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सिरिओ
(६) अर्णिकापुत्र
अणिआउत्तो आचार्य : देवदत्त वणिक् तथा अर्णिका
के पुत्र । नाम था संधिकरण परन्तु लोक में अर्णिकापुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए । जयसिंह
आचार्य के पास
दीक्षा लेकर अनुक्रम (५) श्रीयक : शकटाल मंत्री के छोटा पुत्र तथा
से शास्त्रज्ञ आचार्य हुए । रानी पुष्पचूला को आए हुए स्वर्गस्थूलभद्रस्वामी व यक्षादि सात बहनों के भाई । पिता की
|नरक के स्वजों का ज्यों का त्यों वर्णन कर प्रतिबोध दिलाकर मृत्यु के बाद नंदराजा का मंत्रीपद स्वीकार कर धर्म के
दीक्षा ग्रहण कराई । दुष्काल में अन्य मुनियों को देशांतर अनुराग से लगभग १०० जिनमंदिर तथा तीन सौ धर्मशालाए भेजकर वृद्धत्व के कारण स्वयं वहीं रहे । पुष्पचुला साध्वीजी बनवाई थी । और भी अनेक अनेक सुकृत कर चारित्र वैयावच्च करती थी । कालांतर में केवलज्ञानी साध्वीजी के अंगीकार किया। एक बार संवत्सरी पर्व में यक्षा साध्वीजी के |द्वारा वैयावच्च लिए जाने का ध्यान आने पर मिच्छा मि दुक्कडं आग्रह से उपवास का पच्चक्खाण किया । सुकमारता के |मांगकर स्वयं का मोक्ष गंगानदी पार करते समय होगा । यह कारण, कभी भूख सहन नहीं किए होने के कारण उसी रात्रि | जानकर गंगानदी पार उतरते हुए व्यंतरी द्वारा शूली चुभ जाने के शुभध्यानपूर्वक कालधर्म को प्राप्त किया।
कारण समताभाव से अंतकृत केवली होकर मोक्ष में पधारे।
अइमुत्तो
मेअज्ज
(७) अतिमुक्तमुनि : पेढलापुर नगर में विजय राजा-श्रीमती राणी के पुत्र अतिमुक्तक । माता-पिता की अनुमति से आठ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। जे जाणुं ते नवि जाणु, नवि जाणुं ते जाणुं' मृत्यु निश्चित है, यह जानता हूँ, परन्तु कब आएगी यह नहीं जानता । इस सुप्रसिद्ध वाक्य के द्वारा श्रेष्ठी की पुत्रवधू को प्रतिबोध दिलानेवाले मुनि बाल्यावस्था में वर्षाऋतु में भरे हुए गट्ठों में पात्रा की नाव चलाने लगे । तब स्थविरों ने साधुधर्म समझाते हुए वीर प्रभुजी के पास ऐसे तीव्र पश्चात्तापपूर्वक ईरियावहिया का 'दगमट्टी' शब्द बोलते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया।
(९) मेतार्यमुनि : चांडाल के घर जन्म
लिया, परन्तु श्रीमंत शेठ के यहाँ उसका (८) नागदत्त : वाराणसी नगरी के
लालन-पालन हुआ । पूर्वभव के
| मित्रदेव की सहायता से अद्भुत कार्यों यज्ञदत्त शेठ तथा धनश्री शेठानी के पुत्र ।।
को सिद्ध करने के कारण श्रेणिक राजा नागवसु कन्या के साथ विवाह किया।
का दामाद बना । अंत में देव के ३६ नगर का कोतवाल नागवसु को चाहता
वर्षों के प्रयत्नों से प्रतिबोध पाकर दीक्षा था । उसने राजा के गिरे हए कंडल को
ग्रहण की। श्रेणिक राजा के स्वस्तिक कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े निःस्पृही
के लिए सोने का ज्वार बनानेवाले नागदत्त के पास रखकर राजा के समक्ष
सुनार के घर गोचरी जाने पर सोनी उस पर चोरी का आरोप लगाया। शूली
भिक्षा वहोराने के लिए उठा, तभी क्रौंच पर चढ़ाते हुए नागदत्त के सत्य के
पक्षी सारा ज्वार खा गया । ज्वार नहीं प्रभाव से प्रगट हुई शासनदेवता ने
देखकर सुनार को शंका हुई। पूछने पर 'प्राण चले जाएं परन्तु पराई वस्तु को पक्षी के प्रति दया की भावना से मौन स्पर्श नहीं करे।' इस वाक्य को प्रमाणित | रहने के कारण शिर पर गीले चमरे की कर दिया। यह जानकर उसका यश चारो पट्टी बांधकर धूप में खड़े रखे । दोनों ओर फैल गया। अंत में दीक्षा लेकर आखें बाहर निकल जाने पर भी असह्य समस्त कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञानी यातना को समताभाव से सहन कर बनकर मोक्ष को प्राप्त किया।
अंतकृत केवली होकर मोक्ष में गए।।
२०८ Jan Education International
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