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जैन-लक्षणावली
(जैन पारिभाषिक शब्द-कोश) प्रथम भाग (अश्रो)
ग्रन्थ-परिचयादि विषयक विस्तृत प्रस्तावना सहित
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
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बोर-सेवा-मन्दिर ग्रन्थमाला
पन्याङ्क १५
जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोश)
प्रथम भाग (अ-प्रो)
सम्पादक बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन
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प्रकाशक वोर-सेवा-मन्दिर २१, वरियागंज दिल्ली-६
मूल्य २०२५.००
वी. नि. संवत् २४९ विक्रम संवत् २०२८ सन् १९७२
रूपवाणी प्रिटिंग हाऊस २३, दरियागंज, दिल्ली कम्पोजिंग गीता प्रिंटिंग एजेन्सी
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Vir Sewa Mandir Series
Text No. 16
JAINA LAKSANAVALI
(An authentic & descriptive dictionary of Jaina philosophical terms)
Vol. I ( Vowels' Part )
EDITED BY BALCHANDRA SIDHANTASHASTRI
VIR SEWA MANDIR
21, Daryaganj, Delhi
Rs. 25.00
Vir Samvat 2498 V. Samvat 2028 A.D. 1972
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प्रकाशकीय 'जैन लक्षणावली' का प्रथम भाग पाठकों के हाथों में सौंपते हुए हार्दिक सन्तोष का अनुभव होता है। इसके प्रकाशन से एक चिर परिकल्पित वृहत् योजना के प्रथम चरण की पूर्ति होती है। प्राचीन भारतीय विद्याओं के व्यापक सन्दर्भ में जैन वाङ्मय, इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्ययन-अनुशीलन और प्रकाशन के जिस उद्देश्य से 'वीर-सेवा-मंदिर' की स्थापना की गयी थी, उस दिशा में यह एक विशेष कदम है। 'वीर-सेवा-मंदिर' और उसकी शोध-प्रवृत्तियां
__'वीर सेवा मंदिर' की स्थापना स्व. प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने अपने जन्म-स्थान सरसावा जिला सहारनपुर (उ. प्र.) में अक्षय तृतीया (बैसाख शुक्ल तृतीया), विक्रम संवत् १९९३, दिनांक २४ अप्रैल सन् १९३६ में की थी । इस संस्था के माध्यम से स्व. मुख्तार साहब ने तथा संस्था से सम्बद्ध अन्य विद्वानों ने जैन वाङ्मय के अनेक दुर्लभ, अपरिचित और अप्रकाशित ग्रन्थों की खोज की तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों के सम्यक परीक्षण-पर्यालोचन और सम्पादन की नींव डाली। संस्था ने जो ग्रन्थ प्रकाशित किये उनकी विस्तृत शोधपूर्ण प्रस्तावनाएं न केवल उन ग्रन्थों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, प्रत्युत जैन प्राचार्यों और उनकी कृतियों पर भी विशद प्रकाश डालती हैं। प्राचार्य समन्तभद्र
प्राचार्य समन्तभद्र पर मुख्तार साहब की अगाध श्रद्धा थी। दिल्ली में उन्होंने सन् १९२६ में समन्तभद्राश्रम की स्थापना की थी और 'अनेकान्त' नामक शोधपूर्ण मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। बाद में यही संस्था 'वीर सेवा मंदिर' के रूप में प्रतिष्ठित हुई और 'अनेकान्त' उसका मुख पत्र बना। प्राचार्य समन्तभद्र भारतीय दार्शनिक जगत में अद्वितीय माने जाते हैं, और उनके ग्रन्थ जैन दर्शन के आधार-ग्रन्थों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मुख्तार साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र के जीवन पर सर्वप्रथम विस्तार के साथ प्रकाश डाला। उनके ग्रन्थों का सम्पादन किया। उनका विद्वत्तापूर्ण-विवेचनविश्लेषण प्रस्तुत किया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने समन्तभद्र स्मारक की एक विशाल योजना भी बनायी थी, किन्तु वह क्रियान्वित नहीं हो पायी। 'अनेकान्त' शोध-पत्र
__ मुख्तार साहब ने 'अनेकान्त' नाम से जिस शोध मासिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया था वह धीर सेवा मंदिर' के मुख-पत्र के रूप में अब भी चल रहा है। अनुसन्धान के क्षेत्र में इस पत्र ने जो शोधसामग्री विद्वत समाज के सामने प्रस्तुत की, उससे अनेक नये तथ्य उद्घाटित हुए और अनुसन्धान-कार्य को नयी दिशा-दृष्टि प्राप्त हुई। प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार
प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार स्वयं में एक संस्था थे । उनका सम्पूर्ण जीवन साहित्य और समाज के लिए समर्पित रहा । उनका जन्म मगसिर सुदी एकादशी, वि. सं. १९३४ में, सरसावा में हुआ था। कुछ समय तक उन्होंने मुख्तार का कार्य कुशलता के साथ किया। वह जैन समाज के पुनर्जागरण का युग था। मुख्तार साहब एक क्रान्तिकारी समाज-सुधारक के रूप में आगे आये। उन्होंने सामाजिक क्रान्ति की दिशा को सुदृढ़ शास्त्रीय प्राधार दिये । 'जैन गजट' तथा 'जैन हितैषी' के सम्पादक के रूप में उन्होंने सामाजिक पुनर्जागरण का सिंहनाद किया। उनके द्वारा रचित 'मेरी भावना के कारण वे जैन जन-मानस में पैठ गये।
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प्रकाशकीय
मुख्तार साहब ने किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में शास्त्रों का गहन अध्ययन नहीं किया था, प्रत्युत अपने अनवरत स्वाध्याय, सूक्ष्म दृष्टि, गहरी पकड़ और प्रतिभा सम्पन्नता के कारण बहुश्रुत विद्वान् बने । ऐतिहासिक अनुसन्धान, प्राचार्यों का समय-निर्णय, प्राचीन पाण्डुलिपियों का सम्यक परीक्षण तथा विश्लेषण करने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उनके प्रमाण अकाट्य होते थे । उनकी यह साहित्यसेवा अर्धशताब्दी से भी अधिक के दीर्घ काल में व्याप्त है। जीवन के अन्तिम क्षण तक वे अध्ययन और अनुसन्धान के कार्य में लगे रहे । 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित उनका अन्तिम ग्रन्थ 'योगसारप्राभत' उनकी विद्वत्ता का उन्नत सुमेरु है। 'वीर-सेवा-मंदिर' उनका मूर्तिमान कीर्तिस्तंभ है।
बाबू छोटेलाल सरावगी
'वीर-सेवा-मंदिर' को सुदृढ़ आधार देने और सूप्रतिष्ठित करने में कलकत्ता-निवासी स्व. बाब छोटेलाल सरावगी का विशेष योगदान रहा है। वह मुख्तार साहब के प्रति गहरी आत्मीयता रखते थे। 'वीर-सेवा-मंदिर' को सरसावा से दिल्ली लाने तथा यहाँ विशाल भवन निर्माण कराने में उनका अनन्य हाथ रहा। वे प्रारम्भ से ही आजीवन संस्था के अध्यक्ष रहे तथा तन-मन-धन से इसके विकास के लिए प्रयत्नशील रहे । वास्तव में वे 'वीर सेवा मन्दिर' के प्राण थे ।
छोटेलालजी सत्प्रवृत्तियों के धनी, अध्ययनशील तथा उदारचेता व्यक्ति थे। जैन साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। जैन-दर्शन, इतिहास, कला और पुरातत्व के अनसन्धान-कार्य में उनकी बड़ी रुचि थी। इन विषयों के अनुसन्धाता के लिए वे कल्पवक्ष थे। रायल एशियाटिक सोसाइटी के वे एक सम्मानित सदस्य थे। डा. एम. विन्टरनित्ज ने अपने ग्रन्थ 'हिस्ट्री प्रॉव इण्डियन लिटरेचर' भाग २ में छोटेलालजी का बड़े आदर के साथ उल्लेख किया है। यदि छोटेलालजी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो संभवतया डा. विन्टरनित्ज अपने इतिहास-ग्रन्थ में जैन-साहित्य का इतना विशाल और गंभीर सर्वेक्षण प्रस्तुत न कर पाते। छोटेलाल जी का विद्वत्समाज से अत्यन्त निकट का सम्बन्ध था। जैन ही नहीं, इतिहास और पुरातत्त्व के क्षेत्र में कार्य करने वाले भारतीय तथा विदेशी विद्वानों से उनकी बड़ी मित्रता थी। खंडगिरि और उदयगिरि उन्हीं की पुरातात्विक खोज के परिणाम-स्वरूप प्रकाश में आये । 'जैन बिबलियोग्राफी' उनका अमर कीर्तिस्तंभ है। उन्होंने बिब्लियोग्राफी के दूसरे भाग की भी सामग्री संकलित कर ली थी किन्त अस्वस्थ रहने के कारण उसका सम्पादन नहीं कर पाये। डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा उसका सम्पादन किया जा चुका है और अब वह शीघ्र ही प्रकाशित होगी।
पुरातत्त्व एवं इतिहास के प्रेमी होने के साथ-साथ छोटेलालजी एक सफल समाजसेवी एवं नेता भी थे। वे समाज की विभिन्न संस्थानों तथा गतिविधियों में बराबर सक्रिय सहयोग देते रहे। कलकत्ते का महावीर दिगम्बर जैन विद्यालय, अहिंसा प्रचार समिति, दिगम्बर जैन यूवक समिति. जैन सभा प्रादि अनेक संस्थाएं उनके सहयोग की प्रतीक हैं । इसके अतिरिक्त व्यापारिक क्षेत्र में भी छोटेलाल जी भक्तित्व की छाप मिलती है। कलकत्ते की प्रसिद्ध 'गन्नी ट्रेड एसोसिएशन' को सफल बनाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था।
'वीर सेवा मन्दिर' के उक्त दोनों ही आधार-स्तंभ अब नहीं रहे, फिर भी उनके कृतित्व के रूप में उनकी कीर्ति अमर है । मनुसन्धान के क्षेत्र में उनका स्मरण सदा गौरव के साथ किया जाता रहेगा। 'जैन लक्षणावली' या पारिभाषिक शब्द-कोश
'जैन लक्षणावली के प्रकाशन की परिकल्पना मुख्तार साहब ने सन् १९३२ में की थी। जैन में अनेक शब्दों का कुछ विशेष प्रथों में प्रयोग किया गया है। यह अर्थ उनके प्रचलित अर्थ से
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जैन-लक्षणावली
भिन्न है। प्रतएव जैन वाङ्मय के सामान्य अध्येता के लिए सहज रूप में उनको समझ पाना कठिन है। मुख्तार साहब की कल्पना थी कि दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन साहित्य के सभी प्रमुख ग्रन्थों से इस प्रकार के शब्द उनकी परिभाषाओं के साथ संकलित करके, हिन्दी अनुवाद के साथ, पारिभाषिक कोश तैयार किया जाय। इस कल्पना के अनुसार लगभग चार सौ ग्रन्थों से शब्द और उनकी परिभाषाएँ संकलित की गई । इस प्रकार के कार्य प्रायः नीरस लगने वाले तथा श्रम और समय साध्य होते हैं। 'लक्षणावली' के प्रस्तुत खण्ड के प्रकाशन में पर्याप्त समय लग गया। इसे प्रकाशित करते हुए हर्ष और विषाद की सम्मि. लित अनुभति हो रही है। हर्ष इसलिए कि मुख्तार साहब ने 'जैन लक्षणावली' की जो परिकल्पना की थी. उसे मूर्तरूप प्राप्त हो सका, और विषाद इसलिए कि मुख्तार साहब तथा बाबू छोटेलालजी के जीवनकाल में यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका।
प्राभार
वीर सेवा मन्दिर के साथ साह शान्तिप्रसाद जी का नाम अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है। वह न केवल अनेक वर्षों से उसके अध्यक्ष हैं, अपितु उसकी अभिवृद्धि में सक्रिय योगदान देते रहते हैं। प्रस्तत ग्रन्थ के प्रकाशन में उनकी प्रारम्भ से ही गहरी दिलचस्पी रही है। इस अवसर पर हम उनका विशेष रूप से आभार मानते हैं।
_ 'लक्षणावली' के निर्माण और प्रकाशन में अनेक विद्वानों का योग रहा है। मुख्तार साहब के साथ पं. दरबारीलाल कोठिया तथा पं. परमानन्द शास्त्री पूरी योजना के सूत्रधार रहे हैं। सामग्री के प्रारंभिक संकलन में पं. किशोरीलाल शास्त्री, पं. ताराचन्द शास्त्री तथा पं. शंकरलाल शर्मा का योगदान रहा है। पं. हीरालाल शास्त्री तथा पं. दीपचन्द्र पाण्डया ने संकलित सामग्री को व्यवस्थित करने के प्रयत्न किये और अन्ततः पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने संकलित सामग्री का सम्पादन करके उसे प्रकाशन के लिए वर्तमान रूप दिया है। प्रस्तावना में उन्होंने 'लक्षणावली' में उपयोग किये गये ग्रन्थों में से एक सौ दो ग्रन्थों का परिचय दे दिया है, साथ ही संगृहीत लक्षणों के वैशिष्ट्य पर भी प्रकाश डाला है। अन्त में तीन उपयोगी परिशिष्ट भी दिये हैं। प्रेस कापी करने में पं. पाश्र्वदास न्यायतीर्थ का योग रहा है। श्री पन्नालाल अग्रवाल ने समय-समय पर आवश्यकतानुसार सम्बन्धित ग्रन्थ उपलब्ध कराये। मुद्रणप्रस्तुति ग्रादि के सम्बन्ध में डा. गोकुलचन्द्र जैन का सहयोग तथा प्रकाशन में सोसायटी के तत्कालीन मंत्री श्री प्रेमचन्द जैन (कश्मीर वाले) का योगदान प्राप्त हुआ है। इनके अतिरिक्त जिन-जिन विद्वानों और महानुभावों का इस ग्रन्थ के प्रकाशन में योगदान रहा है, उन सबके प्रति 'वीर सेवा मन्दिर' कृतज्ञता व्यक्त करता है।
परी 'लक्षणावली' का प्रकाशन तीन भागों में होगा। हर्ष है कि दूसरे भाग की प्रेस कापी तैयार हो चुकी है तथा मुद्रण प्रारंभ हो गया है। तीसरे भाग का सम्पादन-कार्य चल रहा है। प्राशा है, इस महायज्ञ की पूर्णाहुति शीघ्र संभव होगी।
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ग्रन्थानुक्रम प्रकाशकीय Foreword दो शब्द सम्पादकीय प्रस्तावना
१.८८ लक्षणावली की उपयोगिता लक्षणावली में स्वीकृत पद्धति ग्रन्थ-परिचय
२-६६ १ षट्खण्डागम (२), २ कसायपाहुड (५), ३ समयप्राभृत (५), ४ प्रवचनसार (६), ५ पंचास्तिकाय (६), ६ नियमसार (७), ७ दर्शनप्राभृत (७), ८ चारित्रप्राभूत (७), ६ बोधप्रामृत (८), १० भावप्राभृत (८), ११ मोक्षप्राभृत (६), १२ द्वादशानुप्रेक्षा (११), १३ मूलाचार (११), १४ भगवती पाराधना (१५), १५ तत्त्वार्थसूत्र (१६), १६ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१६), १७ पउमचरिय (१६), १८ प्राप्तमीमांसा (१७), १९ युक्त्यनुशासन (१७), २० स्वयंभूस्तोत्र (१८), २१ रत्नकरण्डक (१८), २२ सर्वार्थ सिद्धि (१८), २३ समाधितंत्र (१६), २४ इष्टोपदेश (१९), २५ तिलोयपण्णत्ती (२०), २६ प्राचारांग (२३), २७ सूत्रकृतांग (२५), २८ स्थानांग (२५), २६ समवायांग (२६), ३० व्याख्याप्रज्ञप्ति (२६), ३१ प्रश्नव्याकरणांग (२७), ३२ विपाकसूत्रांग (२७), ३३ प्रौपपातिकसूत्र (२७), ३४ राजप्रश्नीय (२८), ३५ जीवाजीवाभिगम (२६), ३६ प्रज्ञापनासूत्र (२९), ३७ सूर्यप्रज्ञप्ति (३०), ३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (३०), ३६ उत्तराध्ययनसूत्र (३०) ४० आवश्यकसूत्र (३१), ४१ दशवैकालिक (३२), ४२ पिण्डनियुक्ति (३४), ४३ अोधनियुक्ति (३४), ४४ कल्पसूत्र (३१ बृहत्कल्पसूत्र (३६), ४६ व्यवहारसूत्र (३६), ४७ नन्दीसूत्र (३७), ४८ अनुयोगद्वार (३७), ४६ प्रशमरतिप्रकरण (३८), ५० विशेषावश्यकभाष्य (३८), ५१ कर्मप्रकृति (३६), ५२ शतकप्रकरण (४०), ५३ उपदेशरत्नमाला (४१), ५४ जीवसमास (४१), ५५ ऋषिभाषित (४३), ५६ पाक्षिकसूत्र (४३), ५७ ज्योतिष्करण्डक (४४), ५८ दि० प्राकृत पंच संग्रह (४४), ५८ परमात्मप्रकाश (४४), ६० सम्मतिसूत्र (४५), ६१ न्यायावतार (४६), ६२ तत्वार्थवार्तिक (४७), ६३ लघीयस्त्रय (४७), ६४ न्यायविनिश्चय (४८), ६५ प्रमाणसंग्रह (४८), ६६ सिद्धिविनिश्चय (४८), ६७ पद्मपुराण (४८), ६५ वरांगचरित (४८), ६६ हरिवंशपुराण (४६), ७० महापुराण (४६), ७१ प्रमाणपरीक्षा (५०), ७२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (५०), ७३ आत्मानुशासन (५०), ७४ धर्मसंग्रहणी (५०), ७५ उपदेशपद (५१), ७६ श्रावकप्रज्ञप्ति (५१), ७७ धर्मबिन्दुप्रकरण (५२), ७८ पंचाशक (५२), ७६ षड्दर्शनसमुच्चय (५३), ८० शास्त्रवार्तासमुच्चय (५३), ८१ षोडशकप्रकरण (५४), ८२ अष्टकानि (५४), ८३ योगदृष्टिसमुच्चय (५४), ८४ योगबिन्दु (५४), ८५ योगविंशिका (५४), ८६ पंचवस्तुक (५५), ८७ तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति (५६), ८८ भावसंग्रह (५६), ८६ पालापपद्धति (५६), ६० तच्चसार (५६), ६१ नयचक्र (५७), ६२ अाराधनासार (५७), ६३ श्वे. पंचसंग्रह (५८), १४ सन्मतिकाप्रकरण (५६),
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जैन-लक्षणावली ६५ कर्मविपाक (६०), ६६ गोम्मटसार (६०), ६७ लब्धिसार (६४), ६८ त्रिलोकसार (६५), ६६ पंचसंग्रह संस्कृत (६६), १०० जंबूदीवपण्णत्ती (३७), १०१ कर्मस्तव (३६), १०२ षडशीति (६६), लक्षणवैशिष्ट्य
७०-८५ प्राकृत शब्दों की विकृति और उनका संस्कृत रूपान्तर
८६-७ शुद्धि-पत्र
८८ जैन-लक्षणावलो (प्र-ौ)
१-३५२ परिशिष्ट
१-२२ लक्षणावली में उपयुक्त ग्रन्थों की अनुक्रमणिका ग्रन्थकारानुक्रमणिका शताब्दीक्रम के अनुसार ग्रन्थकारानुक्रमणिका
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জন ঘষামন্ত্রী
स्व. प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार
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स्व० बाबू छोटेलाल सराबगो
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Foreword
The aim of the Dictionary of the Technical Terms of Jainism (Jaina laksanavali) is to provide at one place the different definitions of terms, which have been used in the works of Jainism during the last 2500 years. These definitions have been carefully collected from 351 authoritative works of Prakyta and Samskyta and are sometimes so detailed that they can be more appropriately called descriptions rather than definitions. There can be, however, no doubt about their authenticity, because they are taken verbatim from the Scriptures.
The technical terms, included in this Dictionary, can be, broadly speaking, classified into five categories : (i) Terms which are exclusively used in the writings of Jainism,
e.g. rjusūtranaya, avaya etc. ii) Terms which are used in both, the Jaina and the non-Jaina
systems, but the Jainas use them in altogether a different sense, e.g. adharma etc. Terms which are used in Jaina and non-Jaina systems in more
or less the same sense, e.g. ahimsa, asatya etc. (iv) Terms which are used in Jaina and non-Jaina systems in a
sense which is basically the same but the philosophical
concepts, they convey, differ, e.g. aņu, apavarga etc. (v) Terms which are used in day-to-day language also, but which
have been adopted by the Jain thinkers to give a peculiar meaning, e.g. arambha, upayoga etc.
All the categories, mentioned above, can be included under one category of technical terms, because they have been adopted or invented by the specialists to give precise expression to certain notions and they convey that notion only to a person who is familiar with the subject and not merely with the language. Though the etymologies of such words are also sometimes helpful in their understanding and are sometimes given by the ancient authors, (e.g. see indriya (p. 233) yet these seldom convey the real sense.
In fact, the words of a language are only symbols, conveying a notion, which has to be understood mentally rather than expressed verbally. It is perhaps with reference to those who stick only to the literal dictionary meaning of a word and cannot mentally picture the notion for which it really stands, that the Rgvedic poets declared : 'one sees not the speech even though seeing it ; one hears Her not
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JAIN LAKSHNAVALI
even though hearing it, but to another She reveals Her form like a loving wife, finely robed to her husband'
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् । उत त्वस्मै तन्वं विसले जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥
-Rgveda 10-171-4 The fact is that our understanding of a word or a sentence is always hindered by our prejudices and pre-concepts about a problem and the proper understanding of a word requires a mind free from all prejudices. This is why the ancient Indian philosophers believed that one who masters the reality of the word, attains the Supreme Reality-शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति. If we look at the present work from this point of view, it is not merely a compilation work but a work of independent significance.
ri Balac andra Sastri, the editor of this Dictionary, has done his work in the spirit of a devotee of sabdabrahman. This is evident from his introduction running into 87 pages, where he has shown a keen interest in the history of words. The words may expand or contract their meanings by the passage of time. The definitions of words undergo changes as and when they are criticised by the opponent. Sri Sastri has critically examined the definitions of about 25 such words or word-pairs, where the definitions have undergone changes. He has shown a rare quality of non-sectarian approach even while dealing with such controversial words as acelaka (pp. 70-71).
Sri Sastri has also given a historical account of 102 works, which have been utilised in the preparation of the present work. This account is full of valuable information and is very helpful in making a historical study of the definitions, collected in the main body of the Dictionary. In this account, however, I feel that ancient texts like Acarangasūtra should have been placed before late works like Trilokaprajñpti. In fact, it is a sectarian problem. Digambara authors sometimes do not give due importance to the Svetambara agamas, even if they are very old. Similarly the Svetambaras sometimes overlook such eminent and old authors as Kundakundacarya. The Acarangasūtra, to the best of my knowledge, has been generally placed in the first part of the 3rd Century B.C. and as such should have been dealt with together with the Digambara agamas.
I am, however, glad to observe that Sri Balacandra Śastrī is perhaps the first to take an initiative in preparing a Dictionary of the Technical Terms of Jainism, in which the works of both the sects of the Jainas have been given equal importance. The earliar two works of the similar nature, Abhidhanarajendrakosa and Jainendrasiddhantakoşa (Vol. I), though excellent in their own ways, are superseded by the present work in the sense that the former is primarily based only on the
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FOREWORD
Svetambara works whereas the latter is primarily based on the Digambara works, whereas this Dictionary takes into account works of both the sects. It may be, however, pointed out that the present work is confined only to the definitions whereas the earlier two works deal with all the problems connected with a particular philosophical concept.
_. The work is mainly philosophical and religious and as such deals with words of metaphysical, ethical, logical, epistemological, psychological and mythological significance. All students of philosophy, whether Eastern or Western, will be benefited by going through the concept of akaša or space (pp. 166-167) as found in Jainism. Similar is the case with ahimsa or non-violence (pp.163-165). Terms of logical or epistemological importance have been rather more thoroughly dealt with. In case of avaya (or apaya) or perceptual judgment (p. 142) 33 definitions have been collected. Similar is the case with Rjusutranaya or straight-expressed point of view (pp. 288290). If we cast a glance at the descriptions of words like anihnavācāra or non-concealing conduct (p. 65) and anumanitadosa or inferential defect (p. 78), we would see that the Jaina authors have a deep insight into the workings of human mind.
While collecting the definitions. Śrī Balacandra Sastri had to use his own judgment as to which of them is the most representative. Sri Sastri has also given a Hindi translation of one of the most representative definitions. He has been successful in both, selecting the representative definition as well as translating it into Hindi. Moreover his Hindi translation has, at places become an illuminating commentary of the original text and the contribution of the author is very significant in this direction. Let us take, as an example, the case of antarvyāpti or internal concomitance (p. 88). The original text reads as follows:
पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः। यथानेकान्तात्मकं वस्तु सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेरिति ।
The Hindi version of this reads as follows :
"पक्ष के भीतर ही साध्य के साथ साधन की व्याप्ति होने को अन्तर्व्याप्ति कहते हैं। जैसे वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि अनेकान्तात्मक होने पर ही उसकी सत्ता घटित होती है । यहाँ पक्ष के अन्तर्गत वस्तु को छोड़ कर अन्य (अवस्तु) की सत्ता ही सम्भव नहीं है, जहाँ कि उक्त व्याप्ति ग्रहण at JT TE."
Here the underlined words are by way of explanation of what has been said in the original text. This certainly fecilitates the understanding of antarvyāpti.
This Dictionary includes many words which are important for the students of history of Jaina literature e.g. Anuttaraupapatika daśa (p. 69)
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JAIN LAKSHNAVALI
Acarangasūtra (p. 180) and U pasakadasa (p. 281). Not only this, but the readers will find that there are some passages, which are good examples of prose and poetry from the point of literary style. We quote below a passage from Sarvarthasiddhi (p. 148).
यथा मृगशावकस्यकान्ते बलवता क्षधितेनामिषैषिणा व्याघ्रणाभिभूतस्य न किञ्चिच्छरणमस्ति तथा जन्म-जरा-मृत्यु-व्याधि-प्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते । परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते, यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवान्तरमनगच्छन्ति, संविभक्तसुख-दुःखाः सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते, बान्धवाः समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति, अस्ति चेत् सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तारणोपायो भवति ।
The following verse from the Yasastilakacampū may also be noted in this connection (p. 148).
दत्तोदयेऽर्थनिचये हृदये स्वकार्ये
सर्वः समाहितमतिः पुरतः समास्ते। जाते त्वपायसमयेऽम्बुपतौ पतत्रः
पोतादिव द्रुतवतः शरणं न तेऽस्ति । Many of the words are interesting for the students of ancient Indian Culture. The following description of asikarmar ya, for example, gives the names of ancient weapons (p. 160).
असि-तरवारि-वसुनन्दक-धनुर्वाण-छुरिका-कट्टारक-कुन्त-पटिश-हल-मुसल-गदा-भिन्दिपाललोहघन-शक्ति-चक्रायुधचञ्चवः असिकर्मार्या उच्यन्ते ।
It is clear from what has been said above, that the utility of the present work is not confined merely to the students of Jainism but extends to the wider field of Indology. I hope that the work will receive appreciation from all scholars of oriental studies.
Head of the Sanskrit Deptt. Ramjas College Maurice Nagar, Delhi-7.
Dayanand Bhargava
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दो शब्द
सन् १९३६ में मेरी नियुक्ति वीर सेवा मंदिर सरसावा में हुई। उसके लगभग कोई डेढ़ वर्ष बाद मुख्तार साहब ने एक दिन बुला कर मुझसे कहा कि दिगम्बर श्वेताम्बर समाज में ऐसा एक भी शब्दकोष नहीं है, जिसमें दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों पर से लक्षणात्मक लक्ष्यशब्दों का संकलन किया गया हो । प्राकृत भाषा का पाइय-सह-महण्णवो' नाम का एक श्वेताम्बरीय शब्दकोष प्रवश्य प्रकाशित हुआ है । पर उसमें दिगम्बर ग्रन्थों में पाये जाने वाले प्राकृत शब्दों का प्रभाव है - वे उसमें नहीं हैं । दूसरा आगम शब्दकोष है जिसमें अर्धमागधी प्राकृत के शब्दों का अर्थ हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती भाषा में मिलता है । पर दिगम्बर समाज में प्रचलित प्राकृत भाषा का एक भी शब्दकोष नहीं है जिसके बनने की बड़ी आवश्यकता है । मेरा विचार कई बर्षों से चल रहा है कि दिगम्बर प्राकृत संस्कृत ग्रन्थों पर से एक शब्दकोप का निर्माण होना चाहिए और दूसरा एक 'लाक्षणिक शब्दकोष' । जब उपलब्ध कोषों में दिगम्बर शब्द नहीं मिलते, तत्र बड़ा दुख होता है । पर क्या करूं, दिल मसोस कर रह जाना पड़ता है, इधर मैं स्वयं अनवकाश से सदा घिरा रहता हूँ । और साधन सामग्री भी अभी पूर्ण रूप से संकलित नहीं है । इसी से इस कार्य में इच्छा रहते हुए भी प्रवृत्त नहीं हो सका ।
अब मेरा निश्चित विचार है कि दो सौ दिगम्बर और इतने ही श्वेताम्बर ग्रन्थों पर से एक ऐसे लाक्षणिक शब्दकोष के बनाने का है जिसमें कम से कम पच्चीस हजार लाक्षणिक शब्दों का संग्रह हो । उस पर से यह सहज ही ज्ञात हो सकेगा कि मौलिक लेखक कौन है, और किन उत्तरवर्ती श्राचार्यों ने उनकी नकल की है । दूसरे यह भी ज्ञात हो सकेगा कि लक्षणों में क्या कुछ परिस्थितिवश परिवर्तन या परि वर्धन भी हुआ है । उदाहरण के लिए 'प्रमाण' शब्द को ही ले लीजिए । प्रमाण के अनेक लक्षण हैं, पर उनकी प्रामाणिकता का निर्णय करने के लिए तुलनात्मक अध्ययन करने की आवश्यकता है ।
प्राचार्य समन्तभद्र ने 'देवागम' में तत्त्वज्ञान को और स्वयंभुस्तोत्र में स्व-परावभासी ज्ञान को प्रमाण बतलाया है' । अनंतर न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन ने समन्तभद्रोक्त 'स्व- परावभासी ज्ञान के प्रमाण होने की मान्यता को स्वीकृत करते हुए 'बाघवजित' विशेषण लगाकर स्व-परावभासी बाधा रहित ज्ञान को प्रमाण कहा है। पश्चात् जैन न्याय के प्रस्थापक अकलंकदेव ने 'स्वपरावभासी' विशेषण का समर्थन करते हुए कहीं तो स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण बतलाया है। और कहीं अनधिगतार्थक श्रविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहा है' । प्राचार्यं विद्यानन्द ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बतलाते हुए 'स्वार्थव्यवसायात्मक' ज्ञान को प्रमाण का लक्षण निर्दिष्ट किया है। माणिक्यनन्दी ने एक ही वाक्य में 'स्व' और 'अपूर्वार्थ' पद निविष्ट कर अकलंक द्वारा विकसित परम्परा का ही एक प्रकार से अनुसरण किया है। सूत्र में निविष्ट 'अपूर्व' पद माणिक्यनंदी का स्वोपज्ञ नहीं है, किन्तु उन्होंने श्रनिश्चित १. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगत्पत्सर्वभासनम् । देवा. का. १०१.
X X X स्व-परावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् । वृहत्स्वयं. ६३.
२. प्रमाणं स्व-परावभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । न्यायवा. १.
३. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् । लघीयस्त्रय ६०.
प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्, अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । प्रष्टश. का. ३६०
४. तत्स्वार्थ व्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता ।
लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥ तत्त्वार्थश्लोकवा. १, १०, ७७; प्रमाणप. पू. ५३.
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१२
जैन - लक्षणावली
को पूर्वार्थ बतलाया है । अतः उसे अकलंक की देन मानना चाहिए' । सन्मति टीकाकार अभयदेव ने विद्यानन्द का ही अनुसरण कर 'व्यवसाय' के स्थान में 'निर्णीति' पद रक्खा है' । वादिदेव सूरि ने श्राचार्य विद्यानन्द के ही शब्दों को दोहराया है और स्व-परव्यवसायी ज्ञान को प्रमाण प्रकट किया है। हेमचन्द्र ने पूर्वोक्त लक्षणों में काट-छांट करके 'सम्यक्', 'अर्थ' और 'निर्णय' ये तीन पद जोड़े। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने पूर्वाचार्य नियोजित लक्षणों में संशोधन कर स्व, अपूर्व और व्यवसायात्मक पद निकाल कर प्रमाण का लक्षण 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' बतलाया है । इन लक्षणों को इतिहास की कसौटी पर कसना विद्वानों का कार्य है ।
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर प्रमाण के इन लक्षणों में कहां, कब और किस परिस्थिति में उन उन विशेषणों की वृद्धि करनी पड़ी, इस सब का इतिवृत्त भी ज्ञात हो सकेगा और लक्षणावली में संकलित लक्षणों का प्रस्तावना में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जा सकेगा ।
लाक्षणिक शब्दों को प्रकारादि क्रम से दिया जायगा । यदि वे लाक्षणिक शब्द कालक्रम से दिये जा सकें तो पाठकों और विद्वानों के लिए अधिक सुविधा हो सकेगी। मैंने कहा कि आपका यह विचार श्रति उत्तम है । परन्तु यह सब कार्य अत्यन्त परिश्रमसाध्य है । इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए दिगम्बर श्वेताम्बर सभी ग्रन्थों के संग्रह करने की आवश्यकता होगी, जिसे पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिए । जो ग्रन्थ उपलब्ध हो सकते हों उन्हें लायब्रेरी में मंगवा लीजिए । श्रवशिष्ट ग्रन्थ किन्हीं शास्त्रभण्डारों से मंगवा कर पूरा कर लेना चाहिए। कार्य होने पर उनके वे ग्रन्थ वापिस कर दिये जांय ।
साथ ही लक्षणावली की रूप-रेखा भी बननी चाहिए, जिससे लक्ष्य शब्दों का संग्रह उसी रूप में किया जा सके । और बाद में विद्वान उस रूप-रेखा के अनुसार ही लक्षणों का संग्रह करें । मुख्तार साहब ने कहा कि मैं लक्षणावली की रूप-रेखा बना दूंगा, जिससे कार्य योजनाबद्ध और जल्दी शुरु किया जा सके। मैं पहले विद्वानों को बुलाने के लिए आवश्यक विज्ञप्ति पत्र लिखे देता हूँ, उसे श्राप कापी करके सब जैन पत्रों को भिजवा दीजिये, जिससे नियुक्ति के लिए उन विद्वानों के पत्र ना सकें जो विद्वान इस कार्य में विशेष उत्साह रखते हैं और जिन्हें जैन साहित्य के अध्ययन की रुचि हो, अथवा जिन्होंने शब्दकोष बनाने का कार्य किया हो या उसका कुछ अनुभव हो । विज्ञप्ति जैन साप्ताहिक पत्रों में भेज दी गई। साथ ही मुख्तार साहब ने एक पत्र बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता, डा० ए. एन. उपाध्ये कोल्हापुर और मुनि श्री पुण्यविजय जी को अहमदाबाद भेजा । जिनकी नकल उन्होंने अपने पास रख ली । इन पत्रों के उत्तर से मुख्तार साहब के उत्साह में वृद्धि हुई । इधर विद्वानों के भी पत्र आये। उनमें से पं. ताराचन्द दर्शनशास्त्री और पं. किशोरीलाल जी को नियुक्ति पत्र दे दिया । कार्य की रूप-रेखा के सम्बन्ध में एक पत्र मुख्तार साहब ने बाबू छोटेलाल जी को लिखा और लक्षणावली के कार्य के शुरु करने की सूचना दी । और उसके लिए आर्थिक सहयोग की प्रेरणा करते हुए लक्षणावली के महत्त्व पर भी प्रकाश Star | लक्षणावली का कार्य ८-९ महीना द्रुत गति से चला, किन्तु बाद में उसमें कुछ शैथिल्य ना गया । मालूम हुआ कि उसमें कुछ प्रार्थिक कठिनाई भी कारण है । बाबू छोटेलाल जी ने साहू शान्तिप्रसाद जी से कहकर लक्षणावली के लिए पन्द्रह हजार की सहायता की स्वीकृति प्राप्त की और साथ ही पांच हजार का चैक भी पत्र के साथ भिजवा दिया । उसके बाद लक्षणावली के लक्ष्य शब्दों पर लक्षणों के संग्रह का कार्य होने लगा । लक्षणावली में कुछ शब्द निरुक्त्यर्थ और स्वरूपात्मक शब्द भी संग्रहीत किये गये थे । अब दृष्टि में कुछ परिवर्तन हो जाने पर उन दोनों प्रकार के शब्दों को कम कर दिया ।
५. स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । परीक्षा. १, १.
६. प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानम् । सन्मति. टी. पृ. ५१८.
७. स्व-परव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणं । प्रमाणन. १,२. ८. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । प्रमाणमीमांसा १२.
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दो शब्द
१३
जैन लक्षणावली या परिभाषात्मक शब्द कोष का एक नमूना अनेकान्त के तीसरे वर्ष की प्रथम किरण में देने का विचार किया । अतः दिगम्बर-श्वेताम्बर के लक्ष्य शब्दों के अनुसार लक्षणों का संकलन करना शुरू किया गया। और उसमें दोनों सम्प्रदाय के लक्षणों को अलग-अलग दिया, कारण कि एक क्रम करने पर उसमें शताब्दीवार करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित होती थी। दूसरे, प्राचार्यों के समय का कालक्रम निर्णीत नहीं था। फिर लक्षणों का सम्पादन संशोधन करके उसे प्रकाशन के योग्य बना दिया. पर उसके साथ हिन्दी नहीं दी जा सकी। इस कारण उसमें विवाद होना स्वाभाविक था। इसी से उन्हें अलग रक्खा गया। (देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण १)
इस नमूने पर से लोगों के अनेक मन्तव्य पाये, जिनका संकलन मुख्तार सा० ने रक्खा ।
लक्षणों का कार्य प्रायः समाप्त हो गया, और कुछ ऐसे ग्रन्थ जरूर रह गये जो उस समय प्राप्त नहीं हो सके, जैसे महाबन्ध आदि, उसके कुछ वर्षों बाद उनका भी संग्रह कर लिया गया।
पर लक्षणावली का सम्पादन प्रकाशन पड़ा रहा। क्योंकि मुख्तार सा० अपने को अनवकाश से घिरा हा बतलाते थे, और दूसरे किसी ऐसे विद्वान की तलाश भी नहीं हुई, जो उस कार्य को सम्पन्न कर सकता, तलाश हुई भी तो उन्होंने उस कार्य की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। अतः वर्षों वह कार्य यों ही पड़ा रहा।
पं.दीपचन्द जी पाण्डया लगभग एक वर्ष रहे और पं. हीरालाल जी सिद्धान्त-शास्त्री वीर सेवा. मन्दिर में पांच वर्ष रहे, किन्तु लक्षणावली का कार्य जो हुआ, वह अपूर्ण और अव्यवस्थित रहा। इसलिए उसका एक भाग भी प्रकाशित नहीं हो सका।।
एक बार पं. हीरालाल शास्त्री ने बा. छोटे लाल जी से कहा कि लक्षणावली का एक खण्ड प्रकाशन के योग्य हो गया है। उन्होंने वह उसे मुख्तार सा. को देखने के लिए दिया । मुख्तार साहब ने उसे देखा, तब उन्होंने फुलिस्केप साइज के दो पेजों में उसकी त्रुटियों को लिखकर दिया और कहा यह सामग्री तो अपूर्ण और त्रुटियों से भरी हुई है, अतः प्रकाशन के अयोग्य है। त्रुटियां बता देने के बाद भी उनका सुधार नहीं हुआ, और न मूल लक्षणों का संशोधन ही किया गया। पं. हीरालाल जी घर चले गए और लक्षणावली का वह कार्य यों ही पड़ा रहा। पं. दीपचन्द जी पाण्डया ने लक्षणावली का कार्य किया. किन्तु वे भी बीच में चले गए और कार्य तदवस्थ रहा।
बाब छोटेललजी को लक्षणावली के प्रकाशन की बड़ी चिन्ता रही, पर वह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो सकी।
अंत में पं. दरबारीलाल जी की प्रेरणा से पं. बालचन्द जी सि. शास्त्री की वीर सेवा मन्दिर में नियुक्ति हई। तब उन्होंने लक्षणावली का कार्य सम्हाला और लक्षणावली के मूल लक्षणों का संशोधन तथा अनुवाद कार्य किया। और अब उसका प्रथम खण्ड छप कर तैयार हो गया है।
इसमें दि. श्वे. लक्षणों का क्रम एक रखते हुए भी उनमें ऐतिहासिक क्रम यथाशक्य दिया गया है। अनुवाद किसी एक ग्रन्थगत लक्षण के आधार पर किया गया है। यदि कहीं कुछ विशेषता लक्षणों में दष्टिगोचर हई तो अन्य ग्रन्थों का भी अनुवाद दे दिया गया है, जिससे पाठकों को कोई भ्रम न हो।
T की प्रस्तावना में १०२ ग्रन्थों और ग्रन्थकर्ताओं का परिचय इस खण्ड में दिया गया है, और शेष ग्रन्थों का परिचय अगले खंड में दिया जायगा।
परिशिष्टों में ग्रन्थों का प्रकारादि क्रम दिया गया है, उनमें उनके संस्करणों व प्रकाशन स्थान आदि को भी सूचित कर दिया गया है। संकेत-सूची, प्राचार्यों का ऐतिहासिक कालक्रम भी दे दिया गया है। जिससे पाठकों को किसी तरह की असुविधा न हो।
इस तरह लक्षणावली (पारिभाषिक शब्द कोश) के एक भाग का कार्य सम्पन्न हो पाया है। इस महान कार्य के लिए सम्पादक प. बालचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री और संस्थाके संचालक धन्यवाद के पात्र हैं।
-परमानन्द जैन शास्त्री
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सम्पादकीय
लगभग ५ वर्ष पूर्व मैंने पं. दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य, एम्. ए., पी.एच. डी. वाराणसी की प्रेरणा से यहाँ पाकर प्रस्तुत लक्षणावली के सम्पादन कार्य को हाथ में लिया था। इसकी योजना स्व. श्रद्धेय पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा तैयार की गई थी। उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न कराने के लिए कुछ विद्वानों को नियुक्त कर उनके द्वारा दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के बहत से ग्रन्थों से लक्षणों का संकलन भी कराया था। यह संकलन तब से यों ही पड़ा रहा । जो कुछ भी कठिनाइयाँ रही हों, उसे मुद्रण के योग्य व्यवस्थित कराकर प्रकाश में नहीं लाया जा सका।
अब जब मैंने उसे व्यवस्थित करने के कार्य को प्रारम्भ किया तो इसमें मुझे कुछ कठिनाइयों का अनुभव हुआ। जैसे
१ उक्त संकलित लक्षणों में से यदि कितने ही लक्षणों में सम्बद्ध ग्रन्थों के नाम का ही निर्देश नहीं किया गया था तो अनेक लक्षणों में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र का निर्देश किया गया था-उसके अन्तर्गत अधिकार, सूत्र, गाथा, श्लोक अथवा पृष्ठ आदि का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया था। उनके खोजने में काफी कठिनाई हुई।
२ कुछ लक्षणों को ग्रन्थानुसार न देकर उन्हें तोड़-मरोड़कर कल्पितरूप में दिया गया था । उदाहरणार्थ धवला (पु. ११, पृ. ८६) में से संगृहीत 'अकर्मभूमिक' का लक्षण इस प्रकार दिया गया था-पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा कम्मभूमा, ण कम्मभूमा अकम्मभूमा, भोगभूमीसु उप्पण्णा प्रकम्मभूमा इत्यर्थः ।
परन्तु उक्त धवला में न तो इस प्रकार के समास का निर्देश किया गया है और न वहां धवलाकार का वैसा अभिप्राय भी रहा है। उन्होंने तो वहां इतना मात्र कहा है-तत्थ अकम्मभूमा उक्कस्सदिदि ण बंधति, पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा चेव उक्कस्सट्ठिदि बंध ति त्ति जाणावण8 कम्मभूमियस्स वा त्ति भणिदं'।
इस प्रकार के अप्रामाणिक लक्षणों का संकलन करना उचित प्रतीत नहीं हमा। यदि ग्रन्थकार का कहीं उस प्रकार के लक्षण का अभिप्राय रहा है तो ग्रन्थगत मूल वाक्य को-चाहे वह हेतुपरक रहा हो या अन्य किसी भी प्रकार का-उसी रूप में लेकर आगे कोष्ठक में फलित लक्षण का निर्देश कर देना मैंने उचित समझा है ।
३ कितने ही लक्षणों के मध्य में अनुपयोगी अंश को छोड़कर यदि आगे कुछ और भी लक्षणोपयोगी अंश दिखा है तो उसे ग्रहण तो कर लिया गया था, पर वहाँ बीच में छोड़े गये अंश की प्रायः सुचना नहीं की गई थी। ऐसे लक्षणों में कहीं-कहीं ग्रन्थकार के प्राशय के समझने में भी कर है। अतएव मैंने बीच में छोड़े हुए ऐसे अंश की सूचनाXXXइस चिह्न के द्वारा कर दी है
४ संगृहीत लक्षणों का जो हिन्दी अनुवाद किया गया था वह प्राय: भावात्मक ही सर्वत्र रहा है-जिन ग्रन्थों से विवक्षित लक्षण का संकलन किया गया है, उनमें से किसी के साथ भी प्रायः उसका मेल नहीं खाता था। यहां तक कि जो लक्षण केवल एक ही ग्रन्थ से लिया गया है उसका भी अनुवाद तदनुरूप नहीं रहा । जैसे 'अघ्वयु' के लक्षण का अनुवाद इस प्रकार रहा है
शिवसुखदायक पूजा-यज्ञ-के करनेवाले व्यक्ति को अध्वयु कहते है।
इसके अतिरिक्त श्वे. ग्रन्थों में उपलब्ध अधिकांश लक्षणों का अनुवाद तो प्रायः कल्पना के आधार पर किया गया था, ग्रन्थगत अभिप्राय से वह बहिर्भूत ही रहा है। १. धवलाकार को 'अकर्मभूमिक' से क्या अभीष्ट रहा है, इसे उक्त शब्द के नीचे देखिये । २. उसका परिवर्तित अनुवाद उक्त शब्द के नीचे देखिये ।
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सम्पादकीय
१५
इस प्रकार के अनुवाद को न लेकर मैंने उल्लिखित ग्रन्थों में से किसी एक के आधार से- तथा उनमें से भी जहाँ तक सम्भव हुआ प्राचीनतम ग्रन्थ के प्राश्रय से - अनुवाद किया है एवं साथ में उसकी क्रमिक संख्या का निर्देश भी उसके पूर्व में कर दिया है। हां, यदि अन्य ग्रन्थगत विवक्षित लक्षण में कहीं कुछ विशेषता दिखी है तो उसके प्राधार से भी अनुवाद कर दिया है तथा उसके पूर्व में उसकी भी क्रमिक संख्या का निर्देश कर दिया है ।
५ कहीं-कहीं ग्रन्थगत विवक्षित लक्षण के स्थल को न देखने के कारण लक्ष्य शब्द व उस लक्षण का अनुवाद दोनों ही असम्बद्ध हो गये थे । जैसे—धवला (पु. १३, पृ. ६२ ) में परिहार प्रायश्चित्त के इन दो भेदों का निर्देश किया गया है - 'प्रणवटुग्रो' और 'पारंचिनो' । 'प्रणवट्टओ' का संस्कृत रूपान्तर 'अनुवर्तक' स्वीकार करते हुए उसका अनुवाद इस प्रकार किया गया थाजघन्य से छह मास और उत्कर्ष से बारह वर्ष तक कायभूमि से परे ही विहार करने वाला, प्रतिवन्दना से रहित, गुरु के अतिरिक्त शेष समस्त जनों में मौन रखनेवाला; उपवास, श्राचाम्ल, एकस्थान, निविकृति आदि के द्वारा शरीर के रस, रुधिर और माँस का सुखानेवाला साधु धनुवर्तक परिहारविशुद्धिसंयत कहलाता है ।
यह विसंगति ग्रन्थगत 'परिहारो दुविहो' में केवल ' परिहार' शब्द को देखकर उससे 'परिहारविशुद्धिसंयत' समझ लेने के कारण हुई है । पर वास्तव में वहां उसका कोई प्रकरण ही नहीं है, प्रकरण वहां आलोचनादि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का ही है, जिन्हें धवलाकार के द्वारा स्पष्ट किया गया है ।
ऐसी ही कुछ कठिनाइयां मेरे सामने रही हैं, जिन्हें दूर करने के लिए विवक्षित लक्षणों से सम्बद्ध अधिकांश ग्रन्थों को देखना पड़ा है । इसी कारण समय कुछ कल्पना से अधिक लग गया ।
यद्यपि इस स्पष्टीकरण की यहाँ कुछ भी प्रावश्यकता नहीं थी, पर चूंकि मेरे सामने कितनी ही बार यही प्रश्न आया है कि ग्रन्थ तो तैयार रखा था, फिर उसके प्रकाशन में इतना बिलम्ब क्यों हो रहा; अतएव इतना स्पष्ट करना पड़ा है ।
इसके अतिरिक्त सन् १६६६ के दिसम्बर में मैं अस्वस्थ हो गया और इस कारण मुझे चालू काम को छोड़कर अपने बच्चों के पास चला जाना पड़ा । स्वास्थ्यसुधार के लिए मुझे उनके पास लगभग १० माह रहना पड़ा । इस बीच मैंने अपनी अस्वस्थता के कारण प्रकृत कार्य के सम्पन्न करा लेने के लिए अन्य कुछ व्यवस्था कर लेने के विषय में भी प्रार्थना की थी, पर वैसा नहीं हुआ । अन्त में कुछ स्वस्थ हो जाने पर अधिकारियों की प्रेरणा से मैं वापिस चला श्राया व कार्य को गतिशील कर दिया । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का यह स्वरान्त (प्र-प्री ) प्रथम भाग पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है ।
यद्यपि मैंने यथासम्भव इसे अच्छा बनाने का प्रयत्न किया है, रहित होगा, यह नहीं कहा जा सकता - अल्पज्ञता व स्मृतिहीनता के रह जाना सम्भव है | वास्तव में ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य अनेक विद्वानों के
हमें इस बात का विशेष दुःख है कि साहित्य-गगन के सूर्यस्वरूप जिन श्रद्धेय मुख्तार सा. ने इसकी योजना प्रस्तुत की थी और तदनुसार कुछ कार्य भी कराया था, वे आज अपनी इस कृति को देखने के लिए हमारे बीच नहीं रहे ।
फिर भी वह त्रुटियों से सर्वथा कारण उसमें अनेक त्रुटियों का सहकार की अपेक्षा रखते हैं ।
श्राभार
मई १९६७ में सम्पन्न हुए पं. गो. बरैया स्मृति ग्रन्थ के समारम्भ के समय उसके निमित्त से अनेक मूर्धन्य विद्वानों का यहाँ शुभागमन हुआ था । इस अवसर का लाभ उठाकर उन्हें वीर सेवा मन्दिर के भवन में प्रस्तुत लक्षणावली-विषयक विचार-विमर्श के लिए श्रामन्त्रित किया गया था । तदनुसार
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१६
जैन-लक्षणावली
उनका सम्मेलन श्री पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री की अध्यक्षता में सम्पन्न हमा। जैसी कि अपेक्षा थी, इस विद्वत्सम्मेलन ने उक्त लक्षणावली के सम्बन्ध में कुछ उपयोगी सुझाव देते हुए उसके शीघ्र प्रकाशित कराने के लिए प्रेरणा की थी। उक्त विद्वत्सम्मेलन की सद्भावना से मुझे इस कार्य के सम्पन्न कराने में कुछ बल मिला व मार्गदर्शन भी प्राप्त हया । तदनुसार ही मैंने यथाशक्ति उसके कार्य के सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है।
ग्रन्थ की प्रस्तावना के लिखने में हमें जैन साहित्य और इतिहास, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पुरातन जैन वाक्य-सूची की प्रस्तावना, सिद्धिविनिश्चय की प्रस्तावना, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, जैन साहित्य का इतिहास-पूर्व पीठिका, तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग १-५) इत्यादि पुस्तकों के साथ सम्बद्ध ग्रन्थों में से कुछ की प्रस्तावना आदि से भी सहायता मिली है। इसके लिए मैं उक्त पुस्तकों के लेखक विद्वानों का ऋणी हैं।
श्री बाबू पन्नालाल जी अग्रवाल को मैं नहीं भूल सकता, जिनकी कृपा से मुझे समय-समय पर आवश्यकतानुसार कुछ ग्रन्थ प्राप्त होते रहे हैं ।
प्रस्तावना के अन्तर्गत ग्रन्थपरिचय के लिखने में श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी जैन (अध्यक्ष वीर सेवा मन्दिर) के.कुछ सुझाव रहे हैं। साथ ही ग्रन्थकारों की अनुक्रमिणका के दे देने के लिए भी प्रापकी प्रेरणा रही है। आपके सुझावों पर मैंने यथासम्भव ध्यान दिया है। ग्रन्थकारों में प्रायः बहुतों का समय निश्चित नहीं है। फिर भी उनके समय के सम्बन्ध में जितनी कुछ सम्भावना की जा सकी है, तदनुसार समय के निर्देशपूर्वक उनकी अनुक्रमणिका परिशिष्ट में दे दी गई है। साहू जी की इस कृपा के लिए मैं उनका विशेष प्राभारी हूँ। साथ ही श्री डॉ. गोकुलचन्द जी के भी कुछ उपयोगी सुझाव रहे हैं, उन्हें भी मैं भूल नहीं सकता। - वीर सेवा मन्दिर के एक पुराने विद्वान् श्री पं. परमानन्द जी शास्त्री से मुझे समय-समय पर योग्य परामर्श मिलता रहा है। दूसरे विद्वान् श्री पं. पार्श्वदास जी न्यायतीर्थ ने प्रेसकापी करके सहायता की है । तथा प्रूफवाचन में भी आप सहायक रहे हैं । इन दोनों ही विद्वानों का मैं अतिशय कृतज्ञ हूँ।
वीर सेवा मन्दिर के भूतपूर्व उपाध्यक्ष राय सा. ला. उलफतराय जी तथा मंत्री श्री बाबू प्रेमचन्द जी जैन (कशमीर वाले) ने इस गुरुतर कार्य के भार को सौंप कर मेरा बड़ा अनुग्रह किया है । उसके आश्रय से मुझे कितने ही अपरिचित ग्रन्थों के देखने का सुयोग प्राप्त हुआ है। अतएव मैं आप दोनों ही महानुभावों का अत्यन्त प्राभारी हूँ।
इसी प्रकार की यदि आगे भी अनुकूल परिस्थिति बनी रही तथा स्वास्थ्य ने भी साथ दिया तो आशा करता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ का दूसरा भाग भी शीघ्र प्रकाशित हो सकेगा।
दीपावली । १८-१०-७१।
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
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प्रस्तावना
लक्षणावली व उसकी उपयोगिता
यह एक जैन पारिभाषिक शब्दकोष है। इसमें लगभग ४०० दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों से ऐसे शब्दों का संकलन किया गया है, जिनकी कुछ न कुछ परिभाषा उपलब्ध होती है। सभी सम्प्रदायों में प्रायः ऐसे पारिभाषिक शब्द उपलब्ध होते हैं। उनका ठीक-ठीक अभिप्राय समझने के लिए उन-उन ग्रन्थों का पाश्रय लेना पड़ता है। परन्तु सबके पास इतने अधिक ग्रन्थों का प्रायः संग्रह नहीं रहता। इसके अतिरिक्त अधिकांश ग्रन्थ पुरानी पद्धति से प्रकाशित हैं व उनमें अनुक्रमणिका आदि का अभाव है। अत: उनमें से अभीष्ट लक्षण के खोजने के लिए परिश्रम तो अधिक करना ही पड़ता है, साथ ही समय भी उसमें बहुत लगता है। इससे एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता थी, जिसमें पारिभाषिक शब्दों का संकलन हो । प्रस्तुत लक्षणावली इसी प्रकार का ग्रंथ है । इसमें प्रकारादि वर्णानुक्रम के अनुसार विविध ग्रन्थों से लक्ष्य शब्दों का संग्रह किया गया है । इससे तत्त्वजिज्ञासुमों और अनुसन्धान करने वालों को इस एक ही ग्रन्थ में अभीष्ट लक्ष्य के अनेक ग्रन्थगत लक्षण अनायास ही ज्ञात हो सकते हैं। इस प्रकार उनका समय और शक्ति दोनों ही बच सकते हैं। हम समझते हैं कि पाठकों को प्रस्तुत ग्रन्थ अवश्य ही उपयोगी प्रमाणित होगा। अभी इसका स्वरान्त (अ से औ तक) प्रथम भाग ही प्रकाशित हो रहा है । आगे का कार्य चालू है।
लक्षणावली में स्वीकृत पद्धति १. लक्षणावली में उपयुक्त लक्ष्य शब्दों का संस्कृत रूप ग्रहण किया गया है। कहीं-कहीं पर कोष्ठक ( ) में उसका प्राकृत रूप भी दे दिया गया है।
२. लक्ष्यभूत शब्दों को काले टाइप (१४ पा.) में मुद्रित कराया गया है। ग्रन्थों के संकेतों को भी काले टाइप (१२ पा.) में दिया गया है।
३. शब्दों के नीचे विविध ग्रन्थों से जो लक्षण उद्धत किये गये हैं उनका मुद्रण सफेद टाइप में हमा है। प्रत्येक शब्द के नीचे जितने ग्रन्थों से लक्षण उद्धत किये गये हैं उनकी क्रमिक संख्या भी दे दी गई है।
४. हिन्दी अनुवाद को काले टाइप में दिया गया है।
५. अनुवाद किसी एक ग्रन्थ के आधार से किया गया है और वह जिस ग्रन्थ के आश्रय से किया गया है उसकी क्रमिक संख्या अनुवाद के पूर्व में अंकित कर दी गई है। यदि विवक्षित लक्षण में ग्रन्थान्तरों में कुछ विशेषता दष्टिगोचर हई है तो कहीं-कहीं २-३ ग्रन्थों के आधार से भी पृथक-पृथक अनुवाद कर दिया गया है तथा उन ग्रन्थों की क्रमिक संख्या भी अंकित कर दी गई है।
६. कितने ही लक्षण जयधवला की सम्भवतः अमरावती और पारा या देहली प्रति से उद्धृत किये गये हैं, पर ये प्रतियां सामने न रहने से उन संकेतों को व्यवस्थित रूप में नहीं दिया जा सका। इसके अतिरिक्त कितने ही लक्षण जयधवला से ऐसे भी लिये गये हैं जो कसायपाहडसुत्त और धवला में भी कहीं-कही टिपणों में उपलब्ध होते हैं । उनको प्रस्तुत संस्करण में ग्रहण कर तदनुसार संकेत में
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जैन-लक्षणावली 'जयध.-क. पा.' का उल्लेख करके उसकी पृष्ठसंख्या और टिप्पणसंख्या दे दी गई है। इसी प्रकार धवला की भी पुस्तक, पृष्ठ और टिप्पण की संख्या अंकित कर दी गई है।
७. कितने ही लक्षण अभिधान राजेन्द्र कोष में उपलब्ध होते हैं, परन्तु वहां ग्रन्थ का पूर्ण संकेत न होने से विवक्षित लक्षण किस ग्रन्थ का है, इसकी खोज नहीं की जा सकी। ऐसे लक्षणों के नीचे 'अभि. रा.' का संकेत करके उसके भाग व पृष्ठ की संख्या अंकित कर दी गई है।
८. भगवती सत्र और व्यवहार सत्र के बहुत से लक्षण संग्रहीत हैं । परन्त भगवती सत्र के जिस संस्करण से लक्षण लिये गये हैं, उसके यहां न मिल सकने से वैसे ही अंक दे दिये गये हैं । गुजरात विद्यापीठ से प्रकाशित भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के यहां प्रथम, तृतीय और चतुर्थ ये तीन खण्ड हैं, द्वितीय खण्ड नहीं हैं। इनमें जो लक्षण उपलब्ध हो सके हैं उनका संकेत में उल्लेख कर दिया गया है। व्यवहार सूत्र के १० उद्देश हैं। उनमें यहां द्वितीय उद्देश अपूर्ण है तथा तृतीय सर्वथा ही नहीं है । व्यवहार सूत्र(भाष्य) से जो लक्षण लिये गये हैं वे सम्भवतः किसी दूसरे संस्करण से लिये गये हैं। उनमें से जो यहां के संस्करण में खोजे जा सके हैं उनके लिए उद्देश, गाथा और पृष्ठ की संख्या दे दी गई है, परन्तु जो इसमें उपलब्ध नहीं हो सके उनका संकेत उसी रूप में दिया गया है।
६. अनेक ग्रन्थों से उद्धत लक्षणों में जहां शब्दशः और अर्थतः समानता रही है वहां प्रायः प्राचीनतम किसी एक ग्रन्थ का प्रारम्भ में संकेत करके तत्पश्चात् शेष दूसरे ग्रन्थों का अर्धविराम (6) चिह्न के साथ संकेत मात्र कर दिया गया है।
१०. जहां प्रकृत लक्षण किसी एक ही ग्रन्थ में कई स्थलों में उपलब्ध हुअा है वहां एक ही संख्या में उसके उन स्थलों का संकेत (B) इस चिह्न के साथ कर दिया गया है।
११. तत्त्वार्थवार्तिक के लक्षणों में वार्तिक को काले टाइप में और उसके विवरण (स्पष्टीकरण) को सफेद टाइप में मुद्रित कराया गया है। षट खण्डागम के अन्तर्गत लक्षणों में 'षट्खं.' के आगे डैश (-) देकर 'धव. पु. १-२' आदि की पृष्ठ संख्या दे दी गई है। धवला टीका से संगृहीत लक्षणों के लिए मात्र 'धव. पु.' संकेत किया गया है।
ग्रन्थ-परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन ग्रन्थों के लक्षण वाक्यों का संग्रह किया गया है उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. षटखण्डागम-यह प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है । रचनाकाल इसका विक्रम की प्रथम शताब्दी है। यह छह खण्डों में विभक्त है । छह खण्डों में विभक्त होने से वह 'षट्खण्डागम' नाम से प्रसिद्ध हया है। वे छह खण्ड ये हैं-जीवस्थान, क्षद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध है। इनमें से प्रथम खण्डभूत जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा मात्र के रचयिता प्राचार्य पुष्पदन्त हैं। शेष सभी ग्रन्थ आचार्य भूतबलि के द्वारा रचा गया है।
निरन्तर जन्म-मरण को प्राप्त करने वाला यह संसारी प्राणी यदि कभी देव होता है तो कभी नारकी होता है, कभी मनुष्य होता है तो कभी तियंच होता है, कभी विशिष्ट ज्ञानी होता है तो कभी अल्पज्ञानी होता है, कभी अतिशय सुखी होता है तो कभी भयानक दुःख को सहता है, कभी कामदेव जैसा स्वरूप होता है तो कभी बेडौल और कुरूप होता है, कभी उत्तम कुल में जन्म लेकर लोकमान्य होता है तो कभी नीच कूल में जन्म लेकर धिक्कारा जाता है, तथा कभी बिना किसी प्रकार के परिश्रम के अतिशय सम्पत्तिशाली होता है तो कभी दिन-रात परिश्रम करता हुमा कुटुम्ब के भरण-पोषण योग्य भी पैसा नहीं प्राप्त कर पाता है। इस प्रकार सभी संसारी प्राणी सुख तो अल्प, किन्तु दुःख ही अधिक पाते हैं। इस विषय में विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसका कारण स्वकृत कर्म है। प्राणी निन्द्य या उत्तम जैसा कुछ भी पाचरण करता है, तदनुसार उसके कर्म का बन्ध हना करता है। इस प्रकार बन्ध को प्राप्त होने वाले उस कर्म में कषाय की तीव्रता व मन्दता के अनुसार स्थिति
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(जीव के साथ उसके सम्बद्ध रहने का काल) व अन भाग (फलदानशक्ति) पड़ा करता है। जिस प्रकार ग्राम प्रादि फल अपने समय पर परिपाक को प्राप्त होकर भोक्ता को मिठास व खटाई आदि का अनुभव कराया करते हैं, उसी प्रकार वह कर्म भी अपनी स्थिति के अनुसार उदय (परिपाक) को प्राप्त होने पर सुख-दुःखादि रूप हीनाधिक फल दिया करते हैं । साथ हो जिस प्रकार फलों को पाल में देकर कभी समय से पूर्व भी पका लिया जाता है उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा कर्म को भी स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही उदय को प्राप्त करा लिया जाता है, तथा इसी प्रकार के उत्तम अनुष्ठान से नवीन कर्मबन्ध को भी रोका जा सकता है। इस प्रकार प्राणी अपने सुख-दुःख का विधाता स्वयं है, दूसरा उसका कोई माध्यम नहीं है। जो आत्महितैषी भव्य जीव शरीर और आत्मा के भेद का अनुभव करता हुअा पर में राग-द्वेष नहीं करता है वह संयम का परिपालन करता हना मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है-स्वयं आराध्य या ईश्वर बन जाता है। इस सबका परिज्ञान प्रस्तुत षट्खण्डागम के अध्ययन से प्राप्त किया जा सकता है।
(१) जीवस्थान-यह उक्त षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड है। पूर्वोक्त कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के प्राश्रय से जीवकी जो परिणति होती है उसका नाम गुणस्थान है, जो मिथ्यात्व व सासादन आदि के भेद से चौदह प्रकार का है। जिन अवस्थाविशेषों के द्वारा जीवों का मार्गण या अन्वेषण किया जाता है उन अवस्थाओं को मार्गणा कहा जाता है। वे चौदह हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और पाहार । प्रकृत जीवस्थान में कौन जीव किस गुणस्थान में है या किन जीवों के कितने गुणस्थान सम्भव हैं, किस-किस गुणस्थानवी जीवों की कितनी संख्या है, कहाँ वे रहते हैं, कहाँ तक जा पा सकते हैं, किस गुणस्थान का कितना काल है, एक गुणस्थान को छोड़कर पुनः उस गुणस्थान की प्राप्ति में कितना काल लग सकता है, किस गुणस्थान में प्रौदयिकादि कितने भाव हो सकते हैं, तथा विवक्षित गुणस्थानवी जीव किस गुणस्थानवी जीवोंसे हीन या अधिक हैं, इस सबका विचार यहां प्रथमतः गुणस्थान के आश्रय से किया गया है। तत्पश्चात् इन्हीं सब बातों का विचार वहां गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आधार से भी किया गया है। अन्त में अनेक प्रकार की कर्मप्रकृतियों का निर्देश करते हुए उनकी पृथक्-पृथक स्थिति और उदय में प्राने योग्य काल की चर्चा करते हुए किस पर्याय में कितने व कौन से गुण प्राप्त हो सकते हैं, तथा आयु के पूर्ण होने पर पूर्व शरीर को छोड़कर कौन जीव कहां उत्पन्न हो सकता है, इसका विवेचन किया गया है। इसी प्रसंग में कौन जीव किस प्रकार से सम्यग्दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर सकता है, इसकी भी चर्चा यहां की गई है। यह खण्ड शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड अमरावती से प्रारम्भ की ६ जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
(२) क्षुद्रकबन्ध-यहां संक्षेप में बन्धक जीवों की चर्चा की गई है । बन्ध की विस्तृत प्ररूपणा इसके छठे खण्ड महाबन्ध में की गई है। यही कारण जो इसे क्षद्रकबन्ध कहा गया है। पूर्व जीवस्थान खण्ड में जीवों का जो विवेचन गुणस्थानों और मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है वह यहां कुछ विशेषताओं के साथ गुणस्थान निरपेक्ष केवल मार्गणाओं के प्राश्रय से इन ११ अनुयोगद्वारों में किया गया है-एक जोव की अपेक्षा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । यह खण्ड उक्त संस्था द्वारा ७वीं जिल्द में प्रकाशित किया गया है ।
(३) बन्धस्वामित्वविचय-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के द्वारा जो जीव और कर्मपूदगलों का एकता (अभेद) रूप परिणमन होता है वह बन्ध कहलाता है। किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध के कौन जीव स्वामी हैं और कौन नहीं हैं, इसका विचार इस खण्ड में प्रथमतः गुणस्थान के आश्रय से और तत्पश्चात् मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है। विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध जिस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता; उन प्रकृतियों का वहां तक बन्ध और आगे के गुणस्थानों में उनकी बन्धव्युच्छित्ति
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जैन-लक्षणावली जानना चाहिये । इसी पद्धति से यहां प्रश्नोत्तरपूर्वक उसका विचार किया गया है। यह खण्ड उक्त संस्था से ८वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है।
(४) वेदनाखण्ड-इस खण्ड को प्रारम्भ करते हए प्रथमतः 'णमो जिणाणं, णमो प्रोहिजिणाणं' आदि ४४ सूत्रों द्वारा मंगल किया गया है। पश्चात् अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पाँचवीं वस्तु (अधिकारविशेष) के चतुर्थ प्राभृतभूत कर्मप्रकृति-प्राभृत कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनाकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भाबकृति इन सात कृतियों की प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् वेदनानिपेक्ष, वेदनानयविभाषणता, वेदनानामविघान, वेदनाद्रव्यविधान, वेदनाक्षेत्रविधान, वेदनाकालविधान, वेदनाभावविधान, वेदनाप्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्वविधान, वेदनावेदनविधान, वेदनागतिविधान, वेदनाअनन्तरविधान, वेदनासंनिकर्षविधान, वेदनापरिणामविधान, वेदनाभागाभागविधान और वेदना-अल्पबहुत्व इन १६ अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से वेदना की प्ररूपणा की गई है। यह खण्ड उक्त संस्था द्वारा ६ से १२ इन चार जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
(५) वर्गणा-इस खण्ड के प्रारम्भ में प्रथमतः नाम-स्थापनादिरूप तेरह प्रकार के स्पर्श की प्ररूपणा स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता प्रादि १६ (वेदनाखण्ड के समान) अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है। अनन्तर नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तप:कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म इन दस कर्मों का विवेचन किया गया है । इन कर्मों का निरूपण आचारांग में भी किया गया है । तत्पश्चात् निक्षेपादि १६ अनुयोग द्वारों के आश्रय से कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है।
कर्म से सम्बन्धित ये चार अवस्थायें हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । द्रव्य का द्रव्य के साथ अथवा द्रव्य भाव का जो संयोग या समवाय होता है उसका नाम बन्ध है। इस बन्ध के करने वाले जो जीव हैं वे बन्धक कहलाते हैं। बन्ध के योग्य जो पुदगल द्रव्य हैं उन्हें बन्धनीय कहा जाता है। बन्धविधान से अभिप्राय बन्धभेदों का है। वे चार हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें यहां बन्ध, बन्धक और बन्धनीय इन तीन की प्ररूपणा की गई है । बन्धविधान की प्ररूपणा विस्तार से छठे खण्ड महाबन्ध में की गई है। यह खण्ड उक्त संस्था से १३ और १४ इन दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
इन पांच खण्डों पर प्राचार्य वीरसेन द्वारा विरचित ७२००० श्लोक प्रमाण धवला नाम की टीका है, जो शक सम्बत् ७३८ (वि० सं०८७३) में उनके द्वारा समाप्त की गई है। उक्त संस्था द्वारा - इस टीका के साथ ही मूल ग्रन्थ १४ जिल्दों में प्रकाशित हया है।
आगे इस धवला टीका में कर्मप्रकृतिप्राभूत के कृति आदि २४ अनुयोगद्वारों में जो निबन्धन आदि . शेष १८ अनुयोगद्वार मूल ग्रन्थकार के द्वारा नहीं प्ररूपित हैं, उनकी प्ररूपणा संक्षेप से वीरसेनाचार्य के
द्वारा की गई है। इस प्रकार वीरसेनाचार्य द्वारा प्ररूपित वे अठारह अनुयोगद्वार उक्त संस्था द्वारा - १५ और १६ इन दो जिल्दों में प्रकाशित किये गये हैं।
. (६) महाबन्ध-यह प्रस्तुत षट् खण्डागम का अन्तिम खण्ड है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग - और प्रदेश इन पूर्वनिर्दिष्ट बन्ध के चार भेदों की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। इस पर कोई टीका
नहीं है । वह मूलग्रन्थकार प्रा. भूतबलि के द्वारा इतना विस्तार से लिखा गया है कि सम्भवतः उसके
१. णामं ठवणाकम्मं दव्वकम्म पयोगकम्म च । समूदाणिरियावहियं प्राहाकम्म तवोकम्मं ॥ किइकम्म
भावकम्म दसविहकम्म समासम्रो होई । प्राचारांग नि. गा. १६२-६३, पृ. ८३. २. भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसदारसग्रणियोग
हाराणं किंचिसंखेवेण परूवणं कस्सामो। धव. पु. १५, पृ. १ (विशेष के लिए देखिये अनेकान्त वर्ष १६, किरण ४, पृ. २६५-७० में 'षट्खण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार' शीर्षक लेख) ।
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प्रस्तावना
ऊपर टोका लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई। इसका ग्रन्थप्रमाण ३०००० श्लोक है, जब कि पूर्वोक्त पांच खण्डों का मूल ग्रन्थप्रमाण ६००० श्लोक ही है।
यह छठा खण्ड भारतीय ज्ञानपीठ काशी के द्वारा सात जिल्दों में प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हरा है..मूल-प्रकायिक, अजघन्य द्रव्य वेदना, अधःकर्म, आगमभावप्रकृति, प्रागमभावबन्ध, पालापनबन्ध और
आहारद्रव्यवर्गणा आदि। ध. टीका-अकर्मभूमिक, अकषाय, अकृतसमुद्घात, अक्ष (अक्ख), अक्षपकानुपशामक, अक्षरज्ञान, अक्षर
श्रुतज्ञान, अक्षरसमास, अक्षरसंयोग, अक्षिप्र, अक्षीणमहानस, प्रक्षेम, अक्षौहिणी, अश्वकर्णकरण,
असातवेदनीय और असातसमय प्रबद्ध आदि ।
२. कसायपाहुड (कषायप्राभृत)-यह प्राचार्य गुणधर के द्वारा रचा गया है। इसे पेज्जदोस-पाहुड भी कहा जाता है । पेज्ज (प्रेयस्) का अर्थ राग और दोस का अर्थ द्वेष होता है । ये (राग-द्वेष) दोनों चूंकि कषायस्वरूप ही है, अतः उक्त दोनों नाम समान अभिप्राय के सूचक हैं। इसका रचनाकाल सम्भवतः विक्रम की प्रथम शताब्दी से पूर्व है।
- यह परमागम सूत्ररूप गाथानों में रचा गया है। समस्त गाथाओं की संख्या २३३ (मूल गा. १८०+भाष्यगा. १५३) है। इसकी गाथायें दुरूह व अर्थगम्भीर हैं । षट् खण्डागम में जहाँ ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का विवेचन किया गया है वहां प्रस्तुत कसायपाहुड में एक मात्र मोहनीय कर्म का ही व्याख्यान किया गया है । इसमें प्रेयोद्वेषविभक्ति, स्थितिविभक्ति व अनुभागविभक्ति आदि १५ अर्थाधिकार हैं। इसके ऊपर प्राचार्य यतिवृषभ (विक्रम की छठी शताब्दी) प्रणीत ६००० श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र और प्राचार्य वीरसेन व उनके शिष्य जिनसेनाचार्य द्वारा विरचित ६०००० श्लोक प्रमाण जयधवला नाम की टीका है। उक्त टीका को २०००० श्लोक प्रमाण रचने के बाद आचार्य वीरसेन स्वर्गस्थ हो गए। तब उनकी इस अधरी टीका की पूर्ति उनके शिष्य जिनसेनाचार्य के द्वारा की गई है। यह टीका जिनसेन स्वामी के द्वारा शक सं० ७६६ (वि०सं० ८६४) में पूर्ण की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अभी तक पूर्वोक्त चूणि और जयधवला टीका के साथ ११ भाग दि० जैन संघ मथुरा के द्वारा प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त केवल उक्त चूणिसूत्रों के साथ वह वीर शासन संघ कलकत्ता द्वारा पृथक से प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
चूणि-प्रकरणोपशामना, अश्वकर्णकरण और असामान्य स्थिति आदि ।
ज. टीका-प्रकरणोपशामना, अकर्मबन्ध, अकर्मोदय, प्रतिस्थापना, अन्तकृद्दश, अपचयपद और अपवृद्धि आदि ।
३. समयप्राभृत - यह प्राचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है। कुन्दकुन्दका दूसरा नाम पद्मनन्दी भी रहा है। इनका समय प्रायः विक्रम की प्रथम शताब्दी माना जाता है । ये मूलसंघ के प्रमुख थे और कठोरतापूर्वक निर्मल चारित्र का परिपालन स्वयं करते व संघस्थ अन्य मुनि जनों से भी कराते थे। ये ८४ पाहड ग्रन्थों के कर्ता माने जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में शुद्ध निश्चयनय की प्रधानता से शुद्ध प्रात्मतत्त्व का विचार किया गया है। इसमें ये ६ अधिकार हैं-जीवाजीवाधिकार (प्रथम व द्वितीय रंग), कर्तृ-कर्माधिकार, पुण्य-पापाधिकार, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष और सर्वविशुद्ध ज्ञान । इसकी समस्त गाथासंख्या ४४५ है। इसके ऊपर एक टीका (आत्मख्याति) अमृतचन्द्र सूरि (वि. की १०वीं शती) विरचित और दूसरी (तात्पर्यवृत्ति) प्रा. जयसेन (वि. की १२वीं शती) विरचित है । इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। हमारे पास जो संस्करण है वह उक्त दोनों टीकामों के साथ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था काशी से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है
मूल-अमूढदृष्टि, पालोचन और उपगृहन आदि ।
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जैन-लक्षणावली
प्रात्मख्याति -अध्यवसाय और अमूढदुष्टि प्रादि । तात्पर्यवृत्ति-अनेकान्त आदि। प्रस्तुत लक्षणावली में प्रा. कुन्दकुन्द विरचित इन अन्य ग्रन्थों का भी उपयोग हुया है
'प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत और द्वादशानुप्रेक्षा।
४. प्रवचनसार-इसमें ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन और चरणानुसूचिका चूलिका ये तीन श्रुतस्कन्ध (अधिकार) हैं। इनमें अध्यात्म की प्रधानता से ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र का निरूपण
गया है । इनकी गाथा संख्या ६२+१०८७५-२७५ है। इसके ऊपर भी प्रा. अमृतचन्द्र और जयसेन के द्वारा पृथक-पृथक् टीका लिखी गई है। इसका एक संस्करण परम श्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से उक्त दोनों टीकामों के साथ प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हना है
मूल-अशुभोपयोग और उपयोग आदि । अमृत. टी.--अपवाद, अपवादसापेक्ष उत्सर्ग, अलोक, अशुद्ध उपयोग, अशुभोपयोग, उपयोग । जय.टी.-अर्थपर्याय और अलोक आदि ।
५. पंचास्तिकाय-यह प्रथम व द्वितीय इन दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। जो गुण और पर्यायों से सहित हो उसे द्रव्य कहते हैं। मूर्त और अमूर्त द्रव्यों के जो निविभाग अंश हैं वे प्रदेश कहलाते हैं। जो द्रव्य ऐसे प्रदेशों के समूह से संयुक्त हैं उन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। वे पाँच हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । गुण
और पर्यायों से संयुक्त होने के कारण यद्यपि काल भी द्रव्य है, पर प्रदेशप्रचयात्मक न होने से उसे अस्तिकायों में नहीं ग्रहण किया गया है। उसके भी स्वरूप आदि का दिग्दर्शन यहाँ संक्षेप में करा दिया गया है। इस प्रकार पाँच अस्तिकाय और काल इन छह द्रव्यों की प्ररूपणा यहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध में की गई है। इस प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है-जो परमागम के सारभूत पंचास्तिकायों के संग्रह को जान करके राग और द्वेष को छोड़ता है वह दुःख से छुटकारा पा लेता है । इस शास्त्र के अर्थ को-शुद्ध चैतन्यस्वभाव आत्मा को जान कर उसके अनुसरण में उद्यत होता हा जो जीव दर्शनमोह (मिथ्यात्व) से रहित हो जाता है वह राग-द्वेष को नष्ट करता हुआ पूर्वापर बन्ध से रहित हो जाता है-दु:ख से मुक्ति पा लेता है।
आगे द्वितीय श्रतस्कन्ध में प्रथमतः मोक्षमार्ग के विषयभूत जीव, अजीव, पूण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् मोक्षमार्ग स्वरूप ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वरूप को बतला कर परचरित (परसमय) और स्वचरित (स्वसमय) का विचार करते हुए कहा गया है कि संसारी जीव यद्यपि स्वभावनियत है--ज्ञान-दर्शन में अवस्थित हैफिर भी अनादि मोहनीय कर्म के उदय से वह विभाव गृण-पर्यायों से परिणत होता हुआ परसमय है। यदि वह मोहनीय के उदय से होने वाली विभाव परिणति से रहित होकर अत्यन्त शुद्ध उपयोग वाला हो जाता है तो वह कर्मबन्ध से रहित हो सकता है। इत्यादि प्रकार से यहाँ निश्चय-व्यवहारस्वरूप मोक्षमार्ग का विचार किया गया है। अन्त में ग्रन्थकार के द्वारा कहा गया है कि मैंने प्रवचनभक्ति से प्रेरित होकर मार्गप्रभावना के लिए प्रवचन के सारभूत पंचास्तिस ग्रह सूत्र को कहा है। इस पर भी अमृतचन्द्र सूरि विरचित तत्त्वदीपिका और जयसेनाचार्य विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की दो टीकायें हैं। इसकी गाथासंख्या १०४+६६=१७३ है। इन दोनों टीकाओं के साथ वह परम श्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है -
मूल-अधर्मद्रव्य, अस्तिकाय और आकाश आदि ।
तत्त्वदी. -अकालुष्य, अचक्षुदर्शन, अजीव, अपक्रमषट्क, अभिनिबोध, अलोक, अशुद्ध चेतना, अस्ति-प्रवक्तद्रव्य, अस्तिद्रव्य, अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्यद्रव्य और अस्ति-नास्तिद्रव्य आदि ।
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तात्पर्य. - अक्षरात्मक, अचक्षुदर्शन, अजीव, अधर्मद्रव्य, अपक्रमषट्क और अलोक आदि ।
६. नियमसार - ग्रन्थकार कुन्दकुन्दाचार्य ने यहाँ सर्वप्रथम वीर जिन को नमस्कार करते हुए केवली एवं श्रुतकेवली द्वारा प्रणीत नियमसार के कहने की प्रतिज्ञा की है । फिर 'नियमसार' के शब्दार्थ को प्रगट करते हुए कहा गया कि जो कार्य नियम से किया जाना चाहिए वह नियम कहलाता है । वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप है । इस 'नियम' के साथ जो 'सार' शब्द प्रयुक्त है वह विपरीतता के परिहारार्थ है । यह ज्ञान दर्शन- चारित्रस्वरूप नियम भेद व अभेद विवक्षा से दो प्रकार का है। शुद्ध ज्ञानचेतना परिणामविषयक ज्ञान व श्रद्धा के साथ उसी में स्थिर रहना, यह अभेद रत्नत्रय स्वरूप नियम है । तथा प्राप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान के साथ जो तद्विषयक राग-द्वेष की निवृत्ति है, यह व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप नियम है जो भेदाश्रित है । यह नियम मोक्ष का उपाय है और उसका फल निर्वाण है । इन्हीं तीनों की यहाँ पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में यहाँ प्रथमतः उक्त सम्यग्दर्शन के विषयभूत प्राप्त, श्रागम और तत्त्व का विवेचन करते हुए प्राप्तप्रणीत तत्वार्थी - जीवादि छह द्रव्यों- का वर्णन किया गया है। इस बीच प्रसंग पाकर पाँच व्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंरूप व्यवहार चारित्र का निरूपण करते हुए अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु का स्वरूप प्रगट किया गया है। इस प्रकार यहाँ आत्मशोधन में उपयोगी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रालोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि, रत्नत्रय और आवश्यक का विवेचन करते हुए शुद्ध ग्रात्म-विषयक विचार किया गया है । ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या १८६ है । इस पर पद्मप्रभ मलधारिदेव (वि. सं. १३वीं शताब्दी - १२४२ ) के द्वारा टीका रची गई है। इस टीका के साथ वह जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
છ
मूल - प्रचीर्य महाव्रत, अधर्मद्रव्य, अर्हन्, अहिंसामहाव्रत, आकाश, प्रादाननिक्षेपणसमिति, प्राप्त, ईर्यासमिति और एषणासमिति आदि ।
टीका - अधर्म द्रव्य और आकाश आदि ।
७. दर्शनप्राभृत - इसमें ३६ गाथायें हैं । सर्वप्रथम यहां सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल बता कर यह कहा गया है कि जो जीब सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है उसे भ्रष्ट ही समझना चाहिए, वह कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु जो चरित्र से भ्रष्ट है, वह समयानुसार मुक्त हो सकता है । सम्यग्दर्शन से रहित जीव घोर तपश्चरण क्यों न करते रहें, परन्तु वे करोड़ों वर्षों में भी बोधि को नहीं प्राप्त कर सकते । जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट हैं । ऐसे जीव स्वयं तो नष्ट होते ही हैं, साथ ही दूसरों को भी नष्ट किया करते हैं। यहां सम्यग्दर्शन के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इन जिनप्रणीत तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए । यह व्यवहार सम्यक्त्व है । निश्चय से तो प्रात्मा ही सम्यग्दर्शन । आगे कहा गया है कि जो शक्य अनुष्ठान को— जिसे किया जा सकता है—करता है और अशक्य पर श्रद्धा रखता है, उसके सम्यक्त्व है या वह सम्यग्दृष्टि है; ऐसा केवली के द्वारा कहा महिमा को प्रगट किया गया है। इसके ऊपर भट्टारक श्रुतइस टीका के साथ वह 'षट्प्राभृतादिसंग्रह' में मा० दि० जैन इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है - श्राज्ञासम्यक्त्व और उपदेश
गया है । इस प्रकार यहां सम्यग्दर्शन की सागर सूरि के द्वारा टीका रची गई है। ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुआ है। सम्यक्त्व आदि ।
८. चारित्रप्राभृत- इसमें ४४ गाथायें हैं । यहाँ चारित्र के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैंसम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र । निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये जो सम्यक्त्व के आठ गुण या अंग हैं उनसे विशुद्ध उस सम्यग्दर्शन का जो ज्ञान के साथ प्राचरण किया जाता है इसे सम्यक्त्वचरणचारित्र कहा जाता है । जीव
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जैन - लक्षणावली
सम्यग्दर्शन से द्रव्य - पर्यायों को देखता है - श्रद्धा करता है, ज्ञान से जानता है तथा चारित्र से दोषों को दूर करता है ।
८.
सागार और अनगार के भेद से संयमचरण दो प्रकार का है। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त, रात्रिभक्त, ब्रह्म, ग्रारम्भ, परिग्रह, अनुमनन और उद्दिष्ट इन ग्यारह प्रतिमाओं का यहां संक्षेप में निर्देश करते हुए इस सब प्राचरण को देशविरत ( सागारचारित्र ) कहा गया है। आगे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का उल्लेख करके सागारसंयमचरण को समाप्त किया गया है । यहाँ इतना विशेष है कि गुणव्रतों में दिशा-विदिशामान, अनर्थदण्डवर्जन और भोगोपभोगपरिमाण को तथा शिक्षाव्रतों में सामायिक, प्रोषध प्रतिथिपूजा और सल्लेखना इन चार को ग्रहण किया गया है ।
दूसरे अनगारसंयमचरण का विचार करते हुए मनोज्ञ व श्रमनोज्ञ सजीव व अजीव द्रव्य के विषय में राग-द्वेष के परिहारस्वरूप पांच इन्द्रियों के संवरण, पांच व्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां, इन सबको अनगारसंयमचरण कहा गया है । यहाँ अहिंसादि पांच व्रतों का निर्देश करते हुए उनकी पृथक् पृथक् भावनाओं का भी उल्लेल किया गया है । तत्पश्चात् पाँच समितियों का निर्देश करते हुए अन्त में कहा गया है कि जो भब्य जीव स्पष्टतया रचे गये भावशुद्ध इस चारित्रप्राभृत का चिन्तन करते हैं वे शीघ्र ही चतुर्गति परिभ्रमण से छूटकर अपुनर्भव - जन्म मरण से रहित हो जाते हैं । इसके ऊपर भी भ. श्रुतसागरकी टीका है व उसके साथ वह पूर्वोक्त ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
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टीका - अनुकम्पा, ईर्यासमिति और ऐषणासमिति आदि ।
६. बोधप्राभृत-- इसमें ६२ गाथाएं हैं । यहाँ सर्वप्रथम प्राचार्यों को नमस्कार करते हुए समस्त जनों के प्रबोधनार्थ जिनेन्द्र के उपदेशानुसार षट्कार्य हितकर - छह काय के जीवों के लिए हितकर शास्त्र के (बोधप्राभृत के ) - कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् प्रायतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, निमुद्रा, आत्मस्थ ज्ञान, अरिहंत के द्वारा दृष्ट देव, तीर्थ, अरिहंत और प्रव्रज्या इन ग्यारह विषयों का यहां अध्यात्म की प्रधानता से विचार किया गया है।
अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि जिनमार्ग में शुद्धि के लिए जिस प्रकार जिनेन्द्रों ने रूपस्थ - निर्ग्रन्थरूपस्थ आचरण - को कहा है उसी प्रकार से भव्य जनों के बोधनार्थं षट्कायहितंकर को कहा गया है । भाषासूत्रों में जो शब्दविकार हुआ है व उसे जैसा जिनेन्द्र ने कहा है उसे जान करके भद्रबाहु के शिष्य ( कुन्दकुन्द ) ने वैसा ही कहा है। बारह अंगों के ज्ञाता, चौदह पूर्वांगों के विशाल विस्तार से युक्त, और गमकों के गुरु भगवान् श्रुतज्ञानी ( श्रुतकेवली ) भद्रबाहु जयवंत हों । यह भी श्रुतसागर सूरि विरचित टीका के साथ पूर्वोक्त संग्रह में उक्त संस्था से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैमूल - अर्हद्भाव और अर्हन्यादि । टीका - प्रजंगमप्रतिमा आदि ।
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१०. भावप्राभृत- इसमें १६३ गाथायें हैं । यहाँ सर्वप्रथम यही सूचना की गई है कि प्रधान लिंग - साधुत्व की पहिचान भाव है, न कि द्रव्यलिंग - बाह्य वेष । कारण इसका यह है कि गुण और दोषों का कारण भाव ही हैं। बाह्य परिग्रह का जो त्याग किया जाता है वह भावविशुद्धि के लिए ही किया जाता है, अभ्यन्तर परिग्रहस्वरूप मिथ्यात्वादि के त्याग के बिना बाह्य परिग्रह का वह त्याग निष्फल होता है । यदि नग्नता आदिरूप बाह्य लिंग ही प्रमुख होता तो द्रव्य से नग्न तो सभी नारकी और तिर्यंच रहा करते हैं, पर परिणाम से अशुद्ध रहने के कारण क्या वे कभी भावश्रमणता - यथार्थ साधुता - को प्राप्त हुए हैं ? नहीं । मुमुक्षु मुनि प्रथमतः मिथ्यात्वादि दोषों से रहित हो करके भाव से नग्न होता है और तत्पश्चात् जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्य से लिंग को —— बाह्य साधुवेष को — प्रकट करता है । जो साधु शरीरादि सब प्रकार के परिग्रह को छोड़कर मान कषायादि से पूर्णतः रहित होता हुग्रा आत्मा में लीन रहता है वह साधुभावलिंगी होता है । स्वर्गसुख और मुक्तिसुख का भोक्ता भाव से ही होता है, भाव से रहित
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प्रस्तावना
साधु तिर्यंचगति का पात्र होता है । यहाँ कुछ उदाहरण देते हुए भाव को प्रधान इस प्रकार से सिद्ध किया गया है
१. शरीरादि से निर्ममत्व होकर भी बाहुवली को मान कषाय से कलुषित रहने के कारण एक वर्ष तक आतापनयोग से स्थित रहना पड़ा-तब तक उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। २. मधुपिंग नामक मुनि शरीर और अाहारादि की प्रवत्ति को छोड़ करके भी निदान मात्र के कारण भावश्रमण नहीं हो सका। ३. वशिष्ठ मुनि भी निदान के दोष से दुःख को प्राप्त हना। ४. भाव के विना रौद्र परिणा हुया बाह मुनि जिनलिंग से युक्त होकर भी रौरव नरक को प्राप्त हा। ५. इसी प्रकार द्वीपायन मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी हया। ६. बारह अंग और चौदह पूर्वरूप समस्त श्रुत को पढ़कर भी भव्यसेन मुनि भावश्रमणता को.-यथार्थ मुनिपने को नहीं प्राप्त हो सका।
१ इसके विपरीत निर्मलबुद्धि शिवकुमार मुनि युवति जनों से वेष्टित होकर भी भावश्रमण होने से परीतर्ससारी-थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करनेवाले हुए। २ तुष-माष की घोषणा करनेवालेदाल और छिलके के समान आत्मा और शरीर पृथक् पृथक् हैं, इस प्रकार प्रात्मस्वरूप का निश्चय करने वाले-शिवभूति मूनि अतिशय अल्पज्ञानी होकर भी केवलज्ञान को प्राप्त हए हैं।
शालिसिक्थ (एक क्षुद्र मत्स्य) महामत्स्य के मुख के भीतर जाते-पाते अनेक जलचर जन्तुओं को देख कर विचार करता है कि यह कैसा मूर्ख है जो मुख के भीतर प्रवेश करने वाले जीवों को भी यों ही छोड़ देता है। यदि मैं इतना विशाल होता तो समस्त समुद्र के जन्तुओं को खा जाता। बस इसी पापपूर्ण विचार से वह जीवहिंसा न करता हा भी महानरक को प्राप्त हुआ।
___ इस प्रकार से आगे भाव पर अधिक जोर देते हुए अन्त में कहा गया है कि बहुत कहने से क्या ? अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये पुरुषार्थ तथा अन्य भी व्यापार (प्रवृत्ति) ये सब भाव पर ही निर्भर हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ भी 'षट्प्राभृतादि संग्रह' में श्रुतसागर सूरि विरचित टीका के साथ उक्त संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैटीका-अधःकर्म, अध्यधिदोष, अनिच्छाप्रवृत्तदर्शनबालमरण, अनुप्रेक्षा (स्वाध्याय), अभिहृत, अवधिमरण,
अव्यक्त बालमरण, प्रावीचिमरण, प्रासन्न और उभिन्न आदि ।
११. मोक्षप्राभत-इसमें १०६ गाथायें हैं । यहां सर्वप्रथम जिसने पर द्रव्य को छोड़कर कर्म से रहित होते हुए ज्ञानमय प्रात्मा को प्राप्त कर लिया है उस देव को नमस्कार करते हुए परम पदस्वरूप परमात्मा के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् निर्वाण के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जिस (परमात्मा) को जानकर निरन्तर खोजते हुए योगी अव्याबाध, अनन्त व अनुपम सुख को प्राप्त करता है, उसका नाम निर्वाण (मोक्ष) है। आगे जीवभेदों का निर्देश करते हुए बतलाया है कि बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के हैं। इनमें बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। बहिरात्मा इन्द्रियां हैं, अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानकर बाह्य इन्द्रियविषयों में जो पासक्त रहता है वह बहिरात्मा कहलाता है। प्रात्मा की कल्पना होना-उसे शरीर से भिन्न समझना, यही अन्तरात्मा का स्वरूप है। समस्त कर्ममल से जो रहित हो चुका है उसे परमात्मा या देव कहा जाता है ।
जो अात्मस्वरूप को न जानकर अचेतन शरीर के विषय में स्वकीय व परकीय की कल्पना किया करते हैं, उनका मोह पुत्र और स्त्री आदि के विषय में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। निर्वाण उसी को
१ इन कथानकों को श्रुतसागर सूरि विरचित टीका से इस प्रकार जानना चाहिये--(१) बाहुबली
गा. ४४, (२) मधुपिंग ४५, (३) वशिष्ठ मुनि ४६, (४) बाहु मुनि ४६, (५) द्वोपायन ५०,
(६) भव्यसेन ५२. २. (१) शिवकुमार मुनि ५१, (२) शिवभूति मुनि ५३.
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जैन-लक्षणावली
प्राप्त होता है जो शरीर के विषय में निरपेक्ष होकर निर्द्वन्द (निराकुल), निर्मम (निःस्पृह) और प्रारम्भ से रहित होता हुआ अात्मस्वभाव में निरत हो चुका है। जो स्त्री-पुत्रादि व धन-गृह आदि चेतनअचेतन पर द्रव्यों में प्रासक्त रहता है वह अनेक प्रकार के कर्मों से सम्बद्ध होता है और जो उक्त पर द्रव्यों से बिरक्त (पराङ्मुख) होता है वह उन कर्मों के बन्धन से छूटता है; यही संक्षेप में बन्ध और मोक्ष का उपदेश है। इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो श्रमण स्व द्रव्य-परद्रव्यनिरपेक्ष शुद्ध प्रात्मस्वरूपमें रत है वह सम्यग्दृष्टि है व सम्यक्त्व से परिणत होकर पाठ कर्मों का क्षय करता है तथा जो साधु प्रात्मद्रव्य से अनभिज्ञ होकर परद्रव्य में निरत होता है वह मिथ्यादष्टि है और मिथ्यात्व से परिणत होकर उक्त पाठ कर्मों से बंधता है।
यहां यह आशंका हो सकती है कि जो शुद्ध आत्मद्रव्य में रत न होकर अहंदादि पंच गुरुओं की भक्ति करता है, व्रतों का परिपालन करता है, और तप का आचरण करता है; उसका यह सब पुण्य कार्य क्या निरर्थक रहेगा? इसके उत्तरस्वरूप यहां (गा. २५) यह कहा गया है कि पाप कार्यों से जो नरकगति का दुःख प्राप्त होने वाला है उसकी अपेक्षा उक्त शुभ कार्यों से यदि स्वर्गीय सुख प्राप्त होता है तो वह कहीं उत्तम है--स्तुत्य है। उदाहरणार्थ--जो व्यक्ति तीव्र धप में स्थित होकर किसी प्रात्मीय जन की प्रतीक्षा कर रहा है, उसकी अपेक्षा जो किसी वृक्ष की शीतल छाया में बैठ कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है वह सराहनीय है।
आगे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का स्वरूप प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि जो जानता है वह ज्ञान, जो देखता है वह दर्शन, और जो पुण्य व पाप दोनों का ही परित्याग है वह चारित्र है । प्रकारान्तर से तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व, तत्त्वग्रहण को सम्यग्ज्ञान और परिहार-परित्याग या उपेक्षा-को चारित्र कहा गया है। इस प्रकार यहाँ मोक्ष के उपायभूत सम्यग्दर्शनादि का विवेचन करते हुए परद्रव्य की ओर से विमुख होकर स्वद्रव्य में निरत होने का उपदेश विविध प्रकार से दिया गया है। ___ आगे (८६) श्रावक को लक्ष्य करके कहा गया है कि जो निर्मल सम्यक्त्व मेरु पर्वत के समान स्थिर है उसका दुःखविनाशार्थ ध्यान करना चाहिए। जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि है और वह पाठ कर्मों का क्षय करता है। यहां उस सम्यक्त्व का स्वरूप यह बतलाया है कि हिंसारहित धर्म, अठारह दोषों से रहित देव और निर्ग्रन्थ प्रावचन-परिग्रहरहित होकर पागम के आश्रित गुरू; इन तीनों पर श्रद्धा रखना, इसका नाम सम्यक्त्व है। जो कुत्सित देव, कुत्सित धर्म और कुत्सितलिंग (कुलिंगी साधु) को लज्जा, भय, अथवा महत्त्व के कारण नमस्कार करता है वह मिथ्यादृष्टि है। सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनोपदिष्ट धर्म का ही प्राचरण करता है, यदि वह उससे विपरीत प्राचरण करता है तो उसे मिथ्यादृ ष्टि समझना चाहिए ।
जो साधु मूलगुण को नष्ट कर बाह्य कर्म को-मंत्र-तंत्रादि क्रियाकाण्ड को-करता है वह जिनलिंग का विराधक होने से मोक्षसुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता । कारण यह कि अात्मस्वभाव के विपरीत बाह्य कर्म, बहुत प्रकार का क्षमण--उपवासादि, और पाताप-प्रातापनादि योग; यह सब क्या कर सकता है ? कुछ नहीं । अन्त में कहा गया है कि अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधू ये पांच परमेष्ठा तथा सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और समीचीन तप ये चार भी चंकि आत्मा में स्थित हैं। अतएव आत्मा ही मुझे शरण है।
प्राचार्य पूज्यपाद ने इसकी अनेक गाथाओं को छायानुवाद के रूप में अपने समाधितंत्र और इष्टोपदेश में स्वीकार किया है । इसका प्रकाशन भी श्रतसागर सूरि विरचित टीका के साथ उक्त संस्था १. वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोमहान् ।। इप्टोपदेश ३.
इन गाथाओं का समाधितंत्र के इन इलोकों से मिलान कीजिएमो. प्रा.-४, ६, १०, २६, ३१. समाधि-४,१०,११,१८, ७८ इत्यादि
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२.
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प्रस्तावना
द्वारा हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुमा है
मूल-अन्तरात्मा आदि । टीका-प्रात्मसंकल्प आदि ।
(१२) द्वादशानुप्रेक्षा-इसमें ६१ गाथायें हैं। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशचित्व, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन १२ भावनाओं का विवेचन किया गया है। अन्तिम ४ गाथानों में अनुप्रेक्षाओं के माहात्म्य को प्रगट करते हुए कहा गया है कि अनुप्रेक्षा से चूंकि प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, पालोचना और समाधि सम्भव हैं; अतएव अनुप्रेक्षा का चिन्तन करना चाहिए। यदि अपनी शक्ति है तो रात्रि व दिन सम्बन्धी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक और आलोचना करना चाहिए। अनादिकाल से जो मोक्ष गये हैं वे बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके ही गये हैं। बहत कहने से क्या ? जो पुरुषोत्तम सिद्ध हुए हैं, होंगे, और हो रहे हैं। यह उसका (अनुप्रेक्षा का) माहात्म्य है। अन्त में अपने नाम का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कुन्दकन्द मुनिनाथ ने निश्चय-व्यवहार को कहा है। जो शुद्ध मन से उसका विचार करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है। इसका प्रकाशन मूलरूप में पूर्वोक्त संग्रह में मा. दि. जैन ग्रन्थमाला से ही हुआ है । इसका उपयोग आर्जव धर्म और एकत्वानुप्रेक्षा आदि शब्दों में हुअा है ।।
(१३) मूलाचार-यह मुनियों के प्राचार की प्ररूपणा करने वाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके रचयिता बट्टकेराचार्य हैं । कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में ग्रन्थकर्ता के रूप में प्राचार्य कुन्दकुन्द के नाम का निर्देश पाया जाता है। इससे इसके रचयिता प्रा. कुन्दकुन्द ही प्रतीत होते हैं । दूसरे, बट्टकेर नाम के कोई प्राचार्य हुए भी नहीं दिखते', इत्यादि । कर्ता कोई भी हो, पर ग्रन्थ प्राचीन है व पहली दूसरी शताब्दी में रचा गया प्रतीत होता है ।
इसमें ये १२ अधिकार हैं-मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तर, समाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति । इनमें गाथासंख्या क्रम से इस प्रकार है-३६+७१+१४+७६+२२२+८२+१३+७६+१२५५१२४+ २६+२०६%१२५१ ।
(१) भूलगुणाधिकार- इस अधिकार में अहिंसादि पांच व्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, लोच, प्राचेलक्य (नग्नता), अस्नान, भूमिशयन, दन्तघर्षण का अभाव, स्थितिभोजन (खड़े रहकर भोजन) और एकभक्त (एक बार भोजन); इन मुनियों के २८ मूलगुणों का विवेचन किया गया है।
(२) बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव-मरण के उपस्थित होने पर साधु को शिला अथवा लकड़ी के पाटे आदि रूप बिस्तर को स्वीकार करते हुए किस प्रकार से पाप का परित्याग करना चाहिए तथा उस समय प्रात्मस्वरूप आदि का चिन्तन भी किस प्रकार करना चाहिए, इस सबका यहां विचार किया गया है।
(३) संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तरस्तव-किसी भयानक उपद्रव के कारण अकस्मात् मरण की सम्भावना होने पर आराधक जिन एवं गणधरादि को नमस्कार करते हुए संक्षेप से हिंसादि पांच पापों के साथ सब प्रकार के आहार, चार संज्ञाओं, आशा और कषायों का परित्याग करता है तथा सबसे ममत्व भाव को छोड़ कर समाधि को स्वीकार करता है। वह यह नियम करता है कि यदि इस उपद्रव के कारण जीवित का नाश होता है तो उक्त प्रकार से मैं सर्वदा के लिए परित्याग करता हूँ और यदि उस उपद्रव से बच जाता हूँ तो पारणा करूंगा। इस प्रसंग में यह कहा गया है कि यदि जीव एक भवग्रहण में समाधिमरण को प्राप्त करता है तो वह सात आठ भवग्रहण में निर्वाण को पा लेता है।
१. देखिये 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ. १५-१६.
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१२
जैन-लक्षणावली
(४) समाचार-समता अर्थात् राग-द्वेष का अभाव, सम्यक् प्राचार-मूलगुणादि का सम्यक् अनुष्ठान, सम प्राचार-ज्ञानादिरूप पांच प्रकार का प्राचार अथवा निर्दोष भिक्षाग्रहणरूप प्राचार तथा सब संयतों का क्रोधादि की निवृत्तिरूप या दशलक्षण धर्मरूप समान प्राचार; इस प्रकार समाचार या सामाचार के उक्त चार अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं। यह समाचार औधिक और पदविभाग के भेद से दो प्रकार का है। इनमें औधिक के दस और पदविभाग के अनेक भेद कहे गये हैं। इन सबका वर्णन प्रकृत अधिकार में किया गया है।
पदविभाग के प्रसंग में यहां यह कहा गया है कि कोई सर्वसमर्थ साधु अपने गुरु के पास यथायोग्य श्रुत का ज्ञान प्राप्त करके विनीत भाव से पूछता है कि मैं आपके पादप्रसाद से अन्य आयतन को जाना चाहता हूँ, इस प्रसंग में वह पांच छह प्रश्नों को पूछता है। इस प्रकार पूछने पर जब गुरु अन्यत्र जाने की प्राज्ञा दे देता है तब वह अपने से अतिरिक्त तीन, दो अथवा एक अन्य साधु के साथ वहां से निकलता है। यहाँ एक विहार तो गृहीतार्थ का और दूसरा विहार किसी गृहीतार्थ के साथ अगृहीतार्थ का ही बतलाया गया है, तीसरे किसी विहार की अनुज्ञा नहीं दी गई है। एकविहारी होने की अनुज्ञा उसी को दी गई है जो तप, सूत्र (द्वादशांगश्रुत), सत्त्व (बल), एकत्व-शरीरादि से भिन्न आत्मा-में अनुराग, शुभ परिणाम, योग्य संहनन और धैर्य से युक्त हो। इसके विपरीत स्वेच्छाचारी के विषय में तो यहां तक कहा गया है कि स्वच्छन्दतापूर्ण आचरण करने वाला तो मेरा शत्रु भी एकविहारी न हो। गृहीतार्थ के विहार के विषय में भी यह कहा गया है कि जहां प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच प्राधार न हों वहां रहना उचित नहीं है।
इस प्रकार से जब कोई समर्थ साधू अन्य संघ में पहुँचता है तो संघस्थ साधु उसका यथायोग्य स्वागत करते हुए रत्नत्रयविषयक पूछताछ करते हैं। तत्पश्चात् वे उससे नाम, कुल, गुरु और दीक्षा
आदि के विषय में प्रश्न पूछते हैं । इस प्रकार से यदि वह योग्य प्रतीत होता है तो उसे वे ग्रहण करते हैं, अन्यथा छोड़ देते हैं। और यदि आचार्य योग्य प्रमाणित न होते हए भी उसे ग्रहण करता है तो वह स्वयं प्रायश्चित्त का भागी होता है।
इस प्रकार से इस अधिकार में मुनि ब प्रायिकाओं के प्राचरणविषयक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चर्चा की गई है, जो साधुसंस्था के लिए मननीय है।
(५) पंच-प्राचार-यहां दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप और वीर्य इन पांच प्रकार के प्राचारों और तद्विषयक अतिचारों की प्ररूपणा की गई है।
(६) पिण्डशुद्धि-पिण्ड का अर्थ आहार होता है। साधु के ग्रहण योग्य शुद्ध आहार किस प्रकार का होता है, इसका विचार प्रकृत अधिकार में किया गया है । सर्वप्रथम उद्गम, उत्पादन, एषण संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इस प्रकार से पाठ प्रकार की पिण्डशुद्धि निर्दिष्ट की गई है।
१. उद्गम-दाता गृहस्थ भोजनसामग्री को किस प्रकार के योग्य-अयोग्य साधनों के द्वारा प्राप्त करता है तथा उसे किस प्रकार से तैयार किया जाता है। इसका विचार १६ उद्गमदोषों में किया गया है। इन उद्गम दोषों से रहित होने पर ही साधु को आहार ग्रहण करना चाहिए।
२. उत्पादन-पात्र (मुनि आदि) जिन मार्गविरोधी अभिप्रायों से आहार को प्राप्त करता है, वे उत्पादनदोष माने जाते हैं । ये उत्पादन दोष भी १६ हैं।
३. प्रशनदोष-परोसनेवाले आदि की प्रशद्धियों को प्रशनदोष में गिना जाता है। ये संख्या
४. संयोजना दोष-शीत-उष्ण एवं सचित्त-अचित्त प्रादि भोज्य वस्तुओं का परस्पर में संमिश्रण करना, इसे संयोजना दोष माना जाता है। १. विशेष के लिए देखिये 'पिण्डशुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार' शीर्षक लेख । अनेकान्त
वर्ष २१, किरण ४, पृ. १५५-६१.
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प्रस्तावना
१३
५. प्रमाण दोष – अधिक प्रहार के ग्रहण करने पर साधु प्रमाण दोष का भागी होता है । उदर के चार भागों में से दो भागों को भोजन से और एक भाग को पानी से पूर्ण करना चाहिए तथा शेष एक भाग को वायुसंचार के लिए रिक्त रखना चाहिए । इस नियम का उल्लंघन करने पर साधु प्रमाण दोष से लिप्त होता है । पुरुष का प्राकृतिक आहार ३२ ग्रास प्रमाण और महिला का वह २८ ग्रास प्रमाण होता है । एक ग्रास का प्रमाण एक हजार ( १०००) चावल है ।
६. अंगार दोष --- आसक्तिपूर्वक प्रहार के ग्रहण करने पर साधु श्रंगार दोष से दूषित होता है । ७. धूम्र दोष – भोजन को प्रतिकूल मान कर निन्दा का अभिप्राय रखना, यह धूम्र दोष का लक्षण है।
८. कारण - भोजन ग्रहण करने के छह कारण हैं- भूख की पीडा, वैयावृत्त्य करना, आवश्यक क्रियाओं का परिपालन करना, संयम की रक्षा, प्राणों की स्थिति और धर्म की चिन्ता । धर्म का आचरण करने के लिए साधु को उक्त छह कारणों के होने पर ही ग्राहार को ग्रहण करना चाहिए। इनके अतिरिक्त छह कारण ऐसे भी हैं जिनके होने पर भोजन का परित्याग करना चाहिए, अन्यथा धर्म का विघात अवश्यंभावी है । वे छह कारण ये हैं- रोग का सद्भाव, देव- मनुष्यादिकृत उपद्रव, ब्रह्मचर्य का संरक्षण, जीवदया, तप और समाधिमरण । इनके अतिरिक्त बलवृद्धि, श्रायुवृद्धि, स्वादलोलुपता और शरीरपुष्टि के लिए किये जाने वाले आहार का यहां सर्वथा निषेध किया गया है । इस प्रकार से यहां भोजनशुद्धि के निमित्त उक्त दोषों और अन्तरायों को दूर करने की प्रेरणा की गई I
७.
षडावश्यक – यहाँ आवश्यक का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जो इन्द्रियों और राग द्वेषादिरूप कषायोंके द्वारा वशीभूत नहीं किया जाता है उसे 'अवश्य नामसे कहा जाता है । ऐसे अवश्य (साधु) का जो प्राचरण है वह प्रावश्यक कहलाता है। 'निर्युक्ति' शब्द के अन्तर्गत 'युक्ति का अर्थ उपाय और 'निर्' का अर्थ निःशेष या सम्पूर्ण होता है । इस प्रकार इस अधिकार में चूंकि साधु के अनुष्ठानविषयक उपायों का सम्पूर्ण विवेचन किया गया है, अतः इसे ग्रन्थकार ने श्रावश्यक नियुक्ति कहते हुए प्रारम्भ में उसके निरूपण करने की प्रतिज्ञा की है । वे आवश्यक छह हैं --- सामायिक, चतुर्विंशविस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । इन छह का यहाँ क्रमसे निरूपण किया गया है । अन्त में यहाँ ग्रन्थकार द्वारा कहा गया है कि इस नियुक्ति की नियुक्ति को यहाँ मैंने संक्षेप से कहा है, विस्तार का प्रसंग अनुयोग से जानना चाहिए । टीकाकार वसुनन्दी ने अनुयोग का अर्थ श्राचारांग किया है ।
चतुर्विंशतिस्तव के प्रसंग में यहाँ प्रथमतः लोक को उद्योतित करने वाले तथा धर्मतीर्थ के कर्ता अरिहंतों को कीर्तन के योग्य बतलाते हुए उनसे उत्तम बोधि की याचना की गई है । लगभग ऐसा ही सूत्र श्रावश्यक सूत्र के भी इस प्रकरण में उपलब्ध होता है' । श्रागे लोक की नियुक्तिपूर्वक उसके नो भेदों का निर्देश किया गया है। श्रावश्यक नियुक्तिकार ने वहाँ लोक के ग्राठ भेदों का निर्देश किया है । प्रकृत में एक चिह्नलोक और कषायलोक का भी निर्देश किया गया है, ये दोनों आवश्यकसूत्र में नहीं हैं । वहाँ एक काललोक अधिक है । इसके पश्चात् और भी जो प्ररूपणा यहाँ और श्रावश्यकसूत्र में की गई है, दोनों में बहुत कुछ समानता है । इतना ही नहीं कुछ गाथायें भी यहाँ और आवश्यकसूत्र में नियुक्ति या भाष्य के रूप में कुछ शब्दभेद के साथ समानरूप से पायी जाती हैं । जैसे--- १. लोगुज्जोए घम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि मम दिसंतु ।।
मूला. ७-४२. श्राव. १, पृ. ४६.
२.
लोगस्सुज्जोगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं वि केवली ॥
णाम वणं दव्वं खेत्तं चिन्हं कसायलोनो य ।
भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादव्वो । मूला. ७-४४.
णामं ठवणा दविए खित्ते काले भवे अ भावे ।
पज्जवलोगे अतहा अट्ठविहो लोगणिक्खेवो ।। श्राव. नि. १०५७.
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१४
जैन-लक्षणावली मूलाचार- ७-४७, ७-५४, ५५, ५६, ५८, प्राव. नि. या भा. १६५ (भा.), २०२ (भा.), १०५६, १०६०, १०६२, मूलाचार- ६२,
६८, ६६, ७०, ७२. आव. नि. या भा. १०६६, १०६३, १०६४, १०९५, १०६७.
इसी प्रकार वन्दना आवश्यक के प्रकरण में भी उक्त दोनों ग्रन्थों में कुछ गाथायें साधारण शब्दभेद व अर्थभेद के साथ समान रूप से उपलब्ध होती हैं।
८. द्वादशानुप्रेक्षा-इस अधिकार में अनित्यादि १२ अनुप्रेक्षाओं का निरूपण किया गया है । इसमें ७६ गाथायें हैं।
६. अनगारभावना-इस अधिकार में लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, बलशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशद्धि, उज्झन (त्याग) शुद्धि-शरीर से अनुराग का परित्याग, वाक्यशुद्धि, तप:शुद्धि और ध्यानशुद्धि इन दस की प्ररूपणा की गई है। उज्झनशुद्धि के प्रसंग में साधु के लिए मुंह, नेत्र और दातों के धोने, पांवों के धोने, संवाहन–अंगमर्दन, परिमर्दन-हाथ की मुट्ठियों आदि से ताड़न और शरीरसंस्कार को निषिद्ध बताया गया है । इस अधिकार में १२५ गाथायें हैं।
१०. समयसार-समय शब्द से गुण-पर्यायों के साथ एकता (अभेद) को प्राप्त होने वाले सभी पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं। प्रकृत में 'समय' शब्द से जीव अपेक्षित है। उसके सारभूत जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और ध्यान आदि हैं उनके परिपालन में मुमुक्ष को सतत सावधान रहना चाहिए; इत्यादि की चर्चा इस अधिकार में की गई है।
यहाँ क्रियाविहीन ज्ञान को, संयमविहीन लिंग के ग्रहण को और सम्यक्त्वविहीन तप को निरर्थक कहा गया है । आगे यहाँ आचार्य कुल को छोड़कर एकाकी विहार करने वाले को पापश्रमण कहा गया है। इस अधिकार में १२४ गाथायें हैं।
११. शीलगणाधिकार-इस अधिकार में प्रथमतः योग ३, करण ३, संज्ञा ४, इन्द्रिय ५, पथिवीकायादि १० और श्रमणधर्म १०, इनके परस्पर गुणन से निष्पन्न होने वाले १८००० शीलों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् प्राणिवधादि २१, अतिक्रमण, व्यतिक्रमण, अतिचार और अनाचार ये चार: पथिवी. अप, अग्नि, वायु, प्रत्येक, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दस को परस्पर में व्यथा करने के कारण परस्पर गुणित करने पर १००(१०x१०); अब्रह्म के कारण १०, घालोचना दोष १०, श्रद्धान के साथ आलोचना-प्रतिक्रमणादि १०, इन सब को परस्पर गुणित करने से (२१४४४१००x१०x१०x१०= ८४०००००) समस्त गुण चौरासी लाख होते हैं। आगे इनके भंगों के उत्पत्तिक्रम को भी बतलाया गया है।
१२. पर्याप्ति अधिकार- इस अधिकार में क्रम से पर्याप्तियां, देह, संस्थान, काय, इन्द्रिय, योनि, प्राय. प्रमाण (द्रव्य-क्षेत्रादिप्रमाण), योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, ऊद्वर्तन, स्थान, कूल, अल्पबहत्व और प्रकृत्यादि बन्ध; इन विषयों की प्ररूपणा की गई है।
यहां उपपाद और उद्वर्तन (गति-प्रगति) प्रकरण का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने यह निर्देश किया है कि इस प्रकार से सारसमय में प्ररूपित गति-प्रागति का यहां मैंने कुछ वर्णन किया है। टीका. कार वसनन्दी ने सारसमय का अर्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति किया है । इसका उपयोग इन शब्दों में या
१. देखिये मूलाचार अधिकार ७, गा. ७९-८०, ८१, ६५,६८, १०३ और १०४ अादि तधा आव.
नियुक्ति गा. ११०२-३, १२१७, ११०५, ११०६, १२०१, १२०२ आदि । २. आयरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी।
ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥ १०-६८. अधिकार ४ को गा. २६-३३ भी द्रष्टव्य हैं (पृ. १२८-३४) ।
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प्रस्तावना
मूल - श्रङ्गारदोष, अत्यासादना दन्तमनव्रत, अध्यधि दोष, अनन्तसंसारी, अनुभाषणाशुद्धप्रत्याख्यान, श्रलोक, प्राज्ञाविचय और आवश्यक नियुक्ति आदि ।
टीका -- प्रकिंचनता, प्रचक्षुदर्शन, प्रत्यासादना और प्रदत्तग्रहण श्रादि ।
१४ भगवती प्राराधना – इसके रचयिता आचार्य शिवार्य हैं । उनका समय निश्चित नहीं है । पर ग्रन्थ के विषय और उसकी विवेचन पद्धति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शताब्दी होना चाहिए । इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओं की प्ररूपणा की गई है । वैसे तो रत्नत्रय सदा ही श्राराधनीय है, पर मरण के समय उसके प्राराधन का विशेष महत्त्व है । इस प्रसंग में यहाँ यह कहा गया है कि जो मरणसमय में उसकी विराधना करता है वह अनन्तसंसारी होता है' । साथ में यह भी कहा गया है कि चारित्र की — रत्नत्रय की - आराधना करने वाले अनादि मिथ्यादृष्टि भी थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करते देखे गये हैं । इसको स्पष्ट करते हुए पं. प्रशाधर ने अपनी टीका में बतलाया है कि भरत चक्रवर्ती के भद्र-विवर्धनादि नौ सौ तेईस पुत्र नित्यनिगोद से ग्राकर मनुष्य हुए और भगवान् प्रदिनाथ के पादमूल में रत्नत्रय को धारण करते हुए हुए हैं ।
थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त
१५
यहाँ सत्तरह मरण भेदों की सूचना करके उनमें से समयानुकूल पण्डित पण्डितमरण, पण्डितमरण, वाल पण्डितमरण, बालमरण और बाल बालमरण इन पाँच भेदों की प्ररूपणा की गई है । भक्तप्रत्याख्यान के भेदभूत सविचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में आराधक की योग्यता के परिचायक अर्हलिंग श्रादि ४० पदों का विवेचन यहाँ अन्य प्रासंगिक चर्चा के साथ बहुत विस्तार से (गा. ७१-२०१० ) किया गया है । यहाँ आराधक को स्थिर रखने के लिए अनेक पौराणिक उदाहरणों द्वारा उपदेश दिया गया है । अन्त में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि पाणितलभोजी मैंने ( शिवार्यने) आर्य जिननन्दी गणी के पादमूल में भलीभांति सूत्र और अर्थ को जानकर पूर्वाचार्यनिबद्धपूर्वाचार्य परम्परा से प्राप्त - इस भगवती प्राराधना को उपजीवित किया है- उसे संकलित या उद्धृत किया है । छद्मस्थ होने से यदि इसमें कुछ आगमविरुद्ध सम्बद्ध हो गया हो तो विशेषज्ञानी प्रवचनवत्सलता से उसे शुद्ध कर लें । मेरे द्वारा भक्ति से वर्णित यह भगवती आराधना संध और शिवार्य के लिए उत्तम समाधि प्रदान करे । ग्रन्थ की गाथासंख्या २१७० है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के ऊपर अपराजित सूरि ( अनुमानतः विक्रम की ध्वीं शताब्दी के पूर्व ) द्वारा विजयोदया नाम की टीका और पं० श्राशावर ( विक्रम की १३वीं शताब्दी) द्वारा मूलाराधनादर्पण नाम की टीका रची गई है। इनके अतिरिक्त प्रा. अमितगति द्वि. (विक्रम की ११वीं शताब्दी) के द्वारा उसका पद्यानुवाद भी किया गया । कुछ अन्य भी टीका-टिप्पण इसके ऊपर रचे गये हैं ।
विजयोदया टीका के निर्माता अपराजित सूरि श्वे. सम्मत आगमों के महान् विद्वान् थे । उन्होंने नग्नता का प्रबल समर्थन करते हुए आचारप्रणिधि, प्राचारांग पायेसणी, भावना, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिका आदि कितने ही ग्रागम ग्रन्थों के उद्धरणों को उक्त नग्नता के प्रसंग में वहाँ उपस्थित किया है । दशवैकालिक सूत्र के ऊपर तो उन्होंने विजयोदया नाम की टीका भी लिखी है, जिसका उल्लेख प्रस्तुत टीका में उन्होंने स्वयं भी किया है। अपराजितसूरि ने इस टीका के अन्त में उसका
१. गा. १५.
२. गा. १७.
३. इन १७ मरणों का उल्लेख उत्तराध्ययन नियुक्ति में उपलब्ध होता है । उत्तरा ५, पृ. ३६.
४. देखिये 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ. ७६ ८०.
५. देखिये गा. ३२१ की विजयो. टीका, पृ. ६११-१३.
६. दशवेकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । विजयो. टीका
गा. ११६७ ।
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१६
जैन - लक्षणावली
परिचय देते हुए इतनी मात्र सूचना की है— चन्द्रनन्दी महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य श्रारातीयसूरिचूलामणि नागनन्दी गणी के चरण-कमल की सेवा से प्राप्त बुद्धि के लेश से सहित और बलदेव सूरि के शिष्य प्रख्यात अपराजित सूरि के द्वारा नागनन्दी गणी की प्रेरणा से रची गई विजयोदया नामकी आराधना टीका समाप्त हुई । उक्त टीकायों के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ बलात्कारगण जैन पब्लिकेशन सोसायटी कारंजा से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल — प्रकृतसमुद्घात, अणुव्रत, अव्यक्त दोष, श्राचारवान् श्राज्ञाविचय, प्रादाननिक्षेपणसमिति और श्रार्तध्यान आदि ।
विजयो. - भिगृहीत मिथ्यात्व श्रव्यक्तमरण, श्राकिञ्चन्य, आचार्य, श्राज्ञाविचय, आम्नाय और उन्मिश्रदोष आदि ।
मूला - प्रतिचार, अनभिगृहीतमिथ्यात्व, प्राचार्य, उपगूहन और उभिन्न ग्रादि ।
१५. तत्त्वार्थसूत्र – यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रतिष्ठित है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इसके रचयिता प्राचार्य उमास्वाति हैं । रचनाकाल इसका २ - ३री शताब्दी है। जैन परम्परा में सम्भवतः यह संस्कृत में प्रथम ही रचना है । यह दस अध्यायों में विभक्त है । प्रथम श्रध्याय भूमिका रूप । दूसरे, तीसरे व चौथे इन तीन अध्यायों में जीवतत्त्व का, पाँचवें में जीवतत्व का छठे व सातवें इन दो अध्यायों में आसवका, प्राठों में बन्ध का, नौवें में संवर और निर्जरा का तथा दसवें में मोक्षका; इस प्रकार इसमें प्रयोजनीभूत सात तत्त्वों की प्ररूपणा की गई है । ग्रन्थ यद्यपि शब्दशरीर से लघु है, पर अर्थ से गम्भीर व विशाल है । सूत्रसंख्या इसकी दि. परम्परा में ३५७ और श्वे. परम्परा में ३४४ है । इसका उपयोग
धर्मद्रव्य ग्रनृत और आस्रव आदि शब्दों में हुआ है ।
१६. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य - यह उपर्युक्त तत्त्वार्थसूत्र पर रचा गया भाष्य है, जो स्वोपज्ञ माना जाता है । पर कुछ विद्वान् इसे स्वोपज्ञ न मान कर पीछे की रचना मानते हैं'। इसमें मूल सूत्रों की व्याख्या करते हुए यथाप्रसंग अन्य भी कितने ही विषयों का विवेचन किया गया है।
यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या में मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों में पूर्व के प्राप्त होने पर उत्तर को भजनीय ( वह हो, अथवा न भी हो ) तथा उत्तर के प्राप्त होने पर पूर्व की प्राप्ति नियम से बतलाई गई है । परन्तु सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति सम काल में ही निर्दिष्ट की गई है । भाष्य के उक्त कथन का स्पष्टीकरण करते हुए सिद्धसेन गणी ने यह बतलाया है कि देव, नारक और तिर्यंच तथा मनुष्यों में किन्हीं के सम्यग्दर्शन के आविर्भूत हो जाने पर प्राचारादि अंगप्रविष्टका ज्ञान नहीं होता और न देश या सर्व चारित्र भी होता है, अतः ये दोनों सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में भजनीय हैं । यह सिद्धसेनगणि विरचित टीका के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों
भाष्य – अग्निकुमार, प्रङ्गप्रविष्ट, प्रङ्गवाह्य, प्रतिचार, प्रतिथिसंविभाग, अधिकमास, अधिगम सम्यग्दर्शन, अर्पित, अनीक, अमृत और अनृतानन्द आदि ।
सि. वृत्ति - गुरुलघु नामकर्म, अङ्गप्रविष्ट, अङ्गवाह्य, प्रतिथिसंविभाग, अधिकमास, अनिश्चितावग्रह, अनीक और अनृतानन्द श्रादि ।
१७. पउमचरिय - इसके रचयिता विमल सूरि हैं। ये नाइलकुलवंश को प्रमुदित करने वाले विजयसूरि के शिष्य और स्वसमय परसमय के ज्ञाता राहू नामक प्राचार्य के प्रशिष्य थे । प्रस्तुत राम१. देखिये 'श्वे. तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जांच' शीर्षक लेख – जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ. १२५.४८.
२. पउमच. ११८, ११७-१८.
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प्रस्तावना
१७ चरित्र के मूल रचयिता वीर जिन हैं । तत्पश्चात् उसका व्याख्यान शिष्यों के लिए श्राखण्डलभूति (इन्द्रभूति - गौतम) ने किया। फिर उसी को विमलसूरि ने गाथाओं में निबद्ध किया। वीर जिनेन्द्र के सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात् दुःषमाकाल के ५३० वर्ष बीतने पर इस चरित्र की विमलसूरि के द्वारा रचना की गई।
रामचरित्र के सम्बन्ध में कुछ मार डाला ? रावण का भाई
भगवान् महावीर से धर्म श्रवण कर राजा श्रेणिक के मन में प्रश्न उत्पन्न हुए । जैसे - वानरों ने अतिशय बलवान् राक्षसों को कैसे कुम्भकर्ण छह मास तक सोता था, अनेक वादित्रों के शब्द होने पर कठिनाई से वह जागता था, उठने पर वह हाथी और भैंसा यादि को खा जाता था, ऐसा सुना जाता है; सो वह कैसे सम्भव है ? इत्यादि । इनके समाधान के लिए वह गौतम गणधर के पास पहुँचा और उनसे रामचरित्र के कहने की प्रार्थना की । तदनुसार गौतम गणधर ने जिस रामचरित्र को कहा वही परम्परा से प्राप्त प्रस्तुत ग्रन्थ मैं निबद्ध किया गया है । इसमें ११८ उद्देश हैं । यहाँ रामचरित्र का वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार विपुलाचल पर महावीर का धर्मोपदेश, इन्द्रभूति के द्वारा श्रेणिक के प्रति कही गई कुलकरवंश की उत्पत्ति, ऋषभजन्मादि, राक्षस व वानर वंश; इत्यादि अनेक विषयों की चर्चा की गई है। इन वर्णनीय विषयों की सूचना ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने ही कर दी है।
यह जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर के द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों हुआ है --अक्षौहिणी, अधोलोक और आचार्य आदि ।
में
१८. प्राप्तमीमांसा (देवागम - स्तोत्र ) – इसके रचयिता श्राचार्य समन्तभद्र हैं । समन्तभद्र का समय श्री पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा विक्रम की दूसरी शताब्दी निश्चित किया गया है । प्रा. समन्तभद्र असाधारण दार्शनिक विद्वान् थे । उन्होंने शास्त्रार्थ में अनेक प्रतिवादियों के मान का मर्दन किया था । उनकी यह दार्शनिक कृति स्तुतिपरक है । इसमें केवल ११४ ही कारिकायें (सूत्ररूप श्लोक ) । पर वे इतने गम्भीर अर्थ को लिए हुए हैं कि साधारण विद्वान् की तो बात ही क्या, विशेष विद्वान् भी कभी-कभी उनके अर्थ की गम्भीरता का अनुभव करते हैं ।
।
प्रस्तुत ग्रन्थ १० परिच्छेदों में विभक्त है । इसमें प्रथमतः सामान्य से सर्वज्ञता को सिद्ध करते हुए वह सर्वज्ञता युक्ति एवं शास्त्र से अविरुद्ध भाषण करने वाले भगवान् अरिहंत में ही सम्भव है, इसे स्पष्ट किया गया है । तत्पश्चात् भावाभावैकान्त में दोषों को दिखला कर कथंचित् सत् व कथंचित् असत् प्रादि सप्तभंगी को सिद्ध किया गया है । आगे इसी क्रम से श्रद्वैत और द्वैत भेद और प्रभेद, नित्य और अनित्य, कार्य कारणादि की भिन्नता और अभिन्नता तथा ग्रापेक्षिक और अनापेक्षिक आदि विविध एकान्तवादों को दूषित किया गया है ।
इसपर आचार्य अकलंकदेव (वि. की 5वीं शती) के द्वारा ८०० श्लोक प्रमाण 'अष्टशती' और प्रा. विद्यानन्द (वि. की हवीं शती) के द्वारा ८००० श्लोक प्रमाण 'अष्टसहस्री' नाम की व्याख्या रची गई है । आ. वसुनन्दी द्वारा एक संक्षिप्त वृत्ति भी लिखी गई है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
अष्टशती - प्रन्यापोह आदि ।
अष्टसहस्री - अधिगम आदि ।
वसु. वृत्ति - किंचित्कर, अकुशल, अनुमेय और अन्तरितार्थं श्रादि ।
१६ युक्त्यनुशासन - यह प्राचार्य समन्तभद्र विरचित स्तुत्यात्मक एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक
९. वही ११८, १०२-४.
२. देखिये उ. १, गा. ३२-८६,
३. देखिए 'समन्तभद्र का समय निर्णय' शीर्षक उनका लेख - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ६८-६७.
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१८
जैन-लक्षणावली
ग्रन्थ है। इसमें ६५ पद्यों के द्वारा महावीर जिनेन्द्र की स्तुति की गई है। इसकी सूचना प्रयम पद्य में ही कर दी गई है । देवागम स्तोत्र में वीर जिनके महत्त्वविषयक ऊहापोह करते हुए अज्ञानादि दोषों और ज्ञानावरणादि कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण महावीर जिनमें सर्वज्ञता व वीतरागता सिद्ध की जा चुकी है। यही उनकी महानता है। यहाँ चतुर्थ पद्य में इसी की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि हे वीर जिन, ग्राप चंकि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के नाश से प्रगट हए निर्मल ज्ञान-दर्शन रूप शुद्धि के साथ अन्तराय के क्षय से उत्पन्न वीर्यविशेष रूप शक्ति की भी चरम सीमा को प्राप्त हो चुके हैं, अतएव ग्राप मोक्षमा के नेता होते हुए महान् (परमात्मा) हैं, यह कहने के लिए हम सर्वथा समर्थ हैं । इस प्रकार से स्तुति करते हए पागे भेद-अभेद और नित्य-अनित्य प्रादि एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक स्याद्वादसम्मत उन भेदाभेद आदि को सुप्रतिष्ठित किया गया है। इसके ऊपर प्राचार्य दिद्यानन्द (विक्रम की हवीं शताब्दी) विरचित टीका है जो ग्रन्थगत गूढ़ अर्थ के प्रगट करने में सर्वथा समर्थ हे । इस टीका के साथ वह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अनेक व अर्थ (द्रव्य) आदि शब्दों में हुआ है।
२०. स्वयम्भूस्तोत्र-यह कृति भी उक्त प्राचार्य समन्तभद्र की है। इसमें १४३ पद्यों के द्वारा वृषभादि २४ तीर्थ करों की पृथक् पृथक् स्तुति की गई है। यह स्तोत्र भी अर्थगम्भीर है। इसे बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र भी कहा जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र जहाँ अपूर्व दार्शनिक थे, वहाँ वे एक महान् कवि भी थे। यह उनकी कृति विविध अलंकार युक्त सुन्दर पद्यों से अलंकृत है। अन्तिम महावीरस्तुति के तो सब (८) ही पद्य यमकालंकार से सुशोभित हैं। इसके ऊपर प्रा. प्रभाचन्द्र (वि. की १३वीं शती) विरचित एक संस्कृत टीका भी है जो दोशी सखाराम नेमिचन्द शोलापुर द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है। इसका उपयोग अजित और अनेकान्त आदि शब्दों में हमा है।
२१. रत्नकरण्डक-यह एक श्रावकाचार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके रचयिता भी उक्त समन्तभद्राचार्य हैं । ग्रन्थ पांच परिच्छेदों में विभक्त है। श्लोकसंख्या १५० है। प्रथम परिच्छेद में धर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रगट किया गया है । द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का. ततीय परिच्छेद में पांच प्रणवतों और तीन गुणवतों का, चतुर्थ परिच्छेद में चार शिक्षाव्रतों का, तथा पांचवें परिच्छेद में अन्तिम सल्लेखना के साथ ग्यारह प्रतिमानों का भी निरूपण किया गया है। इसके ऊपर प्रभाचन्द्राचार्य (वि. की १३वीं शती) विरचित एक संक्षिप्त संस्कृत टीका भी है। इस टीका के साथ मूल ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-अचौर्याणुव्रत, अणुव्रत, अधर्म, अनर्थदण्डविरति और अपध्यान आदि । टीका-प्रतिभारवहन, अतिभारारोपण, अतिलोभ, अतिवाहन और अनगार आदि ।
२२. सर्वार्थसिद्धि-यह प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या है । प्राचार्य पूज्यपाद का दूसरा नाम देवनन्दी भी रहा है। इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है। प्राचाय पूज्यपाद सिद्धान्त के मर्मज्ञ थे। उनके द्वारा षटखण्डागम आदि सिद्धान्त ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया गया था। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्या-क्षेत्र ..' आदि सूत्र (१-८) की जो विस्तृत व्याख्या की है वह
गम के अाधार से ही की है । इसमें कितने ही सन्दर्भ उक्त षट्खण्डागम के छायानुवाद के समान हैं । प्रा. पूज्यपाद ने 'तत्प्रमाणे' (१-१०) और 'अर्थस्य' (१-१७) प्रादि सूत्रों की व्याख्या दार्शनिक पद्धति से की है। उनका 'जैनेन्द्र व्याकरण' भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रा. पूज्यपाद बहुश्रुत विद्वान्
प्रस्तुत ग्रन्थ का नवीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हना है
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प्रस्तावना
१६
अकामनिर्जरा, अक्षरीकृत शब्द, अगारी, अगुरुलघु गुण, अगुरुलघु नामकर्म, अग्निकायिक, अङ्गोपाङ्ग नामकर्म और अचोर्याणुव्रत प्रादि ।
२३. समाधितन्त्र-यह भी उपयुक्त पूज्यपादाचार्य द्वारा विरचित है। इसमें १०५ श्लोक हैं । ग्रन्थ अध्यात्मप्रधान है। सर्वप्रथम यहाँ क्रम से सिद्धात्मा और सकलात्मा (अरिहंत) को नमस्कार करते हुए पागम, युक्ति और स्वानुभव के अनुसार शुद्ध प्रात्मस्वरूप के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन भेदों का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मारूप उपाय के द्वारा परमात्मावस्था को प्राप्त करना चाहिये । जो भ्रमवश शरीरादि को ही प्रात्मा समझता है-शरीरादि से भिन्न ज्ञायकस्वभाव प्रात्मा का अनुभव नहीं करता है - वह बहिरात्मा (मिथ्याष्टि) है। यह जड़ शरीर को प्रात्मा समझने के कारण उससे सम्बद्ध अन्य जीबों को पुत्र व स्त्री आदि मानता है। यहाँ तक कि वह जो धन व गृह आदि शरीर से भी भिन्न दिखते हैं उन्हें भी वह अपना मानता है। इस भ्रमबुद्धि के कारण वह पुनः पुनः शरीर को धारण करता हुमा चतुर्गतिस्वरूप संसार में परिम्रमण करता रहता है।
जिसने जड़ शरीर से ज्ञाता-दृष्टा आत्मा को पृथक् समझ लिया है-उसे अन्तरात्मा कहा जाता है। इस प्रकार शरीर से भिन्न प्रात्मा का निश्चय हो जाने के कारण वह स्त्री-पुत्रादि तथा धन-सम्पत्ति प्रादि चेतन-अचेतन परिग्रह में मुग्ध नहीं होता। वह इष्ट के वियोग और अनिष्ट के सयोग में व्याकुल तथा इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग में हर्षित भी नहीं होता। चारित्रमोह के उदयवश वह इन्द्रियविषयों का उपभोग करता हना भी उनमें प्रासक्त नहीं होता।
हिंसा आदि रूप असदाचरण से पाप और अहिंसादि व्रतों के आचरण से पुण्य होता है। पर पाप जहाँ नरकादि दुर्गति का कारण है वहाँ पुण्य देवादि उत्तम गति का कारण है । इस प्रकार यद्यपि पाप की प्रपेक्षा पुण्य उत्तम है, फिर भी वह संसारबन्धन का ही कारण है । इसीलिए मुमुक्षु जीव को अव्रतों के समान व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए। कारण कि पाप और पुण्य दोनों के ही विनाश का नाम मोक्ष है। इस कारण यह प्रावश्यक है कि जो जीव आत्महित का अभिलाषी है उसे अव्रतों को छोड़ कर व्रतों पर निष्ठा रखते हुए उनका परिपालन करना चाहिए। तत्पश्चात् परम पद-वीतराग अवस्था-को पाकर उन व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए। यह वस्तुस्थिति है । इसी को पुनः स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जो अव्रती है--व्रतों से रहित है-वह ब्रत को ग्रहण करके व्रती हो जाता है। फिर ज्ञानभावना में तत्पर होकर जब उत्कृष्ट आत्मज्ञान से सम्पन्न हो जाता है तब वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है। इस प्रकार यहाँ मुमुक्ष जीवों को परमें राग-द्वेष को छोड़ कर शुद्ध-कर्ममल विमुक्त-प्रात्मा के स्वरूप में रत होने की प्रेरणा की गई है।
इस पर प्राचार्य प्रभाचन्द्र' (विक्रम की १३वीं शती) द्वारा संक्षिप्त संस्कृत टीका रची गई है। इस टीका के साथ ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर सोसाइटी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग अन्तरात्मा और आत्मम्रान्ति आदि शब्दों में हमा है।
२४. इष्टोपदेश-इसके रचयिता उपर्युक्त आचार्य पूज्यपाद हैं । समाधितन्त्र के समान यह भी उनकी आध्यात्मिक कृति है। इसमें ५१ श्लोक हैं। यहां सर्वप्रथम समस्त कर्मों का अभाव हो जाने पर स्वयं निज स्वभाव (स्वरूप) को प्राप्त होने वाले परमात्मा को नमस्कार करते हुए यह कहा गया है कि योग्य उपादान के सम्बन्ध से जिस प्रकार पत्थर सोना हो जाता है इसी प्रकार योग्य द्रव्य-क्षेत्रादि रूप १. प्रा. प्रभाचन्द्र सोमदेव सूरि और पं. पाशाघर के मध्यवर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने
आत्मानुशासन की टीका में सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययन के अनेक श्लोकों को उदधत किया है (देखिये प्रात्मानु. की प्रस्तावना पृ. २५-२६ आदि), तथा पं. प्राशाधर ने अनगारधर्मामृत की स्वो. टीका (८-६३) में प्रादर के साथ उनके नामोल्लेखपूर्वक रत्नकरण्डक की टीकागत वाक्य को उद्धृत किया है।
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२०
जैन-लक्षणावली
उत्तम साधनसामग्री के प्राप्त होने पर जीव भी आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यहाँ यह आशंका हो सकती थी कि द्रव्यादिरूप सामग्री के प्राप्त होने पर जीव जब स्वयं परमात्मा बन जाता है तब उसके लिये किया जाने वाला व्रताचरण निरर्थक सिद्ध होता है। इस आशंका का समाधान करते हुए ग्रन्थकार स्वयं यह कहते हैं कि अव्रतों से--हिंसादि के परित्याग के बिना-जो नारक पर्याय प्राप्त होती है उसकी अपेक्षा व्रतों से प्राप्त होनेवाली देव पर्याय कहीं उत्तम है। इसके लिए वहाँ यह उदाहरण दिया गया है कि जो व्यक्ति धूप में स्थित होकर किसी इष्ट जन की प्रतीक्षा कर रहा है उसकी अपेक्षा वह बुद्धिमान् व स्तुत्य माना जाता है जो कि किसी वृक्ष की शीतल छाया में स्थित होकर उस इष्ट बन्धु की प्रतीक्षा कर रहा हो।
यह अभिप्राय केवल पूज्यपादाचार्य का ही नहीं रहा, बल्कि उनके पूर्ववर्ती आध्यात्मिक सन्त प्राचार्य कुम्दकुन्द का भी वही अभिप्राय रहा है। दर्शनमोह के उदय में जीव का ज्ञान यथार्थ स्वरूप
प्राप्त नहीं होता । जिस प्रकार उन्मादजनक कोदों के उपयोग से अथवा मद्य के पीने से मनुष्य पदार्थों को यथार्थ न जानकर उन्हें अन्यथा जानता है उसी प्रकार मिथ्यात्व के वशीभूत हुआ जीव जो शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु और धन प्रादि भिन्न स्वभाव वाले हैं उन्हें अपना मानकर उनसे राग-द्वेष किया करता है। पर जिस प्रकार पक्षा विभिन्न दिशामों से प्राकर रात में वृक्ष-वृक्ष पर स्थित होते हैं
और फिर सबेरा हो जाने पर वे अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार विविध दिशानों को चले जाते हैं उसी प्रकार ये संसारी प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार विभिन्न कुटुम्बों में आश्रय लेते हैं और आयु के समाप्त होने पर अन्यान्य अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं।
___ कुछ मनुष्यों का धन के संग्रह में यह अभिप्राव रहता है कि धन का संचय हो जाने पर उससे कल्याणप्रद दानादि सत्कार्यों को करेंगे। पर उनका यह विचार कितना मूर्खतापूर्ण है, इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि उनका वह विचार उस मूर्ख व्यक्ति के समान है जो यह सोचकर कि स्नान कर लूँगा, अपने शरीर को कीचड़ से लिप्त करता है।
इस प्रकार अनेक उदाहरणों द्वारा यहां मुमुक्षु जीवों को प्रात्म-परका विवेक उत्पन्न कराकर राग-द्वेष को छुड़ाते हुए उन्हें प्रात्मस्वरूप में स्थित होने का उपदेश किया गया है। अन्त में यह कहा गया है कि जो बुद्धिमान् इस इष्टोपदेश को भलीभाँति पढ़कर तदनुसार मानापमान में समताभाव को वद्धिगत करता है व कदाग्रह को छोड़ देता है वह चाहे जनाकीर्ण कुटम्बादि में रहे और चाहे वन में भी रहे, वह भव्य अनुपम मुक्ति-लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है। इस पर पं. प्राशाधर (विक्रम की १३वीं शती) ने ग्रन्थ के रहस्य को स्पष्ट करने वाली टीका लिखी है। इस टीका सहित वह पूर्वोक्त समाघितन्त्र के साथ उक्त संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हआ है
मूल-प्रात्मा आदि । टीका-प्रज्ञ आदि ।
२५. तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति)-इसके रचयिता प्राचार्य यतिवृषभ हैं। ये विक्रम गंवत् के अनुसार सम्भवत: ५३०-६६६ (ई. ४७३-६०६) के मध्य में किसी समय हुए हैं। इसमें ये नौ महाधिकार हैं-सामान्यलोक, नारकलोक, भावनलोक, नरलोक, तिर्यग्लोक व्यन्तरलोक, ज्योतिलोंक, कल्पवासिलोक और सिद्धलोक । इनमें गाथासंख्या इस प्रकार है-२८३+३६७+२४३+२६६१+ ३२१+१०३+६१३+७०३+७७-५६७७ । मध्य में कुछ गद्यभाग भी है। जैसे-वातवलय क्षेत्रों के १. वर वय-तवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं ।
छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।। मोक्षत्राभूत २५. २. ति. प. भा. २, प्रस्तावना पृ. १५. ३. आर्या छन्द के अतिरिक्त कहीं-कहीं कुछ थोड़े से अन्य छन्दों का भी उपयोग हुआ है। जसे-इन्द्र
वज्रा, स्वागता, उपजाति, दोधक, शार्दूलविक्रीड़ित और वसन्ततिलका आदि ।
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प्रस्तावना
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लाने का विधान (प्र. ४३.५०), उत्कृष्ट संख्यात एवं तीन-तीन प्रकार के असंख्यात व अनन्त की प्ररूपणा (पृ. १७६-१८३), द्वीप-सागरों का बादर क्षेत्रफल आदि (पृ. ५६०-६१०), अवगाहनाविकल्प (पृ. ६१८-६४०) तथा मानुषोत्तर पर्वत के आगे स्थित चन्द्र-सूर्यादि के विन्यास व संख्या आदि की प्ररूपणा (पृ. ७६१-६७) ।
उक्त गद्य भाग में से कुछ भाग षट्खण्डागम की टीका धवला में जैसा का तैसा उपलब्ध होता है । जैसे-त्रि. प्र. पृ. ४३-४६ व धवला पु. ४, पृ. ५१-५५ तथा त्रि. प. ७६४ से ७६६ व धवला पु. ४, पृ. १५१-१५५ । यहाँ विशेषता यह है कि जैसे धवलाकार के द्वारा यह कहा गया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद सहित द्वीप-सागरों के रूप मात्र राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य प्राचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, उसकी प्ररूपणा केवल हमने त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का पालम्बन करने वाली यूक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए की है वैसे ही त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी यह कहा गया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बुद्वीप के अर्धच्छेद सहित द्वोप-समुद्रों के रूप प्रमाण राजु के अर्धच्छेद प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य प्राचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है । वह केवल त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्र का अनुसरण करने वाली है, ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का पालम्बन लेने वाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए यह प्ररूपणा कही गई है। विशेष इतना है कि धवला के उक्त सन्दर्भ में जो 'अम्हेहि (हमने)' पद उपलब्ध होता है वह यहां नहीं पाया जाता। इसके आगे धवला में जो 'प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भ' आदि लगभग दो पंक्तियाँ हैं वे भी यहाँ नहीं उपलब्ध होती हैं। मागे का 'तदो ण एत्थ' इत्यादि सन्दर्भ (३-४ पंक्तियाँ) भी प्रायः दोनों में समान हैं।
इस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्ति के इस गद्यभाग की स्थिति को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि उक्त गद्यभाग त्रिलोकप्रज्ञप्तिकार के द्वारा नहीं रचा गया है, पीछे यथाप्रसंग वह किसी अन्य के द्वारा इसमें जोड़ दिया गया हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में तीनों लोक सम्बन्धो महत्त्वपूर्ण विषषों की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है
१. सामान्यलोक-वहाँ प्रथमतः मंगल स्वरूप पंच गुरुत्रों की स्तुतिपूर्वक शास्त्रविषयक मंगल, कारण (निमित्त), हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता इन छह का व्याख्यान किया गया है (७-८४) । तत्पश्चात् लोक के प्रसंग में पल्योपम, सागरोपम, सूचि-अंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणि, जगप्रतर और लोक इन आठ प्रमाणभेदों का वर्णन किया गया है। अन्त में लोक के आधारभूत तीन वातवलयों के प्राकार व मोटाई आदि का प्रमाण दिखलाते हुए इस महाधिकार को समाप्त किया गया है।
२ नारकलोक-इस महाधिकार में १५ अधिकारों के द्वारा क्रम से नारकियों के निवास-क्षेत्र. उनकी संख्या, आयु का प्रमाण, शरीर की ऊंचाई, अवधिज्ञान का प्रमाण, उनमें सम्भव गुणस्थानादि (२० प्ररूपणायें), वहाँ उत्पन्न होने वाले जीवों की सम्भावना, जन्म और मरण का अन्तर, एक समय में उत्पन्न होने वाले व मरने वाले नारकियों की संख्या, नरकों से प्रागमन (जिन पर्यायों को वे प्राप्त कर सकते हैं), नारक आयु के बन्धयोग्य परिणाम, जन्मभूमियां, नरकों में प्राप्त होने वाला दुःख और सम्यग्दर्शनग्रहण के कारण; इन सब की प्ररूपणा की गई है।
१. धवला पु. ४, पृ.१५७ (एसा तप्पाप्रोग्गसंखेज्ज.....")। २. ति. प. २, पृ. ७६६ (एसा तप्पाउग्गसंखेज्जा.....")। ३. इस प्रकार की पद्धति प्राचीन प्राचार्य परम्परा में रही है । धवलाकार प्राचार्य वीरसेन स्वामी ने
भी इस पद्धति को अपना कर उक्त मंगलादि छह की धवला के प्रारम्भ में प्ररूपणा की है। धवला पु. १, पृ. ८-७२.
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जैन-लक्षणावली
३. भावनलोक-यहां २४ अधिकारों के द्वारा क्रम से भवनवासी देवों के निवासक्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, भवनों की संख्या, इन्द्रों की संख्या व उनके नाम, दक्षिण व उत्तर इन्द्र, उनमें प्रत्येक के भवनों का प्रमाण, अल्पद्धिक आदि भवनवासियों के भवनों का विस्तार, भवन, वेदी, कूट, जिनभवन, प्रासाद, इन्द्रविभूति, भवनवासी देवों की संख्या, प्रायुप्रमाण, शरीर की ऊंचाई, अवधिज्ञान का विषयप्रमाण, गुणस्थान आदि, एक समय में उत्पन्न होने वाले व मरने वालों की संख्या, आगति, भवनवासियों की आयु के बन्धयोग्य परिणाम व सम्यक्त्वग्रहण के कारण; इन सबका वर्णन किया गया है:
४ नरलोक-इस महाधिकार में १६ अधिकारों के द्वारा क्रम से मनुष्यलोक का निर्देश, जम्बद्वोप, लवणसमुद्र , धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करार्धद्वीप तथा इन अढ़ाई द्वीपों में स्थित मनुष्यों के भेद, संख्या, अल्पबहुत्व, अनेक भेदयुक्त गुणस्थान प्रादिकों का संक्रमण, मनुष्यायु के बन्ध के योग्य भाब, योनिप्रमाण, सुख, दुख, सम्यक्त्वग्रहण के कारण और मुक्ति प्राप्त करने वालों का प्रमाण; इन विषयों की चर्चा की गई है।
यह महाधिकार बहुत विस्तृत है । यहाँ उपर्युक्त १६ अधिकारों में से दूसरे अधिकार में जम्बूद्वीप का वर्णन करते हुए भरतक्षेत्र का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसके अन्तर्गत, आर्यखण्ड के वर्णनप्रसंग में परिवर्तमान अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालों के भेदभूत सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा कालों का वर्णन करते हुए भोगभूमियों की व्यवस्था, शलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ नारायण, ६ प्रतिनारायण) के नाम व संख्या तथा ११ रुद्रों के भी नामों का उल्लेख किया गया है। तीर्थंकरों का वर्णन करते हुए उनके जन्मस्थान आदि कितने ही ज्ञातव्य विषयों का विवेचन किया गया है। आगे भरतादि चक्रवतियों के आयुप्रमाण प्रादि का निरूपण करते हए नौ नारदों का भी निर्देश किया गया है। तीर्थकर मादि कितने भव्य जीव नियमतः मुक्ति को प्राप्त करने वाले हैं, इसकी भी सूचना यहाँ (४-१४७३) कर दी गई है ।
आगे दुष्षमाकाल के प्रसंग में गौतमादि अनुबद्ध केबलियों के धर्मप्रवर्तनकाल, अन्तिम सिद्ध व अन्तिम चारण ऋषि प्रादि, चतुर्दशपूर्वधरों आदि के अस्तित्व और श्रुततीर्थ के व्युच्छेद आदि की चर्चा की गई है । तत्पश्चात् शक, गुप्त, चतुर्मुख, पालक, विजयवंशज, मुरुण्डवंश, पुष्यमित्र, वसुमित्र-अग्निमित्र, गन्धर्व, नरवाहन, भत्थट्टण (भत्यान्ध्र), पुन: गुप्त और इन्द्रसुत चतुर्मुख कल्की, इनके राज्यकाल के प्रमाण का निर्देश किया गया है (१५०३-१०)। फिर अतिदुष्षमा काल में होने वाले परिवर्तन का निर्देश करते हुए प्रागे कम से उत्सर्पिणी के छह कालों की प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकार भरतक्षेत्र का विस्तार से वर्णन करके तत्पश्चात् हिमवान् पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महाहिमवान पर्वत रिवर्ष और निषध पर्वत का वर्णन करते हुए विदेह क्षेत्र व उसके मध्य में स्थित मेरु पर्वत की प्ररूपणा की गई है।
जिस प्रकार जम्बद्वीप के दक्षिण दिशागत क्षेत्र-पर्वतादिकों का कथन किया गया है इसी प्रकार प्रागे उसके उत्तर दिशा सम्बन्धी क्षेत्र-पर्वतादिकों का निरूपण किया गया है । तत्पश्चात् लवणसमुद्र और धातकीखण्ड द्वीप आदि का वर्णन करके मनुष्यों में गुणस्थानादि का विवेचन करते हुए इस महाधिकार को समाप्त किया गया है।
५. तिर्यग्लोक-इस महाधिकार में १६ अधिकारों के द्वारा क्रम से स्थावरक्षेत्र, उसके मध्य में तिर्यक्-त्र सक्षेत्र, नामनिर्देशपूर्वक द्वीप-समुद्रों की संख्या ब विन्यास, उनका अनेक प्रकार का क्षेत्रफल, तिर्यंचों के भेद, संख्या, प्रायु, आयु के बन्धयोग्य परिणाम, योनि, सुख-दुख, गुणस्थानादि, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, गति-प्रागति और अल्पबहुत्व; इन वर्णनीय विषयों का विवेचन किया गया है।
तीर्थकरों से सम्बन्धित उन विषयों में से लगभग ५० विषयों की एक तालिका भाग २ के परिशिष्ट ७ में १०१३-२२ पृष्ठों में दे दी गई है।
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प्रस्तावना
२३
६. व्यन्तरलोक-जिस प्रकार भावनलोक अधिकार में भवनवासी देवों की प्ररूपणा की गई है लगभग उसी प्रकार से कुछ विशेषताओं के साथ यहां व्यन्तर देवों की प्ररूपणा की गई है।
७. ज्योतिर्लोक-यहां १७ अधिकारों के द्वारा क्रम से ज्योतिषी देवों के निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण, चर ज्योतिषी देवों का संचार, अचर ज्योतिषियों का स्वरूप, प्रायु, आहार, उच्छ्वास, अवधि की शक्ति, एक समय में जन्म व मरण, आयुबन्ध के योग्य परिणाम, सम्यक्त्वग्रहण के कारण और गुणस्थानादि इन विषयों का वर्णन किया गया है।
८. सुरलोक (वैमानिक लोक)-इममें इक्कीस अधिकारों के द्वारा वैमानिक देवों के निवासक्षेत्र, विन्यास, भेद, नाम, सीमा, संख्या, इन्द्रविभूति, आयु, जन्म-मरण का अन्तर, आहार, उच्छ्वास, उत्सेध, वैमानिक देवों सम्बन्धी प्रायुबन्ध के योग्य परिणाम, लोकाभिक देवों का स्वरूप, गुणस्थानादि का स्वरूप, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, प्रागति, अवधिज्ञान का विषय, देवों की संख्या, शक्ति और योनि इन सबका वर्णन किया गया है ।
९. सिद्धलोक-इसमें ५ अधिकारों के द्वारा सिद्धों के निवासक्षेत्र, संख्या, अवगाहना, सुख और सिद्धत्व के योग्य भावों का विवेचन किया गया है।
उपर्युक्त विषय-परिचय से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में ज्ञातव्य अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का सुव्यवस्थित और प्रामाणिक विवेचन किया गया है। विषयबिवेचन की शैली को देखते हुए ग्रन्थ प्राचीन प्रतीत होता है। ग्रन्थकार के सामने जो इस विषय का पूर्व साहित्य रहा है उसका पूरा उपयोग इसमें किया गया है। यह जहाँ तहाँ प्रगट किये गये मतभेदों से सिद्ध है । ग्रन्थकार ने यथाप्रसंग म[स]ग्गायणी, मूलाचार, लोकविनिश्चय, लोकविभाग, लोकाय[यि] नी, सग्गायणी, संगाहणी और संगोयणी इतने ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
वर्तमान में जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से प्रकाशित एक 'लोकविभाग' उपलब्ध है, पर वह प्रस्तुत ग्रन्थ के बहुत बाद की रचना है। उसमें प्रस्तुत ग्रन्थ की बीसों गाथायें ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक यत्र तत्र उधुत की गई हैं। इस लोकविभाग के कर्ता सिंहसरर्षि ने अन्तिम प्रशस्ति में सर्वनन्दी विरचित एक लोकविभाग की सूचना की है। सम्भव है तिलोयपण्णत्तिकार के सामने यही लोकविभाग रहा हो, अथवा अन्य ही कोई लोकविभाग उनके सामने रहा हो।।
यह ग्रन्थ जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग इन शब्दों में दुआ है-अक्षीणमहानस, अक्षीणमहालय, अङ्गनिमित्त, अगुल, अटट, अटटाङ्ग, अणिमा, प्रद्धापल्य, अधिराज, अनीक, अनुसारी, अन्तरिक्षमहानिमित्त, प्राकाशगामित्व, आत्मागुल, आभियोग्यभावना, प्राभ्यन्तरद्रव्यमल, ग्रामौषधिऋद्धि, आवास, आशीविष, उत्कृष्ट परीतानन्त, उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय, उत्सपिणी, उत्सेधाङ्गुल, उद्धारपल्यकाल, उवसन्नासन्न, ऊर्ध्वलोक और श्रौत्पत्तिकी आदि।
२६. प्राचारांग-प्रस्तुत प्राचारांगादि श्रुत का परिचय कराने के पूर्व यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि वर्तमान संगसाहित्य के विषय में दिगम्बर (अचेलक) और श्वेताम्बर (सचेलक) परम्परा में कुछ मतभेद है। यद्यपि दोनो ही परम्परायें यह स्वीकार करती हैं कि अंग व अंगबाह्य श्रुत प्रवाहरूप से अनादि-निधन है-प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में उसका मौखिक पठन पाठन चालू रहता है, फिर भी वर्तमान में अन्तिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् जम्बूस्वामी (अन्तिम केवली) तक उक्त श्रुत का प्रवाह अविछिन्न चलता रहा। तत्पश्चात् बारह वर्ष प्रमाण भीषण दुष्काल के समय अपने संयम को स्थिर रखने की इच्छा से कुछ साधु दक्षिण की ओर और कुछ समुद्र के किनारे की ओर चले गये । इस प्रकार पठन-गुणनादि के अभाव में श्रुत सब विनष्ट हो गया। अन्त में दुष्काल १. इन मतभेदों की एक तालिका प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट (भाग २, पृ०६८७-८८) में दे दी गई है। २. इन ग्रन्थों की सूचना भी उक्त परिशिष्ट में पृ० ६६५ पर कर दी गई है।
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२४
जैन-लक्षणावली के समाप्त होने पर जब साधुसंघ एकत्रित हुआ तब एक वाचना वीर निर्वाण से लगभग १६० वर्ष के बाद पाटिलपत्र में और इसके पश्चात् दूसरी वाचना वीर निर्वाण के लगभग २४० वर्ष के बाद मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की तत्त्वावधानता में सम्पन्न हई । ठीक इसी समय एक अन्य वाचना वलभी में प्राचार्य नागार्जुन के तत्त्वावधान में भी सम्पन्न हई। इन दोनों वाचनाओं में जिस साधु को जितना श्रुत स्मृत रहा उस उसको लेकर उसे पुस्तकारूढ़ कर लिया गया। पर इन दोनों वाचनायों में एकरूपता नहीं रह सकी व पाठभेद दृष्टिगोचर होने लगा।
इसके पश्चात् वीर नि. के १८० वर्ष के लगभग एक वाचना और भी वलभी में देवद्धि गणी के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई। इस में अंग-उपांगादि रूप श्रत को पृथक-पृथक पस्तकों के कर लिया गया जो वर्तमान में उपलब्ध है। इस प्रकार इस अन्तिम वाचना में जो प्राचारांगादि का संकलन किया गया है वह गणधर सुधर्मा केवली द्वारा उपदिष्ट उसी रूप में नहीं रहा व उत्तरोत्तर उसमें कुछ हीनाधिकता भी हुई है। इस बात में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं। इसी कारण दिगम्बर परम्परा में उक्त प्राचारांगादि को प्रामाणिक न मानकर मौखिक रूप से परम्परागत गणधरग्रथित प्राचारांगादि के आश्रय से षट्खण्डागम व कषायप्राभत आदि जो पागम ग्रन्थ पारातीय आचार्यों के द्वारा रचे गये उन्हीं को आज दिगम्बर परम्परा प्रामाणिक मानती है। परन्तु श्वे. परम्परा देवद्धिगणी के द्वारा संकलित जिन आचारांगादि को प्रमाणभूत मानती है उन्हीं का परिचय यहां कराया जा रहा है। श्वे. परम्परा में इन्हें सुधर्मा द्वारा प्ररूपित और जम्बूस्वामी के द्वारा सुना गया श्रुतांग माना जाता है। प्रस्तुत प्राचा रांग बारह अंगों में प्रथम है।
इसमें मुनि के प्राचार-विशेषतः काल-विनयादिरूप पाठ प्रकार के ज्ञानाचार, निःशंकितादि रूप पाठ प्रकार के दर्शनाचार, पाठ प्रवचनमातृका (पांच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ) रूप पाठ प्रकार के चारित्राचार, बारह प्रकार के तप-प्राचार और वीर्याचार की प्ररूपणा की गई है। इसी से इसकी भावाचार संज्ञा है। प्राचार, प्रागाल, प्राकर, पाश्वास, प्रादर्श, अंग, प्राचीर्ण, प्राजाति और प्रामोक्ष ये समानार्थक शब्द हैं। यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध में ये नौ अध्ययन या अधिकार हैं- १ शस्त्रपरिज्ञा, २ लोकविजय, ३ शीतोष्णीय, ४ सम्यक्त्व, ५ लोकसार (चारित्र), ६ धूत, ७ (यह अध्याय व्युच्छिन्न हो गया है), ८ विमोक्ष, ६ उपधानश्रुत । इन नौ अध्ययनस्वरूप इस प्रथम श्रुतस्कन्ध को 'नव ब्रह्मचर्यमय' कहा गया है। इसके आठवें अध्ययन के अन्तर्गत पाठवां उद्देशक तथा सम्पूर्ण नौवाँ अध्ययन पद्यमय है। शेष अध्ययनों में यत्र क्वचित् ही पद्य उपलब्ध होते हैं-अधिकांश वे गद्यसूत्रात्मक हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचाराग्र कहा जाता है। इसमें ये पाँच चूलिकायें है। उनमें प्रथम चूलिका में सात अध्ययन है-पिण्डैषणा, शय्यषणा, ईर्या, भाषाजात, वस्त्रषणा, पात्रषणा, और अवग्रह । यहाँ भिक्षा की विधि, भोजय की शुद्धि, संस्तर-गमनागमन की विधि, भाषा, पात्र, एवं अन्य व्रतादि के विषय में विचार किया गया है। दूसरी, चूलिका सप्तसप्ततिका में भी सात अध्ययन हैं। तीसरी चूलिका का नाम भावना अध्ययन है। विमुक्ति नाम की चौथी चूलिकारूप विमुक्ति अध्ययन में अनित्यत्व, पर्वत, रूप्य, भुजगत्व और समुद्र ये पाँच अधिकार हैं। पांचवीं चूलिका निशीथ है जो एक पृथक ही ग्रन्थ में निबद्ध है।
उक्त प्राचारांग प्रथम श्रु तस्कन्ध के +द्वि. श्रु तस्कन्ध की प्रथम चूलिका के ७ + द्वितीय चलिका के ७+तृतीय का +१ और चतुर्थ का १=२५ इस प्रकार पच्चीस अध्ययनस्वरूप है। १. देखिये नंदीसुत्तचुण्णी गा. ३२, ज्योतिष्करण्डक मलय. टीका २-७१, पृ. ४१ और त्रि. श. पु. च.
परिशिष्ट पर्व ६,५५-७६. देखिये 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' भाग १, प्रकरण १, जैन श्रुत पृ. ५-१० तथा द्वितीय प्रकरण 'जैनग्रन्थों का बाह्य परिचय', पृ. ३५-३६ ।
२.
देखि
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प्रस्तावना
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आचारांग पर प्रा. भद्रबाहु द्वितीय (विक्रम की छठी शताब्दी) द्वारा विरचित नियुक्ति और शीलांकाचार्य (गुप्त संवत्सर ७७२, विक्रम की १०वीं शती) विरचित टीका है। उक्त नियुक्ति मोर टीका के साथ वह सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-असत्यामृषा भाषा आदि । ___टीका-अध:कर्म, अनिसृष्ट, अनुभावबन्ध, असत्यामृषा भाषा, आच्छेद्य, प्राजीवपिण्ड, आज्ञा, आधाकर्म, प्रायुकर्म, पाहार संज्ञा, पाहृत कर्म, उपकरण, उपाध्याय, उपपात और प्रौद्देशिक प्रादि ।
२७. सूत्रकतांग-यह बारह घंगों में दूसरा है और वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतसन्ध में १६ अध्ययन हैं-१ समयाध्ययन, २ वैतालीय अध्ययन, ३ उपसर्गाध्ययन, ४ स्त्रीपरिज्ञा, ५ नरक-विभक्ति, ६ वीरस्तुति, ७ कुसीलपरिभाषा, ८ वीर्याध्ययन, ६ धर्माध्ययन, १० समाधि-अध्ययन, ११ मार्गाध्ययन, १२ समवसरण-अध्ययन, १३ याथातथ्य अध्ययन, १४ ग्रन्थाध्ययन, १५ पादानीय (या प्रादान) और १६ गाथाध्ययन। इसमें क्रियावादी व नियतिवादी आदि मतान्तरों की समीक्षा करके स्वसमय (स्वमत) को स्थापित किया है।
द्वितीय स्कन्ध में १ पौण्डरीक अध्ययन, २क्रियास्थान, ३ माहारपरिज्ञा, ४ प्रत्याख्यान क्रिया, ५ अावार श्रुताध्ययन, ६ ग्रादकीय अध्ययन और ७ नालन्दीय अध्ययन-ये सात अध्ययन हैं। यहाँ जीव व शरीर की एकता, जगत्कर्तृत्व और नियतिवाद आदि का निराकरण करते हुए भिक्षा सम्बन्धी दोषों की प्ररूपणा की गई है। प्रथम श्रुतस्कन्धगत प्रारम्भ के १५ अध्ययन पद्यमय हैं। उनकी पद्यसंख्या इस प्रकार है-८ ७६+८२+५३+५२+२+३+२+३६+२+३+२२+२३+२७+२५%3D५५३. अन्तिम १६वा अध्ययन गद्यसूत्रात्मक हैं । उसमें ४ सूत्र हैं। द्वितीय श्रतस्कन्ध में प्रारम्भ के चार और अन्तिम एक ये पांच अध्ययन गद्यरूप हैं, शेष दो (५-६) पद्यरूप हैं । तीसरे अध्ययन में सूत्र १६ के मध्य में चार गाथायें भी हैं। गद्यसूत्र संख्या सब ८१ और पद्यसंख्या ८८ है। उक्त दोनों श्रुतस्कन्धों पर प्रा. भद्रबाहु (द्वि.) विरचित नियुक्ति है, जिसकी संख्या २०५ है । इसके अतिरिक्त शीलांकाचार्य (वि. की १०वीं शती) विरचित टीका भी है । चूणि व दीपिका आदि अन्य व्याख्यायें भी उस पर रची गई हैं। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-पादिमोक्ष इत्यादि ।
टीका-प्रक्रियावादी, अदित्साप्रत्याख्यान, अनार्य, आदिमोक्ष, ऋजुसूत्र, एवम्भूतनय और प्रोजआहार ग्रादि ।
२८. स्थानांग-तीसरा अंग स्थानांग है। यह दस स्थानकों या अध्ययनों में विभक्त है। स्थानकसंख्या के अनुसार इसमें उसी संख्या के पदार्थ या क्रिया का विवेचन किया गया है। जैसे प्रथम स्थानक में एक-एक संख्या वाले पदार्थों का विवरण इस प्रकार है-एक प्रात्मा है, एक दण्ड है, एक क्रिया है, एक लोक है, एक अलोक है, एक धर्म है, एक अधर्म है, एक बन्ध है, एक मोक्ष है, एक पुण्य है, एक पाप हैं, एक प्रास्रव है, एक संवर है, एक वेदना है, एक निर्जरा है, इत्यादि (सूत्र २-१६) । इस एकस्थान प्रकरण में ५६ सूत्र हैं।
द्वितीय स्थानक के प्रारम्भ में कहा गया है कि जो लोक में है वह दो पदों के अवतार रूप है
१. टीकाकार ने इस टीका के रचनाकाल को सूचना स्वयं इस प्रकार की है
द्वासप्तत्यधिके हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शक्लपंचभ्याम् ।। शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृत रायः ॥ पृ. २८८
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२६
जैन - लक्षणावली
-जीव व प्रजीव, त्रस व
अपने प्रतिपक्ष से सहित है । इसको स्पष्ट करते हुए आगे यह कहा गया स्थावर, सयोनिक व अयोनिक, सहायुष व अपायुष इत्यादि ( सूत्र ५७) ।
इसी द्वितीय स्थानक के सूत्र १०२ में कहा गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए इन दो मरणों का न कभी वर्णन किया है और न उन्हें प्रशस्त वतलाया है । वे दो मरण ये हैंवलन्मरण' और वशार्तमरण, निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन और तरूपतन, जलप्रवेश और ज्वलनप्रवेश तथा विषभक्षण और शस्त्रपाटन । श्रागे इसी सूत्र में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने इन दो मरणों की सदा अनुमति तो नहीं दी, पर कारणवश उनका निषेध भी नहीं किया है । वे मरण हैं वहाणस ( वैहायस) और गृध्रपृष्ठ । भगवान् ने इन दो मरणों का निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए वर्णन किया है व अनुज्ञा दी है - पादोपगमन - स्व-परकृत प्रतीकार से रहित — और भक्तप्रत्याख्यान । ये दोनों ही निर्धारिम और अनिहरिम के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । विषयविवेचन पद्धति के ज्ञापनार्थ यहाँ उपर्युक्त कुछ उदाहरण दिए गए हैं। वर्णन का यही क्रम प्रागे तीन चार आदि दस स्थानक तक समझना चाहिए । प्रस्तुत अंग की समस्त सूत्रसंख्या ७८३ है । इसके ऊपर प्रभयदेव सूरि के द्वारा टीका रची गई है। टीका का रचनाकाल लगभग विक्रम संवत् ११२० है | इस टीका के साथ इसका एक संस्करण, जो हमें प्राप्त है, शेठ माणेकलाल चुन्नीलाल अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। इनका उपयोग इन शब्दों में हुआ है:मूल - कर्मभूमि आदि ।
टीका - अधर्मद्रव्य, प्रारम्भकथा, उपपात, ऋजुसूत्र और एवम्भूत नय आदि ।
२६. समवायांग - बारह अंगों में इसका स्थान चौथा है । यह भी अभयदेव सूरि विरचित वृत्ति से महित है । इसकी विषयविवेचन पद्धति पूर्वोक्त स्थानांग के ही समान है - जिस प्रकार स्थानांग में क्रम से एक दो प्रादि संख्या वाले पदार्थों का प्रतिपादन किया गया है उसी प्रकार इस समवायांग में भी एक दो तीन आदि संख्या वाले पदार्थों का विवेचन किया गया है । विशेष इतना है कि स्थागांग में एक दो तीन श्रादि के क्रम से दस संख्या तक के पदार्थों का ही वर्णन दस स्थानक या प्रकरण हैं । परन्तु समवायांग में प्रथमतः एक दो प्रादि (१००) संख्या तक के पदार्थों का, उसके श्रागे पाँच सौ (५०० ) तक पचास पचास अधिक (१५०, २००, २५० श्रादि) संख्या वाले तथा इसके आगे ११०० तक १००-१०० अधिक संख्या वाले पदार्थों का विवरण है । तत्पश्चात् दो हजार, तीन हजार श्रादि संख्यायुक्त पदार्थों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह क्रम सागरोपम कोड़ाकोड़ी तक चलता रहा है ।
किया गया । इसीलिए उसमें क्रमिक संख्या के अनुसार सो
तत्पश्चात् सूत्र १३६ में गणिपिटक के रूप में श्राचारादि वारह अंगों के विषयादि का परिचय कराया गया है । इसके पश्चात् नारकियों आदि के श्रावास, आयु और शरीरोत्सेध आदि का निरूपण करते हुए कुलकर, तीर्थंकर और उनके पूर्वभव आदि का भी उल्लेख किया गया है । अन्त में नारायण, बलदेव एवं भविष्य में होने वाले तीर्थकरादि का निर्देश करते हुए ग्रन्थ समाप्त हुआ है । इसमें सब सूत्र १५६ हैं । बीच में कुछ गाथासूत्रों का भी उपयोग हुआ है । उक्त टीका के साथ यह मफतलाल झवेरचन्द अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसकी टीका का उपयोग अकर्मभूमिक, प्रतिस्निग्धमधुरत्व, अनुन्नादित्व, धर्मद्रव्य, अपरममवेधित्व, अभिजातत्व, अवधिमरण, असंदिग्धत्व और उपनीत रागत्व आदि शब्दों में हुआ है ।
३० व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) – यह अंगों में पांचवा श्रंग है, जो प्रायः अन्य सब अंगों में १. परीषहादिसे उद्विग्न होकर संयम से च्युत होते हुए जो मरण होता है वह बलन्मरण कहलाता है । २. वृक्ष की शाखा प्रादि में बन्धन ( फांसी) से जाकाश में मरण होता है उसे वेहाणस मरण कहा जाता है । गिद्धों से पीठ पेट श्रादि नुचवा कर जो मरण स्वीकार किया जाता है वह गृध्रपृष्ठ मरण कहलाता है ।
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प्रस्तावना
२७
विशालकाय है। ग्रन्थप्रमाण से यह १५००० श्लोक प्रमाण है । इसमें ४१ शतक और इन शतकों में अवान्तर अधिकार रूप और भी अनेक शतक हैं। यहाँ सर्वप्रथम मंगलरूप में पंचनमस्कारमंत्र-'णमो मरिहंताणं' आदि प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। तदनन्तर राजगृह नगर, राजा श्रेणिक और उसकी पत्नी चिल्लना का निर्देश करते हुए भगवान् महावीर और उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति (गौतम) के गुणों का कीर्तन किया गया है । इसमें नरक, स्वर्ग, इन्द्र, सूर्य, गप्ति-प्रागति, पृथिवीकायादि, केवली का जानना-देखना, कृतयुग्मादि संख्याविशेष और लेश्या प्रादि अनेक विषयों का निरूपण प्रश्नोत्तर की पद्धति से किया गया है। प्रमुख प्रश्नकर्ता गौतम गणधर रहे हैं। इनके अतिरिक्त दूसरों के द्वारा भी यथावसर प्रश्न पूछे गए हैं। उनमें पाश्र्वापत्य-पार्श्वनाथ परम्परा के शिष्य-भी हैं। उक्त विषयों के सिवाय यहाँ कितने ही राजा, सेठ और श्रावक आदि का भी वर्णन किया गया है। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। इसका उपयोग अङ्गारदोष, अङ्गुल, अबुद्धजागरिका, पालापनबन्ध, उच्चयबन्ध, उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका और उच्छवास नामकर्म आदि शब्दों में हमा है।।
३१. प्रश्नव्याकरणांग-इसकी कोई भी प्रति हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। समवायांग' और नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत अंग में मंत्रविद्या प्रादि से सम्बद्ध १०८ प्रश्न १०८ अप्रश्न और १०८ प्रश्नाप्रश्नों का निर्देश किया गया है। इसमें ४५ अध्ययन हैं।
वर्तमान प्रश्नव्याकरण में यह सब नहीं हैं । श्री पं. बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि बर्तमान प्रश्नव्याकरण किसी गीतार्थ पुरुष के द्वारा रचा गया है।
इसमें हिंसादिरूप पांच प्रास्रवों और अहिंसादिरूप पाँच संवरों का विस्तार से कथन किया गया हैं । इसकी टीका का उपयोग प्रारम्भ और प्रारम्भ-समारम्भ आदि शब्दों में हुअा है।
३२. विपाकसत्रांग-यह ग्यारहवाँ अंग है, जो दुःखविपाक और सुखविपाक इन दो श्रतस्कन्धों में विभक्त है । दुखविपाक में ये दस अध्ययन हैं-१ मृगापुत्र, २ कामध्वजा-उज्झितक, ३ अभग्नसेन, ४ शकट, ५ वृहस्पतिदत्त, ६ नन्दिमित्र, ७ उम्बरदत्त, ८ शौर्यदत्त, ६ देवदत्त और १० अंज । इसी प्रकार दूसरे श्रुतस्कन्ध में भी दस ही अध्ययन हैं-१ सुबाहुकुमार, २ भद्रनन्दीकुमार, ३ सुजातकुमार, ४ सुवासवकुमार, ५ जिनदास, ६ धनपति युवराजपुत्र, ७ महाबलकुमार, ८ भद्रनन्दीकुमार, ६ महाचन्द्र कुमार और १० वरदत्तकुमार। ये २० कथायें यहाँ दी गई हैं। इनमें प्रारम्भ के १० पात्र दुःख के परिणाम के भोक्ता तया अन्तिम १० पात्र सुख के परिणाम के भोक्ता हुए हैं। अभयदेव सूरि (विक्रम की १२वीं शती) विरचित टीकायुक्त जो संस्करण इसका हमारे पास है वह गुजरात ग्रन्थरत्न कार्यालय अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसकी टीका का उपयोग उपप्रदान व कनङ्गर आदि शब्दों में हुआ है।
३३. प्रौपपातिक सत्र-यह १२ उपांगों में प्रथम उपांग माना जाता है। इसके ऊपर अभयदेव सूरि विरचित विवरण है। इसके प्रारम्भ में उन्होंने उपपात का अर्थ देव-नारकजन्म व सिद्धिगमन करते हुए उसके आश्रय से प्रौपपातिक अध्ययन बतलाया है। साथ ही उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के अन्तर्गत प्रथम उद्देशक में जो 'एवमेगेसिं' आदि प्रथम सूत्र है उसमें आत्मा को प्रोपपातिकत्व निर्दिष्ट किया गया है। उसका चूंकि इसमें विस्तार है, अतः इसे प्राचारांग का उपांग समझना चाहिए।
इसमें चन्पा नगरी, पूर्णभद्र चैत्य, वनखण्ड, अशोक वृक्ष और पृथिवीकायिक का उल्लेख करते हुए वहाँ (चम्पानगरी में) कूणिक राजा का निवास बतलाया है और उसका एवं धारिणी रानी का वर्णन किया गया है। यह कूणिक भंभसार (बिम्बसार) का पुत्र था। प्रागे महावीर भगवान् का गुणानुवाद करते हुए उक्त पूर्णभद्र चैत्यगृह में उनके आगमन का निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् अनगार व बाह्य एवं अभ्यन्तर तप ग्रादि अनेक प्रासंगिक विषयों की चर्चा की गई है। भगवान् महावीर के आने का समाचार १. समवायांग सूत्र १४५, पृ० ११४. २. नंदीसुत्त ६४, पृ. ६६, ३. देखिये जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. १, पृ. २४८.
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जैन - लक्षणावली
ज्ञात कर रानियों के साथ राजा कूणिक ने जाकर यथाविधि उनकी वन्दना आदि की और तत्पश्चात् धर्मश्रवण किया । इस धर्मदेशना में भगवान् महावीर के द्वारा लोक प्रलोक, जीव-ग्रजीव, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, श्रस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नारक, तिर्यच, तियंचनी, माता-पिता एवं ऋषि श्रादि कितने ही विषयों के अस्तित्व का निरूपण किया गया था। यह धर्मदेशना भार्य-अनार्यों की अपनी-अपनी भाषा में परिणत होने वाली अर्धमागधी भाषा में की गई थी । यह क्रम ३७वें सूत्र तक चलता रहा है ।
तत्पश्चात् श्रद्धालु गौतम को कुछ विषयों में सन्देह उत्पन्न हुए । तब उन्होंने वीर प्रभु से कर्मों के आस्रव व बन्धादि से सम्बन्धित कुछ प्रश्न किए, जिनका भगवान् ने समाधान किया । इसी प्रसंग में विविध प्रकार के जीव किस प्रकार से मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं, इत्यादि का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें ४३ सूत्र हैं व अन्त में सिद्धों के प्रकरण से सम्बन्धित २२ गाथाये हैं । ग्रन्थप्रमाण १६०० है ।
उक्त अभयदेव सूरिविरचित वृत्ति के साथ यह आगमोदय समिति द्वारा निर्णयसागर मुद्रणालय बम्बई से प्रकाशित कराया गया है । इसकी टीका उपयोग प्रर्हन् और श्रमरणान्त दोष आदि शब्दों में किया गया है ।
३४. राजप्रश्नीय - यह बारह उपांगों में दूसरा । इस पर प्राचार्य मलयगिरि (विक्रम की १२-१३वीं शताब्दी) विरचित टीका है । सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि प्रा. हेमचन्द्र के समकालीन रहे हैं । उनके द्वारा राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम और ग्रावश्यकसूत्र आदि अनेक आगम ग्रन्थों पर जो टीकायें रची गई हैं वे अतिशय महत्त्वपूर्ण हैं । ये टीकायें ग्रन्थ के रहस्य को भलीभांति स्पष्ट करने वाली हैं। कहा जाता है कि प्रा. मलयगिरि को उनकी इच्छानुसार विमलेश्वर देव से इस प्रकार की उत्तम टीकाओं के लिखने का वर प्राप्त हुआ था ।
प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ में ग्रन्थ के नाम यादि के विषय में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रदेशी नामक राजा नै केशिकुमार श्रमण - भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य - से जीवविषयक जिन प्रश्नों को किया था और केशिकुमार श्रमण ने उनका जो समाधान किया था, उससे समाहितचित्त होकर वह बोधि को प्राप्त हुआ । पश्चात् वह शुभ परिणामों के साथ मर कर सौधर्म स्वर्ग में विमान का अधिपति हुआ । वहाँ वह अवधिज्ञान के बल से भगवान् वर्धमान स्वामी को देखकर भक्ति से नम्र होता हुआ उनके समीप श्राया । उसमे वहाँ बत्तीस प्रकार का अभिनय किया। नृत्य के पश्चात् श्रायु के समाप्त होने पर वहां से च्युत होकर वह मुक्ति को प्राप्त करेगा । यह सब चर्चा प्रस्तुत उपांग में है । इस सबका मूल कारण चूंकि प्रदेशी राजा के उक्त प्रश्न रहे हैं, अतएव इसका नाम 'राजप्रश्नीय' प्रसिद्ध हुआ है ।
इसमें सब सूत्र ४५ हैं । जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में क्रम से चम्पा नगरी आदि का वर्णन किया गया है उसी क्रम से यहां प्रारम्भ में श्रामलकल्पा नगरी आदि का वर्णन किया गया है । चम्पा नगरी का राजा जहाँ कूणिक था वहाँ इस नगरी का राजा से (श्वेत) नाम का था । कूणिक की रानी का नाम जैसे धारिणी था, इस राजा की रानी का नाम भी धारिणी था । उक्त क्रम से वर्णन करते हुए आगे पूर्वनिर्दिष्ट सौधर्म कल्पवासी सूर्याभ देव कौ विभूति - विशेषतः विमानरचना - का वर्णन किया गया है। आगे यथावसर ३२ प्रकार की नाट्यविधि का उल्लेख किया गया है (सू. २४, पृ. १११-१३) । यह वर्णन २५वें सूत्र में समाप्त हुग्रा | तत्पश्चात् सूर्याभ देव के पूर्वभव
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३, पृ. ४१५-१६.
२. प्रा. मलयगिरि ने टीका में इसकी सूचना भी इस प्रकार की है - 'जाव समोसरणं समत्तं' इति यावच्छन्दकरणात् राजवर्णको देवीवर्णकः समवसरणं चौपपातिकानुसारेण तावद् वक्तव्यं यावत् समवसरणं समाप्तम् । सू. ४, पृ. २०. अशोक पादप और शिलापट्ट के वर्णन की सूचना ग्रन्थकार के द्वारा स्वयं इस प्रकार की गई है - असोयवरपायवपुढविसिलावट्टयवत्तव्वया ग्रोव वाइयगमेणं
नेया । सूत्र ३, पृ. ७.
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प्रस्तावना
२६
- राजा प्रदेशी - का वर्णन करते हुए जीव व शरीर को एक मानने वाले राजा के पूर्वोक्त प्रश्नों और उनके समाधान आदि को प्रगट किया गया है। प्रश्न करते हुए गौतम गणचर के वर्णन प्रसंग में प्रा. मलयगिरि ने पाठान्तर की सूचना भी की है । यथा - पुस्तकान्तरे त्विदं वाचनान्तरं दृश्यते - तेण कालेणं तेण समएणं...... सू. २६, पृ. ११८. इसका एक संस्करण, जो हमारे पास है, खडयाता ( Khada - yata) बुक डिपो अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसकी टीका का उपयोग अति स्निग्धमधुरत्व, अनुनादित्व अपरममवेधित्व, अभिजातत्व, असंदिग्धत्व और उपनीतरागत्व आदि शब्दों में हुआ है । ३५. जीवाजीवाभिगम - यह तीसरा उपांग है । इसके ऊपर भी प्रा. मलयगिरि विरचित विस्तृत टीका है । टीकाकार ने प्रस्तुत उपांग का सम्बन्ध तीसरे स्थानांग से बतलाया है। इसमें नौ प्रतिपत्ति या प्रकरण हैं । सूत्रसंख्या २७२ है । मूल ग्रन्थ का प्रमाण ४७५० और टीका का प्रमाण १४००० है | जैसा कि ग्रन्थ के नाम से प्रकट है, इसमें गौतम गणधर के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तररूप में जीव व अजीव के भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई है । साथ ही यथाप्रसंग अन्य भी अनेक विषय उसमें समाविष्ट हैं । जैसे - रत्न - शर्कराप्रभादि पृथिवियां, द्वीप समुद्र, विजयद्वार, रत्नभेद, शस्त्रभेद, धातुभेद, मद्यभेद, पात्रभेद एवं आभूषणभेद आदि । उक्त प्रतिपत्तियों में तीसरी प्रतिपत्ति अत्यधिक विस्तृत है ( सूत्र ६५-२२३, पृ. ८८-४०७ ) । विवक्षित प्रतिपत्ति के प्राद्य सूत्र में जितने जीवभेदों का निर्देश किया गया है तदनुसार प्रतिपत्ति की संज्ञा की गई प्रतीत होती है । जैसे त्रिविधा नाम की द्वितीय पतिपत्ति में जीव के स्त्री, पुरुष और नपुसंक इन तीन प्रकारों की प्ररूपणा की गई है । चतुविधा नाम की तृतीय प्रतिपत्ति में जीव के नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों की, पंचविधा नाम की चतुर्थ प्रतिपत्ति में जीव के एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय श्रादि पांच भेदों की; इस क्रम से अन्तिम दशविधा नाम की नौवीं प्रतिपत्ति में जीव के इन दस प्रकारों की प्ररूपणा की गई है - प्रथमसमय एकेन्द्रिय, प्रथम-समय-एकेन्द्रिय, प्रथम-समय- द्वीन्द्रिय, श्रप्रथम समय द्वीन्द्रिय आदि ।
इसका एक संस्करण मलयगिरि विरचित वृत्ति के साथ सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसकी टीका का उपयोग श्रग्निकुमार, श्रद्धासमय, अधर्मद्रव्य, अनाहारक, उच्छ्वास और उच्छ्वासपर्याप्ति श्रादि शब्दों में हुआ है ।
३६. प्रज्ञापनासूत्र - यह श्यामार्य वाचक विरचित चोथा उपांग है | श्यामार्य का अस्तित्व महावीर निर्वाण के ३७६ वर्ष पश्चात् बतलाया जाता है'। इसके ऊपर भी पूर्वोक्त प्रा. मलयगिरि के द्वारा टीका रची गई है । यहाँ मंगल के पश्चात् "वायगवरवं साम्रो" आदि दो गाथायें प्राप्त होती हैं । उनकी व्याख्या करते हुए मलयगिरि ने उन्हें अन्यकर्तृक वतलाया है । इन गाथाओं में श्रुत सागर से चुनकर उत्तम श्रुत-रत्न के प्रदाता आर्य श्याम को नमस्कार करते हुए उन्हें वाचक वंश में तेईसवें निर्दिष्ट किया गया हैं । साथ ही 'पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धि' इस विशेषण द्वारा उनके महत्व को प्रगट किया गया है । मलयगिरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ को चौथे समयायांग में प्ररूपित विषय का प्रतिपादक होने से उसका उपांग सूचित किया है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न ३६ पद हैं, जिनकी वहाँ क्रम से प्रश्नोत्तर के रूप में प्ररूपणा की गई है— १ प्रज्ञापना, २ स्थान, ३ बहुवक्तव्य, ४ स्थिति, ५ विशेष, ६ व्युत्क्रान्ति, ७ उच्छ्वास, ८ संज्ञा, ६ योनि, १० चरम, ११ भाषा, १२ शरीर, १३ परिणाम, १४ कषाय, १५ इन्द्रिय, १६ प्रयोग, १७ लेश्या, १८ कार्यस्थिति, १६ सम्यक्त्व, २० अन्तक्रिया, २१ अवगाहनासंस्थान, २२ क्रिया, २३ कर्म, २४ कर्म१. 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' भाग २, पृ. ८३.
२. येनेयं सत्त्वानुग्रहाय श्रुत- सागरादुद्धृता प्रसाबप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विघानां नमस्काराहं इति तनमस्कारविषयमिदमपान्तराल एवान्यकतृ के गाथाद्वयम् । पृ. ५/१
३. नन्दीसूत्र में निर्दिष्ट स्थविरावली ( २२-४२ ) में श्यामार्य का उल्लेख गा. २५ में उपलब्ध होता है ।
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जैन-लक्षणावली
बन्धक, २५ कर्मवेदक, २६ वेदबन्धक, २७ वेदवेदक २८ अाहार, २६ उपयोग, ३० स्पर्शनता, ३१ संज्ञी, ३२ संयम, ३३ अवधि, ३४ प्रविचारणा, ३५ वेदना और ३६ समुद्घात । इसमें समस्त सूत्रों की संख्या ३४६ है। बीच में कहीं-कहीं कुछ गाथा सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। मूल ग्रन्थ का प्रमाण ७७८७ है। टीका के अन्त में
रि ने अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि टीकाकार वे हरिभद्र सरि जयवन्त रहें, जिन्होंने इस ग्रन्थ के विषम पदों के भाव को स्पष्ट किया है तथा जिनके वचन के प्रभाव से मैंने लेशरूप में इस विवृति को रचा है। यह मलयगिरि विरचित उस टीका के साथ प्रागमोदय समिति मेहसाना से प्रकाशित हमा है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुपा है
मूल-अणुतटिकाभेद और अपरीतसंसार आदि ।
टीका-प्रद्धाद्धामिश्रिता, अनन्तानुबन्धी, अनादेयनाम, अनानुगामिक अवधि और आवजितकरण आदि ।
३७. सूर्यप्रज्ञप्ति-यह ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं हो सका। इसका कुछ परिचय यहां 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भा० २, पृ०१०५)' के अनुसार दिया जा रहा है। यह पांचवां उपांग है। इसके ऊपर भी प्रा. मलयगिरि की टीका है। इसमें २० प्राभूत और १०८ सूत्र हैं, जिनके पाश्रय से सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रों आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुश्रा है
मल-अभिवद्धित संवत्सर आदि । टीका-अनगार, अभिवद्धि त संवत्सर और आदित्य आदि ।
३८. जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति-यह छठा उपांग है। इसके ऊपर शान्तिचन्द्र वाचकेन्द्र (विक्रम की १६-१७वीं शती) विरचित प्रमेयरत्नमञ्जूषा नाम की एक टीका है । टीकाकार ने १२ अंगों के साथ १२ उपांगों का सम्बन्ध जोड़ते हुए प्रस्तुत छठे उपाँग का सम्बन्ध ज्ञाताधर्मकथांग से बतलाया है (पृ. १-२)। मंगलाचरण के बाद तीसरे श्लोक में उन्होंने इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि द्वारा रची गई टीका की सूचना करते हुए उसे संशय-ताप का नाशक कहा है। आगे चलकर उन्होंने सभी अंगों और उपांगों के टीका. कारों का नामोल्लेख करते हुए यह कहा है कि प्रस्तुत उपांग की वृत्ति श्री मलयगिरि के द्वारा की जाने पर भी वह इस समय कालदोष से व्यवछिन्न हो गई है। इसी प्रकरण में उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि वीरनिर्वाण के पश्चात् एक हजार (१०००) वर्ष में दृष्टिवाद व्यवच्छिन्न हो गया, इस कारण उसके विवरण का प्रयोजन नहीं रहा।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ७ वक्षस्कार (अधिकार) हैं। प्रत्येक वक्षस्कार की अन्तिम पुष्पिका में टीकाकार ने अपने को अकबर के शासनकाल में उसे धर्मोपदेश से विस्मित करने वाले श्रीमत्तपागच्छाधिराज श्री हीरविजयसूरीश्वर के पाद-पद्मों की उपासना में प्रवण महोपाध्याय श्री सकलचन्द्र गणी का शिष्य उपाध्याय श्री शान्तिचन्द्र गणी बतलाया है।
इसमें जम्बूद्वीपगत भरतादि सात क्षेत्र, कुलाचल, सुदर्शनमेरु, जम्बूद्वीप की जगती, विजयद्वार, संख्यामान, सुषमसुषमादिकाल, दुःषमसुषम काल में होने वाले तीर्थकर व चक्रवर्ती आदि, चक्रवर्ती के दिग्विजय और सूर्यचन्द्रादि ज्योतिषियों की प्ररूपणा की गई है। समस्त सूत्रसंख्या १७८ और मलग्रन्थ का प्रमाण ४१४६ अन्त में ५१ श्लोकों द्वारा टीकाकार ने अपनी प्रशस्ति दी है। इसका उपयोग टीका के आश्रय से अनगार, अनुगम और अनुयोग आदि शब्दों में किया गया है।
३६. उत्तराध्ययन सत्र-यह मूल सूत्रों में प्रथम माना जाता है। इसका रचनाकाल महावीर निर्वाण से लेकर लगभग १००० वर्षों में माना जाता है । कारण इसका यह है कि छत्तीस अध्ययनस्वरूप यह र क संकलन ग्रन्थ है, जिसका रचयिता कोई एक नहीं है-महावीर निर्वाण से लेकर उक्त हजार वों के भीतर विभिन्न स्थविरों के द्वारा इसके विभिन्न अध्ययनों का संकलन किया गया प्रतीत होता है।
है, तत्र प्रस्तुतोपाङ्गस्य वृत्ति: श्रीमलयगिरिकृतापि संप्रति कालदोषेण व्यवच्छिन्ना । पृ. २११. २. उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन' पृ. २६-३७.
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३१
उत्तराध्ययन में 'उत्तर' शब्द के अर्थ नियुक्तिकार ने नाम-स्थापना श्रादि के भेद से अनेक प्रकार बतलाये हैं । उनमें यहाँ क्रमोत्तर की विवक्षा की गई है, जिसका अभिप्राय यह है कि ये अध्ययन चूंकि आचारांग के उत्तर (आगे) पढ़े गये अतएव इन्हें उत्तर अध्ययन जानना चाहिए' । वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने यहां कुछ विशेषता प्रगट करते हुए यह निर्देश किया है कि यह उत्तर का क्रम शय्यम्भव - दशवेकालिक के कर्ता-तक ही समझना चाहिये । इसके पश्चात् वे—उक्त अध्ययनों में से कुछ - दशवेकालिक के बाद पढ़े जाते हैं। आगे चलकर नियुक्तिकार ने उक्त अध्ययनों को श्रंगप्रभवदृष्टिवाद अंग से उत्पन्न (जैसे द्वितीय परीषद्दाध्ययन), जिन भाषित - महावीर प्रणीत (जैसे द्रुमपुष्पिका नाम का दसवां अध्ययन ), प्रत्येकबुद्धों - कपिलादिकों से उत्पन्न ( जैसे कापिलीय नाम का आठवां अध्ययन ), तथा संवाद से - केशिकुमार और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर से उत्पन्न ( जैसे केशि- गौतमीय नाम का तेईसवां अध्ययन ) बतलाया है' ।
इसमें मुनि के प्राचार का विवेचन किया गया है साथ ही अनेक उदाहरणों द्वारा उपदेशात्मक पद्धति से वस्तुस्वरूप का भी परिज्ञान कराया गया है । इसमें ये छत्तीस अध्ययन हैं - १ विनयाध्ययन, २ परीषहाध्ययन, ३ चतुरङ्गीय, ४ असंस्कृत, ५ प्रकाममरणीय, ६ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय, ७ श्ररभ्यीय, ८ कापिलीय नमिप्रव्रज्या, १० द्रुमपत्रक, ११ बहुश्रुतपूजा, १२ हरिकेशीय, १३ चित्रसम्भूतीय, १४ इषुकारीय, १५ सभिक्षु, १६ ब्रह्मचर्य समाधि १७ पापश्रमणीय, १८ संयतीय (संजय), १६ मृगापुत्रीय, २० महानिर्ग्रन्थीय, २१ समुद्रपालीय, २२ रथनेमिीय, २३ केशि गौतमीय, २४ प्रवचनमातृ, २५ यज्ञीय, २६ सामाचारी, २७ खलुङ्कीय, २८ मोक्षमार्गीय, ३१ चरणविधि, ३२ प्रमाद, ३३ कर्मप्रकृति, ३४ लेश्या, विभक्ति । इसके ऊपर बृहद्गच्छीय नेमिचन्द्राचार्य (वि. सं.
२६ सम्यक्त्वपराक्रम, ३० तपोमार्गगति, ३५ अनगारमार्गगति और ३६ जीवाजीव१९२९) विरचित सुखबोधा नाम की टीका
I
। इस टीका के साथ वह पुष्पचन्द्र क्षेमचन्द्र वलाद ( अहमदाबाद ) के द्वारा प्रकाशित कराया गया है । इसके अतिरिक्त प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय (वि. की छठी श.) विरचित नियुक्ति तथा वादिवेताल शान्तिसूरि (वि. की ११वीं शती - मृत्यु सं. १०६६) विरचित शिष्यहिता नाम की टीका सहित प्रथम चार अध्ययन रूप एक संस्करण सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसकी जिनदास गणिमहत्तर (विक्रम की ७वीं शताब्दी) विरचित चूर्णि श्री ऋषभदेव केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुई है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ हैमूल - श्रचेलपरीषहजय, अधर्मद्रव्य, अनास्रव, अनुभाव, श्राक्रोशपरीषहजय, श्राज्ञारुचि श्रौर उपदेशरुचि श्रादि ।
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प्रस्तावना
नि. - अचित्तद्रव्योपक्रम, अनभिप्रेत, अनादिकरण, अनुलोम, श्रात्मसंयोग और प्रशंसा श्रादि । चू. - अनुगम, अनुभाव, श्रवधिमरण और श्रात्यन्तिकमरण आदि ।
टी. - अनादिकरण, प्राक्रोशपरीषहजय श्रीर श्रागमद्रव्योत्तर श्रादि ।
४०. श्रावश्यकसूत्र - इसमें प्रतिदिन नियम से की जानेवाली दैनिक क्रियाओं का निरूपण किया गया है। ऐसी क्रियाएं छह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग श्रीर प्रत्याख्यान | इनका प्ररूपक होने से वह इन्हीं नामों वाले छह अध्ययनों में विभक्त
इस पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय (विक्रम की छठी शताब्दी) द्वारा विरचित नियुक्ति, श्राचार्य जिनभद्र गणी (विक्रम की ७वीं शताब्दी) द्वारा विरचित भाष्य, तथा एक टीका हरिभद्र सूरि (वि. की ८वीं शताब्दी) द्वारा विरचित और दूसरी प्राचार्य मलयगिरि ( विक्रम की १२ - १३वीं शताब्दी) द्वारा १. कमउत्तरेण पगयं श्रायारस्सेव उवरिमाई तु । तम्हा उ उत्तरा खलु ग्रज्झयणा हुति णायव्वा ॥ उत्तरा. नि. ३.
२. विशेषश्चायम् । यथा - शय्यम्भवं यावदेष क्रमः तदाऽऽरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्ते ३. उत्तरा. नि. ४.
इति । पृ. ५.
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३२
जन-लक्षणावली
विरचित ये दो टीकायें भी हैं। इनके अतिरिक्त हरिभद्र सूरि विरचित टीका पर मलधारगच्छीय मा. हेमचन्द्र (विक्रम की १२ वीं श.) विरचित एक टिप्पण भी है। जिस भाष्य का ऊपर उल्लेख किया गया है वह संक्षिप्त है, उसकी सब गाथायें विशेषावश्यक भाष्य में सम्मिलित हैं । नियुक्तियों की गाथा संख्या १४१७ (प्रतिक्रमणान्त) और भाष्यगाथासंख्या २२७ है। उक्त आवश्यकसूत्र नियुक्ति और हरिभद्र विरचित वृत्ति के साथ प्रथम सामायिक अध्ययन तक पूर्व भाग के रूप में तथा २ से ४ अध्ययन तक दूसरे भाग के रूप में प्रागमोदय समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित हया है। वही नियुक्ति और मलय. गिरि विरचित टीका के साथ नि. गा. ५४२ तक पूर्व भाग के रूप में तथा नि. गा. ५४३ से ८२६ तक द्वि. भाग के रूप में आगमोदय समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। नि. गा. ८३०-१०६६ तक तृतीय भाग के रूप में देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत द्वारा प्रकाशित किया गया है। इन तीन भागों में सामायिक और चतविशतिस्तव ये दो ही अध्ययन पा सके हैं। प्रागे के भाग हमें उपलब्ध नहीं हो सके। म. ग. हेमचन्द्र विरचित टिप्पणक सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ है
मूल-अङ्गारकर्म आदि। नि.---अनुयोग, अनुसन्धना, अर्थसिद्ध, पागमसिद्ध, प्राप्रच्छना और आवश्यकनियुक्ति प्रादि । भा.-उत्तरप्रयोगकरण प्रादि । चूर्णि-अक्षीणमहानसिक और अनुमान आदि । ह. वृत्ति-अङ्गारकर्म, अनुमान, अनुयोग, अपददोष, अपरिगृहीतागमन और अप्रत्याख्यान
क्रोध आदि । म. वृत्ति-अक्षीणमहानस और इत्वरपरिहारविशुद्धिक आदि । हे. टिप्पण-अधोलोक आदि ।
. दशवकालिक-इसके रचयिता आचार्य शय्यम्भव हैं । इसके ऊपर प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय विरचित नियुक्ति और प्राचार्य हरिभद्र विरचित टीका है। कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में नियुक्तिकार के द्वारा कहा गया है कि सामायिक (अावश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन के लिए चूंकि यह विगत पौरुषी में शय्यसम्भव के द्वारा रचा गया है-पूर्वगत से उद्धृत किया गया है, अतएव इसे दशकालिक कहा जाता हैं। आगे उपर्युक्त शय्यसम्भव की वन्दना करते हुए यह निर्देश किया गया है कि मैं (नियुक्तिकार) मनक नामक पुत्र के जनक उन शय्यम्भव गणघर-ज्ञान-दर्शनादिरूप धर्म-गण के धारक-की वन्दना करता हैं जिन्होंने जिनप्रतिमा के दर्शन से प्रतिबोध को प्राप्त होकर दशकालिक का उद्धार किया है। इसके टीकाकार हरिभद्र सूरि ने इस सम्बन्ध में निम्न कथानक प्रस्तुत किया है
अन्तिम तीर्थकर श्री वर्धमान स्वामी के शिष्य गणधर सुधर्म उनके तीर्थ के स्वामी हुए। तत्पश्चात् उनके भी शिष्य जम्बस्वामी और उनके शिष्य प्रभव हुए। प्रभव को एक समय यह चिन्ता हुई कि भविष्य में मेरा गणघर कौन होगा। इसके लिए उन्होंने अपने गण और संघ में सब ओर दृष्टि डाली, पर उन्हें वहां कोई इस परम्परा का चलाने वाला नहीं दिखा । तब उन्होंने गृहस्थों में देखा । वहाँ उन्हें राजगृह में यज्ञ कराने वाला शय्यम्भव ब्राह्मण दिखा। यह देखकर उन्होंने राजगृह नगर में आकर दो साधूओं को भिक्षार्थ यज्ञस्थल में जाने को कहा। साथ ही उन्होंने यह भी सूचना की कि यदि कोई तुम्हें रोके तो तुम कहना "खेद है कि तत्त्व को नहीं जानते"। वहां उनके पहुँचने पर वही हुआ और उन्होंने भी वैसा ही कहा । उसे द्वार पर स्थित शय्यम्भव ने सुना । वह सोचने लगा कि शान्त तपस्वी असत्य १. सामाइयअणुकमग्रो वण्णे विगयपोरिसीए ऊ ।
णिज्जढं किर सेज्जंभवेण दसकालियं तेण ।। नि. १२. २. सेज्जंभवं गणधरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं ।
मणगपिअरं दसकालियस्स णिज्ज हगं वंदे ॥ नि. १४.
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प्रस्तावना
३३ महीं बोल सकते । यही सोचकर वह अध्यापक के पास गया और बोला--"तत्त्व क्या है ?" उत्तर में अध्यापक ते कहा-"तत्त्व वेद है" । तब उसने तलवार को खेंचते हुए कहा कि यदि तुम तत्त्व को नहीं कहोगे तो शिर काट दूगा । इसपर प्रध्यापक बोला कि मेरा समय पूर्ण हो गया, वेदार्थ में यह कहा गया है। फिर भी शिरच्छेद के भय से कहना ही चाहिए, सो जो यहाँ तत्त्व है उसे कहता हूँ। इस यूप (यज्ञकाष्ठ) के नीचे सर्व रत्नमयी अरिहंत की प्रतिमा है, बह शाश्वतिक है। इस प्रकार अरिहंत का धर्म तत्त्व है। तब वह उसके पैरों में पड़ गया। अन्त में उसने यज्ञस्थल की सामग्री को उसे संभला दिया और वह उन साधुनों को खोजता हुअा आचार्य (प्रभव) के पास पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने आचार्य और उन दोनों साधुनों की वन्दना की । फिर उसने धर्म के कहने के लिए प्रार्थना की। तब प्राचार्य ने उपयोग लगा कर जाना कि यह वही (शय्यम्भव) है। यह जानकर प्राचार्य ने साधु के धर्म का उपदेश दिया । उसे सुनकर प्रबोध को प्राप्त होते हुए उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। वह चौदह पूर्वो का ज्ञाता हो गया।
जब उसने दीक्षा ग्रहण की थी तब उसकी पत्नी गर्भवती थी। लोगों ने उससे पूछ। कि तेरे पेट में कृछ है क्या ? उसने उत्तर में 'मनाक-कुछ है तो' कहा । अन्त में यथासमय पुत्र के उत्पन्न होने पर उसके पूर्वोक्त उत्तर को लक्ष्य में रखकर उसका नाम 'मनक' प्रसिद्ध हमा। पाठ वर्ष का हो जाने पर उसने माँ से पिता के विषय में पूछा । उसके उत्तर से पिता को दीक्षित हुआ जानकर वह उनके पास चम्पा नगरी में जा पहुंचा और पारस्परिक वार्तालाप के पश्चात वह भी दीक्षित हो गया। प्राचार्य ने विशिष्ट ज्ञान से यह जानकर कि इसकी प्रायू छह मास की शेष रही है, उन्होंने उसके निमित्त प्रकृत ग्रन्थ की १० अध्ययनों में रचना की। साधारणतः स्वाध्याय व ग्रन्थ रचना दिन व रात्रि के प्रथम और अन्तिम इन चार पहरों में ही की जाती है, पर शीघ्रता के कारण इसकी रचना काल की अपेक्षा रखकर नहीं की जा सकी। अतः विकाल में रचे और पढ़े जाने के कारण उसे दशवकालिक कहा गया है । अथवा इसका दसवां अध्ययन चूकि वेताल छन्द में रचा गया है, इसलिए भी इसका नाम दशवकालिक सम्भव है।
जैसा कि कथानक में निर्देश किया गया है, इसमें वे दस अध्ययन ये हैं-१ द्रुमपुष्पिका, २ श्रामण्यपूर्विका, ३ क्षुल्लिकाचारकथा, ४ षड्जीवनिकाय, ५ पिण्डषणा, ६ महाचारकथा, ७ वाक्यशुद्धि, ८ प्राचारप्रणिधि, ६ विनयसमाधि और १० सभिक्षु । अन्त में रतिवाक्यचूलिका और विविक्तचर्याचूलिका ये दो चूलिकायें हैं।
नियुक्तिकार के अनुसार इनमें धर्मप्रज्ञप्ति-षड्जीवनिकाय नामक चौथा अध्ययन-प्रात्मप्रबाद पूर्व से, पांचवां (पिण्डैषणा) कर्मप्रवाद पूर्व से, वाक्यशुद्धि नामक सातवां अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन नौवें (प्रत्याख्यान) पूर्व के अन्तर्गत तृतीय वस्तु (अधिकार) से रचे गए हैं। अन्तिम दो चूलिकायें शय्यम्भव द्वारा रची गई नहीं मानी जातीं। इसका एक संस्करण नियुक्ति और . हरिभद्र विरचित टीका के साथ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है। चणि श्री ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित की गई है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-प्रत्यागी आदि। नियुक्ति-प्रकथा, अर्थकथा, पाराधनी भाषा और प्रोध । चूर्णि-अकिंचनता, अमनोज्ञ-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्त-मार्तध्यान, अर्थकथा, प्राज्ञापनी और प्राज्ञा.
विचय आदि। ह. वृ-अध्यवपूरक, अनुलोम, अभ्याहृत, अर्थकथा, पाराधनी भाषा, उपबृहण, प्रोघ और औपदेशिक आदि ।
१. तत्थ कालियं जं दिण-रादीणं पढमे (चरिमे) पोरिसीसु पढिज्जइ । नन्दी च.पु. ४७. २. नि. गा.१६-१७.
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जैन-लक्षणावली ४२ पिण्डनियुक्ति-यह मूल सूत्रों में चौथा माना जाता है । दशवकालिक का पांचवां अध्ययन पिण्डैषणा है। उसके ऊपर प्राचार्य भद्रबाह के द्वारा जो नियुक्ति रची गई वह विस्तृत होने के कारण एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मान ली गई। साधु का आहार किस प्रकार से शुद्ध होना चाहिए, इसका विचार करते हुए यहां आहारविषयक १६ उद्गम १६ उत्पादन, १० ग्रहणषणा, १ संयोजन, १ प्रमाण, १ धूम और १ अंगार; इन ४६ दोषोंकी यहां चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त जिन छह कारणों से भोजन को ग्रहण करना चाहिए तथा जिन छह कारणों से उसका परित्याग करना चाहिए, उनका भी निर्देश किया गया है। इन दोषों में उद्गम दोषों का सम्बन्ध गृहस्थ से, उत्पादन दोषों का सम्बन्ध साधु से, तथा ग्रासैषणा दोषों में से शंकित और अपरिणत इन दो का सम्बन्ध साधु से और शेष पाठ का सम्बन्ध गृहस्थ से है। प्रारम्भके निक्षेप प्रकरण में द्रव्यपिण्ड की भी कुछ विस्तृत प्ररूपणा की गई हैं। नियुक्ति गाथासंख्या ६७१ है। इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि द्वारा टीका भी रची गई है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-अङ्गारदोष, अधःकर्म, अनुमोदना, प्राधाकर्म और आजीव आदि । टीका-अङ्गारदोष, अधःकर्म और प्राधाकर्म आदि ।
४३ अोधनियुक्ति-यह आवश्यक नियुक्ति के अंगभूत है । इसके रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय हैं। इसमें साधू के प्राचार का विवेचन करते हुए उसके आहार बिहार, आसन, वसति और पात्र
आदि की विधि का निरूपण किया गया है। इसमें नियुक्ति गाथायें ८१२ और भाष्यगाथायें ३२२ हैं । अन्तिम नि. गा. प्रक्षिप्त और अस्पष्ट सी प्रतीत होती है। इस पर द्रोणाचार्य (विक्रम की ११-१२वीं शताब्दी) द्वारा विरचित टीका भी है। इस टीका के साथ उसका एक संस्करण विजयदान सूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला सूरत से प्रकाशित हना है । इसका उपयोग आराधक और पाभोग प्रादि शब्दों में हुया है।
४४ कल्पसूत्र-छह छेद सूत्रों में प्रथम छेदसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध माना जाता है । इसका दूसरा नाम आचारदशा भी है। इसमें ये १० अध्ययन हैं-प्रसमाधिस्थान, शबल, प्रासादनायें, पाठ प्रकार की गणिसम्पदा, दस चित्तसमाधिस्थान, ग्यारह उपासकप्रतिमायें बारह भिक्षुप्रतिमाएँ, पर्युषणकल्प, तीस मोहनीयस्थान और प्रायतिस्थान । इनमें प्राठवाँ जो पयुषणकल्प है वही कल्पसूत्र के रूप में एक पृथक ग्रन्थ प्रसिद्ध हुआ है।
ग्रन्थ की भूमिका के रूप में यहाँ प्रथमत: टीकाकार ने यह निर्देश किया है कि भगवान महावीर चंकि वर्तमान तीर्थ के स्वामी व निकटवर्ती उपकारी हैं, इसीलिए भद्रबाहु स्वामी पहिले महावीर के चरित का वर्णन करते हैं, इसमें भी प्रथमत: साधुओं का दस प्रकार का कल्प कहा जाता है। इस दस प्रकार के कल्प की सूचक जो गाथा यहां दी गई है वह नबती अाराधना', पंचवस्तुक ग्रन्थ (१५००) और पंचा. शक (८००) में उपलब्ध होती है।
यहाँ सर्वप्रथम 'णमो अरिहंताणं' अादि पंचनमस्कार मंत्र के द्वारा पांच परमेष्ठियों को नमस्कार १. ये दोष प्राय: इन्हीं नामों और स्वरूप के साथ यहां और मूलाचार के पिण्डशुद्धि नामक छठे
अधिकार में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। कुछ गाथायें भी समान रूप से दोनों में पायी जाती हैं। (देखिये अनेकान्त वर्ष २१, किरण ४ में पिण्डशुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार'
शीर्षक लेख) २. नि. गा. ४०३ और ५१४.१५. ३. आचेल्लुक्कुद्दे सियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे।
जेट्रपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो । भ. पा. ४२१. (पंचवस्तुक व पंचाशक में 'जेट्रपडिकमणे विय' के स्थान में 'वयजिपडिक्कमणे' पाठ हैं।)
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प्रस्तावना
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करते हुए इस पंच नमस्कार मंत्र को सब पापों का नाशक और सब मंगलों में प्रथम मंगल कहा गया है। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के जीवनवृत्त का वर्णन करते हुए उनके विषय में इन पाँच हस्तोतरामों-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का निर्देश किया गया है-१ भगवान् महावीर प्रथम हस्तोत्तराहस्त नक्षत्र के पूर्ववर्ती उत्तराफाल्गुनी-नक्षत्र में पुष्पोत्तर विमान से च्युत होकर अवतीर्ण हुएब्राह्मण कुण्डग्राम नगरवासी कोडालसगोत्री ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में प्रविष्ट हुए। २ इसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में इन्द्र की आज्ञा से हरिणेगमेसि देव के द्वारा देवानन्दा के गर्भ से निकाल कर भगवान् को क्षत्रिय कुण्डग्राम नगरवासी सिद्धार्थ क्षत्रिय की पत्नी क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में परिबर्तित किया गया। ३ इसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का जन्म हुआ। ४ उसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् ने गृहवास से निकलकर मुण्डित होते हुए-केशलोचपूर्षक-मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण की। ५ उक्त उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् ने परिपूर्ण केवल ज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया । इस प्रकार उक्त पाँच हस्तोत्तरा भगवान् के इन पाँच कल्याणकों से सम्बद्ध हैं। मुक्ति की प्राप्ति भगवान् को स्वाति नक्षत्र में हई।
उक्त गर्भादि कल्याणकों के सा” यहाँ आगे भगवान् महावीर के जीवनवृत्त का विस्तार से वर्णन किया गया है । गर्भपरिवर्तन के कारण का निर्देश करते हए यहाँ यह कहा गया है कि इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ कि श्रमण महावीर देवानन्दा के गर्भ में अवतीर्ण हुए हैं तब उसे यह विचार हुआ कि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव ये शूद्र कुल में, नीचकुल में, तुच्छकुल में, दरिद्र कुल में, कृपणकुल में, भिक्षुकुल में और ब्राह्मणकुल में; इन सात कुलों में से किसी कुल में न कभी आए हैं, न आते हैं और न कभी प्रावेंगे । वे तो उग्रकुल, भोगकूल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकूल, क्षत्रियकुल और हरिव शकुल; इनमें तथा इसी प्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति, कुल व वंशों में आए हैं, आते हैं और पावेंगे। यह एक आश्चर्यभूत भाव (भवितव्य) हैं जो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणियों के बीतने पर उक्त अरिहंतादि अक्षीण, अवेदित और अनिर्जीर्ण नाम-गोत्रकर्म के उदय से पूर्वोक्त सात कृलों में गर्भरूप में पाए हैं, आते हैं और आवेंगे, परन्तु वे योनिनिष्क्रमणरूप जन्म से उन कुलों से कभी न निकले हैं, न निकलते हैं, और न निकलेंगे। बस इसी विचार से इन्द्र ने उस हरिणेगमेसि देव के द्वारा उक्त गर्भ को परिवर्तित कराया।
इस प्रकार प्रथम पांच वाचनात्रों में श्रमण भगवान् महावीर के जीवनवृत्त की प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में यहां भगवान् के मुक्त हो जाने पर कितने काल के पश्चात् वाचना हुई, इसका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि भगवान् के मुक्त हो जाने के पश्चात् नौ सौ अस्सोवें (९८०) वर्ष में वाचना हुई। प्रागे वाचनान्तर का उल्लेख करते हुए यह भी कहा गया है कि तदनुसार वह ६६३वें
१. एसो पंचणमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सवेसिं पढम हवइ मंगलं ॥
(यह पद्य मूलाचार में उपलब्ध होता है-७,१३) २. ऐसे पाश्चर्य दस निर्दिष्ट किए गए हैं
उवसग्ग गम्भहरणं इत्थीतित्थं प्रभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकका अवयरणं चंद-सूराणं ।। हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पामो य अट्ठसयसिद्धा। अस्संजयाण पूरा दसवि अणतेण कालेण ॥ टाका पृ. ३३.
(ये दोनों गाथायें पंचवस्तुक ६२६-२७ में उपलब्ध होती हैं ।) ३. सूत्र १५-३०, प. २६-४८.
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ग्रन्थ की रचना वीर निर्वाण से ६९३ वर्ष के
वर्ष में हुई' । ( इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पश्चात् किसी समय हुई है ) ।
आगे छठी वाचना में भगवान् पार्श्वनाथ भोर नेमिनाथ के पाँच कल्याणकों का निरूपण किया
गया है ।
जैन - लक्षणावली
सातवीं वाचना में प्रथमतः तीर्थकरों के मध्यगत अन्तरों को बतलाते हुए सिद्धान्त के पुस्तकारूढ़ होने के काल का भी दिर्देश किया गया है । तत्पश्चात् श्रादिनाथ जिनेन्द्र के पाँच कल्याणकों की प्ररूपणा की गई 1
आठवीं वाचना में स्थविरावली और अन्तिम (नौंवीं) वाचना में साधु-सामाचारी की प्ररूपणा गई है । ग्रन्थप्रमाण इसका १२१५ है ।
इसके ऊपर सकलचन्द्र गणि के शिष्य समयसुन्दर गणि के द्वारा कल्पलता नाम की टीका लिखी गई है । उसका रचनाकाल विक्रम सं. १६६६ के श्रास पास है । इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ जिनदत्त सूरि ज्ञानभण्डार बम्बई से प्रकाशित हुआ है । दूसरी सुबोधिका नाम की टीका कीर्तिविजय गणि के शिष्य विनयविजय उपाध्याय के द्वारा वि. सं. १६६६ में लिखी गई है। इस टीका के साथ वह आत्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है । इसकी टीका का उपयोग अकस्माद्भय, श्राकर, श्राचेलक्य, श्रादानभय, श्रनप्राण और इहलोकभय श्रादि शब्दों में हुआ है ।
1
४५. बृहत्कल्पसूत्र - यह छेदसूत्रों में से एक है । इसमें साधु-साध्वियों को किस प्रकार की प्रवृत्ति करनी चाहिए और किस प्रकार की नहीं करनी चाहिए, इसका विवेचन किया गया है । इसके ऊपर आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) विरचित निर्य क्ति और प्राचार्य संघदास (विक्रम की ७वीं शती) गणि विरचित लघु भाष्य भी है । वृहद् भाष्य भी इसके ऊपर रचा गया है, पर उसका अधिकांश भाग अनुपलब्ध है । निर्युक्तिगाथायें भाष्यगाथाओं से मिश्रित हैं । यह पीठिका के अतिरिक्त छह उद्देशों में विभक्त है । समस्त गाथासंख्या ६४९० है । इस भाष्य में अनेक महत्त्वपूर्ण विषय चर्चित हैं । इसके ऊपर गा. ६०६ तक प्रा. मलयगिरि के द्वारा टीका रची जा सकी है, तत्पश्चात् शेष टीका की पूर्ति प्राचार्य क्षेमकीर्ति द्वारा की गई है । आचार्य क्षेमकीर्ति विजयचन्द्र सूरि के शिष्य थे । उनके द्वारा यह टीका ज्येष्ठ शुक्ला दशमी वि. सं. १३३२ को समाप्त की गई है। यह पूर्वोक्त नियुक्ति और भाष्य के साथ श्रात्मानन्द सभा भावनगर द्वारा छह भागों में प्रकाशित की गई है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है—
नि. या भा. प्रच्छिन्न कलिका, प्रतिपरिणामक, अनन्तजीव, अनुयोग, श्रभिवद्धित मास, अर्थकल्पिक, उत्क्षिप्तचरक, उन्मार्गदेशक, श्रोज श्राहार, श्रीपभ्योपलब्धि और औपशमिक सम्यक्त्व आदि । टीका -- प्रक्ष, श्रत्यन्तानुपलब्धि, अनूपक्षेत्र, अपचयभात्रमन्द, ओज आहार और
पभ्योपलब्धि
आदि ।
४६ व्यवहारसूत्र — इसकी गणना भी छेदसूत्रों में की जाती है । वृहत्कल्पसूत्र के समान इसमें भी साधु-साध्वियों के आचार-विचार का विवेचन है । इसके ऊपर भी श्राचार्य भद्रबाहु विरचित निर्युक्ति
। भाष्य भी है, पर वह किसके द्वारा रचा गया है, यह निश्चित नहीं है। इतना निश्चित प्रतीत होता है। कि इसके रचयिता विशेषणवती के कर्ता जिनभद्र गणि के पूर्ववर्ती । इसके ऊपर आ. मलयगिरि द्वारा विरचित भाष्यानुसारिणी टीका भी है। पूरा ग्रन्थ पीठिका के अतिरिक्त दस उद्देशों में विभक्त है । इसमें साधु के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसका उत्सर्ग और अपवाद के १. समणस्स भगवप्रो महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नववाससयाई विश्व कंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ, वायणंतरे पुण श्रयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दिसइ | सूत्र १४८, पृ. १६००
२. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. ३, पू. १३७.
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प्रस्तावना
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साथ विवेचन किया गया है । साथ ही विविध प्रकार के दोषों पर तदनुसार ही नाना प्रकार के प्रायश्चित्तों का भी विधान किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैभाष्य - प्रतिक्रम, अभ्यासवर्ती, प्राप्त और आरम्भ आदि ।
टीका—प्रकल्प्य, अकुशलमनोनिरोध, प्रकृतयोगी, अक्षताचार, प्रतिक्रम, अभ्यासवर्ती और प्रारम्भ
आदि ।
४७ नन्दी सूत्र - यह चूलिका सूत्र माना जाता है । इसके रचयिता देववाचक गणि ( विक्रम की छठी शताब्दी – ५२३ से पूर्व ' ) हैं । इसके ऊपर प्राचार्य जिनदास गणि के द्वारा चूर्णि रची गई है। जिनदास गणि का समय डा. मोहनलाल जी मेहता द्वारा विक्रम की प्रारवीं शताब्दी का पूर्वार्ध (६५०-७५०) निश्चित किया गया है। इसमें उन्होंने (चूर्णिकार ने ) ग्रन्थकार देववाचक को दृष्यगणि का शिष्य बतलाया है । प्रस्तुत ग्रन्थगत स्थविरावली* में दृष्यगणि का उल्लेख सबके अन्त में उपलब्ध होता है । चूर्णि के अतिरिक्त इसके ऊपर एक टीका हरिभद्र सूरि (विक्रम की की ८वीं शताब्दी) के द्वारा और दूसरी टीका श्राचार्य मलयगिरि के द्वारा रची गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मंगल के प्रसंग में चौबीस तीर्थकरों की वन्दना करते हुए अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् सुधर्मा स्वामी से लेकर दूष्यगणि तक स्थविरावली का शिष्यपरम्परा के रूप में निर्देश किया गया है। आगे चलकर अभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों का विस्तार से निरूपण करते हुए गमिक प्रगमिक, अंगप्रविष्ट- अंगबाह्य, और कालिक - उत्कालिक आदि श्रुत के भेद प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। इसका प्रकाशन मलयगिरि विरचित टीका के साथ भागमोदय समिति सूरत से तथा चूर्णि और हरिभद्र विरचित टीका का प्रकाशन ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम से हुआ है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में किया गया है—
सूल - अनुगामी अवधि, अनुत्तरौपपादिकदशा, प्राचार, ईहा और उपासकदशा आदि ।
चूर्णि - अभिनिबोध, अवग्रह, ग्राभिनिबोधिक, आहारपर्याप्ति, उपासकदशा और ऋजुगति भादि । ह. टीका - अक्रियावादी, अधर्मद्रव्य, अनुत्तरोपपादिकदशा, अनुमान, अन्तकृद्दश, अन्तगत प्रवधि, अन्तर, ईहा, उपयोग और उपासकदशा आदि ।
मलय. टीका - प्रक्रियावादी, अभिनिबोध, श्रवाय, श्राचार और उपासकदशा आदि ।
४८ अनुयोगद्वार - यह भी चूलिका सूत्र माना जाता है । इसके प्रणेता सम्भवतः श्रार्यरक्षित स्थविर हैं । श्रार्यरक्षित प्रार्यवज्र के समकालीन थे। आर्यवज्र वी. नि. सं. ५८४ में स्वर्गस्थ हुए। तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना वी. नि. ५८४ - ९७ (विक्रम ११४-२७ ) के लगभग मानी जा सकती है । आवश्यक नियुक्ति में प्रार्यरक्षित का निर्देश करते हुए उनके लिए देवेन्द्रवन्दित और महानुभाव जैसे श्रादरसूचक विशेषणों का प्रयोग किया गया है तथा उन्हें पृथक् पृथक् चार अनुयोगों का व्यवस्थापक कहा गया है । टीका में उनका कथानक भी उपलब्ध होता है । इसके प्रारम्भ में पाँच ज्ञानों का दिदेश
१. देखिये 'नंदितं प्रणुयोगद्दाई च' की प्रस्तावना पृ. ३२-३३.
२. देखिये 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' भा. ३, पू. ३२.
३. एवं कयमंगलोवयारे थेरावलिकमे य दंसिए भरिहेसु य दंसितेसु दूसगणिसीसो देववायगो साधुजणहिट्टाए इणमाह । नन्दी चूर्णि पृ. १०.
४. नन्दी. गा. २३-४१.
५. देखिए अनुयोगद्वार की प्रस्तावना (महावीर जैन विद्यालय, बम्बई ) पु. ५०.
६. देविदबंदिएहि महाणुभावेहिं रक्खिमनज्जेहि ।
जुगमासज्ज वित्तो अणुओोगो तो कम्रो चउहा ।। श्राव. नि. ७७४.
विशेषावश्यक भाष्य (२७८७) में उनके माता-पिता, भाई व आचार्य के नामों का भी निर्देश किया गया है । प्रभावकचरित (पृ. १३ - ३१ ) में उनका कथानक भी है ।
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जैन - लक्षणावली
करके प्रकृत में श्रुतज्ञान का उद्देश बतलाया है । श्रागे प्रश्नोत्तरपूर्वक अंगप्रविष्ट आदि का निर्देश करते हुए उत्कालिक श्रुत में आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त का उद्देश बतलाया है । इस प्रकार प्रथमतः यहाँ श्रावश्यक आदि के विषय में निक्षेप आदि की योजना की गई है। इसी प्रसंग में वहाँ श्रानुपूर्वी का विस्तार से विवेचन किया गया है । आगे यथाप्रसंग प्रौदयिकादि भाव, सात स्वर, नौ रस और द्रव्यक्षेत्रादि प्रमाण रूप अनेक विषयों की चर्चा की गई है। इसके ऊपर जिनदास गणि महत्तर (वि. सं. ६५० से ७५० ) द्वारा चूर्णि रची गई है। ये भाष्यकार जिनभद्र गणि (वि. सं. ६००-६६० ) के बाद और हरिभद्रसूरि (७५७-८२७ ) के पूर्व में हुए हैं। इस चूर्णि के अतिरिक्त उस पर एक टीका हरिभद्र सूरि द्वारा और दूसरी मलधारगच्छीय हेमचन्द्र सूरि द्वारा विरचित है। हेमचन्द्र सूरि के दीक्षागुरु मलधारी अभयदेव सूरि और शिष्य श्रीचन्द सूरि थे । इनके गृहस्थाश्रम का नाम प्रद्युम्न था । ये राज्यमन्त्री रहे हैं । इनका समय विक्रम सं. १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । इसका उपयोग इन शब्दों में
हुआ है
मूल -- प्रचित्तद्रव्योपक्रम, श्रद्भुतरस, अनानुपूर्वी, अनेकद्रव्यस्कन्ध, अवमान, आगमद्रव्यानुपूर्वी, श्रागमद्रव्यावश्यक, आगमभावाध्ययन, ग्रागमभावावश्यक, आत्माङ्गुल, प्रादानपद और उद्धारपल्योपम आदि ।
चूर्णि - श्रद्धापल्योपम, अनुगम, उदयनिष्पन्न, उदयभाव, उपमित, ऊर्ध्वरेणु और प्रौदयिकभाव श्रादि ।
ह. टोका - अद्भुतरस, श्रद्धापल्योपम, अधर्मद्रव्य, अनुगम, अन्त, श्रवमान, ईश्वर, उद्धारपल्योपम, ऋजुसूत्र और प्रौदयिकभाव आदि ।
म. हे. टीका - चितद्रव्योपक्रम, अद्भुतरस, अनेकद्रव्यस्कन्ध और ग्रागमभावावश्यक आदि ।
४६. प्रशमरति प्रकररण- इसे प्राचार्य उमास्वाति ( विक्रम की ३री शताब्दी) विरचित माना जाता है। इसमें पीठबन्ध, कषाय, रागादि, आठ कर्म, पंचेन्द्रिय विषय, आठ मद, आचार, भावना, धर्म, धर्मकथा, नव तत्त्व, उपयोग, भाव, छह द्रव्य, चारित्र, शीलांग, ध्यान, क्षपकश्रेणि, समुद्घात, योगनिरोध, मोक्षगमन और अन्तफल ये २२ अधिकार हैं । समस्त श्लोकसंख्या ३१३ है ।
यहां ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम चौबीस तीर्थकरों का जयकार करते हुए जिन, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को नमस्कार किया है और तदनन्तर प्रशमरति में राग द्वेषके प्रभावस्वरूप वैराग्यविषयक अनुराग में स्थिरता के लिये जिनागम से कुछ कहने की प्रतिज्ञा की है । पश्चात् सर्वज्ञ के शासनरूप पुर में प्रवेश को कष्टप्रद बतलाते हुए भी बहुत से श्रुत-सागर के पारंगतों की प्रशमजनक शास्त्रपद्धतियों की सहायता से उस सर्वज्ञशासन में अपने प्रवेश की सम्भावना व्यक्त की है और श्रुतभक्ति से प्राप्त बुद्धि के बल से प्रस्तुत ग्रन्थ के रचने का अभिप्राय प्रगट किया है । श्रागे का विषय विवेचन उक्त अधिकारों के नाम अनुसार ही क्रम से किया गया है ।
इसके ऊपर आचार्य हरिभद्र (विक्रम सं. १९६५) द्वारा टीका रची गई है। इस टीका और एक अज्ञातकर्ता के श्रवचूरि के साथ यह परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग श्रधिगम और श्रनित्यानुप्रेक्षा आदि शब्दों में हुआ है ।
५०. विशेषावश्यक भाष्य - यह प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा श्रावश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन रूप सामायिक मात्र के ऊपर रचा गया है, सामायिक अध्ययन पर निर्मित नियुक्तियों की ही उसमें विशेष व्याख्या की गई है। आचार्य जिनभद्र बहुश्रुत विद्वान थे । श्रागम ग्रन्थों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था । इसीलिए इस भाष्य में आगमों के अन्तर्गत प्रायः सभी विषयों का उन्होंने निरूपण किया है । आवश्यकतानुसार उन्होंने दार्शनिक पद्धति को भी अपनाया है । यथाप्रसंग विभिन्न मतान्तरों की भी चर्चा की गई है । डा. मोहनलाल जी मेहता उनके समय पर विचार करते हुए उन्हें वि. सं. १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ३२.
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प्रस्तावना
६५०-६० के आस पास का विद्वान मानते हैं। इसके ऊपर जिनभद्र स्वयं टीका के लिखने में प्रवृत्त हए । पर बीच में ही दिवंगत हो जाने के कारण वे छठे गणधरवाद तक ही टीका लिख सके व स्वयं उसे पूरा नहीं कर सके । शेष भाग की टीका कोटयार्य द्वारा की गई है। इसका एक संस्करण जो हमारे पाप है, कोट्याचार्य विरचित टीका के साथ ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया है। इसके अनुसार गाथाओं की संख्या ४३४६ है। इसमें सम्भवत: बहतसी नियुक्ति गाथानों का मिश्रण हो गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-अध्ययन, अनुगामी अवधि, अनुयोग, अभिनिबोध, अवाय, प्रागमद्रव्यमंगल, प्राभिनिबोधिक, इत्वरसामायिक, उपकरण, उपक्रम, उपयोग और ऋजुगति आदि ।
टीका-इत्वरसामायिक (स्वो.) और ईहा (को.) आदि ।
५१. कर्मप्रकति-यह शिवशर्म सूरि द्वारा विरचित एक म त्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है। शिवशर्म सूरि का समय सम्भवत: विक्रम की पांचवी शताब्दी है । इसकी गाथासंख्या ४७५ है। इसमें बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना ये आठ करण हैं । इनमें यथायोग्य ज्ञानाबरणादि पाठ कर्मों के बन्ध, परप्रकृतिपरिणमन, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा (परिणाम के वश स्थिति को कम कर उदय में देना), करणोपशामना व प्रकरणोपशामना आदि अनेक भेदरूप उपशामना, नित्ति और निकाचना, इनका निरूपण किया गया है। नित्ति और निकाचना में विशेषता यह है कि निधत्ति में संक्रमण और उदीरणा नहीं होती, किन्तु उत्कर्षण-अपकर्षण उसमें सम्भव हैं। पर निकाचना में संक्रमणादि चारों ही नहीं होते । अन्त में उदय और सत्ता का भी कुछ वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत कर्मप्रकृति एक गाथाबद्ध संक्षिप्त रचना है और पूर्व निर्दिष्टषट्खण्डागम अधिकांश गद्यसत्रमय है-गाथासूत्र यत्र क्वचित् ही पाये जाते हैं । इन दोनों की विषयप्ररूपणा में कहीं कहीं समानता देखी जाती है । जैसे
कर्मप्रकृति में प्रदेशसंक्रमण की प्ररूपणा करते हए ज्ञानावरणादि के उत्कृष्ट प्रदेश का स्वामी गणितकर्माशिक को बतलाया है। वह किन किन अवस्थाओं में कितने काल रहकर उस उत्कृष्ट प्रदेश का स्वामी होता है, इसका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया गया है।
यही प्ररूपणा षट्खण्डागम में कुछ विस्तार से की गई है। दोनों में अर्थसाम्य तो प्रायः है ही, शब्दसाम्य भी कुछ है ।
अागे कर्मप्रकति में उक्त कर्मों के जघन्य प्रदेश के स्वामी क्षपितकर्माशिककी प्ररूपणा करते हए वह कब और किस प्रकार से उस जघन्य प्रदेश का स्वामी होता है, इसका संक्षेप से निर्देश किया गया गया है । यही प्ररूपणा षटखण्डागम में ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य द्रव्यवेदना के स्वामी उसी क्षपितकर्माशिक के प्रसंग में कुछ विस्तार से की गई है।
षदखण्डागम में स्थितिबन्ध के अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गई है । वही प्ररूपणा कर्मप्रकृति में चुणि कार के द्वारा की गई है, जो प्रायः शब्दशः समान है। १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ३, पृ. १३३-३५.
२. वही पृ. ३५५. ३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ४, पृ. ११०. ४. कर्मप्र. संक्रमक. गा. ७४-७८ ५. षट्खं . ४,२,४,६-३२ पु. १०, प. ३१-१०६. ६. कर्मप्र. संक्रमक. ६४-६६ ७. षट्खं. ४,२,४,४८-७५, पु. १०, पृ. २६८-६६ ८. षट्खं. ४,२,६,६५-१००, पु. ११, पृ. २२५.३७
• १, ८०-८२ (पूणि), पृ. १७४-१७५
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जन-लक्षणावली षट्खण्डागम में जिन दो गाथासूत्रों के द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा की प्ररूपणा की गई है वे दो गाथायें प्रस्तुत कर्मप्रकृति और प्राचारांग नियुक्ति में भी उपलब्ध होती है।
उक्त गुणश्रेणिनिर्जरा का निरूपण इसी प्रकार से तत्त्वार्थसूत्र में भी किया गया है।
इसके ऊपर अज्ञातकर्तृक' चूणि है, जो विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्व रची गई है। इसके अतिरिक्त एक टीका प्रा. मलयगिरि द्वारा विरचित और दूसरी टीका उपाध्याय यशोविजय (विक्रम की १८वीं शताब्दी) विरचित भी है । उक्त चूणि और दोनों टीकाओं के साथ उसे मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोइ (गुजरात) द्वारा प्रकाशित कराया गया है । मात्र मूल ग्रन्थ पंचाशक आदि अन्य कुछ ग्रन्थों के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से भी प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-प्रधःप्रवृत्तसंक्रम, अपवर्तना और उदीरणा आदि । चूणि-प्रकरणोपशामना, अधःप्रवृत्तसंक्रम, अनभिसंधिजवीर्य, अपवर्तना और अविभागप्रतिच्छेद
आदि । म. टीका-अधःप्रवृत्तसंकम और अपवर्तना प्रादि । उ. य. टीका-अनादेय और अपवर्तना ग्रादि ।
५२. शतकप्रकरण-इसे बन्धशतक भी कहा जाता है । यह पूर्वोक्त कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्म सूरि की कृति मानी जाती है। इसमें मूल गाथायें १०६ हैं। ये गाथायें अर्थगम्भीर हैं । उनके अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये चक्रेश्वर सूरि के द्वारा बृहद् भाष्य सिखा गया है। इन भाष्य गाथानों का श्लोकप्रमाण १४१३ हैं। चक्रेश्वर सूरि द्वारा रचित यह भाष्य, जैसा कि उन्होंने अन्त में निर्देश किया है, अन्नलदेव नृपति के राज्य में वर्तमान गोल्ल विषय विशेषण (?) नगर में वि. सं. ११६७ में कार्तिक चातुर्मास दिन में पूर्ण हुआ है। ये श्री वर्धमान गणधर के शिष्य और गुणहर गुणधर के गुरु थे । इन गुणधर शिष्य की प्रेरणा से ही यह भाष्य रचा गया है। इस बृहद् भाष्य के अतिरिक्त एक २४ गाथात्मक
सम्मत्तप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवंसते ।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तबिवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेढीए॥षट्खं. पु. १२, पृ. ८८. सम्मत्तुप्पत्तिसावयविरए संजोयणाविणासे य । दसणमोहक्खवगे कसायउवसामगुवसंते ।। खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी ।। उदो तब्विवरीयो कालो संखेज्जगुणसेढी ।कर्मप्र. ६, ८-६. सम्मत्तुप्पत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवर उवसामंते य उवसते ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य सेढी भवे असंखिज्जा ।
तविवरीमो कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ॥ आचारांग नि. २२२-२३, पृ. १६०, २. त. सू. (दि.) ६-४५, श्वे. ६-४७ ३. 'जैन साहित्य का वहद इतिहास' में इसके जिनदास गणि महत्तर के द्वारा रचे जाने की सम्भावना
की गई है। भा. ४, पृ. १२१ ४. 'जैन साहित्य का वृहद इतिहास' भाग ४, पृ. १२७ पर वि. सं. ११७६ लिया गया है।
सिरिबद्धमाण-गणहर-सीसेहि विहारुगेहि सुहबोहं। एवं सिरिचक्केसरसूरीहिं सयग्गगुरुभासं ॥ गुणहर-गणधरणामगणिययविणेयस्स वयणपो रइयं ।
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प्रस्तावना
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लघु भाष्य, एक अज्ञातकर्तृक चूणि, तथा तीन टीकाओं में से एक मलधारी हेमचन्द्र सूरि (वि. की१२वीं श.) विरचित, दूसरी उदयप्रभ सूरि (सम्भतः वि. की १३वीं श.) विरचित मौर तीसरी टीका गुणरत्नसूरि (वि. की १५ वीं श.) द्वारा विरचित है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में चौदह जीवस्थान (जीवसमास) और चौदह गुणस्थानों में जहाँ जिसने उपयोग और योग सम्भव हैं उनको दिखलाते हुए कारणनिर्देशपूर्वक प्रकृति-स्थिति प्रादि चार प्रकार के बन्ध, उदय और उदीरणा की प्ररूपणा की गई है इसका एक संस्करण भाष्य और मलघारीय टीका के साथ वीर समाज राजनगर द्वारा प्रकाशित कराया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है
भाष्य-अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि प्रादि । टीका-अध्रुवबन्ध, अप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि और उदय आदि।
५३. उपदेशरत्नमाला-इसके रचियता धर्मदास गणि हैं। ये महावीर स्वामी के हस्तदीक्षित शिष्य थे, इस मान्यता को 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' में विचारणीय बतलाया है। इसका कारण वहां किये गये वज्रस्वामी के उल्लेख के अतिरिक्त प्राचारांगादि जैसी प्राचीन भाषा का प्रभाव भी है। ग्रन्थकार धर्मदास गणि ने गाथा ५३७ और ६४० में इसके रचयिता के रूप में स्वयं ही अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या ५४४ है। (गा. ५४२ के अनुसार यह गाथासंख्या ५४० है।)
इस उपदेशपरक ग्रन्थ में अनेक पौराणिक व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए गुरु की महत्ता, प्राचार्य की विशेषता, विनय, धर्म एवं क्षमा आदि अनेक उपयोगी विषयों का विवेचन किया गया है। इसके ऊपर कई टीकार्ये लिखी गई हैं । पर हमें सटीक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका । मूल मात्र पंचाशक आदि के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अपायविचय, प्राज्ञाविचय, प्रादाननिक्षेपणसमिति, ईर्यासमिति और एषणासमिति आदि शब्दों में
हुना है।
५४. जीवसमास-यह किसकी कृति है, यह ज्ञात नहीं होता । मुद्रित संस्करण (मूल मात्र) में 'पूर्वभृत् सूरि सूत्रित' ऐसा निर्देश मात्र किया गया है। यह प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। समस्त गाथायें २८६ हैं । यहाँ प्रथमतः चौबीस जिनेन्द्रों को नमस्कार कर संक्षेप में जीवसमासों के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। प्रागे 'ये जीवसमास निक्षेप व निरुक्तिपूर्वक छह अथवा पाठ अनुयोगद्वारों तथा गति प्रादि चौदह मार्गणागों के द्वारा ज्ञातव्य हैं' ऐसी सूचना करके प्रकृत छह अनुयोगद्वारों का प्रश्नात्मक निर्देश इस प्रकार किया गया है-१ विवक्षित मिथ्यात्व प्रादि क्या हैं, २ किसके होते हैं,
सुयणे सुणंतु जाणंतु बुहजणा तह विसोहंतु ॥ सत्त-णव-रुद्दमियवच्छ रम्मि विक्कमणिवाउ वट्टते । कत्तिय-चउमासदिणे गोल्लविसयविसेसणे नयरे ॥ दहिवइंमी सिरिसिद्धरायभूवइपसायगेहस्स । अन्नलदेवनिवइणो सुहरज्जे बट्टमाणम्मि ॥ णिप्फत्तिमुवगयमिणं ता नंदउ जाव सिद्धिसुहमले ।
तियलोक्कपायडजसो जिणवरधम्मो जये जय ॥ पु. १३३-३४. १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. १६३. २. धंत-मणि-दाम-ससि-गय-णिहिपयपढमक्खराभिहाणेणं ।
उवएसमालपगरणमिणमो रइयं हिनदाए ॥५३७॥ इसमें घंत, मणि, दाम, ससि, गय और णिहि: इन पदों के प्रथम अक्षर को क्रम से ग्रहण करने धंमदास (धर्मदास) गणि होता है, इनके द्वारा इस उपदेशमाला प्रकरण के रचे जाने की सूचना की गई है।
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द्वारा होते हैं, ४ कहाँ होते हैं, ५ कितने काल रहते हैं और ६ भाव कितने प्रकार का है ? इन छह प्रश्नों के साथ प्रकृत का विवेचन किया जाता है । अथवा सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारों के' आश्रय से विवक्षित जीवसमासों का अनुगम करना चाहिए। उसके पश्चात् गति आदि चौदह मार्गणात्रों और मिथ्यात्व व प्रासादन श्रादि चौदह जीवसमासों ( गुणस्थानों) का नामनिर्देश किया गया है ।
आगे गति प्रादि भेदों में विभक्त जीवों का निरूपण करते हुए उनमें यथायोग्य गुणस्थान और मार्गणा आदि का विचार किया गया है । इस प्रकार सत्पदप्ररूपणा करने के पश्चात् द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में द्रव्यादि के भेद से चार प्रकार के प्रमाण का विवेचन किया गया है। इस क्रम से यहां क्षेत्र व स्पर्शन आदि शेष अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गई है ।
यहाँ पृथिवी आदि के भेदों के प्रसंग में जिन गाथाओं का उपयोग हुआ है वे मूलाचार में भी प्रायः उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं । यथाक्रम से दोनों ग्रन्थों की इन गाथाओं का मिलान कीजिएजीवसमास - २७ - २६, ३० (पू.), ३१ (पू.), ३२ (पू.), ३३ (पू.), ३४-३७, ३८-३६
और ४०-४४.
