SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल सूत्र । उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ एवं मए अभिथुआ, एवम्-मए अभि-थुआ, इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, विहुय-रय-मलाविहु-य-रय-मला कर्म रूपी रज (नये बंधने वाले कर्म) और मल पहीण-जर-मरणा। पही-ण-जर-मरणा। (पहले बंधे हुए कर्म ) से रहित, वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त, चउ-वीसं पि जिणवरा, चउ-वी-सम्-पि जिण वरा, चौबीसों जिनेश्वर, तित्थ-यरा मे पसीयंतु ॥५॥ तित्-थ-यरा मे पसी-यन्-तु ॥५॥ तीर्थ के प्रवर्तक मेरे उपर प्रसन्न हों । ५. गाथार्थ : इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्म रूपी रज और मल से रहित, वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त, तीर्थ के प्रवर्तक चौबीसों जिनेश्वर मेरे उपर प्रसन्न हों। ५. कित्तिय-वंदिय-महिया, कित्-तिय-वन्-दिय-महि-या, कीर्तन-वंदन-पूजन किये गए हैं, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। जे ए लोगस-स् उत्-तमा सिद्-धा। जो इस लोक में उत्तम हैं, सिद्ध हैं, आरुग्ग-बोहिलाभ, आरुग्-ग बोहि-लाभम्, आरोग्य (मोक्ष) के लिये बोधिलाभ (सम्यक्त्व) समाहिवर-मुत्तमं दितु ॥६॥ समाहि-वर-मुत्-त-मम् दिन्-तु ॥६॥ उत्तम भाव समाधि प्रदान करें। ६. गाथार्थ : जो कीर्तन-वंदन-पूजन को प्राप्त हुए हैं, लोक में प्रधान सिद्ध हैं, वे आरोग्य के लिये बोधिलाभ और उत्तम भाव समाधि प्रदान करें। ६. चंदेसु निम्मलयरा, चन्-देसुनिम्-म-लय-रा, चंद्रों से अधिक निर्मल, आईच्चेसु अहियं पयासयरा। आईच्-चेसुअहि-यम्पया-सयरा। सूर्यों से अधिक प्रकाशमान, सागरवरगंभीरा, सागर-वर-गम्-भीरा, श्रेष्ठसागर(स्वयंभू-रमण समुद्र) से अधिक गंभीर सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥ सिद्-धा सिद्-धिम्मम दिसन्-तु ॥७॥ सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि(मुक्ति) प्रदान करें।७. गाथार्थ : चंद्रों से अधिक निर्मल, सूर्यों से अधिक प्रकाशवान, श्रेष्ठ सागर से अधिक गंभीर सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि प्रदान करें। ७. (नोंध:- श्री लोग्गस्स सूत्र में 'चउविसंपि' के स्थान पर चउव्वीसं का मत होने के कारण गुरु अक्षर २७ के बदले २८ होते हैं।) सत्र की आवश्यकता से सम्बन्धित कछ तथ्य प्रातःकाल व सन्ध्याकाल प्रतिक्रमण चतुर्विंशति स्तव है। उसमें २४ भगवान की स्तवना की जाती है । इस हेतु लोगस्ससूत्र में छह आवश्यकों का आचारण होता है। का उपयोग किया जाता है। रत्नत्रयी की शुद्धि हेतु तथा विविध आराधना हेतु साथ ही इन छह आवश्यकों में दूसरा आवश्यक क्षुद्रोपद्रव-कर्मक्षय आदि हेतु श्री लोगस्स सूत्र का कायोत्सर्ग में स्मरण किया जाता है। उपयोग के अभाव से होते कहा कितने प्रमाण में कायोत्सर्ग करना चाहिए? अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार 'कुसुमिण' का कायोत्सर्ग दृष्ट-स्वप्न अथवा स्वप्नरहित रात्रि हो तो 'चार लोगस्स, चंदेसु-निम्मलयरा' तक किया अशुद्ध शुद्ध जाता है तथा चौथे व्रत से सम्बन्धित स्खलना = कुत्सित : कितईसं कित्तइस्सं स्वप्न आया हो तो चारलोगस्स,सागर-वर-गम्भीरा'तक। संभव-मभिअणंदणंच संभव-मभिणंदणंच क्षद्रोपद्रव का नाश करने तथा छींक का काउस्सग्ग भी पउमपहं पउमप्पहं 'सागर वर गम्भीरा' तक किया जाता है। लघुशांति तथा : कुंथु कुंथु बृहत्-शांतिस्तव आदि शांतिकर्म में सम्पूर्ण लोगस्स का एव महे अभित्थुआ एवम्-मए अभिथुआ कायोत्सर्ग किया जाता है। किसी भी पद की आराधना विहुयरयमल्ला विहुय रयमला अथवा कर्मक्षय निमित्त का कायोत्सर्ग'चंदेसु निम्मलयरा' सिद्धा सिद्धि मम दिसतु सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु तक किया जाता है। कि सूर हट
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy