिक्त अन्य गणधर रचित्र सूत्र पंचम गणधर श्री सुधर्मा बासियाई बासियाई आसिई स्वामीजी के द्वारा रचित माने जाते हैं। असिइं उज्जित उज्जिति श्री अष्टापद महातीर्थ की रचना से सम्बन्धित कुछ बातें कम्मभूमिहि कम्मभूमिहि एक-एक योजन की आठ सीढियों के द्वारा जिस तीर्थ का नाम अष्टापदजी पड़ा है, वह सयाई सयाई भरतक्षेत्र में है, परन्तु वर्तमान में यह तीर्थ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता है। वहा श्री ऋषभदेव भगवान ने दस हजार साधुओं के साथ निर्वाण प्राप्त किया था। उस हेतु तत्पर श्री सगरचक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों ने पर्वत निर्वाणस्थल के नजदीक उनके पुत्र श्री भरतचक्रवर्ती ने वार्धकीरत्न को के चारों ओर गहरी खाई खोदी, नागकुमार देव के क्रोध आदेश देकर सिंह-निषद्या( = सिंह आगे के पैरों को उठाए हुए बैठा हो से भस्म होकर देवलोक में गए। वैसी आकृति) प्रसाद चतुर्मुखी (चौमुखी) बनाया गया है । उसमें । श्री गौतमस्वामी गणधर अष्टापदजी के दक्षिण चौबीस प्रभुजी की ऊँचाई-वर्ण के अनुसार सबकी नासिका एक समान 1 दिशा की ओर से पधारे । इसीलिए चत्तारि-अट्ठ-दसश्रेणी में आए, उसके अनुसार रत्नमयी प्रतिमाएँ दक्षिण दिशा में तीसरे, । दोय (=४,८,१०,२) पाठ प्रचलित है। श्री मुनिसुव्रत चोथे, पाचवें, छठे भगवान, पश्चिम दिशा में सातवें से चौदहवें भगवान, स्वामी भगवान के समय में अयोध्यानगरी के बाहर उत्तरदिशा में पन्द्रहवें से चौबीसवें भगवान तथा पूर्वदिशा में पहले व विशाल वृक्ष की चोटी पर से अष्टापदजी तीर्थ की दूसरे भगवान की बनाई गई है। साथ ही ९९भाई, ब्राह्मी-सुंदरी बहनें । ध्वजा लहराती हुई दिखाई देती थी। सती दमयंती जब तथा मरुदेवी माता की सिद्धावस्था की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। पूर्वभव में 'वीरमति' थी, तब उसने इस तीर्थ की यात्रा तीर्थरक्षा के आशय से दंडरत्न से आस-पास के पर्वतो के शिखरों को करते हुए चोबीस परमात्मा को रत्न के तिलक चढाए तोडकर तथा उस स्फटिकाचल पर्वत को काटकर एक-एक योजन थे, इसी के प्रभाव से सती के भव में गाढ अंधकार में प्रमाण सीढ़िया बनाकर यन्त्र मानव स्थापित किया गया है। विशेष रक्षा भी ललाट से तेजपुंज निकल रहा था। M Pra
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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