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जीवकाय ]
२ जीव के प्रयोग से प्रजीव (पुद्गल) द्रव्यों के जो कुछ भी किया जाता है उसको तथा वर्ण आदि जो रूपकर्म - कुसुंभी रंग आदि का निर्माण भी किया जाता है उसको भी प्रजीवकरण कहा जाता है । प्रजीवकाय - १. अजीवकायाः धर्माधर्माकाश-पुद्गला । (त. सू. ५ - १ ) । २. अजीवाश्च ते कायाश्च ते प्रजीवकाया इति समानाधिकरणलक्षणा वृत्तिरियं वेदितव्या । (त. वा. ५, १, १ ) । ३. अजीवानां कायाः प्रजीवकायाः, शिलापुत्रकस्य शरीरमित्यभेदेऽपि षष्ठी दृष्टा तथा सुवर्णस्याङ्गुलीयकम् । अन्यत्वाशंका व्यावृत्त्यर्थो वा कर्मधारयः एवाभ्युपेयते । ( त. भा. सिद्ध. टी. ५ - १ ) । ३. प्रजीवों के कायों का अथवा अजीव ऐसे कायों का नाम जीवकाय है । वे श्रजीवकाय प्रकृत में धर्म, धर्म, आकाश और पुद्गल; ये चार द्रव्य विवक्षित हैं ।
प्रजीवकायासंयम - अजीव कायासंयमो विकटसुवर्ण- बहुमूल्य वस्त्र पात्र - पुस्तकादिग्रहणम् । ( समवा. अभय. वृ. १७) ।
मनोहर सुवर्ण श्रौर बहुमूल्य वस्त्र, पात्र एवं पुस्तक श्रादि के ग्रहण करने को प्रजीवकायासंयम कहते हैं ।
जीवक्रिया- जीवस्य पुद्गलसमुदायस्य यत् कर्मतया परिणमनं सा जीवक्रिया । ( स्थाना. श्रभय. वृ. २-६०) । श्रचेतन पुद्गलों के कर्मरूप से परिणत होने को जीवक्रिया कहते हैं ।
श्रजीव नाममंगल - १. अजीवस्य यथा श्रीमल्लाटदेशे दवरकवलनकं मंगलमित्यभिधीयते । (श्राव. हरि. वृ. पू. ४) । २. अजीवविषयं यथा लाटदेशे दवरकवलनकस्य मंगलमिति नाम । श्राव. मलय. वृ. पू. ६) ।
किसी अचेतन द्रव्य के 'मंगल' ऐसा नाम रखने को प्रजीव नाममंगल कहते हैं । जैसे-लाट देश में डोरा के वलनक का 'मंगल' यह नाम ।
जीवन सृष्टिको - एवमजीवादजीवेन वा धनुरादिना शिलीमुखादि निसृजति यस्यां सा अजीव - नैसृष्टिकी । XXX अथवा जीवे ग्रचित्तस्थण्डिलादौ श्रनाभोगादिनाऽनेषणीयं स्वीकृतमजीवं वस्त्रं पात्रं वा सूत्रव्यपेतं यथाभवत्यप्रमार्जिताद्य विधिना
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२१, जैन- लक्षणावली
[ जीवविचय धर्मध्यान
निसृजति परित्यजति यस्यां सा अजीवनै सृष्टिकी । ( श्राव. टि. मल. हेम. पृ. ६४ ) | निर्जीव धनुष प्रादि से बाण आदि के निकलने रूप क्रिया को जीवन सृष्टिकी कहते हैं । अथवा स्वीकृत निर्जीव वस्त्र व पात्र, जो सूत्र के प्रतिकूल होने से अग्राह्य हैं, उन्हें सावधानी से प्रमार्जित आदि विधि के बिना ही निर्जीव शुद्ध भूमि आदि में जिस क्रिया से छोड़ा जाता है उस क्रिया का नाम अजीवनं सृष्टिकी क्रिया है । प्रजीवप्रादोषिकी क्रिया - जीवप्रादोषिकी तु क्रोधोत्पत्तिनिमित्तभूत कण्टक- शर्करादिविषया । (त. भा. सिद्ध. बृ. ६-६)।
क्रोध की उत्पत्ति के कारणभूत कण्टक व कंकड़ आदि के लगने से होने वाली द्वेषरूप क्रिया को
जीवप्रदोषिकी क्रिया कहते हैं । प्रजीवबन्ध - १. तत्राजीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षण: । ( स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ९) । २. प्रजीवविषयो बन्धः दारु - लाक्षादिलक्षणः । ( त. वृ. श्रुत. ५-२४)।
प्रचेतन लाख व काष्ठ आदि के बन्ध को जीवबन्ध कहते हैं ।
जीवमिश्रिता ( जीवमीसिया ) - १. यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शंखादिष्वेवं वदति - ग्रहो, महानयं मृतो जीवराशिरिति, तदा सा अजीवमिश्रिता । अस्या अपि सत्यामृषात्वम्, मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वात् । (प्रज्ञाप. वृ. ११, १६५ ) । २ साऽजीवमीसिया वि य जा भन्नइ उभयरासिविसया वि । वज्जित्तु विसयमन्नं एस बहुजीवरासित्ति ।। (भाषार. ६२ ) । १ जीव और अजीव राशियों का संमिश्रण होने पर भी जीवों की प्रधानता से बोली जाने वाली भाषा को जीवमिश्रिता कहते हैं। जैसे बहुत से मरे हुए श्रौर कुछ जीवित भी शंखों को एकत्रित करने पर जो उस राशि को देख कर यह कहा जाता है कि अरे ! यह कितनी जीवराशि मरण को प्राप्त हुई है, इस प्रकार की भाषा को प्रजीवमिश्रिता जानना चाहिये ।
जीवविचय धर्मध्यान - १. द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धर्म्यमजीवविषयं मतम् ॥ ( ह. पु. ५६-४४ ) । २. धर्मा
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