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अर्थ : जो दीक्षा से पूर्व श्रावस्ती (अयोध्या ) के राजा थे, जिनका संस्थान श्रेष्ठ हाथी के कुम्भस्थल जैसा प्रशस्त और विस्तीर्ण था, जो निश्चल और अविषम वक्षःस्थल वाले थे (जिनके वक्षःस्थल पर निश्चल श्रीवत्स था), जिनकी चाल मद झरते हुए और लीला से चलते हुए, श्रेष्ठ गन्धहस्ति जैसी मनोहर थी, जो सर्व प्रकार से प्रशंसा के योग्य थे, जिनकी भुजाएँ हाथी की सूढ के समान दीर्ध और मजबूत थी, जिनके शरीर का वर्ण तपाये हुए सुवर्ण की कान्ति जैसा स्वच्छ पीला था, जो लक्षणों से युक्त, शान्त और मनोहर रुपवाले थे, जिनकी वाणी कानों को प्रिय, सुखकारक, मन को आनन्द देनेवाली, अतिरमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभि के नाद से भी अतिमधुर और मङ्गलमय थी, जो अन्तर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले थे, जो सर्व भयों को जीतने वाले थे, जो भव-परम्परा के प्रबल शत्रु थे, ऐसे श्री अजितनाथ भगवान को मैं मन, वचन और काया के प्रणिधानपूर्वक नमस्कार करता हूँ और निवेदन करता हूँ कि 'हे भगवन् ! आप मेरे अशुभ कर्मो का प्रशमन करो । ९-१०. कुरु-जणवय-हत्थिणाउर- कुरु-जण-वय-हत्-थिणा-उर- कुरुदेश के हस्तिनापुर नगरी के नरीसरो पढमं, तओ नरी-सरो-पढ-मम्, तओ
राजा प्रथम, उसके बाद महाचक्कवट्टि-भोए महा-चक्-क-वट्-टि-भोए
महा चक्रवर्ती के राज्य को भोगनेवाले, महप्पभावो। महप-पभा-वो।
बहुत प्रभाव है जिनका, जो बावत्तरि-पुरवर-सहस्स-वर- जो बावत्-तरि-पुर-वर-सहस्-स-वर- जो बहतर, शहर मुख्य, हजार, प्रधान, नगर-निगम-जणवय-वई- नगर-निग-म-जण-वय-वई
नगर, निगम, और देश के स्वामी, बत्तीसा-रायवर-सहस्साणु- बत्-तीसा-राय-वर-सहस्-साणु- बत्तीस हजार भूप (राजा) अनुसरण करते याय-मग्गो। याय-मग्-गो।
मार्ग कोचउदस-वर-रयणचउ-दस-वर-रय-ण
चौदह श्रेष्ठ रत्नों, नव-महानिहिनव-महा-निहि
नौ महान् निधि, चउसट्ठि-सहस्स-पवर
चउ-सट्-ठि-सहस्-स-पव-र- चौसठ हजार सुंदरजुवईण-सुन्दरवई, चुलसी-हय- जुव-ईण-सुन्-दर-वई, चुल-सी-हय- स्त्रियों के स्वामी, चौरासी घोड़े गय-रह-सय-सहस्स-सामी- गय-रह-सय सहस्-स-सामी- हाथी, रथ, लाख के स्वामी, छन्नवई-गाम-कोडि-सामी, छन्-न-वई गाम-कोडि सामी- छियानवे गाँव क्रोड के स्वामी, आसी-जो भारहम्मि भयवं ॥११॥ आसी-जो-भार-हम्-मि भय-वम् ॥११॥ जो भरत क्षेत्र में भगवान्।११. (वेड्ढओ) तं संतिं संतिकरं, (वेड्-ढओ) तम् सन्-तिम् सन्-ति करम् वह उपशांत रुप, शान्ति को करनेवाले, संतिण्णं सव्वभया।
सन्-तिण-णम् सव्-व-भया। शान्त हुए सर्व भयों से अच्छी तरह, संतिं थुणामि जिणं, सन्-तिम् थुणा-मि जिणम्,
श्री शान्तिनाथजी की स्तवना करता हूँ, जिनेश्वर को संतिं (च) विहेउं मे ॥१२॥ सन्-तिम् (च) विहे-उम् मे ॥१२॥ शान्ति करने के लिए मेरे लिए।१२. (रासा-नंदिअयं)
(रासा-नन्-दि-अ-यम्) अर्थ : जो भगवान् प्रथम भरतक्षेत्र में कुरुदेश के हस्तिनापुर के राजा थे और तदनन्तर महाचक्रवर्ती के राज्य को भोगने वाले, महान् प्रभाववाले, तथा बहत्तर हजार मुख्य शहर और हजारों नगर तथा निगम वाले देश के अधिपति बने; जिनके मार्ग का बत्तीस हजार उत्तम भूप (= राजा) अनुसरण करते और जो चौदह श्रेष्ठ रत्नों, नौ महानिधियों, चौंसठ हजार सुन्दर स्त्रियों के स्वामी बने तथा चौरासी लाख घोडे, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छियानवे करोड गांवों के अधिपति बने तथा जो मूर्तिमान् उपशम जैसे शान्ति करनेवाले, सर्व भयों से अच्छी तरह शान्त हुए और रागादि शत्रुओं को जीतनेवाले, उन श्री शान्तिनाथ भगवान की मैं शान्ति के निमित्त स्तुति करता हूँ।११-१२. इक्खाग ! विदेह-नरीसर !- इक्-खाग ! विदे-ह-नरी-सर !- हे ईक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न ! हे विदेह देश के राजा ! नर-वसहा ! मुणि-वसहा !, नर-वस-हा ! मुंणि वस-हा!, हे मनुष्यो में श्रेष्ठ ! हे मुनियों में श्रेष्ठ ! नव-सारय-रसि-सकलाणण!-नव-सार-य-रसि-सक-ला-णण! हे शरदऋतु के नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले विगय-तमा ! विहुय-रया !। । विग-य-तमा ! विहु-यर-या!। हे अज्ञान रहित ! हे कर्म रहित ! अजि-उत्तम-तेअअजि-उत्-तम-तेअ
हे अजितनाथ ! अति उत्तम तेजवालेगुणेहिं महामुणि!गुणे-हिम् महा-मुणि!
गुणों द्वारा महामुनि! अमिअ-बला ! विउल-कुला! | अमि-अब-ला! विउ-ल-कुला! हे अपरिमित (=अनंत )बल वाले ! हे विशाल कुलवाले!
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