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संलेषणा के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण इहलोए परलोए, इह-लोए पर-लोए,
इस लोक, पर लोक की, जीविअ-मरणेजीवि-अ-मरणे अ
जीवित की, मरण की और काम-भोग आसंस-पओगे। आ-सन्-स-पओ-गे।
संबंधित आशंसा की हो, पंचविहो अइआरो, पञ् (पन्)-च-विहो अइ-आरो,
ये पांच प्रकार के अतिचार मा मज्झ हुज्ज मरणंते ॥३३॥ मा मज्-झ हुज्-ज मर णन्-ते ॥३३॥ मुझे मृत्यु के समय में न हों- ३३. गाथार्थ : १. आलोक = धर्म के प्रभाव से इस लोक में सुखी बनने की इच्छा करनी; २. पर-लोक = धर्म के प्रभाव से परलोक में देव-देवेन्द्र आदि सुख मिले, ऐसी इच्छा करनी; ३. जीवित = अनसन आदि तप के कारण सन्मान देखकर जीने की इच्छा करनी; ४. मरण-वाच्छा = स्वीकारे हुए अनसन व्रत में दुःख से गभराकर मरने की इच्छा करनी और ५. काम-भोगआशंसा = कामभोग की अभिलाषा करनी; इन संलेषणा के पांच अतिचारों में से एक भी मुझे मरणांत तक न हो । ३३.
सभी व्रत के अतिचारो का प्रतिक्रमण काएण काइअस्स, काए-ण काइ-अस्-स,
काया द्वारा, काया से पडिक्कमे वाइअस्स वायाए। पडिक्-कमे वाइ-अस्-स वाया-ए।
वचन से, वचन द्वारा मणसा माणसिअस्स, मण-सा माण-सि-अस्-स,
मन द्वारा मन से सव्वस्स वयाइआरस्स ॥३४॥ सव-वस्-स वया-इआ-रस्-स ॥३४॥
सर्व व्रतों में लगे अतिचारों का । ३४.. गाथार्थ : (१) अशुभ काया से लगे हुए अतिचारों को शुभकाय योग से, (२) अशुभ वचन से लगे हुए अतिचारों को शुभ वचन योग से और (३) अशुभ मन से लगे हुए अतिचारों को शुभ मनोयोग से, इस तरह सर्व (सभी) व्रत के अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३४. वंदणवय-सिक्खागा-वेस वन्-दण-वय-सिक्-खा-गार-वेसु, वंदन, व्रत, शिक्षा, और गारव संबंधी सन्ना-कसाय-दंडेसु। सन्-ना कसा-य दण्-डेसु।
संज्ञा, कषाय और दंड संबंधी गुत्तीसु अ समिइसु अ, गुत्-तीसु अ समि-इ-सु अ,
गुप्ति और समितियों संबंधी जो अइआरो अतं निंदे ॥३५॥ जो अइ-आरो अ तम् निन्-दे ॥३५॥ जो अतिचार लगे हो । ३५. गाथार्थ : १. वंदन = दो प्रकार के देववंदन, गुरुवंदन । २. व्रत = बारह प्रकार के ५ अणुव्रत + ३. गुणव्रत और + ४. शिक्षाव्रत । शिक्षा : दो प्रकारकी १. ग्रहण शिक्षा : सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना; २. आसेवन शिक्षा : कर्तव्यों का पालन करना, ४. गारव : तीन प्रकार के १. रस गारव : घी, दूध आदि रसवाले पदार्थो मिलने से अभिमान करना और नही मिलने पर उसकी लालसा (इच्छा) करनी, २. ऋषिगारव : धन आदि मिलने से अभिमान करना और नहीं मिलने से उसकी इच्छा करनी और ३. शातागारव : सुख, आरोग्य आदि मिलने से उसका अभिमान और न मिलने से उसकी इच्छा करनी। ५. संज्ञा = संक्षेप से चार प्रकार की १. आहार, २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह संज्ञा तथा १०,१५ और १६ प्रकार से भी कही गई हैं। ६. कषाय : = चार प्रकार के हैं। जिससे संसार बढे, उसे कषाय कहते हैं। १.क्रोध २. मान ३. माया और ४ लोभ । ७. दंड: = जो अशुभ योग से आत्मा धर्मभ्रष्ट होती हैं, उसे दंड कहते हैं। वह तीन प्रकार के हैं। १. मन दंड, २. वचनं दंड, और ३. काय दंड। ८. गुप्ति : = जिस शुभयोग से आत्मा धर्मोत्थान पाती है, वह गुप्ति तीन प्रकार की है। १. मन-गुप्ति, २. वचन गुप्ति और ३. काय गुप्ति । ९. समिति = जिसको पालने से सद्गति निश्चित हो जाती है, वह समिति पांच प्रकार की है। १. इर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदान-मंडमत्त-निक्खेवणा समिति और ५. उच्चार-पासवन-खेल-जलसिंधान-पारिष्ठापनिका समिति । इस विषयों के प्रति करने योग्य न करने से और न करने योग्य करने से, जो अतिचार लगा हो, उसकी मैं निंदा करता हूँ। ३५.
सम्यग्दपि जीवात्मा को कर्म के अल्प बंध का कारण सम्मद्दिट्टी जीवो, सम्-म हिट्-ठी जीवो,
सम्यग्दृष्टि जीव जइ वि हु पावं समायरे किंचि। जइ-विहु पावम्-समा-यरे किन्-चि। जो कोई भी पाप करता है। अप्पो सि होइ बंधो,
अप्-पो सि होइ-बन्-धो, उसे थोडा ही कर्म बंध होता है। जेण न निद्धंधसं कुणइ ॥३६॥ जेण न निद्-धन्-धसम् कुणइ ॥३६॥ क्योंकि निर्दयता पूर्वक पाप नहीं करता है। ३६. गाथार्थ : जो कि सम्यग्दृष्टि (सम्यक्त्वी) जीव कुछ भी पाप करें, तो उसको कर्म बंध कम (अल्प) होता है, क्योंकि (वह) ।
निर्दयता से (कभी भी) पाप नही करता है । ३६. 47