मूलाचार (पंचाचाराधिकार ) - E- ११, १२ (पू.), १३ (पू.), १४ (पू.) १५ (पू.), १६- १६, २१-२२ और २४-२८.
पाठभेद - जीव. गा. ३५ में 'कट्ठा' व मूला. गा. १७ में 'खंघ' पाठ है । जीव. गा. ४० में 'बारस' व मूला. गा. २४ में 'बावीस' पाठ है । जीव. गा. ४३ में मनुष्यों के कुलभेद बारह लाख करोड़ और मूला. गा. २७ में वे चौदह लाख करोड़ निर्दिष्ट किए गए हैं । इसी से उनकी समस्त संख्या में भेद हो गया है । जीव. गा. ४४ में जहाँ वह एक कोड़ाकोड़ि सत्तानबे लाख पचास हजार है वहाँ मूला. गा. २८ में वह एक कोड़ाकोड़ि निन्यानवे लाख पचास हजार हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का एक संस्करण जो हमारे पास है, पंचाशक आदि के साथ, मूल रूप में ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है । इसके ऊपर टीका भी लिखी गई है, पर वह हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। इसका उपयोग प्रयन, ग्रहोरात्र, श्रात्माङ्गुल, श्रावलि और उच्छ्लक्ष्णलक्षणका आदि शब्दों में हुआ है ।
१. चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा षट्खण्डागम में भी इन्हीं ग्राठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है - एदेसि चेव चोदसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि श्रट्ट प्रणियोगद्दाराणि णायव्वाणि भवंति ॥ तं जहा ॥ संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावानुगमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि ।। षट्खं. १, १, ५-७, पु. १, पृ. १५३-५५
२. मार्गणाभेदों की सूचक यह (६) गाथा बोधप्राभृत (३३), मूलाचार (१२-१५६), पंचसंग्रह (१-५७) और आवश्यक नियुक्ति ( १४ - कुछ शब्दभेद के साथ) श्रादि कितने ही ग्रन्थों में पायी जाती है ।
३. जीवसमास ८- ६; षट्खण्डागम में गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' नाम से ही किया गया है । षट्खं. १, १, २, पु. १, पृ. ६१. ( जीवा समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । चतुर्दश च ते जीवसमासाश्च चतुर्दशजीवसासाः । तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानाम्, चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः । धवला पु. १, पृ. १३१)
४. इनमें से कुछ गाथायें पंचसंग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ ) - जैसे १, ७७ ८१- में और कुछ गो. जीवकाण्ड (जैसे गा. १८५) में भी उपलब्ध होती हैं । जीवसमास की २७-३० गाथायें कुछ पादव्यत्यय के साथ आचारांग नियुक्ति (७३-७६) में पाई जाती हैं । इसके अतिरिक्त वहाँ कुछ गाथायें प्राय: अर्थतः समान हैं । जैसे – जीव. ३१, ३२, ३४, ३५-३६, ३६ और ३३ तथा प्राचा. नि. १०८, ११८, १३०, १२६, १४१ और १६६.
५. कुल भेदों की यह संख्या गो. जीवकाण्ड (११५-१६) में जीवसमास के अनुसार है ।
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प्रस्तावना
५५. ऋषिभाषित-इसके रचयिता कौन हैं, यह ज्ञात नहीं होता। इसका एक संस्करण मूल रूप में श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित (सन् १९२७) हुआ है। उसमें 'श्रीमद्भिः प्रत्येकबुद्धर्भाषितानि श्रीऋषिभाषितसूत्राणि' ऐसा निर्देश किया गया है । यह एक धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ है । वह प्रायः श्लोक, आर्या छन्द और गद्यसूत्रों में रचा गया है। इसमें ये ४५ अध्ययन हैं-१ नारद २ वज्जियपुत्त ३ दविल ४ अंगरिसि ५ पुप्फसाल ६ वक्कलचीरी ७ कुम्मापुत्त ८ (ते)
६ महाकासव १० तेतलिपुत्त ११ मंखलिपुत्त १२ जन्नवक्कीय १३ भयालि १४ बाहुक १५ मधुरायणिज्ज १६ सोरियायण १७ विदु १८ वरिसव १६ पायरियायण २० उक्कल २१ गाहावइज्ज २२ दग(माली) गद्दभीय २३ रामपुत्तिय २४ हरिगिरि २५ अंबड २६ मायंगिज्ज २७ वारत्तय २८ अदृइज्ज २६ बद्धमाण ३० वाउ ३१ पासिज्ज ३२ पिंग ३३ अरुणिज्ज ३४ इसिगिरि ३५ प्रहाल इज्ज ३६ तारापविज्ज ३७ सिरिगिरिज्ज ३८ साइपुत्तिज्ज ३६ संजइज्ज ४० दीवायणिज्ज ४१ इंदनागिज्ज ४२ सोमिज्ज ४३ जम ४४ वरुण और ४५ वेसमण ।
ऋषिभाषितों की समाप्ति के पश्चात् ऋषिभाषितों की संग्रहणी में उपर्युक्त ४५ प्रत्येकबुद्ध ऋषियों के नाम निर्दिष्ट किए गये हैं, जिनके नाम पर वे अध्ययन प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें से अरिष्टनेमि के तीर्थ में २०, पाव जिनेन्द्र के तीर्थ में १५ और शेष महावीर के तीर्थ में हुए हैं । अन्तिम ऋषिभाषितअर्थाधिकार संग्रहणी-में उक्त अध्ययनों के ४५ अर्थाधिकारों के नामों का निर्देश किया गया है। तदनुसार ही जो उक्त ऋषियों के द्वारा उपदेश दिया गया है वह प्रकृत अध्ययनों में निबद्ध है।
- इस पर प्रा. भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति रची गई है, पर वह उपलब्ध नहीं है। यह ऋषभदेव केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रदत्तादानविरमण और अहिंसामहाव्रत आदि शब्दों में हुआ है।
५६. पाक्षिकसूत्र-इसके भी रचयिता कौन हैं, यह ज्ञात नहीं है । प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के अनुयायी आत्महितैषी जन सामायिक आदि छह आवश्यकों को नियमित किया करते हैं। उन आवश्यकों में प्रतिक्रमण भी एक है । वह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक के भेद से पांच प्रकार का है । प्रस्तुत ग्रन्थ में पाक्षिक प्रतिक्रमण को प्रमुखता दी गई है। यहां प्रथमतः तीर्थंकर, तीर्थ, अतीर्थसिद्धि, तीर्थसिद्ध, सिद्ध, जिन, ऋषि, महर्षि और ज्ञान इनकी ग्रन्थकार द्वारा वन्दना की गई है। इस प्रकार वन्दना करके अपने को आराधना के अभिमुख बतलाते हुए ग्रन्थकार ने यह भावना व्यक्त की है कि अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत, धर्म, क्षान्ति (क्षमा), गुप्ति, मुक्ति, प्रार्जव और मार्दव ये सब मेरे लिए मंगल हों-कल्याणकर हों।
पश्चात् यह निर्देश किया गया है कि लोक में साधु जन परमर्षियों के द्वारा उपदिष्ट जिस महाव्रतों की उच्चारणा को किया करते हैं उसे करने के लिये मैं भी उपस्थित हा है। यह सूचना करते हए छठे रात्रिभोजनविरमण के साथ उक्त महावतोच्चारणा पांच प्रकार की कही गई है। तत्पश्चात् क्रम से प्राणातिपातविरमण आदि छहों महाव्रतों का उच्चारण किया गया है। जैसे-प्राणातिपात से विरत होना, यह अहिंसा महाव्रत है। इस अहिंसा महाव्रत में मैं सूक्ष्म, बादर, बस व स्थावर समस्त प्राणातिपात का मन, वचन व काय से तथा कृत, कारित व अनुमति से प्रत्याख्यान करता हूं। मैं अतीत सब प्राणातिपात की निन्दा करता हूं, वर्तमान का निवारण करता हूं, और अनागत का प्रत्याख्यान करता हूं इत्यादि।
इसी प्रकार से आगे शेष महाव्रतों की भी उच्चारणा की गई है। तत्पश्चात् भगवान महावीर की स्तुतिपूर्वक सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान; इन छह आवश्यकों का निर्देश करते हुए उत्कालिक और कालिक श्रुत का कीर्तन किया गया है। इसके ऊपर यशोदेव सूरि (विक्रम की १२वीं शताब्दी) द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र
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जैन-मक्षणावली लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रचौर्यमहाव्रत और अहिंसामहाव्रत मादि शब्दों में हुआ है।
५७. ज्योतिष्करण्डक-इसके कर्ता का नाम अज्ञात है। इसमें २१ प्राभृत (अधिकार) और सब गाथायें ३७६ हैं। यहां कालमान, मासभेद, वर्षभेद, दिन व तिथि का प्रमाण, परमाणु का स्वरूप व उससे निष्पन्न होने वाले अंगुल आदि का प्रमाण, चन्द्र की हानि-वृद्धि, चन्द्र-सूर्यों की संख्या, नक्षत्रों की प्राकृति; चन्द्र, सूर्य व नक्षत्र आदि की गति, सूर्य-चन्द्रमण्डल और पौरुषीप्रमाण, इत्यादि विषयों की प्ररूपणा की गई है।
इस पर प्राचार्य मलयगिरि की टीका है। गाथा ६४-७१ में लतांग व लता प्रादि कालमानों की प्ररूपणा की गई है। ये कालमान अनुयोगद्वारसूत्र में निरूपित कालमानों से कुछ भिन्न हैं। इस भिन्नता का विचार करते हुए टीका में मलयगिरि ने यह कहा है कि स्कन्दिलाचार्य के समय दुष्षमाकाल के प्रभाव से जो दुर्भिक्ष पड़ा था, उसके कारण साधुओं का अध्ययन व गुणन (चिन्तन) प्रादि सब नष्ट हो गया था। उस दुर्भिक्ष के नष्ट होने पर सुभिक्ष के समय दो संघों का मिलाप हुग्रा-एक वलभी में और एक मथुरा में । उनमें सूत्रार्थ की संघटना से परस्पर वाचनाभेद हो गया। सो वह अस्वाभाविक भी नहीं हैं, क्योंकि विस्मत सूत्र और अर्थ का स्मरण कर करके संघटना करने पर वाचनाभेद अवश्यंभावी है। इसमें असंगति कुछ भी नहीं है। उनमें जो अनुयोगद्वार आदि आज वर्तमान हैं वे माथुर वाचना के अनुसार हैं । पर ज्योतिष्करण्डक के कर्ता प्राचार्य वालभी वाचना के अनुयायी रहे हैं । इस जो संख्यास्थानों का प्रतिपादन किया गया है वह वालभ्य वाचना के अनुसार किया गया है । अतएव अनुयोगद्वारप्रतिपादित संख्यास्थानों से इनकी भिन्नता को देख करके अश्रद्धा नहीं करना चाहिए।
यह उक्त टीका के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रक्ष (मापविशेष), अभिवधित मास, अभिवधित संवत्सर, आदित्यमास, अादित्यसंवत्सर, उच्छवास और उत्सर्पिणी आदि शब्दों में हुआ है।
५८. प्रा. पंचसंग्रह (दि.)-पंचसंग्रह इस नाम से प्रसिद्ध अनेक ग्रन्थ हैं, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में रचे गये हैं। उनमें यहां दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य पंचसंग्रह का परिचय कराया जा रहा है। यह किसके द्वारा रचा या संकलित किया गया है, यह अभी तक अज्ञात ही बना हमा है। पर विषयव्यावर्णन और रचनाशैली को देखते हुए वह बहुत कुछ प्राचीन प्रतीत होता है। इसमें माम के अनुसार ये पांच प्रकरण हैं-जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धस्तव, शतक और सप्ततिका । इनकी गाथासंख्या क्रमशः इस प्रकार है-२०६+१२+७+५२२+५०७-१३२४ । प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे प्रकरण में कुछ गधभाग भी है। उक्त पांच प्रकरणों में क्रम से कर्म के बन्धक (जीव), बध्यमान (कर्म), बन्धस्वामित्व, बन्ध के कारण और बन्ध के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रसंग के अनुसार अन्य भी विषयों का-जैसे उदय व सत्त्व आदि का-निरूपण किया गया है।
वीरसेनाचार्य द्वारा अपनी धवला टीका में अनेक ऐसी गाथाओं को उद्घत किया गया है जो यथास्थान प्रस्तुत पंचसंग्रह में उपलब्ध होती हैं । पर ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नाम का निर्देश वहाँ कहीं नहीं किया गया है। इससे कहा नहीं जा सकता है कि उनके समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह रहा है या अन्य कोई प्राचीन ग्रन्थ ।
इसके ऊपर भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा संस्कृत टीका रची गई है। जिसे उन्होंने भाद्रपद शुक्ला दशमी वि. सं. १६२० को पूर्ण किया है । यह भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान, अयोगिजिन, अलेश्य, अविरतसम्यग्दष्टि और आहारक (जीव) आदि शब्दों में हुआ हुआ है।
५६. परमात्मप्रकाश-इसके रचयिता योगीन्दु देव हैं। उनका समय विक्रम की छठी-सातवीं १. ज्योतिष्क. टीका ७१, पृ. ४०
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प्रस्तावना
४५
शताब्दी है। ग्रन्थ की भाषा अपभ्रश है। वह प्रायः दोहा छन्द में रचा गया है। अन्तिम दो पद्यों में प्रथम स्रग्धरा छन्द में और दूसरा मालिनी छन्द में रचा गया है। इसमें २ अधिकार व पद्यसंख्या १२३+२१४३३७ है। इनमें कुछ प्रक्षिप्त पद्य भी सम्मिलित हैं। इसमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप को प्रगट करते हुए द्रव्य, गुण, पर्याय, निश्चयनय, मोक्ष, मोक्षफल और निश्चय-व्यवहार के भेद से दो प्रकार के मोक्षमार्ग का विवेचन किया गया है।
ग्रन्थ की रचना योगीन्दु देव के द्वारा शिष्य प्रभाकर भट्ट की विज्ञप्ति पर की गई है । ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए मंगल के पश्चात् यहाँ यह कहा गया है कि भट्ट प्रभाकर ने भावतः पंच गुरुत्रों को नमस्कार कर निर्मल भावपूर्वक योगीन्दु जिनसे विज्ञप्ति की कि स्वामिन्, संसार में रहते हए अनन्त काल बीत गया, पर मैंने थोड़ा भी सूख नही प्राप्त किया, किन्तु दुख ही अधिक प्राप्त किया है। इसलिए कृपाकर मुझे चतुर्गति के दुःख को नष्ट करनेवाले परमात्मा के स्वरूप को कहिये । इस प्रकार से विज्ञापित योगीन्दु देव कहते हैं कि हे भट्ट प्रभाकर सुनो, मैं तीन प्रकार के मात्मा के स्वरूप को कहता हूँ।
ग्रन्थ के अन्त में भी ग्रन्थकार यह अभिप्राय प्रगट करते हैं कि यहां जो कहीं-कहीं कुछ पुनरुक्ति हुई है वह प्रभाकर भट्ट के कारण से हुई है, अतः पण्डित जन उसे न तो दोषजनक ग्रहण करें और न गण ही समझे।
इसके ऊपर ब्रह्मदेव के द्वारा टीका रची गई है। ब्रह्मदेव विक्रम की ११-१२वीं शताब्दी के विदाम हैं। उन्होंने भोजदेव के राज्यकाल (वि. सं. १०७०-१११०) में द्रव्यसंग्रह की टीका लिखी है। इन्होंने भी अपनी टीका में प्रभाकर भट्ट का शंकाकार के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि पूण्य मुख्य रूप से मोक्ष का कारण व उपादेय नहीं है तो भरत, सगर, राम और पाण्डव आदि भी निरन्तर परमेष्ठिगुणस्मरण एवं दान-पूजा आदि के द्वारा भक्तिवश पुण्य का उपार्जन किसलिए करते रहे हैं।
यह उक्त टीका के साथ परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से प्रकाशित हमा है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुमा है
मूल-परमात्मा और बहिरात्मा प्रादि । टीका-प्रव्याबाधसुख प्रादि ।
६०. सन्मतिसूत्र-यह प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचा गया एक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है. जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्परामों में समानरूप से प्रतिष्ठित है। ये सिद्धसेन भ्यायावतार के कर्ता से भिन्न व उनके पूर्ववर्ती हैं । इनका समय विक्रम की छठी या सातवीं शताब्दी है। वे नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद और जिनभद्र क्षमाश्रमण के पूर्व (वि. सं. ५६२-६६६) किसी समय में हए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ तीन काण्डों में विभक्त है। समस्त गाथासंख्या ५४+४३+७०=१६७ है। उक्त तीन काण्डों में प्रथम का नाम नयकाण्ड और द्वितीय का नाम जीवकाण्ड पाया जाता है, तीसरे काण्ड का कोई नाम उपलब्ध नहीं होता। इसके ऊपर प्रद्युम्न सूरि के शिष्य अभयदेव सरि (विक्रम की १०वीं शताब्दी) द्वारा विरचित विस्तृत टीका है। इसके प्रथम काण्ड में नय-विशेषतया द्रध्याथिकब पर्यायर्थिक नय-के स्वरूप का विचार करते हुए उनके प्राश्रय से निक्षेपविधि की योजना १. परमा. १,८-११. २. इत्थु ण लेवउ पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुत्तु ।
भट्ट-पभायर कारणई मई पुणु पुणु वि पउत्तु ॥२-२११. ३. अनेकान्त के 'छोटेलाल जैन स्मृति अंक' में 'द्रव्यसंग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार
शीर्षक लेख । पृ. १४५.४८. ४. परमा. २.६१. ५. पुरातन जैन वाक्यसूची की प्रस्तावना, पृ. १४४.४७.
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जन-लक्षणावली
पूर्वक वस्तुस्वरूप का विचार किया गया व सप्तभंगी की योजना की गई है। द्वितीय काण्ड में ज्ञान और दर्शन उपयोगों का विचार करते हुए छमस्थ के ज्ञान और दर्शन में तो क्रमवर्तित्व बतलाया गया है, परन्तु केवली के ज्ञान-दर्शन में उस क्रमवर्तित्व का निराकरण करते हुए उन दोनों में अभेद सिद्ध किया गया है। वहां कहा गया है कि केवली चूंकि नियमतः अस्पष्ट पदार्थों को जानते एवं देखते हैं, अतएव उनका केवलप्रवबोध ही समानरूप से ज्ञान और दर्शन है। आगे वहाँ कहा गया है कि इस प्रकार जिनप्ररूपित पदार्थों का जो श्रद्धान करता है उसका जो आभिनिबोधिक ज्ञान है वही दर्शन है-सम्यग्दर्शन शब्द से कहा जाने वाला है। अन्त में 'अनादि-अनिधन जीव और सादि-अनिधन केवलज्ञान इन दोनों में अभेद कैसे हो सकता है, इस शंका का निराकरण करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोई पुरुष साठ वर्ष का हुआ व तीस वर्ष का राजा हुआ, इस उदाहरण में पुरुषसामान्य की अपेक्षा अभेद के होते हए भी राजारूप पर्याय की अपेक्षा भेद देखा जाता है, उसी प्रकार प्रकृत में कथंचित् भेदाभेद समझना चाहिए।
अन्तिम ततीय काण्ड में सामान्य और विशेष का विचार करते हए तद्विषयक भेदकान्त और अभेदैकान्त का निराकरण किया गया है और उनमें कथंचित् भेदाभेद को सिद्ध किया गया है।।
प्रस्तुत ग्रन्थ मूलरूप में जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा तथा अभयदेव सूरि विरचित उक्त टीका के साथ गुजरात विद्यापीठ (गुजरात पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली) अहमदाबाद द्वारा पांच भागों में प्रकाशित किया गया है। इनका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल --अस्ति-प्रवक्तव्य द्रव्य, अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य द्रव्य और अस्ति-नास्ति द्रव्य आदि । टीका-ऋजुसूत्र और एवम्भूत नय आदि ।
६१. न्यायावतार-इसके रचयिता सिद्धसेन दिवाकर हैं। इनका समय (प्रायः विक्रम की ८वीं शताब्दी) है । इसके ऊपर सिद्धषि (विक्रम की १०वीं शताब्दी) विरचित एक टीका है। सिद्धर्षि के द्वारा अपनी उपमितिभव-प्रपंचकथा ई. सन् ६०६ (विक्रम सं. ६६३) में समाप्त की गई है । प्रस्तुत ग्रन्थ में सूत्ररूप ३२ कारिकायें (श्लोक) हैं। ये कारिकायें अर्थतः गम्भीर हैं। यहाँ सर्वप्रथम स्वपरावभासी निधि ज्ञान को प्रमाण बतलाकर उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों का निर्देश किया गया है। पश्चात् प्रसिद्ध प्रमाणों के लक्षण के निरूपण का प्रयोजन बतलाते हए प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-जो ज्ञान अपरोक्षस्वरूप से, अर्थात् इन्द्रियों की अपेक्षा न कर साक्षास्कारिता से, अर्थ को ग्रहण करता है उसे प्रत्यक्ष और उससे विपरीत को परोक्ष कहते हैं । आगे अनुमान के लक्षण का निर्देश करते हुए उसे प्रत्यक्ष के समान अभ्रान्त बतलाया है।
तत्पश्चात् सामान्य से शाब्द-शब्दजन्य ज्ञान का लक्षण बतलाते हए जिस प्रकार के शास्त्र से उत्पन्न होनेवाला वह शाब्द ज्ञान प्रमाण हो सकता है उस शास्त्र के लक्षण का निर्देश किया गया है। जिस श्लोक के द्वारा उक्त लक्षण को प्रगट किया गया है वह समन्तभद्राचार्य विरचित रत्नकरण्डक में उपलब्ध होता है। इस क्रम से यहां आगे परार्थानुमान, पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, तदाभास (पक्षाभासादि), दृषण, दूषणाभास, केवलज्ञान, प्रमाण का फल, स्याद्वादश्रुत और प्रमाता जीव; इनकी चर्चा की गई है। अन्त में कहा गया है कि यह अनादि-निधन प्रमाणादि की व्यवस्था यद्यपि सब व्यवहारी जनों को प्रसिद्ध है. फिर भी अव्युत्पन्नों को उसका बोध कराने के लिए यहाँ उसकी प्ररूपणा की गई है।
यह मूलरूपमें जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा तथा सिद्धर्षि विरचित उक्त टीका और देवभद्र सरिकृत टिप्पण के साथ श्वेताम्बर जैन महासभा वम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
___ मूल-अनुमान, अनैकान्तिक और प्रसिद्ध हेत्वामास प्रादि । १. प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। न्यायाव. रत्नक. ६.
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प्रस्तावना
टीकाप्रनैकान्तिक आदि ।
६२. तत्वार्थवार्तिक - प्राचार्य अकलंक देव द्वारा विरचित यह तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या है | कलंकदेव का समय ई. ७२०-८० (वि. सं. ७७७-८३७) निश्चित किया गया है । ये प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् तो थे ही, साथ ही वे सिद्धान्त के भी मर्मज्ञ थे । उनके समक्ष षट्खण्डागम रहा है और प्रस्तुत व्याख्या में उन्होंने इसका पर्याप्त उपयोग भी किया है । जैसे -- तत्त्वार्थवार्तिक में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के विषय में जो विवेचन किया गया है वह प्रायः षट्खण्डागम के प्रश्रय से किया गया है । यहाँ दोनों ग्रन्थों के कुछ समान उद्धरण दिये जाते हैं'
देसि चैव सव्वकम्माणं जाघे अंतोकोडा कोडिट्ठिदि ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ता पढमसम्मत्तमुप्पादेदि । षट्खं १, १ ८ ५ – पु. ६, पृ. २२२,
अन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धिपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्ये यसागरोन मसहस्रानायामन्तः कोटिकोटिसागरोपमस्थितौ स्थापितेष प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । त. वा. २, ३, २ ।
X
X
X
सो पण पंचिदिसणी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तम्रो सव्वविद्धो ।
षट्खं. १, ६-८, ४ – पु. ६, पृ. २०६ |
स पुनर्भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टिः पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति ।
त. वा. २, ३, २ ।
वार्तिककार के सामने लोकानुयोग के भी कुछ प्राचीन ग्रन्थ रहे हैं । चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत १६ वें सूत्र की व्याख्या करते हुए उनके द्वारा कल्पों की व्यवस्था में १४ इन्द्रों की प्ररूपणा की गई है । वहां उन्होंने यह कहा है कि ये जो यहाँ १४ इन्द्र कहे गये हैं वे लोकानुयोग के उपदेश के अनुसार कहे गये हैं । परन्तु यहाँ (तत्स्वार्थ सूत्र में ) वे १२ ही माने गये हैं । इसके अनुसार ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र और सहस्रार ये चार इन्द्र दक्षिण इन्द्रों के अनुवर्ती हैं तथा प्रानत और प्राणत में एक-एक इन्द्र हैं । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की इस व्यख्या में प्रसंग के अनुसार अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है । ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ काशी से २ भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग प्रकषायवेदनीय, अकामनिर्जरा, अक्ष ( आत्मा ), अक्षम्रक्षण, प्रक्षीणमहानस और अगुरुलघु नामकर्म आदि शब्दों में हुआ है।
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६३. लघीयस्त्रय - इसके रचयिता उक्त प्राचार्य प्रकलंक देव हैं । इसमें सब ७८ कारिकायें हैं । ग्रन्थ प्रत्यक्ष परिच्छेद, विषय परिच्छेद, परोक्ष परिच्छेद, श्रागम परिच्छेद, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश; इन छह परिच्छेदों में विभक्त है । इसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाण, उनके विषय, अनेक भेदयुक्त नय और निक्षेप आदि का विवेचन किया गया है। इस पर स्वयं अकलंक देव के द्वारा विवृति, आचार्य प्रभाचन्द्र (विक्रम सं. १०३७-११२२, ई. ६८० - १०६५ ) * द्वारा विरचित विस्तृत न्यायकुमुदचन्द्र नाम की व्याख्या और अभयचन्द्र सूरि (विक्रम की १३-१४वीं शती) विरचित तात्पर्यवृत्ति टीका है । उक्त न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या के साथ मूल ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से दो भागों में प्रकाशित हुना है | तथा अभयचन्द्र विरचित वृत्ति के साथ भी वह उक्त संस्था द्वारा अलग से प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
१. सिद्धिविनिश्चय १, प्रस्तावना पृ. ४६ व ५५ ।
२. विशेष जानने के लिये देखिये अनेकान्त ( वर्ष १६, किरण ५, पृ. ३२१-२५) में 'सर्वार्थसिद्धि और तस्वार्थवार्तिक पर षट्खण्डागम का प्रभाव' शीर्षक लेख ।
३. त. वा. ४, १६, ८, पृ. २३३, पं. २१-२३ ।
४, सिद्धिविनिश्चय १, प्रस्तावना, पृ. ४१ ।
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जेन - लक्षणावली
मूल -- श्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनुमान, अभिरूठ और उपयोग आदि ।
न्यायकु . - अनुयोग आदि ।
तात्पर्यवृत्ति - श्रर्थक्रिया आदि ।
६४. न्यायविनिश्चय- इसके रचयिता उक्त अकलंक देव हैं। इसमें तीन प्रकरण हैं - प्रत्यक्ष प्रस्ताव, अनुमान प्रस्ताव और प्रवचन प्रस्ताव । नामों के अनुसार इनमें क्रम से प्रत्यक्ष, अनुमान श्रौर प्रवचन (आगम) प्रमाणों का ऊहापोहपूर्वक विचार किया गया है । समस्त कारिकाओं की संख्या ४८० है । यह मूलरूप में सिंघी जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता द्वारा प्रकाशित 'अकलंकग्रन्थत्रय' में मुद्रित है तथा प्रा. वादिराज ( विक्रम की ११वीं शताब्दी ई. १०२५) द्वारा विरचित विवरण के साथ वह भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अनुमान, अन्वय और उपमान श्रादि शब्दों में हुआ है ।
६५. प्रमारणसंग्रह - यह कृति भी उक्त कलंक देव की है । इसमें प्रत्यक्ष, स्मृति श्रादि भेदों से युक्त परोक्ष, अनुमान व उसके अवयव, हेतु, हेत्वाभास, वाद, सर्वज्ञता और सप्तभंगी आदि विषयों की प्ररूपणा की गई है । सब कारिकायें ८७३ हैं । इस पर एक स्वोपज्ञ विवृति भी है जो कारिकाओं के अर्थ की पूरक है । यह अकलंक ग्रन्थत्रय में सिंघी जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हो चुका है । इसका उपयोग अनुपलम्भ आदि शब्दों में हुआ है ।
६६. सिद्धिविनिश्चय — इसके भी रचयिता उक्त श्राचार्य कलंक देव हैं । इसमें निम्न लिखित १२ प्रस्ताव हैं - प्रत्यक्षसिद्धि, सविकल्पसिद्धि, प्रमाणान्तरसिद्धि, जीवसिद्धि, जल्पसिद्धि, हेतुलक्षणसिद्धि, शास्त्रार्थंसिद्धि, सर्वज्ञसिद्धि, शब्दसिद्धि, अर्थनयसिद्धि, शब्दनयसिद्धि और निक्षेपसिद्धि | यह स्वोपज्ञ विवृति और प्राचार्य अनन्तवीर्यं द्वारा विरचित टीका से सहित है । अनन्तवीर्य नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए हैं । उनमें से प्रकृत टीका के रचयिता अनन्तवीर्य का समय पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के द्वारा ई. ९५० - ६६० (वि. सं. २००७ - १०४७) सिद्ध किया गया है । इस टीका के साथ वह भारतीय ज्ञानपीठ काशी से दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ है
मूल - अन्ययोगव्यवच्छेद और उपमान श्रादि ।
टीका - किचित्कर, अनैकान्तिक, अन्यथानुपपत्ति, अन्यथानुपपन्नत्व, अन्ययोगव्यवच्छेद, प्रयोग- व्यवच्छेद, प्रसिद्ध हेत्वाभास और उपमान आदि ।
६७. पद्मपुराण - इसे पद्मचरित भी कहा जाता है । यह आचार्य रविषेण के द्वारा महावीर निर्वाण के बाद बारह सौ तीन वर्ष और छह मास (१२०३३) के बीतने पर (वि. सं. ७३३ के लगभग ) रचा गया है । इसमें प्रमुखता से रामचन्द्र के जीवनवृत्त का निरूपण किया गया है रामचन्द्र की कथा इतनी रोचक रही है कि उसे थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अनेक सम्प्रदायों ने अपनाया है । प्रकृत ग्रन्थ विविध घटनाओं व विषयविवेचन के अनुसार १२३ पर्वों में विभक्त है । यह मूल मात्र मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से ३ भागों में प्रकाशित हुआ है तथा हिन्दी अनुवाद के साथ भी काशी से ३ भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग अक्षौहिणी, श्रज, अधोलोक, प्राक्षेपिणी कथा श्रादि शब्दों में हुआ है ।
वह भा. ज्ञानपीठ ग्रहिसाणुव्रत और
६८. वरांगचरित - इसके रचयिता श्राचार्य जटासिंहनन्दी हैं । इनका समय विक्रम की वीं शताब्दी है 1 प्रस्तुत ग्रन्थ ३१ सर्गों में विभक्त है । यह अनुष्टुप् व उपजाति आदि अनेक छन्दों में रचा गया है । इसमें उत्तमपुर के शासक भोजवंशी राजा धर्मसेन के पुत्र वरांग की कथा दी गई है । यथाप्रसंग वहां शुभाशुभ कर्म और उनके फल का विवेचन करते हुए मतान्तरों की १. सिद्धिविनिश्चय १ प्रस्तावना पृ. ८७.
समीक्षा भी की गई है ।
२. पद्मपु. १२३-१५२.
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प्रस्तावना
यह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग श्रधमंद्रव्य, मनार्य, अस्तेयमद्दाव्रत, आकाश, आप्त, श्रार्य और ऋतु श्रादि शब्दों में हुआ है ।
६६. हरिवंशपुराण - इसके रचयिता श्राचार्य जिनसेन प्रथम हैं जो पुग्नाटसंघ के रहे हैं । गुरु उनके कीर्तिषेण थे । इसका रचनाकाल शक सं. ७०५ (विक्रम सं. ८४० ) है । यह ६६ पर्वों में विभक्त है । इसमें हरिवंश को विभूषित करने वाले भगवान् नेमिनाथ व नारायण श्रीकृष्ण श्रादि का जीवनवृत्त है । प्रारम्भ में यहाँ मंगलाचरण के पश्चात् प्राचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी ( पूज्यपाद), वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, वरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी, शान्त, विशेषवादी, प्रभाचन्द्र के गुरु कुमारसेन, वीरसेन गुरु और पाश्र्वाभ्युदय के कर्ता जिनसेन का स्मरण किया गया है । तत्पश्चात् तीन केवली और पांच श्रुतकेवली आदि के नामों का उल्लेख करते हुए श्रुत की अविच्छिन्न परम्परा निर्दिष्ट की गई है' । साठवें पर्व में श्रीकृष्ण के प्रश्न के अनुसार भगवान् नेमि जिनेन्द्र के मुख से तिरेसठ शलाकापुरुषों के चरित का भी निरूपण कराया गया है । अन्तिम छयासठवें सर्ग में ग्रन्थ के कर्ता प्राचार्य जिनसेन ने अपनी परम्परा को प्रगट करते हुए इन प्राचार्यों का नामोल्लेख किया है - १ विनयंधर, २ गुप्तऋषि, ३ गुप्तश्रुति, ४ शिवगुप्त, ५ अर्हबलि, ६ मन्दरार्य, ७ मित्रवीरवि, ८ बलदेव, मित्र, १० सिंहवल, ११ वीरवित्, १२ पद्मसेन, १३ व्याघ्रहस्तक, १४ नागहस्ती, १५ जितदण्ड, १६ नन्दिषेण, १७ प्रभुदीपसेन, १८ तपोधन घरसेन, १६ सुधर्मसेन, २० सिंहसेन, २१ सुनन्दिषेण (प्र.), २२ ईश्वरसेन, २३ सुनन्दिषेण (द्वि.) २४ अभयसेन, २५ सिद्धसेन, प्रभयसेन (द्वि.), २७ भीमसेन २८ जिनसेन, २६ शान्तिषेण, ३० जयसेन गुरु, ३१ उनके पुंनाट संघ के अग्रणी शिष्य श्रमितसेन - जिनके अग्रज कीर्तिषेण थे, और उनके प्रमुख शिष्य जिनसेन - प्रकृत ग्रन्थ के निर्माता ।
यह मूल मात्र मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा दो भागों में तथा हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा भी प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अचोर्याणुव्रत, श्रज, श्रजीवविचय, अतिथिसंविभाग, अनाकांक्षक्रिया, अन्न-पाननिरोध, अपध्यान, अपायविचय और उपायविश्वय श्रादि शब्दों
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७०. महापुराण -- यह वीरसेन स्वामी के शिष्य श्राचार्य जिनसेन द्वारा विरचित है। पं. नाथूरामजी प्रेमी ने प्रा. जिनसेन के समय का अनुमान शक सं. ६७५-७६५ (विक्रम सं. ८१० - ९०० ) किया है । प्राचार्य जिनसेन बहुश्रुत विद्वान् थे । प्रस्तुत महापुराण भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा तीन भागों में प्रकाशित किया गया है। इनमें से प्रथम दो भागों में भगवान् श्रादिनाथ के चरित का वर्णन है । इसीलिए यह प्रादिपुराण भी कहलाता है। तीसरे भाग में श्रजितादि शेष २३ तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और नारायण-प्रतिनारायण आदि के चरित का कथन किया गया है । इसे उत्तरपुराण कहा जाता है । श्राचार्य जिनसेन इस समस्त महापुराण को पूरा नहीं कर सके । श्रादिपुराण में ४७ पर्व हैं, उनमें जिनसेन स्वामी के द्वारा ४२ पर्व पूर्ण और ४३वें पर्व के केवल ३ श्लोक ही रचे जा सके, तत्पश्चात् वे स्वर्गस्थ हो गये । तब उनकी इस अधूरी कृति को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूरा किया है। इस प्रकार गुणभद्राचार्य के द्वारा प्रादिपुराण के शेष पांच पर्व तथा उत्तरपुराण के २६ (४८-७६) पर्व रचे गये हैं । जिनसेन के द्वारा इसके प्रारम्भ में अपने पूर्ववर्ती निम्न श्राचार्यों का स्मरण किया गया है - १ सिद्धसेन, २ समन्तभद्र, ३ श्रीदत्त, ४ यशोभद्र, ५ चन्द्रोदय के कर्ता प्रभाचन्द्र कवि ६ श्राराधनाचतुष्टय के कर्ता शिवकोटि मुनि, ७ जटाचार्य, ८ काणभिक्षु, ६ देव (देवनन्दी), १० भट्टाकलंक, ११ श्रीपाल, १२ पात्रकेसरी, १३ वादिसिंह, १४ वीरसेन भट्टारक, १५ जयसेन गुरु और १६ कवि परमेश्वर । यह भारतीय
१. हरिवंशपु. ६६, ५२-५३. ३. सर्ग १, श्लोक ५८- ६५ ( प्रागे गई है) ।
५. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ५११ - १२.
२. सर्ग १, श्लोक २६-४०.
६६ सर्ग के २३-२४ श्लोकों में पुनः उसकी संक्षेप में सूचना की ४. श्लोक १३५ - ५७२.
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जैन-लक्षणावली
ज्ञानपीठ काशी द्वारा तीन भागों में प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अणुव्रत, प्राध्यान, पार्हन्त्यक्रिया, इक्ष्वाकु, उपक्रम, उपदेशसम्यक्त्व और एकत्ववितर्कवीचार आदि शब्दों में हा है।
७१. प्रमारणपरीक्षा-इसके रचयिता प्राचार्य विद्यानन्द (विक्रम की हवीं शताब्दी) हैं। इसमें सम्निकर्षादि को प्रमाण मानने वाले प्रवादियों के अभिमत की परीक्षा करते हुए उसका निराकरण
और स्वार्थव्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण सिद्ध किया गया है। पश्चात उस प्रमाण के प्रत्यक्ष व परोक्ष इन दो भेदों का निर्देश करके उनके उत्तर भेदों की भी प्ररूपणा करते हुए तद्विषयक मतान्तरों की समीक्षा भी की गई है।
यह प्राप्तमीमांसा के साथ में भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था काशी द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अवाय, ईहा और उपयोग आदि शब्दों में हरा है।
७२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-यह उक्त प्राचार्य विद्यानन्द द्वारा बिरचित तत्त्वार्थसूत्र की विस्तृत व्याख्या है। रचनाकाल इसका ई. ८१० (वि. सं. ८६७) है। यहाँ सर्वप्रथम यह शंका उठाई गई है कि प्रवक्ताविशेष के अभाव में चंकि किसी प्रतिपाद्यविशेष के प्रतिपित्सा (जिज्ञासा) सम्भव नहीं है, प्रतएव तत्त्वार्थशास्त्र का यह प्रथम सूत्र घटित नहीं होता है। इसके समाधान में कहा गया है कि जिसने समस्त तत्त्वार्थ को जान लिया है तथा जो कर्म-मल से रहित हो चुका है उसके मोक्षमार्ग के नेता सिद्ध हो जाने पर चंकि प्रतिपित्सा असम्भव नहीं है, अतएव उक्त प्रथम सत्र की प्रवृत्ति संगत ही हैअसंगत नहीं है। इस प्रसंग में यहाँ आगमविषयक विभिन्न मान्यताओं का निराकरण करते हुए सर्वज्ञप्ररूपित पागम को प्रमाणभूत सिद्ध किया गया है। साथ ही अन्य प्रवादियों के द्वारा माने गये प्राप्त का निराकरण भी किया गया है।
इस प्रकार पूर्व पीठिकारूप से इतना विवेचन करके तत्पश्चात् क्रम से समस्त सूत्रों की ताकिक पद्धति से व्याख्या की गई है। यह रामचन्द्र नाथारंग गांधी बम्बई के द्वारा प्रकाशित कराया गया है। इसका उपयोग अण्डज, अदर्शनपरीषहजय, अधिकरणक्रिया और अनर्थक्रिया आदि शब्दों में हुआ है ।
७३. प्रात्मानुशासन-गुणभद्राचार्य (विक्रम की ९-१०वीं शताब्दी) द्वारा विरचित यह एक उपदेशात्मक ग्रन्थ है। आत्महितैषी प्राणो प्रात्मा का उद्धार किस प्रकार से कर सकता है, इसकी शिक्षा यहाँ अनेक प्रकार से दी गई है। इसमें विविध छन्दों में २६६ श्लोक हैं। इसके ऊपर प्राचार्य प्रभाचन्द्र (विक्रम की १३वीं शताब्दी) विरचित एक संक्षिप्त संस्कृत टीका भी है। इस टीका के साथ मूल ग्रन्थ जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग अर्थ (सम्यक्त्वभेद), अवगाढसम्यक्त्व और प्राज्ञासम्यक्त्व आदि शब्दों में हया है।।
७४. धर्मसंग्रहरणी-इसके रचयिता हरिभद्र सूरि हैं। ये बहुश्रुत विद्वान् थे। इन्होंने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं। इसके अतिरिक्त बहुत से ग्रन्थों पर टीका भी लिखी है । इनके द्वारा विरचित अधिकांश ग्रन्थों के अन्त में 'विरह' शब्द उपलब्ध होता है। इनका समय विक्रम सं. ७५७ से ८२७ तक निश्चित किया गया है। इनका आख्यान प्रभावकचरित (पृ. १०३-२३) में उपलब्ध होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत गाथाबद्ध है। गाथाओं का प्रमाण १३६६ है। लेखनपद्धति दार्शनिक है। यहाँ जीव को अनादिनिधन, अमूर्त, परिणामी, ज्ञायक, कर्ता और मिथ्य त्वादिकृत निज कर्म के फल का भोक्ता बतलाते हुए प्रथमतः उसके अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। फिर उसकी परलोकगामिता के साथ नित्यता की भी सिद्धि की गई है। इसी क्रम से आगे उसकी परिणामिता, शरीरप्रमाण कर्म-कर्तृता और कर्मफलभोक्तृत्व को भी सिद्ध किया गया है। आगे कर्म के स्वरूपादि और उसके मतिमत्त्व का विचार करते हुए बाह्य अर्थ को सिद्ध किया गया है। तत्पश्चात् सम्यक्त्व, ज्ञान, वीतरागता और सर्वज्ञता आदि का विवेचन करते हए यथाप्रसंग अन्यान्य विषयों का भी विचार किया गया १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ३५६.
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प्रस्तावना
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। प्रकरणानुसार इसमें और श्रावकप्रज्ञप्ति में कितनी ही गाथाएँ समानरूप से उपलब्ध होती हैं । कुछ गाथायें समराच्चकहा में भी उपलब्ध होती हैं । यथाक्रम से मिलान कीजिये
धर्म संग्रहणी - ६०७ - २३, ७४४-४७, ७५२, ७५५-६३, ८००, ७८० (पू.), ७६६-८१४. श्रावकप्रज्ञप्ति - १०-२६, २७-३०, ३२, ३४-४२, ४७, १०१ (पू.), ४३-६१.
इसके ऊपर श्राचार्य मलयगिरि द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ ग्रन्थ देवचन्द्र लालभाई जैन साहित्योद्वार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है । मूल मात्र पंचाशक आदि के साथ ऋषभदेव केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसकी टीका का उपयोग इस शब्दों में हुआ है - श्रनुमान, अन्तरायकर्म, प्रादेय नामकर्म, श्रायुकर्म और औपशमिकसम्यक्त्व आदि । हरिभद्रसूरि के इन अन्य ग्रन्थों का भी प्रकृत लक्षणावली में उपयोग हुआ है - १ उपदेशपद, २ श्रावकप्रज्ञप्ति ३ धर्म बिन्दुप्रकरण ४ पंचाशक, ५ षड्दर्शनसमुच्चय, ६ शास्त्रवार्तासमुच्चय, ७ षोडशकप्रकरण ८ श्रष्टकानि, योगदृष्टिसमुच्चय, १० योगबिन्दु, ११ योगविंशिका र १२ पंचवस्तुक |
७५. उपदेशपद - प्राकृत गाथाबद्ध यह उपदेशात्मक ग्रन्थ उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा रचा गया है । इसमें समस्त गाथायें १०३६ हैं । सर्वप्रथम यहाँ दो गथानों में ग्रन्थकार हरिभद्र सूरि ने भगवान् महावीर को नमस्कार करते हुए उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति जनों के प्रबोधनार्थं कुछ उपदेशपदों के कहने की प्रतिज्ञा की है । टीकाकार मुनिचन्द्र सूरि ने 'उपदेशपदों' का अर्थ दो प्रकार से किया हैप्रथम अर्थ करते हुए उन्होंने उन्हें चार पुरुषार्थों में प्रधानभूत मोक्ष पुरुषार्थविषयक उपदेशों के पदस्थानभूत मनुष्यजन्मदुर्लभत्व आदि - बतलाया है । तथा दूसरा अर्थ करते हुए 'उपदेश' और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास स्वीकार कर उपदेशों को ही पद माना है । तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में मनुष्य जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की चर्चा की गई है, जो उपदेशात्मक वचनरूप ही है ।
आगे कहा गया है कि संसाररूप समुद्र में मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । अतएव जिस किसी प्रकार से इसे पाकर आत्महितैषी जनों को उसका सदुपयोग करना चाहिए । उक्त मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है, यह चोल्लक आदि के दृष्टान्तों द्वारा प्रा. भद्रबाहु आदि के द्वारा पूर्व में कहा गया
। तदनुसार मैं भी उन्हीं दृष्टान्तों को कहता हूँ । इस प्रकार कहकर -- १ चोल्लक, २-३ पाशक, ४ द्यूत, ५ रत्न, ६ स्वप्न, ७ चक्र, ८ चर्म, ६ युग और १० परमाणु इन दस दृष्टान्तों का निर्देश करते हुए क्रम से उन दृष्टान्तों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की
गई है ।
प्रथम दृष्टान्त चोल्लक का है । चोल्लक यह देशी शब्द है, जो भोजन का वाचक है । जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के यहाँ एक बार भोजन करके पुनः भोजन करना दुर्लभ हुआ, इसी प्रकार एक बार मनुष्य पर्याय को पाकर फिर उसका पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है । इसकी कथा टीकाकार ने किन्हीं प्राचीन ५०५ गाथाओं द्वारा प्रगट की है ।
उक्त दृष्टान्तों के अतिरिक्त अन्य भी कितने ही विषयों की प्ररूपणा अनेक दृष्टान्तों के साथ की गई है । ग्रन्थ का प्रकाशन मुनिचन्द्र विरचित (वि. सं. १९७४) उक्त टीका के साथ मुक्तिकमल जैन मोहनमाला बड़ौदा से हुआ । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल - अपवाद और औत्पत्तिकी आदि ।
टीका - श्रनध्यवसाय, अनुमान और अपवाद आदि I
७६. श्रावकप्रज्ञप्ति - इसके रचयिता उक्त हरिभद्र सूरि हैं । यद्यपि उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में 'उमास्वातिविरचित' लिखा गया है, पर श्रावकधर्मपंचाशक, धर्मसंग्रहणी और समराइच्चकहा आदि ग्रन्थों के साथ तुलना करने पर वह हरिभद्र सूरि की ही कृति प्रतीत होती है'। यह बारह प्रकार १. धर्मबिन्दु के टीकाकार मुनिचन्द्र सूरि ने वाचक उमास्वाति विरचित एक श्रावकप्रज्ञप्ति सूत्र का निर्देश किया है । जैसे - तथा च उमास्वातिवाचकविरचितश्रावकप्रज्ञप्तिसूत्रम् - यथा प्रतिथिसंवि भागो नाम प्रतिथयः । ध. बि. मुनि. वृ. ३-१६ ( पर उमास्वाति विरचित कोई संस्कृत श्रावकप्रज्ञप्तिसूत्र उपलब्ध नहीं है ।)
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जैन-लक्षणावली
के श्रावकधर्म का प्ररूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। गाथासंख्या इसकी ४०१ है। इसमें प्रथमतः श्रावक के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो सम्यग्दृष्टि प्रतिदिन मुनि जनों से सामाचारी–साधु और श्रावक से सम्बद्ध आचार को-सुनता है वह श्रावक कहलाता है। आगे श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश करके उनका मूल कारण सम्यक्त्व को बतलाया है। पश्चात् जीव के साथ अनादि से सम्बन्ध को प्राप्त हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का निरूपण करते हुए वहाँ सम्यक्त्व और उसके विषयभूत जीवादि सात तत्त्वों का विवेचन किया गया है। फिर क्रम से श्रावक के बारह व्रतों की प्ररूपणा करते हुए स्थूल प्राणवधविरमण (प्रथम अणुव्रत) के प्रसंग में हिंसा-अहिंसा की विस्तार से (गा. १०६-२५६) चर्चा की गई है। अन्त में श्रावक के निवास आदि से सम्बद्ध सामाचारी आदि का विवेचन किया गया है।
कुछ गाथाएँ यहाँ और समराइच्चकहा में समान रूप से उपलब्ध होती है । जैसेश्रा. प्र. ५३-६० व ३६०-६१ आदि । सम. क.७४-८१ व ८२-८३ आदि ।
इस पर 'दिक्प्रदा' नाम की स्वोपज्ञ टीका है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञानप्रसारकमण्डल नामक समाज बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है
मूल-प्रणुव्रत, अतिथिसंविभाग, आस्रव और प्रौपशमिक सम्यक्त्व आदि ।
टीका-अणुव्रत, अतिचार, अतिथि, अधोदिग्वत, अनङ्गक्रीडा, अनन्तानुबन्धी, अनर्थदण्डविरति, अन्तराय, आयु, प्रारम्भ, इत्वरपरिगृहीतागमन और ऊर्ध्वदिग्वत आदि ।
७७. धर्मबिन्दुप्रकरण-यह हरिभद्र सूरि विरचित धर्म का प्ररूपक सूत्रात्मक ग्रन्थ है । इसमें आठ अध्याय हैं । गद्यात्मक समस्त सूत्रों की संख्या ५४२ और श्लोक (अनुष्टुप) संख्या ४८ है । ये श्लोक प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में ३-३ और अन्त में भी ३-३ ही हैं । प्रथम अध्याय को प्रारम्भ कर हुए सर्वप्रथम यहाँ परमात्मा को नमस्कार करके श्रुत-समुद्र से जलबिन्दु के समान धर्मबिन्दु को उद्धृत करके उसके कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् धर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसे गृहस्थ और यति के भेद से दो प्रकार का बतलाया है। फिर सामान्य और विशेष रूप से गृहस्थधर्म के भी दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें सामान्य गृहस्थधर्म का वर्णन करते हुए प्रथमतः न्यायोपार्जित धन को आवश्यक बतलाया है, तत्पश्चात समानकल-शीलादि वाले अगोत्रजों (भिन्न गोत्र वालों) में विवाह । प्रकार के सामान्य धर्म का निर्देश करते हुए इस अध्याय को समाप्त किया गया है।
हेमचन्द्र सूरि ने सम्भवतः इसी का अनुसरण करके 'न्यायविभवसम्पन्न' आदि ३५ विशेषणों से विशिष्ट गृहस्थ को श्रावकधर्म का अधिकारी बतलाया है।
प्रागे दूसरे अध्याय में गृहस्थधर्मदेशना की विधि का निरूपण करते हुए तीसरे अध्याय में अणुव्रतादिरूप विशेष गृहस्थधर्म की प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ अध्याय में दीक्षा के अधिकारी का विचार करते हुए उसके लिए प्रार्यदेशोत्पन्न प्रादि १६ विशेषणों से विशिष्ट बतलाया गया है। पांचवें अध्याय में यति की विशेष विधि का वर्णन करते हुए छठे अध्याय में यतिधर्म के विषयविभाग का विवेचन किया गया है। सातवें अध्याय में धर्म के फल और पाठवें अध्याय में परम्परा से तीर्थकरत्व प्रादि की प्राप्ति का वर्णन किया गया है।
इसके ऊपर मुनिचन्द्र सूरि के द्वारा विक्रम सं. ११८१ में टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ पागमोदय समिति बम्बई से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुया है
मूल-अणुव्रत और इन्द्रियजय आदि । टीका-अतिथि, अतिथिसंविभाग, अनर्थदण्डविरति, भनङ्गक्रीडा और अन्न-पाननिरोध आदि ।
७८. पंचाशक-इसमें १६ पंचाशक (लगभग ५०-५० गाथायुक्त प्रकरण) और उनकी समस्त गाथासंख्या ९४० है। प्रथम पंचाशकका नाम श्रावकधर्मपंचाशक है। इसमें सम्यक्त्व के साथ श्रावक के १२
१. योगशास्त्र १,४७-५६.
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प्रस्तावना
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ब्रतों की चर्चा की गई है। इसे श्रावकप्रज्ञसिका संक्षिप्त रूप समझना चाहिए । शेष दूसरे-तीसरे आदि पंचाशकों के नाम ये हैं
२ दीक्षापंचाशक, ३ वन्दनापंचाशक, ४ पूजाप्रकरण, ५ प्रत्याख्यानपंचाशक, ६ स्तवनविधि, ७ जिनभवनकरणविधि, ८ प्रतिष्ठाविधि, हयात्राविधि, १० श्रमणोपासकप्रतिमाविधि, ११ साधुधर्मविधि, १२ सामाचारी, १३ पिण्ड विशुद्धि, १४. शीलांग, १५ अालोचनाविधि १६ प्रायश्चित्त, १७ स्थित्यादिकल्प, १८ भिक्षप्रतिमा और १६ तपोविधान ।
इसके ऊपर अभयदेव सूरि के द्वारा विक्रम सं. ११२४ में टीका लिखी गई है, पर वह हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। मूल ग्रन्थ ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हा है। इसका उपयोग प्रब्रह्मवर्जन आदि शब्दों में हुआ है।
७६. षड्दर्शनसमुच्चय- इसमें ८७ श्लोक (अनुष्टुप् ) है। देवता और तत्व के भेद से मूल में हरिभद्र सूरि की दृष्टि में ये छह दर्शन रहे हैं--बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय । ग्रन्थकार को यहाँ इन्हीं छह दर्शनों का परिचय कराना अभीष्ट रहा है। तदनुसार उन्होंने प्रथमतः ११ श्लोकों में बौद्ध दर्शन का, फिर १२-३२ में नैयायिक दर्शन का ३३-४३ में सांख्य दर्शन का. ४४.५८ में जैन दर्शन का, ५६-६७ में वैशेषिक दर्शन का और ६८-७७ में जैमिनीय दर्शन का परिचय कराया है। वैशेषिक दर्शन का परिचय कराते हुए प्रारम्भ में यह कहा गया है कि देवता की अपेक्षा नैयायिक दर्शन से वैशेषिक दर्शन में कुछ भेद नहीं है-दोनों ही दर्शनों में महेश्वर को सष्टिकर्ता व संहारक स्वीकार किया गया है। तत्त्वव्यवस्था में जो उनमें भेद रहा है उसे यहाँ प्रगट कर दिया गया है।
कितने ही दार्शनिक नैयायिक दर्शन से वैशेषिक दर्शन को भिन्न नहीं मानते-वे दोनों दर्शनों को एक ही दर्शन के अन्तर्गत मानते हैं। इस प्रकार वे पूर्वनिर्दिष्ट पाँच प्रास्तिक दर्शनों में एक नास्तिक दर्शन लोकायत (चार्वाक) को सम्मिलित कर छह संख्या की पूर्ति करते हैं (७८-७९) । तदनुसार यहाँ अन्त में (८०-८७) लोकायत दर्शन का भी परिचय करा दिया गया है।
यह विशेष स्मरणीय है कि यहाँ किसी भी दर्शन की आलोचना नहीं की गई है, केवल उक्त दर्शनों में किसकी क्या मान्यताए रही है, इसका परिचय मात्र यहाँ कराया गया है।
इसके ऊपर गुणरत्न सूरि (विक्रम सं. १४००-१४७५) के द्वारा विरचित तर्करहस्यदीपिका नाम की विस्तृत टीका है। इस टीका के साथ वह एशियाटिक सोसाइटी ५७, पार्क स्टीट से प्रकाशित हया है। मूल मात्र शास्त्रवार्तासमुच्चय प्रादि के साथ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-अजीव और पाश्रव आदि। टीका-अनुमान और प्राप्त आदि ।
८०. शास्त्रवासिमुच्चय-यह एक पद्यबद्ध दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें ८ स्तव (प्रकरण) हैं। उनमें पद्य (अनुष्टुप् ) संख्या इस प्रकार है-११२+१+४४+१३७+३६+६३+६६+१५६७०१ । यहाँ लोकायत मत, नियतिवाद, सृष्टिकर्तृत्व, क्षणक्षयित्व, विज्ञानवाद, शून्यवाद, द्वैत, अद्वैत और मक्ति प्रादि अनेक विषयों का विचार किया गया है। सातवें स्तव के प्रारम्भ में कहा गया है कि पागम के अध्येता अन्य (जैन) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त जीवाजीवस्वरूप जगत् को अनादि कहते हैं। ऐसा कहते हए आगे उक्त उत्पादादियुक्त वस्तु की साधक जो दो कारिकायें दी गई हैं वे अप्तमीमांसा से ली गई हैं।
घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पाद-स्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।।
-शास्त्रवा. ७,२-३; प्राप्तमी. ५६-६०।
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जैन-लक्षणावली
इसके ऊपर यशोविजय उपाध्याय (विक्रम की १७-१८वीं शताब्दी) विरचित टीका है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड बम्बई से तथा मूल मात्र जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हुअा है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
टीका-प्रतीर्थकरसिद्ध, अदत्तादान, अध्यषणा और अनेकसिद्ध आदि ।
५१. षोडशकप्रकरण-इसमें नाम के अनुसार १६-१६ पद्यों के १६ प्रकरण हैं, जो आर्या छन्द में रचे गये हैं। इनमें प्रथम षोडशक को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वीर जिनको नमस्कार कर सद्धर्मपरीक्षक आदि-बाल, मध्यमबुद्धि और बुध आदि-भावों के लिंग आदि के भेद से संक्षेप में कुछ कहने की प्रतिज्ञा की गई है। कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आगे कहा गया है कि बाल-विशिष्ट विवेक से विकल-तो लिग (बाह्य वेष) को देखता है, मध्यमबुद्धि चारित्र का विचार करता है, और बुध (विशिष्ट बुद्धिमान्) प्रयत्नपूर्वक प्रागम तत्त्व की-उसकी समीचीनता व असमीचीनता की-परीक्षा करता है । आगे उक्त बाल आदि के लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। इस प्रकार से इन सब प्रकरणों में विविध विषयों का विवेचन किया गया है।
इस पर यशोभद्र सूरि विरचित संक्षिप्त टीका है। इस टीका के साथ वह ऋषभदेव जी केशरीमल जी जैन श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हे
मूल-अगुरुलघु और पागम आदि । टीका-अनुबन्धसारा, असदारम्भ और उद्वेग आदि । ८२. अष्टकानि-इसमें ८-८ श्लोकमय ३२ प्रकरण हैं, जो इस प्रकार हैं-१ महादेवाष्टक, २ स्नानाष्टक, ३ पूजाष्टक, ४ अग्निकारिकाष्टक, ५ भिक्षाष्टक, ६ पिण्डाष्टक, ७ प्रच्छन्नभोजनाष्टक, ८ प्रत्याख्यानाष्टक, ९ ज्ञानाष्टक, १० वैराग्याष्टक, ११ तपोऽष्ट क, १२ पादाष्टक, १३ यमाष्टक, १४ नित्यात्मवादनिराकरणाष्टक, १५ क्षणिकवादनिराकरणाष्टक, १६ नित्यानित्याष्टक, १७ मांसभक्षणदूषणाष्टक, १८ अन्यदर्शनीयशास्त्रोक्तमांसभक्षणदूषणाष्टक, १६ मद्यपानदूषणाष्टक, २० मैथुन दूषणाष्टक, २१ सूक्ष्मबुद्धयष्टक, २२ भावशुद्धयष्टक, २३ शासनमालिन्यवर्जनाष्टक, २४ पुण्यादिचतुर्भग्याष्टक, २५ पितृभक्त्यष्टक, २६ महादानस्थापनाष्टक, २७ तीर्थकृद्दानाष्टक, २८ राज्यादिदानदूषणनिवारणाष्टक. २६ सामायिकाष्टक, ३० केवलज्ञानाष्टक, ३१ देशनाष्टक और ३२ सिद्धस्वरूपाष्टक ।
यह अष्टक प्रकरण शस्त्रवार्तासमुच्चय आदि के साथ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग प्रार्तध्यान आदि शब्दों में हया है।
८३. योगदृष्टिसमुच्चय-इसमें २२६ श्लोक (अनुष्टुप्) हैं । इच्छायोग, शास्त्र और सामर्थ्य योग के भेद से योग तीन प्रकार का है। इनमें सामर्थ्य योग दो प्रकार का है-धर्मसंन्याससंज्ञित और योगसंन्याससंज्ञित । इन सव योगों के लक्षणों का निर्देश करते हुए यहां मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन पाठ योगदृष्टियों का यथाक्रम से विवेचन किया गया है । इसके ऊपर स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा वृत्ति भी लिखी गई है। इस वृत्ति के साथ वह जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग 'इच्छायोग' आदि शब्दों में हुआ है।
८४. योगबिन्दु-इसमें ५२७ पद्य (अनुष्टप्) हैं। यहां योग से सम्बद्ध विविध विषयों की प्ररूपणा करते हुए जैमिनीय व सांख्य आदि के अभिमत का निराकरण भी किया गया है। इसके ऊपर भी स्वोपज्ञ वृत्ति है। वृत्ति के साथ यह भी पूर्वोक्त जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है।
८५. योगविशिका-नाम के अनुसार इसमें २० गाथायें हैं। सर्वप्रथम यहाँ योग के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो परिशुद्ध धर्मव्यापार मोक्ष से योजित कराता है उस सबको योग कहा जाता है। पर प्रकृत में विशेषरूप से स्थानादिगत धर्मव्यापार को ही योग जानना चाहिए । वे स्थान प्रादि पांच ये हैं-स्थान, उर्ण (शब्द), अर्थ, पालम्बन और रहित-रूपी द्रव्य के पालम्बन
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प्रस्तावना
से रहित चिन्मात्र समाधि। इनमें प्रथम दो-स्थान और ऊर्ण-कर्मयोग हैं तथा शेष तीन ज्ञानयोग हैं । स्थान से अभिप्राय कायोत्सर्ग व पद्मासन आदि का है, तथा अर्थ खे अभिप्राय क्रिया प्रादि में उच्चारण किये जाने वाले सूत्र के वर्णादि से है। उक्त स्थानादि में प्रत्येक इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिर और सिद्धि के भेद से चार-चार प्रकार का है। इन सबका यहाँ वर्णन किया गया है।
इस पर यशोविजय उपाध्याय द्वारा ग्रन्थ के रहस्य को स्पष्ट करने वाली विस्तृत टीका लिखी गई है । इस टीका के साथ ग्रन्थ प्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरा से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इच्छायोग आदि शब्दों में हुआ है।
८६. पंचवस्तुक-इसकी गाथासंख्या १७१४ है। इसमें प्रव्रज्या का विधान, प्रतिदिन की की क्रिया-दनिक अनुष्ठान, व्रतविषयकप्रस्थापना, अनयोग-गणानज्ञा और संलेखना इन पांच वस्तुओं की प्ररूपणा की गई है। इसीलिए उक्त पांच प्रकरणों का प्ररूपक होने से इसे पंचवस्तुक ग्रन्थ कहा गया है। 'वसन्त्यस्मिन् ज्ञानादयः परमगुणा: इति वस्तु' इस निरूक्ति के अनुसार जहाँ ज्ञानादि उत्कृष्ट गण रहा करते हैं उन्हें वस्तु कहा जाता है। इन्हीं ज्ञानादि गुणों के प्राश्रयभूत होने से ही उक्त प्रव्रज्याविधानादि को वस्तु मानकर उनकी यहाँ प्ररूपणा की गई है।
प्रथम प्रव्रज्या अधिकार में प्रव्रज्या देने का अधिकारी कौन है, किनके लिए प्रव्रज्या देना उचित है, वह किस स्थान में दी जानी चाहिये, तथा किस प्रकार से दी जानी चाहिये; इत्यादि प्रव्रज्या से सम्बद्ध विषयों की चर्चा की गई है। प्रव्रज्या का निरुक्त्यर्थ है मोक्ष के प्रति गमन । तदनुसार इसमें पाप के हेतुभूत गृहस्थ के व्यापार से निवृत्त होकर शुद्ध संयत के अनुष्ठान में उद्यत होना पड़ता है।
दूसरे अधिकार (प्रतिदिन की क्रिया) में उपधिका प्रतिलेखन, स्थान का प्रतिलेखन, भोजनपात्रों का प्रक्षालन, भिक्षा की विधि, नत्यादि का त्याग और स्वाध्याय इत्यादि का विवेचन किया गया है।
तीसरे व्रतविषयक स्थापना अधिकार के प्रारम्भ में यह निर्देश किया गया है कि संसारनाश के कारण व्रत हैं। वे व्रत जिनको दिये जाते हैं, जिस प्रकार से दिये जाते हैं, और जिस प्रकार से उनका परिपालन किया जाता है; इस सबका कथन इस अधिकार में किया जावेगा । अविरति से चूंकि कर्म का प्रास्रव होता है और उस कर्म से संसार है-चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण होता है। इसलिए कर्म को नष्ट करने के लिए विरति करना चाहिये । इस प्रकार निर्देश करते हुए अहिंसादि व्रतों का यहां सांगोपांग विचार किया गया है। इस अधिकार के अन्त में चारित्र की प्रधानता को प्रगट करते हुए मरुदेवी के प्रसंग से अनन्त काल में होने बाले इन दस प्राश्चर्यरूप भावों का निर्देश किया गया है१ उपसर्ग, २ गर्भहरण, ३ स्त्रीतीर्थ, ४ अभव्या परिषत्, ५ कृष्ण का अमरकंका गमन, ६ विमान के साथ चन्द्र-सूर्य का अवतरण, ७ हरिवंश कुल की उत्पत्ति, ८ चमरेन्द्र का उत्पात, ६ एक समय में एक सौ पाठ की सिद्धि (मुक्ति) और १० असंयतों की पूजा'।
चतुर्थ अनुयोग-गणानुज्ञा अधिकार में प्रथमत: यह कहा गया है कि जो साधु व्रतों से सहित होते हुए समयोचित समस्त सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं वे ही प्राचार्यस्थापनारूप अनुयोग आज्ञा के योग्य कहे गये हैं । अन्यथा लोक में मृषावाद, प्रवचन-निन्दा, योग्य नायक के अभाव में शेष के गुणों की हानि और तीर्थ का नाश होनेवाला है। अनुयोग का अर्थ जिनागम का व्याख्यान है। सदा प्रमाद से रहित होकर विधिपूर्वक उस व्याख्यान को करना, यही उसकी अनुज्ञा है। इस प्रकार सूचना कर के तत्सम्बन्धी प्रावश्यक विधि-विधान का यहां विवेचन किया गया है। आगे गणानज्ञा के प्रसंग में गण (गच्छ) के अधिष्ठाता होने के योग्य गुणों का निर्देश करते हुए उसके विषय में भी विचार किया गया है।
१. उवसग्ग गब्भहरणं इत्थीतित्थं अभाविप्रा परिसा ।
कण्हस्स अवरकंका अवयरणं चंद-सूराणं ।। ६२६ ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पाम्रो अ अट्रसय सिद्धा। अस्संजयाण पूमा दस वि अणंतेण कालेणं ॥६२७ ।।
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जैन-लक्षणावली
शरीर और कषायों का संलेखन करना-प्रागमोक्त विधि के अनुसार उन्हें कृश करना, इसका नाम संलेखना है । इसका वर्णन अन्तिम संलेखना अधिकार में किया गया है ।
इसके ऊपर स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका (स्वोपज्ञ) लिखी गई है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग प्रारभटा और इत्वरपरिहारविशुद्धिक आदि शब्दों में हुआ है।
८७. तत्त्वार्थसत्रवत्ति-यह उक्त हरिभद्र सरि द्वारा विरचित तत्त्वार्थसत्र की भाष्यानुसारिणी व्याख्या है । इसमें मूल सूत्रों की भाष्य के अनुसार व्याख्या करते हुए कितने ही महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है। इसका उपयोग अकामनिर्जरा, अङ्गोपाङ्गनामकर्म, अचक्षदर्शन, अज्ञानपरीषहजय और प्रतिभारारोपण आदि शब्दों में हुआ है।
८८. भावसंग्रह-यह आचार्य देवसेन के द्वारा रचा गया है। देवसेन का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है । ये विमलसेन गणधर के शिष्य थे। उन्होंने वि. सं. ६६० में दर्शनसार की रचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। बीच में कुछ थोड़े से अन्य छन्दों का भी उपयोग हुग्रा है। समस्त पद्यसंख्या ७०१ है।
यहाँ प्रथमतः जीव के मुक्त और संसारी इन दो भेदों का निर्देश करते हुए भाव से पाप, भाव से पुण्य और भाव से मोक्ष प्राप्त होने की सूचना की गई है। तत्पश्चात् प्रौदयिकादि पांच भावों का निर्देश करके मिथ्यात्व ग्रादि चौदह गुणस्थानों के नामोल्लेखपूर्वक क्रम से उनकी प्ररूपणा की गई है। प्रथम गुणस्थान के प्रसंग में मिथ्यात्व का विवेचन करते हुए सग्रन्थ और निर्ग्रन्थ को मुक्ति बतलाने वाले श्वेताम्बर सम्प्रदाय की समीक्षा की गई है। इस समीक्षा में सग्रन्थता, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति, जिनकल्प और स्थविरकल्प आदि की चर्चा की गई है। इसी प्रसंग में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि विक्रमराजा की मृत्यु के पश्चात् १३६वें वर्ष में सौराष्ट्र के अन्तर्गत बलभी में श्वेतपट संघ उत्पन्न हया । इस प्रकार उक्त चर्चा से सम्बद्ध संशयमिथ्यात्व की प्ररूपणा १६०वीं गाथा में समाप्त हई है। आगे अनेक प्रासंगिक चर्चामों के साथ यहाँ उक्त चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है।
ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुना है। इसका उपयोग अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत, अविरतसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यक्त्व आदि शब्दों में हुआ है।।
१६. प्रालापपद्धति-इसके कर्ता उक्त देवसेनाचार्य हैं। यहाँ प्रथमतः द्रव्य के लक्षण का निर्देश करते हुए अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमर्तत्व इन दस सामान्य गुणों में से प्रत्येक द्रव्य के वे पाठ-पाठ बतलाये गये हैं। प्रारम्भ के छह गुण तो सभी में रहते हैं । चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व इन चार में से कोई दो ही रह सकते हैं। जैसे-जीव में पूर्वोक्त छह के साथ चेतनत्व और अमूर्तत्व हैं तथा पुद्गल में अचेतनत्व और मूर्तत्व हैं।
विशेष गण सोलह हैं। उनमें से प्रत्येक द्रव्य में कितने और कौन से सम्भव हैं, इसका विचार करते हए पर्यायों के स्वरूप और उनके भेदों का विवेचन किया गया है। इसके पश्चात द्रव्यों के इक्कीस स्वभावों में से ग्यारह सामान्य और दस विशेष स्वभावों का विश्लेषण करते हए वे जीवादि द्रव्यों में से किसके कितने सम्भव हैं, इसका विचार किया गया है । तत्पश्चात प्रमाणभेदों और नयभेदों की चर्चा की
इसका प्रकाशन नयचक्र के साथ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से और प्रथम गुच्छक में निर्णयसागर मुद्रणालय से हुआ है। इसका उपयोग अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय और अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनय आदि शब्दों में हुआ है।
१०. तच्चसार(तत्त्वसार)-यह भी उक्त देवसेनाचार्य की कृति है। इसमें ७४ गाथायें हैं। सर्वप्रथम यहां परमसिद्धों को नमस्कार कर तच्चसार के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् यह कहा गया है कि तत्त्व बहत प्रकार का है, उसका वर्णन पूर्वाचार्यों द्वारा धर्म के प्रवर्तन और भव्य जनों के
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प्रस्तावना
प्रबोधनार्थ किया गया है। एक तत्त्व स्वगत है और दूसरा परगत । स्वगत तत्त्व निज प्रात्मा और परगत तत्त्व पाँचों परमेष्ठी हैं। उन परमेष्ठियों के अक्षर रूप का-उनके बोधक अ, सि, पा, उ, सा व प्रोम् प्रादि अक्षरों का ध्यान करने वाले भव्य मनुष्यों के बहुत प्रकार के पुण्य का बन्ध होता है और परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त होता है।
स्वगत तत्त्व दो प्रकार का है-सविकप और अविकल्प। इनमें सविकल्प स्वगत तत्त्व प्रास्रव. युक्त है और अविकल्प स्वगत तत्त्व उस प्रास्रव से रहित है। इन्द्रियविषयों से विमुख हो जाने पर जब मन का विच्छेद हो जाता है तब अपने स्वरूप में निर्विकल्प अवस्था होती है। इस प्रकार से शुद्ध प्रात्मस्वरूप का विचार करते हुए ध्यान करने की प्रेरणा की गई है। इसी प्रसंग में स्वद्रव्य और परद्रव्य का विचार करते हुए ज्ञानी और अज्ञानी की प्रवृत्ति में विशेषता प्रगट की गई है।
यह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा तत्त्वानुशासनादिसंग्रह में प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग आत्मा (अप्पा) आदि शब्दों में हया है।
६१. नयचक्र-इसके रचयिता उक्त देवसेन हैं। बृहन्नयचक्र को लक्ष्य में रखकर इसे लघुनयचक्र भी कहा जाता है। इसमें ८७ गाथायें हैं । सर्वप्रथम यहाँ वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए नयों के लक्षण के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। आगे नय के लक्षण में कहा गया है कि ज्ञानियों के विकल्परूप जो वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला श्रुतभेद है उसे नय कहा जाता है तथा उन्हीं नयों के आश्रय से
नी होता है। नय के बिना चंकि स्याद्वाद का बोध सम्भव नहीं है, अतएव एकान्त को नष्ट करने के अभिप्राय से नय का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार नय की आवश्यकता को प्रगट करते हुए आगे कहा गया है कि एक नय एकान्त और उसके समूह का नाम अनेकान्त है तथा वह ज्ञान का विकल्प है जो समीचीन भी होता है और मिथ्या भी होता है। नयरूप दृष्टि के बिना वस्तुस्वरूप की उपलब्धि नहीं होती और बिना वस्तुस्वरूप की उपलब्धि के जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते।
इसके पश्चात् द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक इन दो नयों को मूल नय बतलाते हुए उनके असंख्य भेदों की सूचना की गई है। आगे इन दो नयों के साथ नैगमादि सात नयों का निर्देश करके नय के नौ भेद और उपनय के तीन भेद कहे गये हैं।
आगे द्रव्याथिक के दस, पर्यायाथिक के छह, नैगम के तीन, संग्रह के दो, व्यवहार के दो, ऋजुसूत्र के दो तथा शेष के एक-एक भेद का निर्देश करते हुए यथाक्रम से उनकी तथा उपनयभेदों की प्ररूपणा की गई है।
अन्त में कहा गया है कि व्यवहार से चूंकि बन्ध होता है और मोक्ष चूंकि स्वभावसंयुक्त है, अतएव स्वभाव के अाराधन के समय में उसे (व्यवहार को) गौण करना चाहिए। इस प्रकार से यहाँ आत्मस्वभाव का भी विचार किया गया है।
इसका प्रकाशन मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से हुआ है। इसका उपयोग उत्पाद-व्ययसापेक्ष, अशुद्धद्रव्यार्थिक, ऋजुसूत्र और एवम्भूत आदि शब्दों में हुआ है।
२. पाराधनासार-यह कृति भी उक्त देवसेनाचार्य की है। इसमें ११५ गाथायें हैं । यहाँ सर्वप्रथम महावीर को नमस्कार कर आराधनासार के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र के समुदाय को आराधनासार बतलाते हए उसे व्यवहार और परमार्थ (निश्चय) के भेद से दो प्रकार कहा गया है। व्यवहार से आराधनाचतुष्टय का सार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप को कहा गया है। आगे उक्त सम्यग्दर्शनादि के व्यवहार की प्रधानता से लक्षणों का निर्देश करके निश्चय पाराधनाचतुष्टय के सार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि शुद्ध नय की अपेक्षा सम्पूर्ण संकल्प-विकल्पों से रहित जो निरालम्ब शद्ध आत्मा है वही आराधनाचतुष्टय का सार है। इस निश्चय आराधना में उद्यत क्षपक इन्द्रियविषयों से विमुख होकर अपने स्वभाव का ही श्रद्धान करता है, अपने शुद्ध आत्मा को जानता है, और उसी का अनुष्ठान करता है । इस निश्चयदृष्टि में-दर्शन, ज्ञान,
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जैन-लक्षणावली चारित्र एवं तप ही आत्मा है और राग-द्वेषादि से रहित उसी शुद्ध प्रात्मा के आराधना की प्रेरणा की
आगे आराधक (क्षपक) की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि भेदगत (व्यवहाररूप) चार प्रकार की आराधना भी मोक्ष की साधक है। इस प्रकार व्यवहार आराधना को महत्त्वपूर्ण बतलाते हुए अर्ह, संगत्याग, कषायमल्लेखना, परीषहजय, उपसर्ग सहने का सामर्थ्य, इन्द्रियजय और मन का नियमन इन सात स्थलों के द्वारा दीर्घकालसंचित कर्मों को नष्ट करने के लिए प्रेरित किया गया है।
अन्त में जिन मुनीन्द्रों के द्वारा अाराधनासार का उपदेश किया गया है तथा जिन्होंने उसका अाराधन किया है उन सबकी वन्दना करते हुए कहा गया है कि मैं न तो कवि हैं और न छन्द के लक्षण को भी कुछ जानता हूँ। मैंने तो निज भावना के निमित्त अाराधनासार को रचा है। अन्तिम गाथा में अपने नाम का निर्देश करते हुए कहा गया है कि यदि इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध कहा गया हो तो उसे मुनीन्द्र जन शुद्ध कर लें।
इसके ऊपर क्षेमकीति के शिष्य रत्नकीति (विक्रम की १५वीं शती) के द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-पाराधक आदि। टीका-आस्रव और उपशम आदि ।
६३ पंचसंग्रह-इसके रचयिता चन्दर्षि महत्तर हैं। इनका समय निश्चित नहीं है। सम्भवत: वे विक्रम की १०-११वीं शताब्दी के विद्वान होना चाहिए। प्रस्तुत ग्रन्थ दो विभागों में विभक्त है। यहाँ सर्वप्रथम वीर जिन को नमस्कार करके पंचसंग्रह के कहने की प्रतिज्ञा की गई है । 'पंचसंग्रह' इस नाम की सार्थकता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि इसमें चूंकि यथायोग्य शतक आदि पांच ग्रन्थों का अथवा पांच द्वारों का संक्षेप (संग्रह) किया गया है, इसीलिए इसका 'पंचसंग्रह' यह सार्थक नाम है। वे पांच द्वार ये हैं-जीवस्थानों में योगों व उपयोगों का मार्गण (अन्वेषण), बन्धक, बन्धव्य-बांधने योग्य कर्म, बन्धहेतु और बन्धभेद । इनकी प्ररूपणा इसके प्रथम विभाग में की गई है।
प्रथम द्वार में ३४ गाथाये हैं । यहाँ जीवस्थानों और मार्गण स्थानों में यथासम्भव योगों और उपयोगों की प्ररूपणा की गई है।
दूसरे द्वार में ८४ गाथायें हैं। यहां बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त व अपर्याप्त एकेन्द्रिय; पर्याप्त व अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि तीन, तथा संज्ञी व असंज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय ; इन १४ बन्धक जीवस्थानों की प्ररूपणा सत्-संख्या आदि पाठ अधिकारों के प्राथय से की गई है।
तीसरे बन्धक द्वार में ६७ गाथायें है । यहाँ वन्ध के योग्य ज्ञानावरणादि पाठ कर्म और उनके उत्तरभेदों के स्वरूप प्रादि की चर्चा की गई है।
चौथे वन्धहेतु द्वार में २३ गाथायें हैं। यहाँ बन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनकी तथा इनके उत्तरभेदों की प्ररूपणा की गई है।
पांचवें बन्धविधान द्वर में १८५ गाथायें हैं। यहाँ बांधे गये कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के प्राश्रय से बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्व का विस्तार से विचार किया गया है ।
दूसरे विभाग में प्रथमतः १०१ गाथा प्रों के द्वारा कर्मप्रकृति के अनुसार बन्धन, संक्रम, उदी रणा और उपशमना करणों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात ३ गाथानों में निधत्ति-निकाचना करणों का विचार करते हुए अन्त में १५६ गाथानों द्वारा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध के सवेध का विवेचन किया गया है।
इस पर एक टीका स्वोपज्ञ और गरी ग्रा. मलयगिरि द्वारा विरचित है। यह इन दोनों टोकायों के साथ मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर उभोई से तथा केवल स्वोपज्ञ टीका के साथ सेठ देवचन्द लालभाई जैन
ह
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प्रस्तावना
पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
मूल-प्रध्रुवोदय, अनुदयवती प्रकृति, अश्वकर्णकरणाद्धा, उदयवती और उदीरणा प्रादि ।
स्वो. वृ.-अचक्षुदर्शन, अध्रुवसत्कर्म, अध्रुवोदय, अनभिगृहीत मिथ्यात्व, उदयवती और उदयसंक्रमोत्कृष्ट आदि।
__ मलय. वृ.अध्रुवबन्ध, अध्रुवसत्कर्म, अध्रुवोदय, अनुदयवती प्रकृति, उदयवती और उदयसंक्रमोत्कृष्ट आदि।
६४. सप्ततिकाप्रकरण (षष्ठ कर्मग्रन्थ)-यह किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं है। वैसे यह चन्द्रषि महत्तर प्रणीत माना जाता है। प्रात्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रकाशित संस्करण के अनुसार इसमें ७२ गाथायें हैं। यहाँ सर्वप्रथम यह सूचना की गई है कि मैं सिद्धपदों के प्राश्रय से-प्रतिष्ठित पदों से युक्त कर्मप्रकृतिप्राभूतादि प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार से अथवा जीवस्थानगुणस्थानरूप सिद्धपदों के आश्रय से-बन्ध, उदय और सत्तारूप प्रकृतिस्थानों के महान् अर्थयुक्त संक्षेप को कहूँगा, जो दृष्टिवाद से निकला है। आगे प्रश्न उठाया गया है कि कितनी प्रकृतियों को बांघता हा जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि मूल और उत्तर प्रकृतियों में इससे सम्बद्ध भंगों के अनेक विकल्प हैं। आगे मूल प्रकृतियों के आश्रय से इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि मूल प्रकृतियों के बन्धक चार प्रकार के हैं-पाठ के बन्धक, सात के बन्धक, छह के बन्धक
और एक के बन्धक । मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक प्रायु के बन्धकाल में पाठ के बन्धक हैं । इनके पाठ का बन्ध, पाठ का उदय और सत्ता भी पाठों की है।
आयुबन्ध के बिना सात के बन्धक मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक है। इनके सात का बन्ध, पाठ का उदय और पाठों की सत्ता रहती है।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती प्रायु और मोहनीय के बिना छह के बन्धक हैं । इनके पाठ का उदय और पाठों की सत्ता रहती है।
उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली ये एक मात्र वेदनीय के बन्धक हैं। इनमें उपशान्तकषाय के एक का बन्ध, मोहनीय के बिना सात का उदय और सत्ता पाठों की है। क्षीणकषाय के एक का बन्ध, सात का उदय और मोहनीय के बिना सात की ही सत्ता है। सयोगिकेवली के एक का बन्ध, चार (प्रधाती) का उदय और चार की ही सत्ता है।
अयोगिकेवली के बन्ध एक का भी नहीं है, उनके उदय चार का और सत्ता भी चार की है। इसकी दिग्दर्शक तालिका
गुणस्थान
बन्ध
उदय
सत्ता
विशेष
१-७
पायुर्बन्धकाल में
मायुर्बन्ध के बिना
प्रायु व मोहनीय के वन्ध के बिना
(वेदनीय) |(मोहके बिना)।
(मोहके बिना)
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जैन-मक्षणावल
इसी क्रम से आगे ज्ञानावरणादि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों में बन्ध, उदय और सत्ता तथा संयोगी भंगों का विचार किया गया है।
तत्पश्चात् किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इसको स्पष्ट करते हुए उपशम. श्रेणि, अनन्तानुबन्धी का उपशम, यथाप्रवृत्तादिकरण, गूणश्रेणि, गूणसंक्रमण और क्षपकणि प्रादि का निरूपण किया गया है।
इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि के द्वारा टीका रची गई है। इस टीका के साथ उपर्युक्त प्रात्मानन्द सभा भावनगर से शतक (५वां कर्म ग्रन्थ दे.) के साथ प्रकाशित हुआ है। प्राचार्य मलयगिरि विरचित टीका सहित एक षष्ठ कर्मग्रन्थ जैनधर्मप्रसारक सभा भावनगर से भी प्रकाशित हुआ है। पर दोनों की गाथाओं में कुछ भिन्नता भी है। इसका उपयोग (टीका से) अगुरुलघु नामकर्म, प्रानुपूर्वी, पाहारक (शरीर), आहारपर्याप्ति, उद्योत और उपघात आदि शब्दों में हुधा है।
६५. कर्मविपाक-यह गर्गर्षि के द्वारा रचा गया प्रथम प्राचीन कर्मग्रन्थ है। गर्षि का सम
त नहीं है। सम्भवतः वे विक्रम की १०वीं शताब्दी में हुए हैं। ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या १६८ है। इसमें सर्वप्रथम वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए गुरूपदिष्ट कर्मविपाक को संक्षेप से कहने को प्रतिज्ञा की गई है। यहाँ कर्म का निरुक्त (क्रियते इति कर्म) अर्थ करते हुए यह कहा गया है कि चार गतियों में परिभ्रमण करने वाले संसारी जीव के द्वारा मिथ्यात्वादि के आश्रय से जो किया जाता है वह कर्म कहलाता है। वह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। उसकी मूल प्रकृतियां पाठ और उत्तर प्रकृतियां एक सौ अदावन हैं । मूल प्रकृतियों का नामनिर्देश करते हए. उनके लिए कम से पट, प्रतीहार, प्रसि, मद्य, हडि (काठ की बेड़ी), चित्र (चित्रकार), कुम्हार और भाण्डागारिक; ये दृष्टान्त दिये गये हैं । आगे क्रम से इन मूल और उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप दिखलाया गया है।
इस पर एक व्याख्या अज्ञातकर्तृक और दूसरी एक वृत्ति परमानन्द सूरि (सम्भवतः विक्रम की १२-१३वीं शताब्दी) द्वारा विरचित है। यह जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है
मूल-अगुरुलघु नामकर्म, पातप नामकर्म, आहारक-कार्मणबन्धन, पाहारकबन्धन, उद्योत, उपघात नामकर्म और उपभोग आदि ।
व्याख्या-अङ्गोपांगनाम, अगुरुलघु नामकर्म, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानक्रोधादि । प. वृत्ति-अन्तरायकर्म और आयुकर्म प्रादि।
६६. गोम्मटसार-इसके रचयिता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं । इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । ये चामुण्डराय के समकालीन रहे हैं। चामुण्डराय राजा राचमल्ल के मंत्री और सेनापति थे। उनका दूसरा नाम गोम्मटराय भी रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हीं के उक्त नाम से गोम्मटसार कहलाता है। कारण यह कि उन्हीं के प्रश्न पर वह प्रा. नेमिचन्द्र द्वारा रचा गया है। इसकी रचना षट्खण्डागम नामक सिद्धान्तग्रन्थ के अाधार से हुई है। उन्होंने स्वयं यह कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती ने चक्ररत्न के द्वारा छह खण्ड स्वरूप भरत क्षेत्र को निर्विघ्न सिद्ध किया, उसी प्रकार मैने बुद्धिरूप चक्र के द्वारा छह खण्डस्वरूप षट्खण्डागम को भले प्रकार सिद्ध किया है-उसके रहस्य को हृदयंगत किया है। इसके अन्तर्गत समस्त गाथाओं की संख्या १७०५ है। वह जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दो भागों में विभक्त है।
जीवकाण्ड-इस विभाग में ७३३ गाथायें हैं । इसमें गुणस्थान, जोवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ४, पृ. १२७. २. जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छवखंड साहियं सम्म ॥ गो. क. ३९७.
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१४ मार्गणा और उपयोग, इन २० प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है। गुणस्थान मिथ्यात्व व सासादन प्रादि के भेद से चौदह हैं। इनकी प्ररूपणा ६६ गाथाओं द्वारा की गई है। जीव अनन्त हैं। उनका बादर व सूक्ष्म प्रादि भेद युक्त जिन एकेन्द्रियत्व आदि धर्मविशेषों के द्वारा संग्रह या संक्षेप किया जाता है उन्हें जीवसमास कहा जाता है। बादर व सूक्ष्म के भेद से एकन्द्रिय दो प्रकार के तथा संज्ञी व असंज्ञी के भेद से पंचेन्द्रिय भी दो प्रकार के हैं । इन चार के साथ द्वीन्द्रिय आदि तीन के ग्रहण करने पर सात होते हैं। ये सातों पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी। इस प्रकार सब भेद चौदह होते हैं। ये ही जीवसमास माने जाते हैं । इन सबकी प्ररूपणा यहाँ ४७ (७०-११६) गाथाओं द्वारा की गई है।
पाहार-शरीर आदि के भेद से पर्याप्तियां छह हैं। पर्याप्ति नामकर्म के उदय से यथायोग्य अपनी अपनी पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने पर जीव पर्याप्त कहलाता है। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो एक साथ हो जाता है, पर उनकी पूर्णता क्रम से होती है। जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो जाती तब तक जीव नित्यपर्याप्त कहलाता है। अपर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर अपनी योग्य पर्याप्तियों की पूर्णता तो नहीं हो पाती और अन्तर्मुहुर्त के भीतर ही जीव मरण को प्राप्त हो जाता है। ऐसे जीव अपर्याप्त कहे जाते हैं । इस सबकी प्ररूपणा यहाँ ११ (११७-२७) गाथाओं द्वारा की गई है।
पांच इन्द्रियाँ, मनबल आदि तीन बल, पानपान (श्वासोच्छ्वास) और आयु ये १० प्राण कहलाते हैं । इनका वर्णन यहाँ ५ (१२८-३२) गाथायों में किया गया है।
आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञायें हैं। इनका वर्णन ६ (१३३-३८) गाथाओं में किया गया है।
जिन अवस्थाओं के द्वारा जीवों का मार्गण या अन्वेषण किया जाता है वे मार्गणायें कहलाती हैं। के चौदह हैं, जो इस प्रकार हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या भव्यत्व. सम्यक्त्व, संज्ञी और पाहार । इन सब का वर्णन यहाँ क्रम से विस्तारपूर्वक किया गया है। यह अधि. कार सबसे विस्तृत है जो ५३२ (१३६-६७०) गाथाओं में पूर्ण हुअा है। इस अधिकार के अन्तर्गत लेश्या मार्गणा की प्ररूपणा निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन १६ अन्तराधिकारों के द्वारा ४८८-५५५ गाथानों में की
वस्तु के जानने-देखने रूप जो जीव का चेतनभाव है वह उपयोग कहलाता है। वह साकार और निराकार के भेद से दो प्रकार का है। साकार उपयोग जहाँ वस्तु को विशेषरूप से ग्रहण करता है वहाँ निराकार उपयोग उसे बिना किसी प्रकार की विशेषता के सामान्यरूप से ही ग्रहण किया करता है। साकार उपयोग ज्ञान और निराकार उपयोग दर्शन माना गया है। अपने भेद-प्रभेदों के साथ इसका वर्णन यहाँ ५ (६७१%७५) गाथामों में किया गया है।
मागे गणस्थान और मार्गणाओं के प्राश्रय से पृथक-पृथक् पूर्वोक्त बीस प्ररूपणामों का यथायोग्य विचार किया गया है (६७६-७०४)। अन्त में गौतम स्थविर को नमस्कार करते हुए गुणस्थान और मार्गणामों में पालाप का दिग्दर्शन कराया गया है । सामान्य, पर्याप्त और अपर्याप्त ये तीन पालाप हैं। अपर्याप्त के दो प्रकार हैं-निर्वृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त। इनमें से मिथ्यात्व गुणस्थान में ये दोनों ही प्रकार सम्भव हैं। सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तविरत इन गुणस्थानों में निवत्यपर्याप्त कीनो सम्भावना है, पर लब्ध्यपर्याप्त की सम्भावना नहीं है। समुद्घात अवस्था में योग की अपेक्षा सयोगवली के भी अपर्याप्तता सम्भव है । इस प्रकार उपयुक्त पांच गुणस्थानों में सामान्य, पर्याप्त और पर्याप्त तीनों पालाप सम्भव है । शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त ही सम्भव है। यही क्रम मार्गणाओं में भी यथासम्भव समझना चाहिए।
कर्मकाण्ड-इसकी गाथा संख्या ६७२ है। इसमें ये नो अधिकार हैं-प्रकृतिसमुत्कीर्तन. बी.
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जन-लक्षणाबली उदय-सत्त्व, सत्त्वस्थानभंग, त्रिचूलिका, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रत्यय, भावचूलिका, त्रिकरणचूलिका और कर्मस्थिति रचना।
(१) प्रकृतिसमुत्कीर्तन-जीव शरीरनामकर्म के उदय से सशरीर होकर कर्म को-ज्ञानावरणादिरूप परिणत होने वाले पूदगलस्कन्धों को-तथा नोकर्म को-प्रौदारिकादि शरीररूप परिणत होने वाले पूदगलस्कन्धों को भी प्रतिसमय ग्रहण किया करता है । द्रव्य और भाव के भेद से कर्म दो प्रकार का है । गृहीत पुद्गलस्कन्ध का नाम द्रव्यकर्म और उसमें उत्पन्न होने वाली ज्ञान-दर्शन के प्रावरणादि
प शक्ति का नाम भावकर्म है। ये कर्म मूल में ज्ञानावरणादिरूप पाठ हैं। उनके उत्तरभेद सब एक सौ अडतालीस हैं। जो जीव के स्वभावभूत ज्ञानादि गणों का विधात करते हैं वे घातिकर्म कहलाते हैं । जो अभावात्मक (प्रतिजीवी) गुणों का विघात करते हैं वे अघातिकर्म कहलाते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण. मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घाति हैं. शेष बेदनीय आदि चार कर्म अघाति हैं। वेटनी कर्म के उदय से जो बाघायुक्त सुख संसार में प्राप्त होता था उसका प्रभाव उस वेदनीय कर्म के प्रभाव में हो जाता है। प्रायुकर्म के उदय से जो मनुष्यादि के किसी विशेष शरीर में परतंत्र रहना पड़ता था उस परतंत्रता का प्रभाव इस प्रायुकर्म के अभाव में हो जाता है । नामकर्म के उदय से जो स्थलता दष्टिगोचर होती थी उसका लोप इस नामकर्म के प्रभाव में हो जाता है। गोत्रकर्म के उदय से जो ऊंचेपन और नीचेपन का अनुभव होता था वह उस गोत्रकर्म का प्रभाव हो जाने पर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार ये अघातिया कर्म अभावात्मक गुणों के विघातक तो हैं, पर घातिकर्मों के समान सदभावस्वरूप ज्ञानादि के विघातक वे नहीं हैं । इस प्रकार विविध कर्मों के स्वरूप को प्रगट करते हुए उनकी घाति व प्रघाति आदि अनेक अवस्थावों का यहाँ विवेचन किया गया है। अन्त में उस कर्म के विषय में नाम दि निक्षेपविधि की योजना की गई है।
(२) बन्ध-उदय-सत्त्व- इस अधिकार में गुणस्थान और मार्गणाओं के प्राश्रय से प्रकृति-स्थिति आदि भेदों में विभक्त बन्ध, उदय और सत्त्व की प्ररूपणा की गई है। इस अधिकार को ग्रन्थकार ने स्तव कहा है। उसका स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने कहा है कि जो शास्त्र विवक्षित तत्त्व का सर्वांगपर्ण विस्तार या संक्षेप से वर्णन करने वाला है वह स्तव कहलाता है। एक अंग के वर्णन करने वाले शास्त्र को स्तुति और एक अंग के एक अधिकार के प्ररूपक शास्त्र को धर्मकथा कहा जाता है। बन्ध का वर्णन करते हए यहाँ सामान्य से यह निर्देश किया गया है कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध सम्यक्त्व के रहते हैए
-असंयतसम्यग्दृष्टि से अपूर्वकरण गुणस्थान तक- ही होता है। प्रायु का बन्ध मिथ गणस्थान (तृतीय) और मिश्रकाययोग (
नित्यपर्याप्त अवस्था) में नहीं होता, वह उक्त तीसरे गुणस्थान को छोड पहले से सातवें गुणस्थान तक होता है। इस अधिकार के अन्त में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती चक्ररत्न के द्वारा छह खण्डरूप भरत क्षेत्र पर निर्बाध विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार मैंने बद्धिरूपी चक्ररत्न के द्वारा षट्खण्ड को-जीवस्थानादि छह खण्डों में विभक्त षटखण्डागम कोसिद्ध किया है। अभिप्राय यह है कि षट्खण्डात्मक सिद्धान्त का गम्भीर अध्ययन करके उसके सारभूत इस ग्रन्थ की रचना उनके द्वारा की गई है।
(३) सस्वस्थान-इस अधिकार में गुणस्थान के प्राश्रय से सत्वस्थानों की प्ररूपणा की इई है। विवक्षित गणस्थान में जितनी कर्मप्रकृतियां सत्ता में विद्यमान हों उनके समुदाय का नाम सत्त्वस्थान है। प्रकृतियों की भिन्नता के होने पर भी संख्या में भेद न होना, इसे भंग कहा जाता है। ऐसे भगों के साथ किस गुणस्थान में कितने सत्त्वस्थान सम्भव हैं, इसका विचार इस अधिकार में किया गया है।
त्रिचलिका-इस अधिकार की प्रथम चूलिका में विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध क्या अपने उदय के पूर्व में नष्ट होता है, अपने उदय के पश्चात् नष्ट होता है, अथवा दोनों साथ ही नष्ट होते हैं। उनका बन्ध क्या अपने उदय के साथ होता है, अन्य प्रकृतियों के उदय के साथ होता है
प्रय प्रतियों के उदय के साथ होता है तथा वह बन्ध क्या सान्तर होता है, निरन्तर होता
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प्रस्तावना
है, अथवा सान्तर-निरन्तर होता हैं। इन नौ प्रश्नों का समाधान किया गया है। दूसरी चूलिका में उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व; इन पांच संक्रमणों का विचार किया गया है। इस दूसरी चूलिका के प्रारम्भ (४०८) में अपने गुरु अभयनन्दी का स्मरण करते हुए कहा गया है कि अभयनन्दी का वह श्रुत-समुद्र पाप मन को दूर करे, जिसके मथन के बिना ही नेमिचन्द्र अतिशय निर्मल हो गया। तीसरी चूलिका को प्रारम्भ करते हए (४३६) में यह कहा गया है कि वीरेन्द्रनन्दी (अथवा वीरनन्दी और इन्द्रनन्दी) का वत्स मैं (नेमिचन्द्र) उन अभयनन्दी गरु को नमस्कार करता हैं, जिनके चरणों के प्रसाद से अनन्त संसाररूप समुद्र से पार हुआ। इस तीसरी चूलिका में बन्ध, उत्कर्षण, संक्रम, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशामन, निधत्ति और निकाचना इन दस करणों का विवेचन किया गया है।
(५) बन्ध-उदय-सत्त्वस्थानसमत्कीर्तन-इस अधिकार में बन्ध, उदय और सत्त्व के साथ प्रकृतियों के विभिन्न स्थानों का निरूपण किया गया है।
(६) प्रत्ययप्ररूपणा-इस अधिकार को प्रारम्भ करते हए प्रथमत: (७८५) श्रृतसर के पार. गामी इन्द्रनन्दी के गरु और उत्तम वीरनन्दी के स्वामी ऐसे अभयनन्दी को नमस्कार किया गया है। पश्चात् यहाँ बन्ध के कारणभूत पांच मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अविरति, पच्चीस कषाय और पन्द्रह योग इन सत्तावन भेद (५+१२+२५+१५५७) रूप प्रास्रव का गुणस्थान क्रम से निरूपण किया गया है ।
(७) भावचूलिका- यहाँ प्रारम्भ (८११) में गोम्मट जिनेन्द्र-चन्द्र को नमस्कार करते हुए गोम्मट पदार्थ संयुक्त व गोम्मटसंग्रह की विषयभत भावगत घलिका के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् की गई इस प्रतिज्ञा के अनुसार यहाँ अपने उत्तर भेदों के साथ प्रौपशमिक, क्षायिक, मिश्र, प्रौदयिक और पारिणामिक इन भावों का विवेचन किया गया है।
(0) त्रिकरणचलिका-- इस अधिकार में मोहनीय की इक्कीस (दर्शनमोहनीय तीन और अनन्तानुबन्धिचतुष्टय से रहित) प्रकृतियों के क्षय व उपशामन के कारणभूत अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण इन तीन परिणामों की प्ररूपणा की गई है।
(६) कर्मस्थितिरचनासद्भाव-बांधे हए कर्म कब तक उदय को प्राप्त नहीं होते और फिर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार वे किस क्रम से निर्जीर्ण होते हैं, इस सबका विचार इस अन्तिम अधिकार में किया गया है।
अन्तिम प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने कर्म की निर्जरा और तत्व के अवधारण के लिए गोम्मटदेव के द्वारा गोम्मट संग्रहसूत्र गोम्मट के रचे जाने का संकेत करते हुए यह कहा है कि जिनमें गणघरदेवादि ऋद्धिप्राप्त महर्षियों के गुण विद्यमान हैं ऐसे वे अजितसेन स्वामी जिसके गुरु हैं वह राजा (चामुण्डराय या गोम्मटराय) जयवन्त हो। गोम्मटसंग्रहसूत्र, गोम्मटशिखर के ऊपर गोम्मटजिन और गोम्मट राय (चामुण्डराय) के द्वारा निर्मित दक्षिणकुक्कुटजिन जयवन्त हों। जिस गोम्मट के द्वारा निर्मित प्रतिमा का मुख सर्वार्थसिद्धि के देवों और सर्वावधि व परमावधि के धारक योगियों के द्वारा देखा गया है वह गोम्मट जयवन्त हो । जिसने ईषत्प्राग्भार नाम के अनुपम जिन भवन का निर्माण कराया वह चामुण्डराय जयवन्त हो । जिस गोम्मट राय के द्वारा खड़े किये गये स्तम्भ के ऊपर जो यक्षमूर्तियां हैं उनके मुकुट की किरणों से सिद्धों के पाद धोये जाते हैं, वह गोम्मटराय जयवन्त हो। जिसने गोम्मटसूत्र के लिखने में देशी (?) की वह गोम्मटराय, अपर नाम वीरमार्तण्डी, चिरकाल जीवित रहे । १. इस सबका विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम के द्वितीय खण्ड बन्धस्वामित्वविचय (पु. ८) में किया
गया है। २. संस्कृत टीका में इस गाथा का अर्थ करते हए अभयनन्दी इन्द्रनन्दि गरु और वीरनन्दिनाथ इन
तीनों को ही किये गये नमस्कार का निर्देश किया गया है तथा वहाँ गाथामें अप्रयुक्त 'च' शब्द का अध्याहार किया गया है। स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी ने इन्द्रनन्दी और वीरनन्दी को प्रा. नेमिचन्द्र का ज्येष्ठ गुरुभाई बतलाया है (जन साहित्य और इतिहास पृ. २७०।
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जैन - लक्षणावली
इसके ऊपर एक अभयचन्द्राचार्य (वि. की १४वीं शती) विरचित मन्दप्रबोधिका नाम की संस्कृत टीका और दूसरी नेमिचन्द्राचार्य (वि. की १४वीं शती) विरचित जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत टीका है । इनमें मन्दप्रबोधिका टीका जीवकाण्ड की २८२वीं गाथा तक ही उपलब्ध है । इन दो टीकाओं के प्रतिरिक्त एक सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम की हिन्दी टीका भी है, जो पण्डितप्रवर टोडरमल जी द्वारा जीवतत्त्वप्रदीपिका का अनुसरण कर विस्तार से लिखी गई है । इन तीनों टीकाओं के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ गांधी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता से प्रकाशित हो चुका है । संक्षिप्त हिन्दी के साथ वह परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से भी दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैमूल- श्रण्डर, अधःप्रवृत्तकरण, श्रनिन्द्रिय जीव, निवृत्तिकरण गुणस्थान, अनिःसृतावग्रह, अनुधोगद्वार श्रुतज्ञान और अप्रमत्तसंयत आदि ।
टीका - अक्षरात्म श्रुतज्ञान, श्रगाढ, अगुरुलघु नामकर्म, अधःप्रवृत्तसंक्रम. ग्रनन्तानुबन्धिक्रोधादि अनुकृष्टि, अनुत्तरोपपादिकदशा, श्रप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि, प्रक्षेपिणी कथा और उद्वेलनसंक्रम श्रादि ।
६७. लब्धिसार - यह भी उपर्युक्त नेमिचन्द्राचार्य की कृति है । इसमें दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि र क्षायिकचारित्र ये तीन अधिकार हैं । इनकी गाथासंख्या इस प्रकार है - १६७+२२४+२६१ =६५२ । जैसा कि ग्रन्थकार ने पंचपरमेष्ठियों की वन्दना करते हुए प्रारम्भ में सूचित किया है, तदनुसार वस्तुतः दो ही अधिकार समझना चाहिए - सम्यग्दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धि । उपशम और क्षय के भेद से चारित्र दो प्रकार का है । सम्यग्दर्शनलब्धि अधिकार में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का विचार करते हुए यह बतलाया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव चारों गतियों में से किसी भी गति में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । विशेष इतना है कि उसे संज्ञी, पर्याप्तक, गर्भज, विशुद्ध-- प्रधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों से उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त - श्रोर साकार उपयोग वाला होना चाहिए । सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व उसके उन्मुख हुए मिथ्यादृष्टि जीव के ये पांच लब्धियां होती हैं— क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें पूर्व की चार लब्धियां तो भव्य और भव्य दोनों के ही सामान्यरूप से हो सकती हैं, पर अन्तिम करणलब्धि भब्य के ही होती है । जब ज्ञानावरणादि ग्रप्रशस्त (पाप) कर्मों की फलदानशक्ति उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन होकर उदय को प्राप्त होती है तब उस जीव के प्रथम क्षयोपशमलब्धि होती है । इस क्षयोपशमलब्धि के प्रभाव से जो जीव के साता वेदनीय आदि प्रशस्त कर्मप्रकृतियों के बन्धयोग्य धर्मानुरागरूप परिणति होती है उसे विशुद्धि लब्धि कहा जाता है । जीव-पुद्गलादि छह द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेशक आचार्य आदि की प्राप्ति को अथवा उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण धारण की प्राप्ति को देशनालब्धि कहते हैं । उक्त तीन लब्धियों से सम्पन्न जीव अब आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति को हीन करके ग्रन्तः कोडा कोडि प्रमाण कर देता है तथा प्रशस्त घातिया कर्मों के अनुभाग को खण्डित करके लता और दारु समान दो स्थानों में स्थापित करता साथ अघातिया कर्मों के अनुभाग को जब नीम और कांजीर के समान दो भागों में स्थापित करता है तब उसके प्रायोग्यलब्धि होती है। ये चार लब्धियां भव्य के समान अभव्य के भी हो सकती हैं, यह कहा ही जा चुका है । उक्त चार लब्धियों के पश्चात् भव्य जीव के जो अधःकरण, पूर्वकरण और निवृत्तिकरणरूप उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाले परिणामों की प्राप्ति होती है, इसे करणलब्धि कहा जाता है । यह अभव्य जीव के सम्भव नहीं है । इसकी प्राप्ति के अन्तिम समय में जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार यहां प्रसंगवश गुणस्थान के अनुसार विभिन्न प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक उनके बन्ध आदि की हीनता के क्रम को दिखलाया गया है ।
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चारित्रलब्धि - यह देश और सकल चारित्र के भेद से दो प्रकार की है। इनमें देशचारित्र को मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि प्राप्त करते हैं तथा सकलचारित्र को इन दोनों के साथ देशसंयत
१. देखिये अनेकान्त वर्ष ४ कि. १, पृ. ११३- २० में 'गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, उसका कर्तृत्व और समय' शीर्षक लेख ।
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प्रस्तावना
भी प्राप्त करता है। मिथ्यादष्टि जब उपशमसम्यक्त्व के साथ देशचारित्र के ग्रहण के उन्मुख होता है तब वह जिस प्रकार सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए अधःप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है उसी प्रकार इस देशचारित्र की प्राप्ति के लिये भी उक्त तीन करणों को करता है और उन तीन करणों के अन्तिम समय में वह उक्त देशचारित्र को प्राप्त कर लेता है। परन्तु यदि उक्त मिथ्यादृष्टि वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व के साथ उक्त देशचारित्र के ग्रहण के उन्मुख होता है तो अधःप्रवृत्त करण और अपूर्वकरण इन दो परिणामों के अन्तिम समय में वह देशचारित्र को प्राप्त कर लेता है।
सकल चारित्र तीन प्रकार का है-क्षायोपशमिक, प्रौपशमिक और क्षायिक । इनमें जो जीव उपशमसम्यक्त्व के साथ क्षायोपशमिक चारित्र के ग्रहण में उद्यत होता है उसके उसकी प्राप्ति की विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के समान है। जो वेदकसम्यग्दृष्टि प्रौपशमिक चारित्र के ग्रहण में उद्यत होता है उसकी विधि भिन्न है। उसका निरूपण इस अधिकार में विशेषरूप से किया गया है (२०५.३६१) ।
आगे क्षायिकचारित्र की प्राप्ति में की जानेवाली क्रियायों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसी को क्षपणासार कहा जाता है।
गोम्मटसार के समान इस पर भी नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका और पण्डितप्रवर टोडरमलजी विरचित हिन्दी दीका भी है। संस्कृत टीका प्रौपशमिक चारित्र के विधान तक (गा. ३६१ तक) ही उपलब्ध है, आगे क्षायिक चारित्र के प्रकरण में वह उपलब्ध नहीं है। इससे पं. टोडरमलजी के द्वारा गा. ३६१ तक तो उक्त संस्कृत टीका के अनुसार व्याख्या की गई है और तत्पश्चात् प्राचार्य माधवचन्द्र विद्य द्वारा विरचित संस्कृत गद्यरूप क्षपणासार के आधार से वह की गई है। पं. टोडरमल जी ने इस क्षपणासार की रचना का निर्देश करते हुए यह बतलाया है कि उक्त ग्रन्थ प्राचार्य माधवचन्द्र द्वारा भोज नामक राजा के मंत्री बाहुबली के परिज्ञानार्थ रचा गया है। उक्त दोनों टीकात्रों के साथ यह हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग अधःप्रवृत्त करण और अपूर्वकरण गुणस्थान प्रादि शब्दों में हुअा है
८. त्रिलोकसार-यह भी पूर्वोक्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा रचा गया है । इसमें । छह अधिकार हैं-लोकसामान्य, भवनलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, वैमानिकलोक और नरतिर्यग्लोक । इनमें गाथाओं का प्रमाण क्रमश: इस प्रकार है-२०७+४२+५२+१४६+११०+४५८-१०१८ ।
(१) लोकसामान्य-जहाँ जीवादि छह द्रव्य देखे जाते हैं या जो उन छह द्रव्यों से व्याप्त है वह लोक कहलाता है। वह अनन्त आकाश के ठीक मध्य में अवस्थित है । वह अनादिनिधन होता हुआ स्वभावसिद्ध है-उसका कोई निर्माता नहीं है । आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश । जितने आकाश को व्याप्त करके धर्म, अधर्म, आकाश और कालाणु अवस्थित हैं तथा जीव एवं पुद्गलों का गमनागमन जहां तक सम्भव है उतना आकाश लोकाकाश कहलाता है। उसके सब ओर जो अनन्त शुद्ध आकाश है वह अलोकाकाश माना गया है। उक्त लोक अधः, मध्य और ऊर्ध्व के भेद से तीन प्रकार का है। प्राधे मृदंग के ऊपर एक दूसरे मृदंग को खड़ा रखने पर जो उसका आकार होता है वैसा ही आकार इस लोक का है। इस प्रकार इस लोक का वर्णन करते हुए अनेक भेदरूप लौकिक और लोकोत्तर मानों, तीन वातवलयों, रत्नप्रभादि पृथिवियों और उनमें रहने वाले नारकियों का निरूपण किया गया है।
(२) भवनलोक-इसमें असुरकुमार-नागकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवों की प्ररूपणा की गई।
(३) व्यन्तरलोक-इसमें किन्नर व किम्पुरुष आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवों की प्ररूपणा की गई है।
(४) ज्योतिर्लोक-यहां चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे इन पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों की प्ररूपणा करते हए प्रथमतः मध्यलोक के अन्तर्गत १६ अभ्यन्तर और १६ अन्तिम द्वीपों के नामों
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जैन-लक्षणावली का निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् जम्बूद्वीपादि के विस्तारादि का वर्णन करते हुए उक्त ज्योतिषियों के स्थान, विमान, संचार, ताप व तम (अन्धकार) के क्षेत्र, अधिक मास, दक्षिण-उत्तरायण और संख्या प्रादि का निरूपण किया गया है।
(५) वैमानिकलोक-इस अधिकार में १६ कल्पों के नामों का निर्देश करते हुए उनमें १२ इन्द्रों की व्यवस्था, कल्पातीत (६ प्रैवेयक, ६ अनुदिश और ५ अनुत्तर) विमान, इन्द्र कादि विमानों का विस्तारादि, देव-देवियों की विक्रिया और उनके वैभव आदि की प्ररूपणा की गई है।
(E) नर-तिर्यग्लोक-यहां भरतादि सात क्षेत्र. हिमवान प्रादि छह कुलपर्वत, इन पर्वतों के ऊपर स्थित तालावों में रहनेवाली श्री-ही आदि देवियां, उनका परिवार, उक्त तालाबों से निकलनेवाली गंगासिन्धू आदि चौदह नदियां, पूर्वोक्त क्षेत्र-पर्वतादिकों का विस्तारादि व उसके लाने के गणितसूत्र, विदेहक्षेत्र के मध्य में स्थित मेरु पर्वत, उसके ऊपर पाण्डक वनमें स्थित तीर्थंकराभिषेक-शिलायें, विदेहक्षेत्र में वर्षा आदि का स्वरूप, बत्तीस विदेह और तद्गत नगरियों (राजधानियों) के नाम, विजयार्धगत ११० नगरियों के नाम, पर्वतों पर स्थित कूटों के नाम, चतुर्थ काल में होनेवाले शलाकापुरुष तथा पांचवें व छठे कालों में होनेवाले परिणमन; इत्यादि यथाप्रसंग कितने ही विषयों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में नन्दीश्वरद्वीपस्थ ५२ जिनभवनों का निर्देश कर अष्टाह्निक पर्व में वहाँ इन्द्रादिकों के द्वारा की जाने वाली पूजा का उल्लेख करते हए उत्तम, मध्यम और जघन्य अकृत्रिम जिनभवनों के रचनाक्रम को दिखलाया गया है।
प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा वहां वर्तमान प्रकृत्रिम जिनभवनों की वन्दना की गई है। सर्वान्त में अपनी लघुता को प्रगट करते हुए ग्रन्थकार ने यह कहा है कि अभयनन्दी के वत्स अल्पश्रुत के ज्ञाता मुझ नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा यह त्रिलोकसार रचा गया है। बहुश्रुत प्राचार्य उसे क्षमा करें।
६६. पंचसंग्रह-यह प्राचार्य अमित गति (द्वितीय) के द्वारा विक्रम सं. १०७३ में रचा गया है । इसमें पांच परिच्छेद हैं । जैसा कि प्रारम्भ (श्लोक २) में संकेत किया गया है, तदनुसार इसमें वन्धक, बध्यमान, बन्धस्वामी, बन्धकारण और बन्धभेद ये पांच प्रकरण हैं। पद्यसंख्या उसकी इस प्रकार है३५३+४+१०६+७७६+६+६०-१४५५ । बीच-बीच में बहुतसा गद्य भाग भी है।
बन्धक प्रकरण में कर्म के बन्धक जीवों की प्ररूपणा गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणा और उपयोग प्रादि के प्राश्रय से की गई है।
दूसरे प्रकरण में बध्यमान-बन्ध को प्राप्त होनेवाली ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों-की प्ररूपणा की गई है।
तीसरे प्रकरण में वन्ध के स्वामियों की प्ररूपणा करते हुए बन्ध, उदय और सत्त्व की व्युच्छित्ति आदि का विवेचन किया गया है।
चौथे प्रकरण में बन्धकारणों का विचार करते हए प्रथमत: चौदह जीवसमासों में से एकेन्द्रिय अादि जीवों में कहां कितने वे सम्भव हैं, इसका विवेचन किया गया है । प्रागे यही विवेचन मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है। तत्पश्चात् गत्यादि मार्गणाओं एवं जीवसमास आदि में कहां कितने गुणस्थान, उपयोग, योग और प्रत्यय (कारण) सम्भव हैं; इत्यादि का विचार किया गया है।
प्रागे मार्गणानों के प्राश्रय से बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानों की प्ररूपणा करते हुए अन्त में गणस्थान और मार्गणास्थानों में कौन जीव कितनी और किन-किन प्रकृतियों के बन्धक हैं, इत्यादि का विचार किया गया है।
___ यहां पुष्पिकावाक्यों में पृ. ४८ पर जीवसमास, पृ. ५३ पर प्रकृतिस्तव, पृ. ७२ पर कर्मबन्धस्तव, पृ. १४६ पर शतक और पृ. २२५ पर सप्ततिप्रकरण के समाप्त होने की सूचना की गई है।
इसके अतिरिक्त पृ. ४८ पर महावीर को नमस्कार करते हुए प्रकृतिस्तव के कहने की, पृ.५
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पर सर्वज्ञों को नमस्कार कर बन्ध, उदय और सत्त्व के व्युच्छेद के कहने की, पृ. ७३ पर जिनेन्द्रवचना
त का जयकार करते हए दष्टिवाद से उदधत करके जीव-गणस्थानगोचर कुछ इलोकों के कहने की, पृ. १४६ पर अरहंतों को नमस्कार करके अपनी शक्ति के अनुसार सप्तति के कहने की, तथा पृ. २२६ पर वीर जिनेश्वर को नमस्कार कर सामान्य (गुणस्थान) और विशेष (मार्गणाभेद) रूप से बन्ध. स्वामित्व के कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
प्रस्तुत ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई से प्रकाशित हुना है। इसका उपयोग अकृतसमुद्घात, अगृहीतमिथ्यात्व, अनिवृत्तिकरणगुस्थान, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि आदि शब्दों में हुआ है।
१००. जंबूदीवपण्णत्ती-यह प्राचार्य पद्मनन्दी द्वारा रचा गया है। उनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी हो सकता है। इसमें १३ उद्देश व समस्त गाथाओं की संख्या २४२६ है । उद्देशक्रम से उसका विषयपरिचय इस प्रकार है
(१) उपोद्घात प्रस्ताव-यहाँ सर्वप्रथम पंचगुरुनों का वन्दन करते हुए प्राचार्यपरम्परा के अनुसार जिनदष्ट द्वीप-सागरों की प्रज्ञप्ति के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् वर्धमान भगवानको नमस्कार करते हुए श्रुतगुरुनों की परिपाटी में प्रथमतः गौतम, सुधर्म (लोहार्य) और जम्बूस्वामी इन तीन अनुबद्ध केवलियोंका निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् नन्दी मादि पाँच श्रुतके वलियोंसे लेकर सुभद्र प्रादि चार प्राचारांगधरों तक की परम्पराका निर्देश किया गया है। फिर प्राचार्यपरम्परा व आपूर्वीक अनुसार द्वीप-सागरों की प्रज्ञप्ति के कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
आगे चलकर समस्त द्वीप-सागरों की संख्या का निर्देश करते हुए जम्बूद्वीपके विस्तारादि, उसको वेष्टित करनेवाली जगती और जम्बद्वीप के अन्तर्गत क्षेत्र-पर्वतादिकों की संख्या मात्रका निर्देश किया गया है। इस उद्देशमें ७४ गाथायें हैं।
(२) भरतरावतवर्षवर्णन-यहाँ भरतादि सात क्षेत्रों और उनको विभाजित करनेवाले हिमवान प्रादि छह कुलपर्वतों का निर्देश करते हुए भरत व ऐरावत क्षेत्रों और उनमें प्रवर्तमान अवसर्पिणी-उत्सपिणी कालोंकी प्ररूपणा की गई है। इसमें २१० गथायें हैं।
(३) पर्वत-नदी-भोगभूमिवर्णन-इस उद्देशमें कुलपर्वतों, मानुषोत्तर, कुण्डल एवं रुचक पर्वतों; नदियों और हैमवतादि क्षेत्रों में प्रवर्तमान कालों (भोगभूमियों) की प्ररूपणा की गई है। इसमें २४६ गथायें हैं।
(४) सुदर्शन मेरु–यहाँ मन्दर आदि पर स्थित जिनभवनों का वर्णन करते हुए तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के लिये पानेवाले सौधर्मादि इन्द्रियों की विभूति की प्ररूपणा की गई है। इसमें २६२ गाथायें हैं।
(५) मन्दर-जिनवरभवन-यहां मन्दर आदि पर्वतोपर स्थित जिनभवनों का निरूपण करते हुए नन्दीश्वरद्वीप, कुण्डल पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत और रुचक पर्वतोंपर स्थित जिनभवनों की उक्त जिनभवनोंसे समानता प्रकट की गई है। आगे जाकर यष्टाह्निक पर्व में जिन पूजन के लिये पानेवाले १६ इन्दोंकी शोभा को दिखलाते हुए उनके द्वारा किये जानेवाले पूजामहोत्सव की प्ररूपणा की गई है। यहाँ गाथाओं की संख्या १२५ है।
(६) देवकुरु-उत्तरकुरु-यहां विदेहक्षेत्रगत देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के विस्तारादि तथा उनमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यादिकी प्ररूपणा की गई है । इसमें १७८ गाथाये हैं।
(७) विदेह वर्ष--यहाँ वनखण्डों, देवारण्यों, वेदिकाओं, विभंगानदियों, वक्षारपर्वतों तथा कच्छा विजय और उसमें स्थित क्षेमा नगरी (राजधानी) का वर्णन किया गया है। इसमें १५३ गाथायें हैं।
(८) पूर्व विदेहविभाग-इसमें पूर्वविदेहस्थ सुकच्छा प्रादि विजयों और उनमें स्थित क्षेमपूरी १. उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना पृ. १४२-४३ ।
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जैन-लक्षणावली पादि नगरियों के साथ विभंगानदियों प्रादिका भी वर्णन किया गया है । इसमें १९८ गाथायें हैं।
(९) अपरविवेह-पूर्व विदेहगत कच्छा मादि के ही समान यहाँ रत्नसंचयादि नगरियों और पदमा आदि विजयों का वर्णन किया गया है । यहाँ १९७ गाथायें हैं।
(१०) लवणसमुद्र विभाग-यहाँ लवणसमुद्रके विस्तारादि के साथ उनमें स्थित विविध पातालों और कृष्ण-शुक्ल पक्षों में होनेवाली हानि-वृद्धि आदिका निरूपण किया गया है। इसमें १०२ गाथायें हैं।
(११) द्वीप-सागरादि-यहाँ धातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र और पुष्कर द्वीप का वर्णन करते हए रत्नप्रभादि सात पृथिवियों, उनमें स्थित भवनवासी व व्यन्तर देवों, नरकों में उत्पन्न होनेवाले नारकियों, अढ़ाई द्वीपों व स्वयम्भूरमण समुद्र के पूर्व में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यचों तथा वैमानिक देवोंकी प्ररूपणा की गई है । यहाँ ३६५ गाथायें हैं।
(१२) ज्योतिषपटल-इस उद्देश में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देवों की प्ररूपणा की गई है।
(१३) प्रमाणभेद-यहाँ विविध मानों का वर्णन करते हुए समय-पावली आदि कालमानों और परमाणु व त्रसरेणु आदि क्षेत्रमानों का विवेचन किया गया है। पश्चात् प्रत्यक्ष व परोक्षरूप प्रमाणभेदों की चर्चा करते हुए सर्वज्ञताका भी कुछ विचार किया गया है। सर्वान्त में मनुष्यक्षेत्रस्थ इष्वाकार पर्वतों, यमक पर्वतों, जम्ब ग्रादि वृक्षों, वनों, भोगभूमियों और नदियों आदि की समस्त संख्या का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-मैंने परमागम के देशक प्रसिद्ध विजय गुरु के पास में अमृतस्वरूप जिनवचन को सुनकर कुछ उद्देशों में इस ग्रन्थ को रचा है। माघनन्दी गुरु, उनके शिष्य सिद्धान्तमहोदधि सकलचन्द्र गुरु और उनके शिष्य श्रीनन्दी गुरु हुए। उनके (श्रीनन्दिगुरु के) निमित्त यह जम्बुद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गई है । पंचाचार से समग्र वीरनन्दीगुरु, उनके शिष्य बलनन्दी गुरु और उनके शिष्य गुणगणकलित, गारवरहित और सिद्धान्त के पारंगत पद्मनन्दी हुए। मुनि पद्मनन्दी ने विजयगुरु के पास में सुपरिशुद्ध पागम को सुनकर इसे संक्षेप में लिखा है। उस समय नापतियो से पूजित शक्ति भूपाल वारा नगर का प्रभु था। मुनिगणों के समूहों से मण्डित यह वारा नगर पारियात्र देश में स्थित था। इस वारा नगर में रहते हुए संक्षेप से बहुपदार्थ संयुक्त जम्बूद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गई है । छद्मस्थ से विरचित इसमें जो भी प्रवचन विरुद्ध लिखा गया हो, उसे सुगीतार्थ प्रवचनवत्सलता से शुद्ध कर लें।
इस पर तिलोयपण्णत्ती का प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्व निर्दिष्ट तिलोयपण्णत्ती की शैली पर लिखा गया है। जैसे तिलोयपण्णत्ती में सर्वप्रथम पंचगरुषों की वन्दना की गई है। वैसे ही इसके प्रारम्भ भी उक्त पंचगरुषों की बन्दना की गई है। विशेष इतना है कि जहाँ तिलोयपण्णत्ती में प्रथमतः सिद्धों को नमस्कार किया गया है वहाँ प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथमतः अरिहंतों को नमस्कार किया गया है।
ति. प. में प्रथम महाधिकार के अन्त में नाभेय जिन (ऋषभनाथ) को नमस्कार करके प्रागे प्रत्येक महाधिकार के आदि व अन्त में क्रमश: अजितादि तीर्थंकरों को नमस्कार करते हए अन्तिम नौवें महाधिकार के प्रारम्भ में शान्ति जिन को नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् इसी नौवें महाधिकार के अन्त में कन्थ आदि वर्धमानान्त शेष तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। इसी प्रकार इसी में भी द्वितीय उद्देश के प्रारम्भ में ऋषभ जिनेन्द्र को और अन्त में अजित जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। इसी क्रम से आगे प्रत्येक उद्देश के आदि व अन्त में एक-एक तीर्थंकर को नमस्कार करते डर तेरहवें अधिकार के अन्त में वीर जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है।
२. उ. १३, गा. १५४-५७.
