Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 358
________________ उत्कृष्ट संख्येया संख्येय ] उत्कृष्ट संख्ये या संख्येय - १. जहण्णमसंखेज्जासंखेज्जयं दोप्पडिरासियं काढूण एगरासि सलायपमा ठविय एगरासि विरलेदूण एक्केक्कस्स वस्स एगपुंजपमाणं दादूण अण्णोष्णभत्थं करिय सलायरासिदो एगरूवं श्रवणेदव्वं । पुणो वि उप्पण्णरासि विरले एक्केक्स्स रूवस्सुप्पण्णरासिपमाणं दादूण प्रणोष्णभत्थं काढूण सलायरासिदो एगरूवं श्रवणे - दव्वं । एदेण कमेण सलायरासी णिट्टिदा । णिट्टियतदणंतररासि दुप्परासि कावण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंजं विरलिदूण एक्केक्कस्स रूवस्स उप्पण्णरासि दादूण प्रणोष्णभत्थं ing सायरासिदो एयं रूवं प्रवणेदव्वं । एदेण सरूण विदियसलायपुंजं समत्तं । सम्मत्तकाले उप्पण्णरासि दुप्पडिरासि काढूण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंज विरलिदूण एक्केक्कस्स रूवस्स उप सिपमाणं दादूण प्रण्णोष्णभत्थं काढूण सलायरासीदो एयरूवं प्रवणेदव्वं । एदेण कमेण तदियपुंजं गिट्टिदं । एवं कदे उक्कस्स - असंखेज्जासंखेज्जयं ण पावदि । धमाधम्म - लोगागास एगजीवपदेसा चतारि वि लोगागासमेत्ता, पत्तेगसरीर बादरपदिट्टिया एदे दो वि (कमसो असंखेज्जलोग मेत्ता ), छप्पि एदे प्रसंखेज्जरासीओ पुव्विल्ल रासिस्स उवरि पक्खिविदूण पुव्वं व तिण्णिवारवग्गिदे कदे उक्कस्सन संखेज्जासंखेज्जयं ण उप्पज्जदि । तदा ठिदिबंधज्भवसायठाणाणि अणुभागबंध ज्भवसायठाणाणि योगपलिच्छेदाणि उस्सप्पिणी - श्रोसप्पिणीसमयाणि च एदाणि पक्खिविण पुव्वं व वग्गिद-संविग्गदं कदे (उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जयं प्रदिच्छिदूण जहण्णपरित्ताणंतयं गंतूण पडिदं । ) तदो (एग्गरूवं प्रवणीदे जादं) उक्कस्सग्रसंखेज्जासंखेज्जयं । (ति. प. १, पृ. १८१, १८२ ) । २. यज्जघन्यासंख्येयासंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रीन् वारान् वर्गित-संवर्गितं उत्कृष्टासंखेयासंख्येयं [न] प्राप्नोति । ततो धर्माधर्मेकजीवलोकाकाश- प्रत्येक शरीरजीव - बादरनिगोतशरीराणि प्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेद २४६, जैन - लक्षणावली [ उत्क्षिप्तचर्या जघन्यपरीतानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं भवति । (त. वा. ३, ३८, ५, पृ. २३८, पं. ७-१२ ) । २ जघन्य संख्येया संख्येय का विरलन करके पूर्वोक्त विधि से उत्कृष्ट युक्तासंख्येय के समान—तीन बार वर्गित संवगत करने पर उत्कृष्ट असंख्येया संख्येय प्राप्त नहीं होता । तब धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येकशरीर जीव और बादर निगोद जीवशरीर; इन छह असंख्यात राशियों तथा श्रसंख्यात लोकप्रदेश प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, योगाविभागप्रतिच्छेद और उत्सर्पिणी- श्रवसर्पिणी के समयों को मिलाकर पूर्वोक्त राशि के तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट श्रसंख्येया संख्येय का प्रतिक्रमण करके जघन्यपरीतानन्त जाकर प्राप्त होता है । उसमें से एक अंक के कम कर देने पर उत्कृष्ट असंख्येया संख्येय का प्रमाण होता है । उत्कृष्टि -- उत्कृष्टिः हर्षविशेषप्रेरितो ध्वनि विशेषः । (श्राव. नि. हरि. वृ. ५५२, पृ. २३१ ) । हर्ष - विशेष से प्रेरित होकर की गई ध्वनिविशेष को उत्कृष्टि कहते हैं । उत्क्रम व्यवच्छिद्यमान - बन्धोदय - उत्क्रमेण, पूर्वमुदयः पश्चात् बन्ध इत्येवंलक्षणेन, व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदय यासां ता उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः । ( पंचसं. मलय. वृ. ३ - ५५, पृ. १४८ ) । जिन कर्मप्रकृतियों की उत्क्रम से बन्धोदय- व्युच्छित्ति होती है, अर्थात् पहले उदयव्युच्छित्ति और पीछे बन्धव्युच्छित्ति होती है, वे उत्क्रमव्यवच्द्यिमान बन्धोदयप्रकृतियां कहलाती हैं । उत्क्षिप्तचरक - उत्क्षिप्तं पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतम्, तद् ये चरन्ति गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरकाः । (बृहत्क. वृ. १६५२ ) । दातार गृहस्थ के द्वारा साधु के थाने के पूर्व ही पात्र में से निकाले गये श्राहार को खोजने वालेउसे गोचरी में ग्रहण करने वाले - साधुग्रों को उत्क्षिप्तचरक कहते हैं । श्रभिग्रह और श्रभिग्रह वान् में कथंचित् प्रभेद होने से उसे भावाभिग्रह का Jain Education International रूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रीन् वारान् लक्षण समझना चाहिये । वर्गित संवर्गितं कृत्वा उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयमतीत्य ल. ३२ उत्क्षिप्तचर्या - १. उत्क्षिप्तं पटलोदंकिका-कडुच्छ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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