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________________ अर्थ : निश्चलता-पूर्वक भक्ति (=विनय) से झुके हुए तथा मस्तक पर दोनों हाथ जोड़े हुए ऐसे ऋषियों के समूह से अच्छी तरह स्तुति किये गये; इन्द्र-कुबेरादि लोकदिक्पाल और चक्रवर्तियों से अनेक बार स्तुत, वन्दित और पूजित; तप से तत्काल उदित शरदऋतु के सूर्य से भी अत्यधिक कान्तिवाले, आकाश में विचरण करते करते एकत्रित हुए चारण मुनियों से मस्तक के द्वारा वन्दित, असुरकुमार, सुवर्णकुमार आदि भवनपति देवों के द्वारा उत्कृष्ट प्रणाम किये हुए, किन्नर और महोरग आदि व्यन्तर देवों से पूजित; शत-कोटि वैमानिक देवों से स्तुति किये हुए, श्रमणप्रधान चतुर्विधसङ्घ द्वारा विधि-पूर्वक वन्दित, भयरहित, पाप-रहित, कर्म-रहित, रोग-रहित और किसी से भी पराजित नहीं होने वाले देवाधिदेव श्री अजितनाथ को मैं मन, वचन और काया के प्रणिधान पूर्वक प्रणाम करता हूं। १९-२०-२१ आगया वर-विमाण-दिव्व-कणग- आग-या-वर-विमा-ण-दिव्-व-कण-ग- आए हुए श्रेष्ठ विमान और दिव्य सुवर्णमय रह-तुरय-पहकर-सएहिं-हुलिअं, रह-तुर-य-पह-कर-सए-हिम्-हुलि-अम्, रथ और घोडों के समूह सैंकड़ों द्वारा शीघ्र ससंभमो-अरणससम्-भमो-अर-ण संभ्रम द्वारा आकाश से उतरते हुएखुभिअ-लुलिअ-चल-कुंडलं- खुभि-अ-लु-लि-अ-चल-कुण-डलम्- क्षुभित चित्तवाले होने से डुलते चंचल कुंडलगयतिरीड-सोहंत-मउलि- गय-ति-रीड-सोहन्-त-मउ-लि- बाजुबंध और मुकुट, शोभित है मस्तक की माला ॥ २२ ॥(वेड्ढओ) माला ॥ २२ ॥(वेड्-ढ-ओ) माला जिनकी ऐसे । २२. जं सुर-संघा सासुर-संघा- जम्-सुर-सङ्-घा-सासु-र-सङ्-घा- जो भगवंत को देव समुदाय, असुर समुदाय सहित, वेर-विउत्ता भक्ति-सुजुत्ता, वेर-विउत्-ता भत्-ति-सुजुत्-ता, वैर रहित, भक्ति से अच्छी तरह से युक्त, आयर-भूसिय-संभम-पिडिय- आय-र-भूसि-य-सम्-भम-पिण्-डिय- आदर से शोभित, शीघ्र एकत्रित हुए, सुट्ठ-सुविम्हिय-सव्व-बलोघा। सुट्-ठु-सु विम्-हिय-सव-व-बलो-घा। अतिशय विस्मित हए है,सभी प्रकारकेसैन्य हैं उत्तम-कंचण उत्-तम-कञ (कन्)-चण- (ऐसे) श्रेष्ठ सुवर्ण और रयण-परूवियरय-ण-परू-विय रत्न द्वारा विशेष रूप से युक्त किया हुआ, भासुर-भूसण-भासुरिअंगा, भासु-र-भूस-ण-भासु-रि-अङ्-गा, देदीव्यमान अलंकारों से शोभायमान हे अंग जिनके गाय-समोणय-भत्ति-वसागय- गाय-समो-णय-भत्-ति-वसा-गय- भक्ति भाव से आए हुए और शरीर द्वारा झुके हुए पंजलि-पेसिय-सीस पञ्-(पन्) जलि-पेसिय-सीस- अंजलि द्वारा किया है, मस्तक से पणामा ॥ २३ ॥ (रयणमाला) पणा-मा ॥२३॥ (रयण-माला) प्रणाम । २३. वंदिऊण थोऊण तो जिणं, वन्-दि-ऊण थो-ऊण-तो जिणम्, जो भगवंत को वंदना करके, स्तवना करके, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं। ति-गुण-मेव य पुणो पया-हिणम् । तीनबार पुनः प्रदक्षिणा देकर। पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पण-मि-ऊण य जिणम् सुरा-सुरा, प्रणाम करके और जिनेश्वर को सुर-असुरपमुइया सभवणाई तो- पमु-इया सभ-वणा-इम् तो आनंदित होते हुए, अपने भवन की ओर गया ॥२४॥(खित्तयं) गया ॥२४॥(खित्-त-यम्) गए। २४. हामणि-महं पि-पंजली, तम् महा-मणि-महम्-पिपजा( पन्)-जली, उन महामुनि को मैं भी अंजलि पूर्वक राग-दोष-भय-मोह-वज्जि। राग-दोष-भय-मोह-वज्-जिअम्। राग, द्वेष, भय, मोह रहित, देव-दाणव-नरिंद-वंदियं, देव-दाण-व-नरिन्-द-वन्-दि-अम्, । देव-दानव और राजाओं से वंदित, संतिमुत्तमं महातवंसन्-ति-मुत्त-मम्-महा-तवम् श्री शान्तिनाथजी को श्रेष्ठ और बड़े तप वाले को नमे ॥ २५ ॥ (खित्तयं) नमे ॥ २५ ॥(खित्-त-यम्) नमस्कार कर अर्थ : सैकड़ों श्रेष्ठ विमान, सैकड़ों दिव्य-मनोहर सुवर्णमय रथ और सैकड़ों घोडों के समूह से जो शीघ्र आये हुए हैं और वेग-पूर्वक नीचे उतरने के कारण जिनके कानों के कुण्डल, भुजबन्ध और मुकुट क्षोभ को प्राप्त होकर हिल रहे हैं और चंचल बने हैं; तथा जो (परस्पर) वैर-वृत्ति से मुक्त और पूर्ण भक्तिवाले हैं ; जो शीघ्रता से एकत्रित हुए हैं और बहुत आश्चर्यान्वित है तथा सकल-सैन्य परिवार से युक्त हैं, जिनके अंग उत्तम जाति के सुवर्ण और रत्नों से बने हुए तेजस्वी अललङ्कारों से देदीप्यमान हैं; जिनके गात्र भक्तिभाव से झुके हुए हैं तथा दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर प्रभु को वन्दन करके, स्तुति करके, वस्तुतः तीन बार प्रदक्षिणा-पूर्वक अत्यन्त हर्षपूर्वक अपने भवनो में वापस लौटते हैं, उन राग, द्वेष, भय और मोह से रहित, देवेन्द्र, दानवेन्द्र एवं नरेन्द्रों से वन्दित श्रेष्ठ महान तपस्वी और महामुनि श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं भी अञ्जलिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। २२-२३-२४-२५. २६२ हू।२५. VIJPrivate areliarnal us
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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