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________________ एक एक पापस्थानक प्रवृत्ति, योग, करण तथा कषाय ३ प्रकार के योग = मन, वचन और काया। से गिनने से कुल १९४४ होते हैं। ३ प्रकार के करण = करण-करावण और अनुमोदन । ३ प्रकार की प्रवृत्ति ४ प्रकार के कषाय = क्रोध, मान, माया और लोभ १.संरंभ = पाप प्रवृत्ति के आचरण की इच्छा होना। इस प्रकार = ३xxx ४ = १०८ होते हैं। २. समारंभ = जो इच्छा हुई, उसे पूर्ण करने की तैयारी करना। १८ पाप स्थानक १०८ से गिनने से १९४४ की ३. आरंभ = प्रवृत्ति प्रारम्भ करना। । संख्या प्राप्त होती है। नोट:. वर्षों से यह सूत्र बोलते समय बोलनेवाले सात लाख, अठारह पापस्थानक, सामाइय-वय-जुत्तो, अतिचार भाग्यशाली '१४ लाख मनुष्य' तक पहुँचे, उस (गुजराती में), सागरचंदो कामो (पौषध पारने के सूत्र) में अन्त में समय उपस्थित सभी आराधक आगे के वाक्य एक 'मन-वचन-काया ए करी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' बोलना, अत्यन्त साथ बोलते हैं, जो योग्य नहीं है। क्योंकि एक अशुद्ध पाठ है। परन्तु उसमें नियमा मन-वचन-काया ए करी मिच्छा साथ बोलनेवालों में शब्द-उच्चारण का ढंग मि दुक्कडं' बोलना, वह अणिशुद्ध पाठ है, इसका ध्यान रखें। अलग-अलग होने के कारण अधिक स्पष्ट शब्द सर्व जीवों के आश्रय से उत्पन्न होने के स्थान असंख्य हैं, परन्तु सुनने की सम्भावना कम होती है। तथा इस सूत्र वर्ण, गंध, रस, स्पर्श तथा आकृति से जो उत्पत्ति स्थान समान को कंठस्थ नहीं करनेवाले आराधकों को शब्दों के होते हैं, उन सबों का एक-एक स्थान माना जाता है । इस प्रकार अस्पष्ट उच्चारण के कारण इतना धारण करने की कुल उत्पत्तिस्थान ८४ लाख हैं । उदा. पृथ्वीकाय के मूल भेद अधूरी सम्भावना रहती है । अतः आदेश लेनेवाले ३५०x= ५ वर्ण (=लाल, पीला, नीला, काला तथा सफेद)x भाग्यशालियों को ही पूर्ण सूत्र बोलने का आग्रह २ रंग (-सुंगध व दुर्गंध)x ५ रस (-तीखा, कडवा, खट्टा, मीठा रखना चाहिए तथा अन्त में 'मिच्छा मि दुक्कडं' एक व खट्टा (=कषाय) x ८ स्पर्श (=स्निग्ध, रुक्ष, उष्ण, शीत, साथ सबको बोलना चाहिए । इस प्रकार अठारह कर्कस, लेसेदार, कठोर तथा नरम) x ५ आकृति = संस्थान पापस्थानकों में, सामायिक पारने के सूत्र में, (=वृत्त, परिमण्डल, चौरस, लंबचौरस तथा त्रिकोण) अतिचार बोला जाए तब प्रत्येक अतिचार की ७,००,००० (सात लाख) होता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीवों समाप्ति के समय तथा पौषधव्रत पारते समय, यह के मूलभेद के साथ २००० (५४२४५४८४५) को गिनने से उन ध्यान रखना उचित प्रतीत होता है। संख्याओं की प्राप्ति होती है। जो निम्नलिखित हैं: प्रत्येक जीवों का गुणस्थानकक्रम २ गुणस्थानकतक ★८४,००,००० योनिया पृथ्वीकाय जीव के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० अप्काय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० तेउकाय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० वाउकाय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवों के मूल भेद ५००x२,००० = १०,००,००० साधारण वनस्पतिकाय जीवों के मूल भेद ७००४२,००० = १४,००,००० द्विइन्द्रिय जीवों के मूल भेद १००x२,०००= २,००,००० त्रि इन्द्रिय जीवों के मूळ भेद १००x२,०००= २,००,००० चतुरिन्द्रिय जीवों के मूल भेद १००x२,०००= २,००,००० देवता के जीवों के मूल भेद २००४२,०००= ४,००,००० नारकी जीवों के मूल भेद २००४२,०००= ४,००,००० तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के मूल भेद २००४२,००० = ४,००,००० मनुष्य जीवों के मूल भेद ७००x२,०००= १४,००,००० कुल ८४,०००,०० २ गुणस्थानक तक ४गुणस्थानकतक ५गुणस्थानकतक १४ गुणस्थानक तक जीवयोनियां है। PASEO
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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