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जैन-लक्षणावली के समाप्त होने पर जब साधुसंघ एकत्रित हुआ तब एक वाचना वीर निर्वाण से लगभग १६० वर्ष के बाद पाटिलपत्र में और इसके पश्चात् दूसरी वाचना वीर निर्वाण के लगभग २४० वर्ष के बाद मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की तत्त्वावधानता में सम्पन्न हई । ठीक इसी समय एक अन्य वाचना वलभी में प्राचार्य नागार्जुन के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हई। इन दोनों वाचनाओं में जिस साधु को जितना श्रुत स्मृत रहा उस उसको लेकर उसे पुस्तकारूढ़ कर लिया गया। पर इन दोनों वाचनायों में एकरूपता नहीं रह सकी व पाठभेद दृष्टिगोचर होने लगा।
इसके पश्चात् वीर नि. के १८० वर्ष के लगभग एक वाचना और भी वलभी में देवद्धि गणी के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई। इस में अंग-उपांगादि रूप श्रत को पृथक-पृथक पस्तकों के कर लिया गया जो वर्तमान में उपलब्ध है। इस प्रकार इस अन्तिम वाचना में जो प्राचारांगादि का संकलन किया गया है वह गणधर सुधर्मा केवली द्वारा उपदिष्ट उसी रूप में नहीं रहा व उत्तरोत्तर उसमें कुछ हीनाधिकता भी हुई है। इस बात में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं। इसी कारण दिगम्बर परम्परा में उक्त प्राचारांगादि को प्रामाणिक न मानकर मौखिक रूप से परम्परागत गणधरग्रथित प्राचारांगादि के आश्रय से षट्खण्डागम व कषायप्राभत आदि जो पागम ग्रन्थ पारातीय आचार्यों के द्वारा रचे गये उन्हीं को आज दिगम्बर परम्परा प्रामाणिक मानती है। परन्तु श्वे. परम्परा देवद्धिगणी के द्वारा संकलित जिन आचारांगादि को प्रमाणभूत मानती है उन्हीं का परिचय यहां कराया जा रहा है। श्वे. परम्परा में इन्हें सुधर्मा द्वारा प्ररूपित और जम्बूस्वामी के द्वारा सुना गया श्रुतांग माना जाता है। प्रस्तुत प्राचा रांग बारह अंगों में प्रथम है।
इसमें मुनि के प्राचार-विशेषतः काल-विनयादिरूप पाठ प्रकार के ज्ञानाचार, निःशंकितादि रूप पाठ प्रकार के दर्शनाचार, पाठ प्रवचनमातृका (पांच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ) रूप पाठ प्रकार के चारित्राचार, बारह प्रकार के तप-प्राचार और वीर्याचार की प्ररूपणा की गई है। इसी से इसकी भावाचार संज्ञा है। प्राचार, प्रागाल, प्राकर, पाश्वास, प्रादर्श, अंग, प्राचीर्ण, प्राजाति और प्रामोक्ष ये समानार्थक शब्द हैं। यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध में ये नौ अध्ययन या अधिकार हैं- १ शस्त्रपरिज्ञा, २ लोकविजय, ३ शीतोष्णीय, ४ सम्यक्त्व, ५ लोकसार (चारित्र), ६ धूत, ७ (यह अध्याय व्युच्छिन्न हो गया है), ८ विमोक्ष, ६ उपधानश्रुत । इन नौ अध्ययनस्वरूप इस प्रथम श्रुतस्कन्ध को 'नव ब्रह्मचर्यमय' कहा गया है। इसके आठवें अध्ययन के अन्तर्गत पाठवां उद्देशक तथा सम्पूर्ण नौवाँ अध्ययन पद्यमय है। शेष अध्ययनों में यत्र क्वचित् ही पद्य उपलब्ध होते हैं-अधिकांश वे गद्यसूत्रात्मक हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचाराग्र कहा जाता है। इसमें ये पाँच चूलिकायें है। उनमें प्रथम चूलिका में सात अध्ययन है-पिण्डैषणा, शय्यषणा, ईर्या, भाषाजात, वस्त्रषणा, पात्रषणा, और अवग्रह । यहाँ भिक्षा की विधि, भोजय की शुद्धि, संस्तर-गमनागमन की विधि, भाषा, पात्र, एवं अन्य व्रतादि के विषय में विचार किया गया है। दूसरी, चूलिका सप्तसप्ततिका में भी सात अध्ययन हैं। तीसरी चूलिका का नाम भावना अध्ययन है। विमुक्ति नाम की चौथी चूलिकारूप विमुक्ति अध्ययन में अनित्यत्व, पर्वत, रूप्य, भुजगत्व और समुद्र ये पाँच अधिकार हैं। पांचवीं चूलिका निशीथ है जो एक पृथक ही ग्रन्थ में निबद्ध है।
उक्त प्राचारांग प्रथम श्रु तस्कन्ध के +द्वि. श्रु तस्कन्ध की प्रथम चूलिका के ७ + द्वितीय चलिका के ७+तृतीय का +१ और चतुर्थ का १=२५ इस प्रकार पच्चीस अध्ययनस्वरूप है। १. देखिये नंदीसुत्तचुण्णी गा. ३२, ज्योतिष्करण्डक मलय. टीका २-७१, पृ. ४१ और त्रि. श. पु. च.
परिशिष्ट पर्व ६,५५-७६. देखिये 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' भाग १, प्रकरण १, जैन श्रुत पृ. ५-१० तथा द्वितीय प्रकरण 'जैनग्रन्थों का बाह्य परिचय', पृ. ३५-३६ ।
२.
देखि
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