१. उ. १३, गा. १४४-४५. ३. उ. १३, गा. १५५-६४. ४. उद्देश १३, गा. १६५-७०.
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प्रस्तावना
इसके अतिरिक्त तिलोयपणती की कितनी ही गाथानों को यहाँ उसी रूप में अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ इसके अन्तर्गत कर लिया गया है।
तिलोयपण्णत्ती की रचना जिस प्रकार भाषा की दृष्टि से समृद्ध व प्रौढ़ तथा विषविवेचन की दृष्टि से सुसम्बद्ध है, इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना नहीं है---वह भाषा की दृष्टि से शिथिल और विषयविवेचन की दृष्टि से कुछ अव्यवस्थित है । पुनरुक्ति भी प्रस्तुत ग्रन्थ में जहाँ तहाँ देखी जाती है।
ग्रन्थ का प्रकाशन जैन संस्कृति संरक्षक संघ (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) सोलापुर द्वारा हो चका है । इसका उपयोग आत्माङ्गुल आदि शब्दों में हुआ है।
१०१. कर्मस्तव-यह द्वितीय प्राचीन कर्मग्रन्थ है। इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है । इसमें ५५ गाथायें हैं । यहाँ सर्वप्रथम जिनवरेन्द्र को नमस्कार करते हुए बन्ध, उदय और सत्त्वयुक्त स्तव के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। बन्ध, उदय और सत्ता के व्यवच्छेद का प्ररूपक होने से चूंकि यह असाधारण सद्भूत गुणों का कीर्तन करने वाला है, अत एव इसे नाम से स्तव कहा गया है। यहाँ प्रथमतः गुणस्थानक्रम से बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों की संख्या का निर्देश करके तत्पश्चात् उसी क्रम से उन कर्मप्रकृतियों का नामोल्लेख भी किया गया है। इसके ऊपर गोविन्द गणी (सम्भवतः विक्रम की १३वीं शताब्दो) द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह पूर्वोक्त कर्मविपाक के साथ जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुया है। इस पर एक ३२ गाथात्मक अज्ञातकर्तृक भाष्य भी है, जो ग्रन्थ के अन्त में मुद्रित है। इसकी टीका का उपयोग अचक्षदर्शन, अन्तराय कर्म, अपर्याप्तनाम, अप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि, अवाय, प्रातप नामकर्म, उच्छ्वासपर्याप्ति, उदय, उदीरणा और उद्योतनाम आदि शब्दों में हमा है।
१०२. षडशीति-इसका दूसरा नाम आगमिकवस्तुविचारसार प्रकरण है । यह चतर्थ प्राचीन कर्मग्रन्थ है। इसके कर्ता जिनवल्लभ गणी (विक्रम की १२वीं शताब्दी) हैं। गाथायें इसमें ८६ हैं। यहां सर्वप्रथम पाव जिन को नमस्कार करते हुए गुरु के उपदेशानुसार जीवस्थान, मार्गणास्थान, गणस्थान, उपयोग, योग और लेश्या के कुछ कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तदनुसार इसमें प्रागे कम से जीवस्थानों में गणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा व सत्तास्थानों की प्ररूपणा: मार्गणा. स्थानों में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या प्रोर अल्पबहुत्व की प्ररूपणा; तथा गुणस्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्तास्थान और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है।
अन्त में अपने नाम का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि जिनबल्लभ के द्वारा लाया गया (रचा गया) यह जिनागमरूप अमृतसमुद्र का बिन्दु है। हितेषी विद्वज्जन इसे सुनें, उसका मनन करें. और जानें।
इस पर एक टीका हरिभद्रसूरि के द्वारा रची गई है। ये देवसूरि के प्रशिष्य और जिनदेव उपाध्याय के शिष्य थे। उक्त टीका उन्होंने अणहिल्लपाटकपुर में जयसिंहदेव के राज्य में प्राशापर बमति में विक्रम सं.१९७२ में लिखी है। दूसरी टीका सुप्रसिद्ध प्रा. मलयगिरि के द्वारा लिखी गई है। इन दोनों टीकाओं के साथ ग्रन्थ कर्मविपाकादि के साथ जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हमा है। इस पर एक ३८ गाथात्मक अज्ञातकर्तृक भाष्य भी है जो ग्रन्थसंग्रह के अन्त में मुद्रित है। इसका उपयोग (टीका से) अचक्षुदर्शन, अनन्तानुबन्धी, आहारक (शरीर), आहारक (जीव) और उपयोग आदि शब्दों में हुआ है।
(शेष अगले भाग में)
१. देखिये ति. प. भा. २, प्रस्तावना पृ. ६५-७० और जंबूदीवपण्णत्ती की प्रस्तावना पृ. १२८.
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जैन - लक्षणावली
लचणवैशिष्ट्य
देश-काल की विशेषता अथवा लक्षणकार की मनोवृत्ति के कारण एक ही लक्ष्य के लक्षण में कहीं कुछ विशेषता या विविधता भी देखी जाती । जैसे—
७०
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कर्मभूमि - कर्मभूमिक का यौगिक अर्थ कर्मभूमिभिन्न- भोगभूमि में उत्पन्न हुआ जीव होता है । इस अभिप्राय को व्यक्त करने वाला लक्षण समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति में पाया जाता है । स्थानांग में लक्षित 'अकर्मभूमि' के लक्षण से भी यही अभिप्राय ध्वनित होता है । परन्तु धवलाकार ने वेदनाकालविधान के अन्तर्गत सूत्र ८ की व्याख्या करते हुए 'अकर्मभूमिक' से देव और नारकियों को ग्रहण किया है ।
प्रकरण वहाँ काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना के स्वामी का है । वह चूंकि भोगभूमिजों के सम्भव नहीं है, अतएव सूत्रस्थ 'प्रकम्मभूमियस्स' पद का अर्थ वहाँ 'देव नारकी' किया गया है ।
श्रक्षौहिणी - पउमचरिउ और पद्मचरित्र (पद्मपुराण) के अनुसार अक्षौहिणी का प्रमाण २१८७०० तथा घवला के अनुसार वह ६०६०६०६००० है ।
अचेलक - अचेल, अचेलक और प्रावेलक्य ये समानार्थक शब्द हैं । श्राचारांगसूत्र १८० में (पृ. २१८) अचेल शब्द उपलब्ध होता है । प्रसंग वहाँ चरित्र को वृद्धिंगत करने का है । इसके लिए वहाँ कहा गया है कि मोक्ष के निकटवर्ती कितने ही जीव धर्म को ग्रहण करके धर्मोपकरणों के विषय में सावधान होते हुए धर्म का आचरण करते हैं । इस प्रकार से जो काम भोगादि में आसक्त न होकर धर्माचरण में दृढ़ होते हैं तथा समस्त गृद्धि - भोगाकांक्षा को - दुःखरूप समझकर उसे छोड़ देते हैं वे ही महामुनि होते हैं । ऐसा महर्षि चेतन-अचेतन परिग्रह में निर्ममत्व होकर विचार करता है कि मेरा कुछ भी नहीं, मैं अकेला हूं। इस प्रकार एकत्वभावना को भाता हुआ जो अचेल - वस्त्रादि सब प्रकार के परिग्रह से रहित साधु- संयम में उद्यत होकर प्रवमौदर्य में स्थित होता है वह सब प्रकार के उपद्रव को सहन करता है ।
इसकी टीका में शीलांकाचार्य ने 'प्रचेल' का अर्थ 'अल्पवस्त्रवाला या जिनकल्पिक' किया है ।
आगे उक्त आचारांग के सूत्र १८२ में कहा गया है कि जो साधु वस्त्र का परित्याग करके संयम में दृढ है उसके अन्तःकरण में इस प्रकार का प्रार्तध्यान नहीं होता है - मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, वस्त्र की मैं याचना करूंगा, धागे की याचना करूंगा, सुई की याचना करूंगा, जोडूंगा, सीऊंगा, बड़ा करूंगा, छोटा करूंगा, पहिनूंगा और शरीर को श्राच्छादित करूंगा इत्यादि ।
इसकी टीका में भी शीलांकाचार्य ने प्रथमतः अचेलका अर्थ प्रल्प अर्थ में 'नम्' मानकर 'अज्ञ' पुरुष का उदाहरण देते हुए 'अल्पचेल' किया है । पर श्रागे चलकर सम्भवतः प्रसंग की प्रतिकूलता का अनुभव करते हुए उन्होंने यह भी कह दिया है-- अथवा जिनकल्पिक के अभिप्राय से ही इस सूत्र की व्याख्या करनी चाहिए ।
इसी श्राधारांग सूत्र (२०८ - १० ) में अपवाद के रूप में यह भी बतलाया है कि जो भिक्षु तीन वस्त्रों को ग्रहण कर संयम का परिपालन कर रहा है उसे कैसी भी शैत्य आदि की बाघा क्यों न हो, चौथे वस्त्र की याचना नहीं करना चाहिए तथा विहित वस्त्रों को धारण करते हुए भी उन्हें धोना नहीं चाहिए । शीत ऋतु के बीत जाने पर तीन की अपेक्षा दो और फिर दो की उसे भी छोड़कर अचेल हो जाना चाहिए। ऐसा करने से उपकरणविषयक कायक्लेशरूप तपका आचरण होता है ।
स्थानांगसूत्र में (सू. ४५५, पृ. ३२५) अल्पप्रतिलेखा, लाघविक प्रशस्त, वैश्वासिक रूप, तप अनुज्ञात और विपुल इन्द्रियनिग्रह, इन पांच स्थानों द्वारा अचेलको वस्त्रहीन साधु को - प्रशस्त बतलाया है ।
अपेक्षा एक रखकर अन्त में
लघुता प्रगट होती है तथा
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प्रस्तावना
इसकी टीका में अभयदेव सरि ने अचेल का अर्थ 'न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः' इस निरुक्ति के साथ निर्वस्त्र-जिनकल्पिक-ही किया है।
मूलाचार (१-३०) में वस्त्र, चमड़ा, वल्कल अथवा पत्र (पत्ता) आदि से शरीर के न ढकने को पाचेलक्य का स्वरूप बतलाते हुए उसे लोकपूज्य बतलाया है।
भगवती आराधना में जिस दस प्रकार के कल्प का निर्देश किया गया है उसमें प्राचेलक्य पहला है। इसकी टीका में अचेलकता-निर्वस्त्रता-का प्रबलता से समर्थन करते हुए अपराजित सूरि ने उसके आश्रय से इन गुणों का प्रादुर्भाव बतलाया है-त्याग, आकिंचाय, सत्य, लाघव, अदत्तविरति, भावविशुद्धिमय ब्रह्मचर्य, उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, तप, संयमविशुद्धि, इन्द्रियविजय और कषायका अभाव आदि ।
मागे एतद्विषयक शंका-समाधान में उन्होंने प्राचारप्रणिधि, ग्राचा रांग का द्वितीय अध्ययन लोकविजय, वस्त्रषणा', पात्रषणा, भावना, सत्रकृतांग का पुण्डरीक अध्ययन, प्राचारांग, उत्तराध्यर और दशवकालिक आदि प्रागमों के नामोल्लेखपूर्वक कुछ अवतरण भी दिये हैं।
आगे प्राचारांग के वस्त्रविधायक अन्य सूत्र का भी निर्देश करते हए उन्होंने बतलाया है कि उसका विधान कारणविशेष की अपेक्षा से किया गया है।
__ उत्तराध्ययन (२-१३) में कहा गया है कि ज्ञानी साधु चाहे अचेल हो और चाहे सचेल हो उसे इसको धर्मोपकारक जानकर खिन्न नहीं होना चाहिए।
आगे इसी उत्तराध्ययन (२३-२६) में पाश्वपरम्परा के शिष्य केशिकुमार ने गौतम गणधर से प्रश्न करते हुए कहा है कि वर्धमान स्वामी ने तो अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और भगवान् पार्श्व ने सान्तरोत्तर-विशेषवस्त्रयुक्त-धर्म का उपदेश दिया है। एक मार्ग के प्रवर्तक दोनों के उपदेश में यह भेद क्यों ? उत्तर में गौतम ने कहा है कि जनसमुदाय को साधुत्व का परिज्ञान कराने के लिए अनेक प्रकार का विकल्प किया गया है । लिंग का प्रयोजन संयम का निर्वाह और ग्रहण (ज्ञान) है। वस्तुतः मोक्ष के साधक तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं।
अटटांग-यह एक कालका भेद है। तिलोयपण्णत्ती के अनुसार यह ८४ त्रुटित प्रमाण, अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार ८४ लाख त्रुटितप्रमाण तथा ज्योतिष्करण्डक के अनुसार ८४ लाख महात्रुटित प्रमाण है। इन कालवाचक शब्दों में क्रमादि का व्यत्यय भी हुआ है । जैसे-अनुयोगद्वारसूत्र (सूत्र ३६७, पृ. १४६) में उनका क्रम इस प्रकार है -१ त्रुटितांग, २ त्रुटित, ३ अटटांग, ४ मटट, ५ अवांग, ६ अवव, ७ हुहुकांग,
त्पलांग, १० उत्पल, ११ पद्मांग, १२ पदम, १३ नलिनांग, १४ नलिन, १५ अर्थनिपूरांग, १. देखिये पीछे पृ. ३४ का ३रा टिप्पण । २. प्राचेलक्कु सिय सेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । जेट्रपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो ।
भ.पा. ४२१. ३. दशवैकालिक का पाठवां अध्ययन । ४. पाचाराम (द्वि. श्रुतस्कन्ध) की प्रथम चूलिका का ५वां अध्ययन । ५. इसी चूलिका का छठा अध्ययन । ६. प्राचाराग्र की तीसरी चूलिका। ७. सूत्रकृ. द्वि. श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन । ८. प्रायिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया । भिक्षूणा [यः] ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्ब
मानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति । तथा चोक्तमाचाराङ्गे-सुदं मे पाउस्संतो भगवदा एवमक्खादं-इह खलु संजमाभिमुखा दुविहा इत्थी-पुरिसा जादा भवंति । तं जहा-सव्वसमण्णागदे णो सव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांगहत्थ-पाणि-पादे सविदियसमण्णागदे तस्स ण णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिलं एव परिहिउं एव अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति । भ. पा. ४२१ टीका, पृ. ६१२.
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७२
जैन-लक्षणावली १६ अर्थनिपूर, १७ अयुतांग, १८ अयुत, १६ नयुतांग, २० नयुत, २१ प्रयुतांग, २२ प्रयुत, २३ चूलिकाँग, २४ चूलिका, २५ शीर्षप्रहेलिकांग, २६ शीर्षप्रहेलिका।
ज्योतिष्करंडक (२, ६४-७०) में-१ लतांग, २ लता, ३ महानलिन, ४ नलिनांग, ५ नलिन, ६ महानलिनांग, ७ महानलिन, ८ पद्मांग, ६ पद्म, १० महापांग, ११ महापद्म, १२ कमलांग, १३ कमल, १४ महाकमलांग, १५ महाकमल, १६ कुमुदांग, १७ कुमुद, १८ महाकुमुदांग, १६ महाकुमुद, २० त्रुटितांग, २१ त्रुटित, २२ महाश्रुटितांग, २३ महात्रुटित, २४ अटटांग, २५ अटट, २६ महापटटांग, २७ महापटट, २८ ऊहांग, २६ ऊह, ३० महाऊहांग, ३१ महाऊह, ३२ शीर्षप्रहेलिकांग, ३३ शीर्षप्रहेलिका।
इस मतभेद का कारण माथुरी और वालभो वाचनाओं का पाटभेद रहा है।
अतिचार-प्रसंग के अनुसार इसके अनेक लक्षण उपलब्ध होते हैं। जैसे-पिण्डनियुक्ति (१८२) में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि किसी श्रावक के द्वारा प्राधाकर्म (साधु को लक्ष्य करके जिस भोजनपाक क्रिया को प्रारम्भ किया जाता है उस क्रिया को और उसके निमित्त से निष्पन्न भोजन को भी प्राधाकर्म कहा जाता है) का निमंत्रण देने पर उसे साधु यदि स्वीकार करता है तो वह अतिक्रम दोष का भागी होता है । तत्पश्चात् साधु जब उसे स्वीकार करके जाने के लिए उद्यत होता है-पैरों को उठाता-धरता प्रादि है-तब वह व्यतिक्रम दोष का पात्र होता है। तदनन्तर उक्त प्राधाकर्म को ग्रहण करने पर अतिचार दोष होता है। अन्त में उसके निगनने पर वह चतुर्थ अनाचार दोष का पात्र होता है।
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मूलाचार (११-११) में भी चौरासी लाख गुणों के उत्पादन प्रकरण में उक्त अतिक्रमादि चार का नामोल्लेख मात्र किया गया है। उसकी टीका में वसुनन्दी ने उनका स्वरूप इस प्रकार बतलाया हैसंयतसमूह के मध्य में स्थित रहकर विषयों की इच्छा करना, इसका नाम अतिकम है। संयतसमूह को छोडकर संयत के विषयोकरणों के जुटाने को व्यतिक्रम कहते हैं। व्रत की शिथिलता और कुछ असंयम के सेवन को अतिचार कहा जाता है। व्रत को भंग करके स्वच्छन्दतापूर्ण जो प्रवृत्ति की जाती है, यह अनाचार कहलाता है।
___षट्खण्डागमप्ररूपित शीलव्रतविषयक निरतिचारता को स्पष्ट करते हुए घवलाकार ने मद्यपान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद; इनका त्याग न करने को अतिचार कहा है (पु. ८, पृ. ८२)।
हरिभद्र सूरि ने श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में असत् अनुष्ठानविशेषों को, तथा अावश्यकनियुक्ति की टीका में संज्वलन कषायों के उदय से होने वाले चारित्रस्खलनविशेषों को अतिचार कहा है।
प्रा. अमितगति ने द्वात्रिंशिका में विषयों में प्रवर्तन को अतिचार निर्दिष्ट किया है।
१. तिलोयपण्णत्ती आदि अन्य ग्रन्थगत इन कालमानों की तालिका ति. प. भाग २, परिशिष्ट पृ. ६६७
पर देखिये। २. इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठन-गुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो
दुर्भिक्षतातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः संघमेलापकोऽभवत् । तद्यथा-एको वालभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटनेन परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः। तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानी प्रवर्तमानं माथुरवाचनानुगतम्, ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्ता चाचार्यों वालभ्यः, तत इदं संख्यास्थानप्रतिपादनं बालभ्यवाचनानुगतमिति नास्त्यनुयोगद्वारसंख्यास्थानः सह विसदशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । ज्योतिष्क, मलय. वृत्ति २-७१, पृ. ४१.
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प्रस्तावना
धर्मबिन्दु की टीका, योगशास्त्र, भगवती आराधना की मूलाराधनाद. टीका और सागारधर्मामृत' आदि में व्रत की शिथिलता, मलिनता अथवा उसके एकदेश भंग को अतिचार कहा गया है।
वर्तमान में उक्त अतिचार शब्द प्रायः व्रत की मलिनता या उसके देशतः भंग अर्थ में रूढ है। सम्यक्त्व और अहिंसादि १२ व्रतों में से प्रत्येक व्रत के ५-५ अतिचारों की व्यवस्थित प्ररूपणा सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होती है। इससे पूर्व के किसी अन्य ग्रन्थ में वह देखने में नहीं पायी । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभूत में बारह प्रकार के देशचारित्र की प्ररूपणा की है, पर वहाँ किसी भी व्रत और सम्यक्त्व के अतिचारों की सूचना नहीं की गई। वहाँ एक विशेषता यह है कि देशावकाशिकव्रत का न तो तीन गुणवतों में उल्लेख किया गया है और न चार शिक्षाव्रतों में भी । चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, प्रोषध और अतिथिपूजा के साथ सल्लेखना को ग्रहण किया गया है (२४-२५) ।
यद्यपि उवासगदसानो में प्रानन्द उपासक को लक्ष्य करके सम्यक्त्व व स्थूलप्राणातिपातविरमण प्रादि प्रत्येक ब्रत के ५-५ अतिचारों का निर्देश किया गया है पर वह तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण है अथवा इसके अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में उनका विवेचन किया गया है, यह कहा नहीं जा सकता।
सोमदेव सूरि ने अपने उपासकाध्ययन में प्रायः इन अतिचारों का निर्देश तो किया है, पर उन्होंने उनके लिए अतिचार या उसके पर्यायवाची किसी अन्य शब्द का भी प्रयोग नहीं किया, और न उनकी संख्या (सल्लेखना को छोड़कर) का भी निर्देश किया है। केवल उन्हें विवक्षित व्रत के निवर्तक या घातक घोषित किया है।
अधःकर्म, प्राधाकर्म-सामान्य रूप से ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। पिण्डनियुक्तिकार ने (गाथा ६५) इसके ये चार नाम निर्दिष्ट किये हैं-प्राहाकम्म (प्राधाकर्म), अहेकम्म (अधःकर्म), पायाहम्म (प्रात्मघ्न) और अत्तकम्म (प्रात्मकर्म)।
प्रा. भूतबलि षट्खण्डागम में इसका लक्षण इस प्रकार करते हैं-उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और प्रारम्भ के निमित्त से जो सिद्ध होता है उसे प्राधाकर्म कहते हैं। - मूलाचार (६-५) में लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि छह काय के प्राणियों के विराधन और उपद्रावण प्रादि से जो निष्पन्न है. तथा स्वकृत अथवा परकत अपने को प्राप्त है उसे प्राधाकर्म जानना चाहिए । 'स्वकृत व परकृतरूप से अपने को प्राप्त' इतना मात्र यहां विशेष जोड़ा गया है।
पिण्डनियुक्ति (६७) में इसका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-जिस साधु के निमित्त अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार प्रौदारिक शरीरवाले जीवों का उद्दवण (अपद्रावण)-प्रतिपात वजित पीड़ा-की जाती है और त्रिपातन-मन, वचन व काय इन तीन का अथवा देह, प्रायु और इन्द्रिय इन तीन का विनाश या उनसे वियुक्त किया जाता है; उसे प्राधाकर्म कहते हैं। आगे यहां (६६) भाव आधाकर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि साधु चूंकि सयमस्थानकाण्डकों, लेश्या और स्थिति सम्बन्धी विशुद्ध एवं विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान अपने भावको अधः करता है-हीन और हीनतर स्थानों में स्थापित करता है-अतएव इसे भाव अधःकर्म कहा जाता है। यह विवेचन भी बहुत कुछ अंश में षट्खण्डागम और मूलाचार जैसा ही है।
भगवती आराधना में वसति के प्रकरण में गा. २३० की टीका में अपराजित सूरि के द्वारा प्रकृत २. पं. आशाधर ने अपने सागारधर्मामत की स्वोपज्ञ टोका में जो १२ व्रतों के अतिचारों का विशेष
स्पष्टीकरण किया है उसका आधार प्रायः हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र और उसका स्वोपज्ञ विवरण रहा है। (विशेष के लिए देखिये अनेकान्त वर्ष २०, पृ. ११६.२५ व १५१-६१ में 'सागारधर्मामृत
पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव' शीर्षक लेख।) २. उवासगदसाग्रो (पी. एल. वैद्य, फर्गुसन कालेज पूना) १, ४४-५७, पृ. ६-१२. ३. देखिए श्लोक ३७०, ३८१, ४१८, ७५६, ७६३, ८५१ और ६०३ प्रादि । ।
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जैन-लक्षणावली प्राधाकर्म का स्वरूप प्रगट करते हुए कहा गया है कि वृक्षों को काटकर लाना, इंटों का पकाना, भूमि को खोदना, पत्थर और बालू आदि से पूर्ण करना, पृथिवी का कूटना, कीचड़ (गारा) करना, कीलों का करना, अग्नि से लोहे को तपाकर धन से पीटना और पारी से लकड़ी चीरना; इत्यादि व्यापार से छह कायिक जीवों को बाधा पहुँचा कर जो वसति स्वयं निर्मित की जाती है या दूसरे से करायी जाती है उसे प्राधाकर्म शब्द से कहा जाता है। यह लक्षण प्रायः पिण्डनियुक्ति जैसा है। विशेष इतना है कि पिण्डनियुक्ति में उक्त लक्षण आहार के प्रकरण में कहा गया है, और यहाँ कि वह वसति के प्रकरण में कहा गया है, अतः वसति के विषय में सम्भव दोषों को ही यहाँ प्रगट किया गया है।
शीलांकाचार्य के अभिप्रायानुसार साधु के लिए जो सचित्त को प्रचित्त किया जाता है या अचित्त को पकाया जाता है, यह प्राधाकर्म है। लगभग यही अभिप्राय प्राचार्य हेमचन्द्र भी निरुक्तिपर्वक (प्राधाय विकल्प्य यति मनसि कृत्वा सचित्तस्याचित्तकरणमचित्तस्य वा पाको निरुक्तादाधाकर्म) योगशास्त्र में प्रगट करते हैं।
अनादेय, प्रादेय-इन दोनों के लक्षणों में कुछ भेद देखा जाता है । सर्वार्थसिद्धि आदि में उनके लक्षण में कहा गया है कि जो नामकर्म प्रभायुक्त शरीर का कारण है वह प्रादेय और उससे विपरीत अनादेय कहलाता है।
तत्त्वार्थ भाष्य में प्रादेयभाव के निवर्तक कर्म को आदेय और विपरीत को अनादेय बतलाया गया है। इसको स्पष्ट करते हुए हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी कहते हैं कि जिस जीव के प्रादेय नामकर्म का उदय होता है बह जो कुछ भी कहे उसे लोग प्रमाण मानते हैं तथा उसे देखते ही वे खड़े होते हए उच्चासनादि देकर सम्मानित करते हैं, इस प्रकार उनके अभिप्रायानुसार जो मादरोत्पादन का हेतू है वह प्रादेय और उससे विपरीत अनादेय माना गया है।
धवलाकार के मत से प्रादेय नामकर्म वह है जिसके उदय से जीव को प्रादेयता प्राप्त होती है, यता का अभिप्राय वे गृहणीयता या बहुमान्यता प्रगट करते हैं । अनादेय के लक्षण में वे कहते हैं कि जिस कर्म के उदय से उत्तम अनुष्ठान करता हना भी जीव गौरवित नहीं होता है वह अनादेय कहलाता है।
प्राचार्य वसुनन्दी मूलाचार की वृत्ति में पूर्वोक्त दोनों ही प्रकार के लक्षणों को इस प्रकार से व्यक्त करते हैं-जिसके उदय से प्रादेयता-प्रभोपेत शरीर-होता है वह, अथवा जिसके उदय से जीव प्रादेयवाक्य होता है वह, प्रादेयनामकर्म कहलाता है ।
उक्त दोनों प्रकार के लक्षणों में से प्रादेयता-आदरपात्रता-रूप प्रादेय के लक्षण में श्वे. ग्रन्थकार प्रायः एकमत हैं, पर दि. ग्रन्थकारों में कुछ मतभेद रहा दिखता है।
अनिश्रित, अनिःसत-बहु व अल्प प्रादि बारह पदार्थों के प्राश्रय से अवग्रहादि में से प्रत्येक के १२-१२ भेद होते हैं। उनमें एक अनिश्रित या अनिःसृत अवग्रह है। तत्त्वार्थवार्तिक में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अतिशय विशुद्धि से युक्त श्रोत्र आदि के परिणाम के निमित्त से जिसका पूर्ण रूप से उच्चारण नहीं किया गया है उसका जो ग्रहण होता है उसे अनिःसृत अवग्रह कहते हैं । आगे चक्षु इन्द्रिय के प्राश्रय से यह कहा गया है कि पांच वर्ण वाले वस्त्र, कम्बल व चित्रपट प्रादि के एकदेश विषयक पांच वर्ण के ग्रहण से समस्त पांच वर्षों के दृष्टिगोचर न होने पर भी सामर्थ्य से जो उनका ग्रहण होता है, यह अनिःसृतावग्रह कहलाता है। अथवा किसी अन्य देश में स्थित पांच वर्ण बाले एक वस्त्र प्रादि के कथन से जिसका पूर्णरूप से कथन नहीं किया गया है उसके भी एकदेश के कथन से जो उनका ग्रहण हो जाता है, इसका नाम अनिःसृत-अवग्रह है।
हरिभद्र सूरि तत्त्वार्थसूत्र (१-१६) की टीका में उसके लक्षण में कहते हैं कि मेघशब्द प्रादि से भेरीशब्द के प्रयग्रहण के समान अन्य की अपेक्षा से रहित जो बेण प्रादि के शब्द का ग्रहण मनिश्रित प्रवग्रह कहते हैं। यह लमणनिर्देश परम्याख्या के अनुसार किया गया है। प्राचार्य सिरसेन गणी
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प्रस्तावना
उसका लक्षण इस प्रकार प्रकट करते हैं-निश्रित का अर्थ लिंग से जाना गया है, जैसे जूही के फलों के अतिशय शीत, मृदु और स्निग्ध आदि स्पर्श का अनुभव पूर्व में हुआ था, उस अनुमान से लिंग के द्वारा उस विषय को न जानता हुमा जो उसका ज्ञान प्रवृत्त होता है उसे अनिश्रित-अवग्रह कहते हैं।
धवलाकार तीन स्थलों पर उसका लक्षण पृथक-पृथक् इस प्रकार करते हैं। पु. ६-अनभिमुख अर्थ के ग्रहण को अनिःसृतावग्रह कहते हैं, अथवा उपमान-उपमेय भाव के बिना जो ग्रहण होता है उसे अनिःसृतावग्रह जानना चाहिए । पु. ६-वस्तु के एकदेश के प्राश्रय से समस्त वस्तु का जो ग्रहण होता है. यह अनिःसृतावग्रह कहलाता है, अथवा बस्तु के एकदेश या समस्त ही वस्तु के पालम्बन से जो वहां असंनिहित अन्य वस्तु का बोध होता है, यह भी अनिःसृतप्रत्यय कहलाता है । पु. १३-पालम्बनीभूत वस्तु के एकदेश के ग्रहण समय में जो एक वस्तु का ज्ञान होता है उसे, अथवा वस्तु के एकदेश के ज्ञान के समय में ही दृष्टान्त के आश्रय से अथवा अन्य प्रकार से भी जो अनवलम्बित वस्तु का ज्ञान होता है उसे, तथा अनुसन्धानप्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान को भी अनिःसतप्रत्यय कहते हैं।
__इस प्रकार उपयुक्त अनिःसृतावग्रह के लक्षणों में अनेकरूपता उपलब्ध होती है। उक्त लक्षणों का फलितार्थ ऐसा प्रतीत होता है
१. त. वा.-पूर्णतया अनुच्चारित शब्द का ग्रहण, वस्तु के एकदेशगत वर्णादि के देखने से समस्त वस्तुगत वर्णादि का ज्ञान, अन्यदेशस्थ पंचरंगे किसी एक वस्त्रादि के कथन से अन्य प्रकथित का ग्रहण।
२. त. व. हरि.-अन्य शब्द निरपेक्ष शब्द का ग्रहण । ३. त. वृ. सिद्ध-लिंगनिरपेक्ष ग्रहण ।
४. धवला-अनभिमुख अर्थका ग्रहण, उपमान-उपमेय भाव के बिना होने वाला ज्ञान, वस्तु के एकदेश से समस्त वस्तु का तथा असंनिहित अन्य वस्तु का ग्रहण एवं अनुसन्धानप्रत्यय आदि।
अनुक्त-अवग्रह-सर्वार्थसिद्धि में इसका लक्षण 'अभिप्राय से ग्रहण' कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक में इस लक्षण का अनुसरण करते हुए प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है कि श्रोत्र इन्द्रियादि के
ष्ट विशुद्धि परिणाम के निमित्त से एक वर्ण के भी न निकलने पर अभिप्राय से ही अनुच्चारित शब्द का जो अवग्रह होता है उसका नाम अनुक्त-अवग्रह है। अथवा स्वर-संचार के पहले बाजे को विवक्षित स्वर-संचार के अनुरूप करते हुए देखकर अवादित शब्द को जान लेना कि आप इस शब्द को (स्वर को) बजाने वाले हैं, इस प्रकार के ग्रहण को अनुक्तावग्रह कहा जाता है। आगे चक्षु इन्द्रिय के आश्रय से उदाहरण देते हुए कहा गया है कि किसी को शक्ल व कृष्ण प्रादि वर्गों का मिश्रण करते हुए देखकर यह बिना कहे ही जान लेना कि आप अमुक वर्ण इनके मिलाने से तैयार कर रहे हैं, यह अनुक्तावग्रह है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा गया है कि स्तोक पुद्गल के निकलने से जो बोध होता है वह अनुक्तावग्रह कहलाता है।
___ तत्त्वार्थभाष्यानुसारी सूत्रपाठ में प्रकृत सूत्र (१-१६) में 'अनुक्त' के स्थान में 'असन्दिग्ध' पाठ है। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार सिद्धसेन गणी कहते हैं कि 'उक्तमवगृह्णाति' यह विकल्प एक श्रोत्रावग्रह को ही विषय करता है, वह सर्वव्यापी नहीं है । कारण यह कि उक्त का अर्थ शब्द है और वह भी अक्षरात्मक शब्द । इसका अवग्रह एक मात्र श्रोत्रावग्रह ही हो सकता है। अनुक्त जो उक्त से विपरीत अनक्षरात्मक शब्द है उसके अवग्रहण का नाम अनुक्तावगृह होगा। इसमें चंकि अव्याप्ति दोष सम्भव है, अतः दूसरों ने उसके स्थान में निश्चितमवगृह्णाति' इस विकल्प को स्वीकार किया है। उदाहरण इसके लिए यह दिया गया है-स्त्री के स्पर्शविषयक प्रवग्रह से स्त्री का ही ज्ञान होता है तथा पुष्पों या चन्दन के स्पर्श से पुष्पों या चन्दन का ही ज्ञान होता है।
घवलाकार अनुक्तावग्रह (अनुक्तप्रत्यय) के लक्षण में कहते हैं कि विवक्षित इन्द्रिय के प्रतिनियत गुण से विशिष्ट वस्तु का जब बोध होता है तब उस इन्द्रिय के अनियत गुण से विशिष्ट उक्त वस्तु का
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जन-लक्षणावली
जिसके आश्रय से बोध होता है उसका नाम अनुक्तावग्रह है । जैसे-चक्षु इन्द्रिय से गुड़ का ज्ञान होने पर उसके अनियत गुण स्वरूप जो रस का भी बोध होता है, तथा घ्राण इन्द्रिय से दही के गन्ध को जानकर उसी समय उसके खट्टे-मीठेपन का भी ज्ञान होता है, यही अनुक्तावग्रह है। मूलाचार की वृत्ति में प्राचार्य वसुनन्दी ने और प्राचारसार के कर्ता वीरनन्दी ने धवलाकार के लक्षण का अनुसरण किया है (देखो अनुक्त शब्द)।
__ तत्त्वार्थसूत्र की सुखबोधा वृत्ति में उसके लक्षण में कहा गया है कि किसी के द्वारा 'अग्नि को लामो' ऐसी आज्ञा देने पर 'खप्पर आदि से' अग्नि के ले जाने का जो स्वयं विचार उदित होता है, इसे मनुक्तावग्रह कहते हैं।
इन सब लक्षणों में सर्वार्थसिद्धि का लक्षण व्यापक है, कारण कि बिना कहे ही प्रसंग के अनुसार अभिप्राय से शब्दादि सभी विषयों का प्रवग्रह हो सकता है। तदनुसार ही तत्त्वार्थवार्तिककार ने श्रोत्र व चक्षु इन्द्रियों के प्राश्रय से उदाहरण देते हुए उसे स्पष्ट भी किया है । सुखबोधा वृत्ति का उदाहरण तो बहुत उपयुक्त प्रतीत होता है, वहाँ अग्नि लाने की आज्ञा देते हुए यह नहीं कहा गया है कि खप्पर से लाना या थाली आदि से । फिर भी उसे ले जाना वाला सोचता है कि उसका हाथों से या कपड़े आदि से ले जाना तो शक्य नहीं है, अतः वह खप्पर आदि से ले जाता है। यह अनुक्तावग्रह ही है। इससे सिद्धसेन गणी द्वारा दिये गये अव्याप्ति दोष की सम्भावना नहीं दिखती।
धवलाकार आदि के द्वारा स्वीकृत लक्षण भी उचित हैं। कारण यह कि लोकव्यवहार में प्राम प्रादि के गन्ध को ब्राण इन्द्रिय के द्वारा जानकर उसके अविषयभूत खट्टे या मीठे रस का बोध होता हमा देखा जाता है।
अनुपस्थापन-परिहार प्रायश्चित्त दो प्रकार का है-अनुपस्थापन परिहार और पारंचिक परिहार । प्रकृत अनुपस्थापन शब्द के विविध ग्रन्थों में अनेक रूप देखे जाते हैं। जैसे-तत्त्वार्थवातिक व प्राचारसार में अनुपस्थापन, बृहत्कल्पसूत्र में प्रणवठ्ठप्प (अनवस्थाप्य), धवला में प्रणवढा (अनवस्थक?) तथा चारित्रसार एवं अनगारधर्मामृत में अनुपस्थान ।
तत्त्वार्थवार्तिक में इसका लक्षण संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है-हीनता को प्राप्त होकर प्राचार्य के पास में. अथवा अपने से हीन प्राचार्य के पास में जो प्रायश्चित ग्रहण किया जाता है, इसका नाम मनपस्थापन प्रायश्चित्त है। यहां परिहार प्रायश्चित्त के उक्त प्रकार से दो भेदों का निर्देश नहीं किया गया है।
षटखण्डागम की टीका धवला में उसके उपयुक्त दो भेदों का तो निर्देश किया गया है, पर वह किस प्रकार का अपराध होने पर स्वीकार किया जाता है, इसका निर्देश जैसे तत्त्वार्थवातिक में नहीं
वैसे ही यहां भी नहीं किया गया है । विशेषता यह है कि यहां उसका जघन्य काल छह मास और उत्कृष्ट बारह वर्ष प्रमाण कहा गया है। साथ ही यहां यह भी निर्देश किया गया है कि इस प्रायश्चित्त को स्वीकार करनेवाला साधु कायभूमि से-ऋषियों के आश्रम से-परे जाकर प्रतिवन्दना से रहित होता है-बाल मुनिजन भी यदि वन्दना करते हैं तो वह प्रतिवन्दना नहीं करता । वह गुरु को छोडकर अन्य साधुओं के प्रति मौन रखता हुआ उपवास, प्राचाम्ल, पुरिमार्थ, एकस्थान और निविकृति आदि के द्वारा अपने रस, रुधिर एवं मांस को सुखाता है।
चारित्रसार में उक्त अनुपस्थान प्रायश्चित्त को निजगण और परगण के भेद से दो प्रकार का लिडिट किया गया है। इनमें निजगणानुपस्थान प्रायश्चित्त किस प्रकार के अपराध पर ग्रहण किया ज, है इसका निर्देश करते हुए यहां कहा गया है कि जो प्रमाद से दूसरे मुनि के ऋषि छात्र को, पृत्व को, अन्य पाखण्डियों से सम्बन्धित चेतन अचेतन द्रव्य को, अथवा पर स्त्री को चुराता है; अन्य मनियों पर प्रहार करता है तथा इसी प्रकार का और भी विरुद्ध आचरण करता है उसे यह निजगणानपस्थान प्रायश्चित्त ग्रहण करना पड़ता है । यह प्रायश्चित्त उसके सम्भव है जो नौ-दस पूर्वो का धारक,
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प्रस्तावना
प्रथम तीन संहनन से संयुक्त, परीषहों का विजेता, धर्म में दृढ़, धीर और संसार से भयभीत होता है। वह ऋषि-पाश्रम से बत्तीस धनुष दूर जाकर स्थित होता हुआ बाल मुनियों के द्वारा वन्दना करने पर भी प्रतिवन्दना नहीं करता, गुरु के साथ आलोचना करता है, शेष जनों के विषय में मौन रखता है, तथा पिच्छी को विपरीत रूप से धारण करता है। वह उत्कृष्ट रूप से बारह वर्ष तक कम से कम पांच-पांच उपवास और अधिक से अधिक छह-छह मास के उपवास करता है।
उपर्युक्त अपराध को यदि कोई अभिमान के साथ करता है तो उसे दूसरा परगणोपस्थापन प्रायश्चित्त करना पड़ता है। तदनुसार उसे अपने गण का प्राचार्य परगण के प्राचार्य के पास भेजता है, जो उसकी आलोचना को सुनकर प्रायश्चित्त के दिये बिना अन्य प्राचार्य के पास भेजता है । वह भी उसकी आलोचना को सुनकर बिना प्रायश्चित्त दिये अन्य आचार्य के पास भेजता है। इस प्रकार से उसे सातवें आचार्य के पास तक भेजा जाता है। सातवां प्राचार्य उसे प्रथम प्राचार्य के पास वापिस भेजता है। तब प्रथम आचार्य ही उससे पूर्वोक्त प्रायश्चित का पालन कराता है।
प्राचारसार और अनगारधर्मामृत में प्रकृत प्रायश्चित का विधान उक्त चारित्रसार के समान ही किया गया है।
___ मुलाचार की वसूनन्दिविरचित वृत्ति (५-१६५) में उक्त परिहार प्रायश्चित्त के गणप्रतिबद्ध और अगणप्रतिबद्ध ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। गणप्रतिबद्ध प्रायश्चित्त को ग्रहण करनेवाला जहां मुनिजन प्रथवण (मूत्र) आदि करते हैं वहां रहता है, पीछी को आगे करके मुनियों की वन्दना करता है, पर मुनि उसकी वन्दना नहीं करते; इस प्रकार उसके द्वारा जो गण में क्रिया की जाती है, यह गणप्रतिबद्धपरिहार कहलाता है । जिस देश में धर्म का ज्ञान नहीं रहता, वहां जाकर वह मौनपूर्वक तपश्चरण का अनुष्ठान करता है, यह अगणप्रतिबद्धप्रायश्चित है। यहां धवला और चारित्रसार आदि के समान परिहार प्रायश्चित्त के अनुपस्थान और पारंचिक भेद तो निर्दिष्ट नहीं किये गये, पर गणप्रतिबद्ध और अगणप्रतिबद्ध इन दो भेदों का उल्लेख अवश्य किया गया है । ये कुछ अंश में उक्त अनुपस्थापन परिहार से समानता रखते हैं।
बृहत्कल्पसूत्र (उ. ४, सू. ३) में अनवस्थाप्य तीन प्रकार के निर्दिष्ट किये गये हैं-सामिकों (साधुनों) की उपधि व शिष्य आदि की चोरी करनेवाला, अन्य धार्मिकों की उपधि आदि की चोरी करनेवाला और हाथ, लाठी एवं मुट्ठी आदि से दूसरे पर प्रहार करनेवाला। जिसके लिये यह प्रायश्चित्त दिया जाता है उसका भी ग्रहण यहां अनवस्थाप्य शब्द से ही किया गया है।
___ इसके पूर्व यहां पारंचिक प्रायश्चित्त की प्ररूपणा की जा चुकी है। पारंचिक प्रायश्चित्त से जहां प्राचार्य विशुद्धि को प्राप्त करता है, वहां इस अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से उपाध्याय विशुद्धि को प्राप्त होता है । अनवस्थाप्य का अर्थ है अपराधक्षण में ही व्रतों में अवस्थापन के अयोग्य । '. अाशातन और प्रतिसेवी के भेद से उक्त अनवस्थाप्य दो प्रकार का है। इनमें भी प्रत्येक के दो भेद हैं-सचारित्र और प्रचारित्र । सचारित्र और प्रचारित्र का अभिप्राय यह है कि किसी अपराध के सेवन.से तो चारित्र सर्वथा ही नष्ट हो जाता है और किसी के सेवन से वह देशरूप में नष्ट होता है। कारण यह है कि अपराध के समान होने पर भी परिणाम के वश उसमें विविधता होती है । इसी प्रकार परिणाम के समान होने पर भी कहीं पर अपराध में भी विविधता होती है।
जो अाशातन अनवस्थाप्य तीर्थकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महद्धिक इनमें से तीर्थकर या प्रवचन को पाशातगा-विराधना या तिरस्कार करता है उसके लिए अनवस्थापय प्रायोचित्त का विधान है। शेष में से जो किसी एक की पाशातना करता है उसके लिए चार गुरु प्रायश्चित्त होते हैं। परन्तु यदि कोई शेष उन चारों की ही पाशातना करता है तो वह अनवस्थाप्य होता है ।
प्रतिसेवना अनवस्थाप्य भी पूर्वोक्त सार्मिक आदि के भेद से तीन प्रकार का है। इनके लिए भी अपराध के अनुसार यहां विविध प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है--जैस शंक्ष के लिये मूल
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जैन - लक्षणावली
प्रायश्चित्त तक, उपाध्याय के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तक और आचार्य के लिए पारंचिक प्रायश्चित्त तक |
किन गुणों से युक्त साधु ( उपाध्याय) को यह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दिया जाता है, इसका विचार करते हुए यहां कहा गया है कि जो संहनन ( वज्रवृषभनाराच), वीर्य, श्रागम – जघन्य से नौवें पूर्व के अन्तर्गत श्राचार नामक तीसरी वस्तु और उत्कर्ष से असम्पूर्ण दसवां पूर्व, तथा सूत्र और अर्थं इनसे व तदनुरूप विधि से परिपूर्ण है; सिंहनिःक्रीडित श्रादि तपों का आदर करता है, इन्द्रियों व कषायों के निग्रह में समर्थ है, प्रवचन के रहस्य को जानता है, गच्छ से निकाले जाने का अशुभ भाव जिसके हृदय में जरा भी नहीं रहता तथा जो निर्वासन के योग्य है; इन गुणों से युक्त साधु ही प्रकृत अनवस्थाप्य के योग्य स्थान को प्राप्त करता है । उक्त गुणों से जो रहित होता है उसे अनवस्थाप्य के योग्य अपराध के होने पर भी मूल प्रायश्चित ही दिया जाता है । आशातन अनवस्थाप्य जघन्य से छह मास और उत्कर्ष से बारह मास तक गच्छ से पृथक् रहता
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है । परन्तु प्रतिसेवी अनवस्थाप्य जघन्य से एक वर्ष और उत्कर्ष से बारह वर्ष तक गच्छ से पृथक् रहता है । कारणविशेष से वह इसके पूर्व भी गच्छ में प्रविष्ट हो सकता है ।
इस प्रकार के अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त को जो प्राप्त करता है वह उपाध्याय ही होता है । उसे अपने गण में रहते हुए इस प्रायश्चित्त को ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु अपने समान किसी शिष्य को अपना भार सौंपकर अन्य गण में चले जाना चाहिये और वहां पहुंचकर प्रशस्त द्रव्य क्षेत्रादि में दूसरे गण के प्राचार्य को आलोचना देना चाहिए। उस समय उपसर्ग के निवारणार्थ दोनों ही कायोत्सर्ग करते हैं | अपने गण में रहते हुए इस प्रायश्चित्त के न कर सकने का कारण यह है कि वैसा होने पर शिष्यों का उसके ऊपर विश्वास नहीं रह सकता, वे निर्भय होकर आज्ञा भंग कर सकते हैं; तथा शिष्यों के अनुरोध से भक्त पानादि के लाने में नियंत्रणा नहीं होती । ये सब दोष परगण में चले जाने पर सम्भव नहीं हैं।
जब वह अन्य गण के प्राचार्य को आलोचना देता है तब श्राचार्यं चतुत्रिंशतिस्तव का उच्चारण करते हुए इतर साधुत्रों से कहते हैं कि यह तप को स्वीकार करता है, इसलिए यह आप लोगों के साथ संभाषण प्रादि न करेगा, भाप लोग भी इसके साथ संभाषण आदि न करें ।
उक्त अवस्थाप्य प्रायश्चित्त को स्वीकार करके वह परगण में शैक्ष आदि सभी साधुत्रों की वन्दना करता है, गच्छ में रहता हुआ वह शेष साधुत्रों के उपभोग से रहित उपाश्रय के एक पार्श्व में रहता हुआ संभाषण, प्रतिप्रच्छन, परिवर्तन और प्रभ्युत्थान प्रादि नहीं करता ।
प्रकृत प्रायश्चित्त की प्ररूपणा यहां ५०५८-५१३७ गाथाओं में की गई है ।
अनुमानित - यह १० प्रालोचनादोषों में दूसरा है । कहीं-कहीं ( चारित्रसार, अनगारधर्मामृत और प्रचारसार प्रादि में) इसका उल्लेख 'मनुमापित' नाम से किया गया है । मूलाचार (११-१५) और भगवती प्राराधना ( ५६२ ) के अनुसार वे दस दोष ये हैं- प्राकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी । तत्त्वार्थवार्तिक में इन दोषों के स्वरूप का निर्देश करते हुए उनके नामों का निर्देशन करके केवल प्रथम-द्वितीयादि संख्याशब्दों का ही उपयोग किया गया है । तस्वार्थश्लोकवार्तिक में उनका स्वरूप तो संक्षेप में दिखलाया गया है, पर वहाँ न उनके नामों का निर्देश किया गया है और न संख्याशब्दों का भी । तत्त्वार्थभाष्य और तदनुसारिणी हरिभद्र सूरि एवं सिद्धसेन गणी विरचित टीकामों में उक्त दोषों का उल्लेख ही नहीं किया गया है । वहाँ केवल श्रालोचना के इन पर्याय शब्दों का निर्देश मात्र किया गया है— आलोचन, विवरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण |
प्रकृत अनुमानित दोष का लक्षण भगवती आराधना में पाँच गाथाओं द्वारा (५६६-७३) इस प्रकार बतलाया गया है- अपराध करने वाला साधु स्वभावतः शारीरिक सुख की अपेक्षा रखता हुआ
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प्रस्तावना
अपने बल को छिपाकर पार्श्वस्थ होने के कारण गुरु से कहता है कि मैं चूंकि निहीन (दुर्बल) हूँ, प्रतएव उपवास के लिए असमर्थ हूँ। प्राप मेरे बल, अंगों की दुर्बलता-उदराग्नि की मन्दता-पौर रुग्ण अवस्था को जानते ही हैं, मैं उत्कृष्ट तप करने के लिए समर्थ नहीं है। मैं सबकी मालोचना करता है, यदि तत्पश्चात् आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं । आपकी कृपा से मैं शुद्धि की इच्छा करता हूँ, जिससे मेरा कृत अपराध से उद्धार हो सके। इस प्रकार से प्रार्थना करता हा वह अनुमान से ही हीन-अधिक प्रायश्चित देनेरूप गुरु के अभिप्राय को जानकर शल्य से युक्त (शंकित) होता हुआ पीछे पालोचना करता है । यह दूसरा (अनुमानित) पालोचनादोष है । इस दोष की समीक्षा करते हुए आगे कहा गया है कि जिस प्रकार सुख का इच्छुक कोई मनुष्य गुणकारक समझकर अपथ्य भोजन को करता है और पीछे उसके कटुक फल को भोगता है उसी प्रकार उक्त प्रकार से पालोचना करने वाला उससे शुद्धि की कल्पना करके परिशाम में अपने अहित को ही करता है।
उक्त दोष (द्वितीय) का लक्षण तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, चारित्रसार मौर प्राचारसार में इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-मैं स्वभावतः दुर्बल व रोगी होने से उपवास प्रादि के करने में असमर्थ हैं। यदि प्रायश्चित्त थोड़ा दिया जाता है तो मैं प्रकृत दोषों का निवेदन करूंगा। इस प्रकार से दीनतापूर्ण वचन कहना, यह आलोचना का अनुमानित नाम का दूसरा दोष है। इस प्रकार के लक्षण में 'अनुमानित' की सार्थकता नहीं दिखती।
भगवती पाराधना की विजयोदया टीका में कहा गया है कि किसी प्रकार से गुरु के अभिप्राय को जानकर-थोड़ा प्रायश्चित्त देने वाले हैं या अधिक, इसका अनुमान करके-पालोचना करना, इसे पालोचना का अनुमानित दोष कहा जाता है।
मूलाचार की टीका में इसके लक्षण में यह कहा गया है कि जो अपने शरीर और माहार के तुच्छ बल को प्रगट करने वाले दीन वचनों के द्वारा प्राचार्य को अनुमान कराकर अपने प्रति दयाचित्त करते हुए अपने दोषों का निवेदन करता है वह आलोचना सम्बन्धी इस अनुमानित दोष का भागी होता है।
__व्यवहारसूत्र भाष्य की मलयगिरि विरचित टीका में कहा गया है कि छोटे से अपराध के निवे. दन आदि के द्वारा प्राचार्य अल्प दण्ड देने वाले हैं या गुरुतर, इसका अनुमान करके जो मालोचना की जाती है। इसका नाम अनुमानित दोष है ।
अनृत-तत्त्वार्थसूत्र में सामान्य से असत् बोलने को अनृत (असत्य) कहा गया है । इसको स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि असत् का अर्थ अप्रशस्त और अप्रशस्त का अर्थ है प्राणिपीड़ाकर । इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो वचन प्राणी को पीड़ा पहुंचाने वाला है वह चाहे विद्यमान अर्थ का प्ररूपक हो और चाहे अविद्यमान अर्थ का, किन्तु उसे असत्य ही कहा जा
तत्त्वार्थभाष्य में असत् का अर्थ सद्भावप्रतिषेध, अर्थान्तर और गर्दा किया गया है। इनमें सदभावप्रतिषेध के स्वरूप को प्रगट करते हुए भूतनिह्नव-विद्यमान अर्थ के अपलाप और अभूतो भावन-अतत्स्वरूपता-को सद्भावप्रतिषेध कहा गया है। इनके लिये उदाहरण देते हुए क्रमशः उसे इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है-जैसे प्रात्मा नहीं है व परलोक नहीं है, इत्यादि वचन विद्यमान अर्थ के अपलापक होने से असत् (असत्य) माने जाते हैं । यह प्रात्मा समा (एक प्रकार का छोटा घम्य) के चावल बराबर है, अंगूठे के पर्व प्रमाण है, आदित्यवर्ण (भास्वररूप) है या निष्क्रिय है, इत्यादि वचन प्रभूतो
द्भावक होने से-अयथार्थ स्वरूप के प्ररूपक होने के कारण-असत्य माने जाते हैं। गाय को घोड़ा भोर घोड़े को गाय कहना, यह अर्थान्तररूप असत् वचन है। सत्य होते हुए भी यदि कोई वचन हिंसा, कठोरता अथवा पिशुनतायुक्त है तो वह गह रूप (कुत्सित-शास्त्रनिषिद्ध) होने से प्रसत् माना जाता है।
तत्वार्थवार्तिक (७, १४, ५) में यह शंका उठाई गई है कि 'प्रसदभिधानमनतम्' के स्थान में 'मिथ्याऽनृतम्' ऐसा सूत्र होना चाहिए था, क्योंकि इसमें सूत्रोचित भाषण था। इसके पमाधान में वहां
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जैन-लक्षणावली
यह कहा गया है कि ऐसा करने से केवल विपरीत अर्थ मात्र का बोध हो सकता था-हिंसादियूक्त वचन का बोध उससे नहीं हो सकता था। कारण यह कि 'मिथ्या' शब्द की प्रवृत्ति विपरीत अर्थ में ही देखी है । अत एव वैसा सूत्र करने पर भूतनिह्नव और अभूतोद्भावनविषयक वचन ही असत्य ठहरता, न कि हिंसादि का कारणभूत वचन । आगे भूतनिह्नव और अभूतोद्भावन के लिए जो 'प्रात्मा नहीं है' इत्यादि उदाहरण दिये गये हैं वे भाष्य जैसे ही हैं । क ऐसी ही आशंका सिद्धसेन गणी ने भी उक्त सत्र की टीका में उठाई है और उसके समाधान का अभिप्राय भी लगभग वैसा हो रहा है।
प्राचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय (६१-६६) में जो असत्य वचन का विवेचन किया गया है वह भाष्यकार के अभिप्राय से बहुत कुछ मिलता-जुलता है (देखिये 'असत्य' शब्द)।
अन्य विवाहकरण-यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में सामान्य से दूसरे के विवाह के करने को उक्त अतिचार कहा गया है।
तत्त्वार्थभाष्य में इन पांच अतिचारों के नाम मात्र का निर्देश किया गया है।
हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी अपनी-अपनी टीका में उसे स्पष्ट करते हुए पर या अन्य शब्द से अपनी सन्तान को छोड़कर अन्य की सन्तान को ग्रहण करते हैं। तदनुसार अपनी सन्तान का विवाह करना तो अतिचार नहीं है, किन्तु कन्याफल की इच्छा से अथवा स्नेहवश किसी दूसरे की सन्तान का विवाह करने पर उक्त अतिचार अनिवार्य है। इनके पश्चाद्वर्ती प्रायः सभी ग्रन्थकारों ने-जैसे हेमचन्द्र सूरि, मुनिचन्द्र और पं. आशाधर आदि ने- इसी अभिप्राय को व्यक्त किया है।
अपरिगहीतागमन-यह भी एक उक्त ब्रह्मचर्यव्रत का अतिचार है । इन अतिचारों के विषय में ग्रन्थकारों में कुछ मतभेद रहा है। तत्त्वार्थसत्र के जिस सत्र में इन अतिचारों का नामनिर्देश किया गया है उसमें भी सर्वार्थसिद्धि और भाष्य के अनुसार कुछ भिन्न पाठ है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वे पांच अतिचार ये हैं -परविवाहकरण, इत्वरिका-परिगृहीतागमन, इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा और कामतीव्राभिनिवेश । तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार वे ही अतिचार इस प्रकार हैं-परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा और कामतीव्राभिनिवेश । - पं. प्राशाधर ने सागारधर्मामृत (४-५८) में इन अतिचारों का निर्देश इस प्रकार किया हैइत्वरिकागमन, परविवाहकरण, विटत्व, स्मरतीवाभिनिवेश और अनंगक्रीडा। उन्होंने तत्त्वार्यसूत्र में निर्दिष्ट इत्वरिका-परिगृहीतागमन और इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन इन दो का अन्तर्भाव एक 'इत्वरिकागमन' में करके विटत्व नाम के एक अन्य भी अतिचार को सम्मिलित कर लिया है। ... हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी श्रावक को लक्ष्य करके प्रब्रह्म की निवृत्ति दो प्रकार से बतलाते हैं- स्वदारसन्तोष से अथवा परपरिगृहीत स्त्री के सेवन के परित्याग से । तदनुसार स्वदारसन्तोषी अपनी पत्नी को छोड़कर शेष सभी स्त्रियों के सेवन से दूर रहता है। किन्तु दूसरा जो परपरिगृहीत स्त्री के सेवन का त्याग करता है वह अपनी पत्नी के सेवन का तो त्यागी होता ही नहीं है, साथ ही जो वेश्या
आदि दूसरों के द्वारा परिगृहीत नहीं है उनके उपभोग से भी वह निवृत्त नहीं होता है। विशेष इतना है कि यदि उक्त अपरिगृहीत वेश्या आदि ने किसी अन्य का कुछ काल के लिए भाड़ा ले लिया है तो तब तक वह परपरिगृहीत स्त्री के त्यागी को भी अनुपभोग्य होती है।
योगशास्त्र के कर्ता प्राचार्य हेमचन्द्र और सागारधर्मामृत के कर्ता पं. पाशाधर का भी लगभग यही अभिप्राय रहा है । प्रा. हेमचन्द्र ने इत्वराता (इत्वर-परिगृहीता) गमन और अनात्तागमन इन दो अतिचारों का निर्देश केवल स्वदारसन्तोषी के लिए किया है। शेष तीन अतिचार दोनों के लिए कहे गये हैं। १. इमो चातिचारी स्वदारसन्तोषिण एव, न तु परदारवर्जकस्य; इत्वरात्ताया वेश्यात्वेन अनात्तायास्त्व. नाथतयैवापरदारत्वात् । शेषास्त्वतिचारा द्वयोरपि । योगशा. स्वो. विव.
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प्रस्तावना
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प्रकृत अपरिगृहीतागमन प्रतिचार के विषय में सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक श्रादि के कर्ताओं ने अपरिगृहीता शब्द से सामान्यतः पर पुरुष से सम्बन्ध रखनेवाली वेश्या या स्वामी से रहित अन्य दुराचारिणी स्त्री को ग्रहण किया है । परन्तु हरिभद्र सूरि आदि ने उसमें एक विशेषण और जोड़कर जिसने किसी दूसरे में प्रासक्त होकर उसका भाड़ा ले लिया है ऐसी वेश्या अथवा श्रनाथ - स्वामिविहीन - कुलांगना को ग्रहण किया है। इसका यह अभिप्राय हुआ कि यदि कोई ब्रह्मचर्याणुव्रती किसी वेश्या अथवा स्वामिरहित अन्य किसी स्त्री के साथ समागम करता है तो सर्वार्थसिद्धि आदि के मत से यह उसके व्रत को दूषित करनेवाला प्रतिचार होगा । किन्तु हरिभद्र सूरि प्रादि के मत से वह अतिचार नहीं होगा, वह अतिचार उनके मत से तभी होगा जब कि उसने किसी दूसरे का भाड़ा ले लिया हो ।
प्रतिपाती (अवधि) तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपाती और अप्रतिपाती के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो देशावधि विद्युत्प्रकाश के समान विनष्ट होनेवाला है उसे प्रतिपाती और इसके विपरीत को जो विद्युत्प्रकाश के समान नष्ट होनेवाला न हो - प्रप्रतिपाती कहा जाता है ।
धवला में इसे कुछ और विशद करते हुए कहा गया है कि जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर नष्ट होता है, उसके पूर्व में नष्ट नहीं होता; उसका नाम श्रप्रतिपाती है ।
देवेन्द्रसूरि द्वारा विरचित कर्मविपाक की स्वोपज्ञ वृत्ति में उसका स्वरूप कुछ भिन्न इस प्रकार कहा गया है - जो प्रतिपतित न होकर अलोक के एक प्रदेश को भी जानता है वह श्रप्रतिपाती कहलाता है । लोकप्रकाश में भी उसका यही लक्षण कहा गया है ।
श्राचार्य मलयगिरि ने उसके लक्षण का निर्देश करते हुए प्रज्ञापना की वृत्ति में कहा है कि जो केवलज्ञान अथवा मरण के पूर्व नष्ट नहीं होता उसे श्रप्रतिपाती कहा जाता है ।
अव्यक्त दोष- यह दस आलोचनादोषों में नौवाँ है | भगवती श्राराधना ( ५६८- ६०० ) में इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो ज्ञानबाल और चारित्रबाल के पास श्रालोचना करता हुआ यह समझता है कि मैंने सबकी आलोचना कर ली है उसकी यह प्रालोचना अव्यक्त नामक नौवें श्रालोचनादोष से दूषित होती है । कारण यह है कि वैसी आलोचना परिणाम में हानिप्रद है । जिस प्रकार कोई अज्ञानी सुवर्ण जैसे दिखनेवाले किसी पदार्थ को यथार्थ सुवर्ण समझकर ग्रहण करता है, पर उसका उपयोग अभीष्ट वस्तु के ग्रहण में नहीं होता है, तथा दुष्ट के साथ की गई मित्रता जि प्रकार परिणाम में अहितकर होती है, उसी प्रकार अल्पज्ञ के समक्ष कारण न होकर अनर्थकारक ही होती I
की जानेवाली श्रालोचना शुद्धि का
अनुमानित दोष के प्रसंग में यह पूर्व में कहा जा चुका है कि तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्त श्लोक - वार्तिक में इन दोषों के नामों का निर्देश नहीं किया गया, उनके लिए केवल सख्या शब्दों - प्रथम व द्वितीय आदि शब्दों का ही निर्देश किया गया है । प्रकृत (अव्यक्त) दोष वहां नौवां विवक्षित रहा है या दसवां, यह निश्चय नहीं किया जा सका। वहां नौवें और दसवें दोषों के लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं— ६ किसी प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर जो साधु अपने ही समान है उसके पास प्रमाद से किये गये अपने प्रसदाचरण का निवेदन करके यदि गुरुतर भी प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है तो भी वह निष्फल होता है, यह नौवां आलोचना दोष है । १० इसके अपराध से मेरा अपराध समान है, उसे यही जानता है; श्रत: इसे जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिये भी शीघ्रता से कर लेना चाहिये, ऐसा विचार करते हुए प्रायश्चित्त लेना; यह दसवां दोष है ।
चारित्रसार में अनेक विषयों का विवेचन केवल तत्त्वार्थवार्तिक के प्राधार से ही नहीं, बल्कि कहीं कहीं तो उसी के शब्दों व वाक्यों में किया गया है । प्रकृत अव्यक्त दोष का लक्षण यहां तत्त्वार्थवार्तिककार के शब्दों में ही व्यक्त किया गया है । यहाँ इतना विशेष है कि 'नवम' शब्द के साथ उसका अव्यक्त नाम
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भी निर्दिष्ट किया गया है' (पृ. ६१-६२) ।
लक्षणकारों की दृष्टि में 'अव्यक्त' शब्द के ये दो अर्थ रहे प्रतीत होते हैं-प्रगट न करना मौर गीतार्थ - आगम में अनिष्णात' । यदि तत्त्वार्थवार्तिककार की दृष्टि में अव्यक्त का अर्थ अप्रगट रहा है तब तो उनके द्वारा निर्दिष्ट दसवां दोष ही अव्यक्त हो सकता है। वहां उसके लक्षण में स्पष्टतया 'स्वदुश्चरितसंवरणम् - अपने दुराचरण को प्रगट न करना या छिपाना' यह निर्दिष्ट किया गया है । आचारसार में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है जो गुरु अपने समान हो ज्ञान भौर तप में बाल (हीन) है उसके समक्ष लज्जा, भय अथवा प्रायश्चित्तादि के भय के कारण प्रालोचना करना - बहुश्रुत आचार्य के पास नहीं करना, यह अव्यक्त नाम का आलोचनादोष है । यह लक्षण पूर्वोक्त भगवती श्राराधनागत लक्षण के समान है ।
जैन - लक्षणावली
मूलाचार की टीका में उक्त लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो प्रायश्चित्त ग्रादि के विषय में निपुण नहीं है उसे अव्यक्त कहा जाता है । उसके पास जो अल्प प्रायश्चित्त प्रादि के निमित्त से अपने दोष को कहता है वह इस अव्यक्त दोष का पात्र होता है ।
व्यवहारसूत्र भाष्य की मलयगिरि विरचित टीका में उसका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया - अव्यक्त नाम अगीतार्थ का है, ऐसे प्रगीतार्थ गुरु के आगे जो अपराध की आलोचना की जाती है, इसे अव्यक्त नामक नौवां मालोचनादोष जानना चाहिए ।
भट्टारक श्रुतसागर ने भावप्राभृत की टीका में स्पष्टतापूर्वक दोष के न कहने को अव्यक्त दोष कहा 1
अस्थिर नामकर्म - सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ भाष्य में स्थिरता के निवर्तक कर्म को स्थिर र इससे विपरीत को अस्थिर नामकर्म कहा गया है । सर्वार्थसिद्धिगत इस लक्षण के स्पष्टीकरण में तत्त्वार्थवार्तिककार कहते हैं कि जिसके उदय से दुष्कर उपवासादि तप के करने पर भी अंग- उपांगों की स्थिरता रहती है उसे स्थिर नामकर्म कहते तथा जिसके उदय से थोड़े भी उपवासादि के करने से अथवा थोड़ीसी शीत या उष्णता आदि के सम्बन्ध से अंग- उपांग कृशता को प्राप्त होते हैं उसे अस्थिर नामकर्म कहते हैं । तत्त्वार्थभाष्यगत उक्त लक्षण को विशद करते हुए हरिभद्र सूरि औौर सिद्धसेन गणी कहते हैं कि जिसके उदय से शिर, हड्डी और दांत आदि शरीरावयवों में स्थिरता होती है वह स्थिर और जिसके उदय से कान और त्वक् श्रादि शरीरावयवों में अस्थिरता, चलता व मृदुता होती है वह अस्थिर नामकर्म कहलाता है ।
धवलाकार कहते हैं कि जिसके उदय से रस- रुधिरादि धातुनों की स्थिरता, अविनाश व प्रगलन होता है उसे स्थिर नामकर्म तथा जिसके उदय से उक्त रस- रुधिरादि धातुनों का उपरिम धातु के रूप में परिणाम होता है उसे अस्थिर नामकर्म कहा जाता है ।
अन्य ग्रन्थों में से भगवती आराधना की टीका में अपराजित सूरि ने सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थभाष्य का, मूलाचार की वृत्ति में वसुनन्दी ने घवलाकार का, भाष्करनन्दी ने त. सुखबोघा वृत्ति में तत्त्वार्थवार्तिककार का तथा शेष ( चन्द्रर्षि महत्तर, गोविन्द गणी और अभयदेव सूरि आदि) ने हरिभन सूरि का अनुसरण किया है।
१. प्रस्तुत लक्षणावली में 'अव्यक्त दोष' के अन्तर्गत तत्त्वार्थवार्तिकगत जिस दसवें दोष के लक्षण का उल्लेख किया गया है उसके स्थान में इस नौवें दोष का लक्षण ग्रहण करना चाहिए— यत्किञ्चिद प्रयोजनमुद्दिश्यात्मना समानायैव प्रमादाचरितमावेद्य महदपि गृहीतं प्रायश्चित्तं न फलकरमिति नवमः । यही अभिप्राय तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के विषय में भी जानना चाहिये ।
२. देखिये भावप्राभृत की टीकागत उक्त लक्षण । भावप्राभूत के टीकाकार भट्टारक श्रुतसागर ने तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति में प्रव्यक्त का अर्थ अप्रबुद्ध निर्दिष्ट किया है ।
३. देखिये प्राचारसारगत धौर मूलाचार की टीकागत उक्त लक्षण ।
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प्रस्तावना
प्राकम्पित-यह दस आलोचनादाषों में प्रथम है। भगवती पाराधना में इसका लक्षण इस प्रकार कहा गया है-भोजन-पान, उपकरण और क्रियाकर्म (कृतिकर्म) इनके द्वारा गणी (प्राचार्य) को दयार्द्र करके जो आलोचना की जाती है, उसमें चूंकि यह उद्देश रहता है कि इस प्रकार प्राचार्य मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे व पालोचना भी सब हो जावेगी, अत एव इसे प्राकम्पित नाम का प्रथम पालोचनादोष समझना चाहिए।
तत्त्वार्थवातिक आदि में भी उसका लक्षण लगभग इसी प्रकार का कहा गया है। विशेषता इतनी है कि भगवती पाराधना में जहाँ अनुकम्पा के हेतुभत भक्त-पान, उपकरण और क्रियाकर्म का निर्देश किया गया है। वहाँ इन ग्रन्थों में केवल उपकरणदान का ही निर्देश किया गया है, भक्त-पानादि का नहीं। मुलाचार की वसुनन्दी विरचित टीका में अवश्य भक्त-पान और उपकरणादि का निर्देश किया गया है।
भावप्राभूत की टीका में भट्टारक श्रुतसागर ने सम्भवतः उक्त लक्षण की सार्थकता दिखलाने के अभिप्राय से यह कहा है कि आलोचना करते हुए शरीर में चूंकि कम्प उत्पन्न होता है, भय करता है; इसी से इसे आकम्पित कहा जाता है। उन्होंने तत्त्वार्थवत्ति में उसके लक्षण का निर्देश तत्त्वार्थवार्तिक के ही समान किया है।
प्रानुपूर्वी या प्रानुपूर्व्य नामकर्म-इसके लक्षण का निर्देश करते हुए तत्त्वार्थभाष्य में कहा गया है कि विवक्षित गति में उत्पन्न होने वाला जीव जब अन्तर्गति (विग्रहगति) में वर्तमान होता है तब उसे अनुक्रम से जो उस (विवक्षित) गतिके अभिमुख-उसके प्राप्त कराने में समर्थ होता है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं।
इसी भाष्य में मतान्तर को प्रगट करते हुए पुनः कहा गया है कि दूसरे प्राचार्य यह कहते हैं कि जो निर्माण नामकर्म से निर्मित अंग मोर उपांगों के रचनाक्रम का नियामक है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहा जाता है।
__सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक आदि के अनुसार जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार विनष्ट नहीं होता है वह आनुपूर्वी नामकर्म कहलाता है।
उत्कृष्ट प्रावक-ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक श्रावक को उत्कृष्ट कहा गया है। प्राचार्य मन्तभद्र उसके लक्षण को प्रगट करते हुए रत्नकरण्डक में कहते हैं कि जो घर से-उसे छोड़करमुनियों के आश्रम में चला जाता है और वहाँ गुरु के समीप में व्रतों को ग्रहण करता हा भिक्षा से प्राप्त भोजन करता है, तप का आचरण करता है, तथा वस्त्रखण्ड को-लंगोटी मात्र को-धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। यहाँ उस उत्कृष्ट श्रावक के कोई भेद निर्दिष्ट नहीं किए गए।
पर वसुन न्दिश्रावकाचार और सागारधर्मामृत में उसके दो भेद निर्दिष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रथम उत्कृष्ट श्रावक वह है जो एक वस्त्र को धारण करता है, कैची अथवा उस्तरे से बालों को निकलवाता है, बैठने आदि के समय में उपकरण (कोमल वस्त्रादि) के द्वारा प्रतिलेखन करता है----- झाड़ता है, बैठकर हाथ में अथवा बर्तन में एक बार भोजन करता है, पर्व दिनों में नियम से उपवास करता है, भिक्षा के लिए जाते हुए पात्र को धोता है व किसी गृहस्थ के घर जाकर आँगन में स्थित होता हुमा 'धर्मलाभ' के उच्चारणपूर्वक याचना करता है, वहाँ भिक्षाभोजन प्राप्त हो अथबा न भी हो, यहां से शीघ्र निकल कर दूसरे घर पर जाता है व मौनपूर्वक शरीर को दिखलाता है, यदि मार्ग में कोई • भोजन के लिए प्रार्थना करता है तो प्रथमतः प्राप्त हुए भोजन को खाकर फिर शेष भोजन वहाँ करता.. है। यदि कोई बीच में नहीं रोकता है तो उदरपूर्ति के योग्य भिक्षा के लिए भ्रमण करता है पश्चात किसी एक गृह पर प्रासुक पानी को मांग कर भोजन को सोधता हुमा खाता है और फिर पात्र को बोकर गुरु के समीप जाता है। यदि यह विधि किसी को नहीं रुचती है तो वह एकभिक्षा के नियम
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जैन-लक्षणावली
पूर्वक मुनि के आहार के बाद भोजनार्थ जाता है, यदि अन्तराय आदि होता है तो फिर गुरु के समीप चार प्रकार के उपवास को ग्रहण करता है और सबकी आलोचना करता है।
दूसरा उत्कृष्ट श्रावक उक्त प्रथम के ही समान है। विशेष इतना है कि वह बालों का नियम से लोच करता है, 'पिच्छी को धारण करता है, लंगोटी मात्र रखता है, और हाथ में ही भोजन करता है। पं. प्रशाधर के अभिमतानुसार इसका नाम प्रार्य है (प्रथम की कोई संज्ञा निर्दिष्ट नहीं की गई)। प्रा. वसुनन्दी ने अन्त में यह सूचना की है कि उक्त दोनों प्रकार के उत्कृष्ट श्रावक का कथन सूत्र के अनुसार किया गया है।
उपभोग-भोग और उपभोग ये दोनों शब्द अनेक ग्रन्थों में व्यवहृत हए हैं। पर उनके लक्षण में एकरूपता नहीं रही । तत्त्वार्थसूत्र में इन दोनों शब्दों का उपयोग २-३ वार हुआ है। किन्तु सूत्रात्मक ग्रन्थ होने से उनके लक्षणों का निर्देश वहां नहीं किया गया है।
रत्नकरण्डक में इनके पृथक्-पृथक् लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसे एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है वह भोग और जिसे एक बार भोग कर फिर से भोगा जा सकता है वह उपभोग कहलाता है । जैसे क्रमश: भोजन प्रादि और वस्त्र प्रादि।
___ सर्वार्थसिद्धि (२-४) में नौ प्रकार के क्षायिक भाव की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि समस्त भोगान्तराय के क्षय से जो अतिशययुक्त अनन्त क्षायिक भोग प्रादुर्भूत होता है उससे कुसुमवृष्टि प्रादि उत्पन्न होती हैं तथा सम्पूर्ण उपभोगान्तगय के क्षय से जो अनन्त क्षायिक उपभोग होता है उससे सिंहासन, चामर एवं तीन छत्र प्रादि विभूतियां प्रादुर्भूत होती हैं। इसका फलितार्थ यह प्रतीत होता है कि जो कुसुमादि एक बार भोगने में प्राते हैं उन्हें भोग ओर जो छत्र-चामरादि अनेक बार भोगे जाते हैं उन्हें उपभोग समझना चाहिए ।
प्रागे (२-५४) यहाँ कार्मण शरीर की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि अन्तिम (कार्मण शरीर) उपभोग से रहित है। यहाँ उपभोग का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा गया है कि इन्द्रियों के द्वारा जो शब्दादिक की उपलब्धि होती है उसे उपभोग जानना चाहिए । यहाँ सम्भवतः एक व अनेक बार इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध होने वाले सभी पदार्थों को उपभोग शब्द से ग्रहण किया गया है।
यहीं पर दिग्ब्रतादि सात शीलों के निर्देशक सूत्र (७-२१) की व्याख्या में उपभोग-परिभोगपरिणामव्रत का विवेचन करते हुए भोजन प्रादि-जो एक ही बार भोगे जाते हैं-उन्हें उपभोग और वस्त्राभूषणादि-जो बार-बार भोगे जाते हैं-उन्हें परिभोग कहा गया है।
तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धिकार के ही मभिप्राय को पुष्ट किया गया है। विशेष इतना है कि यहाँ (७,२१,६-१०) उपभोग का निरुत्यर्थ करते हुए कहा गया है कि 'उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः' अर्थात् जिन प्रशन-पानादि वस्तुओं को प्रात्मसात् करके भोगा जाता है उन्हें उपभोग कहा जाता है तया 'परित्यज्य भुज्यत इति परिभोगः' अर्थात् जिन वस्त्राभूषणादि को एक बार भोग कर व छोड़कर फिर से भोगा जाता है उन्हें परिभोग कहा जाता है।
तत्त्वार्थवार्तिककार के द्वारा निर्दिष्ट इस निरुक्तार्थका अनुसरण हरिवंशपुराण, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और चारित्रसार में भी किया गया है।
इस प्रकार उक्त दोनों ग्रन्थों में प्रथमतः (२-४) जो उपभोग का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है. उसमे अन्त में (७ २१) निर्दिष्ट किया गया. उसका लक्षण भिन्न है। १. ज्ञान-दशन-दान-लाभ-मागापभागवायाण च (+-४), निरूपभोगमन्त्यम् (२-४४, श्वे. २-४५),
दिग्देशानर्थदण्डविरति ........... (७-२१, श्वे. ७-१६)। २. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशन-वसनप्रतिपांचेन्द्रियो विषयः ॥१३॥
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प्रस्तावना
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तत्त्वार्थभाष्य में उपभोग - परिभोगव्रत के प्रसंग में यह कहा गया है कि प्रशन-पान, खाद्य, स्वाद्य, गन्ध और माला आदि तथा वस्त्र, अलंकार, शयन, श्रासन, गृह, यान और वाहन भादि जो बहुत पापजनक पदार्थ हैं; उनका परित्याग करना तथा अल्प पापजनक पदार्थों का परिमाण करना, इसका नाम उपभोग- परिभोगव्रत है। यहां यद्यपि उपभोग और परिभोग के लक्षणों का स्पष्ट निर्देश नहीं किया गया है, फिर भी जिस क्रम से उक्त व्रत का लक्षण कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि जो एक बार भोगने में आता है उसे उपभोग और जो अनेक बार भोगने में प्राता है उसे परिभोग कहा नाता है ।
तत्त्वार्थ सूत्र की हरिभद्र सूरि विरचित भाष्यानुसारिणी टीका ( २-४ ) में कहा गया है कि उचित भोग के साधनों की प्राप्ति में जो निर्विघ्नता का कारण है उसे क्षायिक भोग और उचित उपभोग के साधनों की प्राप्ति में जो निर्विघ्नता का कारण है उसे क्षायिक उपभोग कहा जाता है । यहीं पर आगे उन दोनों में भेद प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि जो एक बार भोगा जाता है वह भोग और जो बार-बार भोगा जाता है वह उपभोग कहलाता है । जैसे क्रमशः भक्ष्य-पेय आदि और वस्त्र पात्र श्रादि ।
आगे (६-२६) यहाँ उक्त भोग और उपभोग के लक्षणों में कहा नया है कि मनोहर शब्दादि विषयों के अनुभवन को भोग और अन्न, पान व वस्त्रादि के सेवन को उपभोग कहते हैं ।
उपभोग - परिभोगपरिमाणव्रत के प्रसंग में यहाँ ( ७-१६ ) इतना मात्र कहा गया है कि उपभोग व परिभोग शब्दों का व्याख्यान किया जा चुका है। तदनुसार एक ही बार भोगे जाने वाले पुष्पाहारादि को उपभोग और बार-बार भोगे जाने वाले वस्त्रादि को परिभोग जानना चाहिए ।
तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेन गणि विरचित टीका ( २-४ ) में कहा गया है कि उत्तम विषयसुख के अनुभव को भोग कहते हैं, श्रथवा एक बार उपयोग में आने के कारण भक्ष्य, पेय और लेह्य श्रादि पदार्थों को भोग समझना चाहिए । विषय-सम्पदा के होने पर तथा उत्तरगुणों के प्रकर्ष से जो उनका अनुभवन होता है, इसका नाम उपभोग है; श्रथवा बार-बार उपभोग के कारण होने से वस्त्र व पात्र आदि करे उपभोग कहा जाता है ।
आगे (६-२६) हरिभद्र सूरि के समान सिद्धसेन गणि ने भी उन्हीं के शब्दों में मनोहर शब्द आदि विषयों के अनुभवन को भोग तथा अन्न, पान व वस्त्र आदि के सेवन को उपभोग कहा है । अनर्थदण्डविरति के प्रसंग में (७-१६) सिद्धसेनगणि उन दोनों का निरुक्तार्थ करते हुए कहते हैं कि 'उपभुज्यत इत्युपभोगः ' इसमें 'उप' का अर्थ 'एक बार' है, तदनुसार जो पुष्पमाला आदि एक ही बार भोगी जाती है, उन्हें उपभोग कहा जाता हैं । अथवा 'उप' शब्द का अर्थ 'अम्यन्तर' है तदनुसार अन्तर्भोगरूप आहार आदि को उपभोग कहा जाता है । 'परिभुज्यत इति परिभोग :' इस निरुक्ति में 'परि' शब्द का अर्थ 'बार बार' है । तदनुसार जिन्हें बार-बार भोगा जाता है ऐसे वस्त्र, गन्ध - माला और अलंकार आदि को परिभोग जानना चाहिए ।
सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के समान हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणि के द्वारा भी जो पूर्व में (२-४) उपभोग का लक्षण कहा गया है उससे पीछे (७-१६) निर्दिष्ट किया गया उसी का लक्षण भिन्न है ।
पीछे के अधिकांश ग्रन्थकारों ने बार-बार भोगे जाने वाले पदार्थों को ही उपभोग माना 1 श्रुतसागर सूरि ने 'उपभोग- परिभोगपरिमाणम्' के स्थान में 'भोगोपभोगपरिमाणम्' पाठान्तर ' की है, पर वह कहाँ उपलब्ध होता है, इसका कुछ निर्देश नहीं किया ।
की सूचना
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प्राकृत शब्दों की विकृति व उनका संस्कृत रूपान्तर
अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के द्वारा जो तत्त्वोपदेश दिया गया वह अर्थमागधी प्राकृत में दिया गया था । गौतमादि गणधरों के द्वारा वह आचारांगादि श्रुत के रूप में उसी भाषा में ग्रथित किया गया । तत्पश्चात् वही मौखिक रूप में श्रुतकेवलियों आदि की परम्परा से अंगश्रुत के एकदेश के धारक आचार्यों तक प्रवाहित रहा । तदनन्तर भयानक दुर्भिक्ष के कारण जब साधु जन संयम के संरक्षणार्थ विभिन्न स्थानों को चले गये तब पारस्परिक तत्त्वचर्चा के प्रभाव में जो कुछ शेष रहा था वह भी लुप्तप्राय हो गया । इस प्रकार से उसे सर्वथा लुप्त होते हुए देख कर विचारशील महर्षियों ने यथासम्भव स्मृति के आधार पर पुस्तकरूप में ग्रथित किया । वही वर्तमान में हमें प्राप्त । इस प्रकार श्रागमभाषा मूलत: प्राकृत ही रही है, पर महर्षियों के विभिन्न प्रान्तों में रहने के कारण तथा उच्चारणभेद व लिपिदोष के कारण भी वह भाषा उसी रूप में अवस्थित नहीं रह सकी व कुछ विकृत हो गई । यही कारण है जो आज एक ही शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं । इसके अतिरिक्त समय की स्थिति को देखते हुए जब उमास्वाति आदि महर्षियों को संस्कृत में ग्रन्थरचना की आवश्यकता प्रतीत हुई तब उन्होंने संस्कृत में भी ग्रन्थरचना प्रारम्भ कर दी । इसके लिए प्राकृत शब्दों का संस्कृत रूपान्तर करने में भी कुछ शब्द भेद हुग्रा है ।
उदाहरणस्वरूप षट्खण्डागम की घवला टीका में परिहार प्रायश्चित्त के दो भेदों का निर्देश करते हुए उसका प्रथम भेद 'अणवटु' बतलाया है । हस्तलिखित प्रतियों में इसके ये रूप और भी पाये जाते हैं- 'अणुवटुवनो', 'अणुवट्टवओो' और 'अणुवट्टो' । इसका संस्कृत रूपान्तर तत्त्वार्थवार्तिक और प्रचारसार में 'अनुपस्थापन' तथा चारित्रसार और अनगारधर्मामृत टीका में 'अनुपस्थान' पाया जाता है । वही मूलरूप में बृहत्कल्पसूत्र में 'अणवटुप्प - श्रनवस्थाप्य' पाया जाता है ।
दूसरा उदाहरण त्रिलोकसार की गाथा ५८५ है । इसमें हिमवान् पर्वत पर स्थित वृषभाकार नाली का वर्णन करते हुए उसके मुख, कान, जिह्वा और दृष्टि को तो सिंह के आकार तथा भ्रू और शीर्ष आदि को बैल के आकार का बतलाता गया है। इस प्रकार से उसमें अविकल वृषभाकारता नहीं रही । बस्तुस्थिति यह रही है कि ग्रन्थकर्ता के सामने इसका वर्णन करने वाली जो पूर्व गाथा रही है उसमें 'सिंग' शब्द रहा है। वह विकृत होकर ग्रन्थकार को 'सिंघ' के रूप में उपलब्ध हुआ और उन्होंने प्रकृत गाथा में उसके पर्यायवाची 'केसरी' शब्द का प्रयोग कर दिया। 'सिंग' शब्द के रहने से उसका सीधासादा' अर्थ यह हो जाता है कि उसके सींग आदि सब चूंकि बैल के समान हैं, अतएव वह वृषभाकार प्रसिद्ध हुई है ।
इसी प्रकार साधु के प्राहारविषयक १६ उद्गमदोषों में एक अभिहृत नाम का दोष है । मूल प्राकृत शब्द 'अभिघड' रहा है । उसका संस्कृत रूप भगवती आराधना की विजयोदया टीका ( २३० ) 'ह', मूलाराधनादर्पण में 'अभिहड', मूलाचार वृत्ति में 'अभिघट' और प्रचारसार ( ८-२० व
१. देखिये पीछे पृ. ७६-७८ पर 'अनुपस्थापन' शब्द की समीक्षा |
२.
देखिये तिलोय पण्णत्ती भा. २, प्रस्तावना पू. ६७.
३. मूलाचार ६-४, १६ व २१, पिण्डनिर्युक्ति ९३ व ३२६.
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प्रस्तावना
5- ३२) में 'अभिहत' पाया जाता है। वही पिण्डनियुक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति ( ६३ व ३२९ ) में क्रम से 'प्रभिहृत' और 'अभ्याहृत', चारित्रसार (पृ. ३३) में मूलाचार के अनुसार 'अभिघड' तथा अनगारधर्मामृत ( ५-६ व १६) में 'अभिहृत' उपलब्ध होता है ।
प्रकृत में यहाँ ये तीन उदाहरण दिए गए हैं । इसी प्रकार अनेक प्राकृत शब्दों में विकार व उनके विविध संस्कृत रूपान्तर हुए । उनमें से कुछ इस प्रकार हैं
प्राकृत भोवज्झ, अज्भोवरय
अघापवत्त, श्रहापवत्त
अवाय
अबाधा, प्रबाहा, आबाघा
उज्जीकरण, प्रावज्जिदकरण, श्रावज्जीकरण
श्रचिण्ण प्रणाचिण्ण
धाकम्म, ग्रहेकम्म, श्रायाहम्म, अत्तकम्म श्रासीविस
उद्दावण, श्रावण
उवसण्णासण्ण, श्रोसण्णासण्ण, उस्स ण्हसहिया
सणासणिया
वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज दिल्ली
८७
संस्कृत रूपान्तर अध्यधि, अध्यवधि, अध्यवपूरक अथाप्रवृत्त, अधःप्रवृत्त, यथाप्रवृत्त अपाय, अवाय
अबाधा, आबाधा आयोजिकाकरण, प्रावर्जितकरण
प्राचिन्न श्रनाचिन्न श्राचीर्ण-अनाचीर्ण,
श्रादृत-श्रनादृत
आधाकर्म, अधः कर्म, आत्मघ्नकर्म, प्रात्मकर्म श्राशीविष, आशीरविष, आशीविष, आस्यविष अपद्रावण, उपद्रवण
अवसंज्ञासंज्ञा, अवसन्नासन्निका उत्संज्ञासंज्ञा,
उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका
बालचन्द्र शास्त्री
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पृष्ठ
कालम
पंक्ति
शुद्धि-पत्र
प्रशुद्ध नवस्मकर्म १०० अक्षम्रक्षरणवृत्ति
नवरमकर्म
प्रक्षम्रक्षण
३५
२५ ६५१
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4
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विषयं अडडंगसहस्साई
MUsm १०००
४५५ १-३० विचयं अडडंगसयसहस्साई १-३६
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२-८ प्रवुत्त आरंभ अध्यदि प्रज्झोवज्ज धय. अनवक्ष्याएकवर्णनिदशवै. नि. १-४८ ६. प्रा. मूल. -मात्मा, आदित्यवर्णः
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प्रवृत्त परिदावण-प्रारंभ अध्यधि प्रज्झोवज्भ धव. प्रनवेक्ष्याएकवर्णानि. xxx भ. प्रा. मूला. -मात्मा, अङ्गुष्ठपर्वमात्री
ऽयमात्मा, श्रादित्यवर्णः गोरश्वस्तसम्बन्धः । (प्रमाल..
३८६)। ३ मान. स्वो. स्थानांग अभय. बृ. सू. कपिल व नामान्तर प्रानुपूर्वी प्रज्ञाप. देखो आयोजिकाकरण
गोरश्वस्य. सम्बन्धः । ३
६२
و
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११२
स्वो .
११४
१३२
स्थानांग सू. कपिलव गामान्तर
१६६ १६६
मानपूर्वो
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प्रज्ञाव. देखी प्रायुक्तकरण
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३४५, पृ.
४
द्वेग
२६२ २७३ ३०२
वाहनाशन श्रावण
उद्वेग वाहनाश [स]न श्रवण
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जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोष)
अकथा (अकहा) १. मिच्छत्तं वेयंतो जं अण्णाणी (कर्मप्र. चू. उप.क.गा. १) । ५. इह द्विविधा उपशाकहं परिकहेइ। लिंगत्थो व गिही वा सा अकहा देसिया मना करणकृताऽकरणकृता च। तत्र करणं क्रिया यथासमए ।। (दशवं. अ. ३, नि. २०६)। २. मिथ्या- प्रवृत्ताऽपूर्वाऽनिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषः, तेन दृष्टिना अज्ञानिना लिंगस्थेन वा गृहिणा कथ्यमाना कृता करणकृता । तद्विपरीताऽकरणकृता । या संसाकथा अकथा। (अभिधान० भा० १,१० १२४)। रिणां जीवानां गिरनदीपाषाणवृत्ततादिसंभववद्यथाप्रज्ञानी मिथ्यादृष्टि चाहे लिंगी (द्रव्य प्रवजित प्रवृत्तादिकरणक्रियाविशेषमन्तरेणाऽपि वेदनानुभव साधु) हो या गृहस्थ, उसके द्वारा कही जाने वाली नादिभिः कारणरुपशमनोपपजायते साऽकरणकृतेत्यर्थः । कथा प्रकथा है।
इदं च करणकृताऽकरणकृतत्वरूपं द्वैविध्यं देशोपशामअकन्दी-अकन्दी कन्दर्पोद्दीपनभाषितादिवि- नाया एव द्रष्टव्यम्, न सर्वोपशामनायाः; तस्याः कलः । (व्य. सू. मलय. व. १)।
करणेभ्य एव भावात् । (कर्मप्र. उपश. मलय. वृ. गा. कामोद्दीपक वचन नहीं बोलने वाले पुरुष को १, पृ. २५४) । अकन्दी कहते हैं।
४. जिस प्रकार पर्वत पर बहने वाली नदी में प्रकरणोपशामना (प्रकरणुवसामरणा)-१. जा अवस्थित पाषाण आदि में बिना किसी प्रकार के सा प्रकरणुवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि-प्रक- प्रयोग के स्वयमेव गोलाई प्रादि उत्पन्न हो जाती है रणुवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि, एसा । उसी प्रकार संसारी जीवों के अधःप्रवृत्तकरण प्रादि कम्मपवादे । (कसायपा. चू. पृ. ७०७; धव. पु. १५, परिणामस्वरूप क्रियाविशेष के बिना ही केवल पृ. २७५)। २. कम्मपवादो णाम अट्ठमो पुव्वाहि- वेदना के अनुभव प्रादि कारणों से कर्मों का जो यारो, जत्थ सव्वेसि कम्माणं मूलुत्तरपयडिभेय- उपशमन-उदय परिणाम के बिना अवस्थानभिण्णाणं दव्व-खेत्त-काल-भावे समस्सियूण बिवाग- होता है उसे प्रकरणोपशमना कहते हैं । परिणामो अविवागपज्जायो च बहवित्थरो अणुवण्णि
अकर्मबन्ध-१. मिच्छत्ताऽसंजम-कसाय-जोगपच्चदो । तत्थ एसा प्रकरणोवसामणा दव्वा, तत्थेदिस्से
एहिं अकम्मसरू वेण ट्रिदकम्मइयक्खंधाणं जीवपदेपबंधेण परूवणोवलंभादो । (जयध.-कसायपा.
साणं च जो अण्णोण्णेण समागमो सो अकम्मबंधो पृ. ७०७ का टि. १); ३. एद-(करणोवसामणा.)
णाम । (जयध. १, पृ. १८७)। २. अकम्मबंधो व्वदिरित्तलक्खण-प्रकरणोवसामणा णाम । पसत्था
णाम कम्मइयवग्गणादो अकम्मसरूवेणावट्ठिदपदेऽपसत्थकरणपरिणामेहिं विणा प्रपत्तकालाणं कम्मपदेसाणमूदयपरिणामेण विणा अवट्ठाणं करणोव
साणं गहणं । (जयध० पत्र ४५८)। सामणा त्ति वुत्तं होइ । (जयध. पत्र ८५६)। ४. करणं प्रकर्मरूप से स्थित कार्माण स्कन्धों का और क्रिया, ताए विणा जा उवसामणा प्रकरणोवसामणा जीवप्रदेशों का मिथ्यात्व प्रादि चार बन्धकारणों के गिरिनदीपाषाणवसंसारत्थस्स जीवस्स वेदनादिभिः द्वारा जो परस्पर प्रवेश होता है, इसका नाम अकर्मकारणरुपशान्तता भवति, सा अकरणोवसामणा। बन्ध है।
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प्रकर्मभूमि २, जैन-लक्षणावली
[अकस्माक्रिया प्रकर्मभूमि-१. जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स मगीतार्थोपनीतोपधि - शय्याऽऽहाराशुपभोगश्च । दाहिणेण ततो अकम्मभूमीग्रो प.तं.-हेमवते हरि- (व्यव. सू. भा. मलय. व. १)। वासे देवकुरा। जंबूद्दीवे२ मंदरस्स पव्वयस्स उत्त- ४ अवस्थान्तर को अप्राप्त (सचित्त) पृथिवीरेण तो अकम्मभमीग्रो प.तं.-उत्तरकरा रम्मग- कायिकादि का ग्रहण और अगीतार्थ-पूर्ण शास्त्रवासे एरण्णवए। (स्थानांग ३, ४,१६७, पृ. १५०)। ज्ञानसे रहित-दाता के द्वारा लाये गए उपधि, २. नवरमकर्मभूमिः भोगभूमिरित्यर्थः । (स्थाना. शय्या व प्राहार आदि का उपभोग भी साधु के लिए अभय. वृ. ३, १, १३१, पृ. १००)। ३. हेमवयं प्रकल्प्य-अग्राह्य होता है। हरिवास देवकुरू तह य उत्तरकुरू वि । रम्मय एरन्न- अकषाय (अकसाई)-१. सकलकषायाभावोवयं इय छब्भूमीउ पंचगुणा ।। एया अकम्मभूमीउ ऽकपाय: । उक्तं च-अप्प-परोभयबाहण-बंधासंजमतीस सया जुपलधम्मजणठाणं । दसविहकप्पमह- णिमित्तकोधादी। जेसि णत्थि कसाया अमला
दुमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ। (प्रव. सारो. १६४, अकसाइणो जीवा ॥ (प्रा. पंचसं. १-११६धव. ५४-५५)। ४. कृष्णादिकर्मरहिता: कल्पपादप- पु. १, पृ. ३५१ उ.); २. न विद्यते कषायोऽस्येत्यफलोपभोगप्रधाना भूमयोऽकर्मभूमयः। (अभि. रा. कषायः । (त. वा. ६, ४, ३)। भा. १, पृ. १२१)।
१ जिस जीव के समस्त कषायों का प्रभाव हो ४ प्रसि-मषि प्रादि कर्मों से रहित भमि (भोग- चुका है वह अकषाय या प्रकषायी कहा जाता है। भूमि) प्रकर्मभूमि कही जाती है।
अकषायत्व (अकषायत्त)-चरित्तमोहिणीयस्स
उवसमेण खएण च उप्पण्णा लद्धी, तीए प्रकप्रकर्मभूमिक (अकम्मभूमिय)-१. अकम्मभू
सायत्तं होदि; ण सेसकम्माणं खएणुवसमेण वा । मियरस वा ति उत्ते देव-णेरइया घेत्तव्वा । (धव. (धव. प. ७, प. ८३)। पु. ११, पृ. ८९) २. अकर्मभूमिकानां भोगभूमि
चारित्रमोहनीय के उपशम अथवा क्षय से जो जन्मनां मनुष्याणांxxXI (समवा. अभय. वृत्ति
लब्धि-सामर्थ्य विशेष-होता है उससे जीव के १०, पृ. १८)
अकषायत्व-विगतकषायता होती है, शेष किसी प्रकर्मभूमिक पद से देव और नारकी ग्रहण किये
भी कर्म के क्षय अथवा उपशम से वह अकषायत्व जाते हैं।
नहीं होता। प्रकर्मोदय (अकम्मोदय)-प्रोकट्टणवसेण पत्तोदय- अकषायवेदनीय-देखो नोकषायवेदनीय । कषायकम्मक्खंधो प्रकम्मोदनो णाम । (जयध. पु. १, पृ. प्रतिषेधप्रसंग इति चेत् न, ईषदर्थत्वान्नञः । १०८)।
यथा अलोमिका एलका इति । नास्या: कच्छपअपकर्षण के वश उदय को प्राप्त हुए कर्मस्कन्ध वल्लोमाभावः, किन्तु छेदयोग्यलोमाभावेऽपि ईषत्प्रका नाम प्रकर्मोदय है।
तिषेधादलोमिकेत्युच्यते, तथा नेमे कषाया अकषाया प्रकल्प्य (प्रकप्प)-१. जं अविहीए सेवइ। हास्यादय इति । (त. वा. ८, ६, ३)।। (जीतक. चू. गा. १); २. अकप्पो नाम पुढवाइ- जिस चारित्रमोहनीय कर्म का ईषत् (अल्प) कायाणं अपरिणयाणं गहणं करेइ । अहवा उदउल्ल. कषाय स्वरूप से वेदन होता है उसकी प्रकषायससणिद्ध-सस रक्खाइएहि हत्थमत्तेहिं गिण्हइ। जं वेदनीय संज्ञा है। वा अगीयत्थेणं आहारोवहि उप्पाइयं तं परिभुजं. अकस्माक्रिया-अन्यस्मै निःसष्टे शरादावन्यतस्य प्रकप्पो । पञ्चकादिप्रायश्चित्तशद्धियोग्यम- घातोऽकस्माक्रिया। (धर्मसं. स्वो. टीका ३-२७, पवादसेवन विधि त्यक्त्वा गूरुतरदोषसेवनं वा अकप्पो। पृ. ८२)। (जीतक. च. वि. व्या. गाथा १, पृ. ३४-२); ३. दूसरे किसी को लक्ष्य करके बाण प्रादि के तत्र पिण्ड-उपाश्रय-वस्त्र-पात्ररूपं चतुष्टयं यदनेषणीयं छोड़ने पर जो उससे उसका घात न होकर अन्य तदकल्प्यम् । (जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ३३, २- (अलक्ष्यभूत) ही किसी व्यक्ति का घात हो जाता 35)। ४. प्रकल्प्योऽपरिणतपृथिवीकायिकादिग्रहण-' है, इसका नाम अकस्मात्क्रिया है।
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अकस्माद्भय] ३, जैन-लक्षणावली
[अकारण दोष अकस्माद्य-देखो प्राकस्मिक भय । १. एक चोच्यते । (अन.ध.टी. २-४३)।८. स्वेच्छामन्तरेण ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्ध किलेतत् स्वतो यावत्ता- कर्मनिर्जरणमकामनिर्जरा। (त. सुखबो. वृ. ६-२०) वदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । तन्नाकस्मि- ६. यः पुमान् चारकनिरोधबन्धनबद्धःxxx कमत्र किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशंक: पराधीनपराक्रम: सन् बुभुक्षानिरोध तृष्णादुःखं सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ (समय. ब्रह्मचर्यकृच्छ्र भूशयनकष्टं मलधारणं परितापादिकं कलश १५४) । २. अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं च सहनानः सहनेच्छारहित: सन् यत् ईषत् कर्म गहादिष्वेव स्थितस्य राध्यादौ भयमकस्माद्भयम्। निर्जरयति साकामनिर्जरा इत्युच्यते । (तत्त्वा.प. (ललितवि. मुनि. पंजिका पृ. ३८)। ३. बाह्य- श्रुत. ६-२०)। निमित्तनिरपेक्षं भयं अकस्माद्भयम् । (कल्पसू. वृ. १ कारागार (जेल) में रोके जाने पर अथवा १-१५)। ४. अकस्मात् सहसैव विश्रब्धस्यातव्वनि- अन्य प्रकार से बन्धनबद्ध (परतन्त्र) होने पर जो श्रवणाद्भयमकस्माद्भयम् । (अभि. रा. भा. १, पृ. भूख-प्यास को रोकना, ब्रह्मचर्य का धारण करना, १२३)।
पृथिवी पर सोना, शरीर में मल को धारण करना ३ बाहिरी निमित के बिना सहसा होने वाले भय और सन्ताप आदि को सहा जाता है। इसका नाम को अकस्माद्भय कहते हैं।
अकाम है। इस प्रकारके अकाम से-अनिच्छाअकामनिर्जरा -- १. अकामश्चारकनिरोधबन्धन- पूर्वक उपर्युक्त दुख के सहने से-जो कर्मनिर्जरा बद्धेषु क्षुत्तृष्णानिरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण- हुआ करती है उसका नाम प्रकामनिर्जरा है । परितापादिः, अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा । (स. अकाममरण-अकामेन अनीप्सितत्वेन म्रियतेसि. ६-२०)। २. अकामनिर्जरा पराधीनतयाऽनु- ऽस्मिन इति अकाममरणं बालमरणम । (अभि. रा. रोधाच्चाकुशलनिवृत्तिराहारादिनिरोधश्च । (तत्त्वा. भा.प. १२५। भा. ६-२०)। ३. विषयानर्थनिवृत्ति चात्माभिप्रा
नहीं चाहते हुए भी जो मरण पा जाता है वह येणाकूर्वतः पारतन्त्र्याद् भोगोपभोगनिरोधोऽकाम- प्रकाममरण नामका एक बालमरण का भेद है। निर्जरा । (त. वा. ६, १२, ७)। ४. निर्जरा कर्म
प्रकायिक तेण परमकाइया चेदि ॥४६॥ तेनपुद्गलशाटः, न काम: अपेक्षापूर्वकारिता यत्रा
द्विविधकायात्मकजीवराशेः, परं बादर-सूक्ष्मशरीरनुष्ठाने साऽकामनिर्जरा, अबुद्धिपूर्वेत्यर्थः । सा परा
निबन्धनकर्मातीतत्वतोऽशरीराः सिद्धाः प्रकायिकाः । धीनतया चारकादिवासेन धावनाद्यकरणतः प्राणातिपाताद्यक रणेन तथा अनुरोधत्वाद्दाक्षिण्यादित्यर्थः ।
(षट्खं.-धवला. पु. १, पृ. २७७)। (त. भा. हरि. व. ६-२०) । ५. विषयानर्थ- जो जीव बादर एवं सूक्ष्म शरीर के कारणभूत निवृत्तिमात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्यादपभोगादि- कर्म से छुटकारा पा जाने के कारण सदा के लिए निरोधः अकामनिर्जरा; अकामस्य अनिच्छतो निर्ज- काय (शरीर) से रहित हो चुके हैं वे प्रकायिकरणं पापपरिशाटः, पुण्यपुद्गलोपचयश्च परवशस्य निकल परमात्मा-कहे जाते हैं। चामरणमकामनिर्जरायुषः परिक्षय । (तत्त्वा. भा. अकारण दोष (ग्रासैषणा दोष)-१. अकारणं सिद्ध. वृ. ६-१३); काम इच्छा प्रेक्षापूर्वकारिता, वेदनादिषट्कारणरहितम् । (गु. गु. षट्. स्वो. व. तदर्थोपयोगभाजो या निर्जरा सा कामनिर्जरा, निर्जरा २६, पृ. ५८)। २. यदा तप:स्वाध्याय-वैयावृत्त्यादिकर्मपुद्गलपरिहाणिः, न कामनिर्जरा अकामनिर्जरा कारणषटकं विना बल-वीर्याद्यर्थं सरसाहारं करोति
-अनभिलषतोऽचिन्तयत एव कर्मदगलपरिशाट:। तदा पंचमोऽकारणदोषः। (अभि. रा. भा. १, (तत्त्वा. भा. सिद्ध. वृ. ६-२०)। ६. अकामनिर्जरा पृ. १२५) । यथाप्रवृत्तकरणेन गिरिसरिदुपलधोलनाकल्पेनाका- २ तप, स्वाध्याय व वैयावृत्ति प्रादि छह कारणों मस्य निरभिलाषस्य या निर्जरा कर्मप्रदेशविघटनरूपा। के बिना ही बल-वीर्यादि की वृद्धि के लिये सरस (योगशा. स्वो. विव.४-१०७)। ७. अकामा काल- (पुष्टिकर) आहार करना, यह पांच ग्रासैषणादोषों पक्वकर्मनिर्जरलक्षणा, सैव विपाकजाऽनौपक्रमिकी में पांचवाँ अकारण नामका दोष है।
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अकालमृत्यु ४, जैन-लक्षणावली
[अकृतयोगी अकालमृत्यु-अकाल एव जीवितभ्रंशोऽकालमृत्युः। ४ सिद्ध अथवा प्रत्यक्षादि से बाधित साध्य की (अभि. रा. भा. १, पृ. १२५)।
सिद्धि के लिए प्रयुक्त हेतु अकिंचित्कर-कुछ भी असमय में-बद्ध आयुःस्थिति के पूर्व में ही- नहीं करने वाला होता है। जीवित का नाश होना अकालमृत्यु है। अकुशल-अकुशलं दुःखहेतुकम् । (प्राप्तमी. व. अकालुष्य- तेषामेव ( क्रोध-मान-माया-लोभा
का.८)। नामेव) मन्दोदये तस्य (चित्तस्य) प्रसादोऽकालुष्यम्। दुःख देने वाले पापकर्म को अकुशल कहते हैं। तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो- अकुशलभाव-अकुशलो ( भावो ) ऽविरत्यादिऽपि भवति । कषायोदयानुवृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोप- रूपः। (व्यव. सू. भा. मलय. व. १-३६, पृ. १६)। योगस्यावान्तरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भव- असंयम (प्रविरति ) आदि रूप परिणामों को तीति । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३८)।
अकुशलभाव कहते हैं। क्रोधादि कषायों का मन्द उदय होने पर जो अकुशलमनोनिरोध - अकुशलस्यातध्यानाद्युपगचित्त की निर्मलता होती है उसका नाम प्रका- तस्य मनसो निरोधोऽकुशल मनोनिरोधः। (व्यव.
