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श्रदारिकौदारिकशरीर नोकर्म. ] श्रदारिकौदारिकशरीरनो कर्मबन्ध - प्रौदारिकशरीरनो कर्म प्रदेशान। मौदारिकशरीरनो कर्म प्रदेश र न्योन्यानुप्रवेशादौदारिकौदारिकनो कर्मबन्धः । ( त वा. ५, २४, ९ ) । श्रदारिकशरीर के नोकर्मप्रदेशों का अन्य श्रदारिकशरीरनोकर्मप्रदेशों के साथ परस्पर में परस्पर अनुप्रवेशरूप जो बन्ध होता है उसे श्रदारिकौदारिकनोकबन्ध कहते हैं ।
श्रौदार्य - प्रौदार्यं कार्पण्यत्यागाद्विज्ञेयमाशय महत्त्वम् । गुरु- दीनादिष्वौचित्यवृत्ति कार्ये तदत्यन्तम् || ( षोडशक ४-३, पृ. २५) ।
कृपणता को छोड़कर उदार हृदय से जो गुरु एवं दीन आदि जनों के विषय में यथोचित व्यवहार किया जाता है उसे श्रौदार्यगुण कहते हैं । प्रौद्दे शिक - १. देवद- पासंडत्थं किविण चावि जंतु उद्दिदियं । कदमणसमुद्देशं चदुव्विहं वा समासेण ॥ जावदियं उद्दे सो पासंडोत्ति य हवे समुसो । समणोति य श्रादेसो णिग्गंथो त्ति य हवे समादेसो || ( मूला. ६, ६-७ ) । २. उद्देशनं सा ध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्द ेशः, तत्र भवमौद्द - शिकम् । ( दशवै. हरि. वृ. ३- २, पृ. ११६) । ३. श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् उद्दे सिगमित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ४२१ ) । ४. आत्मार्थं यत्पूर्वसिद्धमेव लड्डुक चूर्णकादि साधुमुद्दिश्य पुनरपि [ संत ] गुडादिना संस्क्रियते तदुद्दे शिकं सामान्येन विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्यमिति । ( श्राचा. शी. बु. २, १, २६६, पृ. ३१७) । ५. उद्देशेग साधु संकल्पेन निवृत्तमौद्द शिकं श्रधाकर्म । ( जीतक. चू. fr. व्याख्या, पू. ५३ ) । ६. देवतार्थं पाखण्डार्थं कृपणार्थं चोद्दिश्य यत्कृतमन्नं तन्निमित्तं निष्पन्नं भोजनं तदोद्द शिकम् । ( मूला. घू. ६ - ६ ) ; सामान्यमुद्दिश्य पाषण्डानुद्दिश्य श्रमणानुद्दिश्य निर्ग्रन्यानुद्दिश्य यत्कृतमन्नं तच्चतुर्विधमौद्द शिकं भवेदन्नमिति । (मूला. वृ. ६-७ ) । ७. उद्देश : साध्वर्थं संकल्पः, स प्रयोजनमस्य श्री सिकं यत्पूर्वकृतमोदन - मोदक क्षोदादि तत्साधूद्देशेन दध्यादिना गुडपाकेन च संस्कुर्वतो भवति । (योगशा. स्वो विव. १-३८ ) । ८. उद्देशिकं श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् । (भ. प्रा. मूला. ४२१) । ६. तदौशिकमन्नं यद्ददेवतादीन- लिङ्गितः । सर्वपाषण्डपार्श्वस्यसाधून वोद्दिश्य
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[ पक्रमिकी
साधितम् ।। (न. ध. ५ - ७ ) । १०. यत्पुनर्गृहिणा स्वार्थकृतं पश्चाद्यत्युद्देशेन पृथक् क्रियते तदौदेशिकम् । ( गु. गु. षट्. स्व. वृ. २०, पृ. ४८) । १ देवता, पाषण्ड - जैनमत से बहिर्भूत अनुष्ठान करनेवाले वेषधारी साधुजन - और कृपण ( दोन ) जन के उद्देश से किया गया भोजन प्रौद्द शिक कहलाता है । (१) उद्देश - जो भी भोजन के लिए श्रावेंगे उन सबको दूंगा, इस प्रकार के उद्देश से बनाया गया भोजन । ( २ ) समुद्देश- पाषण्डियों के उद्देश से बनाया गया भोजन । (३) प्रदेश - प्रजीवक श्रावि अन्य साधुवेषधारी अथवा छात्रों के उद्देश से बनाया गया भोजन । ( ४ ) समादेश — जो भी निर्ग्रन्थ मुनि आवेंगे उन सबको आहार दूंगा; इस प्रकार के उद्देश से बनाया जाने वाला भोजन । उक्त चार प्रकार का भोजन श्रौद्दे शिक कहलाता है । श्रनोदर्य- देखो अवमौदर्य । १. ऊनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरस्तस्य भाव श्रीनोदर्य्यम् । (योगशा. स्वो विव. ४-८९ ) । २. प्रमाणप्राप्त प्राहारो द्वा त्रिशत् कवलाः, स चैकादिकवलैरूनश्चतुर्विंशतिकबलान् यावत् प्रमाणप्राप्तात् किंचिदूनम् श्रनोदर्य्यम् । . (योगशास्त्रो. विव. ४-८६, पृ. ३११) । प्रमाणप्राप्त प्रहार ३२ ग्रास है । उसे एक-दो ग्रामों से कम करते हुए चौबीस ग्रास पर्यन्त ग्रहण करना, यह श्रनोदर्य बाह्य तप कहलाता है । तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेन गणी की वृत्ति ( ६-१६) के अनुसार प्रमोद ( श्रौनोदर्य ) तीन प्रकार का है - १ अल्पाहार अवमौदर्य - प्राठ ग्रास प्रमाण । २ उपार्थ प्रवमौदर्य - बारह ग्रास ( ३३३ - ४ =१२) प्रमाण | ३ किंचिदूनावमौदर्य - बत्तीस ग्रास जो पुरुष का प्रमाणप्राप्त आहार है उसमें एक ग्रास से
कम ।
श्रपक्रमिकी - उपक्रमणमुपक्रमः स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनम्, तेन निर्वृताः श्रौपक्रमिकी — स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीय कर्मणो विपाकानुभवनेन निर्वृता इत्यर्थ: । ( प्रज्ञाप कलय. वृ. ३५-३२६, पृ. ५५७ ) ।
स्वयं समीप में होना श्रथवा उदीरणाकरण के द्वारा समीप में ले श्राना; इसका नाम उपक्रम है । इस उपक्रम से होने वाली वेदना श्रीपक्रमिकी कहलाती
३०६, जैन-लक्षणावली
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