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जिनमुद्रा में सुनते
समय की मुद्रा ।
योगमुद्रा में बोलते
समय की मुद्रा ।
५३. श्री स्नातस्या स्तुति
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आदान नाम : श्री स्नातस्या स्तुति गौण नाम : श्री वर्द्धमान जिन स्तुति
छंद : शार्दूल-विक्रीडित; राग - 'सिद्धे भो पयओ.... ' ( पुक्खर वर द्दीवड्ढे सूत्र, गाथा-४ ) स्नातस्या- प्रतिमस्य मेरुशिखरे - स्ना-तस्-या-प्रति-मस्-य-मेरु-शिख-रे- स्नान कराये हुए अनुपम ऐसे मेरु पर्वत के शिखर पर शच्या विभोः शैशवे,
शच् या विभोः शै-शवे,
रुपालोकन - विस्मया हृत-रस
रुपा लोक-न- विस्मया-हृत-रस
भ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । उन्मृष्टं नयन-प्रभा - धवलितं क्षीरोदका शङ्कया,
भ्रान्-त्या भ्रमच्-चक्षुषा । उन्- मृष्टम् नय-न-प्रभा-धव-लितम्क्षीरोदका - शङ् - कया,
इन्द्राणी द्वारा प्रभु के बाल्यकाल में रुप को देखकर आश्चर्य के कारण उत्पन्न अद्भुत रस की भ्रान्ति से, फिरते हुए नयनोवाली पोंछा है, आँख की निर्मल कांति से उज्ज्वल क्षीर समुद्र का पानी रह तो नही गया ? एसी शंका से जिनके मुख 'को बारम्बार, वह जय को प्राप्त हो, श्री वर्द्धमान जिनेश्वर । १.
वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति-वक्-त्रम् यस्य पुनः पुनः स जय-तिश्री वर्द्धमानो जिनः ॥ १ ॥ श्री- वर्द्ध-मानो जिनः ॥ १ ॥ अर्थ : बाल्यावस्था में मेरु पर्वत पर स्नात्र - अभिषेक कराये हुए प्रभु के रूप का अवलोकन करते हुए उत्पन्न हुई अद्भुत रस की भ्रान्ति से चञ्चल चबने हुए नेत्रोंवाली क्षीरसागर का जल रह तो नहीं गया ? एसी शङ्का से अपनी नेत्रकान्ति से ही उज्ज्वल बने हुए जिनके मुख को बार-बार पोंछा, वे श्री महावीर जिन जय को प्राप्त हो । १. हंसां-साहत-पद्मरेणु-कपिश- हन्-साम्-सा-हत-पद्म-रेणु-कपि-श- हंस पक्षी की पाँखो से उडे हुए कमल पराग से पीते ऐसे क्षीरार्ण-वाम्भो-भृतैः, क्षीरार्ण-वाम्-भो-भृतैः,
क्षीर समुद्र के जल
भरे हुए,
(और) कलशो से अप्सराओं के स्तन समूह की । स्पर्धा करनेवाले सुवर्ण के,
कुम्भ-रप्सरसां पयोधर-भर- कुम् - भै-रप्-सर-साम् पयो-धर-भरप्रस्पर्धिभिः काञ्चनैः । प्रस्-पर्-धि-भिः काञ् - (कान् ) - चनैः येषां मन्दर-रत्नशैल-शिखरे - येषाम् मन्दर-रत्-न-शैल- शिख-रेजन्माभिषेकः कृतः, जन्मा-भिषेकः कृतः,
जो तीर्थंकरो को मेरुपर्वत के शिखर पर जन्माभिषेक किया है।
सर्वैः सर्व-सुरासुरेश्वर-गणै
सर्वैः सर्व-सुरा-सुरेश्वर-गणस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥ २ ॥ स्ते षाम् नतो-हम् क्रमान् ॥ २ ॥
सर्व जाति के सुर और असुरों के इन्द्रोने उनके चरणो में मैं नमन करता हूँ । २.
विषय : श्री वर्द्धमानस्वामी की भाववाही जन्माभिषेक आदि संबंधित स्तुति ।
अर्थ : सर्व जाति के सुर और असुरों के इन्द्रों ने जिनका जन्माभिषेक हंस की पाँखों से उड़े हुए कमल-पराग से पीत ऐसे क्षीर समुद्र के जल से भरे हुए और अप्सराओं के स्तन-समूह की स्पर्धा करनेवाले सुवर्ण के घड़ों से मेरुपर्वत के रत्नशैल नामक शिखर पर किया है, उनके चरणों में मैं नमन करता हूँ । २.
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