सू. भा. मलय. वृ. १, गा. ७७, पृ. ३०)। अकिंचनता-१. अकिंचनता सकलग्रन्थत्यागः । वार्तध्यान प्रादि से युक्त मन के निग्रह करने को (भ. प्रा. विजयो. टी. गा. १४६)। २. अकिंच- अकुशलमनोनिरोध कहते हैं। णदा-नास्य किंचनास्त्यकिंचनः, अकिंचनस्य भाव अकृतप्राग्भार-शून्यं गृहं गिरेगुहा वृक्षमूलम् आकिंचन्यमकिंचनता उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्का- आगन्तुकानां वेश्म देवकुलं शिक्षागृहं केनचिदकृतम् रापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिः । (मूला. वृ. अकृतप्राग्भारं कथ्यते । (कात्तिके. टी. ४४६)। ११-५)। ३. अकिंचणया णाम सदेहे निसंगता, शून्य गृह, पर्वत की गुफा, वृक्षमूल, प्रागन्तुकों णिम्ममत्तणं त्ति वृत्तं भवइ। (दशवै. च. पृ. १८); का घर, देवकुल और शिक्षालय; जो किसी के द्वारा ४. नास्य किंचन द्रव्यमस्तीत्यकिंचनस्तस्य भावो- रचे नहीं गये हैं, प्रकृत्प्राग्भार कहे जाते हैं। ऽकिंचनता । शरीर-धर्मोपकरणादिष्वपि निर्ममत्वम- अकृतयोगी ( अकडजोगी)-१. अकडजोगी किंचनत्वम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। जोगं अकाऊण सेवइ। (जीतक. चू. पृ. ३, पं. २०)। २ गृहीत शरीर आदि में-पुस्तक व पिच्छी आदि २. ग्लानादौ कार्ये गृहेषु वारत्रयं पर्यटनमकृत्वा सेवते, धर्मोपकरणों में भी संस्कार (सजावट) को दूर यद्वा संथाराइसु तिन्नि वारा एसणीयं अन्निसिउं जया करने की इच्छा से ममत्वबुद्धि न रहना, इसका तइयवाराए वि न लब्भइ तया चउत्थपरिवाडीए नाम अकिंचनता है।
अणेसणीयं घेतव्वं । एवं तिगुणं व्यापारमकृत्वैव जा अकिचित्कर (हेत्वाभास)---१. सिद्धेऽकिंचित्करो [जो]बियवाराए चेव अणेसणीयं गिण्हइ सो अकड. हेतुः स्वयं साध्यव्यपेक्षया ।(प्रमाणसं.४४, पृ. ११०); जोगी। (जीतक. चू. विष. व्या. पृ. ३४-८)। २. तदज्ञाने पुनरज्ञातोऽकिंचित्करः । (सिद्धिवि. वृ. ३. अकृतयोगी अगीतार्थः। त्रीन् वारान् कल्प्यमेष६-३२, पृ. ४३०)। ३. तस्य हेतुलक्षणस्य पक्षेऽन्यत्र णीयं चापरिभाब्य प्रथमवेलायामपि यतस्ततोऽल्पावाऽज्ञाने पुनरज्ञातोऽकिचित्करः । (सिद्धिवि. टी. [कल्प्या-] नेषणीयमपि ग्राही। (व्यव. सू. भा. ६-३२, पृ. ४३०)। ४. सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च मलय. वृ. १०, पृ. ६३४)।। साध्ये हेतुरकिंचित्करः ॥ सिद्धः श्रावणः शब्दः, २ ग्लान अदि कार्य में तीन बार गृहों में घूमने शब्दत्वात् ।। किंचिदकरणात्, यथाऽनुष्णोऽग्निद्रव्य- पर भी यदि कल्प्य और एषणीय नहीं प्राप्त होता त्वादित्यादौ किचित्कर्त मशक्यत्वात् ।। (परीक्षा. ६, है तो चौथी बार प्रकल्प्य मौर अनेषणीय के भी लेने ३५-३८) । ५. यथा-प्रतीते प्रत्यक्षादिनिराकृते च का विधान है। इस प्रागमविघि के प्रतिकूल पहिली साध्ये हेतुरकिंचित्करः। (रत्नाव. ६, प. ११४) । या दूसरी बार में ही जो अकल्प्य और अनेष ६. अप्रयोजको हेतुरकिंचित्करः । (न्यायदी. ३, वस्तुओं को ले लेता है ऐसे साधु को प्रकृतयोगी पृ.१०२)।
कहते हैं।
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प्रकृतसमुद्घात ]
प्रकृतसमुद्घात ( अकदसमुग्धाद) - १. जेसि उसमाई णामा-गोदाई वेदणीयं च । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि । ( भ. प्रा. २११० ) ; धव. पु. १, पृ. ३०४ पर उद्धृत) । २. आयुषा सदृशं यस्य जायते कर्मणां त्रयम् । स निरस्तसमुद्घातः शैलेश्यं प्रतिपद्यते । (भ. श्री. अमित पद्यानुवाद २१८३ ) । ३. षण्मासायुषि शेषे स्यादुत्पन्नं यस्य केवलम् । समुद्घातमसौ याति केवली नाऽपरः पुनः । (पंचसं श्रमित. १- ३२७ )। ४. छम्मासाउगसेसे उप्पणं जस्स केवलं होज्ज । सो कुणइ समुग्धायं इयरो पुण होइ भयणिज्जो ॥ (वसु. श्री. ५३० ) ।
I
में
१ जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म स्थिति श्रायु कर्म के समान होते हैं वे चूंकि केवलिसमुद्घात को नहीं किया करते हैं, श्रतएव वे प्रकृतसमुद्धात जिन कहे जाते हैं । अक्रमानेकान्त - ज्ञान- सुखाद्यनेकाक्रमिकधर्मापेक्षया श्रक्रमानेकान्तः । (न्यायकु. २- ७, पृ. ३७२) । श्रनेकान्त दो प्रकारका है - क्रमानेकान्त श्रौर श्रक्रमानेकान्त । एक ही व्यक्ति में जो युगपत् ज्ञानसुखादि अनेक प्रक्रमिक धर्मों का अस्तित्व पाया जाता
यह मानेकान्त है । [श्रमुक्तत्व - मुक्तत्वादि क्रमिक धर्मों को जो युगपत् सम्भावना है वह क्रमाकान्त की पेक्षा से घटित होती है । ] प्रक्रियावादी- १ न हि कस्यचिदनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति तद्भावे चावस्थितेरभावादित्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः । तथा चाहुरेके— क्षणिका : सर्वसंस्काराः प्रस्थितानां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते । एते चात्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः । ( नन्दी. हरि. बृ. ८८, पृ. ७८ ) । २. आत्म-नास्तित्वादिप्रत्ययापत्तिलक्षणा भवन्त्य क्रियावादिनः । (तस्वा. भा. सिद्ध. बृ. ७ -१८ ) । ३ तथा नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवंवादिनो ऽक्रियावादिनः । (सूत्रकृ.वृ. अक्षताचार-तत्र स्थापितादिपरिहारी
५, जैन - लक्षणावली
१२- ११८ ) । ४. तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते ऽक्रियावादिन: । ( सूत्रकृ. वृ. १२ - ४ ) । ५. न कस्यचित् प्रतिक्षणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति, उत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं ये वदन्ति ते प्रक्रियावादिनः । ( नन्दी. मलय. वृ. ८८, पू. २१५ ) । ६. न हि कस्यचिदवस्थितस्य पदार्थस्य
[क्षपकानुपशामक
क्रिया समस्ति, क्रियोत्पत्त्याधारत्वेनाभिमत एव काले पदार्थावस्थितेरभावादित्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः । (नयोपदेश टी. १२८, पृ. ५) ।
१ जो अवस्थानके प्रभाव का प्रसंग प्राप्त होने की संभावना से श्रवस्थान से रहित किसी भी प्रनवस्थित पदार्थ की क्रिया को स्वीकार नहीं करते वे क्रियावादी कहे जाते हैं ।
अक्ष (अक्ख) - प्रक्खे त्ति वुत्ते जूवक्खो सयडक्खो वा घेत्तव्वो । ( धव. पु. ६, पृ. २५० ) ; जूट्ठवणे जय-पराजयणिमित्तकवड्डुओ खुल्लो पासो वाक्खो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. १०); अक्खो णाम पासो । ( धव. पु. १४, पृ. ६) । जुना आदि के खेल में जय-पराजय की निमित्तभूत कौड़ी और पांसे को प्रक्ष कहते हैं। गाड़ी के पहिये की धुरी को भी अक्ष कहते हैं ।
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अक्ष (मापविशेष ) – दंडे धणुं जुगं नालिया य अक्ख मुसलं च चउहत्था । ( ज्योतिष्क. २- ७६)। चार हाथ प्रमाण मापविशेष ( धनुष) को प्रक्ष कहते हैं ।
अक्ष (आत्मा) - १. प्रक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । ( स. सि. १- १२; त. वा. १, १२, २; त. सुखबो. वृ. १-१२, त. वृ. श्रुत. १, १२; न्यायदी. पृ. ३९ ) । २. प्रश्नाति भुङ्क्ते यथायोग्यं सर्वानर्थानिति अक्षः । यदि वा प्रश्नुते ज्ञानेन व्याप्नोति सर्वान् ज्ञेयानिति प्रक्षः जीवः । ( बृहत्क. वृ. २५) । ३. 'अशूङ् व्याप्ती' अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वानर्थान् व्याप्नोतीत्यक्षः, यदि वां यश भोजने' प्रश्नाति सर्वानर्थान् यथायोग्यं भुङ्क्ते पालयति वेत्यक्षो जीवः । ( श्राव. सू. मलय. वृ. गा. १, पृ. १३) ।
'अक्ष्णोति' इत्यादि शब्दनिरुक्ति के अनुसार यथायोग्य सर्व पदार्थों के जानने वाले, भोगने वाले या पालने वाले जीव को प्रक्ष कहते हैं ।
अक्षता
चार: । ( व्यव. सू. भा. वृ. ३, १६४ ) | जो साधु श्रावश्यक में उद्युक्त होकर स्थापित आदि श्राधाकर्मी तथा प्रशन-पानादि का भी परित्याग करता है उसका नाम अक्षताचार - प्रभग्नचरित्र वाला है |
प्रक्षपकानुपशामक (श्रखवया व सामग ) - तत्थ
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अक्षम्रक्षणवृत्ति] ६, जैन-लक्षणावली
[अक्षरश्रुतज्ञान जे अक्खवयाणुवसामया ते दुविहा-अणादि-अपज्ज- अक्षर (अक्खर)-१. न क्खरति अणुवयोगे वि वसिदबंधा च अणादि-सपज्जवसिदबंधा चेदि। अक्खरं सो य चेतणाभावो । अविसुद्धणयाण मतं (धव. पु. ७, पृ. ५)।
शुद्धणयाणक्खरं चेव ।। (विशे. भा. ४५३) । जिन जीवों का कर्मबन्ध अनादि-अनन्त है वे २. खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं । (धव. पु. ६, (अभव्य) तथा जिनका कर्मबन्ध अनादि होकर पृ. २१); सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तस्स [जं] भी विनष्ट होने वाला है वे-मिथ्यादृष्टि आदि जहण्णयं णाणं तं लद्धि-अक्खरं णाम । कधं तस्स अप्रमत्तान्त गुणस्थानवर्ती भव्य-भी अक्षपकानुपशा- अक्खरसण्णा ? खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्ठामक-क्षपणा या उपशामना न करने वाले अनादि ___णादो। केलणाणमक्खरं, तत्थ वढि-हाणीणमभाबादर साम्परायिक कर्मबन्धक हैं।
वादो। दवदियणए सुहमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति अक्षम्रक्षणवृत्ति-१. यथा शकटं रत्नभारपरिपूर्ण वा अक्खरं । (धव. पु. १३, पृ. २६२)। ३. 'क्षर येन केनचित् स्नेहेन अक्षलेपं च कृत्वा अभिलषित- संचलने' क्षरतीति क्षरम्, तस्य नञा प्रतिषेधेऽक्षरम् ; देशान्तरं वणिगुपनयति, तथा मुनिरपि गुण-रत्न- अनुपयोगेऽपि न क्षरतीति भावार्थः; तस्य सततभरितां तनु शकटीमनवद्यभिक्षायुरक्षम्रक्षणेन अभि- मवस्थितत्वात् । स च कः इत्यतः आह—स च प्रेतसमाधिपत्तनं प्रापयतीत्यक्षम्रक्षणमिति च नाम अक्षरपरिणामः चेतनाभावः-चेतनासत्ता। केषां निरूढम् । (त. वा. ६, ६, १६ श्लो. वा. ६-६; नयानां मतेनेत्याह-अविशुद्धनयमतेन नैगम संग्रहचा. सा. पृ २५)। २. तथा अक्षस्य शकटीचक्रा- व्यवहाराभिप्रायेण, द्रव्याथिकमूलप्रकृतित्वात् । शुद्धधिष्ठानकाष्ठस्य म्रक्षणं स्नेहेन लेपनमक्षम्रक्षणम् । नयानां तु ऋजूसूत्रादीनां क्ष रमेवेति गाथार्थः । तदिवाऽशनमप्यक्षम्रक्षणमिति रूढम्, येन केनापि (विशे. भा. को. वृ. ४५३) । ४. अकारादिलब्ध्यस्नेहेनेव निरवद्याहारेणायुषोऽक्षस्येवाभ्यङ्ग प्रति- क्षराणामन्यतरत् अक्षरम् । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. विधाय गुण-रत्नभारपूरिततनुशकटया: समाधीष्ट- गा. ७)। देशप्रापणनिमित्तत्वात् । (अन. ध. टी. ६-४६)। २ अपने स्वरूप या स्वभाव को नहीं छोड़ने वाले १ जिस प्रकार कोई व्यापारी रत्नों के बोझ ऐसे हानि रहित सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव से परिपूर्ण गाड़ी का जिस किसी भी तेल के द्वारा के ज्ञान को और हानि-वृद्धि से रहित केवलज्ञान अक्षम्रक्षण करके- उसमें ओंगन देकर—उसे को भी अक्षर कहा जाता है। अभीष्ट स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार मुनि अक्षरगता (अक्खरगया)-अक्खरगया अणुवभी सम्यग्दर्शनादि गुणरूप रत्नों से भरी हुई शरीर- घादिदिय-सण्णिपंचिदिय-पज्जत्तभासा। (धव. पु. रूप गाड़ी को निर्दोष भिक्षा के द्वारा प्रायु के अक्ष- १३, पृ. २२१-२२)। म्रक्षण से-प्रायःस्थिति के साथ इन्द्रियों को भी अविनष्ट इन्द्रियवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त इस योग्य रखकर-अभीष्ट घ्यान रूप नगर में जीयोंकी भाषा अक्षरगता भाषा कहलाती है। पहुंचाता है। इसीलिये दृष्टान्त की समानता से अक्षरज्ञान-चरिमपज्जयसमासणाणट्ठाणे सव्वजीवउसका नाम 'अक्षम्रक्षण' प्रसिद्ध हुआ है।
रासिणा भागे हिदे लद्धं ताहि चेव पक्खित्ते अक्खरअक्षयराशि (अक्खयरासी)-अहवा वए सते णाणं उप्पज्जदि । (धव. पु. १३, पृ. २६४) । वि अक्खयो को वि रासी अस्थि, सव्वस्स सपडि- पर्यायसमास श्रतज्ञान के अन्तिम विकल्प में वक्खस्सेवुवलंभादो । (धव. पु. ४, पृ. ३३६)। समस्त जीवराशि का भाग देने पर जो ज्ञान उत्पन्न व्यय के होते हुए भी जिस राशि का कभी होता है वह अक्षरज्ञान कहलाता है। अन्त नहीं होता वह राशि अक्षय कही जाती है अक्षरश्रुतज्ञान (अक्खरसुदरगाणं)-देखो अक्षर---जैसे भव्य जीवराशि । इसका भी कारण यह ज्ञान । तं (पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमहै कि उष्णता एवं हानि आदि सब ही अपने प्रति- वियप्प) अणतेहि रूवेहिं गुणिदे अक्खरं णाम सुदपक्ष-अनुष्णता एवं वृद्धि आदि के साथ ही गाणं होदि। (धव. पु. ६, पृ. २२); एगादो अक्खउपलब्ध होते हैं।
रादो जहणेण [] उप्पज्जदि णाणं तं अवखर
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अक्षरसमास
७, जैन लक्षणावली
[प्रक्षीणमहानस
सुदणाणमिदि घेत्तव्वं । (धव. पु. १३, पृ. २६५)। पूर्वक होने वाला ज्ञान अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहपर्यायसमास श्रुतज्ञान के अन्तिम विकल्प को लाता है। अनन्त रूपों से गणित करने पर जो श्रतज्ञान उत्पन्न प्रक्षरावरणीय--अक्खरसुदणाणस्स जमावारयं होता है वह अक्षरश्रुतज्ञान कहलाता है।
कम्मं तमक्खरावरणीयं ।(धव. पु. १३, पृ. २७७)। अक्षरसमास ( अक्खरसमास ) - अक्खर- अक्षरश्रुतज्ञान का प्रावारक कर्म अक्षरावरणीय सुदणाणादो उवरिमाणं पदसूदणाणादो हेट्रिमाणं कर्म कहलाता है।। संखेज्जाणं सुदणाणवियप्पाणमक्ख रसमासो ति अक्षरोकृत शब्द--देखो अक्षरात्मक । अक्षरीसण्णा। (धव. पु. ६, पृ. २३); इमरस अवखरस्स कृतः शास्त्राभिव्यजकः संस्कृत-विपरीतभेदादार्यउवरि बिदिए अक्खरे बढिदे अक्षरसमासो णाम म्लेच्छब्यवहार हेतुः । (स. सि. ५-२४; त. वा. सुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरवढिकमेण अक्खर- ५, २४, ३; त. सुखबो. ५-२४)। समासं सुदणाणं वडढमाणं गच्छदि जाव संखेज्जवख- जो अक्षर रूप भाषात्मक शब्द शास्त्र का अभिराणि बढिदाणि त्ति। (धव. पु. १३, प. २६५)। व्यञ्जक होकर संस्कृत और संस्कृत भिन्न-प्राकृत अक्षरज्ञान के ऊपर द्वितीय अक्षर की वद्धि होने
प्रादि-भाषाओं के भेद से प्रार्य एवं म्लेच्छ जन के
प्रादि-भाषामा क भद स प्राय पर अक्षरसमास का प्रथम विकल्प होता है। व्यवहार का कारण होता है वह अक्षरीकृत भाषाइस प्रकार संख्यात अक्षरों की वृद्धि होने तक उक्त
लक्षण शब्द कहा जाता है। अक्षरसमास श्रुतज्ञान के द्वितीय-तृतीयादि विकल्प अक्षिप्र (अवग्रहभेद ) - सणिग्गहणमखिप्पाचलते रहते हैं।
वग्गहो। (धव. पु. ६, प. २०); अभिनवशरावअक्षरसमासावरणीय - पुणो एदस्सुवरिमस्स
गतोदकवत् शनैः परिच्छिन्दानः अक्षिप्रप्रत्ययः । अक्खररस जमावरणीयकम्म तमक्खरसमासावरणीयं
(धव. पु. ६, पृ. १५२; पु. १३, पृ. २३७) । णाम चउत्थमावरणं । (धव. पु. १३, पृ. २७७)।
नवीन सकोरे के ऊपर छिड़के हुए जल के समान अधरसमास ज्ञान को रोकने वाला कर्म अक्षर
पदार्थों का जो धीरे धीरे देर में ज्ञान होता है, समासावरणीय माना जाता है।
उसका नाम अक्षिप्र प्रत्यय है।
अक्षीरगमहानस-१. लाभंतरायकम्मक्खय-उवअक्षरसंयोग-संजोगो णाम कि दोण्णमक्ख
समसंजुदाए जीए फुडं । मुणिभुत्तसेसमण्णं धामत्थं राणेयत्तं, कि सह उच्चारणं, एयत्थीभावो वा ? ण
पियं जं कं पि ।। तद्दिवसे खज्जतं खंधावारेण चक्कतावxxx। तदो एगत्थीभावो संजोगो त्ति घेत्त
वट्टिस्स । झिज्झइ ण लवेण वि सा अक्खीणमहाव्वो। (धव. पु. १३, पृ. २५०)।
णसा रिद्धी ।। (ति. प. ४, १०८६-६०)। २. लाजितने अक्षर संयुक्त होकर किसी एक अर्थ को
भान्तरायस्य क्षयोपशमप्रकर्षप्राप्तेभ्यो यतिभ्यो यतो प्रगट करते हैं उनके संयोगका नाम अक्षरसंयोग है।
भिक्षा दीयते ततो भाजनाच्चक्रधरस्कन्धावारोऽपि अक्षरात्मक (शब्द)-देखो अक्षरीकृत । अक्ष
अक्षराकृत । अक्ष- यदि भुञ्जीत तद्दिवसे नान्नं क्षीयेत, तेऽक्षीणमहारात्मकः संस्कृत-प्राकृतादिरूपेणार्य-म्लेच्छभाषाहेतुः । नसाः । (त. वा. ३-३६, पृ. २०४; चा. सा. पृ. (पंचा. का. जय. वृ. ७६) ।
१०१)। ३. कूरो घियं तिम्मणं वा जस्स परिविजो शब्द संस्कृत और प्राकृत प्रादि के रूप से सिदण पच्छा चक्कवट्रिखंधावारे भुंजाविज्जमाणे आर्य व म्लेच्छ जनों की भाषा का कारण होता है वि ण णिट्रादि सो अक्खीणमहाणसो णाम । (धव. वह अक्षरात्मक कहलाता है ।
पु. ६, पू १०१-२)। ४. अक्षीणं महानसं रसवती अक्षरात्मक श्रुतज्ञान -वाच्य-वाचकसम्बन्ध- येषां यस्माद् भाण्डकादुद्धत्य भोजनं तेभ्यो दत्तं संकेतसङ्कलनपूर्वकं यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मक- तच्चक्रवतिकटकेऽपि भोजिते न क्षीयते । (प्रा. योगिश्रतज्ञानम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. त. प्र. टी. भक्ति टीका १७, प. २०४)। ५. महानसम् अन्न३१५)।
प.कस्थानम्, तदाश्रितत्वाद्वाऽन्नमपि महानसमुच्यते । वाच्य-वाचक सम्बन्ध के संकेत की योजना- ततश्चाक्षीणं पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं
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प्रक्षीणमहानसिक ]
स्वयमभुक्तं सत् तथाविधलब्धिविशेषादत्रुटितम्, तच्च तन्महानसं च भिक्षालब्धभोजन मक्षीण महानसम्; तदस्ति येषां ते तथा (अक्षीणमहानसाः) । (श्रपपा. अभय. वृ. १५, पृ. २८ ) । ६. प्रक्षीणं महानसं येषां ते अक्षीणमहानसाः, येषां भिक्षा नान्यैर्बहुभिरयुपभुज्यमाना निष्ठां याति, किन्तु तैरेव जिमितैः, ते क्षीणमहानसाः । (श्राव. मलय. वृ. नि. ७५, पृ. ८० ) । ७. यस्मिन्नमत्रे प्रक्षीणमहान सैर्मुनिभिभुक्तं तस्मिन्नमत्रे चक्रवर्तिपरिजन भोजनेऽपि तद्दिने अन्नं न क्षीयते ते मुनयः अक्षीणमहानसाः कथ्यन्ते । (त. वृ. श्रुति ३-३६) ।
लाभान्तराय कर्म के प्रकृष्ट क्षयोपशम युक्त जिस ऋद्धि के प्रभाव से उस ऋद्धि के धारक महर्षि के भोजन कर लेने पर भोजनशाला में शेष भोजन चक्रवर्ती के कटक ( समस्त सैन्य ) के द्वारा भी भोजन कर लेने पर क्षीण नहीं होता-उतना ही बना रहता है - वह प्रक्षीणमहानस ऋद्धि कही जाती है ।
क्षीरणमहानसिक - देखो क्षीणमहानस । १. अक्षीणमहानसियस्स भिक्खा न अन्नेण णिट्ठविज्जइ, तम्मिए जिमिए निट्ठाइ । (श्राव. चू. मलय. वृ. पू. ८० उ.) २. अक्खीणमहानसिया भिक्खं जेणाणियं मुणो ते । परिभुक्तं चिय खिज्जइ बहुएहिं वि ण उण अन्नेहि ॥ ( प्रव. सारो. टीका १५०४, पृ. ४२६ ) । क्षीणमहानसिक की भिक्षा - प्रक्षीणमहानस ऋद्धि के धारक महर्षि के द्वारा लायी गई भिक्षा - अन्य बहुतों के द्वारा भोजन कर लेने पर भी समाप्त नहीं होती, किन्तु उसी के भोजन करने पर ही समाप्त होती है। इस ऋद्धि के धारक साधु को प्रक्षीणमहानसिक कहा जाता है । श्रक्षीरगमहालय - - १. जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि णर- तिरिथा। मंति यसंखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी ॥ ( ति. प. ४-१०६१) । २. अक्षीणमहालयलब्धिप्राप्ता यतयो यत्र वसन्ति देव मनुष्य तैर्यग्योना यदि सर्वेऽपि तत्र निवसेयुः परस्परमबाधमानाः सुखमासते । (त. वा. ३-३६; पू. २०४; चा. सा. पू. १०१ ) । ३. अक्षीणमहालयद्धप्राप्ताश्च यत्र परिमितभूप्रदेशेऽवतिष्ठन्ते तत्रासंख्याता श्रपि देवास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च सपरिवारा: परस्परं बाधारहितास्तीर्थकरपर्षदीव सुखमासते ।
[ प्रक्षोहिणी
(योगशा. स्वो विवरण १ - ८ ) । ४. प्रक्षीणमहालयास्तु मुनयो यस्मिन् चतुः शयेऽपि मन्दिरे निवसन्ति तस्मिन् मन्दिरे सर्वे देवाः सर्वे मनुष्याः सर्वे तिर्यअचोऽपि यदि निवसन्ति तदा तेऽखिला अपि श्रन्योन्यं वाधारहितं सुखेन तिष्ठन्ति इति प्रक्षीणमहालयाः । (त. वृ. श्रु. ३ - ३६ ) ।
जिस ऋद्धि से संयुक्त मुनि के द्वारा अधिष्ठित चार हाथ मात्र भूमि में प्रगणित मनुष्य और तियंच सभी जीव- निर्बाध रूप से समा जाते हैं वह क्षीणमहालय ऋद्धि कही जाती है । अक्षीणावास - देखो अक्षीणमहालय । जम्हि चउहत्थावि गुहा अच्छिदे संते चक्कवट्टिखंधावारं पिसा गुहा अवगाहदि सो अक्खोणावासो णाम । ( धव. पु. ६, पृ. १०२ ) ।
जिस महर्षि के चार हाथ प्रमाण ही गुफा में अवस्थित रहने पर उस गुफा में चक्रवर्ती का समस्त स्कन्धावार ( छावनी) भी प्रवस्थित रह सकता है उसे प्रक्षीणावास - प्रक्षीणमहालय ऋद्धि का धारक - जानना चाहिए ।
८, जैन - लक्षणावली
अक्षेम - मारीदि- डमरादीणमभावो खेमं णाम; तव्विवदमक्खेमं । ( धव. पु. १३, पृ. ३३६ ) । मारि ( प्लेग ), ईति और डमर (राष्ट्र का भीतरी व बाहिरी उपद्रव) आदि के प्रभाव को क्षेम तथा उनके सद्भाव को प्रक्षेम कहा जाता है । प्रक्षौहिणी - १. भेश्रोऽथ पढम पन्ती सेणा सेणामुहं हवइ गुम्मं । ग्रह वाहिणी उपियणा चमू तहाअणिक्किणी अन्तो || एक्को हत्थी एक्को य रहवरो तिण्णि चेव वरतुरया । पञ्चेव य पाइक्का एसा पन्ति समुद्दिट्ठा || पंती तिउणा सेणा सेणा तिउणा मुहं हवइ एक्कं । सेणामुहाणि तिष्णि उ गुम्मं एत्तो समखायं ॥ गुम्माणि तिणि एक्का य वाहिणी सा वि तिगुणिया पियणा । पियणाउ तिष्णि य चमू तिणि चमूणिक्किणी भणिया ।। दस य प्रणिक्कि - णिनामाउ होइ अक्खोहिणी ग्रह क्खाया । संखा एक्क्क्स्स उ अङ्गस्स तो परिकहेमि । एयावीस सहस्सा सत्तरिसहियाणि अट्ठ य सयाणि । एसा रहाण संखा हत्थीण वि एत्तिया चेव । एक्कं च सयसहस्सं नव य सहस्सा सयाणि तिष्णेव | पन्नासा चैव तहा जोहाण वि एत्तिया संखा ॥ पञ्चुत्तरा य
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अक्षौहिणी] है, जैन-लक्षणावली
[अगाढ सट्ठी होइ सहस्साणि छ च्चिय सयाणि । दस चेव ७२६, पदाति ३६४५, घोड़ा २१८७-चमू होती वरतुरङ्गा संखा अक्खोहिणीए उ ॥ अट्ठारस य है। तीन चमू प्रमाण-रथ २१८७, हाथी २१८७, सहस्सा सत्त सया दोण्णि सयसहस्साई। एक्का य पदाति १०९३५, घोड़ा ६५६१-अनीकिनी कही इमा संखा सेणिय अक्खोहिणीए य । (पउमच. ५६, जाती है। और इस प्रकारको दस अनीकिनियों ३-११) । २. पत्तिः प्रथमभेदोऽत्र तथा सेना प्रकी- का नाम अक्षौहिणी है-रथ २१८७० + हाथी तिता । सेनामुखं ततो गुल्म-वाहिनी-पृतना-चमूः ॥ २१८७०+पदाति १०९३५०+घोड़ा ६५६१०अष्टमोऽनीकिनीसंज्ञस्तत्र भेदो बुधः स्मृतः । यथा २१८७००। ३ धवला के अनुसार उसे अक्षौभवन्त्यमी भेदास्तथेदानीं वदामि ते ॥ एको रथो हिणी का प्रमाण इतना है-हाथी ६०००+रथ गजश्चैकस्तथा पञ्च पदातयः । यस्तुरङ्गमाः ६०००००+ घोड़ा ९००००००० + पदाति सैषा पत्तिरित्यभिधीयते ॥ पत्तिस्त्रिगुणिता सेना ९००००००००० = ६०९०६०६००० एक अक्षौतिस्रः सेनामुखं च ताः । सेनामुखानि च त्रीणि हिणी। गुल्ममित्यनुकीय॑ते । वाहिनी त्रीणि गुल्मानि पृतना अगति-गदिकम्मोदयाभावा सिद्धिगदी अगदी। वाहिनीत्रयम्। चमूस्त्रिपृतना ज्ञेया चमूत्रयमनीकिनी॥ (धव. पु. ७, पृ. ६)। अनीकिन्यो दश प्रोक्ता प्राज्ञैरक्षौहिणीति सा। गति नामकर्म का अभाव हो जाने पर सिद्धि तत्राङ्गानां पृथक् संख्या चतुर्णां कथयामि ते ॥ को गति प्रगति कही जाती है। अभिप्राय यह है अक्षौहिण्यां प्रकीानि रथानां सूर्यवर्चसाम् । एक- कि गति-संसारपरिभ्रमण-का कारण गति विशतिसंख्यानि सहस्राणि विचक्षणः ॥ अष्टौ नामकर्म है। सिद्धोंके चुंकि उस गति नामकर्म शतानि सप्तत्या सहितान्यपराणि च । गजानां कथितं प्रभाव हो चुका है, अतः उनकी गति (अवस्था) ज्ञेयं संख्यानं रथसंख्यया ॥ एकलक्षं सहस्राणि नव अगति-गति से रहित-कही जाती है। पञ्चाशदन्वितम् । शतत्रयं च विज्ञेयमक्षौहिण्याः अगमिक श्रत--१. अण्णोण्णसगभिधाणठितं जं पदातयाः ।। पञ्चषष्टिसहस्राणि षट्शती च दशो- पढिज्जइ तं अगमितं, तं प्रायसो आयारादिका. त्तरा। अक्षौहिण्यामियं संख्या वाजिनां परिकीर्ति- लियसुतं । (नन्दी चू. पृ. ४७) । २. गाधाति ता॥ (पद्मच. ५६, ४-१३) । ३. नव नागसह- अगमियं खलु कालियसुतं दिट्ठिवाते वा। (विशेषा. स्राणि नागे नागे शतं रथाः । रथे रथे शतं तुरगाः ५४६) । ३. अगमिकं तु प्रायो गाथाद्यसमानग्रन्थतुरगे तुरगे शतं नराः॥ एदमेक्कक्खोहिणीए पमाणं। त्वात् कालिकश्रुतमाचारादि । (नन्दी. हरि. व.. (धव. पु. ६, पृ. ६१-६२) ।।
पृ. ८६)। ४. गमाः सदृशपाठविशेषाः, ते १ पउमचरिय और पद्म चरित्र के अनुसार निम्न विद्यन्ते यस्य तत्र वा भवं तद् गमिकम् । तत्प्रतिसंख्या यक्त रथ व हाथी प्रादि के समुदाय को पक्षस्त्वगमिकम् । (कर्मवि. पूर्वा. व्याख्या १४, पृ. अक्षौहिणी कहा जाता है-रथ १, हाथी १, पदाति ८)। ५. अर्थभेदे सदृशालापकं गमिकम्, इतरदगमि५ और घोड़ा ३; इनके समुदाय का नाम पत्ति कम। (कर्मवि. परमा. व्याख्या १४, पृ. ६)। है। इससे तिगुणी-रथ ३, हाथी ३, पदाति १५ ६. तथा गाथा-श्लोकादिप्रतिबद्धमगमिकम् । खलु और घोड़ा ६-सेना कही जाती है । तिगुणी सेना अलंकारार्थः । एतच्च प्रायः कालिकश्रुतम् । यत -रथ ६, हाथी ६, पदाति ४५, घोड़ा २७- आह दृष्टिवादे च । किंचिद्गाथाद्यसमानग्रन्थमिति सेनामुख कहलाती है। तीन सेनामुखों-रथ २७, गाथार्यः । (विशेषा. को. वृ. ५५२) । ७. अगमिकम् हाथी २७, पदाति १३५, घोड़ा ८१-का नाम असदृशाक्षरालापकम्, तत् प्राय: कालिकश्रुतगतम् । गुल्म है । तीन गुल्मों-रथ ८१, हाथी ८१, पदाति (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ६, पृ. १७)। ४०५, घोड़ा २४३ -प्रमाण वाहिनी होती है। ३ गाथा आदि से असमान ग्रन्थरूप कालिक श्रुत तीन वाहिनियों-रथ २४३, हाथी २४३, पदाति को अगमिक श्रुत कहते हैं-जैसे प्राचारादि १२१५, घोड़ा ७२६-के समुदाय को पृतना कहा प्रन्थ । जाता है। पृतना से तिगुणी-रथ ७२६, हाथी अगाढ (सम्यक्त्वदोष).-१. अगाढम् अदृढम् ।
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प्रगाढ] १०, जैन-लक्षणावली
[अगुरुलघु तद्यथा-स्वेन कारितेऽर्हत्प्रतिमादौ 'अयं देवो मम गृहीतो वा विस्मारितः । (बृहत्क. वृ. ७०३) । इति, अन्यस्य इति' भ्रान्त्याऽर्ह वश्रद्धानस्य स्व-पर- जिसने छेदश्रुत-प्रायश्चित्तशास्त्र-का अध्ययन संकल्पभेदेन शिथिलत्वम् अगाढत्वम् । (गो. जो. म. नहीं किया है, अथवा अध्ययन करके भी
टीका २५)। २. वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना जो उसे भूल गया है, ऐसे साधु को प्रगीतार्थ करतले स्थिता। स्थान एव स्थितं कम्प्रमगाढं कहते हैं वेदकं यथा ।। स्वकारिते ऽर्हच्चत्यादौ देवोऽयं मेऽन्य- अगुणप्रतिपन्न (अगुरणपडिवण्ण)-को पुण कारिते। अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छाद्धोऽपि
गुणो? संजमो संजमासंजमो वा [तं अपडिवण्णो चेष्टते । (अन.ध. २-५७)।
अगुणपडिवण्णो ] । (धव. पु. १५, पृ. १७४) । १ अपने द्वारा निर्मापित जिनप्रतिमादि के ।
गुण शब्द से संयम या संयमासंयम अभीष्ट है। विषय में 'यह मेरा देव है' तथा अन्य के द्वारा
इस प्रकारके गुण को जो प्राप्त नहीं है वह प्रगुणनिर्मापित उक्त जिनप्रतिमादि में 'यह अन्य का देव प्रतिपन्न–प्रसंयत-कहलाता है। है' इस प्रकार के अस्थिर श्रद्धान को अगाढ़ कहते हैं। यह सम्यक्त्व का एक दोष है।
अगुणोपशामना (अगुणोवसामरणा)-१. जा अगारी-१. प्रतिश्रयार्थिभिरङ्ग्यते इति अगारं
सा देसकरणुवसामणा तिस्से अण्णाणि दुवे णामाणि वेश्म, तद्वानगारी।xxxx चारित्रमोहोदये
अगुणोवसामणा त्ति च अप्पसत्थुवसामणा त्ति च । सत्यगारसम्बन्धं प्रत्यनिवृत्त: परिणामो भावागार
(धव. पु. १५, पृ. २७५-७६)। २. तथा देशस्य
देशोपशामनाया:-तयोर्द्वयोः प्रर्वोक्तयोर्नामधेययोमित्युच्यते । स यस्यास्त्यसावगारी वने वसन्नपि । गृहे वसन्नपि तदभावादनगारमित्युच्यते। (स. सि.
विपरीते नामधेये । तद्यथा-अगुणोपशामनाऽप्रश
स्तोपशामना च। (कर्मप्र. मलय. व. उपश. २, ७-१६) । २.प्रतिश्रयाथितया अङ्गनादगारम् ॥१॥ प्रतिश्रयाथिभिः जनरङ्यते गम्यते तदित्यगारम्,
पृ. २५५)। वेश्म इत्यर्थः । अगारमस्यास्तीत्यगारी। (त. वा.
प्रगुणोपशामना यह देशकरणोपशामना का पर्याय७-१६ त. सुखबो. वृ. ७-१६) । ३. अगारं वेश्म,
नाम है। (उदयादि करणों में से कुछ का
उपशान्त हो जाना और कुछ का अनुपशान्त बना तदुपलक्षणमारम्भ-परिग्रहवत्तायाः । Xxxएवं द्वयमप्यगारशब्देनोपलक्ष्यते । तदेतावारम्भ-परिग्रहा
रहना, इसका नाम प्रगुणोपशामना या देशकरणोपवगारं यथासम्भवमस्ति यस्य भविष्यतीति वा जाता
शामना है)। शंसस्यापरित्यक्ततत्सम्बन्धस्य सर्वोप्यगारी, तदभि- प्रगुप्तिभय-१. स्वं रूपं किल वस्तुन ऽस्ति परमा
गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परप्रवेष्टमकृतं स्तीत्यगारी, परिग्रहारम्भवान् गृहस्थ इत्यर्थः । ज्ञानं स्वरूपं च नुः। अस्यागुप्तिरतो न काचन (त. भा. सि. व. ७-१४)। ४. अड्चते गम्यते भवत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स प्रतिश्रयाथिभिः पुरुषः गृह-प्रयोजनवद्धिः पुरुषरित्य- सहजं ज्ञानं सदा विन्दति । (समयप्रा. कलश १५२)। गारं गृहमुच्यते । अगारं गृहं पस्त्यमावासो विद्यते २. प्रात्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावात् जायमानम् अगुप्तियस्य स अगारी । (त. वृ. श्रुत. ७-१६)।
भयम् । (त.वृ. श्रुत. ५-२४)। ३. दृङ्मोहस्योदयाद १ अगार का अर्थ गृह होता है। उस प्रगार
बुद्धिः यस्य चैकान्तवादिनी । तस्यैवागप्तिभीतिः से-तत्सम्बद्ध ममत्व परिणाम से-जो सहित स्यान्नूनं नान्यस्य जातुचित् । (पंचाध्यायी २, होता है वह अगारी कहलाता है। ३ अगार यह ५३६)। प्रारम्भ और परिग्रह सहित होने का उपलक्षण है। २ दुग (किला) प्रादि गोपनस्थान के न होने इस प्रकारके प्रारम्भ और परिग्रह रूप प्रगार पर जो प्ररक्षा का भय होता है वह अगुप्तिभय (गृह) से जो सहित होता है वह अगारी (गहस्थ) कहलाता है । कहा जाता है।
अगुरुलघु, प्रगुरुलघुक-१. न विद्यते गुरु-लघुनी प्रगीतार्थ-प्रगीतार्थः येन च्छेदश्रुतार्थो न गृहीतो यस्मिस्तदगुरुलघुकम् । नित्यं प्रकृतिवियुक्तं लोका
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अगुरुलघु] ११, जैन-लक्षणावली
[अगुरुलघु नामकर्म लोकावलोकनाभोगम् । स्तिमिततरङ्गोदधिसमम- तदगुरुलघुनाम । (स. सि. ८-११, त. वा. ८, वर्णमस्पर्शमगुरुलघु । (षोड. १५-१५) २. न गुरुक- ११, १२; त. सुखबो. वृ. ८-११) । २. अगुरुलघुमधोगमनस्वभावं न लघुकमूर्ध्वगमनस्वभावं यद् परिणामनियामकमगुरुलघुनाम । (त. भा. ८, द्रव्यं तदगुरुलघुकम्-अत्यन्तसूक्ष्मं भाषा-मनःकर्म- १२) । ३. यन्निमित्तमगुरुलघुत्वं तदगुरुलघुनाम । द्रव्यादि। (स्था. अभय. वृ. १०, १, ७१३, पृ. (त. श्लो. ८-११) । ४. अगुरुलघुनाम यदुदयान्न ४५०-५१)।
गुरु पि लघुर्भवति देहः । (श्रावकप्र. टी. ३१)। गुरुता और लघुता के न होने का नाम अगुरुलघु ५. अणंताणतेहिं पोग्गलेहि पाऊरियस्स जीवस्स या अगुरुलघुक है।
जेहि कम्मक्खंधेहितो अगुरुलहुअत्तं होदि, तेसिमगुरुअगुरुलघु गुरग-१. अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणं- अलहुअंति सग्णा।XX सो (पुग्गलक्खंधो) जस्स तेहिं परिणदा सव्वे । देसेहि असंखादा सिय लोगं कम्मस्स उदएण जीवस्स गरुनो हलुवो वा त्ति णावसव्वमावण्णा ॥(पंचास्ति. ३१) २. स्वनिमित्तस्ताव- डइ तममगुरुवलहुधे । (धव. पु. ६, पृ. ५८); दनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्य - जस्स कम्मस्सुदएण जीवस्स सगसरीरं गुरुलहुगभावमानानां षट्स्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्त- विवज्जियं होदि तं कम्ममगुरुग्रलहगं णाम । (धव. मानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । (स. सि. पु. १३, पृ. ३६४)। ६. यस्य कर्मण उदयात्सर्व५-७; त. वा. ५-७, पृ. ४४६)। अगुरुलघवो जीवानामिह कुब्जादीनामात्मीयशरीराणि न गुरूणि गुणास्तु तेषामगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्व- न लघुनि स्वतः । किं तर्हि ? अगुरुलघुपरिणामनिबन्धनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदाः प्रति- मेवावरुन्धन्ति तत्कर्मागुरुलघुशब्देनोच्यते । (त. समयसम्भवत्षट्स्थानपतितवृद्धि-हानयोऽनन्ताः। (पं. भा. सि. वृ. ८-१२)। ७. अगुरुलघुनामकर्मोदयात् का. अमृत. वृ. ३१)। ३. यदि सर्वथा गुरुत्वं स्वशरीरं न गुरु नापि लघु प्रतिभाति । (पंचसं. भवति तदा लोहपिण्डवदधःपतनम, यदि च सर्वथा चन्द्र. स्वो. व. ३-१२७ पृ. ३८) ।८. यदुदयादलघुत्वं भवति तदा वाताहतार्कतूलवत् सर्वदैव भ्रमण- गुरुलघुत्वं स्वशरीरस्य जीवानां भवति तदगुरुलघुमेव स्यात्, न च तथा; तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभि- नाम । (समवा. अभय. वृ. सू. ४२, पृ. ६३) । धीयते । (बृ. द्र.सं. टी. ३४)। ४. अगुरुलहुगा अणंता ६. गरुयं न होइ देहं न य लहुयं होइ सञ्वजीवा-प्रत्येकं षट्स्थानपतितहानि-वृद्धिभिरनन्ताविभाग- णं । होइ ह अगरुयलहयं अगुरुलहयनामउदएणं । परिच्छेदैः सहिता अगरुलघवो गणा अनन्ता भवन्ति । कर्मवि. गा. ११८) । १०. यस्य कर्मस तेहि अणतेहिं परिणदा सव्वे-तैः पूर्वोक्तगुणैर- ज्जीवोऽनन्तानन्तपुद्गलपूर्णोऽयःपिण्डवद् गुरुत्वानन्तैः परिणताः सर्वे । सर्वे के ? जीवा इति सम्वन्धः। न्नाधः पतति, न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वम्, तदगुरु(पं. का. जयसेन वृ. ३१)।
लघुनाम । (मूला. वृ. १२-६)। ११. यदुजीवादिक द्रव्यों की स्वरूपप्रतिष्ठा का कारण दयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि, न लघूनि, जो अगुरुलघु नामक स्वभाव है उसके प्रतिसमय नापि गुरुलघुनि; किन्त्वगुरुलघुपरिणामपरिणतानि सम्भव जो छह स्थान पतित वृद्धि-हानिरूप अनन्त भवन्ति तदगुरुलघुनाम । (कर्मप्र. यशो. टीका १-१, अविभागप्रतिच्छेद हैं उनका नाम अगुरुलघु गुण पृ. ५; षष्ठ कर्म. टी. ६) पंचसं. मलय. वृ. ३-७ है, जो संख्या में अनन्त हैं।
११५; प्रज्ञाप. मलय. वृ. सू. २६३, पृ. ४७३) । अगुरुलघुता (गुण)-अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गो- १२. अगुरुलघुनाम यदुदयात् स्वजात्यपेक्षया नैकान्तेन चरविवजिता । (द्रव्यानु. तर्क. ११-४)। गुरु पि लघुर्देहो भवति । (धर्मसं. टी. गा. ६१८)। वचन के अगोचर जो सूक्ष्मता है वह अगुरु- १३. यस्य कर्मण उदये न गुरु नापि लघु शरीरं लघुता है-द्रव्य का अगुरुलघु नामका सामान्य जीवस्य तदगुरुलघुनाम । (कर्मवि. व्या. गा. ७५) ।
१४. सर्वप्राणिनां शरीराणि यदयादात्मीयात्मीयाअगुरुलघु नामकर्म-१. यस्योदयादयःपिण्डवद गरु- पेक्षया नैकान्तगरूणि नैकान्तलपनि भवन्ति, तदगरुत्वान्नाधः पतति, न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्व गच्छति, लघुनाम । (बन्धश. टी. ३८, पृ. ५१; प्रव. सारो. टी.
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अगृहीतग्रहणाद्धा] १२, जैन-लक्षणावली
[अग्निकुमार गा. १२६२; कर्मस्त. टी. गाथा १०, पृ. २८)। अग्निकाय-पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकाय१५. यदुदयेन लोहपिण्डवद् गुरुत्वेनाधो न भ्रंश्यति, वत् ।XXXX एवमबादिष्वपि योज्यम् । (स. अर्कतूलवल्लघुत्वेन यत्र तत्र नोड्डीयते, तदगुरुलघु- सि. २-१३)। नाम । (त. वृ. श्रुत. ८-११)। १६. यस्योदयादयः- अग्निकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त काय पिण्डवद् गुरुत्वान्न च पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वा- (शरीर) अग्निकाय कहलाता है । जैसे-मृत दूवं गच्छति, तदगरुलघुनाम । (गो. क. जी. त. मनुष्यादि का निर्जीव शरीर मनुष्यकाय आदि प्र. टी. ३३) ।
कहलाता है। १ जिस नामकर्म के उदय से जीव लोहपिण्ड के अग्निकायिक (अगणिकाइय)-१. पृथिवी कायोऽ. समान भारी होने से न तो नीचे गिरता है और स्यास्तीति पृथिवीकायिकः तत्कायसम्बन्धवशीकृत न पाक की रुई के समान ऊपर उड़ता है वह आत्मा।xxx एवमबादिष्वपि योज्यम् । (स. अगुरुलघु नामकर्म कहलाता है।
सि. २-१३)। २. अगणिकाइयणामकम्मोदइल्ला राणादा-अप्पिदपोग्गलपरियट्टभंतरे जं सव्वे जीवा अगणिकाइया णाम । अगहिदपोग्गलगहणकालो अगहिदगहणद्धा णाम। प. २०८)। (धव. पु. ४, पृ. ३२८)।
जो जीव अग्निरूप शरीर से सम्बद्ध है वह अग्निविवक्षित पुदगलपरिवर्तन के भीतर जो प्रगृहीत कायिक कहलाता है। पुद्गलों के ग्रहण का काल है वह अगृहीतग्रहणाद्धा
अग्निकायिकस्थिति (अगणिकाइयठिदी)-अण्णमामका पुदगलपरिवर्तन काल है।
काइएहितो अगणिकाइएसु उप्पण्णपढमसमये चेव । मिथ्यात्व -१. एकेन्द्रियादिजीवानां घोराज्ञानविवर्तिनाम् । तीवसन्तमसाकारं मिथ्यात्व
- अगणिकाइयणामकम्मस्स उदयो होदि । तदुदयपढम
समयप्पहाडि उक्कस्सेण जाव असंखेज्जा लोगा त्ति मगृहीतकम् । (पञ्चसं. अमित. १-१३५) ।
तदुदयकालो होदि । सो कालो अगणिकाइयट्रिदी २. केषाञ्चिदन्धतमसायतेऽगृहीतम् XXXI (सा. ध. १-५) । ३. अगृहीतं परोपदेशमन्तरेण प्रवृत्त
णाम । (ध. पु. १२, पृ. २०८) । त्वादनुपात्तमनादिसन्तत्या प्रवर्त्तमानस्तत्त्वारुचिरूप
अन्य पर्याय से अग्निकायिक जीवों में उत्पन्न श्चित्परिणामः। (सा. घ. स्वो. टीका १-५)। होने के प्रथम समय में अग्निकायिक नामकर्म ४. अगृहीतं स्वभावोत्थमतत्त्वरुचिलक्षणम । (धर्मसं. का उदय होता है। इस प्रथम समय से लेकर श्रा. ४-३७)।
उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण काल तक उसका ३ परोपदेश के बिना अनादि परम्परा से प्रवर्त- उदय रहता है। इतने काल को अग्निकायिक की मान प्रतत्त्वश्रद्धानरूप परिणति का नाम अगृहीत
स्थिति जानना चाहिए। मिथ्यात्व है।
अग्निकुमार-१. मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोअगृहीता-मृतेषु तेषु (बन्धुवर्गेषु) सैव स्याद- ऽवदाता घटचिह्ना अग्निकुमाराः । (त. भा. ४, गृहीता च स्वैरिणी। (लाटीसं. २-२०१)। ११)। २. अग्निकूमारा भूषणनियुक्तपूर्णकलशरूपअपने अभिभावक बन्धुजनों के मर जाने पर चिह्नधराः । (जीवाजी. वृ. ३-१, पृ. २६१) । स्वेच्छाचार में प्रवृत्त कुलटा स्त्री प्रगृहीता कही ३. अग्निकुमाराः सर्वाङ्गोपाङ्गषु मानोन्मानप्रमाजाती है।
णोपपन्ना विविधाभरणभास्वन्तस्तप्तस्वर्णवर्णाः । अग्नि-विद्युदुल्काऽशनिसंघर्षसमुत्थिता सूर्यमणिसं- (संग्रहणी वृ. १७)। ४. अङ्गन्ति पातालं विहाय सृतादिरूपश्चाग्निः । (प्राचा. शीलांक वृत्ति १, ३, क्रीडार्थमूर्ध्वमागच्छन्तीति अग्नयः । (त. वृ. सू. ३१ गा. ११८ पृ. ४४)।।
श्रुत.४-१०)। जो बिजली, उल्का और वज्र आदि के संघर्ष से ३ जो देव समस्त शरीरावयवों में मान व उन्मान तथा सूर्य और सूर्यकान्त मणि के संयोग से दाहक के प्रमाण से सम्पन्न होते हुए विविध प्राभरणों से वस्तु उत्पन्न होती है उसे अग्नि कहते हैं। अलंकृत, तपे हुए स्वर्ण के समान वर्ण वाले और
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अग्निजीव ]
घट चिह्न से उपलक्षित होते हैं वे 'श्रग्निकुमार' इस नाम से प्रसिद्ध हैं ।
अग्निजीव समवाप्तपृथिवी कायनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत् पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीवः । एवमबादिष्वपि योज्यम् । ( स. सि. २ - १३ ) ।
जो जीव अग्निकाय नामकर्म के उदय से संयुक्त होकर कार्मण काययोग में स्थित होता हुआ जब तक अग्नि को कायरूप से नहीं ग्रहण करता है तब तक वह श्रग्निजीव कहलाता है ।
१३, जैन - लक्षणावली
प्रकुशित - १. कुशमिव कराङ्गुष्ठं ललाटदेशे कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्याङ्कुशितदोषः । (मूला. वृ. ७- १०६ ) । २. भालेऽङ्कुशवदंगुष्ठविन्यासोऽङ्कुशितं मतम् । ( श्रन. ध. ८ - १०० ) । १. जो अंकुश के समान हाथ के अंगूठे को मस्तक पर करके वन्दना करता है वह इस अंकुशित दोष का भागी होता है ।
अङ्ग - १. श्रङ्गति गच्छति व्याप्नोति त्रिकाल - गोचराशेषद्रव्य - पर्यायानित्यङ्गशब्दनिष्पत्तेः । ( धव. पु. ६, पृ. १६४) । २. णलया बाहू अ तहा णियंब पुट्ठी उरो य सीसं च । अट्ठवदु श्रंगाई देहण्णाई उवंगाई । ( धव. पु. ६, पृ. ५४ उद्धृत; गो. क. २८ ) । ३. सीसमुरोरपिट्ठी दो बाहू ऊरुग्रा य अगा । ( आव. भा. गा. १६०, पृ. ४५८ ) । ४. शीर्षमुर उदरं पृष्ठं द्वौ बाहू द्वौ च ऊरू इत्यष्टावङ्गानि । ( आव. भा. मलय. वृत्ति गा. १६०, पृ. ५६० ) । शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि । ( धर्मसं वृ. गा. ६११) । ६. अङ्गानि शिरःप्रभृतीनि । ( कर्मवि. व्या. गा. ७१ )
१ जो 'अङ्गति' अर्थात् त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य पर्यायों को व्याप्त करता है वह अंग ( श्रुत) कहा जाता है, यह श्रङ्ग शब्द का निरुक्त्यर्थ है । ३ शरीर के शिर, वक्षस्थल, पेट, पीठ, दो हाथ और दो जंघायें; इन आठ श्रवयवों को श्रङ्ग कहते हैं । अङ्गना - अंगे स्वशरीरे पयोधर-नितम्ब - जधनस्मरकूपिकादिरूपे अनुरागो येषां ते अङ्गानुरागाः, तान् अङ्गानुरागान् कुर्वन्तीति अङ्गनाः । ( श्राचा. नि. चू. - श्रभिधान राजेन्द्र १, पू. ३८ ) । जो कामोद्दीपक अपने स्तनादि युक्त अंग (शरीर )
[अङ्गबाह्य
में अनुराग रखने वाले पुरुषों को अनुरक्त किया करती हैं, उन्हें अंगना कहते हैं । यह अंगना का frefer के अनुसार लक्षण है ।
प्रङ्गनिमित्त - देखो अंगमहानिमित्त । वातादिप्पगिदी रुहिरप्पहुदिसहावसत्ताई । णिण्णाण उष्णया
गोत्रगाण दंसणा पासा ।। णर तिरियाणं दठ्ठे जं जाणइ दुक्ख - सोक्ख मरणाई । कालत्तयणिप्पण्णं गणिमित्तं पसिद्धं तु ।। ( ति प ४, १००६-७) । मनुष्य व तिर्यंचोंके निम्न और उन्नत अंगउपांगों के देखने व छूने से वात, पित्त एवं कफ रूप प्रकृति तथा रुधिर प्रादि धातुम्रों को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख, दुख एवं मरण को जान लेना; इसका नाम श्रंगनिमित्त प्रसिद्ध है ।
श्रङ्गप्रविष्ट - १ यद्भगवद्भिः सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः परमर्षिभिरर्हद्भिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य प्रवचन प्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकर नामकर्मणोऽनुभावादुक्तं भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिरुत्तमातिशयवाबुद्धिसम्पन्नैर्गणधरैदृब्धं तदङ्गप्रविष्टम् । ( त. भा. १-२० ) । २. श्रङ्गप्रविष्टमाचारादिद्वादशमेदं तिशयद्धयुक्त गणधरानुस्मृतग्रन्थरचनम् भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवन्निर्गतवाग्गङ्गाऽर्थविमलसलिल
च
बुद्धघ॥ १२ ॥
बुद्ध्यतिशयद्धयुक्तैर्गणधरै
प्रक्षालितान्त. करणैः रनुस्मृतग्रन्थरचनम् आचारादिद्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते । (त. वा. १ - २०, पृ. ७२ ) । भगवत् श्रर्हत्सर्वज्ञोपदिष्ट अर्थ को गणधरों के द्वारा जो आचारादि रूप से अंगरचना की जाती है, उसे अंगप्रविष्ट कहते हैं ।
अङ्गबाह्य - १. गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्त विशुद्वागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिबुद्धिशक्तिभिराचार्यैः
काल- संहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत् प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति । ( त. भा. १ -२० ) । २. श्रारातीयाचार्य कृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबा ह्यम् ।। १३ ।। यद् गणधर शिष्य - प्रशिष्यैरारातीयरधिगतश्रुतार्थतत्त्वः कालदोपादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम् । (त. वा. १- २०, पृ. ७८ ) । ३. प्रङ्गानि श्रवयवा श्राचारादयस्तेभ्यो बाह्यमिति श्रङ्गवाम् । ( त. भा. सि. वृ. १ २०, पू. ६० ) 1 २ गणधरों के शिष्य प्रशिष्यादि श्रारातीय प्राचार्यो
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अङ्गमहानिमित्त] १४, जैन-लक्षणावली
[अगुल के द्वारा अल्पबुद्धि शिष्यों के थनुग्रहार्थ की गई को जलाना, अथवा अग्नि के द्वारा सोना, चांदी व संक्षिप्त अंगार्थ ग्रन्थरचना को अङ्गबाह्य कहते हैं। लोहा आदि को शुद्ध करना, तथा उनके विविध अजमहानिमित्त-१. वातादिप्पगिदीग्रो रुहिरप्प- प्राभरण और उपकरण बनाना यह सव अंगारकर्म हदिस्सहावसत्ताई। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण कहलाता है।
सणा पासा ।। णर-तिरियाणं दळं जं जाणइ दुक्ख- अङ्गारजीविका-अंगार-भ्राष्ट्रकरणं कुंभायःस्वर्णसोक्ख-मरणाइं। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्तं पसिद्धं कारिता। ठठारत्वेष्टकापाकाविति ह्यगारजीविका ।। तु । (ति. प. ४, १००६-७), २. अंग-प्रत्यंगदर्श- (योगशा. ३-१०१; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३३६)। नादिभिस्त्रिकालभाविसुख-दुःखादिविभावनमङ्गम् ॥ कोयला बना कर, भाड़ भंजकर, कुम्हार, लुहार, त. वा. ३. ३६, ३, प. २०२)। ३. तत्थ सुनार एवं ठठेरे प्रादि के कार्य कर और ईट व अंगगयमहाणिमित्तं णाम मणुस्स-तिरिक्खाणं सत्त- कबेल प्रादि पका कर आजीविका के करने को सहाव-वाद-पित्त-सेंभ-रस-रुधिर-मांस-मेदट्ठि - मज्ज- अंगार आजीविका कहते हैं। मक्काणि सरीरवण्ण-गंध-रस - फासणिण्णुण्णदाणि अङ्गारदोष-१.तं होदि सयंगालं जं प्राहारेदि जोएद्रण जीविय-मरण-सुह-दुक्ख-लाहालाह-पवासादि- मुच्छिदो संतो। ( मला. ६-५८% पि. नि. विसयावगमो। (धव. पु. ६, पृ. ७२) । ४. तिर्यङ- ६५५) । २. जे णं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा फासूमनुष्याणां सत्वस[स्वभाव-वातादिप्रकृति-रस-रुधिरा- एसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता दिधातशरीरवर्ण-गन्धनिम्नोन्नतांग-प्रत्यंगदर्शन-स्पर्श- मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अाहारं आहारे ति नादिभिस्त्रिकालभाविसुख - दुःखादिविभावनमंगम् । एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण-भोयणे । (भग. श. (चारित्रसार पृ. ६४) । ५. तथांगं शिरोग्रीवादिकं ७, उ. १)। ३. रागेण सइंगालंxxx॥ (पि. दष्टवा पुरुषस्य यच्छुभाशुभं ज्ञायते तदंगनिमित्त- नि. ६५६) । ४. आहाररागाद् गार्द्धवाद् मिति। (मलाचार वत्ति ६-३०)। ६. अंगं शरीरा- भऊजानस्य
भुजानस्य
चारित्रांगनवासानना
चारित्रांगारत्वापादनादंगारदोषः । वयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोद्भावकम् । (सम- (प्राचा. शी. वृ. २, १, सू. २७३)। ५. रागेणावा. सू. अभय. वृ. २६, पृ. ४७)।
sध्मातस्य यद् भोजनं तत् साङ्गारम् । (पिण्डनि. २ शरीर के अंग-उपांगों को देखकर त्रिकालभावी
मलय. वृ. ६५६) । ६. स्वाद्वन्नं तद्दातारं वा प्रशंसुख-दुःखादि शुभाशुभ के जानने की शक्ति को अंग- सयन् यद् भुङ क्ते स रागाग्निना चारित्रेन्धनस्याङ्गामहानिमित्त कहते हैं।
रीकरणादङ्गारदोषः । (योगशा. स्वो.विव. १-३८) प्रडार (इंगाल)-दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालोऽ- धर्मसं. स्वो. वृ.३-२३)। ७. गृद्धयाऽङ्गारोऽश्नतःX ङ गारः इन्धनस्थः प्लोषक्रियाविशिष्टरूपः। (प्राचा- xx। (अन. ध. ५-३७); ८. इष्टान्नादिप्राप्तौ रांग शी. वृत्ति १, १, ३, गा. ११८, पृ. ४४)। रागेण सेवनमङ्गारदोषः । (भा. प्रा. टी. १००) । धम और ज्वाला से रहित धधकती हुई अग्नि को १ इष्ट अन्न-पानादि के अतिगृद्धता से सेवन को अङ्गार कहते हैं।
अंगारदोष कहते हैं। ६ स्वादु अन्न अथवा उसके अङ्गारकर्म-१. देखो अग्निजीविका । अंगार- देने वाले श्रावक की प्रशंसा करके भोजन करने कम्ममिदि भणिदे अंगारसंपायणट्ठा कट्ठदहणकिरिया को भी अंगार दोष कहते हैं। घेत्तव्वा । अथवा तेहिं तहा णिव्वत्तिदेहिं जो सुवण्ण- अङ्गुल-१. कम्ममहीए बालं लिक्खं जूवं जवं च समाणादिवावारो सो वि अंगारकम्ममिदि घेत्तव्वं । अंगुलयं । इगिउत्तरा य भणिदा पुवेहिं अट्ठगुणि(जयध. दे. पत्र ६५२)। २. इंगाला निद्दहितुं विक्कि- देहिं । (ति. प. १-१०६) । २. अष्टौ यवमध्यानि णाति । (प्राव. सू. ७)। ३. अंगारकर्म अंगारकरण- एकमंगुलमुत्सेधाख्यम् । (त. वा. ३, ३८, ६) । ३. विक्रयक्रिया। (प्राव. वृ. सू. ७)। ४. इंगालकम्मं ति अट्ठजवमझायो से एगे अङ्गुले । (भग. सू. श. ६, इंगाले दहिउं विक्किणइ, तत्थ छण्हं कायाणां वहो। उ. ७)। ४. जवमझा अट्ट हवन्ति अंगुलं
कापड। (श्रा. प्र. टीका २८८ उद्धत) (ज्योतिष्क. २-७५) । ५. अष्टौ यवमध्यान्येक१ अंगार-कोयला---उत्पन्न करने के लिए काष्ठ मङ्गलम् । (ज्योति. मलय. ब. २-७५ ) ।
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अंगुलिदोष] १५, जैन-लक्षणावली
[अचक्षुदर्शन ६. अद्यन्ते प्रमाणतो ज्ञायन्ते पदार्था अनेनेत्युगु- तदङ्गोपाङ्गनाम । (अनु. हरि. वृ. पृ. ६३)। ८. लं मानविशेषः । (संग्रह. दे. व. २४४)।
अंगोपाङ्गनिबन्धनं नाम अङ्गोपाङ्गनाम । यदया२ पाठ यवमध्य प्रमाण माप को अंगुल कहते च्छरीरतयोपात्ता अपि पुद्गला अङ्गोपाङ्गविभागेन हैं। ६ जिसमापविशेष को प्राधार बना करके पदार्थों परिणमन्ति तत्कर्माङ्गोपाङ्गं नाम । ( कर्म. १)। का प्रमाण जाना जाता है उसे अंगुल कहते हैं। ६. अङ्गानि शिरःप्रभतीनि उपाङ्गान्यगुल्यादीनि, अंगुलिदोष-१. य: कायोत्सर्गेण स्थितो अंगुलि- यस्य कर्मणः उदये सर्वाण्यङ्गोपाङ्गानि निष्पद्यन्ते गणनां करोति तस्याङ्गुलिदोषः । (मूला. वृ. ७, तदङ्गोपाङ्गनाम च ज्ञातव्यम् । (कर्मवि. व्या. १७२)। २. पालापकगणनार्थमङ्गुलीश्चालयतः स्था- ७१, पृ. ३२), १०. यदुदयाच्छरीततयोपात्ता अपि नमगुलिदोषः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। पुद्गला अङ्गोपाङ्गविभागेन परिणमन्ति तत्कर्मापि ३.XXX अंगुलीगणनाङ्गुली। (अन. ध. ८, अङ्गोपाङ्गनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. टी. गा. २४)।
ली नाम दोषः स्यात् । कासौ ? अङ्गुलि- ११. अङ्गोपाङ्गनाम यदुदयादङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिः । गणना अङ्गुलीभिः संख्यानम् । (अन. ध. स्वो. (धर्मसं. मलय. वृ. गा. ६१७) । १२. यदुदयादङ्गोटीका ८-११८)।
पाङ्गव्यक्तिर्भवति तदङ्गोपाङ्गम् । (त. व. श्रुत. १ कायोत्सर्ग करते समय अंगुलियोंसे मंत्र गणना ८-११) । १३. यदुदयादंगोपांगविवेकनिष्पत्तिः करने को अंगुलिदोष कहते हैं।
तदंगोपांगं नाम, यस्य कर्मण उदयेन नालक-बाहूरूअगुष्ठप्रसेनी (प्रश्निका)-यया (विद्यया) दर नितम्बोरःपृष्ठ-शिरांस्यष्टावंगानि उपांगानि च अङ्गुष्ठे देवताकारः क्रियते सा अङ्गुष्ठप्रसेनिका मूर्द्धकरोटि-मस्तक-ललाट-सन्धि-भुज-कर्ण - नासिकाविद्या । (अभि. रा. भा. १, पृ. ४३)।
नयनाक्षिकूप-हनु - कपोलाधरौष्ठ-सृक्क-तालु-जिह्वाजिस विद्या के द्वारा देवता को अंगूठे के ऊपर ग्रीवा-स्तन-चूचुकांगुल्यादीनि भवन्ति तदंगोपांगम् । अवतीर्ण कराया जाता है, उसे अङ गष्ठप्रसेनी या (मला. व. १२-१६४)। प्रङगुष्ठप्रश्निका विद्या कहते हैं।
१ जिस नामकर्म के उदय से हस्त, पाद, शिर प्रङ्गोपाङ्गनाम-१. यदुदयादङ्गोपाङ्गविवेकस्तद- प्रादि अंगों का और ललाट, नासिका आदि उपांगों ङ्गोपाङ्गनाम । (स. सि. ८-११; त. श्लो. ८-११, का विवेक हो उसे प्रांगोपांग नामकर्म कहते हैं। भ. प्रा. मूला. २१२४) । २. यदुदयादङ्गोपाङ्ग- अज्रिक्षालन - अघ्रिक्षालनं तथास्वीकृतविवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम ॥४॥ यस्योदयाच्छिर:- निवेशितसंयतस्य प्रासुकोदकेन पादधावनं तत्पादोदकपृष्ठोरु-बाहदर-नालक-पाणि - पादानामष्टानामङ्गानां वन्दनं च । (सा. ध. स्वो. टी. ५-४५) । तभेदानां च ललाट-नासिकादीनां उपाङ्गानां विवेको पडिगाहे हुए साधु के प्रासुक जल से पैर धोने व भवति तदङ्गोपाङ्गनाम । (त. वा. ८-११; गो. क. पादजल के वन्दन को अडिब्रक्षालन कहते हैं। जी.प्र.टी.गा. ३२)। ३. अङ्गोपाङ्गनाम प्रौदारिकादि- प्रचक्षुदर्शन (अचक्खुदंसण)-१. सेसिदियप्पयासो शरीरत्रयाङ्गोपाङ्गनिर्वर्तकं यदुदयादङ्गोपाङ्गान्युत्प- णायध्वो सो अचक्खु त्ति । (पंचसं. १-१३६; गो.जी. द्यन्ते शिरोऽङ्गुल्यादीनि । (त. भा. हरि. वृत्ति ४८४)। २. शेषेन्द्रियदर्शनमनयनदर्शनं अचक्षुदर्शनम् । २-१७)। ४. अङ्गोपाङ्गनाम यदुदयादङ्गोपाङ्ग- (पंचसं. च. स्वो. वृ. २-१२२) । ३. एवं (चक्षुदर्शनिवृत्तिः । शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि, श्रोत्रादीन्युपा- नवत्-प्रचक्षुदर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमतः अवङ्गानि । (श्रा. प्र. टी. २०)। ५. जस्स कम्मक्खं- बोधव्यापृतिमात्रसारं सूक्ष्मजिज्ञासारूपमवग्रहप्राग्जन्मधस्सुदएण सरीरस्संगोवंगणिप्फत्ती होज्ज, तस्स मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूतं सामान्यमात्रग्राह्यकम्मक्खंधस्स सरीरंगोवंगं णाम । (धव. पु. ६, पृ. वग्रहव्यङ्गयं स्कन्धावारोपयोगवत्) अचक्षुदर्शनं ५४)। ६. जस्स कम्मस्सुदएण अट्ठण्णमंगाणमुवंगाणं शेषेन्द्रियोपलब्धिलक्षणम् । (त. भा. हरि.व. २-)। च णिप्पत्ती होदि तं अंगोवंगं णाम । (धव. पु. ४. दिट्ठस्स य जं सरणं णायव्वं तं अचक्खु त्ति ॥ १३, पृ. ३६४.)। ७. पञ्चविधौदारिकशरीरनामादि- धव. पु. ७, पृ. १०० उ.); दिट्ठस्स शेषेन्द्रियैः प्रतिकार्येण साधितं यदेषामेवाङ्गोपाङ्गनिर्वत्तिकारणं पन्नस्यार्थस्य, जं यस्मात्, सरणं अवगमनम्, णायव्वं
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अचक्षुदर्शन
१६, जैन-लक्षणावली [अचरमस. सयोगि. के. तं तत् अचक्खु त्ति अचक्षुदर्शन मिति । सेसिदिय- यन ब रिन्द्रियैर्मनसा च दर्शनमितरदर्शनम्। (पंचसं. णाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विस- मलय. ५. ३-४)। १८. यः सामान्यावबोधः स्यायम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्प- च्चक्षुर्वर्जापरेन्द्रियः । अचक्षुर्दर्शनं तत्स्यात् सर्वेषामपि त्तिणिमित्तो तमचक्खदंसण मिदि। (धव. पु. ७, प. देहिनाम् । (लोकप्र. ३-१०५५)। १६. शेषेन्द्रिय-मनो१०१; सोद-घाण-जिब्भा-फास-मणेहितो समु- भिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् । (कर्मप्र. यशोवि. टी. १०२)। प्पज्जमाणणाणकारणसगसंवेयणमचक्खदंसणं णाम । ७ चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों और (धव. पु. १३, पृ. ३५५); शेषेन्द्रिय-मनसां मन के द्वारा होने वाले सामान्य प्रतिभास या अवदर्शनमचक्षुदर्शनम् । (धव. पु. ६, पृ. ३३)। लाकन का अचक्षुदश ५. शेषेन्द्रियमनोविषयमवशिष्टमचक्षुर्दर्शनम् । (त. अचक्षुदर्शनावरण (अचक्खुदंसरणावरणीय) भा. सिद्ध. वृ. ८-८)। ६. यत्तदावरणक्षयोपशमा- -१. तत् (शेषेन्द्रिय-मनोदर्शन) आवृणोत्यचक्षुर्दर्शच्चक्षुर्वजिततेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्वाच्च मूर्ता- नावरणीयम्। (धव. पु. ६, पृ. ३३); तस्स मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षदर्श- अचक्खुदंसणस्स आवारयमचक्खुदंसणावरणीयं । नम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४२)। ७. एबमचक्षु- (धव. पु. १३, पृ. ३५५) । २. अचक्षुर्दर्शनावरणं दर्शनं शेषेन्द्रियसामान्योपलब्धिलक्षणम् । (अनु. शेषेन्द्रियदर्शनावरणम् । (श्रा. प्र. टी. १४)। हरि. व. पु. १०३) । ८. शेषेन्द्रियज्ञानोत्पादक- ३. शेषेन्द्रिय-मनोविषयविशिष्टमचक्षुर्दर्शनम्, तल्लप्रयत्नानुविद्धगुणीभूतविशेषसामान्यालोचनमचक्षुर्दर्श - ब्धिघात्यचक्षुर्दर्शनावरणम् । (तत्त्वा. भा. सि. वृ. नम् । (मूला. वृ. १२-१८८)। ६. शेषाणां पुन- ८-८)। ४. तस्य (प्रचक्षुर्दर्शनस्य) आवरणम् रक्षाणामचक्षुर्दर्शनं जिनैः ।। (पंचसं. अभि. १-२५०)। अचक्षुर्दर्शनावरणम् । (मूला. वृ. १२-१८८) । १० अचक्षुषा चक्षुर्वर्ज-शेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च ५. इतरदर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणम्--चक्षुर्वजशेषेदर्शनं सामान्यार्थग्रहणमेवाचक्षुर्दर्शनम् । (शतक. न्द्रिय-मनोदर्शनावरणम् । (धर्मसं. मलय. वृ. मल. हेम. वृ. ३७)। ११. अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषे- ६११.)। ६. चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रिय-मनोभिर्दर्शनमचक्षुन्द्रिय-मनोभिर्दर्शनमचक्षुदर्शनम् । (प्रज्ञाप. मलय. दर्शनम्, तस्यावरणीयमचक्षुर्दर्शनावरणीयम् । वृ. २३-२६३; जीवाजी. मलय. वृ. १-१३; कर्म- (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३; कर्मप्र. यशो. प्र. यशो. टी. १०२) । १२. अचक्षुषा चक्षुर्वर्ज- टीका १०२)। शेषेन्द्रिय-मनोभिदर्शनं स्व-स्वविषये सामान्यग्रहणम- १ अचक्षुर्दर्शन का प्रावरण करने वाले कर्म को चक्षुर्दर्शनम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६-३१२)। प्रचक्षुर्दर्शनावरण कहते हैं । १३. अचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा अचक्षुःस्पर्श-चक्षुषा स्पृश्यते गृह्यमाणतया युज्यते दर्शनं तदचक्षुर्दर्शनम् । (स्थाना. अभय. वृ. ६, ३, इति चक्षुःस्पर्शम् - स्थूलपरिणतिमत्पुद्गलद्रव्यम् । ६७२, कर्मस्त. गोबिंद. टी. गा. ६, पृ. ८३)। अतोऽन्यदचक्षुःस्पर्शम् । (उत्तरा. नि. ४-१८६) । १४. सामान्य-विशेषात्मके वस्तुनि प्रचक्षषा चक्षर्वर्ज- जिस स्थल परिणाम वाले द्रव्य को चक्ष इन्द्रिय शेषेन्द्रिय-मनोभिर्दर्शनं स्व-स्वविषयसामान्यग्रहणम- के द्वारा ग्रहण किया जा सकता है उसका चक्षदर्शनम् । (षडशी. मलय. व. १६) । १५. शेषे- नाम चक्षुःस्पर्श है। अचक्षुःस्पर्श इसके विपरीत न्द्रिय - नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति बहिरङ्गद्रव्ये- समझना चाहिये। न्द्रिय-द्रव्यमनोऽवलम्बन यन्मूर्तामूर्त च वस्तु निवि- अचरमसमय-सयोगिभवस्थ - केवलज्ञान-ततः कल्पसत्तावलोकेन यथासम्भवं पश्यति तदचक्षुर्दर्श- (चरमसमयात्) प्राक् शेषेषु समयेषु वर्तमाननम् । (पंचा. का. जय. वृ. ४२)। १६. स्पर्शन- मचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् । (प्राव. रसन-घ्राण-श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमत्वात् स्वकीय- मलय. वृ. ७८, पृ. ८३)। स्वकीयबहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासा- सयोगिकेवली के अन्तिम समय से पूर्ववर्ती शेष मान्यं विकल्परहितं परोक्षरूपेणकदेशेन यत् पश्यति समयों में वर्तमान केवलज्ञान को अचरमसमयतदचक्षुर्दर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४)। १७. इतरैन- सयोगिभवस्थ केवलज्ञान कहते हैं।
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अचारित्र ]
प्रचारित्र ( प्रच्चरिद ) चारित पडिणिबद्ध कसायं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तस्सोदएण जीवो अच्चरिदो होदि णादव्वो ॥ समयप्रा. १७३ ) । चारित्ररोधक कषाय के उदय से चारित्र के प्रतिकूल आचरण करने को प्रचारित्र या प्रसंयमभाव कहते हैं ।
प्रचित्त - १. श्रात्मनः परिणामविशेषश्चित्तम् ॥ १ ॥ श्रात्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्, तेन रहितम् ग्रचित्तम् । ( त. वा. २ - ३२ ) । २. न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम् अचेतनं जीवरहितं प्रासुकं वस्तु । ( अभि. रा. भा. १, पृ. १८५ ) ; पत्ताणां पुफाणं सरडुफलाणं तहेव हरियाणं । विटम्मि मिलाणम्मि य णायव्वं जीवविप्पजढं || ६ || ( श्रभि. रा. भा. १, पृ. १८६ ) ।
१ जो योनि चैतन्य परिणामविशेष से रहित प्रदेशोंवाली होती है, वह अचित्त कही जाती है । चित्तकाल अचित्तकालो जहा - धूलीकालो चिक्खल्लकालो उण्हकालो वरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि | ( धव. पु. ११, पृ. ७६) ।
शीत, उष्ण, वर्षा और धूलि आदि के निमित्त से तत्सम्बद्ध काल को भी प्रचित्तकाल कहते हैं । प्रचित्तगुणयोग ( ( प्रच्चित्तगुणजोग) - अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदब्वजोगो आगासादीणमप्पप्पणी गुणेहि सह जोगी वा । ( धव. पु. १०, पृ. ४३३) ।
रूप, रस. गन्ध और स्पर्श श्रादि श्रचित्त गुणों के साथ पुद्गल का तथा इसी प्रकार अन्य श्राकाश श्रादि द्रव्यों का भी अपने-अपने गुणों के साथ जो संयोग है, उसे चित्तगुणयोग कहते हैं । प्रचित्ततद्व्यतिरिक्तद्रव्यान्तर (चित्ततव्वदिरित्तदव्वंतर ) - प्रचित्ततव्वदिरित्तदव्वंतरं नामं घणो हि तणुवादाणं मज्झे ट्ठियो घणाणिलो । ( धव. पु. ५, पृ. ३) ।
धनोदधि और तनुवात के मध्य में स्थित घनानिल को चित्त तद्व्यतिरिक्त द्रव्यान्तर कहते हैं । चित्तद्रव्यपूजा - १. तेसि ( जिणाईनं ) च शरीराणं दव्वसुदस्स वि श्रचित्तपूजा सा । ( वसु. श्रा. गा. ४५० ) । २. तेषां तु यच्छरीराणां पूजनं सापचना । (ध. सं. श्री. ६, ६३ ) ।
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१७, जैन- लक्षणावली
[चित्तद्रव्योपक्रम
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जिनदेवादि के चित्त - पौद्गलिक – जड़ शरीरकी और द्रव्यश्रुत की भी जो पूजा की जाती है, वह श्रचित्तद्रव्यपूजा कहलाती है । श्रचित्तद्रव्यभाव (प्रचित्तदव्वभाव ) अचित्तदव्वभावो दुविहो— मुत्तदव्वभावो प्रमुत्तदब्वभावो चेदि । तत्थ वण्ण-गंध-रस- फासादियो मुत्तदव्वभाव । श्रवगाहणादियो प्रमुतदव्वभावो । [ श्रचेदणाणं मुत्तामुत्तदव्वाणं भावो चित्तदव्वभावो ।] ( धव. पु. १२, पृ. २) ।
श्रचित्तद्र यभाव दो प्रकारका है - मूर्तद्रव्यभाव और अमूर्तद्रव्यभाव । उनमें वर्ण गन्धादि भाव मूर्तद्रव्यभाव और श्रवगाहन प्रादि भाव अमूर्तद्रव्यभाव है । इन दोनों ही भावों को मूर्त व अमूर्त चित्त (जीव ) द्रव्योंके परिणामों को- प्रचित्तद्रव्यमाव समझना चाहिये । श्रचित्तद्रव्य वेदना (श्रचित्तदव्व वेयरणा ) - प्रचितदव्ववेयणा पोग्गल - कालागास-धम्माधम्मदव्वाणि । ( धव. पु. १०, पृ. ७) ।
अचेतन पुद्गल, काल, प्रकाश, धर्म और धर्म द्रव्यों को अचित्तनोकर्म-नोश्रागमद्रव्यवेदना कहते हैं ।
अचित्तद्रव्यस्पर्शन ( श्रचित्तदव्व फोसरण) अचित्ताणं दव्वाणं जो अण्णोष्णसंजोप्रो सो प्रचित्तदव्वफोसणं । ( धव. पु. ४, पृ. १४३ ) । प्रचेतन द्रव्यों का जो पारस्परिक संयोग है, वह श्रचित्तद्रव्यस्पर्शन है । अचित्तद्रव्योपक्रम - १. अचित्तद्रव्योपक्रमः कनकादेः कटक - कुण्डलादिक्रिया । (उत्तरा. नि. वृ. १, २८) । २. से किं तं प्रचित्तदव्वोवक्कमे ? खंडा
गुडाई मच्छंडीणं से तं प्रचित्तदव्वोवक्कमे । ( अनुयो. सू. ६५) । ३. खंडादय: प्रतीता एव । नवरं मच्छंडी खंडशर्करा, एतेषां खण्डाद्यचित्तद्रव्याणामुपायविशेषतो माधुर्यादिगुणविशेषकरणं परिकर्मणि सर्वथा विनाशकरणं वस्तुनाशे अचित्तद्रव्योपक्रमः । श्रनुयो. मल. हेम. वृ. सू. ६५) ।
१ सोना-चांदी श्रादि श्रचित्त द्रव्यों के कड़ा व कुंडल श्रादि बनाने की प्रक्रिया को श्रचित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं । ३ खांड व गुड़ आदि श्रचेतन द्रव्यों में उपायविशेष से माधुर्यादि गुणों के उत्पादन की प्रक्रिया को भी प्रचित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं ।
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अचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक] १८, जैन-लक्षणावली
[अचौर्यमहाव्रत प्रचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक (अचित्तणोकम्मदव- जो स्वामी द्वारा नहीं दिये गये हैं-लेने को बंधय ) - अचित्तणोकम्मबंधया जहा कट्ठाणं प्रचित्तादत्तादान कहते हैं। बंधया, सुप्पाणं बंधया, कडयाणं बंधया इच्चेवमादि। अचेलक-१. न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्या(धव. पु. ७, पृ. ४)।
सावचेलकः । (स्थानांग अभय. व. ५, ३, ६५१) । अचेतन लकड़ियों के बन्धकों (बढ़ई), सूप व २. अविद्यमानं नञ् कुत्सार्थे कुत्सितं वा चेलं यस्याटोकरी आदि के बन्धकों (बसोर) तथा चटाई प्रादि सावचेलकः। (प्रव. सारो. व. ७८, ६५१) । के बन्धकों को प्रचित्तनोकर्मद्रव्यबन्धक समझना २ जिसके या तो किसी प्रकार का वस्त्र ही नहीं है, चाहिये।
अथवा कुत्सित वस्त्र है; वह अचेलक है। प्रचित्तपरिग्रह-प्रचित्तं रत्न-वस्त्र-कुप्यादि, तदेव अचेलकत्व- १. न विद्यते चेलं यस्यासावचेलकः, चाचित्तपरिग्रहः । (प्रा. व. सू. ५)।
अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्राभूषणादिपरिग्रहरत्न, वस्त्र और सोना-चांदी प्रादि प्रचित्त परिग्रह त्यागः । (मला. व. १-३)। २. औत्सर्गिकमचेलकहलाते हैं।
कत्वम् XXXI (भ.प्रा. अमित. ८०)। प्रचित्तप्रक्रम (अचित्तपक्कम)-हिरण्ण-सुवण्णा- वस्त्राभूषणादि परिग्रह को छोड़ कर स्वाभाविक दीणं पक्कमो अचित्तपक्कमो णाम । (धव. पु. १५, वेष (निर्ग्रन्थता) को स्वीकार करना, इसका नाम पृ. १५)।
अचेलकत्व है। सोना व चांदी आदि के प्रक्रम को प्रचित्तप्रक्रम अचेलत्व-देखो आचेलक्य । चेलानां वस्त्राणां कहा जाता है।
बहधन-नवीनावदात-सुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽप्रभावः प्रचित्तमङ्गल-अचित्तमङ्गलं कृत्रिमाकृत्रिमरीत्या- अचेलत्वम् । (समवा. अभय. वृ. २२, पृ. ३६)। लयादिः । (धव. पु. १, पृ. २८) ।
देखो अचेलकत्व। कृत्रिम व प्रकृत्रिम चैत्यालय प्रादि अचित्त अचेलपरीषहजय-एगया अचेलए होई सचेले मङ्गल हैं।
यावि एगया। एयं धम्महियं णच्चा णाणी णो परिअचित्तयोनिक-तत्राचित्तयोनिका देव-नारकाः। देवए॥ (उत्तरा. २-१३); xxx अचेलस्य देवाश्च नारकाचाचित्तयोनिकाः, तेषां हि सत: किमिदानीं शीतादिपीडितस्य मम शरणमिति योनिरुपपादप्रदेशपुद्गलप्रचयोऽचित्त: । (त. वा. न दैन्यमालम्बेत । (उत्तरा. नेमि. वृ. २-१३)। २, ३२, १८)।
ज्ञानी कभी सर्वथा वस्त्ररहित होकर और कभी प्रचित्त उपपादस्थान पर उत्पन्न होने वाले देव कुत्सित व उत्तम वस्त्र धारण करके भी इसे साथव नारकी अचित्तयोनिक हैं।
धर्म के लिए हितावह समझते हुए शीत प्रादि से अचित्ता (योनि)-देखो अचित्त । १. अचित्ता पीड़ित होने पर भी कभी दैन्य भाव को प्राप्त नहीं (योनिः) सर्वथा जीवविप्रमुक्ता। (प्रज्ञाप. मलय. होता, इसी का नाम अचेलपरीषहजय है। व. 8-१५१) । २. सुराणां निरयाणां च योनिः प्रचौर्यमहाव्रत-१. गामे वा णयरे वा रण्णे वा अचित्ता - सर्वथा जीवप्रदेशविप्रमुक्ता। (संग्रहणी पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गहणभावं तिदियदे. भ. वृ. २५४)।
वदं होदि तस्सेव ।। (नियमसार ५८) । २. गामाजो उत्पाद-स्थान-प्रवेश जीवों से सर्वथा रहित होते दिसु पडिदाई अप्पप्पहुदि परेण संगहिदं। णादाण हैं उन्हें अचित्ता योनि कहते हैं।
परदव्वं प्रदत्तपरिवज्जणं तं तु ॥ (मूला. १-७); प्रचित्तादत्तादान-प्रचित्तं वस्त्र-कनक-रत्नादि, गामे णगरे रणे थूलं सच्चित्त बहु सपडिवक्खं । तस्यापि क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुर्व्यस्त-विस्मृतस्य स्वामि- तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिच्चं ।। नाऽदत्तस्य चौर्यबुद्धघादानमचित्तादत्तादानमिति । (मला. ५-६४)। ३. सव्वाअो अदत्तादाणामो (प्राव. वृ. ६, ८२२)।
वेरमणं । (समवा. सू. ५, पाक्षिक सूत्र प. २२) । खेत आदि में गढे हुए व रखे हुए तथा भूले हुए ४. अल्पस्य महतो वापि परद्रव्यस्य साधुना । अनासोना, चाँदी व रुपये-पैसे प्रादि अचेतन वस्तुओं के- दानमदत्तस्य तृतीयं तु महाव्रम् ।। (ह. पु. २,
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प्रचौर्याणवत] १६, जैन-लक्षणावली
. .. [अज ११६)। ५. अदत्तादानाद्विरतिरस्तेयम् । (भ. प्रा. आदानं न त्रिधा यस्य तृतीयं तदणुव्रतम् ॥ (सुभा. विज. टी. ५७); ममेदमिति संकल्पोपनीतद्रव्य- सं. ७७३,। १०. चौरव्यपदेशकरस्थूलस्तेयवतो मृतवियोगे दुःखिता भवन्ति, इति तद्दयया अदत्तस्यादा- स्वधनात् । परमुदकादेश्चाखिलभोग्यान् न हरेद्ददीत नाद् विरमणं तृतीयं व्रतम् । (भ. प्रा. विज. टी. न परस्वम् ॥ संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभर्तृ४२१)। ६. कृत-कारितादिभिस्तस्माद् (अदत्ता- कम् । अदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्रुवम् ।। दानाद) विरतिः स्तेयवतम् । (चा. सा. पृ. ४१)। (सा. ध. ४, ४६-४७)। ११. अदत्तपरवित्तस्य ७. बह्वल्पं वा परद्रव्यं ग्रामादौ पतितादिकम् । अदत्तं निक्षिप्त-विस्मृतादितः । तत्परित्यजनं स्थूलमचौर्ययत्तदादानवर्जनं स्तेयवर्जनम् ॥ (प्राचा. सा. १, व्रतमूचिरे ।। (भावस, वाम. ४५४)। १ १८)। ८. सुहुमं वायरं वावि परदव्वं नेव गिण्हइ। विस्मृतं नष्टमुत्पथे पथि कानने। वर्जनीयं परद्रव्यं तिविहेणावि जोगेण तं च तइयं महव्वयं ॥ (गु. गु. तृतीयं तदणुव्रतम् ।। (पूज्य. श्रा. २५)। १३. परष. ३, पृ. १३)।
स्वग्रहणाच्चौर्यव्यपदेशनिबन्धनात् । या निवृत्तिस्त१ प्राम, नगर अथवा वन प्रादि किसी भी स्थान पर तीयं तत्प्रोचे सार्वैरणुव्रतम् ॥ (धर्मसं. मानवि. किसी के रखे, भूले या गिरे हुए द्रव्य के ग्रहण करने २-२७, पृ. ६०)। की इच्छा भी नहीं करना; यह प्रचौर्यमहावत १ किसी के रखे हुए, गिरे हुए या भूले हुए द्रव्य कहलाता है।
कोन स्वयं ग्रहण करना और न दूसरे को भी देना, प्रचौर्याणुव्रत-१. निहितं वा पतितं वा सुवि- यह स्थूल चोरी के त्याग स्वरूप तीसरा अचौर्याणुस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते व्रत है। तदकृशचौर्यादुपारमणम् ॥ (रत्नक. ३-५७)। अच्छवि (स्नातक)-छवि: शरीरम्, तदभावात् २. अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवशादवश्यं परित्यक्त- "काययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति । (त. भा. मपि यददत्तम्, ततः प्रतिनिवृत्तादर: श्रावक इति सिद्ध. वृ. ६-४६, पृ. २८६)। तृतीयमणुव्रतम् । (स. सि. ७-२०)। ३. अन्यपीडा- काययोग का निरोध हो जाने पर छवि अर्थात् करात् पार्थिवभयाधुत्पादितनिमित्तादप्यदत्तात्प्रति- शरीर से रहित हुए केवली अच्छवि स्नातक (एक निवत्तः ॥३॥ अन्यपीडाकरपार्थिवभयादिवशाद- मुनिभेद) कहलाते हैं। वश्यं परित्यक्तमपि यददत्तं ततः प्रतिनिवृत्तादरः प्रच्छिन्नकालिका ( सूक्ष्मप्राभृतिका )-छिन्नश्रावक इति तृतीयमणुव्रतम् । (त. वा. ७, २०, ३)। मछिन्ना कालेxxx। (बृहत्क. १६८३); या ४. परद्रव्यस्य नष्टादेमहतोऽल्पस्य चापि यत् । तु यदा तदा वा क्रियते सा अच्छिन्नकालिका। अदत्तार्थस्य नादानं तत्तृतीयमणुव्रतम् ।। (ह. पु. (बृहत्क. वृ. १६८३); xxx या तु न ज्ञायते ५८, १४०)। ५. जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पयमुल्लेण कस्मिन् दिवसे विधीयते सा अच्छिन्नकालिकेति । णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे (बृहत्क. व. १६८४)। है तूसेदि ।। जो परदव्वं ण हरइ माया-लोहेण कोह- वसति के प्राच्छादन व लेपन प्रादि रूप जिस माणेण । दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्बई सो हवे तिदि- प्राभूतिका के उपलेपन प्रादि का काल (अमुक मास प्रो ॥ (कार्तिके. ३३५-३६)। ६. असमर्था ये कतु - ब तिथि प्रावि). नियत नहीं है-जब तब किया निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं जाता है-वह अच्छिन्नकालिकामाभूतिका कहनित्यमदत्तं परित्याज्यम् ।। (पुरुषा. १०६)। ७. गामे लाती है । णयरे रणे वट्ट पडियं च अहव विस्सरियं । णादाणं अज-१. अजास्ते जायते येषां नाइकूरः सति परदव्वं तिदियं तु अणुव्वयं होइ ।।(धम्मर. १४५)। कारणे । (पद्मच. ११, ४२) । २. त्रिवर्षा व्रीहयो८. अन्यपीडाकरं पाथिवादिभयवशादवशादवशपरि- बीजा अजा इति सनातनः ॥ (ह. ५.१५ त्यक्तं वा निहितं पतितं विस्मृतं वा यददत्तं ततो १ उगने के कारण-कलाप मिलने पर भी जिनके निवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम् । (चा. सा. भीतर अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव हो पृ. ५)। ६. ग्रामादौ पतितस्याल्पप्रभृतेः परवस्तूनः। जाता है, ऐसे तीन वर्ष या इससे अधिक पुराने
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अजघन्य द्रब्यवेदना २०, जैन-लक्षणावली
[अजीवकरण धान्य को अज कहते हैं।
से बन्धुवर्ग-कुटुम्बी जन-उनकी क्रीड़ानों में अजघन्य द्रव्यवेदना (ज्ञानावरणीय की)-तव्व- भी प्रफुल्लित मुख-कमल से संयुक्त होता हुआ दिरित्तमजहण्णा । (षट्खं. ४, २-४, ७६ पु. १०, चूंकि अजेय शक्ति से सम्पन्न हया था, अतएव पृ. २६६); खीणकषायचरिमसमए एगणिसेगट्ठि- उसने उनके . 'अजित' इस सार्थक नाम को दीए एगसमयकालाए चेद्विदाए णाणावरणीयस्स प्रसिद्ध किया था। २ परीषह व उपसर्ग आदि जहण्णदव्वं होदि । एदस्स जहण्णदव्वस्सुवरि प्रोक- के द्वारा नहीं जीते जाने के कारण द्वितीय ड्डुक्कड्डणमस्सिदूण परमाणुत्तरं वढिदे जहण्ण- जिनेन्द्र को प्रजित कहा गया है तथा उनके मजहण्णद्वाणं होदि । (धव. पु. १०, पृ. ३००)। गर्भवास के समय तक्रीडा में पिता के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय में एक माता को न जीत सकने के कारण भी उनके इस समयवाली एक निषेकस्थिति के अवस्थित रह जाने प्रभावशाली पुत्र को-दूसरे तीर्थकर को-अजित पर ज्ञानावरणीय कर्म की द्रव्य की अपेक्षा जघन्य कहा गया है। वेदना होती है। इस जघन्य द्रव्य के ऊपर अजिनसिद्ध-अजिनसिद्धा य पुंडरिया पमुहा । अपकर्षण और उत्कर्षण के वश एक परमाणु की (नवतत्व. ५६, प. १७७)। वद्धि के होने पर ज्ञानावरणीय के प्रकृत अजघन्य पंडरीक आदि अजिनसिद्ध हुए हैं। द्रव्यका प्रथम विकल्प होता है। तत्पश्चात् दो पर- अजीव-१. तद्विपर्ययलक्षणो (अचेतनालक्षणो) माणुओं की वृद्धि होने पर उक्त प्रजघन्य द्रव्य का । ऽजीवः। (स. सि. १-४) । २. तद्विपर्ययोऽजीद्वितीय विकल्प होता है । यह क्रम एक परमाणुसे हीन वः ॥८॥ यस्य जीवनमुक्तलक्षणं नास्त्यसौ तद्विपर्यउसके उत्कृष्ट द्रव्य तक समझना चाहिये। अपनी याद अजीव इत्युच्यते । (त. वा. १-४)। ३. तद्विअपनी कुछ विशेषताओं के साथ दर्शनावरणादि परीतः सुख-दुःख-ज्ञानोपयोगलक्षणरहितः) त्वजीवः । अन्य कर्मों की भी अजघन्य वेदना का यही क्रम है। (त. भा. हरि. व. १-४) । ४. XXX यश्चैतद्(सूत्र ७८, १०६, ११०, १२२)।
विपरीतवान् (चैतन्यलक्षणरहितः) । अजीवः स अजंगम प्रतिमा-सुवर्ण-मरकतमणिघटिता, स्फ- समाख्यातः Xxx॥ (षड्द. स. ४-९); टिकमणिघटिता, इन्द्रनीलमणिनिर्मिता, पद्मरागमणि- ५. चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः । (पंचा. का. अमृत. व. रचिता, विद्रुमकल्पिता, चन्दनकाष्ठानुष्ठिता वा १०८) । ६. तद्विलक्षणः पुद्गलादिपंचभेदः पुनरप्यअजंगमा प्रतिमा। (बोधप्रा. टी. १०)।
जीवः। (पंचा. का. जय. व. १०८)। ७. उपयोगसुवर्ण व मरकत प्रादि मणिविशेषों से निर्मित अचे- लक्षणरहितोऽजीवः (रत्नक. टी. २-५)। ८. स्यातन प्रतिमाओं को अजंगम प्रतिमा कहते हैं। दजीवोऽप्यचेतनः । (पञ्चाध्या. २-३)। ६. तद्विलक्षणः प्रजातकल्प---xxxअगीतो खलु भवे अजातो (चेतनालक्षणरहितः) पुद्गल-धर्माधर्मा-काश-कालस्वतु । (व्यव. सू. भा.गा. १६); अगीतोऽगीतार्थः खलु रूपपञ्चविधोऽजीवः । (प्रारा.सा.टी.४)। १०. यस्तु भवेदजातोऽजातकल्पः। (व्यव. सू. भा. वृ. गा. ज्ञान-दर्शनादिलक्षणो नास्ति, स पुद्गल-धर्माधर्मा
काश-काललक्षणोऽजीवः (त. वृ. श्रुत. १-४)। ११. अगीतार्थ-सूत्र, अर्थ और उभयसे रहित-कल्प अजीवः पुनस्तद्विपरीत-(चेतनाविपरीत-) लक्षणः (प्राचार) अजातकल्प कहलाता है।
(त. सुखबो. वृ. १-४)। १२. स्यादजीवस्तदन्यकः । अजित-१. यस्य प्रभावात् त्रिदिवच्युतस्य क्रीडा- (विवेकवि. ८-२५१) । स्वपि क्षीवमुखारविन्दः । अजेयशक्तिर्भुवि बन्धुवर्ग- जिसमें चेतना न पायी जाय उसे अजीव कहते हैं। श्चकार नामाजित इत्यबन्ध्यम् ॥ (बृ. स्वयं. स्तोत्र अजीवकरण-१. जीवमजीवे भावे अजीवकरणं ६) । २. परीषहादिभिर्न जित इति अजितः । तथा तु तत्थ वन्नाई। (प्राव. नि. गा. १०१६) । २. जं गर्भस्थे भगवति जननी द्यूते राज्ञा न जिता इत्यजितः। जं निज्जीवाणं कीरइ जीवप्पोगो तं तं । वन्नाइ (योगशा. ३-१४४)।
...... . रूवकम्माइ वावि अज्जीवकरणं तु ॥ (पाव. भा. १ स्वर्ग से अवतीर्ण जिस द्वितीय तीर्थकर के प्रभाव गा. १५७, पृ. ४५८) ।
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जीवकाय ]
२ जीव के प्रयोग से प्रजीव (पुद्गल) द्रव्यों के जो कुछ भी किया जाता है उसको तथा वर्ण आदि जो रूपकर्म - कुसुंभी रंग आदि का निर्माण भी किया जाता है उसको भी प्रजीवकरण कहा जाता है । प्रजीवकाय - १. अजीवकायाः धर्माधर्माकाश-पुद्गला । (त. सू. ५ - १ ) । २. अजीवाश्च ते कायाश्च ते प्रजीवकाया इति समानाधिकरणलक्षणा वृत्तिरियं वेदितव्या । (त. वा. ५, १, १ ) । ३. अजीवानां कायाः प्रजीवकायाः, शिलापुत्रकस्य शरीरमित्यभेदेऽपि षष्ठी दृष्टा तथा सुवर्णस्याङ्गुलीयकम् । अन्यत्वाशंका व्यावृत्त्यर्थो वा कर्मधारयः एवाभ्युपेयते । ( त. भा. सिद्ध. टी. ५ - १ ) । ३. प्रजीवों के कायों का अथवा अजीव ऐसे कायों का नाम जीवकाय है । वे श्रजीवकाय प्रकृत में धर्म, धर्म, आकाश और पुद्गल; ये चार द्रव्य विवक्षित हैं ।
प्रजीवकायासंयम - अजीव कायासंयमो विकटसुवर्ण- बहुमूल्य वस्त्र पात्र - पुस्तकादिग्रहणम् । ( समवा. अभय. वृ. १७) ।
मनोहर सुवर्ण श्रौर बहुमूल्य वस्त्र, पात्र एवं पुस्तक श्रादि के ग्रहण करने को प्रजीवकायासंयम कहते हैं ।
जीवक्रिया- जीवस्य पुद्गलसमुदायस्य यत् कर्मतया परिणमनं सा जीवक्रिया । ( स्थाना. श्रभय. वृ. २-६०) । श्रचेतन पुद्गलों के कर्मरूप से परिणत होने को जीवक्रिया कहते हैं ।
श्रजीव नाममंगल - १. अजीवस्य यथा श्रीमल्लाटदेशे दवरकवलनकं मंगलमित्यभिधीयते । (श्राव. हरि. वृ. पू. ४) । २. अजीवविषयं यथा लाटदेशे दवरकवलनकस्य मंगलमिति नाम । श्राव. मलय. वृ. पू. ६) ।
किसी अचेतन द्रव्य के 'मंगल' ऐसा नाम रखने को प्रजीव नाममंगल कहते हैं । जैसे-लाट देश में डोरा के वलनक का 'मंगल' यह नाम ।
जीवन सृष्टिको - एवमजीवादजीवेन वा धनुरादिना शिलीमुखादि निसृजति यस्यां सा अजीव - नैसृष्टिकी । XXX अथवा जीवे ग्रचित्तस्थण्डिलादौ श्रनाभोगादिनाऽनेषणीयं स्वीकृतमजीवं वस्त्रं पात्रं वा सूत्रव्यपेतं यथाभवत्यप्रमार्जिताद्य विधिना
२१, जैन- लक्षणावली
[ जीवविचय धर्मध्यान
निसृजति परित्यजति यस्यां सा अजीवनै सृष्टिकी । ( श्राव. टि. मल. हेम. पृ. ६४ ) | निर्जीव धनुष प्रादि से बाण आदि के निकलने रूप क्रिया को जीवन सृष्टिकी कहते हैं । अथवा स्वीकृत निर्जीव वस्त्र व पात्र, जो सूत्र के प्रतिकूल होने से अग्राह्य हैं, उन्हें सावधानी से प्रमार्जित आदि विधि के बिना ही निर्जीव शुद्ध भूमि आदि में जिस क्रिया से छोड़ा जाता है उस क्रिया का नाम अजीवनं सृष्टिकी क्रिया है । प्रजीवप्रादोषिकी क्रिया - जीवप्रादोषिकी तु क्रोधोत्पत्तिनिमित्तभूत कण्टक- शर्करादिविषया । (त. भा. सिद्ध. बृ. ६-६)।
क्रोध की उत्पत्ति के कारणभूत कण्टक व कंकड़ आदि के लगने से होने वाली द्वेषरूप क्रिया को
जीवप्रदोषिकी क्रिया कहते हैं । प्रजीवबन्ध - १. तत्राजीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षण: । ( स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ९) । २. प्रजीवविषयो बन्धः दारु - लाक्षादिलक्षणः । ( त. वृ. श्रुत. ५-२४)।
प्रचेतन लाख व काष्ठ आदि के बन्ध को जीवबन्ध कहते हैं ।
जीवमिश्रिता ( जीवमीसिया ) - १. यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शंखादिष्वेवं वदति - ग्रहो, महानयं मृतो जीवराशिरिति, तदा सा अजीवमिश्रिता । अस्या अपि सत्यामृषात्वम्, मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वात् । (प्रज्ञाप. वृ. ११, १६५ ) । २ साऽजीवमीसिया वि य जा भन्नइ उभयरासिविसया वि । वज्जित्तु विसयमन्नं एस बहुजीवरासित्ति ।। (भाषार. ६२ ) । १ जीव और अजीव राशियों का संमिश्रण होने पर भी जीवों की प्रधानता से बोली जाने वाली भाषा को जीवमिश्रिता कहते हैं। जैसे बहुत से मरे हुए श्रौर कुछ जीवित भी शंखों को एकत्रित करने पर जो उस राशि को देख कर यह कहा जाता है कि अरे ! यह कितनी जीवराशि मरण को प्राप्त हुई है, इस प्रकार की भाषा को प्रजीवमिश्रिता जानना चाहिये ।
जीवविचय धर्मध्यान - १. द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धर्म्यमजीवविषयं मतम् ॥ ( ह. पु. ५६-४४ ) । २. धर्मा
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अजीवशरण] २२, जन-लक्षणावली
[अज्ञान धर्माकाश-पुद्गलानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानाम- अज्ञ-अज्ञस्तत्त्वज्ञानोत्पत्त्ययोग्योऽभव्यादिः । (इष्टो. नुचिन्तने। (सन्मतिसू. वृ. ४ खं.)। ३. जीवभाव. प. टी. ३५)। विलक्षणानाम् अचेतननां पुदगल-धर्माधर्माकाशद्रव्या- जो तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के योग्य नहीं हैं ऐसे णामनन्तविकल्पपर्यायस्वभावानुचिन्तनमजीवविच- अभव्य प्रादि जीवों को अज्ञ कहते हैं। यम् । (कातिके. टीका ४८२)।
प्रज्ञातभाव-१. मदात् प्रमादाद् वा अनवबुध्य पुदगल, धर्म और अधर्मादि अचेतन द्रव्यों के अनन्त- प्रवृत्तिरज्ञातम् । (स. सि. ६-६) । २. मदात्प्रमापर्यायात्मक स्वभाव का चिन्तवन करना; यह दाद्वाऽनवबुध्य प्रवृत्तिरज्ञातम् ॥४॥ सुरादिपरिणामअजीवविचय धर्मध्यान है।
कृतात् करणव्यामोहकरात् मदाद्वा मन:प्रणिधानअजीवशरण-प्राकारादि अजीवशरणम् । (त. विरहलक्षणात् प्रमादाद्वा व्रज्यादिष्वनवबुध्य प्रवृत्तिवा. ६, ७, २)।
रज्ञातमिति व्यवसीयते । (त. वा. ६, ६, ४) । प्राकार और दुर्ग प्रादि लौकिक अजीवशरण (निर्जीव ३. अपरः एतद्विपरीतः (ज्ञानादुपयुक्तस्यात्मनो यो रक्षक) माने जाते हैं।
भावस्तद्विपरीतः), स खल्वज्ञातभावोऽनभिसंधाय अजीवसंयम-१. अजीवरूपाण्यपि पुस्तकादीनि प्राणातिपातकारीत्यत्रापि पूर्ववदेब कर्मबन्धविशेषो दुःषमादोषात् प्रज्ञाबलहीनशिष्यानुग्रहार्थं यतनया । दृष्टव्यः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-७)। ४. मदेन प्रतिलेखना-प्रमार्जनापूर्वं धारयतोऽजीवसंयमः । प्रमादेन वा अज्ञात्वा हननादौ प्रवर्तनमज्ञातमिति (योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। २. अजीवरूपाण्यपि भण्यते । (त. वृ. श्रुत. ६-६)।
दीनि दुःषमादिदोषात्तथाविधप्रज्ञाऽऽयुष्क- १मद या प्रमाद से जो बिना जाने प्रवृत्ति हो जाती श्रद्धा-संवेगोद्यम - बलादिहीनाद्यकालीनविनेयजनानु- है उसे अज्ञातभाव कहते हैं।. ग्रहाय प्रतिलेखनाप्रमार्जनापूर्व यतनया धारयतो. अज्ञान-१. ज्ञानावरणकर्मण उदयात् पदार्थानवऽजीवसंयमः। (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३-४६, बोधो भवति तदज्ञानमौदयिकम्। (स. सि. २-६)। पू. २८)।
२. प्रज्ञानं त्रिविधं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गं दुःषमा काल के प्रभाव से बुद्धिबल से हीन शिष्यों चेति ॥६॥xxxज्ञानाज्ञानविभागस्तु मिथ्यात्वके अनुग्रहार्थ जो अचेतन पुस्तक प्रादि प्रागमविहित कर्मोदयानुदयापेक्षः। (त. वा. २, ५,६); ज्ञानावरणोहैं उनका रजोहरण प्रादि से प्रतिलेखन व प्रमार्जन , दयादज्ञानम् ॥५॥ ज्ञस्वभावस्यात्मनः तदावरणकरके यत्नाचारपूर्वक धारण करने को अजीवसंयम कर्मोदये सति नावबोधो भवति तदज्ञानमौदयिकहते हैं।
कम्, घनसमूहस्थगितदिनकरतेजोऽनभिव्यक्तिवत् । अजीवस्पर्शनक्रिया-अजीवस्पर्शनक्रिया मृगरोम- (त. वा. २, ६, ५) । ३. यथायथमप्रतिभासितार्थकुतव-पट्टशाटक-नील्युपधानादिविषया । (त. भा. प्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम् । (धव. पु. १, पृ.३६४)। सिद्ध. वृ. ६-६)।
४. ज्ञानमेव मिथ्यादर्शनसहचरितमज्ञानम्, कुत्सितमृगरोम, कुतव(कुतुव-घी तेल प्रादि रखनेका पात्र त्वात् कार्याकरणादशीलवदपुत्रवद्वा । (त. भा. विशेष, अथवा अनाज मापने का मापविशेष- सिद्ध.व. २-५); अज्ञानग्रहणान्निद्रादिपंचकमाक्षिकुडव), पाटा, साड़ी, नील और उपधि आदि अजीव प्तम्, यतो ज्ञान-दर्शनावरण-दर्शनमोहनीयादज्ञानं पदार्थों के स्पर्श करने की क्रिया को अजीवस्पर्शन- भवति । xxxअज्ञानमेकभेदं ज्ञान-दर्शनावरणक्रिया कहते हैं।
सर्वघातिदर्शनमोहोदयादज्ञानमनवबोधस्वभावमेकरू - अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया-यदजीवेषु मद्यादिष्व- पम् ! (त. भा. सिद्ध. वृ.२-६)। ५. किमज्ञानम् ? प्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया। मोह-भ्रम-संदेहलक्षणम् । इष्टोप. टी. २३)। (स्थाना. अभय. वृ. २-६०)।
२ मिथ्यात्व के उदय के साथ विद्यमान ज्ञान को अचेतन मद्य आदि के सेवन का त्याग नहीं करने से भी प्रज्ञान कहा जाता है जो तीन प्रकारका हैजो कर्मबन्ध होता है उसे अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया मत्यज्ञान, ताज्ञान और विभंग । ज्ञानावरण कर्म कहते हैं।
के उदय से वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न होने को
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प्रज्ञानमिथ्यात्व] २३, जैन-लक्षणावली
[अणिमा भी प्रज्ञान कहते हैं।
गमोऽस्तीत्यज्ञानिकाः, अथवा प्रज्ञानेन चरन्ति प्रज्ञान मिथ्यात्व-विचारिज्जमाणे जीवाजीवादि- दीव्यन्ति वा प्रज्ञानिकाः, अज्ञानमेव पुरुषार्थसाधनमपयत्था ण संति णिच्चाणिच्चवियप्पेिहि, तदो सव्व- भ्युपयन्ति, न खलु तत्त्वतः कश्चित् सकलस्य वस्तुनो मण्णाणमेव, णाणं णत्थि ति अहिणिवेसो अण्णाण- वेदितास्तीति । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१)। मिच्छत्तं । (धव. पु. ८, पृ. २०)।
जो प्रज्ञान को स्वीकार करते हैं, अथवा प्रज्ञानवस्तुस्वरूप का विचार करने पर जीवाजीवादि पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए सर्वज्ञ के सम्भव न होने से पदार्थ न नित्य सिद्ध होते हैं और न अनित्य ही अज्ञान को ही पुरुषार्थ का साधक मानते हैं, वे अज्ञासिद्ध होते हैं। इसलिए सब अज्ञान ही है, ऐसे निक कहे जाते हैं। अभिनिवेश का नाम अज्ञान मिथ्यात्व है। अञ्जलिमुद्रा-उत्तानो किञ्चिदाकुञ्चितकरशाखौ प्रज्ञानपरोषहजय-१. अज्ञोऽयं न वेत्ति पशुसम पाणी विधारयेदिति अञ्जलिमुद्रा। (निर्वाणक. इत्येवमाद्यधिक्षेपवचनं सहमानस्य परमदुश्चरतपो- पृ. ३३)। ऽनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेऽद्यापि ज्ञानातिशयो हाथों को ऊँचा उठा कर और अंगुलियों को कुछ नोत्पद्यते इति अनभिसंदधतोऽज्ञानपरीषहजयोऽव- संकुचित करके दोनों हाथों के बाँधने को अञ्जलिगन्तव्यः । (स. सि. E-६)। २. अज्ञानावमान- मुद्रा कहते हैं। ज्ञानाभिलाषसहनमज्ञानपरीषहजयः ॥२७॥ अज्ञोऽयं अटट (अडड)-१.xxx तं पि गुणिदव्वं । न किंचिदपि वेत्ति पशुसम इत्येवमाद्यधिक्षेपवचनं चउसीदीलक्खेहि अडडं णामेण णिद्दिट्ठ। (ति. प. सहमानस्याध्ययनार्थग्रहण-पराभिभवादिष्वसक्तबद्धे- ४-३००)। २. चोरासीई अडडंगसहस्साइं से एगे श्चिरप्रवजितस्य विविघतपोविशेषभराक्रान्तमूर्तेः सक- अडडे । (अनुयो. सू. १३७) । ३. चतुरशीत्यडडाङ्गलसामर्थ्याप्रमत्तस्य विनिवृत्तानिष्टमनोवाक्कायचेष्ट- शतसहस्राण्येकमडडम् । (ज्योतिष्क. मलय. व. स्याद्यापि में ज्ञानातिशयो नोत्पद्यते इत्यनभिसंदधतः २-६६)। प्रज्ञानपरीषहजयोऽवगन्तव्यः । (त. वा. ६, ६,२७)। १ चौरासी लाख अटटांगों का एक पटट होता है। ३. ज्ञानप्रतिपक्षेणाप्यज्ञानेनागमशून्यतया परीषहो अटटाङ्ग-१. तुडिदं चउरासीदिहदं अडडंगं होदि भवति, ज्ञानावरणक्षयोपशमोदयविजृम्भितमेतदिति xxxi(ति.प. ४-३००)। २. चउरासीइं तुडियस्वकृतकर्मफलभोगादपैति तपोऽनुष्ठानेन वेत्येवमा- सयसहस्साइं से एगे अडडंगे। (अनुयो. सू. १३७)। लोचयतोऽज्ञानपरीषहजयो भवति । (त. भा. हरि. ३. चतुरशीतिमहात्रुटितशतसहस्राण्येकमडडाङ्गम् । व सिद्ध. वृ. ६-६)। ४. पूर्वेऽसिधन् येन किलाशु (ज्योतिष्क. मलय. वृ. २-६९)। तन्मे चिरं तपोऽभ्यस्तवतोऽपि बोधः । नाद्यापि १ चौरासी त्रुटितों का एक अटटाङ्ग होता है। बोभोत्यपि तूच्यकेऽहं गौरित्यतोऽज्ञानरुजोऽपसत् । अट्टालक-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः । (अन. प. ६-१०६)। ५. यो मुनिः सकल- (जीवाजी. मलय. वृ. ३, १, ११७); प्राकारस्योशास्त्रार्थसुवर्णपरीक्षाकषपट्टससानधिषणोऽपि मूर्खर- पर्याश्रयविशेषः । (जीवाजी. मलय.वृ. ३,२, १४०)। सहिष्णुभिर्वा मूर्योऽयं बलीवर्द इत्याद्यवक्षेपवचनमा- प्राकार (कोट) के ऊपर नौकरों के रहने के लिए प्यमानोऽपि सहते, अत्युत्कृष्टदुश्चरतपोविधानं च जो स्थानविशेष बनाये जाते हैं उन्हें अट्टालक विधत्ते, सदा अप्रमत्तचेताश्च सन् ब्रह्मचर्यवर्चसं नो- कहते हैं। पेक्षते स मुनिरज्ञानपरीषहजयं लभते । (त. व. श्रुत. अरिणमा-१. अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिद्दे पवि.
सिदूण तत्थेव । विकरदि खंधाबारं णिएसमवि १ 'यह अज्ञ है, पशु है' इत्यादि तिरस्कारपूर्ण वचनों चक्कवट्टिस्स ॥(ति. प. ४-१०२६)। २. अणुशरीरको सहते और परम दुश्चर तपश्चरण करते हुए भी विकरणमणिमा । विसच्छिद्रमपि प्रविश्याऽऽसित्वा विशिष्ट ज्ञान के उत्पन्न न होने पर उसके लिए तत्र चक्रवर्तिपरिवारविभूति सृजेत् । (त. वा. ३. संक्लेश नहीं करना, अज्ञानपरीषहजय है। ३६, पृ. २०२; चा. सा. पृ. ६७)। ३. तत्थ महाप्रज्ञानिक-देखो प्राज्ञानिक । अज्ञानमेषामभ्युप- परिमाणं सरीरं संकोडिय परमाणुपमाणसरीरेण
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अणु] २४, जैन-लक्षणावली
[अणव्रत अवट्ठाणमणिमा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७५)। अणुच्छेद-परमाणुगयएगादिदव्वसंखाए अण्णेसि ४. अणोः कायस्य करणं अणिमा। (प्रा. योगिभ, दव्वाणं संखावगमो अणुच्छेदो णाम, अथवा पोग्गलाटी. ६) । ५. अणुत्वमणुशरीरविकरणं येन गासादीणं णिविभागछेदो अणुच्छेदो णाम । (धव. विसच्छिद्रमपि प्रविशति, तत्र च चक्रवर्तिभोगानपि पु. १४, पृ. ४३६)। भुङ्क्ते । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। ६. अणु- परमाणुगत एक आदि द्रव्यसंख्याके द्वारा अन्य द्रव्यों शरीरता यथा विसच्छिद्रमपि प्रविशति, तत्र च चक्र- की संख्या के जानने को अणुच्छेद कहते हैं, अथवा वर्तिभोगानपि भुङ्क्ते ।(प्रव. सारो. वृ. गा.१६४५)। पुद्गल व आकाश प्रादि के निविभाग छेद का नाम ७. सूक्ष्मशरीरविधानमणिमा । अथवा विसच्छिद्रेऽपि अणुच्छेद है। प्रविश्य चक्रवर्तिपरिवारविभूतिसर्जनमणिमा। (त. अणुतटिकाभेद-से कि तं अणुतडियाभेदे ? जण्णं वृत्ति श्रुत. ३-३६)।
अगडाण बा तडागाण वा दहाण वा नदीण वा वावीण २ अत्यन्त सूक्ष्म शरीररूप विक्रिया करने को अणिमा वा पुर्वखरिणीण वा दीहियाण वा गुंजलियाण वा सराण ऋद्धि कहते हैं। इस ऋद्धि का धारक साधु कमल- वा सरसराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतियाण नाल में प्रवेश करके उसके प्रभाव से वहाँ पर चक्रवर्ती वा अणुतडियामेदे भवति, से तं अणुतडियाभेदे । के परिवार व विभूति की भी रचना कर सकता है। (प्रज्ञाप. ११-१७०, पृ. २६६)। अणु--देखो परमाणु । १. प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादि- कूप, तडाग, ह्रद, नदी, बावड़ी, पुष्करिणी, पर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः। (स. दीपिका, गुंजालिका (वक्र नदी), सर, सरःसर, सर:सि. ५-२५) । २. प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्यायप्र- पंक्ति और सरःसरपंक्ति; इनका अणुतटिकाभेद सवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्ते इत्यणवः ॥१॥ प्रदेशमात्र- (इक्षु-त्वक् के समान) होता है। यह शब्दद्रव्यों के भाविभिः स्पर्शादिभि: गुणैस्सततं परिणमन्ते इत्येवम् पांच भेदों में चौथा है । अण्यन्ते शब्द्यन्ते ये ते अणवः सौम्यादात्मादयः अणुव्रत-१. प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकामआत्ममध्याः प्रात्मान्ताश्च । (त. वा. ५, २५, १)। मूछेभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं ३. xxx तत्राबद्धाः किलाणवः ॥ (योगशा. भवति । (रत्नक. ३-६)। २. पाणवध-मुसावादास्वो. विव. १-१६, पृ. ११३)। ४. प्रदेशमात्रभा- दत्तादाण-परदारगमणेहिं । अपरिमिदिच्छादो वि अ विनां स्पर्शादिपर्यायाणां उत्पत्तिसामोन परमागमे अणुव्वयाइं विरमणाइं॥(भ.पा. २०८०)। ३. देशतो अण्यन्ते साध्यन्ते कार्यलिङ्ग विलोक्य सद्रूपतया विरतिरणुव्रतम् । (स. सि. ७-२; त. भा. सि. वृ. ७, प्रतिपद्यन्ते इत्यणवः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२५)। २)। ४. हिंसादेर्देशतो विरतिरणुव्रतम् । (त. वा. ५. प्रदेशमात्रभाविभिः स्पर्शादिभिर्गुणैः सततं परि- ७, २, २)। ५. एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुणमन्त इत्येवमण्यन्ते शब्द्यन्ते ये ते अणवः । (त. व्रतम् । (त. भा. ७-२)। ६. अणुव्वयाइं थूलगपाणिसुखबो. व. ५-२५)।
वहविरमणाईणि । (श्रा. प्र. १०६) । ७. अणूनि १ जो प्रदेश मात्र में होनेवाली स्पर्शादि पर्यायों के च तानि व्रतानि चाणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातादिउत्पन्न करने में समर्थ हैं, ऐसे उन आगम निर्दिष्ट विनिवृत्तिरूपाणि । (श्रा. प्र. टी. ६)। ८. देशपुद्गल के अविभागी अंशों को अणु कहा जाता है। तो हिंसादिभ्यो विरतिरणुव्रतम् । (त. श्लो. ७-२; अणुचटन-१. अणुचटनं सन्तप्तायःपिण्डादिष्वयो- त. वृ. श्रुत. ७-२)। ६. विरतिः स्थूलहिंसादिघनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फूलिङ्गनिर्गमः । (स. सि. दोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् । (म. पु. ३६-४)। धूल५-२४; त.वा. ५, २४, १४; कार्तिके. वृ. २०६;त, प्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि पञ्च । (धर्मसुखबोध वृत्ति ५-२४)। २. अतितप्तलोहपिण्डादिषु बि.३-१६)। ११. विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गद्रुघणादिभिः कुटयमानेषु अग्निकणनिर्गमनं अणुचट- कृतकारितानुमतः। क्वचिदपरेऽप्यननुमतः पञ्चाहिंसानमुच्यते । (त. वृ. श्रुत. ५-२४)।
द्यणुव्रतानि स्युः ॥ (सा. घ. ४-५) । १२. विरतिः १ अग्नि से सन्तप्त लोहपिण्ड को घनों से पीटने स्थूलहिंसादेद्विविध-त्रिविधादिना। अहिंसादीनि पञ्चापर जो स्फुलिंग निकलते हैं उन्हें अणचटन कहते हैं। णुव्रतानि जगदुर्जिनाः ।। (योगशा. २-१८)। १३.
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श्रण्ड ]
देशतो विरतिः पञ्चाणुव्रतानि ॥ ( त्रि.श. पु. ख. १, १, १८८ ) । १४. अणूनि लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि । (सूत्रकृ. वृ. २, ६, २) । १५. तत्र हिंसानृतस्तेया ब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् । देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ।। ( पञ्चाध्यायी २-७२४; लाटीसं. ४-२४२) ।
२५, जैन - लक्षणावली
१ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन स्थूल पापों के त्याग को अणुव्रत कहते हैं ।
अण्ड - १. यन्नखत्वक्सदृशमुपात्तकाठिन्यं शुक्रशोणितपरिवरणं परिमण्डलं तदण्डम् । ( स. सि. २, ३३) । २. शुक्र- शोणितपरिवरणमुपात्तकाठिन्यं नखत्वक्सदृशं परिमण्डलमण्डम् । (त. वा. २, ३३, २; त. इलो. २-३३) । ३. यत्कठिनं शुक्र - शोणितपरि वरणं वर्तुलं तदण्डम् । (त. सुखबोध वृ. २-३३) । ४. यच्छुक्र-लोहितपरिवरणं परिमण्डलमुपात्तकाठिन्यं नखछल्लीसदृशं नखत्वचासदृक्षं तदण्डमित्युच्यते । (त. वृ. श्रुत. २-३३) ।
१ गर्भाशयगत शुक्र- शोणित का श्रावरण करने वाले नख की त्वचा के समान वर्तुलाकार कठिन द्रव्य को अण्ड कहते हैं ।
प्रण्डज - ग्रण्डे जाता अण्डजाः । (स.सि. २-३३; त. वा. २, ३३, ३ ; त. श्लो. २-३३) । अण्डे में उत्पन्न हुए प्राणी श्रण्डज कहे जाते हैं । अण्डर -- जंबूदीवं भरहो कोसल - सागेद-तग्घराई वा । खंधंडरग्रावासा पुलविसरीराणि दिट्ठता ॥ (गो. जी. १९४ ) ।
जिस प्रकार जंबूद्वीप के भीतर भरतक्षेत्रादि हैं उसी प्रकार स्कन्धों के भीतर अण्डर श्रादि निगोद जीवों के उत्पत्तिस्थान विशेष ) हैं । अण्डाधिक - [ अण्डे कर्मवशादुत्पत्त्यर्थमाय आगमनं अण्डायः, अण्डायो विद्यते येषां ते ] ग्रण्डायिकाः सर्पगृहकोकिलाः ब्राह्मण्यादयः । (त. वृ. श्रुत. २ - १४)। उत्पत्ति के लिए जिन प्राणियों का श्रागमन कर्मवश ण्डे में होता है, ऐसे सर्पादि प्राणी प्रण्डायिक कहे जाते हैं।
तद्गुरण ( वस्तु ) - न विद्यन्ते शब्दप्रवृत्तिनिमित्तास्ते जगत्प्रसिद्धा जाति गुणक्रिया द्रव्यलक्षणा गुणा विशेषणानि यस्मिन् वस्तुनि तद्वस्तु तद्गुणम् । (त. वृ. श्रुत. १-५ ) ।
जिस वस्तु
में शब्दप्रवृत्ति के निमित्तभूत लोक
ल. ४
[ श्रतिक्रम प्रसिद्ध जाति, गुण, क्रिया व द्रव्य स्वरूप गुण-विशेषण - नहीं रहते वह श्रतद्गुण कही जाती है । अतद्भाव - १. सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव पज्जओ ति वित्थारो । जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अब्भावो ।। (प्रव. सा. २ - १५ ) । २. एकस्मिन् द्रव्ये यद् द्रव्यं गुणो न तद् भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद् द्रव्यस्य गुणरूपेण, गुणस्य वा द्रव्यरूपेण, तेनाभवनं सोऽतद्भावः । ( प्रव. श्रमृ. वृ. २- १६ ) । द्रव्य, गुण और पर्याय जो सत् हैं; इनके सत्त्व का विस्तार द्रव्यादि रूप से तीन प्रकार होता है । द्रव्य में गुण-रूपता और गुण में जो द्रव्यरूपता का प्रभाव है, इसका नाम श्रतद्भाव है । श्रतिक्रम - १. परिमितस्य दिगवधेः श्रतिलङ्घनमतिक्रमः । ( स. सि. ७-३०; त. वा. ७ - ३० ) । २. आहाकम्मणिमंतण पडिसुणमाणे इक्कमो होइ । (पि.नि. १८२; व्यव. सू. भा. गा. १-४३ ) । ३. यथा कश्चिज्जरद्गवः महासस्यसमृद्धिसम्पन्नं क्षेत्रं समवलोक्य तत्सीमसमीपप्रदेशे समवस्थितस्तत्प्रति स्पृहां संविधत्ते सोऽतिक्रमः । ( प्राय. चू. कृ. १४६ ) । ४. क्षतिं मनः शुद्धिविधेरतिक्रमम् XX X 1 (द्वात्रि. ६) । ५. अतिक्रमणं संयतस्य संयतसमूहमध्यस्थस्य विषयाभिकाङ्क्षा । (मूला. वृ. ११ - ११) । ६. अतिक्रमणं प्रतिश्रवणतो मर्यादाया उल्लङ्घनमतिक्रमः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. २५१) । ७. कोऽपि श्राद्धो नालप्रतिबद्धो ज्ञातिप्रतिबद्धो गुणानुरक्तो वा श्राधाकर्म निष्पाद्य निमंत्रयति - यथा भगवन् युष्मन्निमित्तं श्रस्मद्गृहे सिद्धमन्नमास्ते इति समागत्य प्रतिगृह्यतां इत्यादि तत्प्रतिशृण्वति प्रभ्युपगच्छति प्रतिक्रमो नाम दोषो भवति । स च तावद् यावद् उपयोगपरिसमाप्तिः । किमुक्तं भवति ? - यत्प्रतिशृणोति प्रतिश्रवणानन्तरं चोत्तिष्ठति पात्राण्युद्गृह्णाति उद्गृह्य च गुरोः समीपमागत्योपयोगं करोति, एष समस्तोऽपि व्यापारोऽतिक्रमः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १-४३, पृ. १७ ) ।
१ दिग्व्रत में जो दिशाओं का प्रमाण स्वीकार किया गया है उसका उल्लंघन करना, यह एक दिग्वत का अतिक्रम नामका प्रतिचार है । ४ मानसिक शुद्धि के प्रभाव को प्रतिक्रम कहते हैं । ७ प्राधाकर्म करके -- साधु के निमित्त भोजन बनाकर - निमंत्रण देने पर यदि साधु उक्त निमंत्रणवचन को सुनता है व
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प्रतिक्रान्त प्रत्याख्यान ]
उठकर पात्र आदि को ग्रहण करता हुआ गुरुके समीप श्राकर उपयोग करता है तो उसकी इस प्रकार की प्रवृत्ति प्रतिक्रम दोष से दूषित होने वाली है । प्रतिक्रान्त प्रत्याख्यान - १. पज्जोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए । गुरुवेयावच्चेणं तवस्तिगेलन्नयाए व । सो दाइ तवोकम्मं पडिबज्जइ तं श्रइच्छिए काले । एयं पच्चक्खाणं इक्कतं होइ नायव्वं ।। (स्थानांग प्रभय. वृ. १० - ७४८, पृ. ४७२ ) । २. प्रक्कतं णाम पज्जोसवणाए तवं तेहि कारणेहिं ण कीरति गुरु-तवस्सि गिलाणकारणेहिं सो अइक्कतं करेति तहेव विभासा । (श्रा. चू. आव. को. २) । १ पर्युषणा के समय गुरु, तपस्वी और ग्लान ( रोगी) साधु की वैयावृत्त्य श्रादि करने के कारण जिस स्वीकृत तपश्चरण को नहीं कर सके व पीछे यथेच्छित समय में उसे करे, इसे प्रतिक्रान्त प्रत्याख्यान कहते हैं ।
२६, जैन - लक्षणावली
प्रतिचार ( श्रविचार ) - १. आहाकम्म निमंतण X X x गहिए तइओ । ( पिंडनि. गा. १८२ ; व्यव. सू. भा. १ - ४३ ) । २. प्रतिचारो व्यतिक्रमः स्खलि. इत्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. ७ -१८ ) । ३. सुरावाण-मांसभक्खण-कोह - माण- माया लोह-हस्स- रइ[रइ- ] सोग-भय-दुगुछित्थि पुरिस - णवंसयवेयाऽपरिच्चागो श्रदिचारो । ( धव. पु. ८, पृ. ८२ ) । ४. अतिचारा: असदनुष्ठानविशेषाः । ( श्रा. प्र. टी. ८६) । ५. अतिचरणान्यतिचाराः चारित्रस्खलन - विशेषाः, संज्वलनानामेवोदयतो भवन्ति । (श्राव. हरि. वृ. नि. गा. ११२ ) । ६. XX X प्रतिचारो - विषयेषु वर्तनम् । (द्वात्रि. ६) । ७. प्रतिचारो विराधना देशभङ्ग इत्येकोऽर्थः । ( धर्मविन्दु वृ. १५३ ) । ८. अतिचारः व्रतशैथिल्यम् ईषदसंयमसेवनं च । ( मूला. वृ. ११ - ११ ) । ६ ( पुनविवरोद राऽन्तरास्यं संप्रवेश्य ग्रासमेकं समाददामीत्यभिलाषकालुष्यमस्य व्यतिक्रमः । ) पुनरपि तद्वृत्तिसमुल्लंघनमस्याति - चार: । ( प्राय. चू. वृ. १४६ ) । १०. गृहीते त्वाधाकर्मणि तृतीयोऽतीचारलक्षणो दोषः । स च तावद्यावत् वसतावागत्य गुरुसमक्षमालोच्य स्वाध्यायं कृत्वा गले तदाधाकर्म्म नाद्यापि प्रक्षिपति । ( पिण्डनि. मलय. वू. १८२ ) । ११. प्रतिचरण ग्रहणतो व्रतस्यातिक्रमणं प्रतीचार: । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १ - २५१ ) ; आधाकर्मणि गृहीते उपलक्षणमेतत् ।
-
[ अतिथि
यावद् वसतौ समानीते गुरुसमक्षमालोचिते भोजनार्थमुपस्थापिते मुखे प्रक्षिप्यमाणेऽपि यावन्नाद्यापि गिलति तावत् तृतीयोऽतिचा रलक्षणो दोषः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १-४३) । १२. अतिचारो मालिन्यम् । ( योगशा स्वो विव. ३-८८ ) | १३. अतीत्य चरणं ह्यतिचारो माहात्म्यापकर्षोऽशतो विनाशो वा । (भ. प्रा. मूला. १४४; तपस्यनशनादौ सापेक्षस्य तदंशभंजनमतिचारः । ( भ. प्रा. मूला. ४८७ ) । १४. सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभंजनम् । (सा. ध. ४ - १७; धर्मसं. श्री. ६-११) । १५. अतिचरणमतिचारो मूलोत्तरगुणमर्यादातिक्रमः । ( धर्मरत्नप्र. स्वो वृ. १०४ ) ।
१ श्रधाकर्म करके दिये गये निमंत्रण को स्वीकार करना प्रतिचार है । ३ मद्यपान, मांसभक्षण एवं क्रोध आदि का परित्याग नहीं करना प्रतिचार है । ४ असत् श्रनुष्ठानविशेष का नाम प्रतिचार है । ५ चारित्र सम्बन्धी स्खलनों (विराधना) का नाम प्रतिचार है । ६ विषयों में प्रवर्तना प्रतिचार है । ७ व्रत के देशतः भंग होने का नाम प्रतिचार है । ८ व्रत में शिथिलता अथवा कुछ असंयम सेवन का नाम प्रतिचार है । इत्यादि । श्रतिथि १. संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथि: अनियतकालगमन इत्यर्थः । ( स. सि. ७-२१; चा. सा. पृ. १३; त. सुखबोध वृ. ७ - २१) । २. संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः ॥ ११॥ चारित्रलाभबलोपेतत्वात् संयममविनाशयन् प्रततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्ति इत्यतिथिः । (त. वा. ७-२१) । ३. भोजनार्थं भोजनकालोपस्थायी अतिथिरुच्यते, श्रात्मार्थनिष्पादिताहारस्य गृहिणो व्रती साधुरेवातिथिः । ( श्रा. प्र. टी. गा. ३२६; त. भा. हरि. ६. ७-१६) । ४. स संयमस्य वृद्ध्यर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः । ( ह. पु . ५६ - १५८ ) । ५. पंचेन्द्रियप्रवृत्त्याख्यास्तिथयः पञ्च कीर्त्तिताः । संसाराश्रयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् ॥ ( उपासका ८७८ ) । ६. स्वयमेव गृहं साघुर्योऽत्रातति संयतः । अन्वर्थवेदिमि प्रोक्तः सोऽतिथिर्मुनिपुङ्गवैः ।। ( सुभा. र. सं. ८१७; अमित श्र. ६ - ६५ ) । ७. तथा न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदैकाकारानुष्ठानतया तिथ्यादि-दिनविभागो यस्य सोऽतिथिः । (योगशा. स्वो विव.
