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ऐकान्तिक मिथ्यात्व] ३०१, जैन-लक्षणावली
[ौघोद्देशिक ति सा तृतीया समितिः । (चा. प्रा. टी. ३६)। भिधानम् । (दशवं. नि. हरि. वृ. १-२६)। ३. २१. सम्यगेषणासमिति रुच्यते-- शरीरदर्शनमात्रेण प्रोघं वृन्दं समूहः संपातः समुदयः पिण्ड: अवशेषः प्राप्तमयाचितममृतसंज्ञं उद्गमोत्पादनादिदोषरहित- अभिन्नः सामान्यमिति पर्यायशब्दाः । (धव. पु. ३, मजिनहिंग्वादिभिरस्पृष्टं परार्थं निष्पन्नं काले भोजन- पु. ६); ओघणि सो दव्वट्टियणयपदुप्पायणो, संगग्रहणं सम्यगेषणासमितिर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. हिदत्थादो। (धव. पु. ४, पृ. ३२२); अोघेण ८-५) । २२. षट्चत्वारिंशद्दोषपरिवजितम् आहार- पिंडेण अभेदेणेत्ति एयट्ठो। (धव. पु. ४, पृ. १४४)। ग्रहणं देश-कालसामर्थ्यादिविशिष्टं अहितं नवकोटि- अोघेन द्रव्यायिकनयावलम्बनेनXXXI(धव. पु.
द्धं एषणासमितिः । (कार्तिके. टी. ३६६)। ४, पृ. ६); संखित्तवयणकलावो दव्वट्रियणिबंधणो २३. एषणा समिति म्ना संक्षेपाल्लक्षणादपि । अोघो णाम । (धव. पु. ५, पृ. २४३)। आहारशुद्धिराख्याता सर्वव्रतविशुद्धये ।। (लाटीसं. १ सामान्य श्रुत का जो कथन है उसे प्रोघ कहा ५-२३१)।
जाता है। वह चार प्रकार का है-अध्यन, अक्षीण, १ कृत, कारित व अनुमोदना दोषों से रहित दूसरे प्राय और क्षपणा । ३ द्रव्याथिक नय के प्राश्रय से के द्वारा दिये गये प्रासुक व प्रशस्त भोजन को ग्रहण जो कथन किया जाता है वह अोघ कहलाता है। करना, इसका नाम एषणासमिति है। ३ उद्गम, ओघ, वृन्द, समूह, सम्पात, समुदाय, पिण्ड, अवशेष, उत्पादन और एषण (प्रशन) दोषों से रहित आहार, अभिन्न और सामान्य; ये पर्याय शब्द हैं। उपधि एवं शय्या आदि के शद्धिपूर्वक ग्रहण करने अोघभव--प्रोघभवो णाम अटकम्माणि अटकम्मजको एषणासमिति कहते हैं।
णिदजीवपरिणामो वा । (धव. पु. १६, पृ. ५१२)। ऐकान्तिक मिथ्यात्व-देखो एकान्तमिथ्यात्व। पाठ कर्मों को अथवा पाठ कर्मों से उत्पन्न हुये ऐदंपर्यवद्ध-इदं परं प्रधानमस्मिन् वाक्य इतीदं- जीव के परिणाम को प्रोघभव कहते हैं। परम्, तद्भाव ऐदंपर्य वाक्यस्य तात्पर्य शक्तिरित्य- प्रोघमरण-अघमरणं प्रोधः संक्षेपः पिण्ड इत्यर्थस्तेन शुद्धम् आगमतत्त्वम् । (षोडशक वृत्ति १, नर्थान्तरम् । जहा सव्वजीवाणं वि णं आउक्खए १०) ।
मरणं ति। (उत्तरा. चू. ५, पृ. १२६-२७)। जो वाक्य अपने तात्पर्यरूप अर्थ से शुद्ध हो, अर्थात् प्रोध से—सामान्य से-मृत्यु का निर्देश करना, अपने अभिप्राय को स्पष्ट व्यक्त करे, उसे ऐदंपर्यः प्रोघमरण कहलाता है। जैसे-पायु का क्षय होने शुद्ध (प्रागमतत्त्व) कहते हैं।
पर सभी का मरण होता है। ऐन्द्रध्वज-१. महानन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो प्रोघसंज्ञा-१. प्रोघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा महः। (म. पु. ३८-३२)। २. ऐन्द्रध्वज इन्द्रादिभिः वल्लिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानावरवणीयाल्पक्षक्रियमाणो वलि-स्नपनं सन्ध्यात्रयेऽपि जगत्त्रयस्वा- योपशमसमूत्था। (प्राचारा. शी. वृ. १, १, १, १, मिनः पूजाभिषेककरणम्।(चा. सा.प. २१; कातिके. पृ. १२)। २. ज्ञानोपयोगरूपा अोघसंज्ञा संचरज्जनटी. ३६१)। ३.XXX सेन्द्राद्यैः साध्या विन्द्र- मार्ग परिहरन्त्या वृत्त्याचारोहन्त्या लतादेरिव । (ग. ध्वजो महः॥ (सा. ध. २-२६) । ४. अकृत्रिमेषु गु. षट्. स्वो. वृ. १६, पृ. ४७)। चैत्येषु कल्याणेषु च पंचसु । सुरविनिर्मिता पूजा १ ज्ञानावरण कर्म के अल्प क्षयोपशम से जो अव्यक्त भवेत् सेन्द्रध्वजात्मिका ।। (भावसं. वाम. ५५६)। ज्ञानोपयोगरूप संज्ञा होती है उसे प्रोघसंज्ञा कहते ५. इन्द्राद्यैः क्रियते पूजा सेन्द्रध्वज उदाहृता॥ हैं। इसका निश्चय लतासमूह के आरोहण आदि (धर्मसं. श्रा. ६-३१)।
रूप लिंग के द्वारा होता है। १ इन्द्रादि देवताओं के द्वारा की जाने वाली महती श्रोघौद्द शिक- सामान्येन स्व-परविभागकरणापूजा को ऐन्द्रध्वज कहते हैं।।
भावरूपेण स्वार्थ एव पाकादौ कियद्भागभिक्षादानपोहो ज सामण्ण सुपाभिहाणं चउव्विहंत बुद्धया कतिपयतण्डुलाधिकप्रक्षेपेण निवृत्तमोघोद्दच । अझयणं अज्झीणं प्राय झवणा य पत्तेयं ।। शिकम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-२२, पृ. ३६)। (दशवै. नि. १-२७)। २. तत्रौघः सामान्यं श्रुता- स्व और पर का विभाग किये बिना अपने लिये
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