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उपोद्घात] २८३, जैन-लक्षणावलो
[उभयविषय नाममंगल एवं च संयमो भवति, साधून व्यापारयत: प्रवचनवि- (प्रव. सा. अमृत. वृ. २-८५)। २. इतरेतरहितासु क्रियासु संयम इति व्यापारणमेव, अव्यापार- (उभय-) बन्धश्च देशानां तदद्वयोमिथः । बन्ध्य-बन्धणम् उपेक्षणम् गृहस्थान् स्वक्रियासु अव्यापारयत कभावः स्याद् भावबन्धनिमित्ततः ॥ (पञ्चाध्यायी उपेक्ष्यमाणस्य-प्रौदासीन्यं भजत:-संयमो भवति। २-४८)। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-६)।
१ परस्पर के परिणामरूप निमित्त के वश होने अपनी व्रत-क्रियाओं के पालन करने वाले साधुजनों वाले जीव और कर्म के परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप को उनकी शास्त्र-विहित क्रियानों में लगाने, तथा विशिष्टतर बन्ध को उभयबन्ध कहते हैं। अपनी व्रत क्रियानों का न पालन करने वाले उभयबन्धिनी-उभयस्मिन्नुदयेऽनुदये वा बन्धोधावकों में उपेक्षाभाव धारण करते हुए संयम के
ऽस्ति यासां ता उभयबन्धिन्यः । (पंचसं. मलय. वृ. परिपालन को उपेक्ष्यसंयम कहते हैं।
३-५५, पृ. १४७)। उपोद्घात-उपोद्घातस्तु प्रायेण तदुद्दिष्ट (उप- जिन प्रकृतियों का बन्ध उनके उदय में भी हो और क्रमेणोद्दिष्ट) वस्तुप्रबोधनफलः अर्थानुगमत्वात् । अनुदय में भी हो उन्हें उभयबन्धिनी कहते हैं । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२८, पृ. १४८)।
उभयमनोयोग-१.xxx जाणुभयं सच्चमोसो जिसका प्रयोजन उपक्रम से उद्दिष्ट वस्तु का प्रबाष ति॥ (गो. जी. २१८)। २. उभयः-सत्य-मृषार्थज्ञानकराना होता है उसे उपोद्घात कहा जाता है।
जननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्नविशेष उभयमनोउभयक्षेत्र-उभयमुभय-(सेतु-केतु.) जलनिष्पाद्य
भयमुभय-(सतु-केतु) जलानपाय योगः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. २१८)। सस्यम् । (योगशास्त्र स्वो. विव. ३-६५)।
सत्य और असत्यरूप पदार्थ-ज्ञान के उत्पन्न करने जिस क्षेत्र-धान्योत्पत्ति की भूमिका सिंचन
की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्न विशेष को उभय से-अरहट प्रादि के तथा बारिश के दोनों
उभय (सत्यासत्य) मनोयोग कहते हैं । ही प्रकार के जल से-तुमा करता है उसे उभयक्षेत्र कहते हैं।
उभयवचनयोग-१.XXX जाणुभयं सच्चउभयपदानुसारिबुद्धि-देखो उभयसारी। मध्यम
मोसो त्ति । (धव. पु. १, पृ. २८६ उद्.; गो. जी. पदस्यार्थं ग्रन्थं च परकीयोपदेशादधिगम्याद्यन्तावधि
२२०) । २. धमविवक्षितः सत्येऽसत्ये चार्थविवक्षिपरिच्छिन्नपदसमूहप्रतिनियतार्थग्रन्थोदधिसमुत्तरणस
तैः। वाक प्रवृत्तोभयाख्या सा भाषेतीहेष्यते यथा ॥ मर्थासाधारणातिशयपटुविज्ञाननियता उभयपदानु
घटा कृतिव्यपेताया धारणाद् भूरिवारिणः । कुण्डिसारिबुद्धयः । (योगशास्त्र स्वो. विव. १-८)।
काया घटाख्यैवं बहुभेदमिदं वचः ।। (प्राचा. सा. ५, मध्यम पद के अर्थ और ग्रन्थ को दूसरे के उपदेश से ८१-८२) । ३. कमण्डलुनि घटोऽयमित्यादिसत्यजानकर प्रादि और अन्त के सब पद समूह के प्रति
. मृषार्थवाग्व्यापारप्रयत्न उभयवचोयोगः । (गो. जी. नियत प्रर्थ एवं ग्रन्थरूप समुद्र के पार पहुँचने वाली
जी. प्र. टी. २२०)। प्रतिशयित बुद्धि के धारक-उक्त ऋद्धि के धारक
३ कमण्डलु में 'यह घट है' इस प्रकार सत्य और
असत्य अर्थ को विषय करने वाले वचनव्यापार -उभयपदानुसारिबुद्धि कहे जाते हैं । उभयप्रायश्चित्त-सगावराहं गुरूणमालोचिय गुरु
का जो प्रयत्न है, उसे उभयवचनयोग कहते हैं । सक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पाय
उभयवध-संकल्पितस्य जीवस्य वध उभयवध च्छित्तं । (धव. पु. १३, प. ६०)।
इति । (पंचसं. स्वो. व. ४-१६, पृ. ६४) । अपने अपराध को गुरु के समीप पालोचना करके संकल्पित जोव के घात करनेको उभयवध कहते हैं। गुरुसाक्षीपूर्वक अपराध से प्रात्म-निवृत्ति करने को उभयविषय नाममंगल-उभयविषयं यथा वन्दनउभय (मालोचन-प्रतिक्रिमण) प्रायश्चित्त कहते हैं। मालाया मंगलमिति नाम । (श्राव. मलय. प. ६)। उभयबन्ध-१. यः पुनः जीव-कर्मपुद्गलयोः पर- जीव और अजीव इन दोनों के प्राश्रित वन्दनमाला स्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्पर- आदि वस्तुओं का 'मंगल' ऐसा नाम रखने को मवगाहः स तदुभय (जीव-पुद्गलोभय) बन्धः । उभयविषय नाममंगल कहते हैं।
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