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अतिथिपूजन २७, जैन-लक्षणावली
[अतिथिसंविभाग १-५३, पृ. १५६; धर्मबि. व. ३६; श्राद्धगुणवि. तिथिरिति वा, तस्मै संविभागः प्रतिश्रयादीनां यथा१६, पृ. ४५)। ८. ज्ञानादिसिद्धयर्थतनुस्थित्यर्था- योग्यमतिथिसंविभागः। ( त. इलो. ७-२१)। न्नाय यः स्वयम् । यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य ६. तिविहे पत्तम्हि सया सद्धाइगुणेहिं संजुदो णाणी। सोऽतिथिः । (सा. घ. ५-४२)। ६. तिथि-पर्वोत्स- दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहिं संजुत्तो । वाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजा- सिक्खावयं च तदियं तस्स हवे सव्वसिद्धि-सोक्खयरं। नीयात् ॥ (सा. घ. टीका ५-४२ व योगशा. दाणं चउव्विहं पि य सव्वे दाणाणं सारयरं ।। स्वो. विव. प. १५६ में उद्धतः धर्मसं. स्वो. व. १, (कातिके. ३६०-६१) । ७. अतिथिर्भोजनार्थं १४,६)। १०. विद्यते तिथिर्यस्य सोऽतिथिः पात्रतां भोजनकालोपस्थायी स्वार्थं निर्वतिताहारस्य गृहिगतः। (भावसं. वाम. ५००)। ११. न विद्यते वतिनः साधूरेवातिथिः । तस्य संविभागोऽतिथिसंवितिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः । अथवा भागः । (त. भा. सिद्ध.व. ७-१६)। ८. विधिना संयमलाभार्थमतति गच्छत्यूद्दण्डचर्या करोतीत्यतिथि- दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय । स्वपरानुयतिः। (चा. प्रा. टी. २५) । १२. संयममविराध- ग्रहहेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः ।। (पु. सि. यन् अतति भोजनार्थ गच्छति यः सोऽतिथिः । अथवा १६७) । ६. असणाइचउवियप्पो पाहारो संजयाण
विद्यते तिथिः प्रतिपद्-द्वितीया-तृतीयादिका यस्य दादव्वो। परमाए भत्तीए तिदिया सा वुच्चए सोऽतिथि:, अनियतकालभिक्षागमनः। (त. व. श्रुत. सिक्खा ॥ (धर्मर. १५५)। १० पाहार-पानौषधि७-२१)।
संविभागं गृहागतानां विधिना करोतु । भक्त्याऽति१ संयम की विराधना न करते हए भिक्षा के लिए थीनां विजितेन्द्रियाणां व्रतं दधानोऽतिथिसंविभाघर घर घूमने वाले साधु को अतिथि कहते हैं। गम् ।। (धर्मप. १६-६१) । ११. चतुर्विधो वराहारो अथवा जिसके तिथि-पर्व प्रादि का विचार न हो उसे भी अतिथि कहते हैं।
गृहमेधिनाम् ॥ (सुभाषित. ८१६) । १२. अशनं पेयं अतिथिपूजन-चतुर्विधो वराहारः संयतेभ्यः प्रदी- स्वाद्यं खाद्यमिति निगद्यते चतुर्भेदम् । अशनमतिथेयते । श्रद्धादिगुणसम्पत्त्या तत् स्यादतिथिपूजनम् ।। विधेयो निजशक्त्या संविभागोऽस्य ॥ (अमित. श्रा. (वरांग. १५-१२४) ।
६-६६)। १३. दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनश्रद्धा आदि गुणों से युक्त श्रावक जो संयत (साधु) सद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ।। जनों को चार प्रकारका उत्तम आहार देता है, (योगशा. ३-८७)। १४. अतिथेः सङ्गतो निर्दोषो उसका नाम अतिथिपूजन (अतिथिसंविभाग) है। विभाग: पश्चात्कृतादिदोषपरिहारायांशदानरूपोऽतिअतिथिसंविभाग-१. अतिथये (देखो 'अतिथि') थिसंविभागस्तद्रूपं व्रतमतिथिसंविभागवतम् । पाहा. संविभागोऽतिथिसंविभागः। (स. सि. ७-२१; त. रादीनां च न्यायाजितानां प्रासुकैषणीयानां कल्पनीवा. ७, २१, १२; चा. सा. पु. १४)। २. अतिथि- यानां देश-काल-श्रद्धा-सत्कारपूर्वकमात्मानुग्रहबद्धया संविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्न-पाना- यतिभ्यो दानमतिथिसंविभागः । (योगशा. स्वो. विव. दीनां द्रव्याणां देश-काल-श्रद्धा-सत्कारक्रमोपेतं परया- ३-८७)। १५. अतिथयो वीतरागधर्मस्थाः साधवः ऽऽत्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति । (त. भा. साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाश्च, तेषां न्यायागत७-१६)। ३. नायागयाण अन्नाइयाण तह चेव कल्पनीयादिविशेषणानामन्न-पानादीनां संगतवृत्त्या कप्पणिज्जाणं। देसद्ध-सद्ध-सक्कारकमजुयं परम- विभजनं वितरणं अतिथिसंविभागः । (धर्मबि. मनि. भत्तीए । आयाणुग्गहबुद्धीइ संजयाणं जमित्थ दाणं बृत्ति १५१) । १६. व्रतमतिथिसंविभागः पात्रवितु । एयं जिणेहि भणियं गिहीण सिक्खावयं चरिम। शेषाय विधिविशेषेण । द्रव्यविशेषवितरणं दातृविशे(श्रा. प्र. ३२५-२६)। ४. स संयमस्य वृद्धयर्थमत- षस्य फलविशेषाय ॥ (सा. ध. ५-४१)। १७. तीत्यतिथिः स्मृतः । प्रदानं संबिभागोऽस्मै (अतिथये) आहारबाह्मपात्रादेः प्रदानमतिथेच्दा। उदीरितं यथाशुद्धिर्यथोदितम् ॥ ( ह. पु. ५८-१५८ )। तदतिथिसंविभागवतं जिनैः ॥ (धर्मसं. स्वो. २, ४०, ५. संयममविराधयन्नततीत्यतिथिः, न विद्यतेऽस्य १४) । १८. साहूण सुद्धदाणं भत्तीए संविभागवयं ।
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अतिपरिणामक] २८, जैन-लक्षणावली
[अतिभारारोपण (गु. गु. ष. गा. ७) । १६. संविभागोऽतिथीनां हि वि भारामो ऊणो कीरइ, हल-सगडेसु वि वेलाए कर्तव्यो निजशक्तितः । स्वेनोपाजितवित्तस्य तच्छि- चेव मंचइ । आस-हत्थीसू वि एस चेव विही। क्षाव्रतमन्त्यजम् ।। (पूज्य. उ. ३४) । २०. संविभा- (श्रा. प्र. टीका २५८)। गोऽतिथीनां यः किञ्चिद्विशिष्यते हि सः । न विद्यते- द्विपद (मनुष्य) और चतुष्पद (बैल आदि) जितने ऽतिथिर्यस्य सोऽतिथिः पात्रतां गतः ॥ (भावसं. बोझ को कन्धे अथवा पीठ आदि पर स्वाभाविक वा. ५-६) । २१. अततीत्यतिथि यः संयमं त्ववि- रूप में ले जा सकें, उससे अधिक बोझ का नाम राधयन् । तस्य यत्संविभजनं सोऽतिथिसंविभा- अतिभार है। इसके सम्बन्ध में पुरातन प्राचार्यों गकः ॥ अथवा न विद्यते यस्य तिथिः सोऽतिथिः का विधान तो यह है कि प्रथम तो दूसरों पर बोझा कथ्यते । तस्मै दानं व्रतं तत्स्यादतिथेः संविभाग- लादने आदि से सम्बद्ध आजीविका को ही छोड़ना कम् ॥ (धर्मसं. श्रा. ७, ८०-८१)। २२. अतिथये चाहिये, पर यदि ऐसा सम्भव न हो तो उनके ऊपर समीचीनो विभागः निजभोजनाद् विशिष्टभोजन- उतना ही बोझ रखना चाहिये, जिसे वे स्वभावतः प्रदानमतिथिसंविभागः । (त. वृ. श्रुत. ७-२१)। ढो सकते हों। २३. अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणि- अतिभारवहन-देखो अतिभारारोपण । लोभावे. ज्जाणं अन्न-पाणाईणं दव्वाणं देस-काल-सद्धा. शादधिकभारारोपणमतिभारवहनम् । (रत्नक. सक्कारकमजुत्तं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए टीका ३-१६)। संज़याणं दाणं। (अभि. रा. १, पृ. ३३)।
लोभ के वश घोड़ा, बैल या दासी-दास आदि पर अतिथि (संयत) के लिए नवधा भक्तिपूर्वक उनकी सामर्थ्य से बाहिर अधिक भार को लाद कर प्राहार व औषधि प्रादि चार प्रकारका दान करने एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने को अतिको अतिथिसंविभाग कहते हैं।
भारवहन कहते हैं। अतिपरिणामक (अइपरिणामय)-जो दव्व-खे. अतिभारारोपरण-देखो अतिभार। १ न्याय्यभातकयकाल-भावो जं जहिं जया काले । तल्लेसु. रादतिरिक्तभारवाहनमतिभारारोपणम् । (स. सि. स्सुत्तमई अइपरिणामं वियाणाहि ॥ (बहत्क. ७-२५; त. श्लो. वा. ७, २५)। २ न्याय्य. १-७६५)।
भारादतिरिक्तभारवाहनमतिभारारोपणम् ॥४॥ जिन देव ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा न्यायादनपेताद् भारादतिरिक्तस्य वाहनम्, अतिजब जिस वस्तु को ग्राह्य-अग्राह्य कहा है, उसकी लोभाद् गवादीनामतिभारारोपणमिति गण्यते । अपेक्षा न करके उत्सर्ग मार्ग की उपेक्षा करते हुए (त. वा. ७, २५, ४) । ३. भरणं भारः पूरणम्, अपवादमार्ग को ही मुख्य मान कर उत्सूत्र आचरण अतीव वाढम्, सुष्ठ भारोऽतिभारस्तस्यारोपण स्कन्धकरने वाले साधु को अतिपरिणामक कहते हैं। पृष्ठादिस्थापनमतिभारारोपणम् । (त. भा. हरि. व अतिप्रसाधन-यावताऽर्थेनोपभोग-परिभोगौ भव- सिद्ध. व. ७-२०) । ४. अतिभारारोपणं न्याय्यतस्ततोऽधिकस्य करणमतिप्रसाधनम् । (रत्नक. भारादधिकभारारोपणम् । (रत्नक. टीका २-८)। टीका ३-३५)।
५. अतिभारारोपणं न्याय्यभारादतिरिक्तस्य वोढमअपनी आवश्यकता से अधिक उपभोग-परिभोग की शक्यस्य भारस्यारोपणं वृषभादीनां पृष्ठ-स्कन्धादौ सामग्री के संग्रह करने को अतिप्रसाधन कहते हैं। वाहनोपाधिरोपणम् । तदपि दुर्भावात्कोधाल्लोभाद्वा अतिभार-भरणं भारः, प्रतिभरणम् अतिभार:, क्रियमाणमतिचारः । (सा. ध. स्वो. टी भूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठारोपणमित्यर्थः। ६. न्याय्याद् भारादधिक भारवाहनं राजदानादिलोxxx तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः---xxx भादतिभारारोपणम् ।(त. वृ. श्रुत.७-२५; कातिके. अइभारो ण आरोवेयव्वो, पुटिव चेव जा वाहणाए टी. ३३२) । ७. अतीवभारोऽतिभारः,प्रभूतस्य पूगजीविया सा मुत्तव्वा । न होज्ज अन्ना जीविया, फलादेर्गवादिपृष्ठादावारोपणम् । (धर्मबि. मु. : ताहे दुपदो जं सयं चेव उक्खिवइ उत्तारेइ वा भारं १५६) । एवं वहाविनइ, बइल्लाणं जहा साभावियानो १ मनुष्य व पशु प्रादि के ऊपर लोभ प्रादि के वश
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अतिमात्र पाहारदोष] २६, जैन-लक्षणावली
अतीतकाल न्याय्य भार से-जिसे वे स्वाभाविक रूप से ढो व्याप्तम्, यथा तस्यैव (गोरेव) पशुत्वम्। (न्यायसकें-अधिक लादने को अतिभारारोपण कहते हैं। दीपिका पृ. ७) ।। अतिमात्र-माहारदोष-१. अतिमात्र पाहार:-प्रश- २ लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिनस्य सव्यंजनस्य [द्वौ,] तृतीयभागमुदकस्योदरस्य यः व्याप्ति दोष कहते हैं । पूरयति, चतुर्थभागं चावशेषयति यस्तस्य प्रमाणभूत अतिशायिनीत्व- अत्रातिशायनीत्वमाश्रयभेदव्याआहारो भवति । अस्मादन्यथा यः कुर्यात्तस्याति- पारप्रयुक्ताल्पाल्पतर-बहु - बहुतरप्रतियोगिकत्वम् । मात्रो नामाहारदोषो भवति । (मूला. वृ. ६-५७)। (प्रष्टस. यशो. वृ. १-४, पृ. ६२)। २. सव्यञ्जनाशनेन द्वौपानेनैकमंशमुदरस्य । भृत्त्वा- प्राश्रय के भेद से होने वाले व्यापारविशेष की ऽभृतस्तृतीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमलः ।। (अन. अल्प से अल्पतर या बहु से बहुतर प्रतियोगिकता ध. ५-३८)।
को अतिशायिनीत्व कहते हैं। १ साधु अपने उदर के दो भागों को व्यंजन (दाल अतिसंग्रह--इदं धान्यादिकमग्रे विशिष्टं लाभ पादि) सहित अन्न से और एक भाग को पानी से दास्यतीति लोभावेशादतिशयेन तत्संग्रहं करोति । भरे तथा चौथे भाग को खाली रखे। इससे अधिक (रत्नक. टी. ३-१६)। भोजन-पान करने पर अतिमात्र पाहार नामका यह धान्यादिक आगे विशिष्ट लाभ देगा, इस प्रकार दोष होता है।
लोभ के आवेश से उनका अतिशय संग्रह करना; अतिलोभ-विशिष्टेऽर्थे लब्धेऽप्यधिकलाभाकाङ्- यह अतिसंग्रह नामका अतिचार है। क्षाऽतिलोभः । (रत्नक. टो. ३-१६)।
प्रतिस्थापना (अइच्छावणा, प्रइट्ठावणा, अदित्थाविशेष अर्थ का लाभ होने पर भी और अधिक लाभ वणा)-१. तमोक्कडिय उदयादि जाव प्रावलियतिको आकांक्षा करना, यह परिग्रहपरिमाण अणुवत भागो ताव णिक्खिवदि । प्रावलिय-व-तिभागमेत्तका अतिलोभ नामका अतिचार है।
मुवरिमभागे अइच्छावइ। तदो प्रावलियतिभामो प्रतिवाहन-लोभातिगृद्धिनिवृत्त्यर्थं परिग्रहपरि- णिक्खेवविसो, प्रावलिय-बे-तिभागा च अइच्छामाणे कृते पुनर्लोभावेशवशादतिवाहनं करोति. यावन्तं हि मार्ग बलीवदयः सुखेन गच्छन्ति ततो- द्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, Xxxतेनातिक्रम्यऽतिरेकेण वाहनमतिवाहनम् । (रत्नक. टी. ३-१६)। माणं स्थानं प्रतिस्थापनम् Xxx (ल. सा. टी. लोभ व अतिशय गद्धि के हटाने के लिये परिग्रह ५६)। का परिमाण कर लेने पर भी पुनः लोभ के वश से जिन निषेकों में अपकर्षण या उत्कर्षण किये गये बैल व घोड़े प्रादि को उनकी शक्ति से अधिक दूर द्रव्य का निक्षेप नहीं किया जाता है उनका नाम तक ले जाना, यह अतिवाहन नामका अतिचार है। प्रतिस्थापना है। ऐसे निषेक उदयावलि के दो प्रतिविस्मय-तत्-(संग्रह-) प्रतिपन्नलाभेन विक्रीते त्रिभाग मात्र होते हैं। तस्मिन् मूलतोऽप्यसंगृहीते वाऽधिकेऽर्थे तत्क्रयाणकेन अतिस्निग्धमधुरत्व-१. अतिस्निग्धमधुरत्वं अमृतलब्धे लोभावेशादतिविस्मयं विषादं करोति । गुडादिवत् सुखकारित्वम् । (समवा. अभय. वृ. ३५, (रत्नक. टी. ३-१६)।
पृ. ६३)। २. अतिस्निग्ध-मधुरत्वं बुभुक्षितस्य घृतकिसी संगृहीत वस्तु को एक नियत लाभ लेकर गुडादिवत् परमसुखकारिता ॥(रायप. टी. पृ. १६)। बेच देने के पश्चात् उसका भाव बढ़ जाने पर २ भखे व्यक्ति को घी-गड़ आदि के समान प्रतिशय अधिक लाभ से वंचित रहने का विषाद करना, सुखकारी वचनादि की प्रवृत्ति का नाम अतिस्निग्धयह अतिविस्मय नामका परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का मधुरत्व है। अतिचार है।
अतीत काल-१. णिप्फण्णो ववहारजोग्गो अदीदो प्रतिव्याप्ति दोष-१. अलक्ष्ये वर्तनां प्राहरति- णाम । (धव. पु. ३, पृ. २६)। २. यस्तु तमेव व्याप्तिं बुधाः यथा । गुण आत्मन्यरूपित्वमाकाशादिषु विवक्षितं वर्तमान समयमवधीकृत्य भूतवान् समयदृश्यते ।। (मोक्षपं. १५)। २. लक्ष्यालयवर्त्यति- राशिः सोऽतीतः । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. १-७)।
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अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष] ३०, जैन-लक्षणावली
[अत्यन्ताभाव ३. अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् । भूतः का केवलज्ञान प्रतीर्थकरसिद्धकेवलज्ञान कहलाता है। समयराशियः कालोऽतीतः स उच्यते ॥ (लोकप्र. अतीर्थसिद्ध-१. अतीर्थे सिद्धा अतीर्थसिद्धाः, तीर्था२८-२९६)।
न्तरसिद्धा इत्यर्थः। श्रूयते च 'जिणंतरे साहवोच्छेप्रो २ वर्तमान समय को अवधि करके जो समयराशि
त्ति' तत्रापि जातिस्मरणादिना अवाप्तापवर्गमार्गाः बीत चुकी है उस सब समयराशि का नाम प्रतीत
सिध्यन्ति एवम् । मरुदेवीप्रभृतयो वा अतीर्थसिद्धाकाल है।
स्तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् । (श्रा. प्र. टी. ७६) । प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष-अतीन्द्रियप्रत्यक्ष व्यवसायात्मकं
२. अतीर्थे जिनान्तरे साधुव्यवच्छेदे सति जातिस्मरस्फुटमवितथमतीन्द्रियमव्यवधानं लोकोत्तरमात्मार्थ
णादिनावाप्तापवर्गमार्गाः सिद्धा अतीर्थसिद्धाः । (योगविषयम् । (लघी. स्वो. व. ६१)।
शा. स्वो. विव.३-१२४) । ३. तीर्थस्याभावोऽतीजो मिश्चय स्वरूप ज्ञान अतिशय निर्मल, यथार्थ
र्थम् । तीर्थस्याभाबश्चानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो भ्रान्ति से रहित, इन्द्रियव्यापार से निरपेक्ष, देशादि
वा, तस्मिन् ये सिद्धास्तेऽतीर्थसिद्धाः। (प्रज्ञाप. मलय. व्यवधान से रहित, समस्त लोक में उत्कृष्ट तथा
व. १-७)। ४. तीर्थस्याभावेऽनुत्पत्तिलक्षणे आन्तनिज को व बाह्य अर्थ दोनों को ही विषय करने
रालिकव्यवच्छेदलक्षणे वा सति सिद्धा अतीर्थसिद्धाः वाला है वह प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है।
मरुदेव्यादयः, सुविधिस्वाम्याद्यपान्तराले विरज्याप्तप्रतीन्द्रिय सुख---यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापार
महोदयाश्च । (शास्त्रवा. यशो. टी. ११, ५४)। रहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदती
१ तीर्थ से अभिप्राय चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ अथवा प्रथम न्द्रियसुखम् । पञ्चेन्द्रिय-मनोजनितविकल्पजाल
गणधर का है। उनके न होते हए जो तीर्थान्तर रहितानां निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां
में सिद्ध होते हैं वे प्रतीर्थसिद्ध हैं । उस समय तीर्थ रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणा
के उत्पन्न न होने से मरुदेवी प्रादि भी प्रतीर्थसिद्ध तीन्द्रियम् । यच्च भावकर्म-द्रव्यकर्मरहितानां सर्व
माने गये हैं। प्रदेशाह्लादकपारमार्थिकपरमानन्दपरिणतानां मूक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदत्यन्तविशेषेण नेतव्यम् ।
प्रतीर्थसिद्धकेवलज्ञान - यत् पुनस्तीर्थकराणां बृहद्रव्यसं. ३७)।
तीर्थेऽनुत्पन्ने व्यवच्छिन्ने वा सिद्धास्तेषां यत् केवलइन्द्रिय व मन की अपेक्षा न रख कर प्रात्म मात्र की
ज्ञानं तदतीर्थसिद्ध केवलज्ञानम् । (प्राव. मलय. व. अपेक्षा से जो निराकुल-निर्बाध-सुख प्राप्त होता
७८, पृ. ८४)।
जो तीर्थंकरों के तीर्थ के उत्पन्न न होने पर या है वह अतीन्द्रिय सुख है। . प्रतीर्थकरसिद्ध-१. अतीर्थकरसिद्धाः सामान्य
उसके विच्छिन्न हो जाने पर सिद्ध हए हैं उनके केवलित्वे सति सिद्धाः। (योगशा. स्वो. विव. ३,
केवलज्ञान को प्रतीर्थसिद्धकेवलज्ञान कहा जाता है। १२४)। २. अतीर्थकरा: सामान्यकेवलिनः सन्तः अत्यन्तानुपलब्धि--अत्थस्स दरिसणम्मि वि लद्धी सिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः । (शास्त्रवा. टी. ११-५४)। एगंततो न संभवइ । दलृ पि न याणते बोहियपंडा ३. अतीर्थकरसिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः । (श्रा. फणस सत्तू ॥ (बृहत्क. भा. ४७)। प्र. टी. ७६)।
अर्थ के-पदार्थ के-प्रत्यक्ष देखते हुए भी उससे ३ सामान्य केवली होकर सिद्ध होने वाले जीवों को अपरिचित होने के कारण जो उसका सर्वथा परिप्रतीर्थकरसिद्ध कहते हैं।
ज्ञान नहीं होता है उसे अत्यन्तानुपलब्धि कहते हैं । प्रतीर्थकरसिद्धकेवलज्ञान-तीर्थकराः सन्तो ये
जैसे-पश्चिम दिशा में रहने वाले म्लेच्छ वहाँ सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं तीर्थकरसिद्धकेवलज्ञानम्,
कटहल के न होने से उस कटहल को और पाण्डप शेषाणामतीर्थकरसिद्ध केवलज्ञानम् । (प्राव. मलय.
(देशविशेष में उत्पन्न) जन सत्तू को देखते हुए भी वृ.७८, पृ. ८४)।
विशिष्ट नामादि से उसे नहीं जानते हैं। तीर्थकर होकर सिद्ध होने वालों का केवलज्ञान अत्यन्ताभाव-१. शशशृंगादिरूपेण सोऽत्यन्तातीर्थकरसिद्ध केवलज्ञान और शेष सिद्ध होने वालों भाव उच्यते । (प्रमाल. ३८६)। २. अत्यन्ताभावः
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प्रत्यन्ताभावत्व]
अत्यन्तं सर्वथा निःसत्ताकया प्रभाव: । ( प्रमाल. टी. ३८६ ) । ३. कालत्रयापेक्षिणी हि तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्ताभाव: । (प्र. न. त. ३ - ६१) । १ जिसका त्रिकाल में भी सद्भाव सम्भव न हो, उसके प्रभाव को प्रत्यन्ताभाव कहते हैं । जैसे— खरगोश के सिर पर सींगों का प्रभाव । अत्यन्ताभावत्व - त्रैकालिकी तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्ताभाव इत्यत्र परिणामपदमहिम्ना धर्मनियामकसम्बन्धबोधात् तृतीयातत्पुरुषाश्रयणाच्च संसगविच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावत्वमत्यन्ताभावत्वम् । ( प्रष्टस. यशो. वृ. पू. १६६ ) ।
देखो अत्यन्ताभाव । प्रत्यन्तायोगव्यवच्छेद क्रियासंगतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकः । उद्देश्यतावच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम् । यथा - नीलं सरोजं भवत्येव । (सप्तभं. पू. २६) । क्रियासंगत एवकार जिसका बोधक होता है वह श्रत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहलाता है । जैसे— सरोज नीला होता ही है ।
प्रत्यागी (न चाई) - वत्थ - गंधमलंकारं इत्थी श्रो सयणाणि य | अच्छंदा जेण भुंजंति न से चाइत्ति वुच्चइ || ( दशवं. २ -२) ।
जो वस्त्रं एवं गन्धादि रूप भोगसामग्री को स्वच्छन्दतापूर्वक —-परवश होने से नहीं भोग सकता है वह त्यागी नहीं है— प्रत्यागी है। प्रत्यासादना - १. पंचेव अस्थिकाया छज्जीवणिकाय महव्वया पंच । पवयणमा उ-पयत्था तेत्तीसच्चासणा भणिया । (मूला. २ - १८, पृ. ६१ ) । २. पञ्चास्तिकायादिविषयत्वात् पञ्चास्तिकायादय एवासादना उक्ताः तेषां वा ये परिभवास्ता श्रासादना इति सम्बन्ध: । ( मूला. वृ. २- १८ ) । पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमातृका (५ समिति व ३ गुप्ति) और नौ पदार्थ; ये तेतीस अत्यासादना ( प्रासादना ) कहे गये हैं । अथवा उनके जो परिभव हैं वे श्रासादना कहलाते हैं ।
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३१, जैन - लक्षणावली
अत्रारणभय - १. यत् सन्नाशमुपैति यन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत् किल तत स्त्रातं किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत् तद्भः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स
[ प्रदत्तादानविरमण
सहजं ज्ञानं सदा विन्दति । ( समय कलश १५१ ) । २. पुरुषाद्यरक्षणमत्राणभयम् । (त. वृ. श्रुत. ६-२४)।
पुरुषादिकों के संरक्षण के प्रभाव में जो भय उत्पन्न होता है वह श्रत्राणभय कहलाता है ।
अथाप्रवृत्तकररण -- देखो अधःप्रवृत्तकरण | प्रदत्तक्रिया - प्रदत्तक्रिया स्तेयलक्षणा । (गु. गु. ष. स्वो वृ. पू. ४१) । चोरी में प्रवर्तना प्रदत्तक्रिया है ।
प्रदत्तग्रहण- १. तथा प्रदत्तग्रहणम् — प्रदत्तं यदि किंचिद् गृह्णीयात् XXX अशनस्यान्तरायो भवति । (मूला. वृ. ६ - ८० ) । २. स्वयमेव ग्रहे ऽन्नादेरदत्तग्रहणाऽऽह्वयः ॥ ( अन. ध. ५ - ५६) । दूसरे के द्वारा बिना दिये हुये अन्नादि को स्वयं ही ग्रहण करना श्रदत्तग्रहण दोष है । अदत्तादान - १. प्रदत्तस्य प्रदिण्णस्स आदाणं गहणं श्रदत्तादाणं, XX X एत्थ वि जेण 'प्रादीयदे अणेण इदि आदाणं तेण प्रदिण्णत्थो तग्गहणपरिणामो च प्रदत्तादाणं । ( धव. पु. १२, पृ. २८१ ) । २. ग्रामाराम - शून्यागार वीथ्यादिषु निपतितः मणिकनक - वस्त्रादिवस्तुनो ग्रहणमदत्तादानम् । (चा. सा. पू. ४१ ) । ३. धर्मविरोधेन स्वामिजीवाद्यननुज्ञातपरकीय द्रव्यग्रहणम् अदत्तादानम् । ( शास्त्रवा. टी. १-४)।
२ ग्राम, आराम ( उद्यान), शून्य गृह और वीथी ( गली) अदि में गिरे, पड़े या रखे हुए मणि, सुवर्ण व वस्त्र श्रादि के ग्रहण करने का विचार करना, इसे प्रदत्तादान कहते हैं । ३ स्वामी की आज्ञा के बिना पराई वस्तु के लेने को प्रदत्तादान कहते हैं ।
श्रदत्तादान प्रत्यय -- प्रदत्तस्स प्रादाणं गहणं प्रदत्तादाणं, सो चेव पच्चश्रो श्रदत्तादाणपच्चश्रो ।
(
( धव. पु. १२, पृ. २८१ ) ।
बिना दी हुई वस्तु के ग्रहणस्वरूप प्रत्यय ( ज्ञानावरणीयवेदना के कारण ) को अदत्तादान प्रत्यय कहा जाता है ।
श्रदत्तादानविरमरण - देखो अचौर्यं महाव्रत । १. अदत्तादाणं तिविहं तिविहेण णेब कुज्जा, ण कारवे, ततियं सोयव्वलक्खणं । (ऋषिभा. १-५ ) ।
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प्रदन्तमनव्रत ]
[ श्रदित्साप्रत्याख्यान
बिना दी हुई परकीय वस्तु को तीन प्रकार सेमन, वचन व काय से-न स्वयं ग्रहण करना और न दूसरे से ग्रहण कराना, यह श्रदत्तादानविरमण नामका तीसरा चौर्यमहाव्रत है ।
पूजकस्य चिरन्तनप्रवृजितस्याद्यापि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यते, महोपवासाद्यनुष्ठायिनां प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुरभूवन्निति प्रलापमात्रमनर्थकेयं प्रव्रज्या, विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शनविशुद्धियो:
वणिकलीहि पासाणछल्लिग्रादीहि । दंतमलासोहणयं संजमगुत्ती प्रदंतमणं ।। (मूला. १-३३) । २ दशनाघर्षणं पाषाणाऽङ्गुलीत्वनखादिभिः । स्याद् दन्ताकर्षणं भोग- देह वै राग्यमन्दिरे ॥ ( श्राचा. सा. १-४६)।
श्रंगुली, नख, श्रवलेखिनी ( दन्तकाष्ठ - दातोन) कलि (तृणविशेष), पत्थर और बकला आदि से दांतों के मैल को नहीं निकालना; यह प्रदन्तमनव्रत है जो संयमसंरक्षण का कारण है । अदर्शन - १ दृगावरणसामान्योदयाच्चादर्शनं तथा । (त. इलो. २, ६, ६ ) ; अदर्शनमिहार्थानामश्रद्धानं हि तद् भवेत् । सति दर्शनमोहेऽस्य न ज्ञानात् प्रागदर्शनम् ।। (त. श्लो. ६, १४, १) । २. प्रदर्शनो मिथ्याभिलाषेण सम्यक्त्ववर्जित अन्धो वा । (श्रा. दि. पू. ७४) ।
श्रदन्तमनव्रत ( श्रदंतमणवय ) - १ अंगुलि-णहा- गाददर्शनपरीषहसहनमवसातव्यम् । ( स. सि. ६ - ६ ; त. वा. ६, ६, २८) । २. प्रव्रज्याद्यनर्थकत्वासमाधानमदर्शनसहनम् । (त. वा. और त. इलो. ६-६) । ३. वर्ण्यन्ते बहवस्तपोऽतिशयजाः सप्तद्धिपूजादयः, प्राप्ताः पूर्वतपोधनैरिति वचोमात्रं तदद्यापि यत् । तत्त्वज्ञस्य ममापि तेषु न हि कोऽपीत्यार्तसंगोज्झिता, चेतोवृत्तिरदृक्परीषहजयः सम्यक्त्वसंशुद्धितः ॥ ( श्राचा. सा. ७-१६ ) । ४. प्रदर्शनं महाव्रतानुष्ठानेनाप्यदृष्टातिशयवाधा, उपलक्षणमात्रमेतत्, अन्येऽप्यत्र पीडाहेतवो दृष्टव्याः । तस्याः क्षमणं सहनम् XX X ततः परीषहजयो भवति । ( मूला. वृ. ५-५८ ) । ५. महोपवासादिजुषां मृषोद्याः प्राक् प्रातिहार्यातिशया न हीक्षे । किञ्चित्तथाचार्यपि तद् वृथैषा निष्ठेत्यसन् सदृगदर्शनास ॥ ( अन. ध. ६ - ११० ) । ६. यो मुनिरत्युत्कृष्ट वैराग्यभावनाविशुद्धान्त रंगो भवति, विज्ञातसमस्तवस्तुतत्त्वश्च स्यात्, जिनायतन-त्रिविधसाधु-जिनधर्म पूजन सम्माननतन्नि ष्ठो भवति, चिरदीक्षितोऽपि सन्नेवं न चिन्तयतिअद्यापि ममातिशयवद्बोधनं न संजायते, उत्कृष्टश्रुतव्रतादिविधायिनां किल प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुर्भवन्ति, इति श्रुतिमिथ्या वर्तते, दीक्षेयं निष्फला, व्रतधारणं च फल्गु एव वर्तते इति सम्यग्दर्शनविशुद्धिसन्निधानादेवं न मनसि करोति तस्य मुनेरदर्शन परीषहजयो भवतीति अवसानीयम् । (त. वृ. श्रुत.
१ सामान्य दर्शनावरण कर्म के उदय से होनेवाले वस्तुप्रतिभास के प्रभाव को प्रदर्शन कहते हैं । तथा दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले तत्त्वार्थश्रद्धान के प्रभाव को भी प्रदर्शन या मिथ्यादर्शन कहा जाता । २ मिथ्या अभिलाषा से सम्यक्त्व से हीन जीव को तथा अन्धे प्राणी को भी प्रदर्शन कहा जाता है।
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प्रदर्शनपरीषह - प्रदर्शन परीषहस्तु
सर्वपापस्था
नेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निःसंगश्चाहं तथापि धर्माधर्मात्मदेव-नारकादिभावान्नेक्षे, अतो मृषा समस्तमेतदिति प्रदर्शनपरीषहः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. C-C)।
मैं सर्व पापस्थानों से विरत हू, घोर तपश्चरण करता हूँ, और समस्त परिग्रह से रहित भी हूँ; तो भी क्रम से धर्म श्रधर्मस्वरूप देवभाव व नारकभाव को नहीं देख रहा हूं, इससे प्रतीत होता है कि यह सब असत्य है; ऐसे विचार का नाम श्रदर्शनपरीषह है । प्रदर्शनपरीषहजय - १. परमवैराग्यभावनाशुद्धहृदयस्य विदितसकलपदार्थतत्त्वस्यार्हदायतन- साधुधर्म
३२, जैन - लक्षणावली
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तक तपश्चरण करने पर भी ज्ञानातिशय या ऋद्धिविशेष के नहीं प्राप्त होने पर 'यह दीक्षा व्यर्थ है या व्रतों का धारण करना व्यर्थ है' ऐसा विचार न करके शपने सम्यग्दर्शन को शुद्ध बनाये रखना, इसे प्रदर्शनपरीषहजय कहते हैं । श्रदित्साप्रत्याख्यान - दातुमिच्छा दित्सा, न दित्सा श्रदित्सा, तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रन्याख्यानम् । सत्यपि देये, सति च सम्प्रदानकारके, केवलं दातुदतुमिच्छा नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्यानम् (सूत्रकृ. वृ. २, ४, १७६)
देय द्रव्य और सत्पात्र के होने पर भी दाता की
चिरकाल
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अदीक्षाब्रह्मचारी] ३३, जैन-लक्षणावली
[श्रद्धापल्य देने की इच्छा के बिना जो परित्याग किया जाता समयादिरूप काल अढ़ाई द्वीप में प्रवर्तमान है वह है, इसका नाम अदित्साप्रत्याख्यान है।
प्रद्धाकाल कहलाता है। अदीक्षाब्रह्मचारी - १. अदीक्षाब्रह्मचारिणो अद्धाद्धामिश्रिता (अद्धाद्धामीसिया)-१. तथा वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । दिवसस्य रात्रे, एकदेशोऽद्धाद्धा, सा मिश्रिता यया (चा. सा. पृ. २०; सा. ध. स्वो. टी. ७-१६)। सा अद्धाद्धामिश्रिता। (प्रज्ञाप. मलय. वृ.१-१६५)। २. वेषं विना समभ्यस्तसिद्धान्ता गृहधर्मिणः । ये २. रयणीए दिवसस्स च देसो देसेण मीसियो जत्थ । ते जिनागमे प्रोक्ता अदीक्षाब्रह्मचारिणः ।। (धर्म. भन्नइ सच्चामोसा अद्धाद्धामीसिया एसा। (भाषार. श्रा. ६-१७)।
६); रजन्या दिवसस्य वा देशः प्रथमप्रहरादि१ ब्रह्मचारी का वेष धारण किये बिना ही गुरु के लक्षणो देशेन द्वितीयप्रहरादिलक्षणेन यत्र मिश्रितों समीप आगम का अभ्यास कर तत्पश्चात् गृहस्था- भण्यते एसा प्रद्धाद्धामिश्रिता सत्यामृषा । (भाषार. श्रम के स्वीकार करने वालों को प्रदीक्षाब्रह्मचारी स्वो. टी. ६७)। कहते हैं।
दिन या रात्रि के एक देश का नाम प्रद्धाद्धा है, अदष्टदोष-१. अदष्टम् प्राचार्यादीनां दर्शनं उससे मिश्रित भाषा को प्रद्धाद्वामिश्रिता भाषा पृथक त्यक्त्वा भूप्रदेशं शरीरं चाप्रतिलेख्याऽतद्गत- कहते हैं। जैसे--कोई किसी को शीघ्र तैयार हो मनाः पृष्ठदेशतो वा भूत्वा यो वन्दनादिकं करोति जानेके विचार से प्रथम पौरुषी (प्रहर-पाद प्रमाण तस्यादृष्टदोषः । (मूला. वृ. ७-१०६)। २. अदृष्टं छाया) के होते हुए यह कहता है कि चल मध्याह्न गुरुदृग्मार्गत्यागो वाऽप्रतिलेखनम् । (अन. ध. ८, (दोपहर) हो गया। १०८)।
प्रद्धानशन--प्रद्धाशब्दः कालसामान्यवचनश्चतुर्था१प्राचार्य आदि का दर्शन न करके अन्यमनस्क होते दिषण्मासपर्यन्तो गृह्यते। तत्र यदनशनं तदद्धानहुए अथवा पृष्ठ भागसे शरीर और भूमि के शुद्ध किये शनम् । (भ. प्रा. विजयो. २०६)। २. अद्धाशब्दश्चबिना ही बन्दना करने को अदृष्टदोष कहते हैं। तुर्थादिषण्मासपर्यन्तो गृह्यते, तत्राहारत्यागोऽद्धानशनं अथवा उनके पीछे स्थित होकर वन्दनादि करने को कालसंख्योपवास इत्यर्थः। (भ. प्रा. मूला. टी. अदृष्ट दोष कहा जाता है।
२०६) प्रदेश-कालप्रलापी-कज्जविवत्ति दर्छ भणाइ अद्धा शब्द कालसामान्य का वाचक है, उससे यहां पुट्वि मए उ विण्णायं । एवमिदं तु भविस्सइ चतुर्थ (एक दिन) से लेकर छह मास तक का प्रदेशकालप्पलावी उ॥ (वृहत्क. ७५४)। काल लिया गया है। इस काल के भीतर जो कार्य के विनाश को देख कर जो यह कहता है कि आहार का परित्याग किया जाता है उसे अद्ध यह तो मैंने पहले ही जान लिया था कि भविष्य कहते हैं । में यह इस प्रकार होगा। जैसे-किसी साधु ने श्रद्धानिषेकस्थितिप्राप्तक (अद्धाणिसेगट्ठिदिपपात्र का लेपन किया, तत्पश्चात् सुखाते हुए वह तय) -जं कम्म जिस्से टिदीए णिसित्तमणोप्रमादवश फूट गया, यह देखकर कोई अपने चातुर्य कड्डिदमणुकड्डिदं च होदूण तिस्से चेव ट्ठिदीए उदए को प्रगट करता हुया कहता है कि जब इसका दिस्सदि तमद्धाणिसेगट्ठिदिपत्तयं णाम । (धव. पु. संस्कार करना प्रारम्भ किया गया था तभी मैंने १०, पृ.११३)। जान लिया था कि यह सिद्ध होकर भी फूट जावेगा। जो कर्म जिस स्थिति में निषिक्त है वह अपकर्षण इस प्रकार जो अवसर को न देखकर कहता है वह व उत्कर्षण से रहित होकर उसी स्थिति में जब प्रदेश-कालप्रलापी है।
उदय में दिखता है तब उसे श्रद्धानिषे स्थितिप्रद्धाकाल-चन्द्र - सूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्धतृतीय- प्राप्तक कहा जाता है। द्वीप-समुद्रान्तर्वर्त्यद्धाकाल: समयादिलक्षणः । (प्राव. श्रद्धापल्य (श्रद्धारपल्ल)-१. उद्धाररोमराशि हरि. व मलय. वृ. नि. ६६०)।
छेत्तूणमसंखवाससमयसमं ॥ पुव्वं व विरविदेणं चन्द्र-सूर्य आदि की क्रिया से परिलक्षित होकर जो तदिमं श्रद्धारपल्लणिप्पत्ती । (ति.प. १, १२८-२९) ल.५
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प्रद्धापल्योपम काल] ३४, जैन-लक्षणावली
[अद्भुत रस २. उद्धारपल्यरोमच्छेदैर्वर्षशतसमयमात्रच्छिन्नः पूर्ण- दिवसे वर्तमान एवं वदति उत्तिष्ठ रात्रिर्यातेति, मद्धापल्यम् । (स. सि. ३-३८)। ३. असंख्यवर्ष- रात्री वा वर्तमानायामुत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति । कोटीनां समय: रोमखण्डितैः । उद्धारपल्यमद्धाख्यं (प्रज्ञापना मलय. वृ. ११-१६५, पृ. २५९)। स्यात् कालोऽद्धाभिधीयते । (ह. पु. ७-५३)। दिन और रात्रि रूप काल का मिश्रण कर जो २ उद्धारपल्य के प्रत्येक रोमखण्ड को सौ वर्षों के भाषा बोली जाती है उसे प्रतामिश्रिता कहते हैं। समयों से गुणित करके उनसे परिपूर्ण गड्ढे को जैसे-दिन के रहते हुए यह कहना कि चलो उठो प्रद्धापल्य कहते हैं।
रात हो गई, अथवा रात्रि के रहते हुए भी यह प्रद्धापल्योपम काल-१. ततः (प्रद्धापल्यतः) समये कहना कि उठ जानो सूर्य निकल पाया है। समये एककस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता
प्रद्धासमय-पद्धति कालस्याख्या, अद्धा चासो कालेन तद्रिक्तं भवति तावान् कालोऽद्धापल्योप
समयश्चाद्धासमयः । अथवा अद्धायाः समयो माख्यः । (स. सि. ३-३८; त. वा. ३, ३८, ७)।
निविभागो भागोऽद्धासमयः । अयं चैक एव वर्त२. अद्धा इति कालः, सो य परिमाणतो वाससयं
मानः सन्, नातीतानागताः; तेषां यथाक्रमं विबालग्गाण खण्डाण वा समद्धरणतो अद्धापलितो
नष्टानुत्पन्नत्वात् । (जीवाजी. मलय. वृ. ४, पृ.६)। वम भण्णति । अहवा अद्धा इति आउद्धा, सा इमा
काल को अथवा काल के अविभागी अंश को श्रद्धातो रइयाण प्राणिज्जति अतो अद्धापलितोवमं ।
समय कहते हैं। (अनु.चू. पू. ५७)। ३. अद्ध त्ति कालाख्या, ततश्च
प्रद्धासागरोपम-एषामद्धापल्यानां दश कोटीबालाग्राणां तत्खण्डानां च वर्षशतोद्धरणादद्धापल्यस्ते
कोटयः एकमद्धासागरोपमम् । (स. सि. ३-३८; त. नोपमा यस्मिन्, अथवा अद्धा प्रायुःकालः, सोऽनेन
वा. ३, ३८, ७; त. सुखबो. वृ. ३-३८; त. वृ. नारकादीनामानीयत इत्यद्धापल्योपमम् । (अनु. हरि.
श्रुत. ३-३८)। व. पृ. ८४)। ४. अद्धा कालः, स च प्रस्तावाद्वा
दश कोडाकोडी श्रद्धापल्यों प्रमाण काल का नाम लाग्राणां तत्खण्डानां बोद्ध रणे प्रत्येक वर्षशतलक्षण
एक प्रद्धासागरोपम है। स्तत्प्रधानं पल्योपममद्धापल्योपम् । (संग्रहणी. व.
प्रद्धास्थान-अद्धट्टाणं णाम समयावलिय-खण४; शतक. दे. स्वो. टी. ८५) । ५. तदनन्तरं समये
लव-महत्तादिकालवियप्पा । (जयध. पत्र ७७३) । समये एकैकं रोमखण्डं निष्कास्यते । यावत्कालेन सा महाखनिः रिक्ता संजायते तावत्काल: अद्धा
समय, प्रावली, क्षण, लव और मुहूर्त प्रादि रूप जो
काल के विकल्प हैं वे सब प्रद्धास्थान कहलाते हैं । पल्योपमसंज्ञः समुच्यते । (त. वृ. श्रुत. ३-३८)। प्रद्धापल्य में से एक एक समय में एक एक रोमखंड अद्भुत रस (अब्भुअरस)-१. विम्हयकरो अपुव्वो को निकालते हुए समस्त रोमखण्डों के निकालने में अनुभुअपुवो य जो रसो होइ। हरिस-विसाउप्पत्तीजितना काल लगे, उतने काल का नाम श्रद्धापल्यो- लक्खणनो अब्भुप्रो नाम ॥ (अनु. गा. ६८) । पम है।
२. विस्मयकरोऽपूर्वो वा तत्प्रथमसमयोत्पद्यमानो भूतप्रद्धाप्रत्याख्यान (प्रद्धापच्चक्खारण) - अद्धा पूर्वे वा पुनरुत्पन्ने यो रसो भवति स हर्ष-विषादोकालो तस्स य पमाणमद्धं तु जं भवे तमिह । प्रद्धा- त्पत्तिलक्षणस्तबीजत्वाद् अद्भुतनाम । (अनु. हरि. पच्चक्खाणं दसमं तं पुण इमं भणियं ॥ (प्रव. सारो. वृ. गाथा ६८, पृ. ६६)। ३. श्रुतं शिल्पं त्यागगा. २०१)।
तपःशौर्यकर्मादि वा सकलभुवनातिशायि किमप्यपूर्व श्रद्धा नाम काल का है। उसके-मुहूर्त व दिन वस्त्वद्भुतमुच्यते, तद्दर्शन-श्रवणादिभ्यो जातो रसोप्रावि के-प्रमाण से किये जाने वाले त्याग को ऽप्युपचाराद्विस्मयरूपोऽद्भुतः । (अनु. मल. हेम. व. प्रद्धाप्रत्याख्यान कहते हैं।
गा. ६३, पृ. १३५)। प्रतामिश्रिता-१. अद्धा काल:. स चेह प्रस्ता- १अपूर्व अथवा पूर्व में अनुभत भी जो हर्ष-विषाद वाद्दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते, स मिश्रितो यया की उत्पत्तिस्वरूप प्राश्चर्यजनक रस होता है उसका साद्धामिश्रिता। यथा-कश्चित् कंचन त्वरयन् नाम अद्भुतरस है ।
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अद्वेष ३५, जैन-लक्षणावली
अधर्म द्रव्यं अद्वेष-अद्वेषः अप्रीतिपरिहारः । (षोडशक व. (नि. सा. ३०) । ३. गति-स्थित्युपग्रही धर्माधर्मयो१६-१३)।
रुपकारः। (त. सू. ५-१७)। ४. स्थितिपरिणातत्त्वविषयक अप्रीति (विद्वेष) के दूर करने का नाम मिनां जीव-पुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्तव्येऽधर्माअद्वेष है।
स्तिकायः साधारणाश्रयः । (स. सि. ५-१७)। ५. प्रधन-चलितवृत्तोऽधनः । (प्रश्नो. २१)। अधम्मत्थिकानो ठिइलक्खणो। (दशवै. चू.अ. ४, जो चारित्र से भ्रष्ट है उसका नाम अधन है। पृ. १४२) । ६. तद्विपरीतोऽधर्मः ॥ २०॥ तस्य अधम उपवास-xxxअनेकभक्तः सोऽधमः (धर्मद्रव्यस्य) विपरीतलक्षणः (स्वयं स्थितिपरिणाXXX॥ (अन. घ. ७-१५); तथा भवत्यधमः मिनां जीव-पुद्गलानां यः साचिव्यं दधाति सः) स उपवासः । कीदृशः? धारणे पारणे चैकभक्तरहितः अधर्म इत्याम्नायते। (त. वा. ५, १,२०)। ७. एवं साम्बुरित्येव । (अन. ध. स्वो. टी. ७-१५)। चेव (धम्मदव्वमिव ववगदपंचवण्णं ववगदपंचरसं ववजिस उपवास में धारणा और पारणा के दिन एका- गददुगंध ववगदअट्ठपासं असंखेज्जपदेसियं लोगपमाणं) शन न किया जाय और उपवास के दिन पानी अधम्मदव्वं पि । णवरि जीव-पोग्गलाणं एवं ठिदिपिया जाय, उसे अधम उपवास कहते हैं।
हेदू । (धव. पु. ३, पृ. ३); अधम्मदव्वस्स जीवप्रधम (जघन्य) पात्र-१. अविरयसम्माइट्ठी जह- पोग्गलाणमवट्ठाणस्स णिमित्तभावेण परिणामो एणपत्तं मुणेयव्वं ।। (वसु. श्रा. २२२) । २. यतिः सब्भावकिरिया। (घव. पु. १३. पृ. ४३); तेसिं स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम् । सुदृष्टि- (जीव-पोग्गलाणं) अवट्ठाणस्स णिमित्तकारणलक्खस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणयोगतः । (सा. ध. ५-४४) णमधम्मदव्वं । (धव. पु. १५, पृ. ३३)। ८. अहम्मो अविरतसम्यग्दृष्टि जीव को प्रघम या जघन्य पात्र ठाणलक्खणो। (उत्तरा. २८-८)। ६. स्थानकहते हैं।
क्रियासमेतानां महीवाधर्म उच्यते । (वरांग. २६, अधर्म-१. यदीयप्रत्यनीकानि (मिथ्याष्टि-ज्ञान- २४)। १०. सकृत्सकलस्थितिपरिणामिनामसान्निध्यवृत्तानि) भवन्ति भवपद्धतिः ॥ (रत्नक. १-३)। धानाद् गतिपर्यायादधर्मः । (त. श्लो. ५-१) । २. सयलदुक्खकारणं अधम्मो। (जयध. पु. १, पृ. ११. यः स्थितिपरिणामपरिणतयोर्जीव-पुद्गलयोरेव ३७०)। ३. प्रत्यवायहेतुरधर्मः । (बृ. सर्वज्ञ. सि. स्थित्युपष्टम्भहेतुर्विवक्षया क्षितिरिव झषस्य, स ७७)। ४. अधर्मस्तु तद्विपरीतः [मिथ्यादर्शन-ज्ञान- खल्वसंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्त एवाधर्मास्तिकाय इति । चारित्रात्मकः, यतो नाभ्युदय-निश्रेयससिद्धिः । (नन्दी. हरि. व. पु. ५८)। १२. जीव-पुदगलानां गद्यचि. ११, पृ. २४३) । ५. अधर्मः पुनरेतद्विपरीत- स्वाभाविके क्रियावत्त्वे तत्परिणतानां तत्स्वभावाफलः। (नीतिवा. १-२) । ६. अहिंसा परमो धर्मः धारणादधर्मः। (अनु. हरि. वृ. पृ. ४१) । १३. स्यादधर्मस्तदत्ययात् । (लाटीसं. २-१); अधर्मस्तु (सर्वेषामेव जीव-पुद्गलानां) स्थितिपरिणामभाजां कुदेवानां यावानाराधनोद्यमः । तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चाधर्मम् । (त. भा. हरि. वृ. ५-१७) । १४. अधर्मः चेष्टावाक्कायचेतसाम् ॥ (लाटीसं. ४-१२२; स्थित्युपग्रहः । (म. पु. २४, ३३) । १५. स्थित्या पंचाध्या. २-६००)। ७. मिथ्यात्वाविरति-प्रमाद- परिणतानां तु सचिवत्वं दधाति यः। तमधर्म कषाय-योगरूप: कर्मबन्धकारणम आत्मपरिणामो- जिनाः प्राहनिरावरणदर्शनाः ॥ जीवानां पुदगलानां ऽधर्मः । (अभि. रा. १, पृ. ५६६)।
च कर्तव्ये स्थित्युपग्रहे । साधारणाश्रयोऽधर्मः पृथि४ जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि न हो, वीव गवां स्थितौ ॥ (त. सा. ३, ३६-३७)। १६. ऐसे कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शन, ज्ञान व तं (गतिहेतुत्वसंज्ञितं गुणं) न धारयतीत्यधर्मः । चारित्र रूप प्रात्मपरिणाम को अधर्म कहते हैं। अथवा स्थितेरुदासीनहेतुत्वादधर्मः । (भ. प्रा. विजयो. अधर्म द्रव्य-१. जह हवदि धम्मदव्वं तह तं टी. ३६) । १७. ठिदिकारणं अधम्मो विसामठाणं जाणेह दव्वमधमक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारण- च होइ जह छाया । पहियाणं रुक्खस्स य गच्छंतं भूदं तु पुढवीव । (पञ्चा . का.८६)। २. गमणणि- णेव सो धरई ॥ (भावसं. ३०७) । १८. ठाणमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीव-पुग्गलाणं च। जुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी ।
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अधर्मद्रव्य] ३६, जैन-लक्षणावली
[अधःकर्म छाया जह पहियाणां गच्छंता णेव सो धरई ॥ शश्वदनयोः स्थित्यात्मशक्तावपि ॥ (अध्या. मा. ( द्रव्यसं. १८)। १६. द्रव्याणां पुद्गलादीनाम- ३-३१) ।३७.xxx अधर्मः स्थित्युपग्रहः ॥(जम्बू. धर्मः स्थितिकारणम् । लोकेऽभिव्यापकत्वादिधर्मो- च. ३-३४)। ३८. तद्विपरीतलक्षणः (स्वयं स्थितिऽधर्मोऽपि धर्मवत् ॥ (चन्द्र. च. १५-७१)। २०. क्रियापरिणामिनां जीव-पुदगलानां साचिव्यं योददाति स्वहेतुस्थितिमज्जीव-पुद्गलस्थितिकारणम् । अधर्मः सः)। (त. सुखबो. वृ. ५-१) xx॥ (मा. सा. ३-२१)। २१. जीव पुद्गलयोः ४ जो स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गल द्रव्यों के स्थितिहेतुलक्षणोऽधर्मः । (पंचा. का. जय. वृ. ३)। ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। २२. दत्ते स्थिति प्रपन्नानां जीवादीनामयं स्थितिम् ।
अधर्मास्तिकायद्रव्यत्व-क्रम-योगपद्यवृत्तिस्वपर्याअधर्मः सहकारित्वाद्यथा छायाध्ववर्तिनाम् ॥
यव्याप्यधर्मास्तिकायत्वोपहितं सत्त्वमधर्मास्तिकाय(ज्ञाना. ६,४३)। २३. स्वकीयोपादानकारणेन स्वय
द्रव्यत्वम् । (स्या. र. वृ. पृ. १०) । मेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामधर्मद्रव्यं स्थितेः सह
अधर्मास्तिकाय की क्रम से और युगपद होने वाली कारिकारणम्, लोकव्यवहारेण तु छायावद्वा पृथिवी
अपनी पर्यायों से समन्वित द्रव्यता को अधर्मास्तिवद्वेति । (बु. द्रव्यसं. १८)। २४. स्वभाव-विभाव
कायद्रव्यत्व कहते हैं। स्थितिपरिणतानां तेषां (जीव-पुद्गलानां) स्थितिहे
अधर्मास्तिकायानुभाग-तेसि-(जीव-पोग्गलाण-) तुरधर्मः । (नि.सा.टी.६)। २५.XXअहम्मो ठाणलक्खणो। (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ५, पृ. २२)। २६.
मवट्ठाणहेदुत्वं अधम्मत्थिकायाणुभागो। (धव. पु. अधर्मास्तिकायः स्थानं स्थितिस्तल्लक्षणः । (उत्तरा.
१३, पृ. ३४६)। वृ. २८, ८)। २७. XXX थिरसंठाणो अह
जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहायक होना, म्मो य । (नवत. ६) । २८. जीवानां पुद्गलानां च
यह अधर्मास्तिकाय का अनुभाग (शक्ति) है। स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपष्टम्भको- अधःकर्म(प्राधाकम्म, अहेकम्म)- देखो आधाकर्म । ऽमर्तोऽसंख्यातप्रदेशात्मकोऽधर्मास्तिकायः । (जीवाजी. १. जं तं प्राधाकम्म णाम ॥ तं प्रोद्दावण-विद्दावणमलय. वृ. ४) । २६. स्थितिहेतुरधर्म: स्यात् परि- प्रारंभकदणिप्फण्णं तं सव्वं प्राधाकम्मं णाम ॥ णामी तयोः स्थितेः। सर्वसाधारणोऽधर्मःXXX॥ (षट्खं. ५, ४, २१-२२-धव.पु. १३, प. ४६) । २. (द्रव्यानु. १०-५)। ३०. जीवानां पुद्गलानां च जं दव्वं उदगाइसु छुढमहे वयइ जं च भारेण । प्रपन्नानां स्वयं स्थितिम् । अधर्मः सहकार्येषुxx सीईए रज्जुएण व ओयरणं दव्वऽहेकम्मं । संजमXI (योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. ११३)। ठाणाणं कंडगाण लेसा-ठिईविसेसाणं । भावं अहे ३१. तयोरेव (जीव-पुद्गल योः)साधारण्येन स्थितिहे- करेई तम्हा तं भावऽहेकम्मं ।। (पि. नि. ६८-६६)। तुरधर्मः । (भ. प्रा. मूला. ३६) । ३२. स्थानक्रिया- ३. विशुद्धसंयमस्थानेभ्यः प्रतिपत्याऽऽत्मानमविशुद्धवतोर्जीव - पुद्गलयोस्तत्क्रियासाधनभूतमधर्मद्रव्यम्। संयमस्थानेषु यदधोऽघः करोति तदधःकर्म । (बृह(गो. जी. जी. प्र. ६०५)। ३३. अधर्मः स्थिति- क. भा. ४)। ४. संयमस्थानानां कण्डकानां संख्यादानाय हेतर्भवति तद्वयोः । (भावसं. वाम. ६६४)। तीतसंयमस्थानसमुदायरूपाणाम्, उपलक्षणमेतत् ३४. स्थानयूक्तानां स्थिते: सहकारिकारणमधर्मः। षट्स्थानकानां संयमश्रेणश्च, तथा लेश्यानां तथा (पारा. सा. टी. ४) । ३५. स्थितिपरिणामपरिण- सातावेदनीयादिशुभप्रकृतीनां सम्बन्धिनां स्थितितानां स्थित्यपष्टम्भकोऽधर्मास्तिकायो मत्स्यादीना- विशेषाणां च सम्बन्धिष विशदेष विशद्धतरेष मिव मेदिनी, विवक्षया जलं वा । (स्थाना. अभय. स्थानेषु वर्तमानं सन्तं निजं भावम्-अध्यवसायम् व. १-८); अधर्मास्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः। -यस्मादाधाकर्म भुजानः साधुरधः करोति(स्थाना. अभय. २-५८) । ३६. तिष्ठद्भाववतोश्च हीनेषु हीनतरेषु स्थानेषु विधत्ते-तस्मादाधाकर्म पुद्गल-चितोश्चौदास्यभावेन यद्धेतुत्वं पथिकस्य भावादधःकर्म । (पि. नि. मलय. वृ. ६६)। ५. मार्गमटतश्छाया यथावस्थितेः । धर्मोऽधर्मसमाह्व- साध्वर्थं यत् सचित्तमचित्तीक्रियते अचित्तं वा यत् यस्य गतमोहात्मप्रदिष्टः सदा शुद्धोऽयं सकृदेव पच्यते तदाधाकर्म । (प्राचा. शी. वृ. २, १, २६६)।।
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अधःप्रवृत्तकरण] ३७, जैन-लक्षणावली
[अधःप्रवृत्तसंक्रम ६. एतैः (प्रारम्भोपद्रव-विद्रावण-परितापनः) चतु- अंतोमुत्तमेत्तसमयपंतिमुड्ढायारेण ठएदूण टुविय भिर्दोषनिष्पन्नमन्नमतिनिन्दितमधःकर्म । (भ तेसिं समयाणं पायोग्गपरिणामपरूवणं कस्सामोटो.९६)
पढमसमयपाप्रोग्गपरिणामा असंखेज्जा लोगा, अधा१ उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और प्रारम्भ पवत्तकरणविदियसमयपायोग्गा वि परिणामा असंइन कार्यों से उत्पन्न-उनके प्राश्रयभूत-प्रौदा- खेज्जा लोगा। एवं समयं पडि अधापवत्तपरिणारिक शरीर को अधःकर्म कहा जाता है। २ अध:- माणं पमाणपरूवणं कादव्वं जाव अधापवत्तकरणकर्म दो प्रकारका है-द्रव्य अधःकर्म और द्धाए चरिमसमग्रो त्ति । पढमसमयपरिणामेहितो भाव अधःकर्म। पानी आदि में छोड़ी गई वस्तु विदियसमयपापोग्गपरिणामा विसेसाहिया। विसेसो (पाषाण प्रावि) स्वभावत. अपने भार से नीचे पुण अंतोमुहत्तपडिभागियो। विदियसमयपरिणामेजाती है, अथवा नसैनी या रस्सी के सहारे जो हिंतो तदियसमयपरिणामा विसेसाहिया । एवं नीचे उतरते हैं; यह द्रव्य अधःकर्म है। असंख्यात णेयव्वं जाव अधापवत्तकरणद्धाए चरिमसमग्रो त्ति । संयमस्थानों के समुदाय रूप संयमकाण्डक, छह (धव. पु. ६, पृ. २१४-२१५) स्थानकों की संयमणि, लेश्या और सातावेदनीय प्रथम समय के योग्य अधःप्रवृत्त-परिणामों की प्रादि पुण्य प्रकृतियों सम्बन्धी स्थितिविशेष; इनसे । अपेक्षा द्वितीय समय के योग्य परिणाम अनन्तगुणे सम्बन्धित विशुद्ध व विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान विशुद्ध होते हैं, इनकी अपेक्षा तृतीय समय के योग्य साधु चूंकि प्राधाकर्म का उपभोग करता हुआ परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं, इस प्रकार अपने भाव को-अध्यवसाय को-नीचे करता है- अन्तर्मुहूर्त के समयों प्रमाण उन परिणामों में होन से हीनतर स्थानों में करता है, अतएव उस समयोत्तरक्रम से अनन्तगुणी विशुद्धि समझना प्राधाकर्म को प्रधःकर्म कहा जाता है।
चाहिए। अधःप्रवृत्तकरण (अधापवत्तकरण)-१. एदासि । अधःप्रवृत्तसंक्रम (प्रहापवत्तसंकम)-१. बंधे विसोधीणमधापवत्तलक्खणाणमधापवत्तकरणमिदि अहापवित्तो परित्तियो वा प्रबंधे वि। (कर्मप्र. सण्णा । कुदो ? उवरिमपरिणामा अध हेद्रा हेट्रि- संक्रम. गा. ६६, प. १८४) । २. अहापवत्तसंकमो मपरिणामेसु पवत्तंति त्ति अधापवत्तसण्णा । (धव. णाम संसारत्थाणं जीवाणं बंधणजोग्गाणं कम्माणं पु. ६, २१७) । २. जम्हा हेट्रिमभावा उवरिम- बज्झमाणाणं अबज्झमाणाणं वा थोवातो थोत्रं बहुभावेहिं सरिसगा हुंति । तम्हा पढमं करणं अघाप- गाओ बहुगं बज्झमाणीसु य संकमणं । (कर्मप्र. चू. वत्तो ति णिट्॥ि (गो. जी. ४८; ल. सा. ३५)। संक्रम. गा. ६६, पृ. १०६) । ३. बंधपयडीणं सग३. अथ प्रागप्रवृत्ताः कदाचिदीदशाः करणा: परिणामा बंधसंभवविसए जो पदेससंकमो सो अधापवत्तसंकमो यत्र तदथाप्रवृत्तकरणम् । अधस्थैरुपरिस्थाः समानाः त्ति भण्णदे । (जयध. भा. ६, पृ. १७१)। ४. ध्रुवप्रवृत्ताः करणा यत्र तदधःप्रवृत्त करणमिति चान्वर्थ- बधिनीनां प्रकृतीनां बन्धे सति यथाप्रवत्तसंक्रमः संज्ञा ।। (पंचसं. अमित. १, पृ. ३८)। ४. अधःप्रध- प्रवर्तते । XXX इयमत्र भावना-सर्वेषामपि स्तनसमये वृत्ताः प्रवृत्ता इव करणाः उपरितनसमय- संसारस्थानामसुमतां ध्रुवबन्धिनीनां बन्धे, परावर्त. वतिविशुद्धिपरिणामा यस्मिन् सन्ति स अधःप्रवृत्त- प्रकृतीनां तु स्व-स्वभवबन्धयोग्यानां बन्धेऽबन्धे वा करणः । (गो. जी. म. प्र.टी. २४८)।
यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति। (कर्मप्र. मलय.व. संक्रम. २ अधःप्रवृत्तकरण परिणाम वे कहलाते हैं जो अधस्तन ६६, पृ. १८४-८५) । ५. बन्धप्रकृतीनां स्वबन्धसमयवर्ती परिणाम उपरितन समयवर्ती परिणामों सम्भवविषये यः प्रदेशसंक्रमस्तदधःप्रवृत्तसंक्रमण के साथ कदाचित् समानता रखते हैं । उनका दूसरा नाम । (गो. क. जी. प्र. टी. ४१३) । नाम प्रथाप्रवृत्तकरण भी है। ये परिणाम अप्रमत्त- १, ४ संसारी जीवों के ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का संयत गुणस्थान में पाये जाते हैं।
उनके बन्ध के होने पर, तथा स्व-स्व-भवबन्धयोग्य अधःप्रवृत्तकरणविशुद्धि-तत्थ अधापवत्तकरण- परावर्तमान प्रकृतियों का बन्ध या प्रबन्ध की दशा सण्णिदविसोहीणं लक्खणं उच्चदे। तं जधा- में भी जो प्रदेशसंक्रम-परप्रकृतिरूप परिणमन
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अधिक]
३८, जैन-लक्षणावली [अधि (अभि) गतचारित्रार्य होता है, उसे यथाप्रवृत्त या अधःप्रवृत्तसंक्रम करणं च । (त. भा. ६-८)। कहते हैं। ३ अपने बन्ध की सम्भावना रहने पर जहाँ पुरुषों के प्रयोजन अधिकृत अर्थात् प्रस्तुत होते जो बन्धप्रकृतियों का प्रदेशसंक्रम-परप्रकृतिरूप हैं वह अधिकरण-द्रव्य-कहलाता है, यह अघिपरिणमन-होता है उसे अधःप्रवृत्तसंक्रम कहा करण का निरुक्त लक्षण है। जाता है।
अधिकरणक्रिया--देखो प्राधिकरणिकी क्रिया । अधिक (सूत्रदोष)-वर्णादिभिरभ्यधिकमधिकम् १. हिंसोपकरणादानं तथाधिकरणक्रिया ॥ (त. xx, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिकम् । यथा- श्लो. ६, ५, ६)। २. अधिक्रियते येनात्मा दुर्गतिअनित्यः शब्दः, कृतकत्व-प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां प्रस्थानं प्रति तदधिकरणं परोपघातिकट-गलपाशादिघट-पटवदित्यादि । (प्राव. हरि. व मलय.वृ.८८१)। द्रव्यजातम्, तद्विषयाऽधिकरणक्रिया। (त. भा. सिद्ध. वर्णादि से अधिक होना, यह अधिक नामका सूत्र- वृ.६-६)। ३. हिंसोपकरणाधिकृति रधिकरणक्रिया। दोष है। अथवा हेतु और उदाहरणसे अधिक होना, (त. सुखबो. व. ६-५)। ४. अधिक्रियते स्थाप्यते इसे अधिक नामका सूत्रदोष समझना चाहिए। नरकादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणमनुष्ठानविशेषो बाह्य जैसे-'शब्द अनित्य है। इस प्रतिज्ञावाक्य की पुष्टि वस्तु वा चक्र-खड्गादि, तत्र भवा तेन वा निर्वता के लिए कृतकत्व व प्रयत्नानन्तरीयत्व रूप हेतु और प्राधिकरणिकी। (प्रज्ञाप. मलय. व. २२-२७६); घट-पदादिरूप उदाहरण का अधिक प्रयोग। प्राधिकरणिकी खड्गादिप्रगुणीकरणम् । (प्रज्ञा अधिकमास–१. तन्मध्ये (युगमध्ये)ऽन्ते चाधिक- मलय. वृ. २२-२८१) । मासौ। (त. भा. ४-१५)। २. तेषां पञ्चानां १ हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना अधिकरणसंवत्सराणां मध्येऽभिवधिताख्येऽधिमासकः, एतदन्ते क्रिया या प्राधिकरणिकी क्रिया कहलाती है। चाभिवधित एव । (त. भा. हरि. वृ. ४-१५)। अधिकरणोदीरक (अहिगरणोदीरण)-अधिकर३. तेषां पंचानां संवत्सराणां मध्येऽभिवधिताख्ये णोदीरकम्-खामिय-उवसमियाई अहिगरणाइं पुणो . संवत्सरेऽधिकमासकः पतति, अन्ते च अभिवधित उदीरेइ। जो कोइ तस्स वयणं अहिगरणोदीरणं एव । (त. भा. सिद्ध वृ. ४-१५)। ४. इगिमासे [ग] भणिग्रं । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ५, पृ. १९)। दिणवडढी वस्से बारह दुवस्सगे सदले । अहियो जो क्षमित और उपशान्त अधिकरणों को पुनः मासो पंचयवासप्पजुगे दुमासहिया । (त्रि. सा. उदीर्ण करता है उसके वचन को अधिकरण-उदीरक ४१०)। ५. एकस्मिन् मासे दिनैकवृद्धिः, एकस्मिन् कहा जाता है। वर्षे द्वादशदिनवृद्धिः,दलसहिते द्विवर्षे एकमासोऽधिकः, अधिक-हीन-मान-तुला-मानं प्रस्थादि हस्तादि पञ्चवर्षात्मके युगे द्वौ मासौ अधिकौxxx। च, तुला उन्मानम्, मानं च तुला च मान-तुलम, (त्रि. सा. टी. ४१०)।
अधिकं च हीनं चाधिक-हीनम्, तच्च तन्मान-तुलं च ४ एक मास में एक दिन की वृद्धि होती है। इस (अधिक-हीनमान-तुलम्)। अधिकमाने हीनमानम्, प्रकार से एक वर्ष में १२ दिन की व अढाई वर्षों अधिकतूला हीनतुला चेत्यर्थः । तत्र न्यूनेन मानादिमें एक मास की वृद्धि होती है। यह एक मास ना ऽन्यस्मै ददाति, अधिकेनात्मनो गृह्णातीत्येवअधिक मास कहलाता है । पञ्चवर्षात्मक युग के - मादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानमित्यर्थः । (सा. भीतर दो मास अधिक होते हैं।
• ध. स्वो. टीका ४-५०)। अधिकरण-अधिक्रियन्तेऽस्मिन्नर्था इत्यधिकर- नाप-तौल के पात्रों और बांटों को हीनाधिक रखना णम् ॥ अर्थाः प्रयोजनानि पुरुषाणां यत्राधिक्रि- और अधिक से लेना तथा हीन से देना, यह प्रचौ. यन्ते प्रस्तूयन्ते तदधिकरणम्, द्रव्यमित्यर्थः । (त. र्याणवत का अधिक-हीन-मान-तुला नामक अतिवा.६, ६, ५)। २. अधिकरणं द्विविधम्-द्रव्याधि- चार है। करणं भावाधिकरणं च। तत्र द्रव्याधिकरणं छेदन- अधि (प
अधि (अभि)गतचारित्रार्य - चारित्रमोहस्योपभेदनादि, शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणमष्टो- शमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव तरसतविधम् । एतदुभयं जीवाधिकरणमजीवाधि. चारित्रपरिणामास्कन्दिनः उपशान्तकषायाः क्षीण
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अधिगम] ३६, जैन-लक्षणावली
[अधोऽति (व्यति) क्रम कषायाश्चाऽधिगतचारित्रार्याः (त. वा. ३, ३६,२)। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३) । ८. xxx जिनाचारित्रमोह के उपशम अथवा क्षय से जो उपशान्त- गमाभ्यासभवं द्वितीयम् ॥ (धर्मप. २०-६६)। ६. कषाय अथवा क्षीणकषाय जीव बाह्य उपदेश की गुरूपदेशमालम्ब्य सर्वेषामपि देहिनाम् । यत्तु सम्यक अपेक्षा न कर प्रात्मनर्मल्य से ही चारित्ररूप परि- श्रद्धानं तत् स्यादधिगमजं परम् ॥ (योगशा. स्वो. णाम को प्राप्त होते हैं उन्हें अधिगतचारित्रार्य कहा विव. १-१७, पृ. ११), १०. गुरूपदेशमालम्ब्य जाता है।
भव्यानामिह देहिनाम् । सभ्यक् श्रद्धानं तु यत्तद् अधिगम--१. शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थकान्य- भवेदधिगमोद्भवम् ।। (त्रि. श. पु. च. १३.-५६८)। घिगमस्य । (प्रशम. प्र. २२३) । २. अधिगमो ११.xxxतत्कृतोऽधिमश्च सः ॥ णाणपमाणमिदि एगट्रो। (घव. पू. ३, प. ३६)। ४८)। स तत्त्वबोधःXxxतत्कृतस्तेन परोप३. अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते पदार्था येन सोऽधि- देशेन जनितः । (अन.ध. स्वो. टीका २-४८)। १२. गमः-ज्ञानमेवोच्यते । (प्राव. हरि. व. नि. यत्पुनः परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यर्थनिश्चयादाविर्भवति ११५४) । ४. अधिगच्छत्यनेन तत्त्वार्थानधिगमयत्य- तदधिगमजम् । (त.सुखबो.वृ.१-३) । १३. यत्सम्यनेनेति वाऽधिगमः । (त. श्लो. वा. १-१) । ५. ग्दर्शनं परोपदेशेनोत्पद्यते तदधिगमजमुच्यते । (त. अधिगमो हि स्वार्थाकारव्यवसायः । (प्रष्टस. २, वृ. श्रुत.१-३)। १४. यत्पुनश्चान्तरङ्गेऽस्मिन् सति ३६)। ६. निश्चीयते पदार्थानां लक्षणं नयभेदतः। हेतौ तथाविधि । उपदेशादिसापेक्षं स्यादधिगमसंज्ञसोऽधिगमोऽभिमन्तव्यः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः ॥ कम् ।। लाटीसं. ३-२२) (भावसं. वाम. ३३६) । ७. जीवाद्यर्थस्वरूपावधार- १ परोपदेशपूर्वक जीवादि तत्त्वों के निश्चय से जो णमधिगमः । (त. सुखबो. वृ. १-३)।
सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, उसे अधिगम या अधि३ जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं, ऐसे ज्ञान को गमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। अधिगम कहते हैं। ४ जिसके द्वारा तत्त्वार्थों को अधिराज (अहिराज)-१. पंचसयरायसामी अहिस्वयं जानता है, अथवा जिसके प्राश्रय से उनका राजो होदि कित्तिभरिददिसो। (ति. प. १-४५)। बोध दूसरों को कराया जाता है, उसे अधिगम २. पञ्चशतनरपतीनामधिराजोऽधीश्वरो भवति कहते हैं।
लोके । (धव. पु. १, पृ. ५७ उदधत), ३. पंचसयअधिगम या अधिगमज सम्यग्दर्शन-१. यत्परोप- रायसामी अहिराजोxxx॥ (त्रि. सा. ६८४) देशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं स्यात्तदुत्तरम् । (स. पांच सौ राजाओं के स्वामी को अधिराज कहते हैं। सि. १-३; त. वा. १-३) । २. अथबा, यत् सम्य- अधिवास-गन्धमाल्यादिभिः संस्कारविशेषः । ग्दर्शनं विध्युपायज्ञमनुष्यसम्पर्काज्जीवादिपदार्थ- (चैत्यवं. भा. चू. पृ. ५) तत्त्वाधिगमापेक्षमुत्पद्यते तदधिगमसम्यग्दर्शनम् । १ गन्ध व माला प्रादि के द्वारा किये जाने वाले (त. वा. १, ३, ८)। ३. अधिगमःअभिगमः प्रागमो संस्कारविशेष को अधिवास कहते हैं। निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम्। अधोऽति(व्यति)क्रम – १. कूपावतरणादेरघोतदेवं परोपदेशाद्यत्तत्त्वार्थश्रद्धानं भवति तदधिगम- ऽतिक्रमः । (स. सि. ७-३०) । २. कूपावतरणासम्यग्दर्शनमिति । (त. भा.१-३)। ४. अधिगमा- देरधोऽतिवृत्तिः । (त. वा. ७, ३०, ३; त. श्लो . ज्जीवादिपदार्थपरिच्छेदलक्षणात् श्रद्धानलक्षणमधि- ७-३०)। ३. कूपावतरणादिरघोऽतिक्रमः । (चा. सा. गमसम्यक्त्वम् । (प्राव. हरि. व. नि. ११४२)। ५. प. ८)। ४. अधो ग्राम-भूमिगृह-कूपादे: XXX परोपदेशतस्तु बाह्यनिमित्तापेक्षं कर्मोपशमादिज- योऽसौ भागो नियमितः प्रदेशः तस्य व्यतिक्रमः । मेवाधिगमसम्यग्दर्शन मिति । (त. भा. हरि. व. १, (योगशा. स्वो. विव. ३-६७), ५.अधो ग्राम-भूमि३)। ६. xxx अधिगमस्तेन (परोपदेशेन) कृतं गृह-कृपादेः व्यतिक्रमः । (सा. ध. स्वो. : तदिति निश्चयः ॥ (त. श्लो. १, ३, ३) । ७. ६. अवटाद्यवतरणमधोव्यतिक्रमः । (त. वृत्ति श्रुत. यत्पुनस्तीर्थकराधुपदेशे सति बाह्यनिमित्तसव्यपेक्ष- ७-३०)। ७. वापीकूपभूमिगृहाद्यवतरणमधोव्यतिमुपशमादिभ्यो जायते तदधिगमसम्यग्दर्शनमिति । क्रमः, अधोदिशः अतिलंघनम् अतिचारः । (कार्तिके.
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अधोदिग्वत] ४०, जैन-लक्षणावली
[अध्यवसान ३४२) । ८. अगाधभूधरावेशाद् विख्यातोऽधोव्य- अथवा रसोई तैयार होने तक साधु को चर्चा प्रादि तिक्रमः । (लाटोसं. ६-११८)।
करके रोके रहना भी अध्यधिदोष कहलाता है। १ कप व बावड़ी आदि में नीचे उतरने की स्वीकृत
अध्ययन (अज्झयण)- १. जेण सुहप्पज्झयणं सीमा के उल्लंघन को अधोऽतिक्रम कहते हैं ।
अज्झप्पाणयणमहियमयणं वा । बोहस्स संजमस्स व अधोदिग्व्रत-१. अधोदिकपरिमाणं अधोदिग्वतम् ।
मोक्खस्स व जं तमज्झयणं ॥ (विशे. भा. ६६३)। (श्रा. प्र. टी. २८०)। २. अधोदिक तत्सम्बन्धि
२. अधिगम्मति व अत्था अणेण अधिगं व णयणतस्यां वा व्रतं अधोदिग्वतम् अर्वाग्दिव्रतम्, एतावती ।
मिच्छति । अधिगं व साहु गच्छति तम्हा अज्झयणदिगध इन्द्रकूपाद्यवतरणादवगाहनीया, न परत इत्येवं
मिच्छति ।। (अभि. रा. १, पृ. २३१)। भूतमिति हृदयम् । (प्राव. वृ. ६, पृ. ८२७)।
. १ जो शुभ (निर्मल) अध्यात्म (चित्त) को उत्पन्न १ अधोदिशा सम्बन्धी कुएँ प्रादि में गमनागमन के
करता है वह अध्ययन है। अथवा जो अध्यात्मको परिमाण को अधोदिग्वत कहते हैं।। अधोलोक-१. हेट्ठिमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो
-निर्मल चित्तवृत्ति को-लाता है उसका नाम
अध्ययन है। अथवा जिसके द्वारा बोध, संयम और सहावेण । (ति. प. १-१३७) । २. वेत्तासणसरि
मोक्ष की प्राप्ति होती है उसे अध्ययन जानना सो च्चिय अहलोगो चेव होइ नायव्वो। (पउमच.
चाहिए। यह अध्ययन का निरुक्त लक्षण है। ३-१९)। ३. तत्र छन्वी नाम विस्तीर्णा पुष्पचङ्गेरी, तदाकारोऽधोलोकः । (प्राव. वृ. टि. मल. हेम. पृ. अध्यवपूरक-देखो अध्यधिदोष । १. अध्यवपूरकं १४)। ४. मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो । (धव. पु. स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपम् । (दशव. हरि. बृ. ५, ४, पृ. ६)।
५५) । २. यद् गृहिणा मूलारम्भे स्वार्थकृते तन्मध्ये १ पुरुषाकार लोक में नीचे का भाग, जो वेत्रासन यतिनिमित्तमधिकावतारणं सोऽध्यवपूरकः । (गु.गु. सदृश है, उसे अधोलोक कहते हैं।
षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ४६)। ३. स्वार्थमधिश्रयअधोव्यतिक्रम-देखो अधोऽतिक्रम ।
णादौ कृते पश्चात्तन्दुलादिप्रक्षेपणादध्यवपुरकः । अध्यदिदोष, अध्यवधिरोध (अज्झोवज्ज)- (प्राचा. शी. वृ. २, १, २६६) । ४. स्वार्थमधिदेखो अध्यवपूरक । १. जलतन्दुलपक्खेवो दाणट्ठ श्रयणे सति साधुसमागमश्रवणात्तदर्थं पुनर्यो धान्यासंजदाण सयपयणे । अज्झोवझं णेयं अहवा पागं दिवापः सोऽध्यवपूरकः । (योगशा. स्वो. विव. १, तु जाव रोहो वा ॥ (मूला. ६-८)। २. तन्दु- ३८)। ५. गृहिणः स्वार्थमग्निज्वालनाद्याद्रहणदालाम्ब्वधिकक्षेपः स्वार्थं पाके यतीन् प्रति । स्यादध्य- नान्ते प्रारम्भे कृते सति पश्चात् स्वार्थकल्पितं वधिरोधो वा पाकान्तं तत्तपस्विनाम् ॥ (प्राचा. तन्दुलमध्ये कर्पटिकार्थ तन्दुलादीनां माणकं संकल्पितं सा. ८-२४)। ३. स्याद्दोषोऽध्यधिरोधो यत् स्व- प्रक्षिप्य राघ्नोति यदा तदध्यवपूरकः । (जीतक. चू. पाके यतिदत्तये । प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वा ऽऽपा- वि. व्या. पृ. ४६)।
वि. व्या. प.४६)। चनाद्यतेः ॥ (अन. ध. ५-८)। ४. अथाध्यवधिर्नाम ४ अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में साधु का दोषो द्वितीय उच्यते यतीनाम्-पाके क्रियमाण
प्रागमन सुन कर उनके निमित्त कुछ और अधिक प्रात्मन्यागते च सति तत्र पाके तन्दुला अम्बु चाधिकं अन्न क मिल
अन्न के मिला देने को अध्यवपूरक कहते हैं। क्षिप्यते सोऽध्यवधिर्दोष उच्यते । अथवा यावत्कालं अध्यवसान-१. स्व-परयोरविवेके सति जीवस्यापाको न भवति तावत्कालं तपस्निां रोधः क्रियते, ध्यवसितिमात्रमध्यवसानम् । (समयप्रा. अमृत. ७. सोऽध्यवधिर्दोषः उत्पद्यते । (भा. प्रा. टीका ६९)। २९५) । २. अध्यवसानं राग-स्नेह-भयात्मकोऽध्यव५. अपवरकं संयतानां भवत्विति विकृतं अज्झो- सायः । (स्थाना. अभय.व. ७-५६१, पृ. ३७६) । वझं । (कातिके. ४४६)।
३. अतिहर्ष-विषादाभ्यामधिकमवसानं चिन्तनमध्यव१. अकस्मात् अतिथि के आ जाने पर अपने लिए सानम् । (विशे.-अभि. रा. १, पृ. २३२); मणपकाई जाने वाली भोज्यसामग्री में और भी जल व संकेप्पेत्ति वा अज्झवसाणं ति वा एगट्ठा। (अभि. चावलादि के मिलाने को अध्यधिदोष कहते हैं। रा. भा. १, पृ. २३२) ।
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अध्यात्म ]
१ स्व श्रौर पर के विवेक के बिना केवल जीव का निश्चय होने को श्रध्यवसान कहते हैं । ३ श्रधिअतिशय हर्ष-विषादसे जो अधिक अवसान चिन्तन होता है उसका नाम श्रध्यवसान है। यह अध्यवसान का निरुक्त लक्षण है । मन का संकल्प और प्रध्यवसान ये दोनों समानार्थक हैं ।
४१, जैन-लक्षणावली
श्रध्यात्म - १. गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥ ( अध्या. सा. २ - २ ) । २. ग्रात्मानमधिकृत्य स्याद्यः पञ्चाचारचारिमा । शब्दयोगार्थ निपुणास्तदध्यात्मं प्रचक्षते ।। ( श्रध्यात्मो. १-२ ) ।
१ निर्मोह अवस्था में श्रात्मा को अधिकृत करके जो शुद्ध क्रिया प्रवर्तित होती है उसका नाम श्रध्याम है ।
श्रध्यात्मक्रिया - १ कोङ्कणसाघोरिव यदि सुता: सम्प्रतिक्षेत्रवल्लराणि ज्वलयन्ति, तदा भव्यमित्यादि चिन्तनमध्यात्मक्रिया । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३, २७, पृ. ८२ ) । २. अध्यात्मक्रिया चित्तकलमलकरूपा । (गु. गु. ष. वृत्ति पू. ४१ ) । २ चित्त की कलमलक रूप क्रिया का नाम अध्यामक्रिया है ।
श्रध्यात्ममयी क्रिया - प्र पुनर्बन्धकाद्यावद् गुणस्थानं चतुर्दशम् । क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाऽध्यात्ममयी मता ।। ( श्रध्या. सा. २ - ४ ) ।
पुनर्बन्धक - फिर से उत्कृष्ट बन्ध न करने वाले - गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ने वाली विशुद्धिरूप क्रिया को अध्यात्ममयी क्रिया कहते हैं । अध्यात्मयोग - १. प्रात्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो । ह्यध्यात्मयोग: XXX II ( यशस्ति. ६ - १ ) । २. तत्र अनादिपरभावं प्रोदयिकभावरमणीयताधर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुष्टिहेतुक्रियां कुर्वन् प्रधर्मं धर्मवृत्त्या इच्छन् प्रवृत्तः स एव निरामयः निःसङ्गशुद्धात्मभावनाभावितान्तःकरणस्य स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्या श्रध्यात्मयोगः । ( ज्ञानसार वू. ६-१, पू. २२) । १ आत्मा, मन और वायु के श्रध्यात्मयोग कहते हैं । श्रध्यात्मविद्या - अधिकमधिकृतं वाऽधिष्ठितं वा
ल. ६
[ ध्रुव प्रत्यय
यदात्मन्यधिगमजनितं वा निस्तरङ्गान्तरङ्गम् । निरबधि निरवद्यं वेदनं मुक्तिहेतुः स्फुटघटितनिरुक्तिः संवमध्यात्मविद्या ॥ ( श्रात्मप्र. ४८ ) । आत्मविषयक ज्ञान से जो संकल्प-विकल्प से रहित निर्मल अन्तरङ्ग होता है, यही प्रध्यात्मविद्या है। श्रध्यात्मवैरिणी क्रिया - आहारोपधिपूर्जाद्वगौरवप्रतिबन्धतः । भवाभिनन्दी यां कुर्यात् क्रियां साSध्यात्मवैरिणी ॥ ( श्रध्यात्मसार २ - ५ ) ।
अपने संसार को वृद्धिगत करने वाले जीव के द्वारा आहार, परिग्रह, पूजा व ऋद्धि गौरव आदि से सम्बद्ध जो क्रिया की जाती है वह अध्यात्मवैरिणी कही जाती है ।
श्रध्यापकवर्णजनन --- देखो उपाध्यायवर्णजनन । १. अधिगतश्रुतार्थ याथातथ्यवाच्यवाचकानुरूपव्याख्याना: निरस्तनिद्रा तन्द्रा - प्रमादाः सुचरिताः सुशीला: सुमेधसः इत्यध्यापकवर्णजननम् । (भ. श्री. विजयो. टी. १ - ४७) । २. उपेत्य विनयेन ढौकित्वा sated श्रुतमेतेभ्य इति उपाध्यायाः । प्रबुद्धजिना - गमार्थयाथातथ्याः सुचरितचुडामणयः षट्तर्की सुरस्रोतस्विनीनदीष्णमतयो निरस्तनिद्रा तन्द्रा-प्रमादाः सुमेधसः शिष्यमेधानुरूपव्याख्याना इत्यध्यापकवर्णजननम् । (भ. श्री. मूला. टी. ४७ ) । पठितश्रुत के अर्थ का यथार्थ वाच्य वाचक भावके अनुसार व्याख्यान करने वाले अध्यापक - उपाध्याय - निद्रा, श्रालस्य व प्रमाद से रहित होते हुए अपने पद के योग्य उत्तम श्राचरण करनेवाले व निर्मल बुद्धि के धारक होते हैं। इस प्रकार अध्यापकों की स्तुति करने का नाम श्रध्यापकवर्णजनन है । श्रध्येषरणा - १. प्रध्येषणीये प्रयोक्तुरनुग्रहद्योतिकाऽध्येषणा । (शास्त्रवा.टी. ३ - ३) । २. अध्येषणा सत्कारपूर्वो व्यापारः । (भ्रष्टस. यशो. वृ. ३, पृ. ५८ ) । २ सत्कार - पूर्वक किये जाने वाले व्यापार को श्रध्येषणा कहते हैं ।
ध्रुव प्रत्यय - देखो अध्रुवावग्रह । स एवायमहमेव स इति प्रत्ययो ध्रुवः, तत्प्रतिपक्षः प्रत्ययः ध्रुवः । ( धव. पु. ६, पृ. १५४ ) ; विद्युत्प्रदीपएक रूप समायोग को ज्वालादी उत्पाद - विनाशविशिष्टवस्तुप्रत्ययः अध्रुवः । उत्पाद - व्यय- ध्रौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुवः, ध्रुवात् पृथग्भूतत्वात् । ( धव. पु. १३, पृ. २३९ ) ।
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अध्रुवबन्ध] ४२, जैन-लक्षणावली
[अध्वर्य कभी बहुत पदार्थों का तो कभी स्तोक पदार्थ का, समान विलीन हो जाती हैं, ऐसा चिन्तवन करना अथवा कभी बहुत प्रकारके पदार्थ का तो कभी अध्र वानप्रेक्षा है। एक प्रकारके पदार्थ का, इस प्रकार होनाधिकरूप अध्र वावग्रह-१. कदाचिद् बहूनां कदाचिदल्पस्य से जो पदार्थ का अवग्रह होता है उसे अध्र वप्रत्यय कदाचिद् वहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाया अध्र वावग्रह कहते हैं।
धिकभावादध्रुवावग्रहः । (स. सि. १-१६) । प्रध्र व बन्ध-१.कालान्तरे व्यवच्छेदभागध्रुवः । २. पौनःपुन्येन संक्लेश-विशद्धिपरिणामकारणापेक्ष(पञ्चसं. मलय. व. ५-२३)। २. यः पुनरायत्यां स्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसान्निध्येकदाचिद् व्यवच्छेदं प्राप्स्यति स भव्यसम्बन्धी बन्धो ऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृऽध्रुवः । (शतक. मल. हेम. टी. ३६, पृ. ५२)। ष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणतत्वाच्चाजिस बन्ध की अागामी काल में कभी व्युच्छित्ति ध्रुवमवगृह्णाति XXXI(त. वा. १, १६, १६) । होगी ऐसे भव्य जीवों के कर्मबन्ध को अध्र व बन्ध ३. न सोऽयमित्याद्य ध्रुवावग्न हः। (घव. पु. १, पृ. कहते हैं।
३५७); तब्विवरीय-(अणिच्चत्ताए) गहणमद्धवावअध्र वबन्धिनी-१. निजबन्धहेतुसम्भवेऽपि भज- गहो। (धव. पु. ६, पृ. २१)। ४. विद्युदादेरनिनीयबन्धा अध्रुवबन्धिन्यः । (कर्मप्र. मलय. वृ. पृ. त्यत्वेनान्वितस्याध्रुवो ग्रहः । (प्राचा. सा. ४-२६)। ८)। २. यासां च निजहेतुसद्भावेऽपि नावश्यम्भावी ५. तद्विपरीत-(अयथार्थग्रहण-) लक्षणः पुनरध्रुवावबन्धस्ता अध्रुवबन्धिन्यः । (शतक. दे. स्वो.टी. १)। ग्रहः । (त. सुखबो. वृ. १-१६)। बन्धकारणों का सदभाव होने पर भी जिन प्रकृ- १ कभी बहत पदार्थों का तो कभी स्तोक पदार्थ तियों का कदाचित् बन्ध होता है और कदाचित् का, अथवा कभी बहुत प्रकारके पदार्थ का तो नहीं भी होता है, उन्हें अध्र वबन्धिनी कहते हैं। कभी एक ही प्रकारके पदार्थ का; इस प्रकार हीनाअध्र वसत्कर्म, अध्र वसत्ताक-१. यत कादाचित्क- धिकरूप जो पदार्थ का अवग्रह होता है उसे अध्र वाभावि तदध्रुवसत्कर्म । (पञ्चसं. स्वो. वृ. ३-५५)। वग्रह कहते हैं। २. यत् पुनरवाप्तगुणानामपि कदाचिद् भवति, कदा- अध्र वोदय– १. वोच्छिण्णो वि हु संभवइ जाण चिन्न, तदध्रवसत्कर्म । (पञ्चसं. मलय.व. ३-५५)। अधूवोदया तायो। (पञ्चसं. गा. ३-१५६, प. ३. यास्तु कादाचित्कभाविन्यस्ता अध्रुवसत्ताकाः। ४८); यासां तु व्यवच्छिन्नोऽपि विनाशमुपगतोऽपि (शतक. दे. स्वो. टी. गा. १)। ४. कदाचिद (उदयो) भूयः प्रादुर्भवति तथाविधहेतुसम्बन्धं प्राप्य भवन्ति कदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासां ता अध्रुवोदयाख्याः । (पञ्चसं. स्वो. वृ. ३-३८)। ता अध्रुवसत्ताकाः । (कर्मप्र. यशो. टीका गा. १)। २. यासां पुनः प्रकृतीनां व्यवच्छिन्नोऽपि विनाशमु२ विवक्षित कर्मप्रकृतियों का जो सत्कर्म उत्तर- पगतोऽपि, ह निश्चितं, तथाविधद्रव्यादिसामग्रीविगणों के प्राप्त होने पर भी कदाचित् होता है और शेषरूपं हेतं सम्प्राप्य भूयोऽप्युदय उपजायते ता अध्रकदाचित् नहीं भी होता है वह अध्र व सत्कर्म कह- वोदया: सातवेदनीयादयः । (पञ्चसं. मलय. वृ. लाता है। ४ जिनकी सत्ता अनियत हो-कभी ३-३८)। ३. XXXX एगसमयादिअंतोमुपाई जावे और कभी न पाई जावे-ऐसी कर्म- हत्त मेत्तकालावदाणस्सेव अद्धवोदयविवक्खादो । प्रकृतियों को प्रध्र वसत्कर्म या अध्र वसत्ताक (संतकम्मपंजिया-धव. पु. १५, पृ. २४)। कहते हैं।
२ उदय-व्यच्छित्ति हो जाने पर भी द्रव्यादि क्षिा-लोगो विलीयदि इमो फेणो व्व सामग्रीविशेष के निमित्त से जिनका उदय पुनः सदेव-माणुस तिरिक्खो। रिद्धीग्रो सव्वानो सिविणय- सम्भव है ऐसी सातावेदनीयादि प्रकृतियों को प्रध्रसंदसणसमारो ।। (भ. पा. १७१६)।
वोदय कहते हैं। यह चतुर्गतिरूप लोक जलफेन या बुबुद के समान अध्वर्यु-षोडशानामुदारात्मा य: प्रभु वनविदेखते-देखते ही विलय को प्राप्त हो जाता है और जाम् । सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोद्धरः ।। ये सांसारिक ऋद्धियां स्वप्न में देखे हुए राज्यादि के (उपासका. ८८३)
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अनक्षरगता भाषा ]
जो महापुरुष तीर्थंकर प्रकृति को बन्धक षोडशकारणभावनारूप ऋत्विजों का—याजकों काप्रभु होकर मोक्षसुखरूप यज्ञ के बोझ का धारक हो उसे अध्वर्यु जानना चाहिए ।
अनक्षरगता भाषा — अनक्षरगता अनक्षरात्मिका द्वीन्द्रियाद्यसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानां स्व-स्वसंकेत प्रदर्शिका भाषा । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टीका २२६) ।
द्वीन्द्रिय से लेकर प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अपने अपने संकेत को प्रगट करने वाली भाषा है उसे अनक्षरगता भाषा कहते हैं । अनक्षरश्रुत-से किं तं प्रणक्खरसुयं ? अणक्खरविहं पण्णत्तं । तं जहा - ऊससियं णीससियं पिच्छूढं खासियं च छीयं च । णिस्सिघियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईयं ॥ से तं णक्खरसुयं । (नन्दी. सू. ३८, पृ. १८७; श्राव. नि. २० ) । उच्छ्वसित, निःश्वसित, निष्ठ्यूत ( थूक ), कासित या काशित ( छींक ), छींक, निस्सिघिय ( श्रव्यक्त शब्द), अनुस्वार के समान उच्चारण की जाने वाली हुकार प्रादि ध्वनि और छेलिय ( सेण्टितचीत्कार); इत्यादि सब संकेतविशेष होने से अनक्षरश्रुतस्वरूप हैं ।
४३, जैन - लक्षणावली
अनक्षरात्मक शब्द - १. अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनामतिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादन हेतुः । (स. सि. ५, २४) । २. अवर्णात्मको द्वीन्द्रियादीनाम्, प्रतिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादन हेतुश्च । (त. वा. ५, २४, ३) । ३. बालादिसंज्ञ्य संज्ञयं गिवागनक्षरवागिमाः । ( श्राचा. सा. ५-६०) । ४. अनक्षरः शब्दो द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियानां प्राणिनां ज्ञानातिशयस्वभावकथनप्रत्ययः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। ५. अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च । (पंचा. का. जय. वृ. ७९ ) । द्वीन्द्रियादि श्रसंज्ञी प्राणियों का जो शब्द प्रतिशध ज्ञानस्वरूप के प्रतिपादन का कारण होता है उसे अनक्षरात्मक शब्द कहते हैं ।
X
अनगार - १ न विद्यतेऽगारमस्येत्यनगारः । X X चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्धं प्रत्यनिवृत्तः परिणामो भावागारमित्युच्यते । ( स. सि. ७-१६; त. वा. ७, १६, १ त. वृ. श्रुत. ७-१६) । २. अगाः वृक्षाः, तैः कृतमगारम्, नास्य ग्रगारं विद्यते इत्य
३. न
[ अनङ्गक्रीडा नगार: । (उत्तरा चू. ६२, ७, पृ. ६१) । गच्छन्तीत्यगाः वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहम् । नास्यागारं विद्यते इत्यनगारः परित्यक्तद्रव्य भावगृह इत्यर्थः । ( नन्दी. हरि. वृ पृ. ३१) । ४. अगारं गृहम्, तद्येषां विद्यते इति अगाराः गृहस्थाः, न अगारा अनगारा: । ( दशवं. हरि. वृ. नि. १-९०) । ५. श्रगारं गृहम्, न विद्यते अगारं यस्यासावनगारः, परित्यक्तद्रव्य भावगृह इत्यर्थ: । ( नन्दी. मलय. वृ. सू. ६, पृ. ८१ सूर्यप्र. मलय. वृ. ३; जीवाजी. मलय. वृ. ३,२, १०३ ) । ६. न विद्यते श्रगारमस्येत्यनगर: । (त. इलो. ७ - १९ ) । ७. निवृत्त रागभावो यः सोऽनगारी गृहोषितः । (ह. पु. ५८ - १३७ ) । ८. महाव्रतोऽनगारः स्यात् XX X | ( त. सा. ४, ७६) । ६. अनगाराः सामान्यसाधवः । (चा. सा. पृ. २२) । १०. योऽनीहो देह-गेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः । ( उपासका ८६२ ) । ११. गात्रमात्रधना पूर्व सर्वसावद्यवजिताः । (क्ष. चू. ७-१९) । १२. पूर्वे (अनगाराः ) सावद्यवर्जिताः । ( जी. च. ७ - १३) । १३. नास्यागारं गृहं विद्यत इत्यनगारः । ( जम्बूद्वी. शान्ति वृ. २, पृ. १५) ।
१ भावागार का त्यागी महाव्रती अनगार कहा जाता है | चारित्रमोह का उदय रहने पर जो गृहनिवृत्ति के प्रति परिणति नहीं होती है, इसका नाम भावागार है ।
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अनङ्गक्रीडा – १. ग्रङ्गं प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा । (स. सि. ७-२८ ) । २. अनङ्गेषु क्रीडा श्रनङ्गक्रीडा ॥ ३॥ अंग प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा । श्रनेकविधप्रजननविकारेण जघनादन्यत्र चाङ्गे रतिरित्यर्थः । (त. वा. ७, २८, ३) । ३. अनङ्गक्रीडा नाम कुच कक्षोरुवदनान्तरक्रीडा, तीव्रकामाभिलाषेण वा परिसमाप्तसुरतस्याप्याहार्यैः स्थूलकादिभिर्योषिदवाच्यप्रदेशासेवनमिति । ( श्रा. प्र. टी. २७३ ) । ४. अनङ्गः कामः कर्मोदयात् पुंसः स्त्री - नपुंसक - पुरुषासेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा योषितोऽपि योषित् पुरुषासेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा नपुंसकस्य पुरुष-स्त्रीसेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा स एवंविधोऽभिप्रायो मोहोदयादुद्भूतः काम उच्यते । नान्य: कश्चित् कामः । तेन तत्र क्रीडा रमणमनङ्गक्रीडा । श्राहार्यैः काष्ठ-पुस्त - फल- मृत्तिका चर्मादिर्घाटितप्रजननैः कृत
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श्रनङ्गप्रविष्ट ]
कृत्योऽपि स्वलिंगेन भूयः मृद्नात्येवावाच्यप्रदेशं योषिताम्, तथा केशाकर्षण प्रहारदान- दन्तनखकदर्थनाप्रहारैर्मोहनीय कर्मावेशात् किल क्रीडति तथाप्रकारं कामी । सर्वेषामनङ्गक्रीडा बलवति रागे प्रसूयते । (त. सू. हरि वृ. ७-२३; योगशा. स्वो विव. ३-१४)। ५. अङ्गं लिङ्गं योनिश्च तयोरन्यत्र मुखादिप्रदेशे क्रीडाऽनङ्गक्रीडा । ( रत्नक. टी. २, १४) । ६. अङ्गं प्रजननं योनिश्च ततो जघनादन्यानेकविधप्रजननविकारेण रतिरनङ्गक्रीडा । (चा. सा. पु. ७) । ७. अनङ्गानि कुच कक्षोरु वदनादीनि तेषु क्रीडनं श्रनङ्गक्रीडा | योनि - मेहनयोरन्यत्र रमणम् । (पंचा. विव. ३ ) । ८. श्रङ्गं देहावयवो - sपि मैथुनापेक्षया योनिर्मेहनं वा तद्व्यतिरिक्तानि अनङ्गानि कुच - कक्षोरु- वदनादीनि तेषु क्रीडा रमणं अनङ्गक्रीडा । अथवा अनङ्गः कामः, तस्य तेन वा क्रीडा प्रनङ्गक्रीडा | स्वलिङ्गेन निष्पन्नप्रयोजनस्याहार्यैश्चर्मादिघटितप्रजननैर्योषिदवाच्यप्रदेशासेवनम् । (धर्मबि. वृ. ३ - २६, पृ. ३९ ) । ६ अङ्गं साधनं देहावयवो वा तच्चेह मैथुनापेक्षया योनिर्मेहनं च ततो ऽन्यत्र मुखादिप्रदेशे रतिः । यतश्च चर्मादिमयैलिंग: स्वलिङ्गेन कृतार्थोऽपि स्त्रीणामवाच्य प्रदेशं पुनः पुनः कुद्राति, केशाकर्षणादिना वा क्रीडन् प्रबलरागमुत्पादयति, सोऽप्यनङ्गक्रीडोच्यते । (सा. घ. स्व. टी. ४ - ५८ ) । १०. अङ्गं स्मरमन्दिरं स्मरलता च, ताभ्यामन्यत्र कर कक्षा - कुचादिप्रदेशेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा । अनङ्गाभ्यां क्रीडा अनङ्गक्रीडा । (त. वृ. श्रुत. ७ - २८ ) । ११. दोषश्चानंगक्रीडाख्यः स्वप्नादौ शुक्रविच्युतिः । विनापि कामिनीसङ्गात् क्रिया वा कुत्सितोदिता ॥ ( लाटीसं. ६, ७७)। १२. अङ्गं योनिलिङ्गं च ताभ्यां योनिलिङ्गाभ्यां विना कर-कुक्ष- कुचादिप्रदेशेषु क्रीडनम - नङ्गक्रीडा । ( कार्तिके. टी. ३३७-३८) ।
१ कामसेवन के प्रों (प्रजनन और योनि ) के अतिरिक्त अन्य अङ्गों से कामक्रीडा करने को श्रनङ्गक्रीडा कहते हैं । अनङ्गप्रविष्ट - १. अनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृतं श्रावश्यकादि । ( श्राव. हरि. वृ. २०)। २. यत् पुनः स्थविरैर्भद्रबाहु स्वामिप्रभृतिभिराचार्यैरुपनिबद्धं तदनङ्गप्रविष्टम्, तच्चावश्यक निर्युक्त्यादि । ( श्राव. मलय. वृ. नि. २० ) । ३. शेषं प्रकीर्णकाद्यनङ्ग
४४, जैन- लक्षणावली
[ अनुगामी अवधि
प्रविष्टम् । ( कर्मस्त. गोबि. टी. ९-१०, पृ. ८१) । २ जो आगम साहित्य स्थविरों-भद्रबाहु आदि प्राचार्यों द्वारा रचित है वह अनंगप्रविष्ट माना जाता है । जैसे- श्रावश्यक नियुक्ति आदि । श्रनङ्गश्रुत- सामाइयं चउवीसत्थश्रो वंदणं पडिकमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरज्झयणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसिहियमिदि चोद्दसविहमणंगसुदं । ( धव. पु. ६, पृ. १८८ ) । सामायिक व चतुर्विंशतिस्तव श्रादि चौदह अनंगश्रुत के अन्तर्गत माने जाते हैं । श्रनतिचार- १. प्रात्यन्तिको भूशमप्रमादोऽनतिचार: । ( त. भा. ६- २३ ) । २. अनतिचार उच्यते - प्रतिचरणमतिचारः स्वकीयागमातिक्रमः, नातिचारोऽनतिचारः, उत्सर्गापवादात्मक सर्वज्ञ प्रणीत सिद्धान्तानुसारितया शील व्रतविषयमनुष्ठानमित्यर्थः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३) ।
प्रमाद के श्रात्यन्तिक प्रभाव को अनतिचार कहते हैं ।
अनध्यवसाय - १. 'इदमेवं चेवेत्ति' णिच्छयाभावो अणभवसा । ( धव. पु. ७, पृ. ८६ ) । २. विशिष्टस्य विशेषाणामस्य च स्वे न वेदनम् । गच्छतस्तृणसंस्पर्श इवानध्यास इष्यते ॥ ( मोक्षपं ७ ) । ३. किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः । यथा गच्छतस्तृणस्पर्शज्ञानम् । (प्र. न. त. १, १३ - १४; न्यायदी. पृ. 8 ) । ४. अनध्यवसायः क्वचिदप्यर्थे बोधस्याप्रवृत्ति: । ( उपदेश. वृ. ११८ ) । ५. इदं किमप्यस्तीति निर्द्धाररहितविचारणेत्यनध्यवसायः । (धर्मबि. वृ. १- ३८, पृ. ११) । ६. विशेषानुल्लेख्यनध्यवसायः । (प्र. मी. १, १, ६) । ७. दूरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मावमर्श रहितः प्रत्ययोऽनिश्चयात्मकत्वादनध्यवसायः । (प्र. मी. टी. १, १, ६) ८. अस्पृष्टविशेषं किमित्युल्लेखेनोत्पद्यमानं ज्ञानमात्रमनध्यवसाय: । (रत्नाकरा. टी. १-१३) ।
३ 'यह क्या है' इस प्रकार के अनिश्चात्मक ज्ञान को अध्यवसाय कहते हैं । जैसे—मार्ग में चलते हुए पुरुष को तृणस्पर्शादि के विषय में होने वाला श्रनि
श्चयात्मक ज्ञान ।
अनुगामी श्रवधि - १. कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवातिपतति उन्मुग्धप्रश्नादेशिपुरुषवचनवत् । ( स. सि.
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श्रनन्त ]
१–२२; त. वा. १, २२, ४) । २. विशुद्धयनन्वयादेशोऽननुगामी च कस्यचित् । (त. इलो. १, २२, १२) । ३. इयरो य णाणुगच्छइ ठियपईवो व्व गच्छं तं । (विशेषा. गा. ७१८ ) । ४. जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं तं तिविहं - खेत्ताणणुगामी, भवाणणुगामी खेत्त भवाणणुगामी चेदि । जं खेत्तंतरं ण गच्छदि भवंतरं चैव गच्छदि तं खेत्ताणणुगामीत्ति भण्णदि । जं भवंतरं ण गच्छदि, खेत्तंतरं चेव गच्छदि, तं भवाणणुगामी णाम । जं खेत्तंतर-भवांतराणि च ण गच्छदि, एकम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धं तं खेत्त भवाणणुगामि त्ति भण्णदि । ( धव. पु. १३, पृ. २६४-६५)। ५. यत्क्षेत्रे तु समुत्पन्नं यत्तत्रैवावबोधकृत् । द्वितीयमवधिज्ञानं तच्छृङ्खलितदीपवत् ।। (लोकप्र. ३-८४० ) । ६. यत्तु तद्देशस्थस्यैव भवति स्थानस्थदीपवत्, देशान्तरगतस्य त्वपैति तदननुगामीति । ( कर्मस्त. गो. टीका गा. ६-१० ) । ७. यदवधिज्ञानं स्वस्वामिनं जीवं नानुगच्छति तदननुगामि । ( गो. जी. जी. प्र. ३७२ ) । ८. यस्तु विशुद्धेरननुगमनान्न गच्छन्तमनुगच्छति । किं तर्हि ? तत्रैवाभिपतति शून्यहृदयपुरुषादिष्टप्रश्नवचनवत् सोSनुगामी । (त. सुखबो. वृ. १ - २२ ) । ६. कश्चिदवधि वानुगच्छति, तत्रैवातिपतति, विवेकपराङ्मुखस्य प्रश्ने सति प्रदेष्टृपुरुषवचनं यथा तत्रैवातिपतति, न तेनाग्रे प्रवर्तते । (त. वृ. श्रुत. १-२२) । १ जो अवधिज्ञान मूर्ख पुरुष के प्रश्न के उत्तर में प्रादेश देने वाले वचन के समान क्षेत्रान्तर या भवान्तर में अपने स्वामी के साथ नहीं जाता है उसे अनुगामी अवधि कहते हैं ।
अनन्त - श्रन्तो विनाश:, न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तम् । ( धव. पु. ३, पृ. १५); जो (रासी) पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो । ( धव. पु. ३, पृ. २६७ ) ; तदो ( असंखेज्जादो) उवरि जं केवलणाणस्सेव विसो तमनंतं णाम । ( धव. पु. ३, पृ. २६८); सो प्रणंतो वुच्चदि, जो संखेज्जासंखेज्ज - रासिव्व संते प्रणतेण वि कालेण ण णिट्ठादि । वृत्तं च- संते वए ण णिट्ठादि काले णाणंतएण वि । जो रासी सो प्रणतो त्तिणिद्दिट्ठो महेसिणा ।। ( धव. पु. ४, पृ. ३३८ ) ; जासि संखाणमायविरहियाणं संखेज्जासंखेज्जेहि वइज्जमाणाणं पि वोच्छेदो होदि, तासिमणंतमिदि सण्णा । ( धव. पु. ४, पृ.
४५, जैन-लक्षणावली
[ श्रनन्तजीव
३९४ ) ; सो रासी प्रणंतो उच्चइ जो संते विवएण णिट्ठादि । (धव. पु. ४, पृ. ४७८ ) ।
श्राय रहित और निरन्तर व्यय सहित होने पर भी जो राशि कभी समाप्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं । श्रथवा जो राशि एक मात्र केवलज्ञान की ही विषय हो वह अनन्त है ।
श्रनन्तकाय - देखो अनन्तजीव । अनन्तकायाश्च स्नुही-गुडूच्यादयः ये छिन्ना भिन्नाश्च प्रारोहन्ति, एकस्य यच्छरीरं तदेवानन्तानन्तानां साधारणाहारप्राणत्वात् साधारणानाम्, XX X अनन्तः साधारणः कायो येषां तेऽनन्तकाया: । (मूला. वृ. ५-१६) । जिन अनन्त जीवों का एक साधारण शरीर हो तथा जो अपने मूल और जो शरीरसे छिन्न-भिन्न होने पर भी पुनः उग प्राते हैं ऐसे स्नुही ( थूवर) गुडूची ( गुरबेल ) श्रादि श्रनन्तकाय कहलाते हैं । अनन्तकायिक- देखो अनन्तकाय । अनन्तैर्जीवरुपलक्षितः कायो येषां ते अनन्तकाया मूलादिप्रभवा वनस्पतिकायिकाः । (सा. ध. स्वो टी. ५-१७) । जिनका शरीर अनन्त जीवों से उपलक्षित हो ऐसे मूल, अग्र एवं पोर आदि से उत्पन्न होने वाले वनस्पतिकायिक जीवों को श्रनन्तकायिक कहा जाता है। अनन्तजित् - १. अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषंगवान् मोहमयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥ ( स्वयंभूस्तोत्र ६६ ) । २. अनन्तकर्मांशान् जयति, अनतैर्वा ज्ञानादिभिर्जयति अनन्तजित् । तथा गर्भस्थे जनन्या अनन्त रत्नदाम दृष्टम्, जयति च त्रिभुवनेऽपीति अनन्तजित् । भीमो भीमसेन इति न्यायादनन्तः । (योगशा. स्वो विव. ३ - १२४) ।
१ जो अनन्त दोषोत्पादक मोहरूप पिशाच को जीत चुके हैं, वे भगवान् श्रनन्त जिन अनन्तजित् हैं । २ जो अनन्त कर्माशों को जीतता है अथवा श्रनन्त ज्ञानादि के द्वारा सर्व जगत् को जानने से जयशील हो, तथा जिसके गर्भ में स्थित होने पर माता ने अनन्त रत्नों की माला देखी; उस श्रनन्त जिन ( चौदहवें तीर्थंकर) को श्रनन्तजित् कहते हैं । श्रनन्तजीव - देखो अनन्तकाय । गूढछिरागं पत्तं सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । जं पिय पणट्टसंधि अतजीवं वियाणाहि ।। चक्कागं भज्जमाणस्स गंठी चुणघणो भवे । पुढविसरिसेण भेएणं प्रणतजीवं
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४६,
अनन्तमिश्रिता ]
वियाणाहि ।। जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई । अनंतजीवे उसे मूले जे याऽवऽन्ने तहाविहे ॥ ( बृहत्क. ९६७-६६ ) ।
जिस दूधयुक्त व उससे रहित भी पत्र (पत्ता) की सिरायें (स्नायु ) व सन्धियां अदृश्य हों वह पत्र श्रनन्तजीव ( अनन्तकाय ) है । इसी प्रकार जिस मूल आदि को तोड़ने पर चक्राकार - समानभंग होता है तथा जिसकी गांठ के भंग होने पर खेत के ऊपर को पपड़ी के समान चूर्ण उड़ता हुना दिखता है वह भी अनन्तजीव है। अभिप्राय यह है कि जिस मूल के भग्न होने पर समान भंग दिखता है उस मूल को अनन्तजीव जानना चाहिए । अनन्तमिश्रिता - १. मूलकादिकमनन्तकार्य तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित् प्रत्येकवनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता । ( प्रज्ञाप मलय वृ. ११, १६५) । २. साणंतमीसिया वि य परित्तपत्ताइजुत्तकंदम्मि । एसो अनंतकाओ त्ति जत्थ सव्वत्थ वि पोगो ।। (भाषार. ६४ ) । ३. अनन्तमिश्रितापि च सा भवति यत्र यस्यां परित्तानि यानि पत्रादीनि तद्युक्ते कन्दे मूलकादी सर्वत्रापि सर्वावच्छेदेनापि एषोऽनन्तकाय इति प्रयोगः ॥ ( भाषार. टी. ६४) । अनन्तकायस्वरूप मूलक (मूली) को उसी के धवल ( प्रत्येक वनस्पति) पत्तों के साथ श्रथवा श्रन्य किसी प्रत्येक वनस्पति के साथ मिश्रित देखकर जो यह कहता है कि 'यह सब अनन्तकायिक है' उसकी इस प्रकारको भाषा अनन्तमिश्रिता कही जाती है । अनन्तरक्षेत्रस्पर्श जो सो अनंत रखेत्त फासो णाम । जं दव्वमणंतरखेत्तेण फुसदि सो सब्बो प्रणतरखेत्तफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, १५-१६, पु. १३, पृ. १७) ।
जो द्रव्य अनन्तर क्षेत्र से स्पर्श करता है उसका नाम अनन्तरक्षेत्रस्पर्श है । अनन्तरबन्ध - कम्मंइयवग्गणाए द्विदपोग्गलखंधा - णं मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए • बंधो अणंतरबंधो। (धव. पु. १२. पू. ३७० ) । कार्मण वर्गणा स्वरूप से स्थित पुद्गलस्कन्धों का मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा कर्मरूप परिणत होने के प्रथम समय में जो बन्ध होता है उसे श्रनन्तरबन्ध कहते हैं ।
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[ अनन्तवियोजक
अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान - यस्मिन् समये सिद्धो जायते, तस्मिन् समये वर्तमानमनन्तरसिद्धकेवलज्ञानम् । (श्राव. मलय. वृ. नि. ७८ ) ।
जिस समय में जीव सिद्ध होता है उस समय में वर्तमान केवलज्ञान को अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । अनन्तरसिद्धा संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना-न विद्यते श्रन्तरं व्यवधानमर्थात्समयेन येषां ते ऽनन्तरास्ते च ते सिद्धाश्चानन्तरसिद्धाः सिद्धत्वप्रथम - समये वर्तमाना इत्यर्थः, ते च ते ऽसंसारसमापन्नजीवाश्चानन्तरसिद्धा संसारसमापन्न जीवास्तेषां प्रज्ञापनाऽनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १- ६) |
सिद्ध होने के प्रथम समय में विद्यमान ऐसे संसार से मुक्त होने वाले जीवों की प्रज्ञापना या प्ररूपणा को श्रनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना कहते हैं ।
श्रनन्तराप्ति - विवक्षित भवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भवे । यत्सम्यक्त्वाद्यश्नुतेऽङ्गी साऽनन्तराप्तिरुच्यते ॥ ( लोकप्र. ३ - २८२ ) ।
विवक्षित भव से मरकर व अनन्तर भव में उत्पन्न होकर जीव जो सम्यक्त्व आदि को प्राप्त करता है, इसे श्रनन्तराप्ति कहा जाता है । अनन्तरोपनिधा - १. जत्थ णिरंतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे, सा प्रणतरोवणिधा । ( धव. पु. ११, पृ. ३५२); अनंतगुणवड्ढीए प्रसंखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जगुणवड्ढीए संखेज्जभागवड्ढीए असंखेज्जभागवड्ढीए अनंतभागवड्ढीए प्रणतरहेट्टिमद्वाणं पेक्खिण दिट्ठाणाणं जा थोवबहुत्तपरूवणा सातवणिधा । ( धय. पु. १२, पृ. २१४)। २. उपधानमुपधा, धातूनामनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः । ( पञ्चसं. मलय. वृ. बं. क. ९) । जिस प्रकरण में अनन्तगुणवृद्धि श्रादि स्वरूप से अनन्तर अधस्तन स्थान की अपेक्षा स्थित स्थानों के निरन्तर अल्पबहुत्व की परीक्षा की जाती है उसका नाम अनन्तरोपनिधा है । अनन्त वियोजक - १. स एव पुनः अनन्तानुबन्धिक्रोध - मान-माया लोभानां वियोजनपरः (अनन्तवियोजकः) X XXI ( स. सि. ९-४५ ) । २. ग्रनन्तः संसारस्तदनुबन्धिनोऽनन्ताः क्रोधादयस्तान् वियोज - यति क्षपयत्युपशमयति वा अनन्तवियोजक: । (त.
