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प्रस्तावना लग जिज्ञासु जनोको गुरु-प्रतिपादित विधिसे उन गाथासूत्रोंका उच्चारण और व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकारके गाथासूत्रोंके उच्चारण या व्याख्यान करनेवाले आचार्योंको उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य या वाचक कहा जाता था।
गुणधराचार्य-द्वारा कसायपाहुडके गाथासूत्रों के रचे जाने पर उन्होंने उनका अर्थ अपने सुयोग्य शिष्योंको पढ़ाया और वह शिष्य-परम्परासे आ० आर्यमंच और नागहस्तीको प्राप्त हुआ । उन दोनोंसे आ० यतिवृषभने गाथासूत्रोंके अर्थका सम्यक् अवधारण करके प्रस्तुत चूर्णिको रचा। किन्तु कसायपाहुडके गाथासूत्रोंके अनन्त अर्थगर्भित होनेसे सर्व अर्थका चूर्णिमे निबद्ध करना असंभव देख प्रारम्भिक कुछ संक्षिप्त वर्णन करके विशेष वर्णन करनेके लिए समर्पण-सूत्र रचकर उच्चारणाचार्योंको सचना कर दी। किन्तु जब कुछ समयके पश्चात् इस प्रकारसे समर्पित अर्थके हृदयंगम करनेकी ग्रहण और धारणाशक्ति भी लोगोंकी क्षीण होने लगी, तो समर्पणसूत्रोंसे सूचित और गुरुपरम्परासे उच्चारणपूर्वक प्राप्त उक्त अर्थको किसी विशिष्ट आचार्यने लिपिवद्ध कर दिया। यतः वह लिपिबद्ध उच्चारणा किसी आचार्यकी मौलिक या स्वतंत्र कृति नहीं थी, किन्तु गुरुपरम्परासे प्राप्त वस्तु थी अतः उसपर किसी आचार्यका नाम अंकित नहीं - किया गया और पूर्व कालीन उच्चारणाचार्योंसे प्राप्त होने तथा उत्तरकालीन उच्चारणाचार्योंसेप्रवाहित किये जाने के कारण उसका नाम उच्चारणावृत्ति प्रसिद्ध हुआ।
जयधवलाकारने उच्चारणा, मूल-उच्चारणा, लिखित-उच्चारणा, पप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणा और स्व-लिखित उच्चारणाका उल्लेख किया है। इन विविध संज्ञाओंवाली उच्चारणाओंके नामों पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि चूर्णिसूत्रो पर सबसे प्रथम जो उच्चारणा की गई, वह मूल-उच्चारणा कहलाई। गुरु-शिष्य-परम्परासे कुछ दिनों तक उस मूल-उच्चारणाके उच्चारित होनेके अनन्तर जब वह समष्टिरूपसे लिखी गई, तो उसीका नाम लिखितउच्चारणा हो गया। इस प्रकार उच्चारणाके लिखित हो जाने पर भी उच्चारणाचार्योंकी परम्परा तो चालू ही थी, अतएव मौखिकरूपसे भी वह प्रवाहित होती हुई प्रवर्तमान रही । तदनन्तर कुछ विशिष्ट व्यक्तियोंने अपने विशिष्ट गुरुओंसे विशिष्ट उपदेशके साथ उस उच्चारणाको पाकर व्यक्तिरूपसे भी लिपिबद्ध किया और वह 'वप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणा, वीरसेन-लिखित उच्चारणा आदि नामों से प्रसिद्ध हुई।
विभिन्न, विशिष्ट आचार्योंसे उच्चारित होते रहने के कारण कुछ सूक्ष्म विषयों पर मत-भेदका होना स्वाभाविक है । यही कारण है कि कितने ही स्थलों पर उच्चारणाओंके मत-भेद के उल्लेख जयधवलामें दृष्टिगोचर होते हैं । यथा
"चुएिणसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अतोमुहुचमिदि भणिदो। अम्हहिं लिहिदुच्चारणाए पुण जहएणेण एगसनो, उक्कस्सेण संखेज्जा समया, इदि परूविदो।" जयध०।
___अर्थात् प्रकृत विषयका जघन्य और उत्कृष्ट काल चूर्णिसूत्रमे और वप्पदेवाचार्य-लिखित उच्चारणामें तो अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, किन्तु हमारे ( वीरसेन ) द्वारा लिखित उच्चारणामे जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय बतलाया गया है।
__ कसायपाहुडके प्रस्तुत चूर्णिसूत्रो पर रची गई उक्त उच्चारणावृत्तिका प्रमाण बारह हजार श्लोक-परिमाण था। यह स्वतंत्ररूपसे आज अनुपलब्ध है, पर उद्धरणरूपसे उसका बहु भाग आज भी जयधवला में उपलब्ध है।