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जिणमए
छंद : शार्दूल-विक्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य... (वीर प्रभु स्तुति) सिद्धे भो! पयओणमो- सिद्-धे-भो! पय-ओ-णमो- । हेमनुष्यों ! सिद्ध( प्रख्यात )जिन मत (जैन दर्शन) जिण-मए
| को मैं आदर पूर्वक नमस्कार करता हूँ, नंदी सया संजमे,
नन्-दी सया सञ् (सन्)-जमे, संयम में सदा वृद्धि करने वाला, देवं-नाग-सुवन्न-किन्नर-गण- देवन्-नाग-सुवन्-न-किन्-नर-गण- देव, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार और किन्नर देवों के स्सब्भूअ-भावच्चिए। स्सब्-भूअ-भावच्-चिए।
समूह द्वारा सच्चे भाव से पूजित, लोगो-जत्थ-पइटिओ लोगो-जत्-थ-पइट-ठिओ
जिसमें लोक (सकल पदार्थों का ज्ञान)
प्रतिष्ठित (वर्णित) है, जगमिणं तेलुक्क मच्चासुरं, जग-मिणम् तेलुक्-क-मच्-चा-सुरम्, यह जगत तीनों लोक में मनुष्य, (देव) और
असुरादि के आधार रूप, धम्मो वड्डउ सासओ विजयओ धम्-मो वड्-ढउ-सासओ-विज-य-ओ- शाश्वत ( श्रुत ) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो, विजयों धम्मुत्तरं वड्डउ॥४॥ धम्-मुत्-तरम् वड्-ढउ॥४॥ से उत्तर( चारित्र ) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । ४. गाथार्थ : हे मनुष्यों ! मैं सिद्ध जैन मत को आदर पूर्वक नमस्कार करता हूँ। संयम में सदा वृद्धि करने वाला, देव, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार और किन्नर देवों के समूह द्वारा सच्चे भाव से पूजित, जिसमें लोक और यह जगत प्रतिष्ठित है और तीनों लोक के मनुष्य और असुरादि का आधार रूप शाश्वत ( श्रुत) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । विजयों से चारित्र धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । ४. मूल सूत्र उच्चारण में सहायक
इस सूत्र के सम्बन्धमें कुछ जानकारी. सुअस्स भगवओ- सुअस्-स भगवओ
सिद्धांत से ही परमात्मा को तथा उनके द्वारा कहे गए भावों करेमि काउस्सग्गं, करे-मि-काउस्-सग्-गम्, को जाना जा सकता है। यह श्रुतधर्म भरत वगेरे १५ क्षेत्रों में ही होता वंदण-वत्तियाए... वन्-दण-वत्-ति-याए... है, अतः प्रथम गाथा में इन पन्द्रह क्षेत्रों में श्रुतधर्म का प्रतिपादन अन्नत्थ... अन्-नत्-थ...
करनेवाले श्री तीर्थंकरदेवों की स्तुति की गई है। दूसरी गाथा में गावार्थ : पूज्य श्रुत धर्म को वंदण आदि करने के
श्रुतधर्म की स्तुति, तीसरी गाथा में ऐसे श्रुतधर्म को पाकरप्रमाद नहीं लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।
करना चाहिए तथा चौथी गाथा में चारित्र धर्म की प्राप्ति होने के बाद
ही श्रुतधर्म विशेष वृद्धि को प्राप्त करता है, ऐसा बतलाया गया है। अशुद्ध सिद्धेभो! पयणोअणमो सिद्धे भो! पयओणमो
सूचना : 'देवं नाग' की जगह मतांगर से 'देवन्नाग' भी देखने किन्नरगण सब्भुअ किन्नरगणस्सब्भूअ
मिलता है । इस लिए गुरु-अक्षर ३८ के बदले ३५ भी होते हैं।
एमवयस्टीवो
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सुस्मगलिक
पुष्करवर के आधे द्वीप, धातकीखंड तथा जंबूद्वीप में धर्म की आदि करनेवाले अरिहंत प्रभु को भावपूर्वक नमस्कार । १.
सीमाधार (आव) अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाले, सुरसुरेन्द्र के समुदाय के द्वारा पूजित, मोह रूपी अग्निज्वाला को शांत करनेवाले तथा मर्यादा में रखनेवाले श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ । २.
१४४ Jain Education internati
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