जैन- लक्षणावली
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अनन्तवीर्य] ४७, जैन-लक्षणावली
[अनन्तानुबन्धी भा. सिद्ध. वृ. ६-४७)।
पु. ६, पृ. ४१)। ५. अनन्तं भवमनुबध्नाति १ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ की अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुबन्धी । अनविसंयोजना करने वाले जीव को अनन्तवियोजक न्तो वा ऽनुबन्धोऽस्येत्यनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनसहकहते हैं।
भाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणलवविबन्धी, चाअनन्तवीर्य-१. वीर्यान्तरायस्य कर्मणो ऽत्यन्तक्ष- रित्रमोहनीयत्वात्तस्य । (स्थाना. सू. अभय. वृ. ४, यादाविर्भूतमनन्तवीर्यं क्षायिकम् । (स. सि. २-४)। १, २४६, पृ. १८३)। ६. अनन्तः संसारस्तमनुब२. वीर्यान्तरायात्यन्तसंक्षयादनन्तवीर्यम् ॥६॥ प्रा- नन्ति तच्छीलाश्चानन्तानुबन्धिनः । (त. भा. सि. त्मन: सामर्थ्यस्य प्रतिबन्धिनो वीर्यान्तरायकर्मणो- वृ.६-६)। ७. अनन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला ऽत्यन्तसंक्षयादुद्भूतवृत्ति क्षायिकमनन्तवीर्यम् । (त. अनन्तानुबन्धिनः । xxx एषां च संयोजना वा. २, ४, ६)। ३. वीर्यान्तरायनिर्मूलप्रक्षयोद्भूत- इति द्वितीयं नाम । तत्रायमन्वर्थः-संयोज्यन्ते वृत्ति श्रम-क्लमाद्यवस्थाविरोधि निरन्तरवीर्यमप्रति- सम्बन्ध्यन्ते ऽसंख्यर्भवैर्जन्तवो यैस्ते संयोजनाः। (पंचहतसामर्थ्यमनन्तवीर्यम् । (जयध. पत्र १०१७)। सं. मलय. वृ. ३-५; कर्मप्र. यशो. वृ. १; शतक. ४. कस्मिश्चित्स्वरूपचलनकारणे जाते सति घोरपरी- मल. हेम. व. ३७; कर्मवि. दे. स्वो. व. १७)। षहोपसर्गादौ निजनिरञ्जनपरमात्मध्याने पूर्व धैर्य- ८. तत्रानन्तं संसारमनुबध्नन्ति इत्येवंशीला अनन्तामवलम्बित तस्यैव फलभूतमनन्तपदार्थपरिच्छित्तिवि- नुबन्धिनः । उक्तं च-अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो षये खेदरहितत्वमनन्तवीर्यम् । (ब. द्रव्यसं. टी. जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्धाख्या क्रोधाद्येषु १४) । ५. केवलज्ञानबिषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्ति- नियोजिताः। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३)। रूपमनन्तवीर्यम् भण्यते । (परमात्मप्र. टी. ६१)।। है. तत्र पारम्पर्येण भवमनन्तमनबध्नन्तीत्येवंशीला १ वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर। अनन्तानबन्धिनः, उदयस्थानाममीषां सम्यक्त्वविजो अप्रतिहत सामर्थ्य उत्पन्न होता है उसे अनन्त- घातकृत्त्वात् । (षडशी. मलय. वृ. ७६) । १०. तत्र वीर्य कहते हैं।
पारम्पर्येण अनन्तं भवमनुबध्नन्ति अनुसन्दधतीत्येवंअनन्तसंसारी (अणंतसंसार)-जे पुण गुरु- शीला इत्यनुबन्धिनः । (धर्मसं. मलय. वृ. ६१४) । पडिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य। असमाहिणा । ११. सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी । (प्रज्ञाप. मरते ते होंति अणंतसंसारा॥ (मूला. २-७१; मलय. वृ. १४-१८८)। १२. अनन्तं संसारमनुअभिधा. १, पृ. २६६)।
बध्नन्ति अनुसन्दधति, तच्छीलाश्चेत्यनन्तानुबन्धिनः । जो गुरु के प्रतिकूल, बहुमोही-प्रकृष्ट राग-द्वेष से (कर्मस्त. गो. टी. ९-१०)। १३. अनन्त श्रा कलुषित, हीन प्राचार वाले और कुशील-वतरक्षा संसारं यावत् अनुबन्ध: प्रवाहो येषां ते ऽनन्तानुसे रहित-होते हुए समाधि के बिना प्रार्त-रौद्र बन्धिनः । (कर्मवि. पू. व्या. गा. ४१)। १४. तत्रापरिणाम से मरते हैं वे अनन्तसंसारी-अर्धपुदगल नन्त संसारमनबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानबन्धिनः । प्रमाण काल तक संसारपरिभ्रमण करने वाले यदवाचि-यस्मादनन्तं संसारमनुबध्नन्ति देहिनाम् । होते हैं।
ततो ऽनन्तानुबन्धीति संज्ञाऽऽद्येषु निवेशिता । अनन्तानुबन्धी-१. अनन्तानुवन्धी सम्यग्दर्शनोप- (कर्मवि. दे. स्वो. टी. १८)। १६. अनन्तं संसारं घाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते, पूर्वोत्पन्न- भवमनुबध्नात्यविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानु
तपतति । (त. भा. ८-१०)। २. बन्धी । अनन्तो वा अनुबन्धो यस्येति अनन्तानुबन्धी। अनन्तकालमतिप्रभूतकालमनुवन्धमुदिता कुर्वन्तीति (अमिधा. १, पृ. २६६) । अनन्तानुबन्धिनः । (पंचसं. स्वो. वृ. १२३, पृ. १ जिसका उदय होने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं ३५)। ३. पारम्पर्येणानन्तं भवमनुबद्ध शील येषा- होता है, और यदि वह उत्पन्न हो चुका है तो मिति अनन्तानुबन्धिन: उदयस्थाः सम्यक्त्वविधा- नष्ट हो जाता है, उसका नाम अनन्तानुबन्धी है। तिनः। (श्रा. प्र. टी. १७) । ४. अनन्तान् भवान् ४ अनन्त भवों की परम्परा को चालू रखने वाली अनुबद्ध शीलं येषां ते अनन्तानुबन्धिनः । (धव. कषायों को अनन्तानुबन्धी कषाय कहा जाता है ।
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अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान.] ४८, जैन-लक्षणावली [अनन्तानुबन्धी लोभ अनन्त धिक्रोध-मान-माया-लोभ-१. अन- बांस की जड़ के समान अतिशय कुटिलता की न्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम्, तदनुबन्धिनो- कारणभूत माया को अनन्तानुबन्धिनी माया ऽनन्तानुबन्धिनः क्रोध-मान-माया-लोभाः। (स. सि. कहते हैं । ८-६; त. वा. ८, ६, ५)। २. अनन्तान् भवाननु- अनन्तानुबन्धिविसंयोजनक्रिया-तत्थ अधापबद्धशीलं येषां ते अनन्तानुबन्धिनः, अनन्तानुबन्धि- वत्त-अपुन्व-अणियट्टिकरणाणि तिण्णि वि करेदि । नश्च ते क्रोध-मान-माया-लोभाश्च अनन्तानुबन्धि- एत्थ अधापवत्तकरणे णत्थि गुणसेढी । अपुवकरण क्रोधमानमायालोभाः । जेहि कोह-माण-माया-लोहेहि पढमसमयप्पहुदि पुव्वं व उदयावलियबाहिरे गलिदअविणसरूवेहि सह जीवो अणंते भवे हिंडदि तेसि सेसमपुव्व-अणियट्रिकरणद्धादो विसेसाहियमायामेण कोह-माण-माया-लोहाणं अणंताणुबंधी सण्णा। (धव. पदेसग्गेण संजदगुणसेढिपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पु. ६, पृ. ४१); अथवा अणंतो अणुबंधो जेसि तदायामादो संखेज्जगुणहीणं गुणसेटिं करेदि । ठिदिकोह-माण-माया-लोहाणं, ते अणंताप्पुबंधिकोह- अणुभागखंडयघादे आउअवज्जाणं कम्माणं पुव्वं व माण-माया-लोहा । एदेहितो वड्ढिदसंसारो अणंतेसु करेदि । एवं दोहि वि करणेहि काऊण अणंताणुभवेसु अणुबंध ण छद्दे दि त्ति अणताणुबंधो संसारो, बंधिचउक्कट्ठिदीओ उदयावलियबाहिरानो सेससो जेसिं ते अणंताणुबंधिणो कोह-माण-माया-लोहा। कसायसरूवेण संछुहदि। एसा अणंताणुबंधिविसंजो(धव. पु. ६, पृ. ४१-४२)। ३. सम्यक्त्वं घ्नन्त्यन- जणकिरिया । (धव. पु. १०, पृ. २८८)। न्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः । (उपासका. ६२५)। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो परिणामों के ४. अनन्तानुबन्धिन: क्रोधमानमायालोभाः कषायाः द्वारा यथासम्भव अनन्तानुबन्धिचतुष्क की उदयाआत्मनः सम्यक्त्वपरिणामं कषन्ति, अनन्तसंसार- वलिबाह्य स्थिति और अनुभाग को शेष कषायोंरूप कारणत्वादनन्तं मिथ्यात्वं अनन्तभवसंस्कारकालं वा परिणत करने के लिए जो क्रिया की जाती है वह अनुबध्नन्ति संघटयन्ति इत्यनन्तानुबन्धिनः । (गो. अनन्तानवन्धिविसंयोजन क्रिया कहलाती है। जी. म. प्र. व जी. प्र. टीका २८३)। ५. अनन्ता- प्रतन्तानुबन्धी क्रोध-विदलितपर्वतराजिसदृशः नुभवान्मिथ्यात्वासंयमादौ अनुबन्धः शीलं येषां ते पुनरनन्तानुबन्धी क्रोधः कथमपि निवर्तयितुमशक्यः । ऽनन्तानुबन्धिनः, ते च ते क्रोधमानमायालोभा (कर्मवि. दे. स्वो. व. गा. १६)। अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाः । अथवाऽनन्तेषु पर्वतराजि या पाषाणरेखा के समान कठिनता से भवेष्वनुबन्धो विद्यते येषां ते अनन्तानुबन्धिनः । नष्ट होने वाले क्रोध को अनन्तानुबन्धी क्रोध (मूला. व. १२-१६१)। ६. अनन्तभवभ्रमणहेतु- कहते हैं। त्वादनन्तं मिथ्यात्वमनुबध्नन्ति सम्बन्धयन्ति इत्येवं- अनन्तानुबन्धी मान-शिलायां घटितः शैलः, शीला ये क्रोध-मान-माय-लोभाः सम्यक्त्वघातकाः शैलश्चासौ स्तम्भश्च शैलस्तम्भस्तदुपमस्त्वनन्तानते अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाः । (कार्तिके. बन्धी मानः, कथमप्यनमनीय इत्यर्थः। (कर्मवि. दे. टो. ३०८; त. वृ. श्रुत. ८-९)।
स्वो. वृ. १६)। १ अनन्त शब्द से यहाँ मिथ्यात्व को लिया गया शैल स्तम्भ के समान अत्यन्त कठोर परिणाम वाले है, कारण कि वह अनन्त संसार परिभ्रमण का । अहंकार को अनन्तानुबन्धी मान कहते हैं। कारण है । जो क्रोध, मान, माया और लोभ कषायें अनन्तानबन्धी लोभ- कृमिरागरक्तपट्टसूत्ररागनिरन्तर उस मिथ्यात्व से सम्बन्ध रखती हैं, उनका समानः कथमप्यपनेतुमशक्योऽनन्तानुबन्धी लोभः । नाम अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ है। (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. २०) । अनन्तानुबन्धिमाया-घनवंशीमुलसमा त्वनन्तान- कृमिराग से रंगे हुए वस्त्र के रंग के समान दीर्घ बन्धिनी माया। यथा निविडवंशीमूलस्य कूटिलता काल तक किसी भी प्रकार से नहीं छूटने वाले लोभ किल वह्निनाऽपि न दह्यते, एवं यज्जनिता मन:- को अनन्तानुबन्धी लोभ कहते हैं। कुटिलता कथमपि न निवर्तते साऽनन्तानुबन्धिनी अनन्तावधिजिन (अणंतोही)- अणते त्ति उत्ते माया। (कर्मवि. दे. टी. गा. २०)।
उक्कस्साणंतस्स गहणं, xxx उक्कस्साणंतो
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श्रनन्तावबोध ]
ओही जस्स सो तोही । XX X अधवाऽवयवविणासाणं वाचो अंतसद्दी घेत्तव्वो, प्रोही मज्जाया उक्कस्साणंतादो पुधभूदा । अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तौ यस्य स अनन्तावधिः । अभेदाज्जीवस्यापीयं संज्ञा । अनन्तावधयश्च ते जिना
श्रनन्तावधिजिना: । ( धव. पु. ६, पृ. ५१-५२ ) । जिस ज्ञान की अवधि (मर्यादा) उत्कृष्ट प्रनन्त है, अर्थात् जो ज्ञान अनन्त वस्तुनों को विषय करता है, वह अनन्तावधि कहलाता है; ऐसा ज्ञान जिन जिनों के — कर्मविजेताओं के होता है उन्हें अनन्तावधिजिन जानना चाहिए । अनन्तावबोध - प्रतीतानागत- वर्तमानाऽनन्तार्थ व्यं जनपर्यायात्मक सूक्ष्मान्तरित दूरार्थेषु अनन्तेषु श्रप्रतिबद्धप्रवृत्ति रमलः केवलाख्योऽनन्तावबोधः । (लघुस. सि. पू. ११६) ।
त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों को श्रनन्त श्रर्थपर्यायों और व्यंजनपर्यायों को, तथा सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को निर्बाधरूप से जानने वाला निर्मल केवलज्ञान अनन्तावबोध कहलाता है । अनन्तोपभोग १. निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य
४६, जैन - लक्षणावली
[ अनभिगृहीता दृष्टि
त्येव, न ह्रासमायाति स्वकालावधेरारात् । X X x एवं हि तीव्रपरिणामप्रयोगबीजजनितशक्ति तदायुरात्तमतीतजन्मनि न शक्यमन्तराल एवावच्छेत्तुमित्यनपवर्तनीयमुच्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २-५१)।
कर्म की जितनी स्थिति बांधी गई है उतनी ही स्थिति का वेदन करना व अपने काल की अवधि के पूर्व उसका विघात नहीं होना, इसका नाम उसकी अपवर्तनीयता है । अभिप्राय यह है कि अपवर्तनीय श्रायु वह कही जाती है जिसका विघात पूर्व जन्म में बांधी गई स्थिति के पूर्व किसी भी प्रकार से न हो सके ।
अनभि (धि) गतचारित्रार्य - अन्तश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनभि ( धि ) गतचारित्रार्यः । (त. वर. ३, ३६, २) ।
अन्तरंग में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने पर और बहिरंग में गुरु के उपदेशादि का निमित्त मिलने पर जो चारित्र रूप परिणाम से युक्त हुए हैं उन्हें अनभिगतचारित्रार्य कहते हैं ।
प्रलयात् प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोगः क्षायिकः । ( स. श्रनभिगृहीत मिथ्यात्व - १. न अभिगृहीतम् अन
सि. २-४ ) । २. निरवशेषोपभोगान्तरायप्रलयादनन्तोपभोगः क्षायिकः । (त. वा. २, ४, ५ ) । उपभोगान्तराय के निर्मूल विनष्ट हो जाने पर जो उपभोग प्रादुर्भूत होता है उसका नाम श्रनन्तोपभोग है ।
भिगृहीतम्, यथैक-द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियैर्भद्रकैश्च । (पंचसं. स्वो वृ. ४-२ ) । २. परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीतं मिथ्यात्वम् । ( भ. प्रा. विजयो. टी. ५६ ) । ३. अनभिगृहीतं परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयाज्जातम् । भ. प्रा. मूला. टी. ५६) ।
श्रनपनीतत्व - श्रनपनीतत्वं कारक-काल-वचन-लिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता । (समवा. श्रभय. वृ. ३५; रायप, मलय. वृ. पू. १७) । कारक, काल, वचन और लिंग श्रादि के व्यत्ययरूप वचनदोष से रहित वाक्यप्रयोग को अनपनीतत्व कहते हैं ।
२ परोपदेश के बिना ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो तत्वों का श्रश्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे अनभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं ।
श्रनपवर्तन - श्रनपवर्तनं यथावस्थितिकं पुरा बद्ध तस्य तावत्स्थितिकस्यैवानुभवनम् । ( संग्रहणी वृ. २५६)।
पूर्व में बांधी हुई कर्मस्थिति का ह्रास न होकर उतनी ही स्थितिरूप कर्म का अनुभवन करने को अपवर्तन कहते हैं । अभिगृहीता दृष्टि - सर्वप्रवचनेष्वेव साधुदृष्टिश्रनपवर्तनीय - अनपवर्तनीयं पुनस्तावत्कालस्थि- रनभिगृहीत मिथ्यादृष्टिः । सर्वमेव युक्त्युपपन्नमयु
ल. ७
अनभिगृहीता क्रिया - अनभिगृहीताऽनभ्युपगतदेवताविशेषाणां तत्त्वार्थश्रद्धानम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) ।
देवताविशेष को स्वीकार न करने वालों के तत्त्वाश्रद्धान को- विपरीत तत्त्वश्रद्धा को - अनभिगृहीता क्रिया कहते हैं ।
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अनभिगृहीता भाषा] ५०, जैन-लक्षणावली
[अनर्थदण्डविरति क्तिकं वा समतया मन्यते मौढ्यात् । (त. भा. सि. निबन्धनम् । (कर्मप्र. मलय. वृ. १-३, पृ. २०)। वृ.७-१८)।
२ उपभुक्त प्राहार को सप्त धातु और मल-मूत्रादि जो सभी मत-मतान्तरों को समीचीन मानता हुआ रूप परिणमाने वाली शक्ति को अनभिसन्धिज वीर्य सयुक्तिक व युक्तिशन्य कथन को मूर्खतावश समान कहते हैं। अथवा, जो एकेन्द्रिय जीवों की विविध मानता है, उसकी दृष्टि (श्रद्धा) को अनभिगृहीता क्रिया का कारण हो उसे अनभिसन्धिज वीर्य समझना दृष्टि कहा जाता है।
चाहिए। अनभिगृहीता भाषा-१. अनभिगृहीता भाषा अनभिहित-अनभिहितं स्वसिद्धान्तेऽनुपदिष्टम् । अर्थमनभिगृह्य या प्रोच्यते डित्यादिवदिति । (दशवं. (प्राव. मलय. वृ. नि. ८८२) । हरि. व. नि. ७-२७७); प्राव. हरि. व. म. हे. टि. अपने सिद्धान्त में अनुपदिष्ट या प्रकथित तत्त्व को पृ. ७६)। २. सा होइ अणभिगहिया जत्थ अणेगेसु अनभिहित कहते हैं । पृटुकज्जेसु । एगयराणवहारणमहवा दिच्छाइयं वयणं। अनर्थक्रिया-१. तद्विपरीता (अर्थदण्डरूपार्थक्रिया(भाषार. ७७); यत्र यस्यां अनेकेषु पृष्ट कार्येषु विपरीता) अनर्थक्रिया। (गु. गु. षट्. स्वो. व. पृ. मध्य एकतरस्यानवधारणमनिश्चयो भवति-एता- ४१)। २. तदर्थाभावे तद्ग्रहणमनर्थाय किया। वत्सु कार्येषु मध्ये किं करोमीति प्रश्नयेत् प्रतिभासते, (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३, २७, ८२) । तत्कुर्वति प्रतिवचने कस्यापि शृङ्गग्राहिकयाऽनिर्धा- प्रयोजन रहित क्रिया को अनर्थक्रिया कहते है । रणात् सा ऽनभिगृहीता भवति । (भाषार.टी. ७७)। अनर्थदण्ड-१. कज्ज कि पि ण साहदि णिच्चं पावं १ अर्थ को नहीं ग्रहण करके बोली गई भाषा-जैसे करेदि जो अत्थो। सो खलु हवे अणत्थोxxx॥ डित्थ-डवित्थादि-को अनभिगहीता भाषा कहते हैं। (कार्तिके. ३४३) । २. उपकारात्यये पापादान२ अथवा एक साथ पूछे गये अनेक कार्यों में से किसी निमित्तमनर्थदण्डः । (त. वा. ७, २१, ४, त. श्लो. एक का भी निश्चय न करके उत्तर देने को अनभि- ७-२१)। ३. तद्विपरीतोऽनर्थदण्डः प्रयोजननिरगृहीता भाषा कहते हैं।
पेक्षः, अनर्थः अप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति अनभिग्रहा भाषा-अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनिय- पर्यायाः । विनैव कारणेन भूतानि दण्ड यति, तथा तार्थावधारणम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११-१६५)। कुठारेण प्रहृष्टस्तरुस्कन्ध-शाखादिषु प्रहरति, कृकप्रतिनियत अर्थ के निश्चय से रहित भाषा को लास-पिपीलिकादीन् व्यापादयति कृतसङ्कल्पः, न अनभिग्रहा भाषा कहते हैं।
च तव्यापादने किञ्चिदतिशयोपकारि प्रयोजनं अनभिप्रेत (प्रणभिपेन)-xxxप्रणभिप्पेयो येन विना गार्हस्थ्यं प्रतिपालयितुं न शक्यते । अ पडिलोमो ॥ (उत्तरा. नि. १-४३)। (प्राव. हरि. वृ. ६, ८३; त. भा, सि. वृ. अपने लिए अनिष्ट या प्रतिकूल वस्तु को अनभि- ७-१६)। ४. प्रयोजनं विना पापादानहेतुरप्रेत कहते हैं।
__ नर्थदण्डः । (चा. सा. पृ. ६)। ५. शरीराद्यर्थअनभियोग्य देवतेभ्यो (अभियोगेभ्यो)ऽन्ये कि- विकलो यो दण्डः क्रियते जनः सोऽनर्थदण्डः । (धर्मल्विषिकादयोऽनुत्तमा देवा उत्तमाश्च पारिषदादयो- सं. मान. स्वो. व. २, ३५, ८१)। ऽनभियोग्याः । (जयध. पत्र ७६४)।
१ जिस अर्थ से—क्रिया से-कार्य तो कुछ भी अभियोग्य देवों के अतिरिक्त जो किल्विषिक प्रादि सिद्ध नहीं होता, किन्तु सदा पाप ही किया जाता प्रधम और पारिषद प्रादि उत्तम जाति के देव हैं वे है वह अनर्थदण्ड कहलाता है। अनभियोग्य देव कहलाते हैं।
अनर्थदण्डविरति-१. अभ्यन्तरं दिगवधेरपाथिअनभिसन्धिजगीर्य (प्रणभिसंधिजवी रय)- केभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदु१. असंवेइया खल-रसातिपरिणामणा सत्ती प्रणभि. व्रतधराग्रण्यः ॥ (रस्नक. ३-२८)। २. असत्यूसंधिजं वीरितं । (कर्मप्र. च. गा.१-३)। २. इतर- पकारे पापादान हेतुरनर्थदण्डः, ततो विरतिरनर्थदनभिसन्धिजम्-यद् भुक्तस्याहारस्य धातु-मलत्व- दण्डविरतिः । (स. सि. ७-२१)। ३. उपकारात्यये रूपपरिणामापादनकारणमेकेन्द्रियाणां वा तत्तक्रिया- पापादाननिमित्तमनर्थदण्डः ॥४॥ असत्युपकारे पापा
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प्रनथदण्डविरति ]
दानहेतुः अनर्थदण्ड इत्यवधियते । विरमणं विरतिः, निवृत्तिरिति यावत् । (त. वा. ७, २१, ४) । ४. अनर्थदण्डो नामोपभोग- परिभोगावस्यागारिणो व्रतिनोऽर्थः तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः । तदर्थो दण्डोऽनर्थदण्ड: । तद्विरतिव्रतम् । ( त. भा. ७ - १६) | ५. विरतिनिवृत्तिरनर्थदण्डे अनर्थदण्डविषया । इह लोकमङ्गीकृत्य निःप्रयोजनभूतोपमर्दनिग्रहविषया । ( श्रा. प्र. टी. २८६ ) । ६. असत्युपकारे पापादानहेतुः प्रनर्थदण्ड इति व्यवह्रियते । विरमणं विरतिः, निवृत्तिरिति यावत् । (त. श्लोक ७ - २१) । ७. एवं पंचपयारं प्रणत्थदंडं दुहावहं णिच्चं । जो परिहरेइ गाणी गुणव्वदी सो हवे विदिश्रो ।। ( कार्तिक. ३४६ ) । ८. तद्विपरीतो (अर्थदण्डविपरीतो ) ऽनर्थदण्डः प्रयोजननिरपेक्ष:, अनर्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणता, विनैव कारणेन भूतानि दण्डयति यथा कुठारेण प्रहृष्टस्तरुस्कन्ध शाखादिषु प्रहरति कृकलास-पिपीलिकादि व्यापदयति । ( त. भा. हरि. व सि. वृ. ७-१६) । ६. परोपदेश हेतुर्योऽनर्थदण्डोऽपकारकः । श्रनर्थदण्डविरतिव्रतं तद्विरतिः स्मृतम् । (ह. पु. ५८ - १४७) । १०. दण्ड - पाश विडालाश्च विष शस्त्राग्नि-रज्जवः । परेभ्यो नंव देयास्ते स्व-पराघात हेतवः ।। छेदं भेद-वधौ बन्ध-गुरुभारातिरोपणम् । न कारयति योऽन्येष तृतीयं तद् गुणव्रतम् ॥ ( वरांगच १५, ११९-२० ) । ११. समासतः सर्वमुपयुज्यमानं शरीरादीनामगारिणो व्रतिन उपकारकोऽर्थः तस्मादुपकारकादर्थाद् व्यतिरिक्तोऽनर्थः । XX X तदर्थो दण्ड: XX X तस्माद् विरतिः । ( त. भा. सि. वृ. ७-१६) । १२. पञ्चधाऽनर्थदण्डस्य परं पापोपकारिणः । क्रियते यः परित्यागस्तृतीयं तद् गुणव्रतम् । ( सुभाषित. ८०० ) । १३. योऽनर्थं पञ्चविधं परिहरति विवृद्धशुद्धधर्ममतिः । सोऽनर्थदण्डविरति गुणव्रतं नयति परिपूर्तिम् ॥ ( अमित श्र. ६ - ८० ) । १४. मज्जार-साण-रज्जु बंड ( ? ) लोहो य प्रग्गिविससत्थं । स परस्स धादहेदु अण्णेसि णेव दादव्वं ॥ वह बंध-पास छेदो तह गुरुभाराधिरोहणं चेव । णवि कुणइ जो परेसि विदियं तु गुणव्वयं होइ || ( धर्मर. १४ε-१५०) । १५. अर्थः प्रयोजनं धर्म-स्वजनेन्द्रियगतशुद्धोपकारस्वरूपम्, तस्मै प्रर्थाय दण्डः सावद्यानुष्ठानरूपस्तत्प्रतिषेधादनर्थदण्डः, तस्य विरतिरनर्थदण्डविरतिः । (धर्मबि. मु. वृ. ३- १७) । १६. शरी
[ श्रनर्पित
रादिनिमित्तं यः प्राणिनां दण्डः सोऽर्थाय प्रयोजनाय दण्डोsर्थदण्डः, तस्य शरीराद्यर्थदण्डस्य यः प्रतिपक्षरूपोऽनर्थदण्डो निष्प्रयोजनो दण्ड इति यावत् तस्य त्यागोऽनर्थदण्ड विरतिः । (योगशास्वो विव. ३ - ७४) । १७. शरीराद्यर्थदण्डस्य प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ।। (त्रि.श. पु. च. १, ३, ६३८ ) । १८. पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनाऽङ्गिनाम् । प्रनर्थदण्डस्तत्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम् । (सा. ध. ५-६ ) । १६. असत्युपकारे पापादानहेतुः पदार्थोऽनर्थ इत्युच्यते, न विद्यतेऽर्थ उपकारलक्षणं प्रयोजनं यस्यासावनर्थ इति व्युत्पत्तेः । स च दण्ड इव दण्डः पीडाहेतुत्वात् । ततोऽनर्थश्चासौ दण्डश्चानर्थदण्ड इत्यवधार्यते । विरमणं विरतिनिवृत्तिरित्यर्थः । (त. सुखबो. वृ. ७-२१) । २०. पाश - मण्डल- मार्जार- विष-शस्त्र कृशानवः । न पापं च अमी देयास्तृतीयं स्याद् गुणव्रतम् । (पू. उपा. ३०)। २१. खनित्र - विष - शस्त्रादेर्दानं स्याद् वध - हेतुकम् । तत्त्यागोऽनर्थदण्डानां वर्जनं तत् तृतीयकम् ॥ ( भावसं वाम. ४६१ ) । २२. अर्थ ः प्रयोजनं तस्याभावोऽनर्थः स पञ्चधा । दण्डः पापास्रवस्तस्य त्यागस्तद्व्रतमुच्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-८ ) । २३. तस्य (पञ्चप्रकारस्य अनर्थदण्डस्य ) सर्वस्यापि परिहरणम् अनर्थदण्डविरतिव्रतनामकं तृतीयं व्रतं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २१) । जिन कार्यों के करने से अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो, किन्तु केवल पाप का ही संचय हो, ऐसे पापोपदेश श्रादि पांच प्रकार के अनर्थदण्डों के त्याग को श्रनर्थदण्डविरति या अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । श्रनर्पित - १ तद्विपरीतम् (अर्पितविपरीतम् ) अनपितम् । ( स. सि. ५- ३२ ); २. तद्विपरीतमनपितम् ॥२॥ प्रयोजनाभावात् सतोऽप्यविवक्षा भवति इत्युपसर्जनीभूतमन पितमित्युच्यते । (त. वा.५, ३२, २ ) । ३. अनपितव्यावहारिकम् । ( त. भा. ५-३१) । ४. XX X किंतु ते तत्थ अपहाणा अविवक्खिया अणप्पिया इदि XXX (धव. पु. ८, पृ. ६) I ५. द्वितं ( प्रतिविपरीतम् ) अनर्पितम् । (त. सुखबो. वृ. ५-३२) । ६. नापितं न प्रापितं न प्राधान्यं न उपनीतं न विवक्षितमर्पितम् उच्यते, प्रयोजनाभावात् सतोऽपि
५१, जैन-लक्षणावली
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श्रनवघृतकालानशन ]
स्वभावस्याविवक्षितत्वात् उपसर्जनीभूतम् अप्रधानभूतम् अनपितमित्युच्यते । (त. वृ. श्रुत. ५ - ३२) । १ अविवक्षित या अप्रधान वस्तु को अर्पित कहते हैं । अनवधृतकालानशन अनवघृतकालमादेहोपरमात् । (त. वा. ६, १६, २) । जिस अनशन (उपवास) का कोई काल नियत नहीं है, ऐसे यावज्जीवन चलने वाले अनशन को अनवघृतकालानशन कहा जाता है । अनवस्था दोष – १. अप्रामाणिकानन्तपदार्थ परिकल्पनया विश्रान्त्यभावोऽनवस्था । (प्र. र. माला पू. २७७, दि. १०) । २. अनवस्थालता च स्यान्नभस्तविसर्पिणी | ( चन्द्रप्र च २ - ५८ ) । ३. तथा चोक्तम् — मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्था हि दूषणम् । वस्त्वानन्त्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था विचार्यते । (प्र. र. माला पृ. १७१) । ४. अनवस्था तु पुनः पुनः पदद्वयावर्तनरूपा प्रसिद्धैव । (श्रभि. रा. १, पृ. ३०२) । १ अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते हुए जो विश्रान्ति का प्रभाव होता है, इसका नाम अनवस्था दोष है । अनवस्थाप्यता १. हस्ततालादिप्रदानदोषाद् दुष्टतरपरिणामत्वाद् व्रतेषु नावस्थाप्यते इत्यनवस्थाप्यः, तद्भावोऽअनवस्थाप्यता । ( श्राव. हरि. वृ. नि. १४१८ ) । २. अवस्थाप्यत इत्यवस्थाप्यस्तन्निषेधादनवस्थाप्यः, तस्य भावोऽनवस्थाप्यता, दुष्टतरपरिणामस्याकृततपोविशेषस्य व्रतानामा [ मना ] रोपणम् । (योगशा. स्वो विव. ४-६० ) ।
१ हस्तताल - हाथ से ताडन - श्रादि प्रदान के दोष से अत्यन्त दुष्ट परिणाम होने के कारण व्रतादिक में अवस्थापन की प्रयोग्यता को अनवस्थाप्यता कहते हैं ।
अनवस्थाप्यार्ह - जम्मि पडिसेविए उवट्ठावणाअजोगो, कंचि कालं न वएसु ठाविज्जइ जाव पइविसितवो न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवो तद्दोसोवरश्रो वसु ठाविज्जइ, एयं प्रणवटुप्पारिहं । ( जीत. चू. पू. ६) ।
जिसका सेवन करने पर कुछ काल व्रतों में स्थापना के योग्य नहीं होता, पश्चात् तप का अनुष्ठान करने पर उस दोष के शान्त हो जाने से व्रतों में जो स्थापन के योग्य हो जाता है, इसका नाम अनवस्थाप्यार्ह है । अनवस्थितावधि - १. अनवस्थितं हीयते वर्ध
-
जैन- लक्षणावली
५२,
[अनवेक्ष्याप्रमृज्यादान
I
च, वर्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति पुनः पुनरूमिवत् । ( त. भा. १ - २३ ) । २. अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणहानि-वृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वर्धितव्यम्, हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत् । ( स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, ४; त. वृ. श्रुत. १-२२; सुखबो. वू. १-२२) । ३. जमोहिणाणमुप्पण्णं संत कावि वढदि, कयावि हायदि, कयावि श्रवट्ठाण - भावमुवणमदि; तमणवट्ठिदं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २४) । ४. विशुद्धेरनवस्थानात् सम्भवेदनवस्थितः । (त. श्लोक १, २२); नावतिष्ठते क्वचिदेकस्मिन् वस्तुनि शुभाशुभानेकसंयमस्थानलाभात् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-२३) । ५. यत्कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धीयते, कदाचिदवतिष्ठते च तदनवस्थितम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२) ।
१ जो अवधिज्ञान वायु से प्रेरित जल की लहर के समान हानि को प्राप्त होता है व बढ़ता भी है, बढ़ता है व हानि को भी प्राप्त होता है तथा च्युत भी होता है व उत्पन्न भी होता है; उसे श्रनवस्थित श्रवधि कहते हैं । २ जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणों की हानि और वृद्धि के योग से जितने प्रमाण में उत्पन्न हुआ है उससे जहाँ तक बढ़ना चाहिए बढ़ता भी है, और जहां तक हानि को प्राप्त होना चाहिए हानि को भी प्राप्त होता है, उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहा जाता है ।
स
श्रनवक्ष्याप्रमृज्य संस्तार —– संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपोषधव्रतेन दर्भ - कुश - कम्बलि-वस्त्रादिः संस्तारः, स चावेक्ष्य प्रमार्ण्य च कर्तव्यः, श्रनवेक्ष्याप्रमार्ण्य च करणेऽतिचारः । इह चानवेक्षणेन दुरवेक्षणम् श्रप्रमार्जनेन दुष्प्रमार्जनं संगृह्यते । (योगशा. स्वो विव. ३-११८) ।
भली भांति देखे और प्रमार्जन किये बिना ही दर्भशय्यादि के बिछाने को अनवेक्ष्याप्रमृज्य संस्तार कहते हैं । यह पोषघव्रत का तीसरा श्रतिवार है ।
अनवेक्ष्याप्रमृज्यादान — प्रदानं ग्रहणं यष्टि- पीठफलकादीनाम्, तदप्यवेक्ष्य प्रमृज्य च कार्यम्; अनवेक्षितस्याप्रमार्जितस्य चादानमतिचारः । श्रादानग्रहणेन निक्षेपोऽप्युपलक्ष्यते यष्ट्यादीनाम् तेन सोऽप्यवेक्ष्य प्रमार्ण्य च कार्यः । अनवेक्ष्याप्रमृज्य च
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अनवेक्ष्याप्रमृज्योत्सर्ग ]
निक्षेपोऽतिचार इति द्वितीय: । (योगशा. स्वो विव. ३-११८) ।
बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही लाठी श्रादि किसी पदार्थ के ग्रहण करने या रखने को अनवेक्ष्याप्रमृज्यादान कहते हैं । यह पोषधव्रत के पांच प्रतिचारों में दूसरा है । अनवेक्ष्याप्रमृज्योत्सर्ग उत्सर्जनमुत्सर्ग स्त्यागः, उच्चारप्रस्रवणखे लसिंघाणकादीनामवेक्ष्य प्रमृज्य च स्थण्डिलादौ उत्सर्गः कार्यः । प्रवेक्षणं चक्षुषा निरीणम्, मार्जनं वस्त्रप्रान्तादिना स्थण्डिलादेरेव विशुद्धीकरणम् । अथानवेक्ष्याप्रमृज्य चोत्सर्गं करोति तदा पोषधव्रतमतिचरति । (योगशा. स्वो विव. ३-११८ ) । बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही शरीर के मल-मूत्र, कफ और नासिकामल श्रादि का जहां कहीं भी क्षेपण करना; इसे अनवेक्ष्याप्रमृज्योत्सर्ग कहते हैं । यह पोषघव्रत का प्रथम प्रतिचार है । अनशन - १. प्रशन माहारस्तत्परित्यागोऽनशनम् । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ६- १६; योगशास्वो विव. ४ -८९ ) । २. न प्रशनमनशनम् - आहारत्यागः । ( दशवै. हरि. वृ. १-४७) । ३. अशनत्यागोऽनशनम् X X X | ( आ. सा. ६ - ५ ) । ४. खाद्यादिचतुassहारसंन्यासोऽनशनं मतम् । (लाटीसं. ७-७६) । चारों प्रहार के परित्याग को अनशन कहते हैं । अनशन तप - देखो नेषण । १. संयमरक्षणार्थं कर्मनिर्जरार्थं च चतुर्थ - षष्टाष्टमादि सम्यगनशनं तपः । ( त. भा. ६-१९ ) । २. दृष्टफलानपेक्षं संयमप्रसिद्धिरागोच्छेद-कर्म विनाश-ध्यानागमावाप्त्यर्थ मनशनम् । ( स. सि. ६-१६; त. वा. ६, १६, १; त. श्लो. ६-१६)। ३. अनशनं नाम यत्किचिद् दृष्टफलं मंत्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनम् । ( चा. सा. पृ. ५६ ) । ४. चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोऽथवाऽमृतेः । सकृद्भुक्तिश्च मुक्त्यर्थं तपोऽनशनमिष्यते ! (अन. ध. ७-११) । ५ तदात्वफलमनपेक्ष्य संयमप्राप्तिनिमित्तं रागविध्वंसनार्थं कर्मणां चूर्णीकरणार्थं सद्ध्यानप्राप्त्यर्थं शास्त्राभ्यासार्थं च यत् क्रियते उपवासस्तदनशनम् । (त. वृ. श्रुत. ६-१६) । ६. दृष्टफलानपेक्षमन्तरङ्गतपःसिद्ध्यर्थमभोजनमनशनम् । (त. सुखवो वृ. ६ - १९) । २ मंत्र - साघनादि किसी दृष्ट फल की अपेक्षा न करके संयम की सिद्धि, रागोच्छेद, कर्मविनाश,
[नाकाङ्क्षया
ध्यान और श्रागम की प्राप्ति के लिए जो भोजन का परित्याग किया जाता है उसका नाम अनशन है । अनशनातिचार - स्वयं न भुङ्क्ते ग्रन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कायेन च, स्वयं क्षुधापीडित श्राहारमभिलषति, मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति क्व वा लप्स्यामीति चिन्ता अनशनातिचारः । रसवदाहारमन्तरेण परिश्रमो मम नापैति इति वा षड्जीवनिकायबाघायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः, प्रचुरनिद्रतया ( ? ) संक्लेशक [कर ] मनर्थमिदमनुष्ठितं मया, सन्तापकारीदं नाचरिष्यामि इति सकल्पः । (भ. श्री. विजयो. टी. ४८७) । २. अनशनस्य परं मनसा वाचा कायेन वा भोजयतो भुंजानं वाऽनुमन्यमानस्य स्वयं वा क्षुत्क्षामतयाऽऽहारमभिलषतोऽतिचारः स्यात्, मनसा को मां पारणां प्रदास्यति क्व वा लप्स्ये इति चिन्ता वा, सुरसाहारमन्तरेण परिश्रमो मम नापैति इति वा, षड्जीवनिकायबाधायामन्यतमेन योगेन वृत्तिर्वा प्रचुरनिद्रतया संक्लेशो वा, किमर्थमिदमनुष्ठितं मया, सन्तापकारि पुनरिदं नाचरिष्यामीति संक्लेशो वेति । (भ. श्रा. मूला. टी. ४८७)।
उपवास के दिन स्वयं भोजन न करके दूसरे को भोजन कराना, श्रन्य भोजन करने वाले की अनुमोदना करना, भूख से पीड़ित होने पर स्वयं आहार की अभिलाषा करना, कल मुझे कौन पारणा करायेगा व कहां वह प्राप्त होगी, इस प्रकार विचार करना; अथवा सुरस आहार के बिना मेरा श्रम दूर नहीं होगा, इत्यादि विचार करना; यह अनशन का प्रतिचार है - उसे मलिन करने वाले ये सब दोष हैं । श्रनस्तिकाय - कालोऽनस्तिकायः, तस्य प्रदेशप्रचयाभावात् । ( धव. पु. ६, पृ. १६८ ) । जिस द्रव्य के प्रदेशसमुदाय सम्भव नहीं हैं उसे अनस्तिकाय कहते हैं । ऐसा द्रव्य एक काल ही है । अनाकाङ्क्षक्रिया - १. शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, १० ) । २. शाठ्यालस्यवशादर्हत्प्रोक्ताचारविधौ तु यः । अनादरः स एव स्यादनाकाङ्क्षक्रिया विदाम् ।। ( त श्लो. ६, ५, २१ ) । ३. शाठ्यालस्याद्धि शास्त्रोक्तविधि कर्तव्यतां प्रति । अनादरस्त्वनाकाङ्क्षाक्रिया X××। ( ह. पु. ५८- ७८ ) । ४. प्रमादालस्याभ्यां प्रवचनो
।
५३, जैन - लक्षणावली
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नाकाङ्क्षणा ]
पदिष्टविधिकर्तव्यताऽनादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया । (त. सुखबो. वृ. ६ - ५ ) । ५. शठत्वेन अलसत्वेन च जिनसूत्रोपदिष्टविधिविधानेऽनादरः प्रनाकाङ्क्षाक्रिया । (त. वृ. श्रुत. ६ - ५ ) ।
१ शठता या आलस्य के वश होकर श्रागमनिर्दिष्ट श्रावश्यक कार्यों के करने में अनादर का भाव रखना नाकाङक्षक्रिया है ।
नाकाङ्क्षरणा ( निःकाङ्क्षितत्व ) - कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्थाश्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥ ( रत्नक. १ - १२) | कर्माधीन, विनश्वर, दुःखोत्पादक और पाप के बीजभूत सांसारिक सुख में अनास्था का श्रद्धान करना - उसमें विश्वास न रखना, इसका नाम अनाकाङ्क्षणा (सम्यग्दर्शन का निष्कांक्षित श्रंग) है । अनाकार - अकारो विकल्पः सह प्रकारेण साकारः । अनाकारस्तद्विरीतः, निर्विकल्प इत्यर्थः । त. भा. सि. वृ. २- ९) ।
प्राकार या विकल्प से रहित उपयोग को अनाकार या निर्विकल्प कहते हैं । उसे दर्शन भी कहा जाता है। अनाकारोपयोग — १. प्रणायारुवजोगो दंसणं । को अणागारुवजोगो णाम ? सागारुवजोगादो अण्णो । कम्म- कत्तारभावो श्रागारो, तेण आगारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागारो त्ति । ( धव. पु. १३, पृ. २०७ ) । २. पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो, तं जम्मि णत्थि सो उवजोगो अणायारो णाम, दंसणुव जोगो त्ति भणिदं होदि । ( जयध. पु. १, पृ. ३३१) । ३. इंदिय-मणोहिणा वा अत्थे अविसेसदूण जं गहणं । तोमुहुत्तकालो उवजोगो सो प्रणा यारो ॥ (गो. जी. ६७५ ) । ४. अनाकारं निर्विकल्पकं दर्शनमित्यर्थः । (त. सुखबो. वृ. २-६) । ५. न विद्यते यथोक्तरूप आकारो यत्र सोनाकारः । स चासावुपयोगश्चानाकारोपयोगः । यत्तु वस्तुनः सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोपयोगः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६- ३१२ ) ।
२ प्रमाण से भिन्न कर्म-ज्ञान से भिन्न अन्य बहिभूत विषय - का नाम आकार है । ऐसा श्राकार जिस उपयोगविशेष में सम्भव नहीं है उसे अनाकारोपयोग कहा जाता है। दूसरे शब्द से उसे दर्शनोपयोग भी कहा गया है।
५४, जैन- लक्षणावली
[ अनाचिन्न
श्रनागत ( श्ररणागद) - १. जहा सव्वे लोए पत्थो तिहा विहत्तो प्रणागदो वट्टमाणो प्रदीदो चेदि । तत्थ अणिफण्णो अणागदो णाम । घडिज्जमाणो वट्टमाणो । णिफण्णो ववहारजोग्गो प्रदीदो णाम । X X X तथा कालो वि तिविहो प्रणागदो वट्टमाणी अदीदो चेदि । ( धव. पु. ३, पृ. २६ ) । २. यो विवक्षितं वर्तमानसमयमवधीकृत्य भावी समयराशिः स सर्वोऽपि कालोऽनागतः । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. १-७) । ३. अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् । भावी समयराशिर्यः कालः स स्यादनागतः । (लोकप्र. २८ - २७) ।
१ श्रनिष्पन्न प्रस्थ ( धान्य के मापने का एक मापविशेष) के समान श्रनिष्पन्न सभी समयों को श्रनागत काल कहा जाता है । २ विवक्षित वर्तमान समय को अवधि करके सीमारूप मानकर उसके आगे की जितनी भी समय राशि ( समयों का समूह ) है उस सब ही को श्रनागत काल माना जाता है ।
नाचरित दोष - १. दूरदेशाद् ग्रामान्तराद्वाऽऽनीतमनाचरितम् । भ. प्रा. विजयो. २३०; कार्तिके. टी. ४४६, पृ. ३३८ ) । २. इतरत् (श्राचरिताद्विपरीतम्) अनाचरितम् । (भ. श्री. मूला. टी. २३० ) । दूर देश से या ग्रामान्तर से लाये हुए श्राहार को ग्रहण करना श्रनाचरित दोष है । अनाचार - १. Xx X X वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् । ( द्वात्रि. 8 ) । २. अनाचारो व्रतभङ्गः सर्वथा स्वेच्छया प्रवर्तनम् । (मूला. वृ. ११ - ११ ) । ३. गिलिते त्वाघाकर्म्मणा [ण्य ] नाचारः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १ - ४३ ) । ४. साध्वाचारस्य परिभोगतो ध्वंसेऽनाचारः । ( व्यव. १ उ. - अभि. रा. १, पृ. ३११) ।
के श्रना
१ विषयों में जो श्रतिशय श्रासक्ति होती है उसे अनाचार कहते हैं । ३ श्राधाकर्म के अपने निमित्त से निर्मित भोजन के — निगलने पर साधु चार माना जाता है । नाचिन्न- १. परदो वा तेहिं भवे तव्विवरीद प्रणाचिणं । (मूला. ६ - २० ) । २. परतस्त्रिभ्यः सप्तगृहेभ्यः ऊर्ध्वं यद्यागतमोदनादिकमनाचिन्नं ग्रहणायोग्यम्, तद्विपरीतं वा ऋजुवृत्या विपरीतेभ्यः सप्तभ्यो यद्यागत तदप्यनाचिन्नमादातुमयोग्यम् । (मूला. वृ. ६-२०) ।
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अनात्तागति]
५५, जैन-लक्षणावली [अनादि-नित्य-पर्यायार्थिक नय माहार यदि तीन या सात घरों के अतिरिक्त प्रागे अनादर-१. क्षुदभ्यर्दितत्वादावश्यकेष्वनादरोऽनुके घरों से लाया गया है तो वह अनाचिन्न–ग्रहण त्साहः । (स. सि. ७-३४, चा. सा. पु. १२, सा. करने के अयोग्य होता है।
___ध. स्वो. टी. ५-४०; त. सुखबो. वृत्ति ७-३४) । अनात्तागति-अनात्ता अपरिगृहीता वेश्या, स्व- २. इतिकर्तव्यं प्रत्यसाकल्याद्यथाकथञ्चित्प्रवृत्तिररिणी, प्रोषितभर्तृका, कुलाङ्गना वा अनाथा; तस्यां नुत्साहोऽनादरः इत्युच्यते । (त. वा. ७, ३३, ३; गतिरासेवनम् । इयं चानाभोगादिना अतिक्रमादिना चा. सा. पृ. ११, त. सुखबो. वृ. ७-३३); अावश्यवा अतिचारः । (योगशा. स्वो. विव. ३-६४)। केष्वनादर; ॥४॥ आवश्यकेषु अनादरः अनुत्साहो अनात्ता से अभिप्राय अपरिगहीत वेश्या, कुलटा, भवति । कुतः ?क्षुदभ्यदितत्वात् । (त. वा. ७, ३४, प्रोषितभर्तृका (जिसका पति प्रवास में है), कुलीन ४)। ३. आवश्यकेष्वनादरोऽनुत्साहः । (त. श्लो. स्त्री और अनाथ स्त्री का है। उसका सेवन करना, ७-३४); ४. अनादरः पोषधव्रतप्रतिपत्तिकर्तव्ययह स्वदारसन्तोषव्रती के लिए अतिचार है। तायामिति चतुर्थः । (योगशा. स्वो. विव. ३-११८; अनात्मभूत (लक्षरण)-तद्विपरीतं (यद्वस्तुस्वरूपा- अनादरोऽनुत्साहः प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याननुप्रविष्टं तत्) अनात्मभूतम् । यथा दण्डः पुरुषस्य। करणम्, यथाकथंचिद्वा करणम्, प्रबलप्रमादादिदोषात् (न्यायदी. पृ. ६)।
करणानन्तरमेव पारणं च । (योगशा. स्वो. विव. जो लक्षण बस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो, ३-११६; सा. ध. स्वो. टी. ५-३३ । ५. अनादरः उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे-पुरुष का पुनः प्रबलप्रमादादिदोषाद् यथाकथंचित्करणं कृत्वा लक्षण दण्ड ।
वा ऽकृतसामायिककार्यस्यैव तत्क्षणमेव पारणमिति । अनात्मभूत (हेतु)-प्रदीपादिरनात्मभूतः (बाह्यो (धर्मवि. मु. वृ. १६४) । ६. अनादरः अनुत्साहः हेतुः) Ixxx तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणम् । (धर्मसं. द्रव्ययोगः चिन्ताद्यालम्बनभूत: अन्तरभिनिविष्टत्वा- मान. स्वो. वृ. २, ५५, ११४) । ७. यदाऽऽलस्यदाभ्यन्तर इति व्यपदिश्यमान प्रात्मनोऽन्यत्वादना- तया मोहात्कारणाद्वा प्रमादतः । अनुत्साहतया त्मभूतः (आभ्यन्तरो हेतु:) इत्यभिधीयते। (त. कुर्यात्तदाऽनादरदूषणम् । (लाटीसं. ६-१९३) । वा. २, ८, १)।
८. चतुर्थोऽतिचार अनादर अनुत्साहः अनुद्यम इति उपयोग (चैतन्य परिणामविशेष) का जो हेतु प्रात्मा यावत् । (त. वृ. श्रुत. ७-३३; क्षुधा-तृषादिभिरसे सम्बन्ध को प्राप्त नहीं है वह बाह्य अनात्मभूत भ्यर्दितस्य आवश्यकेषु अनुत्साहः अनादर उच्यते । हेतु कहलाता है-जैसे प्रदीप प्रादि । उक्त प्रदीप त. वृ. श्रुत.७-३४)।।
आदि चक्षुरादि के समान प्रात्मा से सम्बद्ध न भूख-प्यास, श्रम व पालस्यादि के कारण सामायिक होकर भी प्रात्मा के उपयोग में हेतु होते हैं, अतः और पोषधोपवास प्रादि से सम्बद्ध प्रावश्यक वे बाह्य अनात्मभूत हेतु हैं। चिन्ता आदि का क्रियाओं के करने में उत्साह न रख कर उन्हें यथामालम्बनभत जो मन, वचन व काय वर्गणारूप कथंचित् पूरा करने को अनादर नामका अतिचार द्रव्य योग है वह प्राभ्यन्तर अनात्मभत हेत कहलाता कहते हैं। है। वह चूंकि प्रात्मा से भिन्न है, अतएव जैसे अनादिकरण-१. धम्माधम्मागासा एवं तिविहं अनात्मभूत है वैसे ही वह अन्तरंग में निविष्ट होने भवे अणाईयं । (उत्तरा. नि. ४-१८६)। २. धर्मासे प्राभ्यन्तर भी है। यह भी उस उपयोग में हेतु धर्माकाशानामन्योन्यसंवलनेन सदाऽवस्थानमनादिकरहोता ही है।
णम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४-१८६)। अनात्मशंसन-यदात्मव्यतिरिक्तं तदनात्म, तस्य धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों के परम्पर व्याघात शंसनं कथनम्, तत्स्वरूपम् अनात्मशंसाष्टकम् । के बिना सदा एक साथ अवस्थान को अनादिकरण (ज्ञानसार वृत्ति १८, पृ. ६६)।
कहते हैं। प्रात्मा के अतिरिक्त अन्य पर पदार्थों के स्वरूप के अनादि-नित्य-पर्यायाथिक नय-अक्कट्टिमा अणिकहने को अनात्मशंसन कहते हैं ।
हणा ससि-सूराईण पज्जया गिण्हइ । जो सो प्रणाइ
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अनादिपरिणाम] ५६, जैन-लक्षणावली
[अनादेयनाम णिच्चो जिणभणियो पज्जयत्थिणयो। (ल. न. च. पाढा तव्विवरीयं प्रणाढियं होइ । (प्रव. सारो. गा. २७; बृ. न. च. २००)।
१५५) । २. अनादृतं विनाऽऽदरेण सम्भ्रममन्तरेण जो नय अकृत्रिम व अनादिनिधन चन्द्र-सूर्यादिक की यत् क्रियाकर्म क्रियते तदनादतमित्युच्यते । (मला. पर्यायों को ग्रहण करे, उसे अनादि-नित्यपर्यायार्थिक वृ. ७-१०६)। ३. अनादतमतात्पर्य वन्दनायां x नय कहते हैं।
XXI (अन. ध. ८-९८)। अनादिपरिणाम-तत्रानादिर्धर्मादीनां गत्युपग्रहादिः देखो अनादृत। सामान्यापेक्षया। (स. सि. ५-४२; त. वृ. श्रुत. अनादेयनाम - १. निष्प्रभशरीरकारणमनादेय५-४२) । २. अनादिर्लोकसंस्थान-मन्दराकारादिः। नाम । (स. सि. ८-११, त. वा. ८, ११,
त. वा. ५, २२, १०); तत्रानादिधर्मादीनां गत्युप- ३७; त. श्लो. ८-११; भ. प्रा. मूला. टीका ग्रहादि। (त. वा. ५,४२, ३)। ३. तत्रानादि
र्लोकसंस्थानमन्दराकारादिः । स पुरुषप्रयत्नापेक्षत्वा- ८-११; त. वृ. श्रुत. ८-११)। २. विपरीतं (अनाद्वैस्रसिकः । (त. सुखबो. वृ. ५-२२); तत्रानादि- देयभावनिर्वतकम्) अनादेयनाम । (त. भा. ८-१२)। धर्मादीनां गत्युपग्रहादिस्वतुल्यकालसन्तानवर्ती सामा- ३. तद्विपरीतमनादेयम् । श्रावकप्र. टी. २४) । न्यरूपः । (त. सुखबो. वृ:५-४२)।
४. युक्तियुक्तमपि वचनं यदुदयान्न प्रमाणयन्ति अनादिकालीन लोक व सुमेरु पर्वत का प्राकार लोकाः, न चाभ्युत्थानाद्यर्हणमर्हस्यापि कुर्वन्ति, तदप्रादि तथा धर्म-अधर्म आदि का गति-स्थिति आदि नादेयनामेति । अथवा प्रादेयता श्रद्धेयता दर्शनादेव उपकार अनादि परिणाम कहलाता है।
यस्य भवति स च शरीरगुणो यस्य विपाकाद् अनादि-सान्त (बन्ध)-यस्त्वनादिकालात् सतत- भवति तदादेयनाम । एतद्-विपरीतमनादेयनामेति । प्रवृत्तोऽपि पुनर्बन्धव्यवच्छेदं प्राप्स्यति असावनादि- (त. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२) । ५. अनादेयकर्मोसान्तः, अयं भव्यानाम् । (शतक. दे. स्वो. वृ. ५)। दयादग्राह्यवाक्यो भवति । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-१९)। अनादि काल से प्रवृत्त होकर भविष्य में विच्छेद ६. यदुदयादनादेयत्वं निष्प्रभशरीरम्, अथवा यदुको प्राप्त होने वाले बन्ध को अनादि-सान्त बन्ध दयादनादेयवाक्यं तदनादेयं नाम। (मूला. व. १२, कहते हैं।
१९६)। ७. तव्विवरीयभावणिवत्तयकम्ममणादेयं अनादिसिद्धान्तपद-अनादिसिद्धान्तपदानि धर्मा- णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६५); जस्स कम्मस्सुदएण स्तिरधर्मास्तिरित्येवमादीनि । अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सोभणाणुदाणो वि जीवो ण गउरविज्जदि तमणासिद्धान्तः, स पदं स्थानं यस्य तदनादिसिद्धान्तपदम्। देज्जं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६६)। ८. यदु(धव. पु. १, पृ. ७६); धम्मत्थिो अधम्मत्थियो दयाद युक्तमपि ब्रुवाणः परिहार्यवचनस्तदनादेयकालो पूडवी पाऊ तेऊ इच्चादीणि प्रणादियसिद्धंत- नाम । (प्रव. सारो. टी. गा. १२६६ शतक. मल. पदाणि । (घव. पु. ६, पृ. १३८)।
हेम. टीका ३७; कर्मस्तव गो. वृ. गा. ६-१०)। जिनका पद (स्थान) अपौरुषेय होने से अनादि ६. तद्विपरीतम् (प्रादेयविपरीतम्) अनादेयम्, परमागम है ऐसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यदुदयवशादुपपन्नमपि ब्रुवाणो नोपादेयवचनो काल, पृथिवी, अप् और तेज आदि पद अनादि- भवति, नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि सिद्धान्त पद कहलाते हैं।
समाचरति । (प्रज्ञापना मलय. वृत्ति २३-२६३, अनादृत-१. पादरः सम्भ्रमस्तत्करणमादृतता, सा पृ. ४७५; पञ्चसं. मलय. वृत्ति ३-८)। १०. यदुयत्र न भवति तदनादतमुच्यते । (प्राव. ह. व. दयवशात्तु उपपन्नमपि ब्रुवाणो नोपादेयवचनो भवति, मल. हेम. टि. पृ. ८७)। २. अनादृतं सम्भ्रमरहितं न च लोकोऽभ्युत्थानादि तस्य करोति तदनादेयवन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव, ३-१३०)। नाम । (षष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६; कर्मवि. दे. प्रादर के बिना जो बन्दनादि क्रिया-कर्म किया स्वो. टीका गा. ५०; कर्मप्र. यशो. टी. १)। जाता है उसे अनादृत कहते हैं ।
११. (पाएज्जकम्मउदए चिट्ठा जीवाण भासणं जं अनादृत दोष (अरणाढिय दोष)-पायरकरणं च। तं बहु मन्नइ लोगो) अबहुमयं इयरउदएण ।
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अनादेश ]
( कर्मवि. गर्ग. गा. १४६ ) । १२. न प्रादेयमनादेयम्, यदुदयाज्जीवोऽनादेयो भवति श्रग्राह्यवाक्यो भवति सर्वोऽप्यवज्ञां विधत्ते, तदनादेयनाम | ( कर्मवि. पू. व्या. गा. ७५)
४ जिसके उदय से युक्तियुक्त वचन होने पर भी लोग उसे प्रमाण न मानें, श्रादर का पात्र होने पर भी उठकर खड़े हो जाने प्रादि रूप योग्य प्रादर व्यक्त न करें, अथवा जिसके उदय से वह शरीरगुण न प्राप्त हो सके कि जिसके प्रश्रय से देखने मात्र से ही लोगों के द्वारा आदेय ( ग्राह्य या श्रद्धाका पात्र) हो सके उसे प्राय नामकर्म कहते हैं । श्रनादेश अनादेश: सामान्यम् । सामान्यत्वं चौदयिकादीनां गति कषायादिविशेषष्वनुवृत्तिधर्मकत्वात् (उत्तरा. नि. वृ. १-४८ ) । गति - कषायादि श्रदयिक भावविशेषों में रहने वाले अनुवृत्ति स्वरूप सामान्य का नाम श्रनादेश है । अनाद्यनन्त बन्धन विद्यते श्रादिर्यस्यानादिकालसन्तानभावेन सततप्रवृत्तेः सो अनादि, अनादिश्वासी अनन्तश्च कदाचिदप्यनुदयाभावादनाद्यनन्तः । XXX यो हि बन्धोऽनादिकालादारभ्य सन्तानभावेन सततं प्रवृत्तो न कदाचन व्ववच्छेदमापन्नो न चोत्तरकालं कदाचिद् व्यवच्छेदमाप्स्यति सोऽनाद्यनन्तो ऽभव्यानामेव भवति । ( शतक. दे. स्वो. टी. ५) ।
जिसका श्रादि श्रन्त नहीं है— जो निरन्तर प्रवर्तमान है, ऐसा बन्ध श्रनाद्यनन्त कहा जाता है । जो न कभी विच्छेद को प्राप्त हुआ है और न आगे भी कभी विच्छेद को प्राप्त होने वाला है वह अनाद्यनन्त बन्ध कहलाता है, जो श्रभव्य जीवों के ही होता है । अनाद्यपर्यवसाननित्यता - तत्राद्या लोकसंनिवेशवदनासादितपूर्वापरावधिविभागा सन्तत्यव्यवच्छेदेन स्वभावमजहती तिरोहितानेकपरिणतिप्रसवशक्तिगर्भा भवनमात्रकृतास्पदा प्रतीतैव । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५-४) ।
जो नित्यता लोक के श्राकार के समान पूर्वापर अवधि के विभागों से रहित होकर प्रव्युच्छिन्न सन्तानपरम्परा से स्वभाव को न छोड़ती हुई तिरोहित अनेक अवस्थाओं के उत्पादन की शक्ति को अव्यक्त रूप से अपने भीतर रखती है उसे श्रनाद्यपर्यवसान
ल. ८
५७, जैन - लक्षणावली
[ श्रानुगामिक अवधि
नित्यता कहते हैं ।
श्रनानुगामिक अवधि - देखो श्रननुगामिक । १ × X X अणाणुगामिनं ओहिनाणं से जहा नामए केइ पुरिसे एगं महंत जोइट्ठाणं काउं तस्सेव जोइट्टा णस्स परिपेते हि परिपेते हि परिघोलेमाणे २ तमेव जोइट्ठाणं पासइ, अन्नत्थ गए न पासइ, एवमेव श्रणाणुगामि हिनाणं जत्थेव समुप्पज्जइ तत्थेव संखेज्जाणि श्रसंखेज्जाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोणाई जाणइ पासइ, अन्नत्थ गए ण पासइ, सेत्तं प्रणाणुगामि श्रहिणाणं । ( नन्दी. सू. ११) । २. अनानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् । (त. भा. १ - २३) । ३. एवमेव ( ज्योतिः प्रकाशितं क्षेत्र पश्यन् पुरुष इव) अनानुगामुकमवधिज्ञानं यत्रैव क्षेत्रे ब्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यवस्थितः सन् संख्येयानि वा असंख्येयानि वा योजनानि सम्बद्धानि वा असंबद्धानि वा जानाति पश्यति ; नान्यत्र, क्षेत्रसम्वन्धसापेक्षत्वादवधिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य, तदेतदनानुगामुकम् । ( नन्दी. हरि. वृ ११, पृ. ३३ ) । ४. अननुगमनशीलोऽननुगामुकः स्थितप्रदीपवत् । ( श्राव. हरि. वृ. नि. ५६ ) । ५. तस्य ( ग्रानुगामिकस्य ) प्रतिषेधोऽनानुगामिकमिति । प्रथमस्य भावयति - यत्र क्षेत्रे प्रतिश्रयस्थानादौ स्थितस्येति कायोत्सर्गक्रियादिपरिणतस्य उत्पन्नम् -- उद्भूतं भवति तेन चोत्पन्नेन यावत् तस्मात् स्थानान्न निर्याति, तावज्जानातीत्यर्थः । ततोऽपक्रान्तस्य -- स्थानान्तरवर्तिनः प्रतिपतति नश्यति । कथमिव ? उच्यतेप्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् । ( त. भा. सि. वृ. १-२३) । ६. न अनुगामिकं अनानुगामिकम्, श्रृंखला प्रतिबद्धप्रदीप इव यन्न गच्छन्तमनुगच्छति तदवधिज्ञानमनानुगामिकम् । ( नन्दी. मलय. वृ. सू. ९ ) । ७. तथा न श्रनुगामिको नानुगामिक: श्रृंखलाप्रतिबद्धप्रदीप इव यो गच्छन्तं पुरुषं नानुगच्छतीति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३ - ३१९ ) ८. उत्पत्तिक्षेत्र एव विषयावभासकमनानुगामिकम् । (जैनतर्क. पू. ११८ ) ।
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३ जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में अवस्थित जीव के उत्पन्न होता है उसी क्षेत्र में उसके श्रवस्थित रहने पर वह संख्यात व प्रसंख्यात योजन के अन्तर्गत
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अनानुपूर्वी] ५८, जैन-लक्षणावली
[अनाभोगनिक्षेप अपने नियत विषय को जानता है, स्वामी के अन्यत्र पंचसं. मलय.व. ४-२ सम्बोध. वृ. ४७, पृ. ३२)। जाने पर वह उसे नहीं जानता। इसका कारण यह २ सभी दर्शन-मत-मतान्तर-अच्छे हैं, इस प्रकार है कि उसके आवारक अवधिज्ञानावरण का क्षयोप- की बुद्धि से सबके समान मानने को अनाभिग्राहिक शम उक्त क्षेत्र के ही सम्बन्ध की अपेक्षा रखकर मिथ्यात्व कहते हैं। उत्पन्न हुमा है। ऐसे अवधिज्ञान को अनानुगामुक प्रनाभोग-१. आमोगो उवयोगो तस्साभावे भवे अवधिज्ञान कहा जाता है।
अणाभोगो । (प्रत्या. स्व. गा.५५)। २. आभोगअनानुपूर्वो-देखो यथातथानुपूर्वी । से किं तं प्रणाणु- नमाभोगः, नाभोगः अनाभोगः, आगमस्यापर्यालोचोपुवी ? एमाए चेव एगाइयाए एगुत्तरिमाए अणंत. ज्ञानमेव श्रेय इति भावः । (पञ्चसं. स्वो. व. गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो, से तं ४-२)। ३. अनाभोगः सम्मूढचित्ततया व्यक्तोपअणाणुपूवी । अहवा xxx से कि त अणाणु- योगाभावो दोषाच्छादकत्वात् सांसारिकजन्महेतुपुवी ? एमाए चेव एगाइपाए एगुत्तरिआए असं- त्वाद्वा । (ललितवि. पृ. ३)। ४. अनाभोगोऽजाखिज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, नानस्याकार्यमासेवमानस्य भवति । (प्राव. ह. व. से तं प्रणाणुपुवी। (अनुयोग. सू. ११४)। मल. हेम. टि. पु. ६०)। ५. न विद्यते पाभोगः अनुलोम (प्रथम-द्वितीय प्रादि) और विलोम (अन्त्य परिभावनं यत्र तदनाभोगं तच्चैकेन्द्रियादीनामिति । व उपान्त्य आदि) क्रम से रहित जो किसी की प्रह- (पञ्चसं. मलय. वृ. ४-२)। पणा की जाती है उसका नाम अनानपूर्वी है। १ उपयोग के प्रभाव का नाम अनाभोग (असावउदाहरणार्थ-कालानुपूर्वी के प्राश्रय से समयादि- धानी) है। २ प्रागम का पर्यालोचन न करके रूप अनन्त कालभेदों को प्ररूपणा में अनानुपूर्वी के अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानना, इसका नाम अनाविकल्प इस प्रकार होते हैं-एक को प्रादि लेकर भोग मिथ्यात्व है। एक अधिक क्रम से चूंकि कालभेद अनन्त हैं, अतः अनाभोगक्रिया-१. अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि१-२-३-४ आदि के क्रम से अन्तिम विकल्प तक निक्षेपोऽनाभोगक्रिया । (स. सि.६-५; त. वा. ६, अंकों को स्थापित करके उन्हें परस्पर गणित करने ५,६; त. सुखबो. ६-५; त. वृ. श्रुत. ६-५)। पर जो राशि उपलब्ध हो उसमें से दो (प्रथम और २. अदृष्टे योऽप्रमृष्टे च स्थाने न्यासो यतेरपि । अन्तिम अंकों के कम कर देने पर जो संख्या प्राप्त कायादेः सा त्वनाभोगक्रियाxxx॥ (त. इलो. हो उतने प्रकृत में अनानपूर्वी के विकल्प होते हैं। ६,५,१६)। ३. अप्रमुष्टाप्रदष्टायां निक्षेप उनमें से वक्ता की इच्छानुसार किसी भी विकल्प क्षितौ । अनाभोगक्रिया सा तु xxx ॥ (ह. पु. को लेकर जो प्ररूपणा की जाती है वह अनानुपूर्वी- ५८-७३)। ४. अनाभोगक्रिया अप्रत्यवेक्षिताप्रमाणिते क्रम से कही जावेगी।
देशे शरीरोपकरणनिक्षेपः। (त.भा. सि. वृ. ६-६)। प्रनाभिग्राहिक मिथ्यात्व-१. अनाभिग्राहिकं तु १ बिना शोधी और बिना देखी भूमि पर सोना व प्राकृतलोकानां सर्वे देवा वन्दनीया न निन्दनीयाः। उठना-बैठना प्रादि शरीर सम्बन्धी क्रिया को प्रनाएवं सर्वे गुरवः, सर्वे धर्मा इति। (योगशा. स्वो. भोग क्रिया कहते हैं। विव. २-३)। २. मन्यतेऽङ्गी दर्शनानि यद्वशाद- अनाभोगनिक्षेप-१. असत्यामपि त्वरायां जीवाः खिलान्यपि । शुभानि माध्यस्थ्यहेतुरनाभिग्राहिक सन्ति न सन्तीति निरूपणमन्तरेण निक्षिप्यमाणं हि तत् । (लोकप्र. ३-६६२) । ३. अनाभिग्राहिकं तदेवोपकरणादिकमनाभोगनिक्षेपाधिकरणम् । (भ. अज्ञानां गोपादीनामीषन्माध्यस्थ्याद्वाऽनभिगृहीत- प्रा. विजयो. टी ८१४; अन. घ. स्वो. टी. ४-२८)। दर्शनविशेषा[णां] सर्वदर्शनानि शोभनानि इत्येवंरूपा २. अनालोकितरूपतया उपकरणादिस्थापनं अनाभोग या प्रतिपत्तिः । (कर्मस्त. गो. व. गा.९-१०)। इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रत. ६-६)। ४. एतद्-(प्राभिग्राहिक.) विपरीतमनाभिग्राहिकम, १शीघ्रता के न होने पर भी जीव-जन्तु के देखे यद्वशात् सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानि इत्येवमी- बिना ही ज्ञान-संयम के साधनभूत उपकरणादि के षन्माध्यस्थ्यमुपजायते । (षडशी. मलय. वृ. गा. ७५; रखने को अनाभोगनिक्षेप कहते हैं ।
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प्रनाभोगनिर्वतित कोप] ५६, जैन-लक्षणावली
[अनालब्ध दोष अनाभोगनिर्वतित कोप-यदा त्वेवमेव तथाविध- अनायतन (अणाययण)-१. सम्यक्त्वादिगुणामुहूर्त्तवशाद् गुण-दोषविचारणाशून्यः परवशीभूय नामायतनं गृहमावास प्राश्रय पाधारकरणं निमित्तकोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्वतितः। (प्रज्ञा- मायतनं भण्यते, तद्विपक्षभूतमनायतनम् । (बृ. द्रव्यप. मलय. वृ. १४-१६६) ।
सं. टी. गा. ४१)। २. मिथ्याग्ज्ञानवृत्तानि त्रीणि उस प्रकारके महर्त के वश भले-बरे का विचार त्रीस्तद्वतस्तथा। पडनायतनान्याहस्तत्सेवां दङमलं किये बिना ही परवशता से क्रोध करने को प्रना- त्यजेत् ॥ (अन. प. २-८४)। ३. कुदेव-लिङ्गिभोगनिर्वतित कोप कहते हैं।
शास्त्राणां तच्छितां च भयादितः । षण्णां समाश्रयो अनाभोगनिर्वर्तिताहार-तद्विपरीतो (अाभोग- यत्स्यात् तान्यनायतनानि षट् । (धर्मसं. श्रा. ४, निर्वतिताहारविपरीतो) अनाभोगनिर्वर्तितः, आहार- ४४)। ४. सावज्जमणाययणं असोहिठाणं कुशीलसंयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण यो निष्पाद्यते प्रावृट- सम्गि । एगट्ठा होति पया एए विवरीय आययणा ॥ काले प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्गयशीतपुद्गलाहारवत् (अभि. रा. १, पृ. ३१०)। सोऽनाभोगनिर्वर्तितः। (प्रज्ञाप. मलय. व. २८, १ सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्राश्रय या प्राधार को ३०४)।
आयतन कहते हैं। और इनसे विपरीत स्वरूप आहार की विशिष्ट इच्छा के बिना ही जिस किसी वाले मिथ्यादर्शनादि के प्राश्रय या प्राधार को अनाप्रकारके आहार के बनाने को अनाभोगनिर्वतित यतन कहते हैं।
आहार (नारकियों का प्राहार) कहते हैं। जैसे अनार्य-१. ये सिंहला बर्बरका किराता गान्धारवर्षा काल में बहुत अधिक मूत्र प्रादि से व्यक्त काश्मीर-पुलिन्दकाश्च । काम्बोज-वाहीक-खसौद्रक होने वाला उष्ण पुद्गलों का पाहार।
द्यास्तेऽनार्यवर्गे निपतन्ति सर्वे ॥xxx त्वनार्या अनाभोग बकुश-१. सहसाकारी अनाभोगबकुशः। विपरीतवृत्ताः ॥(वरांग.८, ३-४)। २. अनार्याः क्षेत्र(त. भा. सि. व. 8-४६)। २. शरीरोपकरण- भाषा-कर्मभिर्बहिष्कृताःXxयदि वा अविपरीतविभूषणयोः सहसाकारी अनाभोगबकुशः। (प्रव. दर्शनाः साम्प्रतक्षिणो दीर्घदर्श निनो न भवन्त्यनार्याः। सारो. टी. गा. ७२४) । ३. द्विविधविभूषणस्य (सूत्रकृ. शी. व. २, ६, १८)। ३. सग-जवण-सबरच सहसाकारी अनाभोगबकुशः । (धर्मसं. मान. बब्बर-काय मुरुंडोड गोण पक्कणया। अरबाग होण स्वो. टी. ३-५६, पृ. १५२) ।
रोमय पारस खस खासिया चेव ।। दंबिलय लउस सहसा बिना सोचे-बिचारे शरीर और उपकरण बोक्कस-भिल्लंध पुलिंद कुंच भमररुपा। कोवाय आदि के विभूषित करने वाले साधु को प्रनाभोग चीण चंचुय मालव दमिला कुलग्घा या ॥ केक्कय बकुश कहते हैं।
किराय हयमुह खरमुह गय-तुरग-मिंढयमुहा य । अनाभोगिक-अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रिया- हयकन्ना गयकन्ना अन्नेऽवि अणारिया बहवे ।। (प्रव. देर्वा विशेषविज्ञानविकलस्य भवति । (योगशा. स्वो. सारो. १५८३-८५) । ४. पाराद् दूरेण हेयधर्मेम्यो विव. २-३)।
याताः प्राप्ताः उपादेयधमरित्यार्याः, xxx विचारशन्य व्यक्ति के अथवा विशेष ज्ञान से रहित तद्विपरीता अनार्याः, शिष्टासम्मतनिखिलव्यवहारा एकेन्द्रियादि के जो विपरीत श्रद्धान होता है उसका इत्यर्थः । (प्रव. सारो. वृ. १५८५)। नाम अनाभोगिक मिथ्यात्व है।
१ जिनका प्राचरण विपरीत है-निन्द्य है-वे अनाभोगित दोष-- अनालोक्याप्रमार्जनं कृत्वा अनार्य कहलाते हैं । वे कुछ ये हैं-सिंहल, बर्बरक,
आदानं निक्षेपो वेति द्वितीयो भङ्गः। (भ. प्रा. किरात, गान्धार, काश्मीर, पुलिन्द, काम्बोज, विजयो. टी. ११९८)। २. अनालोक्याप्रमार्जनं बाहीक, खस और प्रौद्रक (पादि)। कृत्वा पुस्तकादेरादानं निक्षेपं वा कुर्वतोऽनाभोगिता- अनालब्ध दोष-१. उपकरणादिकं लप्स्येऽहमिति ख्यो द्वितीयो दोषः । (भ. प्रा. मूला. टी. ११९८)। बुद्धया यः करोति वन्दनादिकं तस्यानालब्धदोषः । बिना देखे और बिना शोधे पुस्तकादि को रखना। (मूला. वृ. ७-१०६) । २. क्रिया XXXअनालब्धं या उठाना, यह अनाभोगित नाम का दोष है। तदाशया। (अन. ध.८-१०६)। ३. अनालब्धं नाम
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नालम्बनयोग ]
दोषः स्यात् । या किम् ? या क्रिया । कया ? तदाशया उपकरणाद्याकांक्षया । ( श्रन. ध. स्वो टीका ८, १०६) ।
१ उपकरणादि प्राप्त करने की इच्छा से गुरु की वन्दनादिक करना, यह अनालब्ध दोष कहलाता है । अनालम्बनयोग- १. तग्गुणपरिणइरूवो सुहुमोऽणालंबो नाम || ( योगबि. १६) । २. सामर्थ्य योगतो या तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गसक्त्याढ्या । साऽनालम्बनयोगः प्रोक्तस्तद्दर्शनं यावत् ।। ( षोडशक १५ - ८ ) । २ सामथ्र्ययोग से - क्षपकश्रेणि के द्वितीय श्रपूर्वकरण गुणस्थान में होने वाले प्रतिक्रान्तविषयक शास्त्रदर्शित उपाय से—जो श्रासक्ति रहित निरन्तर प्रवृत्तिरूप असंग शक्ति से परिपूर्ण परतत्त्वविषयक देखने की इच्छा होती है, इसका नाम अनालम्बनयोग है ।
उस वर्षा के न होने
अनावृष्टि - आवृष्टिर्वर्षणम्, तस्य प्रभाव: अनावृष्टि: । ( धव. पु. १३, पृ. ३३६) । वृष्टि का अर्थ वर्षा होता का नाम अनावृष्टि है । अनाशंसा – अनाशंसा सर्वेच्छोपरमः । ( ललितवि. पं० पू. १०२ ) ।
किसी भी प्रकारकी इच्छा के नहीं करने को श्रनाशंसा कहते हैं । अनाश्वान्योऽक्ष-स्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते । ( उपासका ८६९ ) ।
जो इन्द्रियरूप चोरों के विषय में विश्वास न कर - उनके विषयों की आज्ञा स रहित हो, मोक्षमार्ग पर निष्ठा (आस्था) रखता हो, और समस्त प्राणियों का विश्वासपात्र हो; उसे प्रनाश्वान् कहते हैं ।
श्रनात्र (श्र) व ( श्ररणासव ) - पाणवह मुसावाया प्रदत्त- मेहुण परिग्गहा विरयो । राईभोयणविरो जीवो हवइ प्रणासवो || पंचसमित्रो तिगुत्तो अकसाजिइंदि । अगारवो य णिस्सल्लो जीवो हवइ अणासबो ॥ (उत्तरा ३०, २-३ ) । हिंसादि पांच पापों से रहित, रात्रिभोजन से विरत, पांच समिति व तीन गुप्तियों से युक्त, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय तथा गारव व शल्य से विहीन संयतको नास्रव कहते हैं ।
६०,
जैन - लक्षणावली
[ श्रनित्थंलक्षण संस्थान
अनाहार - शरीरप्रायोग्यपुद्गल पिण्डग्रहणमाहारः ॥ XXX तद्विपरीतोऽनाहारः । ( धव. पु. १, पृ. १५३) ।
श्रदारिकादि तीन शरीरों के योग्य पुद्गलों को नहीं ग्रहण करना अनाहार है ।
अनाहारक - १. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्यातीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः, तदभावादनाहारकः । ( स. सि. २-३०; त. इलो. २-३०; त. वू. श्रुत. २ - ३० । २. विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो जोगी । सिद्धाय प्रणाहारा X XX ॥ ( प्रा. पञ्चसं. १ - १७७; गो. जी. ६६५ ) । ३. अनाहारका प्रजाद्याहाराणामन्यतमेनापि नाहारयन्तीत्यर्थः । ( श्रा. प्र. टी. १६८) । ४. XX X ततोऽनाहारकोऽन्यथा ।। (त.सा. २ -६४ ) । ५. सिद्ध-विग्रहगत्यापन्न-समुद्घातगतसयोगकेवल्ययोगिकेवलिनामेवाना - हारकत्वात् । (जीवाजी मलय वृ. ६- २४७, पु. ४४३) । ६. त्रीण्यौदारिक- वैक्रियिकाहा र काख्यानि शरीराणि षट् चाहार-शरीरेन्द्रियानप्राण-भाषा-मनःसंज्ञिकाः पर्याप्तीर्यथासम्भवमाहरतीत्याहारकः, नाहारकोऽनाहारकः । (त. सुखबो. वृ. २ - ३० ) । १ तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल स्वरूप आहार को न ग्रहण करने वाले जीवों को अनाहारक कहते हैं । २ विग्रहगति को प्राप्त चारों गति के जीव, समुद्घातगत सयोगिकेवली, प्रयोगिकेवली और सिद्ध; ये अनाहारक होते हैं । अनिकाचित-तव्विवरीदं (णिकाचिदविवरीयं ) अणिकाचिदं । ( धव. पु. १६, पृ. ५७६ ) । निकाचित से विपरीत अर्थात् जिन कर्मप्रदेशानों का उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण या उदीरणा की जा सके; उन्हें श्रनिकाचित कहते हैं । अनिच्छाप्रवृत्तदर्शन बालमररण - १. कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषोस्तद्द्द्वितीयम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५) । २. कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना विना जिजीविषोर्मरणमनिच्छाप्रवृत्तम् । ( भा. प्रा. टी. ३२) ।
२ काल या काल में श्रध्यवसान (विचार) आदि के बिना जो जीवित के इच्छुक का मरण होता है उसे अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण कहते हैं । प्रनित्थंलक्षरण संस्थान - १. ततोऽन्यन्मेधादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूपणाभावादनि
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[ श्रनिदा
श्रत्थि || जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह || प्रथिरं परियणसयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्तलावणं । गिह- गोहणाइ सव्वं णवघणविदेण सारिच्छं ॥ सुरघणु-तडि व्व चवला इंदियविसया सुभिच्चवग्गाय । दिट्ठपणट्ठा सव्वे तुरय-गया रहवरादी य ॥ पंथे पहियजणाणं जह संजोनो हवेइ खणमित्तं । बंधुजणाणं च तहा संजोओ अद्भुश्रो होइ ॥ श्रइलालियो विदेहो ण्हाण-सुयंधेहि विविहभक्aहिं । खणमित्तेण वि विहडइ जलभरि श्रमघडो व्व ॥ जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुणवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयरजणाणं अण्णाणं ॥ कत्थ वि ण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे | पुज्जे धम्मिट्ठे वि य सुवत्त- सुयणे महासत्ते । जलबुब्बुयसारिच्छं धण- जोब्वण-जीवियं पि पेच्छता । मण्णंति तो वि णिच्चं प्रइवलिम्रो मोहमाहप्पो || चइऊण महामोहं विसये मुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ ।। ( कार्तिक. ४ -११ व २१-२२ ) । ४. उपा
नित्य - नित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी । (स्या. त्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वभावोऽनित्यत्वम् ।
(त. श्लो. ६-७ ) । ५. शरीरेन्द्रियविषयभोगादेर्भगुरत्वमनित्यत्वम् । (त. सुखबो वृ. 8-७) ६. संसारे सर्वपदार्थानामनित्यताचिन्तनमनित्यभावना । ( सम्बोधस. वृ. १६) ।
१ शरीर तथा इन्द्रियां और उनके विषयभूत भोगउपभोग द्रव्य जलबुबुदों के समान क्षणभंगुर हैं, मोह से अज्ञ प्राणी उनमें नित्यता की कल्पना करता है; वस्तुतः श्रात्मा के ज्ञान-दर्शनमय उपयोग स्वभाव को छोड़कर और कोई वस्तु नित्य नहीं है, इस प्रकार से चित्तवन करने को अनित्यभावना या अनित्यानुप्रेक्षा कहते हैं । अनिदा - नितरां निश्चितं वा सम्यक् दीयते चित्तमस्यामिति निदा XXX सामान्येन चित्तवती सम्यfaaraat वा इत्यर्थः । इतरा त्वनिदा चित्तविकला सम्यग्विवेकविकला । (प्रज्ञाप. मलय. वू. ३५, सू. ३३०) ।
पिछले भव में किये गये शुभाशुभ के स्मरण में दक्ष ऐसे चित्त के प्रभाव में अथवा सम्यक् विवेक के प्रभाव में जिस वेदना का अनुभव किया जाता है वह निदा वेदना कहलाती है ।
अनित्य ]
त्थंलक्षणम् । ( स. सि. ५ - २४ ) । २. XX × अतोऽन्यदनित्थम् ॥ X XX अतोऽन्यन्मेघादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमिदमिति निरूपणाभावात् प्रनित्थंलक्षणम् । (त. वा. ५, २४, १३; त. सुखबो. ५-२४) । ३. अनित्थंलक्षणं चानियताकारम् । (त. श्लो. ५ – २४) । ४. ज्ञेयमम्भोधरादीनामनित्यलक्षणं तथा । (त. सा. ३-६४) । ५. इदं वस्तु इत्यंभूतं वर्तते इति वक्तुमशक्यत्वात् अनित्थंलक्षणं संस्थानमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) । ६. पूर्वभवाकारस्यान्यथाव्यवस्थापनाच्छुरिपूर्त्या । संस्थानमनित्थंस्थं स्यादेषामनियताकारम् । (लोकप्र. २ - ११८ )
१ किसी एक निश्चित श्राकार से रहित - श्रनियत श्राकार वाले - मेघादिकों के संस्थान को श्रनित्थंलक्षण संस्थान कहते हैं । ६ रिक्त स्थानों- जैसे श्रात्मप्रदेशों से रहित नासिका आदि की पूर्ति होकर जो अनियत श्राकारवाला मुक्त जीवों का अन्य प्रकारका प्राकार हो जाता है वह अनित्थं लक्षण श्राकार कहा जाता है ।
६१, जैन - लक्षणावली
मं. टी. ५) ।
प्रतिक्षण विनश्वर वस्तु को नित्य कहते हैं । अनित्यनिगोत—- त्रसभावमवाप्ता श्रवाप्स्यन्ति च ये ते नित्यनिगोता: । (त. वा. २, ३२, २७) । जो निगोत जीव स पर्याय को प्राप्त कर चुके हैं व प्रागे प्राप्त करने वाले हैं वे अनित्य निगोत कहे जाते हैं ।
श्रनित्यभावना - देखो प्रनित्यानुप्रेक्षा । अनित्यानुप्रेक्षा - १. इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोग - परिभोगद्रव्याणि समुदायरूपाणि जलबुबुद्वदनवस्थितस्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमान संयोगविपर्ययाणि । मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते । न किञ्चित् संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनित्यतानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७ ; त. वा. ६, ७, १) । २. इष्टजनसम्प्रयोगद्धिविषयसुखसपदस्तथाऽऽरोग्यम् । देहश्च यौवनं जीवितञ्च सर्वाण्यनित्यानि ॥ ( प्रशमर. १५१ ) । ३. जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ नियमेण । परिणामसरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं
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अनिधत्त]
६२, जैन-लक्षणावली [अनिवृत्ति(वर्ति)करण अनिधत्त-तविबरीयं (णिवत्तविवरीयं-जं पदे- १ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अभिनिबोध सग्गमोकड्डिज्जदि, उक्कडुिज्जदि, परपडि संका- (अनुमान) रूप ज्ञान को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते मिज्जदि, उदये दिज्जदि तं) प्रणिधत्तं । (धव. पु. हैं । ४ एक मात्र-इन्द्रियनिरपेक्ष-मन से उत्पन्न १६, पृ. ५७६)।
होने वाले ज्ञान को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहा जाता है जिस कर्मप्रदेशाग्र का अपकर्षण, उत्कर्षण और पर- जो उपर्युक्त स्मृति प्रादि रूप है। प्रकृति संक्रमण किया जा सकता है तथा जो उदय अनिन्द्रिय सुख-अणुवमममेयमक्खयममलमजरममें भी दिया जा सकता है उसे अनिधत्त कहते हैं। रुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंतियमवावाधं सहअनिन्द्रिय-अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्था- मजेयं ॥ (भ. प्रा. २१५३)। न्तरम् । xxx ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति, यथा अनुपम, अमेय, अक्षय, निर्मल, अजर, अरुज (रोगअन्दरा कन्या इति । (स. सि. १-१४) । २ अनि- रहित), भयविरहित, संसारातीत-मुक्तिजनितन्द्रियं मनोऽनुदरावत् ॥२॥ मनोऽन्तःकरणमनिन्द्रिय- ऐकान्तिक (असहाय), प्रात्यन्तिक (अविनश्वर), मित्युच्यते । (त. वा. १, १४, २)। ३. नेन्द्रियम- निर्बाध और अजेय सुख को अनिन्द्रिय या प्रतीन्द्रिय निन्द्रियम, नो-इन्द्रियं च प्रोच्यते । अत्रेषदर्थे प्रति- करो। बन्धो द्रष्टव्यो यथाऽनुदरा कन्येति । तेनेन्द्रियप्रति
अनिबद्ध मंगल-जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण षेधेनात्मनः करणमेव मनो गृह्मते, तदन्तःकरणं
कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं । (धव. पु. चोच्यते । (त. सुखबो. वृ. १-१४)। ४. इन्द्रियादन्यदनिन्द्रियं मनः अोघश्चेति । (त. भा. सिद्ध.
सूत्र के प्रादि में सूत्रकार के द्वारा जो देवता-नमव. १-१४)।
स्कार किया तो गया हो, पर ग्रन्थ में निबद्ध न १ इन्द्रियों के समान बाह्य में दृष्टिगोचर न होकर
किया गया हो, उसे अनिवद्ध मंगल कहते है। इन्द्रिय केही कार्य (ज्ञानोत्यादन) के करनेवाले
अनियत विहार-अनियतविहारोऽनियतक्षेत्रावासः। अन्तःकरण रूप मन को अनिन्द्रिय कहते हैं। प्रनिन्द्रिय जीवन सन्ति इन्द्रियाणि येषां तेऽनि
(अन. ध. स्वो. टी. ७-६८)। न्द्रियाः। के ते ? अशरीराः सिद्धाः । (धव. पु. १,
अनियत क्षेत्र में रहने का नाम अनियतविहार है । पृ. २४८); ण य इंदिय-करणजुदा अवग्गहाई- अनिर्वृत्तिकर-निवृत्तिः सुखम्, अनिवृत्तिः पीडा, हि गाहया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिदिया- तत्करणशालाभनवृत्तिकरः । (प्राव. मलय. वृत्ति णतणाण-सहा ।। (प्रा. पञ्चसं. १-७४; धब. पु. १, १०८६)। प.२४८ उ.; गो. जी. १७३)।
स्वभावतः पीडा उत्पन्न करने वाले को अनिवृत्तिजो इन्द्रिय रूप करणों से युक्त होकर अवग्रहादि के कर कहते हैं। द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते तथा इन्द्रियजन्य अनि रिम-यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिहरणासुख से रहित हैं ऐसे प्रतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान (केवल- दनिर्हारिमम् । (स्थाना. अभय. वृ. २, ४, १०२)। ज्ञान) धारक मुक्त जीव अनिन्द्रिय-इन्द्रियविहीन पर्वत की गुफा आदि में जो पादपोपगमन-छिन्न -कहे जाते हैं।
होकर गिरे हुए पादप (वृक्ष) के समान उपगमन अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-१. अनिन्द्रियप्रत्यक्षं स्मृति
-अतिशय निश्चेष्ट अवस्था युक्त मरण होता संज्ञा-चिन्ताभिनिबोधात्मकम् । (लघी. स्वो. व.
है वह अनिर्झरिम मरण कहलाता है। कारण यह ६१)। २. अनिन्द्र यप्रत्यक्षं बह्वादिद्वादशप्रकारार्थ- कि बसतिमें हुए मरण में जैसे शरीर का निर्हरण विषयमवग्रहादिविकल्पमष्टचत्वारिंशत्संख्यम् । होता है वैसे वह यहाँ नहीं होता। (प्रमाणप. पृ. ६८)। ३. अनिन्द्रियादेव विशुद्धि- अनिवृत्ति (वर्ति) करण-१. यतस्तावन्न निवसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (प्र. र. र्तते यावत्सम्यक्त्वं न लब्धमित्यतोऽनिवर्तिकरणम् । मा. २-५)। ४. केवलमनोव्यापारप्रभवमनिन्द्रियप्र- (त. भा. हरि. वृत्ति १-३, पृ. २५); २. निवर्तनत्यक्षम् । (लघीय. अभय. वृ. ६१)।
शीलं निति, न निति अनिवर्ति, प्रा सम्यग्दर्शन
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अनिवृत्तिकरण गुणस्थान] ६३, जैन-लक्षणावली
[अनिश्रितावग्रह लाभान्न निवर्तते । (प्राव. हरि. वृत्ति नि. १०६)। परिणतिरूपाणां भावानामनिवृत्तित्वादनिवृत्तिगुणा३. येनाध्यवसायविशेषेणानिवर्तकेन ग्रन्थिभेदं कृत्वा- स्पदं गुणस्थानं भवति । (गुण. क्रमा. स्वो. व. ऽतिपरमाह्लादजनकं सम्यक्त्वमवाप्नोति तदनिवृत्ति- ३७)। ८. दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिरूपसमस्तकरणम् । (गुण. क्रमा. स्वो. टी. २२)। संकल्प-विकल्परहित निजनिश्चलपरमात्मतत्त्वैकाग्र३ जिस विशिष्ट प्रात्मपरिणाम के द्वारा जीव ग्रन्थि ध्यानपरिणामेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये को भेदकर अतिशय आनन्दजनक सम्यक्त्व को प्राप्त परस्परं पृथक्कतुं नायान्ति ते वर्णसंस्थानादिभेदेकरता है वह अनिवति या अनिवृत्तिकरण कहलाता ऽप्यनिवृत्तिकरणोपरामिक-क्षपकसंज्ञा द्वितीयकषायाहै। इस परिणाम से चूंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति होने चेकविंशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपणतक जीव निवृत्त नहीं होता है, अतः उसकी यह समर्था नवमगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति । (ब. द्रव्यसं. सार्थक संज्ञा है।
टी.१३)। ६. परिणामा निवर्तन्ते मिथो यत्र न अनिवृत्तिकरण गुरणस्थान-१. एकम्मि कालसमए यत्नतः । अनिवृत्तिबादरः स्यात् क्षपकः शमकश्च सः । संठाणादीहिं जह णिवट्ट ति । ण णिवति तहा वि (योगशा. स्वो. वि. १-१६)। १०. क्षपयन्ति न ते य परिणामेहिं मिहो जम्हा ।। होति अणियट्रिणो ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन । केवलं मोहनीयस्य शमनपडिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा । विमलयरझाण- क्षपणोद्यताः ।। संस्थानादिना भिन्नाः समानाः परिहुयवहसिहाहिं णिद्दड्ढकम्म-बणा ।।(प्रा. पञ्चसं. १, णामतः । समानसमयावस्थास्ते भवन्त्यनिवृत्तयः । २०-२१, धव. पु. १, पृ. १८६ उ.; गो. जी. (पञ्चसं. अमित. १, ३७-३८); एकसमयस्थानाम५६-५७; भावसं. दे. ६४६-५० । २. विणिव- निवृत्तयोऽभिन्ना: करणाः यत्र तदनिवृत्तिकरणम् । दृति विसुद्धिं समयपइट्ठा वि जस्स अन्नोन्नं । तत्तो (पञ्चसं. अमित. १, पृ. ३८%; अन. ध. स्वो. टी. णियट्टिठाणं विवरीयमो उ अनियट्टी ।। (शतक. २, ४६-४७) । ११. साम्परायशब्दे कषायो भा. ८६%; गु.गु. षट. स्वो. वृ. १८,पु. ४५)। लभ्यते । यत्र साम्परायस्य कषायस्य स्थलत्वेनो. ३. परस्पराध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा । निवृत्ति- पशमः क्षयश्च वर्तते तदनिवृत्तबादरसाम्परायसंज्ञं र्यस्य नास्त्येषोऽनिवृत्ताख्योऽसुमान् भवेत् ॥ ततः गुणस्थानमुच्यते । तत्र जीवा उपशमकाः क्षपकाश्च पदद्वयस्यास्य विहिते कर्मधारये। स्यात्सोऽनिवृत्ति- भवन्ति । एकस्मिन् समये नानाजीवापेक्षयापि बादरसम्परायाभिधस्ततः॥ तस्यानिवृत्तिबादरसम्प- एकरूपाः परिणामा भवन्ति । यतः परिणामानां पररायस्य कीर्तितम् । गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसम्प- स्परं स्वरूपानिवृत्तिस्तेन कारणेनानिवृत्तिकरणबादरायकम् ॥ (लोकप्र. ३ , ११८८-६०) । ४. तुल्ये रसाम्परायसंज्ञं नवमगुणस्थानमुच्यते । (त. वृत्ति समाने काले यतः समा सर्वेषामपि तत्प्रविष्टानां श्रुतसागर 8-१)। विशोधिर्भवति, न विषमा; ततो नाम सान्वयं निर्व- जिस गुणस्थान में विवक्षित एक समय के भीतर चनीयं अनिवृत्तिकरणम् ।(कर्मप्र. मलय. वृ. उप.क. वर्तमान सर्व जीवों के परिणाम परस्पर में भिन्न न गा. १६) । ५. निवर्तन्तेऽङ्गिनोऽन्योऽन्यं यत्रकसम- होकर समान हों, उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान याश्रिताः । निवृत्तिः कथ्यते तेनानिवृत्तिस्तद्विपर्यः कहते हैं । यात (सं. प्रक्रतिवि. जयति. १-१४)। ६. युगपदे- अनिश्रितवचनता-अनिश्रितवचनता रागाद्यकतद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्यो- लुषितवचनता । (उत्तरा. नि. व. १-५७)। ऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिः निवृत्ति स्त्यिस्येति राग-द्वेषादि जनित कालुष्य से रहित वचनों के बोलने अनिवृत्तिः । समकालमेतद् गुणस्थानकमारूढस्या- को अनिश्रितवचनता कहते हैं। परस्य यदध्यवसायस्थानं विवक्षितोऽन्योऽपि कश्चि- अनिश्रितावग्रह-अनिश्रितमवगृह्णातीति निश्रितो त्तद्वय वेत्यर्थः । (कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. २)। लिंगप्रमितोऽभिधीयते, यथा यूथिकाकुसुमानात्यन्त७. भावानामनिवृत्तित्वादनिवृत्तिगुणास्पदम् । शीत-मृदु-स्निग्धादिरूपः प्राक् स्पर्शोऽनुभूतस्तेनानु(गुण. क्रमा. ३७)। दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादि- मानेन लिंगेन तं विषयं न यदा परिच्छिन्दत् तज्ज्ञानं संकल्पविकल्परहितनिश्चलपरमात्मकत्वैकाग्रध्यान- प्रवर्तते तदा अनिश्रितम् अलिंगमवगृह्णातीत्युच्यते ।
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अनिष्टयोगात] ६४, जैन-लक्षणावली
[अनिःसृतावग्रह (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१६) ।
अनिसष्ट-१. गृहस्वामिनाऽनियुक्तेन वा दीयते निश्रित का अर्थ है लिंग से जाना गया। जैसे वसतिः, यत्स्वामिनापि बालेन परवशवतिना दीयते जूही के फूलों का शीत, कोमल और स्निग्ध प्रादि सोभय्यनिसृष्टेति उच्यते। (भ. प्रा. विजयो. टी. रूप स्पर्श पूर्व में अनुभव में आया था, उस अनु- २३०) । २. अनिसृष्टमीशानीशाऽनभिमत्या यदमान रूप लिंग से उस विषय को न जानता हुमा र्यते । (प्राचा. सा. ८-३४)। ३. यद्बहुसाधाजब ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह अनिश्रितावग्रह रणं अन्यैरदत्तं एको गृही दत्ते तदनिसृष्टम् । (गु. कहा जाता है।
गु. षट. स्वो. वृ. २०, पृ. ४६)। ४. सामान्य श्रेणीअनिष्टयोगार्त-१. आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे भक्तकाद्येकस्य ददतोऽनिसृष्टम् । (प्राचारांग शी. तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः । (त. सू. १-३०)। वृ. २, १, २६६) । ५. यद् गोष्ठी भक्तादिसर्वैरदत्त२. अमणुण्णाणं सदाइविसयवत्थूण दोसम इलस्स। मननुमतं वा एकः कश्चित् साधुभ्यो ददाति तदनिधणियं विप्रोगचिंतणमसंपयोगाणुसरणं च ॥ (गु. सृष्टम् । (योगशा. स्वो. विव.१-३८)। ६. ईशागु. षट्. स्वो. व. २, पृ. ८)। ३. अमनोज्ञानां नीशानभिमतेन स्वाम्यस्वाम्यनभिमतेन यद्दीयते शब्दादीनां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगचिन्तनमसम्प्रयोग- तदनिसृष्टम् । (भावप्रा. टी. ९६)। ७. गृहस्वाप्रार्थना च प्रथमम । (योगशा. स्वो. विव. मिना अनियुक्तेन या दीयते यद ति] स्वामिनापि ३-७३)।
बालेन परवशवर्तिना दीयते तद् द्विविधमनिसृष्टम् । देखो अनिष्टसंयोगज प्रार्तध्यान ।
(कातिके. टी. ४४८-४६)। अनिष्टसंयोगज प्रार्तध्यान-१. अमनोज्ञानां विष- १ अनियुक्त -अनधिकारी-गृहस्वामी के द्वारा याणां सम्प्रयोगे तेषां विप्रयोगे यः स्मृतिसमन्वाहारो जो वसति दी जाती है, अथवा पराधीन बालक जैसे भवति तदातध्यानमाचक्षते । (त. भा. ६-३१)। स्वामी के द्वारा जो वसति दी जाती है, इसका नाम २. तस्य (अमनोज्ञस्य विष-कण्टकादेः) सम्प्रयोगे अनिसष्ट दोष है। स कथं नाम मे न स्यादिति सङ्कल्पश्चिन्ताप्रवन्धः अनिस्सरणात्मक तैजस-१. औदारिक-वैक्रियिस्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्तमित्याख्यायते । (स. काहारकदेहाभ्यन्तरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनिस्सरणासि. ९-३०)। ३. अमनोज्ञस्योपनिपाते स कथं नाम त्मकम् । (त. वा. २, ४६, ८ पृ. १५३)। २. जं मे न स्यादिति संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धः आर्तमित्या- तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तं भुत्तण्ण-पाणप्पाख्यायते । (त. वा. ६, ३०, २;त. श्लो. ९-३०)। चयं होदूण अच्छति अन्तो। (धव. पु. १४, प. ४. अमनोज्ञविषयविप्रयोगोपाये व्यवस्थापनं मनसो ३२८)। ४. अनिस्सरणात्मकं त्वौदारिकर्वक्रियिकानिश्चलमार्तध्यानम्, केनोपायेन वियोगः स्यादित्ये- हारकशरीराभ्यन्तरवति तेषां त्रयाणामपि दीप्तिहेतुकतानमनोनिवेशनमार्तध्यानमित्यर्थः । (त. भा. कम । (त. वत्ति श्रत. २-४८) । सिद्ध. वृ. ६-३१) । ५. क्रूरैय॑न्तर-चौर-वैरि-मनुजै- १ प्रौदारिक, वैक्रियिक और पाहारक शरीर के यालम गैरापदि प्राप्तायां गरलादिश्च महती भीतर स्थित जो शरीर देहदीप्ति का कारण है उसे तन्नाशचिन्ताऽऽपदा । संयोगो न भवेत्सदा कथमिति अनिस्सरणात्मक तैजस कहा जाता है। क्लेशातिनुन्नं मनश्चार्तध्यानमनिष्टयोगजनितं जातं अनिःसृतावग्रह-१. सुविशुद्ध श्रोत्रादिपरिणामात् दुरन्तैनसः ॥ (प्राचा. सा. १०-१५)। ६. विक्षिप्तः साकल्येनानुच्चारितस्य ग्रहणादनिःसृतमवगृह्णाति । अनिष्टसंयोगेन विक्षेपं व्याकुलतां प्राप्तः आकुल-व्या- त. वा. १, १६, १६, पृ. ६४, पं. ४); पञ्चवर्णकुलमनाः इति अनिष्टसंयोगाभिधानम् आर्तघ्यानम्। वस्त्रकम्बलचित्रपटादीनां सकृदेकदेशविषयपञ्चवर्ण (कार्तिके. टी. ४७३)।
ग्रहणात् कृत्स्नपञ्चवर्णेष्वदृष्टेष्वनिःसृतेष्वपि तद्व२ विष व कण्टक आदि अनिष्ट पदार्थों का संयोग विष्करणसामर्थ्यादनिःसृतमवगृह्णाति । अथवा होने पर उसके दूर करने के लिये मन में जो बार बार देशान्तरस्य पञ्चवर्णपरिणतंकवस्त्रादिकथनात् साकसंकल्प-विकल्प उठते हैं, इसे अनिष्टसंयोगज प्रार्त- ल्येनाकथितस्याप्येकदेशकथनेनैव तत्कृत्स्नपञ्चवर्णध्यान कहते हैं।
ग्रहणादनिःसृतम् । (त. वा. १, १६, १६, पृ. ६४,
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अनिह्नव] ६५, जैन-लक्षणावली
[अनीश्वर पं. २८-२९)। २. अणहिमुहअत्थग्गहणं अणिसिया- अनिह्नवाचार-देखो अनिह्नव । यस्मात् पठितं वग्गहो । अहवा तेण (उवमाणोवमेयभावेण) विणा श्रुतं स एव प्रकाशनीयः । यद्वा पठित्वा श्रुत्वा ज्ञानी गहणं अणिसियावग्गहो । (धव. पु. ६, पृ. २०); सजातस्तदेव श्रुतं ख्यापनीयमिति अनिह्नवाचारः । वस्त्वेकदेशमवलम्ब्य साकल्येन वस्तुग्रहणं वस्त्वेकदेशं (मूला. व. ५-७२) । समस्तं वा अवलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वन्तरविषयो- जिस गुरु से शास्त्र पढ़ा हो उसी के नाम को प्रकट ऽपि अनिःसृतप्रत्ययः । (धव. पु. ६, पृ. १५२); करना, अथवा जिस पागम को पढ़-सुनकर ज्ञानवान् वस्त्वेकदेशस्य पालम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तु- हुअा हो उसी आगम को प्रकट करना; यह ज्ञान प्रतिपत्तिः, वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाले एव वा दृष्टान्त- का अनिवाचार है। मुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपत्तिः, अनु- अनीक-१. सेणोवमा यणीया । (ति. प. ३-६७)। सन्धानप्रत्ययः प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनिःसृत- २. अनीकं दण्डस्थानीयम् । (स. सि. ४-४) । प्रत्ययः। (धव. पु. १३, पृ. २३७); ३. वत्थुस्स ३. दण्डस्थानीयान्यनीकानि । पदात्यादीनि सप्तापदेसादो वत्थुग्गहणं तु वत्थुदेसं वा । सयलं वा अव- नीकानि दण्डस्थानीयानि वेदितव्यानि । (त. वा. लंबिय अणिस्सिदं अण्णवत्थुगई। पुक्खरगहणे काले ४,४,७)। ४. अनीकानि अनीकस्थानीयान्येव । हत्थिस्स य वदण-गवयगहणे वा। वत्थंतरचंदस्स य (त. भा. ४-४)। ५. अनीकान्यनीकान्येव, सैन्याघेणुस्स य बोहणं च हवे ॥ (गो. जी. ३११-३१२)। नीत्यर्थः । हय-गज-रथ-पदाति-वाहनस्वरूपाणि प्रति४. वस्त्वंशाद्वस्तुनस्तस्य वस्त्वंशाद्वस्तुनोऽथवा। तत्रा- पत्तव्यानि । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-४)। ६. दण्डसन्निहितान्यस्याऽनिसतं मननं यथा ॥ घटार्वाग्भाग- स्थानीयानि सप्तानीकानि भवन्ति । उक्तं चकन्यास्य-गवयग्रहणक्षणे । स्फुटं घटेन्दु-गोज्ञान- गजाश्व-रथ-पादात-वृष-गन्धर्व-नर्तकी। सप्तानीकानि मभ्याससमयान्बिते । (प्राचा. सा. ४, २०-२१)। ज्ञेयानि प्रत्येकं च महत्तराः ।।(त. सुखवो. वृ. ४-४)। ५. अनभिमुखार्थग्रहणमनिःसूतावग्रहः । (मूला. वृ. ७. अनीकाः हस्त्यश्व-रथ-पदाति-वृषभ-गन्धर्व-नर्तकी१२-१८७)। ६. एकदेशदर्शनात् समस्तस्यार्थस्य लक्षणोपलक्षितसप्तसैन्यानि । (त. वृत्ति श्रुतग्रहणमनिःसृतावग्रहः । यथा जलनिमग्नस्य हस्तिनः सागर ४-४)। एकदेशकरदर्शनादयं हस्तीति समस्तस्यार्थस्य ग्रह- ६ हाथी, घोड़े, रथ, पादचारी, बैल, गन्धर्व और णम् । (त. सुखबो. व. १-१६)।।
नर्तकी; इन सात प्रकार की सेना रूप देवों को १कानों की निर्मलतारूप परिणाम के वश पूर्णतया अनीक कहते हैं। नहीं उच्चारण किये गये शब्दादि का ग्रहण, अथवा अनीश्वर-१. निषिद्धमीश्वरं भ; व्यक्ताव्यक्तोपांच वर्ण वाले कम्बल प्रादि के एक भाग से सम्बद्ध भयात्मना। वारितं दानमन्येन तन्मन्येन त्वनीश्वउन पांच वर्षों के देखने से अदृष्ट और अनि:सत रम् ॥ (अन. ध.५-१५) । व्यक्तरूपेणाव्यक्तरूपेण भी उन समस्त पांचों वर्णों का सामर्थ्य से होने व्यक्ताव्यक्तरूपेण च स्वामिना वारितं दानमीश्वरावाला ज्ञान, अथवा देशान्तर के पांच वर्ण वाले ख्यं निषिद्धं त्रिधा स्यात्-व्यक्तेश्वरनिषिद्धमव्यक्तेवस्त्र के एक देश कथन से ही पूर्णरूप में न कहे श्वरनिषिद्धं व्यक्ताव्यक्तेश्वरनिषिद्धं चेति।xxx जाने पर भी उसके समस्त पांच वर्षों का होने वाला तद्यथा-निषिद्धाख्यो दोषस्तावदीश्वरोऽनीश्वरज्ञान; अनिःसतावग्रह कहलाता है।
श्चेति द्वधा । तत्राप्याद्यस्त्रेधा-व्यक्तेश्वरेण अनिह्नव-अनिह्नव इति गृहीतश्रुतेनानिह्नवः वारितं दानं यदा साधुलाति तदा व्यक्तेश्वरो कार्यः, यद्यत्सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नाम दोषः, यदाऽव्यक्तेश्वरेण वारितं गृह्णाति तदानान्यः, चित्तकालुष्यापत्तेः ।(धर्मबि.म.व.२-११)। ऽव्यक्तेश्वरो नाम, यदैकेन दानपतिना व्यक्तेन द्वितीजिस गुरु के समीप में जो कुछ पढ़ा हो, उसके विषय येन चाव्यक्तेन च वारितं गृह्णाति तदा व्यक्ताव्यमें उसी गुरु का उल्लेख करना, अन्य का नहीं; यह क्तेश्वरो नाम तृतीय ईश्वराख्यनिषिद्धभेदस्य भेद: अनिलव नामक ज्ञानाचार है।
स्यात् । एवमनीश्वरेऽपि व्याख्येयम् । (अन. घ.
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अनुकम्पा] ६६, जैन-लक्षणावली
[अनुक्त स्वो. टी. ५-१५)।
२-४४६)। १६. दुःखितं जनं दृष्ट्वा कारुण्यपरिव्यक्त, अव्यक्त या उभयरूप अपने आपको स्वामी णामोऽनुकम्पा । (चारित्रप्रा. टी. १०)। १७. सर्वेषु माननेवाले अन्य-स्वामी से भिन्न-अमात्य आदि प्राणिषु चित्तस्य दयार्द्रत्वमनुकम्पा। (त. वृत्ति के द्वारा निवारण किये जाने पर भी दिये गये दान श्रुत. १-२; कातिके. टी. ३२६ त. सुखवो. व. को अनीश्वर दोष युक्त दान कहते हैं।
१-२ व ६-१२) । १८. आत्मवत् सर्वसत्त्वेषु सुखअनुकम्पा-१. तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दठ्ठण दुःखयोः प्रियाप्रियत्वदर्शनेन परपीडापरिहारेच्छा । जो दु दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसो (शास्त्रवा. टी. ९-५)। होदि अणुकंपा ॥ (पञ्चा. का. १३५) । २. अनुग्र- १ तृषित, बुभुक्षित एवं दुखित प्राणी को देखकर हार्दीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिव कुर्वतोऽनुकम्प- उसके दुःख से स्वयं दुःखी होना व मन में उसके नमनुकम्पा । (स. सि. ६-१२; त. वा. ६, १२, उद्धार की चिन्ता करना, इसका नाम अनुकम्पा है। ३)। ३. सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा । (त. वा. अनुकृष्टि (अणुकट्ठी)-१. अधापवत्तकरणपढ१, २, ३०) । ४. त्रस-स्थावरेषु दयाऽनुकम्पा। मसमयपहुडि जाव चरमसमग्रो त्ति ताव पादेक्क(त. श्लो. १, २, १२)। ५. अनुकम्पा दुःखितेषु मेक्केक्कम्मि समए असंखेज्जलोगमेत्ताणि परिणामकारुण्यम् ।(त.भा.हरि. व. १-२)। ६. दळूण पाणि- टाणाणि छवढिकमेणावट्टिदाणि टिदिबंधोसरणाणिवहं भीमे भव-सागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसतोऽणुकंपं दीणं कारणभूदाणि अत्थि, तेसिं परिवाडीए विरचिदुहावि सामत्थतो कुणति ॥ (धर्मसं. ८११; श्रा. दाणं पुणरुत्तापुणरुत्तभावगवेसणा अणुकट्ठी णाम । प्र. ५८)। ७. अनुकम्पा घृणा कारुण्यं सत्त्वानामु- अनुकर्षणमनुकृष्टिरन्योन्येन समानत्वानुचिन्तनमिपरि, यथा सर्व एव सत्त्वा सुखाथिनो दुःखप्रहाणा- त्यनर्थान्तरम् । (जयध. प्र. प. ६४६)। २. अणुकट्टी थिनश्च, नैतेषामल्पापि पीडा मया कार्येति निश्चित्य णाम [अणियोगद्दारं] द्विदि पडि ठिदिबंधज्झवचेतसाऽऽर्द्रण प्रवर्तते स्वहितमभिवाञ्छन् Xxx। साणदाणाणं समाणत्तमसमाणत्तं च परूवेदि । (धव. (त. भा. सिद्ध. १-२); अनुकम्पा दया घृणेत्यना- पु. ११, पृ. ३४६) । ३. अनुकृष्टि म अधस्तनन्तरम् । Xxx अथवा अनुग्रहबुद्धयाऽऽीकृत- समयपरिणामखण्डानामुपरितनसमयपरिणामखण्डैः चेतसः परपीडामात्मसंस्थामिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनु- सादृश्यम् । (गो. जी. जी. प्र. ४६)। कम्पा । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३)। ८. सत्त्वे १ अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अन्तिम सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं । समय तक प्रत्येक समय में जो असंख्यात लोक मात्र मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥ (उपासका. २३.)। ९. परिणामस्थान छह वृद्धियों के क्रम से अवस्थित अनुकम्पा दुःखितसत्त्वविषया कृपा। (धर्मबि. मु. होते हुए स्थितिबन्धापसरणादि के कारण होते हैं, वृ. ३-७)। १०. अनु पश्चाद् दुःखितसत्त्वकम्पना- परिपाटी क्रम से विरचित उन परिणामों की पुनदनन्तरं यत्कम्पनं सा अनुकम्पा । (बृहत्क. व. रुक्तता व अपुनरुक्तता की खोज करना, इसका १३२०)। ११. अनुकम्पा दुःखितेषु अपक्षपातेन नाम अनुकृष्टि है। दुःखप्प्रहाणेच्छा । (योगशा. स्वो. विव. २-१५)। अनुक्त—१. अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम् । (स. १२. एकेन्द्रियप्रभृतीनां सर्वेषामपि देहिनाम् । भवा- सि. १-१६)। २. अनुक्तमभिप्रायेण प्रतिपत्तेः।।१२॥ ब्धौ मज्जतां क्लेशं पश्यतो हृदयाद्रता ॥ तददुःखै- 'अभिप्रायेण प्रतिपत्तिरस्ति' इत्यनुक्तग्रहणं क्रियते । दु:खितत्वं च तत्प्रतीकारहेतुषु । यथाशक्ति प्रवृत्ति- (त. वा. १, १६, १२)। ३. प्रकृष्टविशुद्धिश्रोत्रेश्चेत्यनुकम्पाऽमिधीयते ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, न्द्रियादिपरिणामकारणत्वात् एकवर्णनिगमेऽ ६१५-६१६) । १३. क्लिश्यमानजन्तूद्धरणबुद्धिः प्रायेणवानुच्चारितं शब्दमवगृह्णाति 'इमं भवान् अनुकम्पा । (भ. प्रा. मूला. टी. १६९६) । शब्दं वक्ष्यति' इति । अथवा, स्वरसञ्चारणात् १४.XXXअनुकम्पाऽखिलसत्त्वकृपाxxx॥ प्राक तंत्रीद्रव्यातोद्याद्यामर्शनेनैव प्रवादितमनक्तमेव (मन. . २-५२)।१५. अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्व- शब्दमभिप्रायेणावगृह्याचष्टे 'भवानिम शब्द वादसत्त्वेष्वनुग्रहः । (लाटीसं. ३-८६; पंचाध्यायी यिष्यति' इति । (त. वा. १-१६, पृ. ६४ पं.
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अनुक्तप्रत्यय ६७, जन-लक्षणावली
[अनुगम ५-८) । ३. स्तोकपुद्गलनिष्क्रान्तेरनुक्तस्त्वाभि- गमनमनुगमः, अनुरूपार्थगमनं वा अनुगमः, अनुरूपं संहितः । (त. श्लो. १, १६, ७)। ४. अनुक्तस्तू- वाऽन्तस्यानुगमनाद्वा अनुगमः; सूत्रानुकूलगमनं क्तादन्यः इति । अनया कल्पनया शब्द एवानक्षरा- वा अनुगमः । (अनुयो. चू. १३ - ५३, त्मकोऽभिधीयते, तमवगृह्णाति अनुक्तमवगृह्णातीति पृ. २३) । ३. अनुगमनम् अनुगमः, अनुगम्यते भण्यते । (त. भा. सिद्ध. वु. १-१६) । ५. प्रत्यक्ष- वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽनुगमः सूत्रस्यानुनियताऽन्यादृग्गुणार्थंकाक्षबोधनम् । अनुक्तम् ४ कूलः परिच्छेद इत्यर्थः । (प्राव. हरि. व. नि. xx॥ (प्राचा. सा. ४-२३)। ६. अनि- ७६, पृ. ५४)। ४. तथानुगमः आनुपूर्व्यायमितगुणविशिष्टद्रव्यग्रहणमनुक्तावग्रहः । (मूला. दीनामेव सत्पदप्ररूपणादिभिरनुयोगद्वारैरनेकधाऽनुवृ. १२-१८७)। ७. अनुक्तं चाभिप्राये स्थितम् । गमनम् अनुगमः । (अनु. हरि. व. पृ. ३२)। ५. (त. वृत्ति श्रुत. १-१६) ।।
यथावस्त्ववबोधः अनुगमः, केवलि-श्रुतकेवलिभिर१ शब्दोच्चारण के बिना अभिप्राय से ही पदार्थ के नुगतानुरूपेणावगमो वा। (धव. पु. ३, पृ. ८); अहण करने को अनुक्त-अवग्रह कहते हैं। इसी को जधा दव्वाणि ट्ठिदाणि तथावबोधो अणुगमो। अनुक्तप्रत्यय या अनुक्तज्ञान भी कहते हैं।
(धव. पु. ४, पृ. ६ व पृ. ३२२); जम्हि जेण वा
वत्तव्वं परूविज्जदि सो अणुगमो। अहियारसण्णिगुणविशिष्टवस्तूपलम्भकाल एव तदिन्द्रियानियत- दाणमणियोगद्दाराणं जे अहियारा तेसिमणुगमो त्ति गुणविशिष्टस्य तस्योपलब्धिर्यतः सोऽनुक्तप्रत्ययः । सण्णा ।xxx अथवा अनुगम्यन्ते जीवादयः (घव. पु. ६, पृ. १५३-१५४)।
पदार्था अनेनेत्यनुगमः । (धव. पु. ६, पृ. १४१) । विवक्षित इन्द्रिय के प्रतिनियत गुण-जैसे स्पर्शन ६. अनुगम्यतेऽनेन प्राक् ततोऽधिकार इत्यनुगमः । का स्पर्श-से विशिष्ट वस्तु के उपलम्भ के समय में (जयथ. पत्र ४५६) ।६. अनुगमः संहितादिव्याख्याही उसके अनियत गुण-जैसे उक्त स्पर्शन के नप्रकाररूपः उद्देश-निर्देश-निर्गमनादिद्वारकलापारसादि-से विशिष्ट उस वस्तु की जिस ज्ञान से त्मको वा। (समवा. अभय. व. १४०) । उपलब्धि होती है वह अनुक्तप्रत्यय कहलाता है। ७. सूत्रस्यानुकूलमर्थकथनमनुगमः, अथवा अनुजैसे-नमक के उपलम्भ के समय में ही उसके गम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेनास्मिन्नस्मादिति वा ।
(अनुयो. मल. हेम. व. सू. ५६)। ८. एवमनुगमहोने पर उसकी मिठास का ज्ञान ।
नमनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा अनुगमः, अनुक्तावग्रह-देखो अनुक्तप्रत्यय । १. अणिय- निक्षिप्तसूत्रस्यानुकूलः परिच्छेदोऽर्थकथनमिति मियगुणविसिट्ठदव्वग्गहणमउ[णु] त्तावग्गहो। जहा यावत् । (जम्बूद्वी. शान्ति. व. पु.५)। ६. अनुगम
-चक्खिदिएण गुडादीणं रसस्स गहणं, घाणिदि- नमनुगमः, सूत्रस्यानुरूपमर्थाख्यानम् । (व्यव. सू. भा. एण दहियादीणं रसग्गहणमिच्चादि । (धव. पु. ६, मलय. वृ. १, पृ. १)। १०. अनुगमनमनुगम्यते पृ. २०) । २. अग्निमानयेति केनचिद् भणिते कर्प- वा शास्त्रमनेनेति अनुगमः सूत्रस्यानुकूलः परिच्छेदः। रादिना समानयेति परेणानुक्तस्य कर्परादेरग्न्यान- (प्राव. मलय. वृ. नि. ८६, पृ. ६०)। अनुरूपं यनोपायस्य स्वयमूहनमनुक्तावग्रहः । (त. सुखबो. सूत्रार्थावाधया तदनुगुणं गमनं संहितादिक्रमेण बृ.१-१६)। ...
