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________________ अर्थ : श्री जिनेश्वरदेव के चैत्यों को मैं भावपूर्वक नमन करता हूँ कि जौ अशाश्वत और शाश्वत रूप में पृथ्वी तल पर भवनपतियों के श्रेष्ठ निवास स्थान पर विद्यमान है, इस मनुष्यलोक मे मनुष्य द्वारा कराये गए हैं और देवों तथा राजाओ से एवं देवराज-इन्द्र से पूजित हैं। ३०. छंद : अनुष्टप; राग : दर्शनं देव देवस्य.... (जिन-स्तुति) सर्वेषां वेधसामाद्यसर-वे-षाम् वेध-सामाद्-य सर्व ज्ञाताओ में प्रथम, मादिमं परमेष्ठिनाम्। मादि-मम्-पर-मेष्-ठि-नाम् । प्रथम परमेष्ठिओ में, देवाधिदेवं सर्वज्ञं, देवा-धि-देवम् सर्-व-ज्ञम् , । देवों के देव, सर्वज्ञ, श्री वीरं प्रणिदध्महे ॥३१॥ श्री-वीरम् प्रणि-दध्-महे ॥३१॥ श्री वीर प्रभु का हम ध्यान करते हैं । ३१. अर्थ : सर्व ज्ञाताओ में श्रेष्ठ, परमेष्ठियों में प्रथम स्थान पर बिराजित होने वाले, देवों के भी देव और सर्वज्ञ, ऐसे श्री महावीरस्वामीजी का हम ध्यान करते हैं। ३१. छंद : शार्दूल विक्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य (वीर प्रभु स्तुति) देवोऽनेक-भवार्जितोर्जित-महा- देवो-नेक-भ-वार्-जितोर-जित-महा- जो देव अनेक भवों में एकत्र किये हुए तीव्र महापाप-प्रदीपानलो, पाप-प्रदी-पा-नलो, पापों को दहन करने के लिये अग्नि-समान हैं, देवः-सिद्धि-वधू-विशाल-हृदया- देवः-सिद्-धि-वधू-विशा-ल-हृद-या- जो देव मुक्ति रुपी स्त्री के विशाल वक्षःस्थल को लङ्कार-हारोपमः। लङ्-कार-हारो-पमः। अलंकृत करने के लिए हार के समान हैं, देवोऽष्टादश-दोष-सिन्धुर घटा- देवोष्-टा-दश-दोष-सिन्-धुर-घटा- अठारह दूषण रुपी हाथियों के समूह को निर्भेद-पञ्चाननो, निर्-भेद-पञ्-(पन्)-चा-ननो, भेदन करने के लिए सिंह समान हैं, भव्यानां विदधातुभव-या-नाम्-विद-धातु भव्यभीवों को प्रदान करें वाञ्छित फलंवाञ्-(वान्) छित-फलम् इच्छित फलश्री वितरागो जिनः ॥३२॥ श्री-वित-रागो-जिनः ॥३२॥ वे श्री वीतराग जिनेश्वर देव । ३२. अर्थ : जो देव अनेक भवो में एकत्र किये हुए तीव्र महापापों को दहन करने के लिये अग्नि-समान है, जो देव मुक्ति रूपी स्त्री के विशाल वक्षःस्थल को अलङ्कृत करने के लिये हार के समान हैं, अठारह दूषण रूपी हाथियों के समूह को भेदन करने के लिये सिंह सदृश हैं, वे श्री वीतराग जिनेश्वरदेव भव्य-प्राणियों को इच्छित फल प्रदान करें। ३२. क्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य (गाथा-१-२) ख्यातोऽष्टापदपर्वतोख्या-तो-ष्टा-पद-पर-वतो- प्रसिद्ध अष्टापद पर्वतगजपदः सम्मेतशैलाभिधः, गज-पदः-सम्-मेत-शैला भिधः, गजपद पर्वत, सम्मेत शिखर नामक पर्वत, श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्धमहिमा- श्री-मान रैव-त-कः प्रसिद्-ध-महि-मा- श्री गिरनार पर्वत, प्रगट महिमावंतशत्रुञ्जयो मण्डपः। शत्-रुञ्-(रुन्)-जयो-मण्-डपः । श्री शत्रुजय पर्वत, मांडव गढ, वैभारः कनकाचलोऽर्बुदगिरिः- वैभा-रः कन-का-चलोर-बुद-गिरिः- वैभारगिरि, सुवर्णगिरि, आबु पर्वत, श्री चित्रकूटादयश्री-चित्र-कूटा-दय श्री चित्रकुट (चितोड) विगेरे, स्तत्र श्रीऋषभादयो जिनवरा:- स्त-त्र श्री-ऋष-भा-दयो जिन-वरा:- वहाँ पर श्री ऋषभदेव आदि जिनेश्वर कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥३३॥ कुर्-वन्-तु वो-मङ्-ग-लम् ॥३३॥ करें तुम्हारा कल्याण । ३३. अथ : प्रसिद्ध अष्टापद पर्वत, गजापद अथवा दशार्णकूट पर्वत, सम्मेतशिखर, शोभावान् गिरनार-पर्वत, प्रसिद्ध महिमावाला शत्रुञ्जय गिरि, मांडवगढ, वैभारगिरि, कनकाचल (सुवर्णगिरि), आबूपर्वत, श्री चित्रकूट आदि तीर्थ हैं, वहाँ स्थित श्री ऋषभदेव आदि जिनेश्वर तुम्हारा कल्याण करें। ३३. उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चार के सामने शुद्ध उच्चार अशुद्ध अशुद्ध शुद्ध सकलारत् सकलात् निर्मलीकारकारिणम् निर्मलीकारकारणम् आदिमं पृथवीनाथ आदिमं पृथिवीनाथ कमठेधरणेन्द्रेग्च कमठे धरणेन्द्रेच शाणाग्रोतेजितांघ्रि शाणामोत्तेजितांघ्रि बाष्पादयोभद्रं बाष्पाईयोर्भद्रं मूर्ति मूर्तिसितध्यान मूर्तिर्मूर्तसितध्यान विशालदया विशालहृदया ध्युत्किरीट घुसत्किरीट ५२० onal शुद्ध
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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