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प्रश्न २७ श्री क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग किस हेतु से किया जाता है ?
उत्तर :
प्रश्न २८ अविरतिधर श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का स्मरण रूप काउस्सग्ग करने से क्या मिथ्यात्व लगता है ? श्री आवश्यक सूत्र की बृहद्वृत्ति के प्रारम्भ में ही १४४४ ग्रंथ के रचयिता सूरिपुरंदर पू. आ. श्री. हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने श्रुतदेवता को नमस्कार किया है तथा पक्खीसूत्र आदि व श्री आवश्यकसूत्र की पंचांगी में श्रुतदेवता आदि का काउस्सग्ग करना चाहिए, ऐसा बतलाया गया है । श्री पूर्वधर (वाचक उमास्वातिजी महाराज आदि ) के काल में भी यह काउस्सग्ग होता था । उसका निषेध कभी नहीं किया गया है। यह काउस्सग्ग करने से मिथ्यात्व लगने की तो कोई संभावना ही नहीं है । परन्तु यह काउस्सग्ग करने से गुण की उपबृंहणा होती है । अर्थात् ज्ञानाचार का पालन होता है । ( सर्व अथवा देशविरतिधर उपरोक्त देवताओं का मात्र स्मरण किया जाता है । परन्तु 'वंदण - वत्तियाए' आदि पदों के द्वारा वंदन - नमनपूजन नहीं किया जाता है। अतः दोष की कोई संभवाना नहीं रहती । )
प्रश्न २९ यहाँ चौथी बार दो बार वांदणा किस हेतु से जाता है ?
उत्तर :
उत्तर :
हम जिस क्षेत्र (स्थान) के आश्रय में धर्मक्रिया करते हैं, उसके अधिष्ठायक क्षेत्रदेवता होते हैं, अतः उन्हें कृतज्ञता के रूप में याद किया जाता है तथा पू. महात्मा भी तीसरे अदत्तादान विरमण महाव्रत की भावना में क्षेत्र के स्वामी की बारम्बार आज्ञा लेने का विधान होने के कारण श्री क्षेत्रदेवता का स्मरणरूप काउस्सग्ग करते हैं।
प्रश्न ३० उत्तर :
जिस प्रकार राजा (मालिक) की आज्ञा से कार्य पूर्ण करने के बाद सेवक राजा को प्रणाम करके कार्य पूर्ण होने का निवेदन करता है, उसी प्रकार पू. गुरुभगवंत की आज्ञा से चारित्र आदि की विशुद्धि करने वाले इन छह आवश्यकों को मैंने पूर्ण किया है, यह बतलाने के लिए द्वादशावर्त्त वंदन स्वरूप दो बार वांदा यहाँ दिया जाता है। 'इच्छामो अणुसट्ठि' का क्या अर्थ है ? 'मैं पू. गुरुभगवंत के अनुशासन को चाहता हूँ ।' अर्थात् पू. गुरुभगवंत की आज्ञा के अनुसार मैंने संपूर्ण उपयोगपूर्वक छह आवश्यक स्वरूप
प्रतिक्रमण किया है ।
प्रश्न ३१ 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' सूत्र किस हेतु से बोला जाता है ?
श्री वीरविभु का शासन जयवंत है । उन जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा से प्रतिक्रमण किया जाता । वह प्रतिक्रमण किसी प्रकार के विघ्न के बिना पूर्ण हुआ है, उस आनंद को अभिव्यक्त (प्रगट) करने के लिए यह स्तुति (सूत्र) बोली जाती है।
प्रश्न ३२ 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' सूत्र (स्तुति) ऊँचे स्वर में क्यों बोला जाता है ?
उत्तर :
कृतज्ञ गुणसंपन्न महानुभावों का ऐसा व्यवहार होता है कि गुरुजनों की आज्ञा से निर्विघ्न रूप से पूर्ण किए गए कार्य की मंगल पूर्णाहुति हो, तब आनंद व्यक्त करने हेतु ऊँचे स्वर से देव- गुरु की स्तुति करनी चाहिए । साथ ही सांसारिक व्यावहार में भी आनन्द व्यक्त करने के लिए वाद्य-संगीत बजाये जाते है, नृत्य-संगीत आदि किए जाते हैं । इसी प्रकार छह आवश्यक की पूर्णाहुति का आनंद व्यक्त करने के लिए ऊँचे स्वर में ये तीन स्तुतियाँ एक साथ बोली जाती हैं । (सूर्यास्त के बाद बोली जानेवाली इन स्तुतियों के सामूहिक आवाज त्रसजीवों आदि के लिए कष्टकारक बने, ऐसा नहीं होना चाहिए । ) देवसिअ - प्रतिक्रमण में पू. महात्माओं में श्रेष्ठ गुरुभगवंत एक स्तुति बोलें, पक्खीचौमासी-संवत्सरी प्रतिक्रमण करते समय तीनों स्तुतियाँ बोले, उसके बाद ही समूह में बैठे अन्य महानुभाव एक स्वर में लयबद्ध रूप से मधुर स्वर में तीनों स्तुतियाँ बोलें । प्रश्न ३३ पू. साधु भगवंत तथा श्रावक 'नमोऽर्हत्' बोलकर 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' स्तुति बोलते हैं । जबकि पूज्य साध्वीजी भगवंत तथा श्राविकाएँ 'नमो खमासमणाणं' के बाद 'संसार दावानल' की प्रथम तीन गाथाएँ बोलते हैं, ऐसा भेद किसलिए है ? 'नमोऽर्हत्' 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय (विशाल लोचन दलं) स्तुति (सूत्र) पूर्व में से उद्धृत किया गया है । अर्थात् १४ पूर्वों में से ली गई हैं। स्त्रियों को पूर्व के दृष्टिवाद पढ़ने-बोलने
उत्तर :
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