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________________ गाम नगर पुर पाटण जेह, गामनगर पुर पाटण जेह, ग्राम,नगर, पुरऔर पत्तन में जो जिनवर चैत्य नमुंगुणगेह। जिनवर चैत्-यनमुंगुण-गेह। गुणों के गृहरूपजिनेश्वर के चैत्यों को में वंदन करता हूँ, विहरमान वंदुंजिन वीश, विह-रमान वन्-दुंजिन वीश, बीस विहरमान जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ, सिद्ध अनंत नमुंनिशदिश॥१३॥ सिद्-धअनन्-तनमुनिश-दिश॥१३॥ रातदिनअनंत सिद्धभगवंतों को।१३. गाथार्थ : ग्राम, नगर, पुर और पतन में जहाँ-जहाँ सद्गुणो के स्थानभूत श्री जिनेश्वर भगवंतों के जिनमंदिरों हैं , उनको मैं वंदन करता हूँ। तथा महाविदेहक्षेत्र में साक्षात् विहरते ऐसे श्री सीमंधरस्वामी आदि बीस विहरमान भगवंतों को और सिद्धिगति को प्राप्त हुए अनंत सिद्ध भगवंतों की मैं नित्य प्रतिदिन वंदन करता हूँ। १३. अढीद्वीपमा जे अणगार, अढी-द्वीपमा जे अण-गार, ढाई द्वीप में जो साधु अढार सहस सीलांगना धार। अढा-र सहस सी-लाङ्-ग-ना धार। अठारह हजार शीयल के अंगों को धारण करनेवाले, व्रत समिति सार, पञ् (पन्)-च महा-व्रत समि-ति सार, सार रूप पाच महाव्रत, पाच समिति, पाळे पळावे पंचाचार ॥१४॥पाळे पळावे पञ् (पन्)-चा-चार ॥१४॥ पालते हैं और पलाते हैं पांच आचारों को ।१४. गाथार्थ : ढाई द्वीप मैं जो साधु भगवंतों अठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, आगार (घर) छोडकर अणगार (घर रहित ) बने हैं, सारभूत ऐसे पाँच महाव्रत को धारण करनेवाले, पांच समिति का पालन करनेवाले । ज्ञानाचार आदि पांच आचारों का पालन करनेवाले और अपने आश्रितों को पालन करानेवाले..... १४. बाह्य-अभ्यंतर तप उजमाल, बाह-य-अभ-यन्-तर-तप-उजमाल, बाह्य और अभ्यंतर तप में उज्जवल, ते मुनि वंदुं गुणमणिमाल। ते मुनि वन्-दुं गुण-मणि-माल। गुण रूप माला जैसे उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ। नित नित ऊठी कीर्ति करूं, नित नित ऊठी कीर-ति करूं, प्रतिदिन ऊठकर कीर्तन करता हूँ, 'जीव' कहे भव-सायर तरूं ॥१५॥ 'जीव' कहे भव-सायर तरूं ॥१५॥ श्री जीव विजयजी कहते हैं भव सागर को तीरजाऊंगा।१५. गाथार्थ : बाह्य और अभ्यंतर तप से उज्ज्वल हैं, गुण रूपी रत्नों की माला जैसे उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ । प्रतिदिन उठकर (उनका मैं ) कीर्तन करता हूँ। श्री जीव विजयजी कहते हैं (कि मैं ) भव सागर को तीर जाऊंगा । १५ स्वर्ग, पाताल तथा मर्त्यलोक में स्थित शाश्वत चैत्य तथा शाश्वत बिंबों की संख्या लोक शाश्वत चैत्य शाश्वत बिंब ८४,९७,०२३ १,५२,९४,४४,७६० पाताल भवनपतियों के आवास में ७,७२,००,००० १३,८९,६०,००,००० मर्त्यलोक में ३२५९ ३,९१,३२० (१) स्वर्ग में स्थित शाश्वत जिनचैत्य तथा शाश्वत बिंब चैत्यसंख्या प्रत्येक कुलबिंब नाम चैत्यसंखा प्रत्येक कुल बिंब चैत्य में चैत्य में बिंब संख्या बिंब संख्या पहले देवलोक में ३२,००,००० x १८० ५७,६०,००,०० नौवें देवलोक में ४०० x ८० ७२,००० दूसरे देवलोक में २८,००,००० x १८० ५०,४०,००,०० दसवें देवलोक में १८० तीसरे देवलोक में १२,००,००० x १८० २१,६०,००,००० ग्यारहवें देवलोक में ३०० x १८० ५४,००० चौथे देवलोक में ८,००,००० x १८० १४,४०,००,००० बारहवें देवलोक में १८० पाँचवें देवलोक में ४,००,००० x १८० ७,२०,००,००० नौ ग्रैवेयक में ३१८ x १२० ३८,१६० छठे देवलोक में ५०,००० x १८० ९०,००,००० पाँच अनुत्तर में ५ x १२० ६०० । सातवें देवलोक में ४०,००० x १८० ७२,००,००० आठवें देवलोक में ६,००० x १८० १०,८०,००० कुल ८४,९७,०२३ १,५२,९४,४४,७६० स्वर्ग नाम २२४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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