व्याख्यातुः प्रवर्तनमनुगमः। (उत्तरा. नि. व. २८, अनियमित गुणविशिष्ट वस्तु के ग्रहण को अनुक्ताव- पृ. १०); सूत्रस्यानुगतिश्चित्रानुगमःXxx। ग्रह कहते हैं । जैसे-चक्षु इन्द्रिय से गुड प्रादि को (उत्तरा. नि. वृ. २८, पृ. ११ उद्.)। देख कर उनके रस का अथवा घ्राण इन्द्रिय से सूंघ ५ (ध. पु. ६) जिस अधिकार में या जिसके द्वारा कर दही आदि के रस का ज्ञान ।
वक्तव्य पदार्थ की प्ररूपणा की जाती है उसे अनुगम अनुगम-१. अनुगम्यतेऽनेनास्मिश्चेति अनुगमनम् कहते हैं। अधिकार नामक अनुयोगद्वारों के जो अनुगमः। अणुनो वा सूत्रस्य गमोऽनुगमः सूत्रानु- अवान्तर अधिकार होते हैं उनका नाम अनुगम है। सरणमित्यर्थः । (उत्तरा. चू. पृ. ६)। २. अर्थानु- अथवा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं
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अनुगामी अवधि] ६८, जैन-लक्षणावली
[अनुज्ञा उसे अनुगम जानना चाहिये ।
मिनं जीवमनुगच्छति तदनुगामी। (गो. जी. मं. अनुगामी अवधि-१. से किं तं आणुगामिनं ओहि- प्र. व जी. प्र. टीका ३७२)। ६. कश्चिदवधिर्गणाणं ? प्राणुगामिग्रं प्रोहिणाणं दुविहं पण्णत्तं । तं च्छन्तं भवान्तरं प्राप्नुवन्तमनुगच्छति पृष्ठतो याति जहा-अंतगयं च मझगयं च । से किं तं अंतगयं? सवितुः प्रकाशवत् । (त. वृत्ति श्रुत.१-२२) । अंतगयं तिविहं पण्णत्तं । तं जहा-पुरो अंतगयं १०. यद्धि देशान्तरगतमप्यन्वेति स्वधारिणम् । मग्गो अंतगयं पासपो अंतगयं । से किं तं पुरनो अनुगाम्यवधिज्ञानं तद्विज्ञेयं स्वनेत्रवत् । (लोकप्र. अंतगयं ? पुरनो अंतगयं-से जहा नामए केइ पुरसे ३-८३६)। उक्कं वा चडुलिग्रं वा अलायं वा मणि वा पईवं २ सूर्य के प्रकाश के समान देशान्तर या भवान्तर में वा जोइं वा पुरओ काउं पणुल्लेमाणे पणुल्लेमाणे जाते हुए अवधिज्ञानी के साथ जाने वाले अवधिज्ञान गच्छेज्जा, से तं पुरो अंतगयं । से कि तं मग्गो को अनुगामी अवधिज्ञान कहते हैं। अंतगयं ? मग्गो अंतगयं-से जहा नामए केइ अनुग्रह- १. स्व-परोपकारोऽनुग्रहः । (स. सि. पुरसे उक्कं वा चडुलिनं वा अलायं वा मणि वा ७-३८; त. वा. ७-३८त. श्लो. ७-३८ त. पईवं वा जोइ वा मग्गो काउं अणुकड्ढेमाणे अणु- वृत्ति श्रुत. ७-३८) । २. अनुग्रहः परस्परोपकाराकड्ढेमाणे गच्छिज्जा से तं मग्गो अंतगयं । से दिलक्षणो जीवानाम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-७); किं तं पासपो अंतगयं ? पासो अंतगयं-से जहा अनुगृह्यतेऽननेत्यनुग्रहोऽन्नादिरुपकारकः प्रतिगृहीतुः, नामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिअं वा अलायं दातुश्च प्रधानानुषङ्गिकफलम् । प्रधानं मुक्तिः, वा मणि वा पईवं वा पासप्रो काउं परिकड्ढेमाणे आनुषङ्गिकं स्वर्गादिप्राप्तिः । (त. भा. सिद्ध. वृ. परिकडढेमाणे गच्छिज्जा से तं पासपो अंतगयं । ७-३३)। से तं अंतगयं । से किं तं मझगयं ? मझगयं से अपने और पर के उपकार को अन ग्रह कहते हैं। जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिय वा अलायं २ जीवों के पारस्परिक उपकार को भी अनुग्रह वा मणि वा पईवं वा जोइं वा मत्थए काउं समुन्व- कहा जाता है। हमाणे समुव्वहमाणे गच्छिज्जा से तं मझगयं । अनुग्रहबुद्धि - रागवशात् कटक-कटिसूत्रादिना xxxसे तं प्राणुगामिग्रं प्रोहिणाणं । (नन्दी. सू. भूषणाभिप्रायोऽनुग्रहबुद्धिं कुर्वते । (समाधि.टी. ६१)। १०, प.८२-८३ व ८५)। २. कश्चिदवधि - बहिरात्मा राग के वश से कटक व कटिसूत्र आदि स्करप्रकाशवद् गच्छन्तमनुगच्छति । (स. सि. १, आभूषणों के द्वारा भूषित करने के अभिप्राय रूप २२; त. वा. १, २२, ४)। ३. अणुगामियोऽणु- अनुग्रहबुद्धि को करते हैं। गच्छइ गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं। (विशेषा. अनुच्छेद-परमाणुगदएगादिदव्वसंखाए अण्णेसि ७११) । ४. जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जीवेण सह दव्वाणं संखावगमो अणुच्छेदो णाम। अथवा, गच्छदि तमणुगामी णाम । (धव. पु. १३, पृ. २६४)। पोग्गलागासादीणं णिविभागच्छेदो अणुच्छेदो णाम । ५. विशुद्धयनुगमात् पुंसोऽनुगामी देशतोऽवधिः । (धव. पु. १४, पृ. ४३६)। परमावधिरप्युक्तः सर्वावधिरपीदृशः ।। (त. श्लो. परमाणुगत एक प्रादि द्रव्यसंख्या से अन्य द्रव्यों की १, २२, ११)। ६. तत्र गच्छन्तं पुरुषं आ समन्ता- संख्या का बोध होना, इसका नाम अनुच्छेद है। दनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामी। प्रानुगाम्येवानुगामि अथवा पुद्गल व प्राकाश आदि के विभागरहित कम् । स्वार्थे 'कः' प्रत्ययः । अथवा अनुगमः प्रयो- छेद को अनुच्छेद जानना चाहिए। जनं यस्य तदानुगामिकम् । यल्लोचनवद् गच्छन्तम- अनुज्ञा--१. सूत्रार्थयोरन्यप्रदानं प्रदानं प्रत्यनुमननं नुगच्छति तदवधिज्ञानमानुगामिकमिति भावः । अनुज्ञा । (व्यव. सू. भा. मलय. व. गा.१-११५)। (नन्दी. मलय. व., कर्मस्त. गो. व. ९-१०)। २. निषेधाभावव्यजिकाऽनुज्ञा। (शास्त्रवा. ३, ७. तत्र भास्करप्रकाशवद् देशान्तरं गच्छन्तमनु- ३ टी.)। गच्छति विशुद्धिपरिणामवशात् सोऽवधिरनुगामी। दूसरे के लिए सूत्र और अर्थ के स्वयं प्रदान करने (त. सुखबो. वृ. १-२२)। ८. यदवधिज्ञानं स्वस्वा. को तथा प्रदान करते हुए अन्य की अनुमोदना करने
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अनुत्कृष्टद्रव्यवेदना ]
प्रज्ञा कहते हैं । अनुत्कृष्ट वेदना - १. तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा । (षट्खं ४, २, ४, ३३ – पु. १०, पृ. २१० ); २. तदो उक्कसादो वदिरित्तं जं दव्वं तमणुक्कस्स ( णाणावरणीय) वेणा होदि । ( धव. पु. १०, पृ. २१० ) । उत्कृष्ट वेदना से विपरीत ज्ञानावरण की द्रव्यवेदना को अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना कहते हैं ।
६९, जैन- लक्षणावली
अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना -- १. तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं । ( षट्सं. ४, २, ४, ४७ – पु. १०, पृ. २५५) । २. तदो उक्कसादो वदिरित्तमणुक्कसवेयणा
( उवस्स) । ( धव. पु. १०, पृ. २५५ ) । उत्कृष्ट वेदना से विपरीत श्रायु की द्रव्यवेदना को अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना कहते हैं ।
अनुत्तर ( श्रुतज्ञान ) उत्तरं प्रतिवचनम्, न विद्यते उत्तरं यस्य श्रुतस्य तदनुत्तरं श्रुतम् । अथवा अधिकम् उत्तरम्, न विद्यते उत्तरोऽन्यसिद्धान्तः श्रस्मादित्यनुत्तरं श्रुतम् । ( धव. पु. १३, पृ. २८३) । जिस श्रुतवचन का कोई प्रतिवचनरूप उत्तर उपलब्ध न हो, उसे अनुत्तर ( श्रुत) कहते हैं । अथवा जिससे अधिक कोई अन्य सिद्धान्त न हो, ऐसे भावश्रुत को अनुत्तर ( श्रुत) कहते हैं । प्रनुत्तरौपपादिकदशा - १. XXX. प्रणुत्तरो ववाइमदसासु णं प्रणुत्त रोववाइआणं नगराई उज्जाणाई चेइस्राइं वणसंडाई समोसरणाई रागाणो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइअ - परलोइया इड्ढि - विसेसा भोगपरिच्चागा पव्वज्जा परिनागा सुपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमा उवसग्गा संलेहणा भत्तपच्चक्खाणारं पावगमणाई अणुत्तरोववाइयत्ते उववत्ती सुकुलपच्चायाईो पुण बोहिलाभा अंतकिरिया श्राघविज्जंति x x x से तं अणुत्तरोववाइयदसाधो । ( नन्दी. सू. ५३ ) । २. उपपादो जन्म प्रयोजनमेषां त इमे पपादिकाः, विजयवैजयन्त-जयन्ताऽपराजित - सर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तराणि । ग्रनुत्तरेषु प्रौपपादिकाः प्रनुत्त रौपपादिका: ऋषिदास-वा (ध) न्य-सुनक्षत्र- कार्तिक - नन्द-नन्दनशालिभद्राऽभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थंकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेषु अन्ये श्रन्ये दश दशानगारा: दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना इत्येवमनुत्तरौपपादिका दशा
[अनुत्तरौपपादिकदशा
ऽस्यां वर्ण्यन्त इति अनुत्तरोपपादिकदशा, अथवा अनुत्तरौपपादिकानां दशा अनुत्तरौपपादिकदशा तस्यामायुर्वे क्रियिकानुबन्धविशेषः । (त. वा. १,२०, १२; धव. पु. ६, पृ. २०२ ) । ३. उत्तरः प्रधानः, नास्योत्तरो विद्यत इति अनुत्तरः । उपपतनमुपपातः, जन्मेत्यर्थः । श्रनुत्तरः प्रधानः संसारे ऽन्यस्य तथाविधस्याभावात्, उपपातो येषामिति समासः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरौपपादिकदशा: । ( नन्दी. हरि. वृ. पू. १०५ ) । ४. अणुउत्तरोववादियदसा णाम अंगं बाणउदिलक्ख-चोयालसहस्सपदेहिं (९२४४००० ) एक्केक्कम्हि य तित्थे दारुणे बहुविहवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं लद्धूण अणुतरविमाणं गये दस दस वण्णेदि । ( धव. पु. १, पू. १०३) । ५. अनुत्तरोपपादिका देवा येषु ख्याप्यन्ते ताः अनुत्तरोपपादिकदशा: । ( त. भा. सिद्ध. वू. १ -२० ) । ६. चतुश्चत्वारिंशत्सहस्रद्विनवतिलक्षपदपरिमाणं प्रतितीर्थं निर्जितदुद्धरोपसर्गाणां समासा - दितपञ्चानुत्त रोपपादानां दश दशमुनीनां प्ररूपकम् अनुत्तरौपपादिकदशम् । उपपादो जन्म प्रयोजनं येषां ते पपादिका मुनयः, अनुत्तरेषु औपपादिकाः अनुत्तरोपपादिकाः, ते दश यत्र निरूप्यन्ते तत्तथोक्तम् । ( श्रुतभक्ति टीका ८ ) । ७. तीर्थङ्कराणां प्रतिनीर्थं दश दश मुनयो भवन्ति । ते उपसर्गं सोढ़वा पञ्चानुत्तरपदं प्राप्नुवन्ति । तत्कथानिरूपकं चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राधिकद्विनवतिलक्षपदप्रमाणमनु - त्तरौपपादिकदशम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) । ८. ति-हं चउ-चउ-दुग-णव-पयाणि चाणुत्त रोववाददसे । विजयादि ( दी ) सु पंचसु य उववायिया विमाणेसु || पडितित्थं सहिऊण हु दारुवसग्गोपलाप्पा | दह दह मुणिणो विहिणा पाणे मोत्तूण भाणमया ॥ विजयादिसु उववण्णा वणिज्जंते सुहावसुहबहुला । ते णमह वीरतित्थे उजु (रिसि) दासो सालिभद्दक्खो || सुणक्खत्तो अभयो विय घणो वरवारिसे - णंदणया । णंदो चिलायपुत्तो कत्तयो जह तह || ( अंगपण्णत्ती १, ५२-५५) । ६. अनुत्तरेषु विजय- वैजयन्त जयन्ताऽपराजित - सर्वार्थसिद्धयाख्येष्वोपपादिका अनुत्तरौपपादिकाः । प्रतितीर्थं दश दश मुनयो दारुणान् महोपसर्गान् सोढ्वा लब्धप्रातिहार्याः समाधिविधिना त्यक्तप्राणा ये विजयाद्यनुत्तरविमानेषूत्पन्नास्ते वर्ण्यन्ते यस्मिंस्तद
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अनुत्पादानुच्छेद] ७०, जैन-लक्षणावलौ
[अनुनादित्व नुत्तरोपपादिकदशं नाम नवममङ्गम् । (गो.जी. जी. स्थितिसत्कर्म यासां ता अनुदयबन्धोत्कृष्टाः । प्र. ३५७)।
(पञ्चसं. स्वो. व. ३-६२)। २. यासां तु विपा२ उपपाद अर्थात् जन्म ही जिनका प्रयोजन है वे कोदयाभावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिस्ता अनुप्रौपपादिक कहे जाते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर के दयबन्धोत्कृष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२; कर्मसमय में दारुण उपसर्गों को सहन करके विजयादि प्र. यशो. टी. १, पृ. १५)। पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले दश दश २ जिन कर्मप्रकृतियों का विपाकोदय के अभाव में महामुनियों के चरित्र का जिस अंग में वर्णन किया बन्ध से उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व पाया जाता है, उन्हें जाता है उसे अनुत्तरौपपादिकदशा या अनुत्तरोप- अनुदयबन्धोत्कृष्ट कहते हैं। पादिकदशांग कहते हैं । जैसे-वर्धमान तीर्थकर के अनदयवती प्रकृति (अणदयवई)-१. चरिमतीर्थ में ऋषिदास प्रादि दस का (मूल में देखिये)। समयम्मि दलियं जासिं अन्नत्थ संकमे ताोxx अनुत्पादानुच्छेद-अनुत्पादः असत्त्वम्, अनुच्छेदो- X॥ (पंचसंग्रह ३-६६)। २. यासां प्रकृतीनां ऽविनाशः । अनुत्पाद एव अनुच्छेदः (अनुत्पादानु दलिकं चरमसमयेऽन्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संच्छेदः), असत अभाव इति यावत्, सतः असत्त्ववि- क्रमय्य अन्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभवेत्, न स्वोदयेन, ता:. रोधात् । एसो पज्जवट्ठियणयववहारो। (धव. पु. अनुदयवत्योऽनुदयवतीसंज्ञाः । (पंचसं. मलय. वृत्ति ८, पृ.६-७); अणुप्पादाणुच्छेदो णाम पज्जवट्ठिो ३-६६; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५)। णमो, तेण असंतावत्थाए अभावववएसमिच्छदि, जिन कर्मप्रकृतियों का प्रदेशपिण्ड चरम समय में भावे उवलब्भमाणे अभावत्तविरोहादो। (धव. पु. स्तिबुक संक्रमण के द्वारा अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त १२, पु. ४५८)।
होकर अन्य प्रकृतिरूप से ही विपाक को प्राप्त हो, पर्यायार्थिक नय को अनुत्पादानुच्छेद कहा जाता है। स्वोदय से नहीं; उन प्रकृतियों को अनुदयवती अनुपाद का अर्थ असत्त्व और अनुच्छेद का अर्थ है अविनाश । 'अनुत्पाद ही अनुच्छेद' ऐसा कर्मधारय अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट-१. अनुदये संक्रमेण उत्कृष्ट समास करने पर उसका अभिप्राय होता है असत् स्थितिसत्कर्म यासां ता अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः । का प्रभाव । कारण कि कभी सत् का प्रभाव सम्भव (पंचसं. स्वो. व. ३-६२)। २. यासां पुनरनुदये नहीं है। अतः प्रभाव का व्यवहार पर्यायाथिक नय संक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभस्ता अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाको अपेक्षा ही सम्भव है।
ख्याः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२); अनुदये सति अनुत्सेक-१. विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्त- संक्रमत उत्कृष्टा स्थितिर्यासां ता अनुदयसंक्रमोत्कृत्कृतमदविरहोऽनहङ्कारताऽनुत्सेकः। (स. सि. ६, ष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ५-१४५) । २६: त. वा. ६, २६, ४; त. श्लो. ६-२६; त. २ जिन कर्मप्रकृतियों का विपाकोदय के अभाव में सुखबो. वृ. ६-२६)। २. उत्सेको गर्वः श्रुत- संक्रमण से उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व पाया जावे, उन्हें जात्यादिजनितः, नोत्सेकोऽनुत्सेको विजितगर्वता। अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट कहते हैं। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-२५); उत्सेकश्चित्त- अनुदीर्णोपशामना-जा सा प्रकरणोवसामणा परिणामो गर्वरूपः, तद्विपर्ययोऽनुत्सेकः । (त. भा. तिस्से दुवे णामधेयाणि-प्रकरणोवसामणा त्ति वि हरि. व सिद्ध. वृ. ६-६)। ३. ज्ञान-तपःप्रभृतिभि- अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । (कसायपा. चूणि पृ. गुणैर्यदुत्कृष्टोऽपि सन् ज्ञान-तपःप्रभृतिभिर्मदमहंकारं ७०७) । यन्न करोति सोऽनुत्सेक इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. देखो अकरणोपशामना । ६-२६)।
अनुनादित्व - १. अनुनादित्वं प्रतिरवोपेतत्वम् । १ विशिष्ट ज्ञान और तप आदि से उत्कृष्ट होकर (समवा. अभय. वृ. सू. ३५)। २. अनुनादिता प्रतिभी उनका मद-अहंकार--न करना, इसका नाम रवोपेतता। (रायप. मलय. वृ. पृ. १६) । अनुत्सेक है।
शब्द का प्रतिध्वनि से सहित होना, इसे अनुनादित्व अनुदयबन्धोत्कृष्ट - १. अनुदये बन्धादुत्कृष्टं कहते हैं ।
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अनुपक्रम]
७१, जैन-लक्षणावली [अनुपस्थान,अनुपस्थापन अनुपक्रम-१. जेणाउमुवकमिज्जइ अप्पसमुत्थेन इय- कहलाता है । जैसे-जीव का शरीर । २ अबुद्धिरगेणावि । सो अझवसाणाई उवक्कमो अणवक्कमो पूर्वक होने वाले क्रोधादिक भावों में जीव के भावों इअरो। (संग्रहणी. २६६ )। २. इतरस्तु तद्विपरीतो की विवक्षा करने को अनुपचरितासद्भूतव्यवहार(आयुषोऽपर्वर्तनहेतुभूताध्यवसानादिनाऽऽत्मसमुत्थेन नय कहते हैं। बाह्य न च विषाग्नि-शस्त्रादिना विरहितो) ऽनुप- अनुपदेश–अनर्थक उपदेशोऽनुपदेशः। (त. वा. क्रमः । (संग्रहणी. दे. वृ. २६६)।
१,४, २)। प्राय के अपवर्तन (विघात) के कारणभूत प्रध्यव- निरर्थक उपदेश का नाम अनपदेश है। सान आदि तथा बाह्य विष, शस्त्र एवं अग्नि प्रादि अनपरतकायिकी क्रिया -उपरतो देशतः के प्रभाव का नाम अनुपक्रम है।
सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः । नोपरतोऽनुपरतः, अनुपगृहन-प्रमादाज्जातदोषस्य जिनमार्गरतस्य । कुतश्चिदप्यनिवृत्त इत्यर्थः । तस्य कायिकी अनुपरततु। ईर्ण्ययोद्भासनं लोके तत् स्यादनुपगृहनम् ।। कायिकी। इयं प्रतिप्राणिनि वर्तते । इयमविरतस्य (धर्मसं. श्रा. ४-४६)।
वेदितव्या, न देशविरतस्य सर्वविरतस्य वा । (प्रज्ञाप. ईर्ष्या के वश जिनमार्ग पर चलने वाले किसी मलय. व. २२-२७९)। धर्मात्मा के प्रमादजनित दोष के प्रकट करने को जो सावध योग से-पाप कार्यों से-सर्वदेश या एकअनूपगूहन कहते हैं।
देश रूप से विरत नहीं है उसका नाम अनुपरत अनपचरितस तव्यवहारनय-१. निरुपाधि- (अविरत) है। उसके द्वारा जो भी शरीर से क्रिया गुण-गुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा की जाती है वह अनुपरतकायिकी क्रिया कहजीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः। (पालाप. प. १४८)। लाती है। २. स्यादादिमो यथान्तीना या शक्तिरस्ति यस्य अनुपलम्भ-अन्योपलम्भोऽनुपलम्भः । (प्रमाणसं. सतः। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।। स्वो.व.३१)। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुणः । ज्ञेया- किसी एक के प्रभावस्वरूप जो अन्य की उपलब्धि लम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।। (पंचा- होती है उसका नाम अनुपलम्भ है । जैसे-क्षणक्षय ध्यायी १, ५३५-३६)। ३. निरुपाधिगुण-गुणि- एकान्त सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका अनुपलम्भ नोर्भेदकोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारः, यथा केवल- है-वह पाया नहीं जाता। यहाँ क्षणक्षय एकान्त ज्ञानादयो गुणाः । (नयप्रदीप पृ. १०२)। ___ का अनुपलम्भ कथंचित् नित्यानित्यात्मक अनेकान्त १ उपाधिरहित गुण-गुणी के भेद को विषय करने की उपलब्धिस्वरूप है। वाले नय को अनुपचरित-सद्भूत-व्यवहारनय कहते अनुपवास--१. जलवर्जनचतुर्विधाहारत्यागः, ईषहैं । जैसे जीव के केवलज्ञानादि गुण। २ वस्तु की दुपवासोऽनुपवास इति व्युत्पत्तेः । (सा. घ. स्वो. अन्तर्गत शक्ति के विशेष-निरपेक्ष होकर सामान्य- टी.५-३५) । २.xxx प्रारम्भादनुपवासः ।। रूप से निरूपण करने वाले नय को अनुपचरित- (धर्मसं. श्रा. ६-१७०)। सद्भूत-व्यवहारनय कहते हैं।
१ जल को छोड़ कर शेष चारों प्रकार के प्राहार के अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनय – १. संश्लेष- परित्याग को अनुपवास कहसे हैं । २ अथवा गृह सहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो सम्बन्धी कार्य को करते हुए जो उपवास किया यथा जीवस्य शरीरमिति । (पालाप. पृ. १४८; जाता है उसे अनुपवास कहते हैं। नयप्रदीप १४, पृ. १०३)। २. अपि वा ऽसद्भूतो अनुपस्थान, अनुपस्थापन (परिहारप्रायश्चित्त) योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या -१.अपकृष्टयाचार्यमूले प्रायश्चित्तग्रहणमनुपस्थापजीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः ॥ (पंचाध्यायी नम् । (त. वा. ६, २२, १०)। २. परिहारो दुविहो
प्रणवट्रो पारंचिो चेदि । तत्थ प्रणवटूनो १ जो नय संश्लेश (संयोग) युक्त वस्तु के सम्बन्ध को जहण्णेण छम्मासकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरंतो। विषय करता है वह अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय कायभूमीदो परदो चेव कयविहारो पडिवंदणविर
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अनुपस्थान, अनुपस्थापन] ७२, जैन-लक्षणावली
[अनुपालनाशुद्ध हिदो गुरुवदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खव- अनुपस्थान) और पारंचिक के भेद से दो प्रकारणायंबिलपुरिमड्ढेयवाण-णिब्वियादीहि सोसियरस- का है। उनमें अनुपस्थापन भी दो प्रकारका हैरुहिर-मांसो होदि । (धव. पु. १३, पृ. ६२)। निज-गण-अनुपस्थापन और परगण-उपस्थापन । जो ३. परिहारोऽनुपस्थान-पारञ्चिकभेदेन द्विविधः। साधु प्रमाद से दूसरे मुनि सम्बन्धी ऋषि या छात्र तत्रानुपस्थानं निज-परगणभेदाद् द्विविधम् । प्रमादा- को, अन्य पाखण्डी से सम्बद्ध चेतन-अचेतन द्रव्य दन्यमुनिसम्बन्धिनमृषि छात्रं वा परपाखण्डिप्रति- को, अथवा परस्त्री को चुराता है; मुनियों पर बद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतो मुनीन् प्रहार करता है, या इसी प्रकार का अन्य भी विरुद्ध प्रहरतो वा अन्यदप्येवमादि विरुद्धाचरितमाचरतो आचरण करता है; नौ-दश पूर्वो का धारक है, नव-दशपूर्वधरस्य आदित्रिकसंहननस्य जितपरीषहस्य आदि के तीन संहननों में से किसी एक से सहित है, दृढर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगणानुपस्थापनं दृढधर्मी है, धीर है, और संसार से भयभीत है। प्रायश्चित्तं भवति । तेन ऋष्याश्रमाद् द्वात्रिंशद्- ऐसे साधु को निजगण-अनुपस्थापन प्रायचित्त दिया दण्डान्तरं विहितविहारेण, बालमुनीनपि वन्दमानेन, जाता है। तदनुसार वह ऋष्याश्रम से ३२ धनुष प्रतिवन्दनाविरहितेन, गुरुणा सहालोचयता, शेष- दूर जाता है, बालमनियों को भी वन्दन करता है, जनेषु कृतमौनव्रतेन, विधृतपराङ्मुखपिच्छेन, जघ- गुरु के पास पालोचना करता है, शेष जन के प्रति न्यतः पञ्च-पञ्चोपवासा उत्कृष्टतः षण्मासोपवासाः मौन रखता है, अपराध को प्रगट करने के लिए कर्तव्याः। उभयमप्याद्वादशवर्षादिति । ददिन- पीछी को विपरीत स्वरूप से (उलटी) धारण रन्तरोक्तान् दोषानाचरतः परगणोपस्थापनं प्राय- करता है, इस प्रकार रहता हुआ वह १२ वर्ष तक श्चित्तं भवतीति । स सापराध: स्वगणाचार्येण पर- कम-से-कम ५-५ और अधिक से अधिक ६-६ मास गणाचार्य प्रति प्रहेतव्यः । सोऽप्याचार्यस्तस्यालोचन- का उपवास करता है। माकर्ण्य प्रायश्चित्तमदत्त्वा प्राचार्यान्तरं प्रस्थापयति उपयुक्त अपराध को ही यदि कोई मुनि अभिमान सप्तमं यावत् । पश्चिमश्च प्रथमालोचनाचार्य प्रति के वश करता है तो उसे परगण-उपस्थापन प्रायप्रस्थापयति । स एव पूर्वः पूर्वोक्तप्रायश्चित्तेनैवमा- श्चित्त दिया जाता है। तदनुसार उसे अपने संघ का चारयति । (चा. सा. पृ. ६३-६४; अन. ध. स्वो. प्राचार्य अन्य संघ के प्राचार्य के पास भेजता है। टी. ७-५६)। ४. परिहारोऽनुपस्थापन-पारञ्चिक- वह उसके अपराध की आलोचना को सुनकर बिना भेदभाक् । निजान्यगणभेदं तत्राद्यं तत्राद्यभुत्तमम् ॥ प्रायश्चित्त दिये ही अन्य प्राचार्य के पास भेजता है, द्वादशाब्देषु षण्मास-पण्मासानशनं मतम् । जघन्यं इस प्रकार से उसे सातवें प्राचार्य के पास तक भेजा पञ्च-पञ्चोपवासं मध्यं तु मध्यमम् ।। द्वात्रिंशददण्ड- जाता है। वह भी उसकी आलोचना को सुनकर दूरालयस्थेन वसतेर्यतीन् । सर्वान् प्रणमतापेतप्रति- बिना प्रायश्चित्त दिये ही उसी प्रथम प्राचार्य के पास वन्दनसाधुना ।। स्वदोषख्यातये पिच्छं विभ्राणेन भेज देता है। तब वही उसे पूर्वोक्त (निजगणपराङ्मुखम् । सूरीतरैः सहोपात्तमोनेनैतद्विधीयते। अनुपस्थापनोक्त) प्रायश्चित्त को देता है। इस प्रमादेनान्यपाखण्डिगृहस्थ-यतिसंश्रितम् । वस्तु स्तेन- प्रकार अनुपस्थापन प्रायश्चित्त दो प्रकारका है। यतः किञ्चिच्चेतनाचेतनात्मकम् ॥ यतीन् प्रहरतो अनुपालनाशुद्ध-१. प्रादंके उवसग्गे समे य दुब्भिऽन्यस्त्रीहरणादींश्च कुर्वतः । दश-नवपूर्वज्ञस्य श्याद्य. क्खवुत्तिकंतारे। जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालसंहननस्य तत् ।। करोति यदि दर्पण दोषान् पूर्ववि- णासुद्धं ॥ (मूला. ७-१४५) । २. कंतारे भिक्खे भाषितान् । सोऽयमन्यगणानुपस्थापनेन विशुद्धचति ॥ आयंके वा महइ समुप्पण्णे । जं पालियं ण भग्गं तं प्रायश्चित्तं तदेवात्र किन्तु स्वगणसूरिणा। आलोच्य जाण अणुपालणासुद्धं ॥ (प्राव. भा. ६-२१४) । प्रेषितः सप्तसूरिपार्श्वमनुक्रमात् ॥ आलोच्य तस्तै- आतंक (रोग), उपसर्ग, श्रम, दुर्भिक्षवृत्ति (अकाल रप्राप्तप्रायश्चित्तोऽन्त्यसूरिणा । तमाद्यं प्रापित- के कारण भिक्षा की अप्राप्ति) और वनप्रदेश; इन स्तेन दत्तं चरति पूर्ववत् ॥ (प्राचा.सा. ६,५३-६१)। कारणों के रहते हुए संरक्षित चारित्र के भग्न न ३ परिहारप्रायश्चित्त अनुपस्थापन (अनवस्थाप्य या होने देने का नाम अनुपालनशुद्ध है।
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अनुप्रेक्षा (भावना)] ७३, जैन-लक्षणावली
[अनुबन्धसारा अनुप्रेक्षा (भावना)-१. अनित्याशरणससारैकत्वा७. अनुप्रेक्षा नाम तत्त्वार्थानुचिन्ता। (ललितवि. न्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वा- पृ. ८२) । ८. सत्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । (त. सू. ६-७) । २. ऽनुप्रेक्षा । (त. भा. सि. वृत्ति ६-२५) । शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। (स. सि.. ६. अवगतार्थानुप्रक्षणमनुप्रेक्षा । (भ. प्रा. ६-२; त. सुखबो. वृत्ति ६-२)। ३. स्वभावा- विजयो. टी. १०३) । १०. साधोरधिगतार्थस्य नुचिन्तनमनप्रेक्षाः। शरीरादीनां स्वभावानुचिन्त- योऽभ्यासो मनसा भवेत् । अनुप्रक्षेति निर्दिष्ट: नमनुप्रेक्षा वेदितव्याः । (त. वा. ६, २, ४) ४. स्वाध्यायः सः जिनेशिभिः । (त. सा. ७-२०)। स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । (त. श्लो. ६-२)। ११. अधिगतपदार्थप्रक्रियस्य तप्तायःपिण्डवदर्पित५. अनूचिन्तनमतेषामन्प्रेक्षाः प्रकीर्तिताः । (त. सा. चेतसो मनसाऽभ्यासोऽनप्रेक्षा । (चा. सा. प. ६-३०)। ६. अनुप्रेक्षाऽहंद्गुणानामेव मुहुर्मुहुरनुस्म- ६७)। १२. अनुप्रेक्षा परिज्ञाते भावना या मुहुरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । ७. अनु- र्मुहुः । (प्राचा. सा. ४-६१)। १३. अन्विति प्रेक्ष्यन्ते शरीराद्यनुगतत्वेन स्तिमितचेतसा दृश्यन्ते ध्यानतः पश्चात् प्रेक्षा त्वालोचनं हृदि । अनुप्रेक्षा इत्यनुप्रेक्षाः । (अन. ध. स्वो. टी. ६-५७)। ८. स्यादसौ चाश्रयभेदाच्चतुर्विघा ॥ (लोकप्र. ३०, कायादिस्वभावादिचिन्तनमप्रेक्षा। (त. वृत्ति श्रुत. ४७०)। १४. अर्थाविस्मरणार्थं च तच्चिन्तनमनु६-२); निज निजनामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनु- प्रेक्षा । (धर्मसं. स्वो. वृ. ३-५४, पृ. १४२)। १५. प्रेक्षा भवति । (त. वृ. श्रुत. ६-७)। ६. अनु पुनः साऽनुप्रेक्षा यदभ्यासोऽधिगतार्थस्य चेतसा । स्वापूनःप्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणमनित्यादिस्वरूपाणामित्यन- ध्यायलक्ष्म पाठोऽन्तर्जल्पात्मात्रापि विद्यते ।। (अन. प्रेक्षा, निज निजनामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ध. ७-८६)। १६. निश्चितार्थस्य मनसाऽभ्यासोऽइत्यर्थः । (कार्तिके. टी. १)। १०. परिज्ञातार्थस्य नुप्रेक्षा । (त. सुखबो. वृ. ६-२५)। १७. परिज्ञाएकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनरभ्यसनमनुशीलनं सानु- तार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनरभ्यसनमनुप्रेक्षा, अनित्यादिभावनाचिन्तनाऽनुप्रेक्षा । (कार्तिके. शीलनं साऽनुप्रेक्षा । (त. वृ. श्रुत. ६-२५)। टी. ४६६)।
२ पठित अर्थ का मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा २ शरीर प्रादि के स्वभाव का चिन्तन करना, इसका स्वाध्याय है। नाम अनुप्रेक्षा है।
अनुप्रेक्षादोष-अनुप्रेक्षमाणस्यैवोष्ठपुटे चलयतः अनुप्रेक्षा (स्वाध्याय)-१. अणुप्पेहा णाम जो स्थानमनुप्रेक्षादोषः । (योगशा. विव. ३-१३०) । मणसा परियट्ट इ, णो वायाए। (दशवै. नि. १-४८; वस्तुस्वरूप का चिन्तवन करते हुए प्रोष्ठों के दशवं. चूणि १, पृ. २९) । २. अधिगतार्थस्य चलाने को अनुप्रेक्षा दोष कहते हैं। मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। (स. सि. ६-२५; त. श्लो. अनबन्धयता मदिता-अनुबन्धः सन्तानोऽव्यवा. ६-२५)। ३. अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थयोरेव मनसा- वच्छिन्नसुखपरम्परया देव-मनुजजन्मसु कल्याणऽभ्यासः । (त. भा. ९-२५; योगशा. स्वो. परम्परारूपस्तेन प्रयुज्यते सुखे परभवेहभवापेक्षया विव. ४-९०) । ४. अधिगतार्थयोरेव मनसा- आत्म-परापेक्षया च तृतीया। (षोड. व. १३-१०)। ऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। अधिगतपदार्थप्रक्रियस्य तप्ताय- देव और मनुष्य के जन्म में अविच्छिन्न कल्याणस्पिण्डवदर्पितमनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा वेदितव्याः । परम्परा के भोगने से प्राप्त होने वाली प्रसन्नता (त. वा. ६, २५, ३, भावप्रा. टी. ७८)। को अनुबन्धयुता मुदिता भावना कहते हैं । ५. कम्मणिज्जरणट्टमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणा- अनबन्धसारा (उपेक्षा)-अनुबन्धः कार्यविषयः णस्स परिमलणमणपेक्खणा णाम। (धव. पू. ६. प्रवाहपरिणामस्तत्सारा [उपेक्षा अनुबन्धसारा] । पृ. २६३); सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिंतणमणुपेहणं यथा कश्चित् कुतश्चिदालस्यादेरर्थार्जनादिषु न णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६)। ६. ग्रन्थार्थानु- प्रवर्तते, तं चाप्रर्तमानमन्यदा तद्वितार्थी प्रवर्तयति, चिन्तनमनुप्रेक्षा । (अनुयो. हरि. वृ. ७, पृ. १०)। विवक्षिते तु काले परिणामसुन्दरं कार्यमवेक्षमाणो
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अनुभय भाषा ]
यदा माध्यस्थ्यमालम्बते तदा तस्यानुबन्धसारोपेक्षा । ( षोडश. वृ. १३ - १०) । कार्यविषयक प्रवाहपरिणामरूप अनुबन्ध से युक्त उपेक्षा श्रनुबन्धारा उपेक्षा कहलाती है । जैसे— कोई आलस्यादि के कारण धनार्जन श्रादि में प्रवृत्त नहीं हो रहा था । तब किसी समय उसके हितैषी ने उसे उसमें प्रवृत्त कराया। योग्य अवसर पर जब वह परिणाम में सुन्दर कार्य को देखता हुआ मध्यस्थता का श्रालम्बन लेता है तब उसके अनुबन्धसारा उपेक्षा कही जाती है ।
अनुभय भाषा — ग्रनक्षरात्मिका द्वीन्द्रियाद्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानां स्वसंकेत प्रदर्शिका भाषा अभयभाषा । (गो. जी. जी. प्र. २२६ ) । दो-इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की अपने संकेत को सूचित करने वाली जो प्रनक्षरात्मक भाषा है, वह श्रनुभय भाषा कही जाती है । अनुभव (वेदनस्वरूप) - प्रनुभवलक्षणं च योगदृष्टिसमुच्चयानुसारेण लिख्यते - - यथार्थवस्तुस्वरूपोपलब्धि- परभावारमण-स्वरूप रमण - तदाऽऽस्वादनैकत्वमनुभव: । ( ज्ञानसार वृ. २६, पृ. ८७ श्रभिधा. रा. १, पृ. ३६२) ।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि पर पदार्थों में विरक्ति, श्रात्मस्वरूप में रमण श्रौर हेय - उपादेय के विवेक को अनुभव कहते हैं ।
अनुभव - देखो अनुभाग । १. विपाकोऽनुभवः । (त. सू. ८ - २१ ) । २. तद्रसविशेषोऽनुभवः । यथा प्रजा - गो-महिष्यादिक्षीराणां तीव्र-मन्दादिभावेन रसविशेषः तथा कर्म - पुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषोSनुभवः । ( स. सि. ८-३; त. वा. ८, ३, ६, मूला. वृ. १२ - १८४; त. सुखबोध वृ. ८-३) । ३. ज्ञानावरणादीनां कर्म प्रकृतीनामनुग्रहोपघातात्मिकानां पूर्वास्रवतीव्र - मन्दभाव-निमित्तो विशिष्ट: पाको विपाकः, द्रव्य-क्षेत्र काल-भव-भावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविधो वा पाको विपाकः, सावनुभव इत्याख्यायते । (ल. वा. ८, २१, १ ) । ४. विशिष्ट: पाको नानाविधो वा विपाकः, पूर्वास्रवतीव्रादिभाव निमित्त विशेषाश्रयत्वात् द्रव्यादिनिमित्तभेदेन विश्वरूपत्वाच्च सोऽनुभवः । ( त श्लो. ८- २१) । ५. कर्मपुद्गलसामर्थ्यविशेषोऽनुभबो मतः । (ह. पु. ५८ - २१२ ) ; कषाय
७४, जैन - लक्षणावली
[ अनुभाग
तीव्र मन्दादिभावास्रवविशेषतः । विशिष्टपाक इष्टस्तु विपाकोsनुभवोऽथवा ॥ स द्रव्य क्षेत्र कालोक्तभवभावविभेदतः । विविधो हि विपाको यः सोऽनुभवः समुच्यते । (ह. पु. ५८, २८८ - २८६ ) । ६. विपाक: प्रागुपात्तानां यः शुभाशुभकर्मणाम् । प्रसावनुभवो ज्ञेयः X XXI (त. सा. ५ - ४६ ) । ७. कर्म
यो विपाकस्तु भव- क्षेत्राद्यपेक्षया । सोऽनुभाव X X X ॥ ( चन्द्र च १८ - १०३ ) । ८. यथाजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्र-मन्दादिभावेन स्वकार्यकरणे शक्तिविशेषोऽनुभवस्तथा कर्मपुद्गलानां स्वकार्यकरणे सामर्थ्यविशेषोऽनुभवः । ( श्रन. घ. स्वो. टी. २ - ३ ) । ६. विशिष्टो विविधो वा पाक उदयः विपाकः । यो विपाकः स अनुभव इत्युच्यते अनुभागसंज्ञकश्च । तत्र विशिष्ट: पाकस्तीव्र - मन्दमध्यमभावास्रव विशेषाद्वेदितव्यः । द्रव्य क्षेत्र-कालभव-भावलक्षणकारण भेदोत्पादितनानात्वो विविधोऽनुभवो ज्ञातव्यः । अनुभव इति कोऽर्थः ? श्रात्मनि फलस्य दानम्, कर्मदत्त फलानामात्मना स्वीकरणमित्यर्थः । यदा शुभपरिणामानां प्रकर्षो भवति तदा शुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवो भवति, प्रशुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुभवो भवति यदा प्रशुभपरिणामानां प्रकर्षो भवति तदा प्रशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवो भवति, शुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुभवो भवति । (त. वृ. श्रुत. ८- २१) ।
२ जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस श्रादि के दूध के रस में अपेक्षाकृत होनाधिक मधुरता हुआ करती है उसी प्रकार कर्मपुद्गलों में अपनी फलदानशक्ति में जो अपेक्षाकृत होनाधिकता होती है उसका नाम अनुभव या अनुभाग है । अनुभवावीचिमररण- कर्मपुद्गलानां रसोऽनुभवः । स च परमाणुषु षोढा वृद्धि हानिरूपेण आवीचय इव क्रमेणावस्थित [तस्त ] स्य प्रलयोऽनुभवावीचिमरणम् । ( भ. प्रा. विजयो. २५) ।
श्रायु कर्म सम्बन्धी परमाणुत्रों में छह प्रकार की वृद्धि व हानि के क्रम से जल तरंगों के समान अवस्थित उक्त कर्मपुद्गलों के रस ( श्रनुभाग ) का प्रतिक्षण प्रलय होना, इसका नाम अनुभवावीचि - मरण है।
अनुभाग- देखो अनुभव । १. कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा । बंधो सो ग्रणु
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अनुभागकाण्डकघात ]
भाग XXX ॥ ( मूला. १२ - २०३ ) । २. को प्रणुभागो ? कम्माणं सगकज्जकरणसत्ती अणुभागो णाम । ( जयध. ५, पृ. २) । ३. XXX इतरस्तत्फलोदयः ॥ ( ज्ञानार्णव ६-४८ ) । ४. तेषां कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां जीवप्रदेशानुश्लिष्टानां जीवस्वरूपान्यथाकरणरसोऽनुभागबन्धः । (मूला. वृ. ५–४७); अनुभागः कर्मणां रसविशेषः । (मूला. वृ. १२ - ३ ) ; कर्मणां ज्ञानावरणादीनां यस्तु रसः सोऽनुभवः, अध्यवसानं परिणामैर्जनितः क्रोध- मानमाया- लोभतीव्रादिपरिणामभावतः शुभः सुखदः अशुभः सुखदः, वा विकल्पार्थः सोऽनुभागबन्धः । (मूला. वृ. १२ - २०३ ) । ५. शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुख-दुःखफलप्रदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्ध: । (नि. सा. वृ. ३ - ४० ) । ६. × × × प्रणुभागो होइ तस्स सत्तीए । प्रणुभवणं जं तीवे तिव्वं मंदे मंदाणुरुवेण ।। ( भावसं. दे. ३४० ) । ७. भावक्षेत्रादिसापेक्षो विपाकः कोऽपि कर्मणाम् । अनुभागो जिनरुक्तः केवलज्ञानभानुभिः ।। ( धर्मश. २१- ११४) । ८. अनुभागो रसो ज्ञेयः × ××॥ ( पञ्चाध्यायी २ - ९३३) ।
१ कषायजनित परिणामों के अनुसार कर्मों में जो शुभ या अशुभ रस प्रादुर्भूत होता है उसका नाम श्रनुभाग है । अनुभागकाण्डकघात - पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेण कालेन जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडयधादो णाम । ( धव. पु. १२, पृ. ३२ । जो अनुभाग का घात प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहुर्त काल में निष्पन्न होता है उसका नाम अनुभाग काण्डकघात है ।
अनुभागदोर्घ - श्रप्पप्पणी उक्कस्साणुभागट्टाणाणि बंधमाणस्स अणुभागदीहं । ( धव. पु. १६, पृ. ५०६)।
७५, जैन- लक्षणावली
[अनुभागविपरिणामना
बन्धो रसबन्ध इत्यर्थः । ( शतक. दे. स्वो. टी. २१) । ३. अनुभागो विपाकस्तीवादिभेदो रस इत्यर्थः । तस्य बन्धोऽनुभागबन्धः । ( अभिधा. रा. १, पृ. ३६६ ) । जिस प्रकार लड्डू में स्निग्ध व मधुर श्रादि रस एकगुणे, दुगुणे व तिगुणे श्रादि रूप से रहता है उसी प्रकार कर्म में भी जो देशघाती व सर्वघाती, शुभ व अशुभ तथा तीव्र व मन्द श्रादि रस (अनुभाग) होता है उसका नाम अनुभागवन्ध है । अनुभागबन्धस्थान - तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानम्, अनुभागबन्धस्य स्थानमनुभागबन्धस्थानम्; एकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षित समयबद्ध र ससमुदायपरिणाममित्यर्थः । ( प्रव. सारो. वृ. १०५१) ।
'तिष्ठति अस्मिन् जीवः इति स्थानम्' इस निरुक्ति के अनुसार जीव जहां रहता है उसका नाम स्थान है | अनुभागबन्ध का जो स्थान है वह अनुभागबन्धस्थान कहलाता है। अभिप्राय यह है कि किसी कषायरूप एक परिणाम के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों के विवक्षित एक समय में बाँधे गये रससमुदाय को अनुभागबन्धस्थान जानना चाहिए । अनुभागमोक्ष - श्रोकडिदो उक्कडिदो ग्रण्णपर्याs संकामिदो अधट्टिदिगलणाए णिज्जिण्णो वा अणुभागो श्रणुभागमोक्खो । ( धव. पु. १६, पृ. ३३८ ) । पकर्षित, उत्कर्षित, संक्रामित या श्रधः स्थितिगलन के द्वारा निर्जीर्ण अनुभाग को अनुभाग-मोक्ष कहते हैं ।
अनुभागविपरिणामना - १. श्रोकडिदो वि उक्कडिदो विपर्याड णीदो वि अनुभागो विपरि णामिदो होदि । एदेण अट्ठपदैण जहा अणुभागसंकमो तहा णिरवयवं अणुभागविपरिणामणा कायव्वा । ( धव. पु. १५, पृ. २८४ ) । २. तथा विविधैः प्रकारैः कर्मणां सत्तोदय-क्षय-क्षयोपशमोद्वर्त्तनापवर्त्तनादिभि
अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्थानों को बांधने का रेतद्रूपतयेत्यर्थः, गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्य-क्षेत्रादिनाम अनुभागदीर्घ है । अनुभागबन्ध देखो अनुभव व अनुभाग । १. तस्यैव मोदकस्य यथा स्निग्ध-मधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भवति एवं कर्मणोऽपि देश सर्वघाति शुभाशुभ तीव्र मन्दादिरनुभागबन्ध: । ( स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २९६ ) । २. कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा यो रसः सोऽनुभाग
भिर्वा करणविशेषेण वाऽवस्थान्तरापादनं विपरिणामना । इह च विपरिणामना बन्धनादिषु तदन्येष्वप्युदयादिष्वस्तीति सामान्यरूपत्वाद् भेदेनोक्तेति । XXX प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमादयोऽपि सामान्यविपरिणामनोपक्रमलक्षणानुसारेणावबोद्धव्याः ( स्थाना. अभय वृ. ४, २, २ε६) ।
१ अपकषित, उत्कर्षित अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त
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अनुभागविभक्ति] ७६, जैन-लक्षणावली
[अनुभावबन्ध कराया गया भी अनुभाग विपरिणामित (विपरि- अनुभागहस्व-सव्वासि पयडीणं अप्पप्पणो जहणामना युक्त) होता है। प्रतः अनुभागविपरिणामना ण्णाणुभागट्ठाणं बंधमाणस्स अणुभागरहस्सं । (धव. को अनुभागसंक्रम जैसा ही समझना चाहिए। पु. १६, पृ. ५११)। अनभागविभक्ति-तस्स अणुभागस्स विहत्ती जीव के द्वारा बांधा गया जो सब प्रकृतियों का भेदो पबंधो जम्हि अहियारे परूविज्जदि सा अणु- अपना जघन्य अनुभागस्थान है उसे अनुभागह्रस्व भागविहत्ती णाम । (जयध. ५, पृ. २)।
कहते हैं। जिस अधिकार में कर्मों के अनुभागगत भेद या अनुभागोदीरणा तथैव (वीर्यविशेषादेव) प्राप्तोउसके विस्तार का वर्णन किया जाय उसे अनुभाग- दयेन रसेन सहाप्राप्तोदयो रसो यो वेद्यते साऽनुविभक्ति नामका अधिकार कहते हैं।
भागोदीरणेति । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २६६ अनुभागसत्कर्मस्थान-जमणुभागट्ठाणं घादिज्ज- पृ. २१०)। माणं बन्धाणुभागट्ठाणेण सरिसं ण होदि, बन्ध- वीर्य विशेष से उदय को प्राप्त हुए रस के साथ जो अट्रक-उव्वंकाणं विच्चाले हेट्रिमउव्वंकादो अणंत- अनुदयप्राप्त रस का वेदन होता है उसे अनुभागोगुणं उवरिमअट्ठकादो अणंतगुणहीणं होदूण चेदि दीरणा कहते हैं। तमणुभागसंतकम्मट्ठाणं णाम । (धव. पु. १२, पृ. अनुभाव-देखो अनुभव । १. विपाकोऽनुभावः । ११२)।
(श्वे. त. सू. ८-२२)। २. सर्वासां प्रकृतीनां फलं जो घाता जाने वाला अनुभागस्थान बन्धानुभाग-स्थान विपाकोदयोऽनुभावः । (त. भा. ८-२२)। ३. अनुके सदृश नहीं होता, किन्तु बन्ध सम्बन्धी अष्टांक भावो यो यस्य कर्मणः शुभोऽशुभो वा विपाकः । और ऊर्वक के मध्य में अर्थात् अनन्तगुण वृद्धि और (उत्तरा. चू. ३३, पृ. २७७) । ४. विपचनं विपाक: अनन्तभाग वृद्धि के अन्तराल में अघस्तन ऊर्वक से -उदयावलिकाप्रवेशः, कर्मणां विशिष्टो नानाअनन्तगणित और उपरिम अष्टांक से अनन्तगुणहीन प्रकारो वा पाको विपाकः, अप्रशस्तपरिणामानां होकर अवस्थित होता है उसे अनुभागसत्कर्मस्थान तीव्रः शुभपरिणामानां मन्दः । यथोक्तकर्मविशेषानुकहते हैं।
भवनम् अनुभावः । XXXअथवाऽऽत्मनाऽनुभूयते अनुभागसंक्रम-१. अणुभागो प्रोकड्डिदो वि येन करणभूतेन बन्धेन सोऽनुभावबन्धः । (त. भा. संकमो, उक्कडिदो वि संकमो, अण्णपडि णीदो सिद्ध. वृ. ८-२२)। ५. अनुभावो विपाकस्तीवादिवि संकमो । (क. पा. चू. पृ. ३४५; जयध. भा. ५, भेदो रसः । (समवा. अभय. वृ. सू. ४)। पृ. २; धव. पु. १६, पृ. ३७५) । २. अणुभागो देखो अनुभव । णाम कम्माणं सगकज्जुप्पायणसत्ती, तस्स संकमो अनुभावबन्ध-देखो अनुभागबन्ध । १. अध्यवसहावंतरसंकंती। सो अणुभागसंकमो त्ति वुच्चइ। सायनिवर्तित: कालविभाग: कालान्तरावस्थाने सति (जयध. ६, पृ. २)। ३. तत्थट्ठपयं उव्वट्टिया व विपाकवत्ता अनुभावबन्धः समासादितपरिपाकावप्रोवट्रिया व अणुभागा। अणुभागसंकमो एस अन्न- स्थस्य बदरादेरिवोपभोग्यत्वात् सर्व-देशघात्येक-द्विपगई णिया वावि । (कर्मप्र. संक्रमक. ४६)। त्रि-चतु:स्थानशुभाशुभतीव्र-मन्दादिभेदेन वक्ष्यमाणः । ४. उर्तिताः प्रभूतीभूता यद्वाऽपवर्तिता ह्रस्वीकृता (त. भा. सिद्ध. ब. ८-४)। २. अनुभावबन्धो यस्य अथवा अन्यां प्रकृति नीता अन्यप्रकृतिस्वभावेन यथाऽऽयत्यां विपाकानुभवनमिति । (श्रावकप्र. टी. परिणमिता अविभागा अनुभागाः, एष सर्वोऽप्यनु- गा. ८)। ३. तस्यैव च स्निग्ध-मधुराधेक-द्विगुणाभागसंक्रमः। (कर्मप्र. मलय. व. सं. क. ४६)। दिभावोऽनुभावः । यथाह-तासामेव विपाकनिबन्धो ५. पदग्रहप्रकृत्यनुयायिरसापादनं त्वनुभागसंक्रमः। यो नामनिर्वचनभिन्नः । स रसोऽनुभावसंज्ञस्तीवो (पंचसं. मलय. वृ. संक्रम. गा. ३३)।
मन्दोऽथ मध्यो वा ॥ (त. भा. हरि. वृ. ८-४) । १ अनुभाग का जो अपकर्षण, उत्कर्षण अथवा अन्य ४. अनुभावबन्धस्तु-कृतस्थितिकस्य स्वस्मिन् काले प्रकृति रूप परिणमन होता है उसे अनुभागसंक्रम परिपाकमितस्य वा या ऽनुभूयमानावस्था शुभाशुभा
कारेण घृत-क्षीर-कोशातकीरसोदाहुतिसाम्यात् सोऽनु
कहते हैं।
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अनुभाषणाशुद्ध प्रत्याख्यान] ७७, जैन-लक्षणावली
[अनुमान भावबन्धः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३); अनुभूयते कार्य को न स्वयं करता है, न कराता, किन्तु करते येन करणभूतेन बन्धेन सोऽनुभावबन्धः। (त. भा. हुए की मन से अनुमोदना या प्रशंसा करता है। इसे सिद्ध. वृ. ८-२२)। ५. अनुभावो विपाकस्तीवा- अनुमत कहते हैं। दिभेदो रसस्तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः । (समवा. अनुमतिविरत-१. जो अणुमणणं ण कुणदि अभय. वृ. ४; स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २६६); गिहत्थकज्जेसु पावमूलेसु । भवियव्वं भावंतो अणुकर्मणो देश-सर्वघातिशुभाशुभतीव्रमन्दादिरनुभाव- मणविरो हवे सो दु ॥ (कार्तिके. ३८८)। बन्धः । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २६६)। ६. अनु- २. अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। भावबन्धस्तूच्यते-तत्र शुभाशुभानां कर्मप्रकृतीनां नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः॥ प्रयोगकर्मणोपात्तानां प्रकृति-स्थिति-प्रदेशरूपाणां तीव्र- (रत्नक. ५-२५)। ३. अनुमतिविनिवृत्त आहामन्दानुभावतयाऽनुभवनमनुभावः । स चैक-द्वि-त्रि- रादीनामारम्भाणामनुमननाद् विनिवृत्तो भवति । चतुःस्थानभेदेनानुगन्तव्यः । (प्राचारांग शी. वृ. (चा. सा. पृ. १९)। ४. सर्वदा पापकार्येषु कुरुते२, १, गा. १६२-६३, पृ. ८७)।
ऽनुमति न यः । तेनानुमननं युक्तं भण्यते बुद्धिदेखो अनुभागबन्ध।
शालिना ॥ (सुभा. रत्न. ८४२) । ५. त्यजति योअनुभाषणाशुद्ध प्रत्याख्यान-१. अणुभासदि ऽनुमति सकले विधौ विविधजन्तूनिकायवितायिनि । गुरुवयणं अक्खर-पद-वंजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धी- हुतभुजीव विबोधपरायणो बिगलितानुमतिं निगदन्ति सुद्धं एवं अणुभासणासुद्धं ॥ (मूला. ७-१४४)। तम् ।। (धर्मप. २०-६१)। ६. प्रारम्भसन्दर्भविअणुभासइ गुरुवयणं अक्खर-पद-वंजणेहिं परिसुद्धं । हीनचेता: कार्येषु मारीमिव हिंस्ररूपाम् । यो धर्मपंजलिमउडो ऽभिमुहो तं जाण अणुभासणासुद्धम् ।। सक्तोऽनुमति न धत्ते निगद्यते सोऽननमन्तमख्यः ।। (प्राव. भा. २५३) ।
(अमित. श्रा. ७-७६)। ७. पुट्ठो वा पुट्ठो वा णियजो गुरु के द्वारा उच्चारित प्रत्याख्यान सम्बन्धी गेहिं परेहिं च सगिहकज्जम्मि । अणुमणणं जो ण अक्षर (एक स्वर युक्त व्यंजन), पद और व्यंजन कुणइ वियाण सो सावओ दसमो॥ (वसु. श्रा. (खण्डाक्षर, अनुस्वार व विसर्जनीय प्रादि); ये ३००)। ८. नवनिष्ठापरः सोऽनुमतिव्युपरतः सदा। जिस क्रम से अवस्थित हैं उसी क्रम से उनका अनु- यो नानुमोदेत ग्रन्थमारम्भं कर्म चैहिकम् ॥ (सा.ध. वाद रूप से घोषशुद्ध उच्चारण करना; इसका ७-३०)। ६. स एव यदि पृष्टो ऽपृष्टो वा निजः नाम अनुभाषणाशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
परैर्वा गृहकार्येऽनुमतिं न कुर्यात्तदाऽनुमतिविरत इति अनुभूतत्व-अशेषविशेषतः पुनः पुनश्चेतसि तत्स्व- दशमः श्रावको निगद्यते । (त. सुखबो. वृ. ७-३९)। रूपाभिभावनमनुभूतत्वम् । (त. ब. श्रुत. १-६)। १०. ददात्यनुमति नैव सर्वेऽबैहिककर्मसु । भवत्यनविवक्षित वस्तुस्वरूप का तदन्तर्गत समस्त विशेषों मतत्यागी देशसंयमिनां वरः ॥ (भावसं. वाम, के साथ चित्त में बार बार अनुभव करने को अनु- ५४२)। ११. यो नानुमन्यते ग्रन्थं सावधं कर्म भूतत्व कहते हैं।
चैहिकम् । नववृत्तधरः सोऽनुमतिमुक्तस्त्रिधा भवेत् ॥ अनभ्रष्ट-दर्शनाद भ्रष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधी- (धर्मसं. श्रा. ८-५०)। १२. व्रतं दशमस्थानस्थयते । न हि चारित्रविभ्रष्टो म्रष्ट इत्युच्यते बुधैः ॥ मननुमननाह्वयम् । यत्राहारादिनिष्पत्तौ देया नानु(वराङ्ग २६-६६)।
मतिः क्वचित् ॥ (लाटीसं. ७-४४)। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हुआ जीव ही वास्तव में अनु- १ जो समबुद्धि श्रावक प्रारम्भ, परिग्रह और ऐहिक भ्रष्ट कहलाता है।
कार्यों में पूछे जाने पर अनुमति नहीं देता है उसे अनुमत-१. स्वयं न करोति, न च कारयति; अनुमतिविरत कहते हैं। किन्त्वभ्युपैति यत्तदनुमननम् । (भ. प्रा. विजयो. अनुमान-१. साध्याविनाभुनो लिङ्गात्साध्यनि८१) । २. प्रयोजकस्य मनसाऽभ्युपगमनमनुमतम् । रचायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तम् xxx॥ (चा. सा. पृ. ३९); अनुमतमनुज्ञातं Xxxi (न्यायाव. ५)। २. लिङ्गात्साध्याविनामावाभि(प्राचा. सा. ५-१५)।
निबोधकलक्षणात् । लिङ्गिधीरनुमानम् Xxx।
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अनुमान]
७८, जैन-लक्षणावली
[अनुमापित
(लघीय. १२)। ३. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं शब्दः ।। सिद्धः श्रावणः शब्द इति ।। बाधितः प्रत्यतदत्यये। विरोधात् क्वचिदेकस्य विधान-प्रतिषेधयोः॥ क्षानुमानागम-लोक-स्ववचनैः ।। (परीक्षा. ६, ११ से (न्यायवि. १७०-७१)। ४. इह लिङ्गज्ञानमनुमानम् । १५)। २. पक्षाभासादिसमुत्थं ज्ञानमनुमानाभासXXXअथवा ज्ञापकमनुमानम् । (नन्दी. हरि. मवसेयम् । (प्र. न. त. ६-३७)। व. प. ६२)। ५. अनुमीयतेऽनेनेत्यनुमानम् । (अनुयो. पक्ष न होकर पक्ष के समान प्रतीत होने वाले पक्षाहरि. व. पु. ६)। ६. साधनात्साध्यविज्ञानमनु- भास (अनिष्ट, सिद्ध व प्रत्यक्षादिवाधित साध्य मानं विदुर्बुधाः । प्राधान्य-गुणभावेन विधान-प्रति- युक्त धर्मी) आदि से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को षेधयोः ।। (त. श्लो. १, १२, १२०)। ७. साधना- अनुमानाभास कहते हैं। त्साध्यविज्ञानमनुमानम् । (परीक्षा. ३-१४; प्र. मो. अनुमानित दोष-१. प्रकृत्या दुर्बलो ग्लानोऽहं १, २, ७; न्या. दी. पु. ६५; जैनत. पृ. १२१)। उपवासादि न कर्तुमलम्, यदि लघु दीयेत ततो दोष८. साधनं साध्याविनामावनियमलक्षणम्, तस्मान्नि- निवेदनं करिष्यते इति वचनं द्वितीयो (अनुमानितो) श्चयपथप्राप्तात् साध्यस्य साधयितुं शक्यस्याप्रसिद्ध- दोषः । (त. वा. ६,२२, १)। २. यदि लघु मे शक्त्यस्य यद्विज्ञानं तदनुमानम् । (प्रमाणनि. पृ. ३६)। पेक्षं किंचित् प्रायश्चित्तं दीयते तदाहं दोषं निवेद8. साध्याभावासम्भवनियमनिश्चयलक्षणात्साधना- यामीति दीनवचनम् । (त. श्लो. ह-२२) । देव हि शक्याभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव ३. अणुमाणिय-गुरोरभिप्रायमुपायेन ज्ञात्वालोयद्विज्ञानं तदनुमानम् । (प्र. क. मा. ३-१४, चना । (भ. प्रा. धिजयो. ५६२)। ४. अनुमानितं पृ. ३५४) । १०. अन्तर्व्याप्त्याऽर्थप्रसाधनमनुमानम्। शरीराहारतुच्छबलदर्शनेन दीनवचनेनाचार्यमनु(बहत्स. प. १७५)। ११. अन्विति लिङ्गदर्शन- मान्यात्मनि करुणापरमाचार्य कृत्वा यो दोषमात्मीयं सम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चात्, मानं ज्ञानमनुमानम् । निवेदयति तस्य द्वितीयो ऽनुमानितदोषः। (मला. एतल्लक्षणमिदम् – साध्याविनाभुवो लिङ्गात् साध्य- वृ. ११-१५)। ५. प्रकृत्या पित्ताधिकोऽस्मि, दुर्बलोनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानमभ्रान्तम् xxxb ऽस्मि, ग्लानोऽस्मि, नालमहमुपवासादिकं कर्तुम् । (स्थाना. अभय. व. ४, ३, ३३८, पृ. २४६)। यदि लघु दीयेत तद्दोषनिवेदनं करिष्य इति वचनं १२. अविनाभावनिश्चयाल्लिगाल्लिगिज्ञानमनुमा- द्वितीयोऽनुमापितदोषः । (चा. सा. पृ. ६१)। नम् । (प्रा. चु. १ अ.)। १३. दृष्टादुपदिष्टाद्वा ६. तप:शूर-स्तवात् तत्र स्वाशक्त्याख्यानुमापितम् ।। साधनाद्यत्साध्यस्य विज्ञानं सम्यगर्थनिर्णयात्मकं तद- (अन. ध.७-४०); तथा भवत्यनुमापितं नामानमीयतेऽनेनेत्यनुमानं लिङ्गग्रहण-सम्बन्धस्मरणयोः लोचनादोषः, गुरुः प्रार्थितः स्वल्पप्रायश्चित्तदानेन पश्चात्परिच्छेदनम् । (प्र. मी. १, २, ७)। १४. ममानुग्रहं करिष्यतीत्यनुमानेन ज्ञात्वा स्वापराधलिङ्गिज्ञानमनमानम्, स्वार्थमित्यर्थः । XXX प्रकाशनात् । Xxx (अन. ध. स्वो. टी. ७, अथवा ज्ञापकमनुमानम् । (उप. प. वृ. ४८)। ४०)। ७. ग्लानः क्लेशासहोऽस्म्यल्पं प्रायश्चित्तं १५. अनु पश्चात् लिङ्गसम्बन्धग्रहण स्मरणानन्तरम्, ममाप्यते। चेद्दोषाख्यां करिष्यामीत्यादि: स्यादनमीयते परिच्छिद्यते देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टोऽर्थो- मापितम् ।। (प्राचा. सा. ६-३०)। ८. अनमान्य ऽनेन ज्ञानविशेषेण इत्यनुमानम् । (स्या. मं. २०)। अनुमानं कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनादिना लघुदण्ड१६. लिङ्ग-लिङ्गि सम्बन्धस्मरणपूर्वकं ह्यनुमानम्। प्रदायकत्वादिस्वरूपमाचार्यस्याकलय्य पालोचयत्येष. द. स. टीका पृ. ४१) । १७. साध्यार्थान्यथानु- षोऽनुमानित आलोचनादोषः । (व्यव. सू. भा. मलय. पपन्नहेतुदर्शन-तत्सम्बन्धस्मरणजनितत्वं अनुमानम्। वृ १, ३४२) । ६. अनुमानितं वचनेनानुमान्य (धर्मसं. मलय. वृ. १२६)।
आलोचनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। १ साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले छोटे से अपराध को प्रगट करके गुरु के दण्ड देने साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। की उग्रता-अनुग्रता का अनुमान करके बड़े दोषों अनुमानाभास-१. इदमनुमानाभासम् ॥ तत्रा- को पालोचना करने को अनमामित दोष कहते हैं। निष्टादिः पक्षाभासः ।। अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः अनुमापित-देखो अनुमानित ।
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अनुमेय]
७६, जैन-लक्षणावली . [अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान अनुमेय-अनुमेयाः अनुमानगम्याः । अथवा अनुगतं अथवा अभिधेये व्यापारः सूत्रस्य योगः, अनुकूलोमेयं मानं येषां तेऽनुमेयाः प्रमेयाः । (प्रा.मी. वसु.५)। ऽनुरूपो वा योगोऽनुयोगः । यथा घटशब्देन घटस्य अनुमान से जानने योग्य अथवा प्रमेय (प्रमाण की प्रतिपादनमिति । (प्राव. मलयवृ. नि. १२७) । विषयभूत) वस्तु को अनुमेय कहते हैं।
११. सूत्रपाठानन्तरमनु पश्चात् सूत्रस्यार्थेन सह अनुमोदना-१.xxx अणुमोयण कम्मभोयण- योगो घटना अनुयोगः, सूत्राध्यनात्पश्चादर्थकथनमिति पसंसा। (पिण्डनि. गा. ११७)। २. अनुमोदना भावना। यद्वाऽनुकूलः अविरोधी सूत्रस्यार्थेन सह त्वाधाकर्मभोजकप्रशंसा–कृतपुण्याः सुलब्धिका एते, योगो ऽनुयोगः। (जीवाजी. मलय. वृ. पृ. २) । ये इत्थं सदैव लभन्ते भुञ्जन्ते वेत्येवंस्वरूपा। १२. तत्र चानुगतमनुरूपं वा श्रुतस्य स्वेनाभिधेयेन (पिण्डनि. मलय. वृ. ११७)।
योजनं सम्बन्धनं तस्मिन् वानुरूपोऽनुकूलो वा योगः प्राधाकर्मदूषित भोजन के करने वाले साधु की श्रुतस्यैवाभिधानव्यापारो ऽनुयोगः । (उत्तरा. शा. वृ. प्रशंसा करना; इसका नाम अनुमोदना है। पृ. ४)। १३. अनुयोजनमनुयोगः सूत्रस्यार्थेन सह अनुयोग-१. अणुणा जोगो अणुजोगो अणु पच्छा- सम्बन्धनम्, अथवा ऽनुरूपो ऽनुकूलो बा योगो व्याभावो य थेवे य । जम्हा पच्छाऽभिहियं सुत्तं थोवं पारः सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपोऽनुयोगः । (जम्बूद्वी. च तेणाणु ॥ (बृहत्क. १, गा. १६०)। २. अणु- शान्ति. वृ. पृ. ४) । जोयणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेणं । वा- १ अनु का अर्थ पश्चाभाव या स्तोक होता है। वारो वा जोगो जो अणुरूवो ऽणुकूलो वा ।। (विशेषा. तदनुसार अर्थ के पश्चात् जायमान या स्तोक सूत्र के १३८३)। ३. सूत्रस्यार्थेन अनुयोजनमनयोगः । साथ जो योग होता है उसे अनयोग कहते हैं। अथवा अभिधेयो व्यापारः सूत्रस्य योगः, अनुकूलो- १० अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की अनुरूपो वा योगोऽनुयोगः। (प्राव. हरि. वृ. नि. जाती है उसका नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र का १३०; समवा. अभय. वृ. १४७)। ४. अणुप्रोगो अपने अभिधेय में जो योग (व्यापार) होता है उसे य नियोगो भास विभासा य वत्तियं चेव । अनयोग जानना चाहिए। एदे अणुप्रोगस्स उ नामा एयट्ठिया पंच ॥ अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान- १. जत्तिएहि पदेहि (प्राव. नि. १२८; वृहत्क. १-१८७) । ५. अनु- चोद्दसमग्गणाणं पडिबद्धेहि जो अत्थो जाणिज्जदि, योगो नियोगो भाषा विभाषा वात्तिकेत्यर्थः । तेसि पदाणं तत्थप्पण्णणाणस्य य अणियोगो त्ति (धव. पु. १, पृ. १५३-५४)। ६. किं कस्य केन सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. २४); पुणो एत्थ (पडिवकस्मिन् कियच्चिरं कतिविधमिति प्रश्नरूपोऽनुयोगः। त्तिसमासे) एगवखरे वड्ढिदे अणियोगद्दारसुदणाणं (न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०२) । ७. अनुयोजनमनुयोग: होदि । (धव. पु. १३, पृ. २६९); पाहुडपाहुडस्स सूत्रस्याथन सह सम्बन्धनम् । अथवा अनुरूपो अनुकूलो जे अहियारा तत्थ एक्केक्कस्स अणियोगद्दारमिदि वा यो योगो व्यापारः सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूप: सो- सण्णा । (धव. पु. १३, पृ. २६६) । २. चउगइसऽनुयोग इति । (स्थानांग अभय. व. प. ३); अन- रूवरूवयपडिवत्तीदो द उवरि पव्वं वा । वण्णे संखेज्जे रूपोऽनुकूलो वा सूत्रस्य निजाभिधेयेन सह योग पडिवत्तीउड्ढम्हि अणियोगं ।। चोदसमग्गणसंजुद इत्यनुयोगः । (स्थानांग अभय. वृ. ४, १, २६२, अणियोगंxxx । (गो. जी. ३३६-४०) । पृ. २००)। ८. यद्वा अर्थापेक्षया अणोः लघोः ३. चतुर्गतिस्वरूपप्ररूपकप्रतिपत्तिकात्परं तस्योपरि पश्चाज्जाततया वा अनु-शब्दवाच्यस्य यो ऽभिधे यो प्रत्येकमेकैकवर्ण वृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रषु पद-संधायोगो व्यापारस्तत्सम्बन्धो वा अणुयोगो ऽनुयोगो त-प्रतिपत्तिकेष वृद्धेष रूपोनतावन्मात्रेषु प्रतिप्रत्तिकवेति । आह च--ग्रहवा जमत्थो थोव-पच्छभा- समासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमस्य प्रतिपत्तिवेहिं सुअमणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं व कसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्ध संबंधो ।। (जम्बूद्वी. शान्ति. वृ. पृ. ५) । ६. तत्रा- सति अनुयोगाख्यं श्रुतज्ञानम् । (गो. जी. म. प्र. नुकल: सूत्रस्यार्थेन योगोऽनुयोगः । (बृहत्क. वृ. टी. ३३६)। ४. इत्याद्यनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकम१८७)। १०. सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोगः। नुयोगद्वारम् । (कर्मवि. दे. स्वो. टी. गा. ७)।
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अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान ]
[अनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धि
१ चौदह मार्गणात्रों से सम्बद्ध जितने पदों के द्वारा जो अर्थ जाना जाता है उन पदों की और उनसे उत्पन्न ज्ञान की 'अनुयोगद्वार' यह संज्ञा है । प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के होने पर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है। प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान के जितने अधिकार होते हैं उनमें प्रत्येक का नाम श्रनुयोगद्वार है । अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान -- १, तस्स (अणियोगस्स) उवरि एगक्खरसुदणाणे वड्ढिदे श्रणियोगसमासो होदि । ( धव. पु. ६. पू. २४); अणियोगद्दारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे प्रणियोगद्दार - समासो णाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगुत्तरक्खर - वड्ढी अणियोगद्दारसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणपाहुडपाहुडे त्ति । (धव. पु.१३, पृ. २७० ) । २. तद्द्वयादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासाः | (कर्मवि. दे. स्वो. टी. गा. ७) । श्रनुयोगद्वार श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान होता है । इसी प्रकार से श्रागे उत्तरोत्तर एक-एक प्रक्षर की वृद्धि होने पर एक अक्षर से हीन प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान तक सब विकल्प श्रनुयोगद्वारसमास के होते हैं । अनुयोगसमासावररणीय कर्म - प्रणियोगसमाससुदणाणस्स संखेज्जवियप्पस्स जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावरणं तमणियोगसमासावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २७८ ) ।
इन्द्रियों को श्रानन्द उत्पन्न करने वाले अनुकूल सुनने योग्य काकलि गीत आदि विषयोंको अनुलोम कहते हैं । अनुवाद - प्रसिद्धस्याऽऽचार्य परम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चाद्वादोऽनुवादः । ( धव. पु. १, पू. २०१ ) | प्राचार्य परम्परागत प्रसिद्ध अर्थ का पीछे उसी प्रकार से कथन करना, इसका नाम अनुवाद है । अनुबी चिभाषण - १. अनुवीचिभाषणं निरवद्यानु भाषणम् । ( स. सि. ७-५) । २. अनुवीचिभाषण - मनुलोमभाषणमित्यर्थः । XXX विचार्य भाषणमनुवीचिभाषणमिति वा । (त. बा. ७-५; सुखबो. ७- ५ ) । ३. अनुकूलवचनं विचार्य भणनं वा निरवद्यवचनमनवीचिभाषणमित्युच्यते । (त. सुखबो. वृत्ति ७ - ५ ) । ४. वीची वाग्लहरी, तमनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचीभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचीभाषा । (चा. प्रा. टी. ३२ ) । ५. अनुवीचिभाषणं विचार्य भाषणमनवद्यभाषणं वा पञ्चमम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-५) ।
१ जिनागम के अनुसार निरवद्य वचन बोलने को अनुवीचिभाषण कहते हैं । अनुशिष्टि - १. अणुसिट्ठी सूत्रानुसारेण शासनम् । ( भ. प्रा. विजयो. ६८ ) । २. अनुशासनं शिक्षणं निर्यापकाचार्यस्य । (भ. प्रा. विजयो. ७० ); श्रणुसिट्ठी सूत्रानुसारेण शिक्षादानम् । ( भ. प्रा. मूला. टी. २ - ६८ ) । ३. अणुसिट्टी निर्यापकाचार्येणाराधकस्य शिक्षणम् । (भ. प्रा. मूला. ७०; श्रन. ध. Fat. t. 19-58) I
संख्यात विकल्पस्वरूप अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान के आच्छादित करने वाले कर्म को अनुयोगद्वारसमासावरणीय कहते हैं ।
अनुयोगावरणीय कर्म – प्रणियोगसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तमणियोगावरणीयकम्मं । ( धव. पु. १३, पृ. २७८ ) ।
३ निर्यापकाचार्य के द्वारा प्राराधक को जो सूत्रानुसार शिक्षा दी जाती है उसे अनुशिष्टि कहते हैं । श्रनुश्रेणि - १. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पंक्तिः श्रेणि रित्युच्यते । अनुशब्दस्य अनुपूर्व्येण वृत्तिः श्रेणेरानु
२६, १-२ ) । २. श्राकाशप्रदेशपंक्ति श्रेणिः ॥ १ ॥ XXX श्रनोरानुपूर्व्ये वृत्तिः ॥ २॥ (त. वा. २ - २६; त. इलो. २ - २६ ) ।
अनुयोग श्रुतज्ञान को रोकने वाला कर्म अनुयोगाव- पूर्व्येणानुश्रेणीति । ( स. सि. २- २६; त. वा. २, रणीय कहलाता है । अनुलोम – १. XXX अणुलोमोऽभिपेनो X X X ॥ सव्वा श्रसहजुत्ती गंधजुत्ती य भोयणविही य । रागविहि गीय-वाइयविही अभिप्पेयमणुलोमो || (उत्तरा. नि. १, ४३-४४ ) । २. अनुलोमं मनोहारि । ( दशवं. हरि. वृ. ७ - ५७ ) । ३. 'अनुलोम' इन्द्रियाणां प्रमोदहेतुतया श्रनुकूलश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्र ेतः । (उत्तरा. नि. वू. १ - ४३ ) ।
लोक के मध्य भाग से लेकर ऊपर, नीचे श्रौर तिरछे रूप में जो श्राकाशप्रदेशों की पंक्ति अनुक्रम से अवस्थित है उसे अनुश्रेणि कहते हैं । श्रनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धि-तत्रादिपदस्यार्थं ग्रन्थं च परत उपश्रुत्य श्रा अन्त्यपदादर्थ- ग्रन्थविचारणा
८०, जैन-लक्षणावली
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अनुसन्धना ]
समर्थ पटुतरमतयोऽनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धयः । (योगशा. स्वो विव. १-८, पू. ३८ ) । दूसरे से प्रथम पद के अर्थ और ग्रन्थ को सुनकर अन्तिम पद तक अर्थ और ग्रन्थ के विचार में समर्थ श्रतिशय निपुण बुद्धि वाले अनुश्रोतः पदानुसारि बुद्धि ऋद्धि के धारक कहे जाते हैं । अनुसन्धना - तस्सेव पसंत रणट्टस्सऽणुसंघणा घडणा ॥ (श्राव. नि. ७०१ ) । प्रदेशान्तर में नष्ट हुए सूत्र, अर्थ और उभय को संघटित करना - मिलाना, इसका नाम अनुस धना है ।
८१, जैन- लक्षणावली
अनु समयापवर्तना (प्रणुसमप्रवट्टरणा ) - जो ( घादो) पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमप्रवट्टणा । ( धव. पु. १२, पृ. ३२ ) । जो अनुभाग का घात उत्कीर्णकाल के बिना एक ही समय में होता है उसका नाम अनुसमयाप वर्तना है ।
अनुसारी ( पदानुसारी) ऋद्धि - १. श्रादि श्रव - साण - मज्भे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं । गेह्विय उवरिमगंथं जा गेहृदिसा मदी हु अणुसारी ॥ ( ति. प. ४ - ६८१ ) । २. उवरिमाणि चेव जाणंती प्रणुसारीणाम : ( धव. पु. ६, पृ. ६० ) । गुरु के उपदेश से किसी भी ग्रन्थ के श्रादि, मध्य यान्त के एक बीजपद को सुनकर उसके उपरिवर्ती समस्त ग्रन्थ के जान लेने को अनुसारी ऋद्धि कहते हैं । अनुसूरिगमन - १. अणुसूरीपूर्वस्या दिश: पश्चिमाशागमनं क्रूरातपे दिने । (भ. प्रा. विजयो. २२२ ) । २. अनुसूरिम् अनुसूर्यम् —सूर्य पश्चात्कृत्य – गमनम् । ( ६. श्रा. मूल. २२२) ।
तीक्ष्ण श्रातप युक्त दिन में पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर गमन करना, यह अनुसूरिगमन (अनुसूर्य) कायक्लेश कहलाता है । श्रनुस्मरण - पूर्वानुभूतानुसारेण विकल्पनमनुस्मरणम् । (त. वा. १, १२, ११) । पूर्व अनुभव के अनुसार विचार करना, इसका नाम अनुस्मरण है । अनूचान - १. श्रुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे । यस्योच्चैः सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकील. ११
[ अनृत
तितः ॥ ( उपासका ८६८ ) । २. अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती XX X। ( अमरकोश २, ७, १०) । जिसका उन्नत चित्त सदा श्रुत, व्रत, त्याग, संयम, नियम और यम में लगा रहता है; उसे अनूचान कहते हैं ।
अनूढा - १. अनुरक्ते सुरक्तेन स्वीकृते स्वयमेव ये । अनूढा परकीये ते भाषिते शिथिलव्रते । ( श्रलं . चि. म. ५ - ९२ ) । २. अनुरक्तानुरक्तेन स्वयं या स्वीकृता भवेत् । सानूढेति यथा राज्ञो दुष्यन्तस्य शकुन्तला ॥ ( वाग्भटा. ५-७२ ) ।
जो अविवाहित अनुरक्त स्त्री अनुरक्त पुरुष के द्वारा [बिना माता-पिता की स्वीकृति के ] स्वयं स्वीकार की जाती है वह अनूढा कही जाती है। जैसे— राजा दुष्यन्त के द्वारा शकुन्तला । अनूपक्षेत्र - १. अनूपक्षेत्रं नाम मगध- मलय-वानवास - कौंकण सिन्धुविषय- पूर्वदेशादि यत्र पानीयं प्रचुरमस्ति । ( प्राय. स. टी. ६) । २. नद्यादिपानीयबहुलोऽनूपः । XX X यद्वा अनूपोऽजङ्गलः । बृहत्क वृत्ति १०६१) । ३. अनूपदेशे सजले देशे । ( व्य. सू. मलय. वृ. ४-६० ) । ४. जलप्रायमनूपं स्यात् । (श्रमरकोश २, ९, १० ) ।
१ जहां पानी प्रचुरता से हो ऐसे मगध, मलय, वानवास, कोंकण और सिन्धु आदि देशों को अनूप क्षेत्र कहते हैं ।
अनृत - १. असदमिधानमनृतम् । (त. सू. ७-१४ ) । २. सच्छब्दः प्रशंसावाची । न सदसत्, अप्रशस्तमिति यावत् । असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम् । ऋतं सत्यम्, न ऋतमनृतम् । ( स. सि. ७-१४) । ३. प्रसदिति सद्भावप्रतिषेघोऽर्थान्तरं गर्हा च । तत्र सद्भावप्रतिषेधो नाम भूतनिह्नवः प्रभूतोद्भावनं च । तद्यथा - नास्त्यात्मा, नास्ति परलोक इत्यादि भूतनिह्नवः । श्यामाकतन्दुलमात्रोऽयमात्मा, आदित्यवर्णः निष्क्रिय इत्येवमाद्यभूतोद्भावनम् । श्रर्थान्तरं यो गां ब्रवीत्यश्वम् अश्वं च गौरिति । गर्हति हिंसा - पारुष्य- पैशून्यादियुक्तं वचः सत्यमपि गर्हितमेव भवतीति । ( त. भा. ७-९ ) । ४. ऋतं सत्यार्थे । ऋतमित्येतत् पदं सत्यार्थे द्रष्टव्यम् । सत्सु साधु सत्यम्, प्रत्यवायकारणानिष्पादकत्वात् । न ऋतमनृतम् । (त. वा. ७, १४, ४) ।
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अनृतानन्द ८२, जैन-लक्षणावली
[अनेकाङ्गिक अप्रशस्त वचन अथवा असत् अर्थके वचन का नाम अनेकद्रव्यस्कन्ध-१. से कि तं अगदवियखंधे ? अनृत (असत्य) है।
तस्स चेव देसे अवचिए, तस्स चेव देसे उवचिए, अनृतानन्द (रौद्रध्यान)-१, अनृतवचनार्थं स्मृति- से तं अणेगदविप्रखंधे । (अनुयो. सू. ५३) । २. अनेसमन्वाहारो रौद्रध्यानम् । (त. भा. ६-३६)। कद्रव्यश्चासौ स्कन्धश्चेति समासः, तस्यैवेत्यत्रानुवर्त२. प्रबलराग-द्वेष-मोहस्यानृतानन्दं द्वितीयम् । अनृत- मानं स्कन्धमात्रं सम्बध्यते, ततश्च 'तस्यैव' यस्य प्रयोजनं कन्या-क्षिति-निक्षेपव्यपलाप-शिश्नाभ्यासा- कस्यचित् स्कन्धस्य यो देशो नख-दन्त-केशादिलक्षणः सद्भुतघातातिसन्धानप्रवणमसदभिधानमनतम्, तत्प- अपचितो जीवप्रदेशविरहितो यश्च तस्यैव देशः रोपघातार्थमनुपरततीव्ररौद्राशयस्य स्मृतेः समन्वा- पृष्ठोदर-चरणादिलक्षण उपचितो जीवप्रदेशाप्त हारः तत्रैवं दृढं प्रणिधानमनृतानन्दम् । (त. भा. इत्यर्थः । तयोर्यथोक्तदेशयोविशिष्टकपरिणामपरिहरि.. [-३६)। ३. प्रबलराग-द्वेष-मोहस्य अन- णतयोर्यो देहाख्यः समुदायः सोऽनेकद्रव्यस्कन्धः, सचेतप्रयोजनवत् कन्या-क्षिति-निक्षेपापलाप-पिशनास. तनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति भावः । (अनुयो. त्यासद्भूतघाताभिसन्धानप्रवणमसदभिधानमन्तम् । मल. हेम. वृत्ति ५३, पृ. ४२)। (अग्रे हरि. वत्तिवत)। (त. भा. सिद्ध. व.8-३७। २विशिष्ट परिणाम से परिणत अपचित (जीव२ प्रबल राग, द्वेष व मोह से प्राक्रान्त व्यक्ति प्रदेश विरहित नख व दांत आदि) और उपचित असत्य प्रयोजन के साधनभूत कन्या, भूमि व धरो- (जीवप्रदेशों से व्याप्त पीठ व पेट आदि) स्कन्ध हर का अपलपन और परनिन्दा आदि रूप जो देशों का जो शरीर नामक समुदाय है वह अनेकअसमीचीन भाषण करता है, तथा दूसरों के घात द्रव्यकन्ध कहलाता है । का निरन्तर दुष्ट अभिप्राय रखता है और उसी अनेकसिद्ध-१. इगसमए वि प्रणेगा सिद्धाः तेऽणेका बार-बार चिन्तन करता है। इसे अनृतानन्द गसिद्धा य । (नवतत्त्व. गा. ५६) । २. अनेकसिद्धा रौद्रध्यान कहते हैं।
इति एकस्मिन् समये यावत् अष्टशतं सिद्धम् । अनेक (नाना)-एकात्मतामप्रजहच्च नाना। (नन्दी. हरि. वत्ति प. ५१, श्रा. प्र. टी. ७७)। (युक्त्यनु. ४६)।
३. एकस्मिन् समये अनेके सिद्धाः अनेकसिद्धाः । जो वस्तु एकरूपता को नहीं छोड़ती है, वही वस्तु (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-७)। ४. एकस्मिन् समये वस्तुतः नाना या अनेक कही जाती है-एकरूपता अष्टोत्तरं शतं यावत सिद्धा अनेकसिद्धाः । (योगशा. से निरपेक्ष वस्तु का वास्तव में वस्तुत्व ही अस- स्वो. विव. ३-१२४)। ५. एकस्मिन् ससये अनेकैः म्भव है, क्योंकि एकत्व और नानात्व ये दोनों धर्म सह सिद्धाः अनेकसिद्धाः । (शास्त्रवा. वृ. ११-५४)। परस्पर सापेक्ष रह कर ही वस्तु का बोध कराते हैं। ४एक समय में अनेक (१०८ तक) जीवों के एक अनेकक्षेत्रावधिज्ञान-१. तदनेकोपकरणोपयोगो- साथ सिद्ध होने को अनेकसिद्ध कहते हैं। ऽनेकक्षेत्रः। (त. वा. १, २२, ४, पृ. ८३, पं. २६)।
अनेकसिद्धकेवलज्ञान—एकस्मिन् समयेऽनेकेषां २. जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसव्वा
सिद्धानां केवलज्ञानमनेकसिद्धकेवलज्ञानम्, एकस्मिश्च वयवेसु वट्टदि तमणेयखेत्तं णाम । तित्थयर-देव-णेरइयाणं प्रोहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सरीरसव्वावय
समयेऽनेके सिद्धयन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेहि सगविसयभूदत्थग्गहणादो। (धव. पु. १३,
वेदितव्याः । (प्राव. मलय. व. ७८) ।
एक समय में सिद्ध होने वाले अनेक जीवों के केवलपू. २६५)।
ज्ञान को अनेकसिद्धकेवलज्ञान कहते हैं। २ जो अवधिज्ञान शरीर के शंख-चक्रादि रूप किसी नियत अवयव में न प्रवृत्त होकर उसके सभी अव- अनेकाडिक (अपरिशाटिरूप संस्तारक)-अनेयवों में रहता है, उसे अनेकक्षेत्रावधि कहते हैं। काङ्गिकः कन्थिकाप्रस्तारात्मकः । (व्यव. सू. भा. तीर्थकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान शरीर मलय.व.-८)। के सभी अवयवों द्वारा अपने विषयभत अर्थ को अनेक पुराने वस्त्रों के जोड़ से बनाई गई कथड़ी प्रहण करने के कारण अनेकक्षेत्र कहा जाता है। और तण एवं पत्तों आदि से निर्मित प्रस्ताररूप
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अनेकान्त ] ८३, जैन-लक्षणावली
[अन्तकृत शय्या को अनेकाङ्गिक-अपरिशाटिरूप संस्तारक थाप्यत्र युक्तोऽनकान्तिकः स तु ।। (न्यायाव. २३) । कहते हैं।
२. विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः । (परीक्षा. अनेकान्त-१. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय- ६-३०)। ३. यस्यान्यथानुपपत्तिः सन्दिह्यते सोऽनसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्न- कान्तिकः । (प्र. न. त. ६-५४; जैनतर्कप. पु.
1॥ (स्वयम्भः १०३) । २. अनेकान्त इति १२५)। ४. नियमस्यासिद्धौ सन्देहे वाऽन्यथानुपपद्यकोऽर्थः इति चेत् एकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादक- मानोऽनकान्तिकः । (प्रमाणमी. २, १, २१) । अस्तित्व-नास्तित्वद्वयादिस्वरूपं परस्परविरुद्धसापेक्ष- ५. यः पुनरन्यथापि–साध्यबिपर्ययेणापि युक्तो घटशक्तिद्वयं यत्तस्य प्रतिपादने स्यादनेकान्तो भण्यते। मानकः, आदिशब्दात् साध्येनापि, सोऽत्र व्यतिकरे (समयप्रा. जय. व. गा. ४४५) । ३. सर्वस्मिन्नपि अनैकान्तिकसंज्ञो ज्ञातव्य इति । (न्यायाव. सिद्धर्षि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नि- वृत्ति २३) । ६. सब्यभिचारोऽनकान्तिकः । (न्यात्यानित्यरूपत्वमित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । यदी. पृ. ८६); पक्ष-सपक्ष-विपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः । (न्यायदी. पृ.६८)।
(न्यायदी. पु. १०१); ७. तथा च अन्यथा चोप२ एक वस्तु में मुख्यता और गौणता की अपेक्षा पत्त्या अनैकान्तिकः । (सिद्धिवि. वृ. ६-३२, पृ.४३)। अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों के १ जो हेतु साध्य से विपरीत के साथ भी रहता है प्रतिपादन को अनेकान्त कहते हैं।
वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है। ३ जिस अनेकान्त-प्रसात-कर्म-जं कम्मं असादत्ताए बद्धं हेतु की अन्यथानुपपत्ति सन्दिग्ध हो, वह भी अनकाअसंछुद्धं अपडिच्छद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- न्तिक हेत्वाभास होता है। ६ पक्ष और सपक्ष के असादं । तव्वदिरित्तमणेयंतप्रसादं। (धव. पु. १६, समान विपक्ष में भी रहने वाले हेत को अनैकान्तिक पृ. ४६८)।
हेत्वाभास कहते हैं। जो कर्म असातस्वरूप से बांधा गया है उसका संक्षेप अनैकाग्रच-अनैकाग्रथमपि अन्यमनस्कत्वम् । (सा. और प्रतिक्षेप से सहित होकर अन्य (सात) स्वरूप ध. स्वो. टी. ५-४०)। से उदय में प्राना, इसका नाम अनेकान्त-सात एकाग्रता के प्रभाव को या चित्त की चंचलता को कर्म है।
अनैकाग्रय कहते हैं। अनेकान्त-सात-कर्म-जं कम्मं सादत्ताए बद्धं अनोजीविका-देखो शकटजीविका । अनोजीविका प्रसंछुद्धं अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- शकटजीविका, शकट-रथ-तच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा सादं । तव्वदिरित्तं अणेयंतसादं । (धव. पु. १६, निष्पादनेन वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिर्बहुभूतग्रामोप. पृ. ४६८)।
मर्दिका गवादीनां च बन्धादिहेतुः। (सा. ध. स्वो. जो कर्म सातस्वरूप से बांधा गया है, उसका संक्षेप टी. ५-२१)। और प्रतिक्षेप से परिवर्तित होकर अन्य (असात) गाड़ी, रथ और उनके पहियों आदि को स्वयं बना स्वरूप से उदय में आना, इसका नाम अनेकान्त- कर या दूसरे से बनवा कर, उन्हें स्वयं चला कर या सातकर्म है।
बेचकर आजीविका करने को अनोजीविका कहते अनेषग तप-देखो अनशन । चउत्थ-छट्टम- हैं। यह प्राजीविका बहुतसे त्रस जीवों की हिंसा दसम-दुवालस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छरेसु एस- का और बैल-घोड़े आदि पशुओं के बन्धादि का णपरिच्चामो अणेसणं णाम तवो। (धव. पु. १३, कारण होने से हेय है। पृ. ५५)।
अन्त-यस्मात्पूर्वमस्ति, न परम्, अन्तः सः । (अनुयो. एक, दो, तीन, चार और पांच दिन तथा पक्ष, हरि. व. पृ. ३२)। मास, ऋतु, अयन और संवत्सर के प्रमाण से जिसका पूर्व है, किन्तु पर नहीं है, उसका नाम भोजन का परित्याग करने को अनेषण या अनशन अन्त है। तप कहते हैं।
अन्तकृत-अष्टकर्मणामन्तं विनाशं कुर्वन्तीत्यन्तअनेकान्तिक हेत्वाभास-१. xxx योऽन्य- कृतः । अन्तकृतो भूत्वा सिझंति सिध्यन्ति, निस्ति
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अन्तकृद्दश, अन्तकृद्दशाङ्ग] ८४, जैन-लक्षणावली
[अन्तगत-अवधि ष्ठन्ति निष्पद्यन्ते स्वरूपेणेत्यर्थ, बुज्झन्ति त्रिकाल- ७. अष्टाविंशतिसहस्रत्रयोविंशतिलक्षपदपरिमाणं गोचरानन्तार्थब्यञ्जनपरिणामात्मकाशेषवस्तुतत्त्वं बु- प्रतितीर्थं दश-दशानगाराणां निजितदारुणोपसर्गाणां ध्यन्त्यवगच्छन्तीत्यर्थः । (धव. पु. ६, पृ. ४६०)। निरूपकमन्तकृद्दशम् । (श्रुतभ. टी. ८)। ८. प्रतिजो पाठों कर्मों का अन्त करके उन्हें प्रात्मा से तीर्थं दश दश मुनीश्वरास्तीवं चतुर्विधोपसर्ग सोढवा सर्वथा पृथक् करके-अन्तकृत् होते हुए सिद्धि को इन्द्रादिभिविरचितां पूजादिप्रातिहार्यसम्भावनां प्राप्त होते हैं, निष्ठित होते हैं-स्वरूप से सम्पन्न । लब्बा कर्मक्षयानन्तरं संसारस्यान्तमवसानं कृतवहोते हैं, तथा त्रिकालवर्ती वस्तुतत्त्व को प्रत्यक्ष । न्तोऽन्तकृतः,xxxदश-दशान्तकृतो वर्ण्यन्ते यस्मि जानने लगते हैं; वे अन्तकृत् कहलाते हैं। स्तदन्तकृद्दशं नामाष्टममङ्गम् । (गो. जी. जी. प्र. अन्तकृद्दश, अन्तकृद्दशाङ्ग-१. अंतयडदसासु णं अंतगडाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाई वणसंडाई हस्सा । अट्ठावीसं जत्थ हि वणिज्जइ अंतकयणाहो॥ समोसरणाइं रायाणो अम्मा-पियरो धम्मायरिया पडितित्थं वरमुणिणो दह दह सहिऊण तिव्वमुवधम्मकहानो इहलोइय-परलोइया इढिविसेसा सग्गं । इंदादिरइयपूयं लद्धा मुंचंति संसारं ॥ माहप्पं भोगपरिच्चागा पव्वज्जाप्रो परिपागा सुअपरिग्गहा वरचरणं तेसि वण्णिज्जए सया रम्मं । जह वड्ढ़तवोवहाणाइं संबेहणायो भत्तपच्चक्खाणाइं पायो- माणतित्थे दहावि अंतयडकेवलियो । मायंग रामवगमणाई अन्तकिरिबाओ आघविज्जति । (नन्दी. पुत्तो सोमिल जमलीकणाम किकबी । सुदंसणो ५२, पृ. २३२) । २. अन्तो विनाशः, स च कर्मण- बलीको य णमी अलंबद्ध [2] पृत्तलया ।। (अंगप.
तस्य वा संसारस्य, कृतो यैस्तेऽन्तकृतस्ते च १,४०-५१)। १०. तीर्थकराणां प्रतितीर्थ दश तीर्थकरादयस्तेषां दशा: दशाध्ययनानीति तत्संख्यया दश मुनयो भवन्ति। ते उपसर्गान् सोढ़वा मोक्षं अन्तकृद्दशा इति । (नन्दी. हरि. वृत्ति पृ. १०४)। यान्ति । तत्कथानिरूपकमष्टाविंशतिसहस्राधिकत्रयो३. संसारस्यान्तः कृतो यैस्ते अन्तकृतः । नाभि-मत- विंशतिलक्षप्रमाणमन्तकृद्दशम् । (त. वृत्ति श्रुत. ङ्ग-सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलीक-वलीक-किष्क - १-२०)। म्बल-पालम्बाष्टपुत्रा इत्येते दश वर्षमानतीर्थंकर- २ जिस अंग में प्रत्येक तीर्थकर के तीर्थ में होने तीर्थे, एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये वाले दश दश अन्तकृत् केवलियों का वर्णन किया दश-दशानगारा दारुणानुपसर्गान् निजित्य कृत्स्नक- गया हो उसे अन्तकृशांग कहते हैं। जैसे वर्धमान र्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति अन्तकृद्दशा। जिनेन्द्र के तीर्थ में १ नमि २ मतंग ३ सोमिल ४ अथवा अन्तकृतां दशा अन्तकृद्दशा, तस्याम् अह- रामपुत्र ५ सुदर्शन ६ यमलीक ७ वलीक ८ किष्कदाचार्यविधिः सिध्यतां च । (त. वा. १, २०, १२; म्बल ९ पालम्ब और १० अष्टपुत्र; इनका वर्णन घव. पु. ६,५, २०१)-तत्र 'अथवा 'सिध्यतां च' इस अंग में किया गया है। नास्ति)। ४. अंतयडदसा णाम अगं चउन्विहोव- अन्तगत-अवधि-१. इहान्तः पर्यन्तो भण्यते, गतं सग्गे दारुणे सहियूण पाडिहेरं लक्ष्ण णिव्वाणं गदे स्थितमित्यनर्थान्तरम्, अन्ते गतमन्तगतम् अन्ते सुदंसणादि-दस-दससाहू तित्थं पडि वण्णेदि । स्थितम् । तच्च फडडुकावधित्वादात्मप्रदेशान्ते, सर्वा(जयध. १, पृ. १३०)। ५. अंतयडदसा णाम त्मप्रदेशक्षयोपशमभावतो वा औदारिकशरीरान्ते, अंगं तेवीसलक्ख-अट्ठावीससहस्सपदेहिं एक्केक्कम्हि एकदिगुपलम्भाद्वा तदुद्योतितक्षेत्रान्ते गतमन्तगतम्, य तित्थे दारुणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं इह चात्मप्रदेशान्तगतमुच्यते । (नन्दी. हरि. वृ. लद्धण णिव्वाणं गदे दस दस वण्णेदि। उक्तं च पृ. ३१-३२)। २. इहान्तशब्दः पर्यन्तबाची-यथा तत्त्वार्थभाष्ये-"संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेxxx वनान्ते इत्यत्र, ततश्च अन्ते पर्यन्ते गतं व्यवस्थितवर्ण्यन्ते इति अन्तकृद्दशा ।" (धव. पु. १,पू. मन्तगतम् । xxx तत्र यदा अन्तर्वतिष्वात्म१०२-३)। ६. अन्तकृतः सिद्धास्ते यत्र ख्यायन्ते प्रदेशेष्ववधिज्ञानमुपजायते तदा आत्मनोऽन्ते पर्यन्ते वर्धमानस्वामिनस्तीर्थ एतावन्तः इत्येवं सर्वकृतान्ताः स्थितमिति कृत्वा अन्तगतमित्युच्यते, तैरेव पर्यन्तअन्तकृद्दशाः । (त. भा. सि. व. १-२०) । वतिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानात्,
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अन्तगत-अवधि] ८५, जैन-लक्षणावली
[अन्तरकरण न शेषैरिति । अथवा औदारिकस्यान्ते गतं स्थितम् में स्थित रहता है। अतएव अन्तगत अवधिज्ञान अन्तगतम्, कयाचिदेकदिशोपलम्भात् । इदमपि कहलाता है। स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानम् । अथवा-सर्वेषामप्यात्मप्रदे- अन्तर-१. अन्तरं विरहकालः । (स. सि. १-८)। शानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरान्तेनैकया २. अनुपहतवीर्यस्य न्यग्भावे पुनरुद्भतिदर्शनात् दिशा यद्वशादुपलभ्यते तदप्यन्तगतम् । (नन्दी. तद्वचनम् ॥८॥ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवमलय. वृ. १०, पृ.८३) । ३. इह पूर्वाचार्यप्रदर्शित- शात्कस्यचित्पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुननिमित्तान्तमर्थत्रयम्-अन्ते प्रात्मप्रदेशानां पर्यन्ते गतः रात्तस्यैवाविर्भावदर्शनात्तदम्तरमित्युच्यते । (त. वा. स्थितोऽन्तगतः । xxx इहावधिरुत्पद्यमानः १,८,८)। ३.xxx अंतरं विरहो य सुण्णकोऽपि स्पर्द्धकरूपतयोत्पद्यते, स्पर्द्धकं च नामावधि- कालो य। (धव. पु. १, पृ. १५६ उद्धृत); ज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया अंतरमुच्छेदो विरहो परिणामंतरगमणं णत्थित्तगइव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । Xxx स मणं अण्णभावववहाणमिदि एयद्रो। (धव. पु. ५, आत्मनः पर्यन्ते स्थित इति कृत्वा अन्तगत इत्यभि- पृ. ३)। ४. अन्तरं स्वभावपरित्यागे सति पुनस्तधीयते, तैरेव पर्यन्तवतिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादव- द्भावप्राप्ति [प्तिः,]विरह इत्यर्थः । (अनुयो. हरि. बोधात् । अथवा औदारिकशरीरस्यान्ते गतः स्थितो- वृ. पृ. ३४)। ५. कस्यचित् सन्तानेन वर्तमानस्य ऽन्तगतः, औदारिकशरीरमधिकृत्य कदाचिदेकया कुतश्चिदन्तरो विरहकालोऽन्तरम् । (न्यायकु. दिशोपलम्भात् । xxx अथवा सर्वेषामप्यात्म- ७-७६, पृ. ८०३)। ६. कस्यचित् सम्यग्दर्शनादेप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरस्यान्ते गुणस्य सन्तानेन वर्तमानस्य कुतश्चित्कारणान्मध्ये कयाचिदेकया दिशा यद्वशादुपलभ्यते सोऽप्यन्तगतः। विरहकालोऽन्तरम् । (त. सुखबो. वृ. १-८)। xxxएष द्वितीयः । तृतीयः पुनरयम्-एक- ७. विवक्षितस्य गुणस्थानस्य गुणस्थानान्तरसंक्रमे दिग्भाविना तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्रं तस्यान्ते सति पुनरपि तद्गुणस्थानप्राप्तिः यावन्न भवति वर्ततेऽवधिरवधिज्ञानवतस्तदन्ते वर्तमानत्वात् । तावान् कालोऽन्तरमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत.१-८)। ततोऽन्ते एकदिग्गतस्यावधिविषयस्य पर्यन्ते गतः २ अक्षत वीर्यविशेष से संयक्त द्रव्य की किसी स्थितोऽन्तगतः । (प्रज्ञाप. मलय. व. ३३-३१७, पर्याय का तिरोभाव होकर अन्य निमित्त के प्र पृ. ५३७)।
पुनः उसके आविर्भूत होने पर मध्य में जो काल ३ अन्तगत बाह्य अवधि के स्वरूप का निर्देश तीन लगता है उसका नाम अन्तर है। प्रकार से किया गया है-१ जिस प्रकार झरोखा अन्तरकरण-१. विवक्खियकम्माणं हेट्रिमोवरिमआदि में प्रकाश के आने-जाने के छेद होते हैं, उसी द्विदीयो मोत्तूण मज्झे अंतोमुहुत्तमेत्ताणं द्विदीणं
धिज्ञानप्रभा के प्रतिनियत विच्छेदविशेष परिणामविसेसेण णिसेगाणमभावीकरणमन्तरकरणका नाम स्पर्द्धक है। ये स्पर्द्धक कितने ही पर्यन्त- मिदि भण्णदे। (जयध.-कसा. पा. पु. ६२६, वर्ती प्रात्मप्रदेशों में और कितने ही मध्यवर्ती प्रात्म- टिप्पण १) । अंतरं विरहो सुण्णभावो त्ति एयट्ठो। प्रदेशों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से जो अव- तस्स करणमंतरकरणं । हेट्ठा उवरिं च केत्तियानो धिज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रात्मा के अन्त में द्विदीयो मोत्तूण मज्झिल्लाणं ट्ठिदीणं अंतोमुत्तपस्थित होने के कारण अन्तगत-अवधि कहा जाता माणाणं णिसेगे सुण्णत्तसंपादणमंतरकरणमिदि भहै। २ यद्यपि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम सभी णिदं होइ। (जयध. -कसा. पा.पु. ७५२, टि. १)। प्रात्मप्रदेशों में होता है, फिर भी जिसके द्वारा ३. अन्तरकरणं नामोदयक्षणादूपरि मिथ्यात्वस्थितिप्रौदारिक शरीर के अन्त में किसी एक दिशा में। र्तमानामतिक्रम्योपरितनी च विष्कम्भयित्वा बोध होता है, वह भी अन्तगत-अवधि कहलाता है। मध्येऽन्तर्मुहूर्तमानं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावकरणम् । ३ एक दिशा में होने वाले उस अवधिज्ञान के द्वारा (कर्मप्र. यशो. टी. उपश. १७, पृ. २६०)। प्रकाशित क्षेत्र के अन्त में अवधिज्ञानी के वर्तमान १ विवक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरिम स्थिहोने से वह अवधिज्ञान भी चूंकि उक्त क्षेत्र के अन्त तियों को छोड़ कर मध्यवर्ती अन्तमुहूर्त प्रमाण
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अन्तरङ्गक्रिया] ८६, जैन-लक्षणावली
[अन्तरात्मा स्थितियों के निषकों का परिणामविशेष से प्रभाव तिविहा ॥ (कार्तिके. १९४)। ४. प्रान्तरः । चित्तकरने को अन्तरकरण कहते हैं।
दोषात्मविभ्रान्तिः Xxx ॥ (समाधि. ५)। अन्तरक्रिया-अन्तरङ्गक्रिया च स्वसमय-परस- ५. अट्टकम्मभंतरो त्ति अंतरपा। (धव. पु. १, पृ. मयपरिज्ञानरूपा ज्ञानक्रिया। (द्रव्यानु. टी. १-५)। १२०)। ६. याचेतनस्यात्मबिभ्रान्तिः सोऽन्तरात्मास्वसमय और परसमय के जानने रूप ज्ञानक्रिया ऽभिधीयते । (अमित. श्रा. १५-५६)। ७. बहिर्भाको अन्तरक्रिया कहते हैं।
वानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । सोऽन्तरात्मा अन्तरङ्गच्छेद-अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोप- मतस्तविभ्रम-ध्वान्तभास्करैः। (ज्ञाना. ३२-७)। योगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्-तस्य हिंसनात् । स ८. धम्मज्झाणं झायदि दंसण-णाणेसु परिणदो एव च हिंसा । (प्रव. सा. अमृत. वृ. ३-१६)। णिच्चं । सो भणइ अंतरप्पा Xxx॥ (ज्ञानसार अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः । (प्रव. सा. अमृत. वृ. ३१)। ६. स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तबसुखात् ३-१७)।
प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षणोअशुद्ध उपयोग को अन्तरङ्गछेद कहते हैं, क्योंकि ऽन्तरात्मा । अथवा देहरहितनिजशुद्धात्मद्रव्यभावनावह शुद्धोपयोगरूप मुनि धर्म का छेद (विघात) __ लक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येष्वेकत्वभावनाकरता है। दूसरे शब्दों से उसे ही हिंसा कहा जाता है।
अथवा हेयोपादेयविचारकचित्तनिर्दोषपरमात्मनो अन्तरङ्गज दुःख-..न्यक्कारावज्ञेच्छाविधातादिस- भिन्ना रागादयो दोषाः, शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मन्युमुत्थमन्तरङ्गजम् । (नीतिवा. ६-२३)।
क्तलक्षणेषु चित्तदोषात्मसु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतिरस्कार, अवज्ञा और इच्छाविघात प्रादि से उत्पन्न तेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयहोने वाले दुःख को अन्तरङ्गज दुःख कहते हैं। विभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा । अन्तरङ्गयोग–अन्तरङ्गक्रियापरः अन्तरङ्गयोगो तस्मात् विसदृशोऽन्तरात्मा । (बृ. द्रव्यसं. टी. १४)। ज्ञानक्रिया । (द्रव्यानु. टी. १-५)।
१०. कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु ॥ अन्तरङ्ग को क्रिया करने वाले योग को अन्तरङ्ग- (योगशा. १२-७)। ११. पुनः सकर्मावस्थायामपि योग कहते हैं।
अात्मनि ज्ञानाधुपयोगलक्षणे शुद्धचैतन्यलक्षणे महाअन्तर-द्वितीय-समयकृत-तदणंतरसमए (पढम- नन्दस्वरूपे निविकारामृताव्याबाधरूपे समस्तपरभावसमयकद-अंतरादो अणंतरसमए) अंतरं दुसमयकदं मुक्ते आत्मबुद्धिः अन्तरात्मा, सम्यग्दृष्टिगुणस्थानणाम भवदि । (जयध. अ. प. १०८०)।
कतः क्षीणमोहं यावत् अन्तरात्मा। (ज्ञानसार व. प्रथम-समयकृत-अन्तर से अव्यवहित उत्तर समय में (१५-२)। १२. अन्तः अभ्यन्तरे शरीरादेभिन्न होने वाले अन्तर को द्वितीय समयकृत अन्तर कहा [न्नः] प्रतिभासमानः प्रात्मा येषां ते अन्तरात्मानः, जाता है।
परमसमाधिस्थिताः सन्तः देहविभिन्नं ज्ञानमयं परअन्तर-प्रथम-समयकृत-जम्हि समए अंतरचरि- मात्मानं ये जानन्ति ते अन्तरात्मानः । (कातिके. मफाली णिवदिदा तम्हि समए अंतरपढमसमयकदं टी. १९२)। १३.xxx तदधिष्ठातान्तरात्मभण्णदे । (जयध. अ. प. १०८०)।
तामेति । (अध्यात्मसार २०-२१); तत्त्वश्रद्धा ज्ञानं जिस समय में अन्तर स्थिति की अन्तिम फाली का महाव्रतान्यप्रमादपरता च । मोहजयश्च यदा स्यात् पतन होता है उस समय में अन्तर-प्रथम-समयकृत तदान्तरात्मा भवेद् व्यक्तः ॥ (अध्यात्मसार २०, कहा जाता है।
२३, पृ. २६)। अन्तरात्मा (अंतरप्पा)-१. xxx अंतर- ३ जो पाठ मदों से रहित होकर देह और जीव के अप्पा हु अप्पसंकप्पो। (मोक्षपा. ५)। २. जप्पेसू भेद को जानते हैं वे अन्तरात्मा कहलाते हैं। जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा । (नि. सा. ५ पाठ कर्मों के भीतर रहने से जीव को अन्त१५०)। ३. जे जिणवयणे कुसला भेदं जाणंति रात्मा कहा जाता है। ११ सकर्म अवस्था में भी जीव-देहाणं । णिज्जियमया अंतरअप्पा य ते ज्ञानादि उपयोगस्वरूप शद्ध चैतन्यमय प्रात्मा में
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अन्तराय] ८७, जैन-लक्षणावली
[अन्तरितार्थ जिन्हें प्रात्मबुद्धि प्रादुर्भूत हुई है वे अन्तरात्मा कह- १३. जीवं दानादिकं चान्तरा एति, न जीवस्य लाते हैं, जो सम्यग्दृष्टि (चौथे) गुणस्थान से लेकर दानादिकं कर्तुं ददात्यन्त रायम् । (कर्म वि. परमा. क्षीणकषाय (बारहवें) गणस्थान तक होते हैं। व्याख्या गा. ५-६) १४. दातृ-देयादीनामन्तरं मध्यपतराय, जानविच्छेदकरणमन्तरायः । (स. मेति ईयते वाऽनेनेत्यन्तरायः । (त. सूखबो. व. ८-४) सि. ६-१० त. श्लो. वा. ६-१०; त. सुखबो. व. १५. दातृ-पात्रयोर्देयादेययोश्च अन्तरं मध्यम एति ६-१०)। २. विद्यमानस्य प्रबन्धन प्रवर्तमानस्य गच्छतीत्यन्तरायः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-४)। १६. मत्यादिज्ञानस्य विच्छेदविधानमन्त राय उच्यते । (त. अस्ति जीवस्य वीर्याख्यो गुणोऽस्त्येकस्तदादिवत् । वृत्ति श्रुत. ६-१०)।
तदन्तरयतीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् । (पञ्चाध्यायी किसी के ज्ञान में बाधा पहुँचाना, यह एक अन्त- २-१००७) । राय नामक ज्ञानावरण का प्रास्त्रव है।
१जो कर्म दाता और देय आदि के बीच में प्राता अन्तराय कर्म-१. दातृ-देयादीनामन्तरं मध्यमेती- है-दान देने में रुकावट डालता है-उसे अन्तराय त्यन्तरायः । (स. सि. ८-४)। २. अन्तरं मध्यम्, कर्म कहते हैं। दातदेयादीनामन्तरं मध्यमेति ईयते वा ऽनेनेत्यन्त- अन्तरायवर्ग-अन्तरायप्रकृतिसमूदायोऽन्तरायवर्गः। रायः । (त. वा. ८, ४, २)। ३. दानादिविघ्नो- (पञ्चसं. मलय. वृ. ५-४८) । ऽन्तरायस्तत्कारणमन्तरायम् । (श्रा. प्र. टी. ११)। अन्तराय कर्म की प्रकृतियों के समुदाय को अन्तराय४. अन्तरमेति गच्छति द्वयोरित्यन्तरायः । दाण- वर्ग कहते हैं। लाह-भोगोवभोगादिसु विग्धकरणक्खमो पोग्गलक्खं- अन्तरिक्ष-महानिमित्त-१. रवि-ससि-गहपहुदीणं धो सकारणेहि जीवसमवेदो अंतरायमिदि भण्णदे। उदयत्थमणादियाई दह्णं । खीणत्तं दुक्ख-सुहं जं (धव. पु.६, प.१३-१४) अन्तरमेति गच्छतीत्यन्त- जाणइ तं हि णहणिमित्तं ॥ (ति. प. ४-१००३)। रायम्। (धव. पु. १३, पृ. २०६) । ५. विग्घकर- २. रवि-शशि-ग्रह-नक्षत्र-तारा-भगणोदयास्तमयादिणम्मि वावदमंतराइयं । (जयध. पु. २, पृ. २१)। ६. भिरतीतानागतफलप्रविभागप्रदर्शनमन्तरिक्षम । (त. अन्तर्धीयते अनेनात्मनो वीर्य-लाभादीति अन्तरायः । वा. ३, ३६, ३; चा.सा. पृ. ६४)। ३. चंदाइच्चअन्तर्धानं वा ऽऽत्मनो वीर्यादिपरिणामस्येत्यन्तरायः। गहाण मुदयत्थवण-जयपराजय-गहघट्टण-विज्जुचडक - (त. भा. सिद्ध. व. ८-५)। ७. अन्तरं व्याघातम्, इंदाउह-चंदाइच्चपरिवेसुवरागबिंबभेयादि दळूण तस्यायः हेतुर्यत्तदन्तरायम् । दानाद्यनुभवतो विघा- सुहासुहावगमो अंतरिक्खं णाम महाणिमित्तं । (धव. तरूपतयोपतिष्ठते यत्तदन्तरायम् । (पञ्चसं. स्वो. पु. ६, पृ.७४)। ४. अन्तरिक्षमादित्य-ग्रहाद्युदयावृ. ३-१)। ८. दानादिलब्धयो येन न फलन्ति वि- स्तमनम् । XXX यदन्तरिक्षस्य व्यवस्थितं ग्रहबाधिताः। तदन्त रायं कर्म स्याद भाण्डागारिक- युद्धं ग्रहास्तमनं ग्रहनिर्घातादिकं समीक्ष्य प्रजायाः सन्निभम् ॥ (त्रि.श. पु. २, ३, ४७५) । ६. जीवं शुभाशुभं विबुध्यते तदन्तरिक्षं नाम । (मूला. वृ. चार्थसाधनं चान्तराऽयते पततीत्यन्तरायं जीवस्य ६-३०)। ५. गह-वेह-भू-अट्टहासपमुहं जमन्तरिदानादिकमर्थं सिसाधयिषोविघ्नोभूयाऽन्तरा पतति । रिक्खं तं । (प्रव. सारो. २५७-१४०८)। ६. अन्त(शतक. मल. हेम. वृ. ३७, पृ. ५१)। १०. अन्तरा रिक्षं आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदकम् । दातृ-प्रतिग्राहकयोरन्तर्विघ्नहेतुतया अयते गच्छती- (समवा. अभय. वृ. सू. २६)। त्यन्तरायम् । (धर्मसं. मलय. वृ. गा. ६०८; प्रव. २ आकाशगत सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा सारो. व. १२५०)। ११. जीवं दानादिकं चान्तरा आदि के उदय-अस्त आदि अवस्थाविशेष को देख व्यवधानापादनाय एति गच्छतीत्यन्तरायम् । जीवस्य कर भूत-भविष्यत् काल सम्बन्धी फल के विभागको दानादिकं कर्तुमुद्यतस्य विघातकृद् भवतीत्यर्थः। दिखलाना, इसे अन्तरिक्ष-महानिमित्त या नभनि(प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२८८ कर्मप्र. यशो. टी. मित्त कहते हैं। गा. १) । १२. जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति अन्तरितार्थ-१. अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः अर्थाः। पततीत्यन्तरायम् । (कर्मस्त. गो. वृ. ६-१०)। (प्रा. मी. वृ. ५)। २. अन्तरिताः कालविप्रकृष्टा
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अन्तर्गति] ८८, जैन-लक्षणावली
[अन्तःशल्य रामादयः । (न्या. दी. पृ. ४१)।
(धव. पु. ३, पृ. ६९-७०); मुहुत्तस्संतो अतोमुहुत्तं; काल-विप्रकृष्ट अर्थात् काल की अपेक्षा दूरवर्ती (धव. पु. ४, पृ. ३२४)। २. एगसमएण हीणं पदार्थों को अन्तरितार्थ कहते हैं। (जैसे-राम- (मुहत्तं) भिण्णमुहत्तं तदो तेसं ॥ गो. जी. ५७४)। रावण आदि)।
३. ससमयमावलि अवरं समऊणमुहुत्तयं तु उक्कस्सं । अन्तर्गति-मनुष्यः तिर्यग्योनिवाच्यं यावदुत्पत्ति- मज्झासंख्यवियप्पं वियाण अंतोमुहुत्तमिणं ॥ (गो. स्थानं न प्राप्नोति ता वदन्तर्गतिः । (त. भा. सिद्ध. जी. ५७४तमतः परं क्षेपकम्)। ४. अन्तर्मुहूर्तः वृ. ८-१२)।
समयाधिकामावलिकामादिं कृत्वा समयोनमुहूर्तम् । एक गति को छोड़कर दूसरी गति में जन्म लेने के (त. व. टि., प. १८)। ५. त्रीणि सहस्राणि सप्त पूर्व जो जीव की मध्यवर्ती गति होती है, उसे अन्त- शतानि व्यधिकसप्ततिरुच्छ्वासाः मुहूर्तः कथ्यते गति कहते हैं। जैसे—मनुष्य मरकर जब तक (३७७३)। तस्यान्तः अन्तमुहूर्तः । समयाधिकातिर्यञ्चयोनिरूप अपने उत्पत्तिस्थान को नहीं मावलिकामादिं कृत्वा समयोनमुहूर्त यावत् । (त. प्राप्त कर लेता है, तब तक उसकी गति अन्तर्गति वृत्ति श्रुत. १-८)। कहलाती है।
३ एक समय अधिक प्रावली से लगाकर एक समय अन्तर्धान-१. जं हवदि अद्दिसत्तं अंतद्धाणाभि- कम मुहूर्त तक के काल को अन्तम हूर्त कहते हैं । धाणरिद्धी सा । (ति. प. ४-१०३२)। २. अन्त- अन्ताप्ति-पक्षीकृत एव विषये साधनस्य र्धानमदृश्यो भवेत् । (त. भा. १०-७)। ३. अदृश्य- साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः । यथानेकान्तात्मक वस्तु रूपशक्तिताऽन्तर्धानम् । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेःरिति XxxI (प्र. न. त. २०३) । ४. अन्तर्धानमदृश्यत्वम् । (त. भा. सिद्ध. ३, ३८-३६) । वृ. १०-७, पृ. ३१६; योगशा. स्वो. विव. १-८, पक्ष के भीतर ही साध्य के साथ साधन की व्याप्ति पृ. ३७)। ५. अदृष्टरूपतोऽन्तर्धानमन्तधिः । (त. होने को अन्तर्व्याप्ति कहते हैं । जैसे-वस्तु अनेवृत्ति श्रुत. ३-३६)।
कान्तात्मक है, क्योंकि, अनेकान्तात्मक होने पर ही अदृश्य हो जाने का नाम अन्तर्धान ऋद्धि है। उसकी सत्ता घटित होती है। यहां पक्ष के अन्तर्गत अघि-अरि-विजिगीषोर्मण्डलान्तविहितवृत्तिरुभ- बस्तु को छोड़कर अन्य (अबस्तु) की सत्ता ही यवेतनः पर्वताटवीकृताश्रयश्चान्तधिः । (नीतिवा. सम्भव नहीं हैं, जहां कि उक्त व्याप्ति ग्रहण की जा २६-२६)।
सके। जो शत्रु और उसे जीतने की इच्छा करने वाले के अन्तःकरण-१. गुण-दोषविचार-स्मरणादिव्यापादेशों के मध्य में रहे, दोनों ओर से वेतन ले और रेषु इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेकिसी पर्वत या अटवी में प्राश्रय करके रहे, वह श्च अन्तर्गतं करणं अन्तःकरणम् । (स. सि. १-१४; अन्तधि (चरट) कहलाता है।
त. वृत्ति श्रुत. १-१४)। २. नेन्द्रियमनिन्द्रियम्, नोअन्तर्मल-एकत्र (जीवे) अन्तर्मल: कर्म, अन्यत्र इन्द्रियं च प्रोच्यते । अत्रेषदर्थे प्रतिषेधो द्रष्टव्यो (सुवर्णादौ) अन्तर्मल: कालिमादिः । (प्रा. मी. यथाऽनुदरा कन्येति । तेनेन्द्रियप्रतिषेधेनात्मन: करणवृत्ति. ४)।
मेव मनो गृह्यते, तदन्तःकरणं चोच्यते, तस्य प्रात्मा का अन्तर्मल कर्म कहलाता है, और सुवर्ण बाह्य न्द्रियैर्ग्रहणाभावादन्तर्गतं करणमन्तःकरणमिति आदि के अन्तर्मल कालिमा आदि कहलाते हैं। व्युत्पत्तेः । (त. सुखबो. वृ. १-१४)। अन्तर्मुहूर्त-१. [भिण्णमुहुत्तादो] पुणो वि अव- १ गुण-दोष के विचार और स्मरण प्रादि व्यापारों रेगे एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहत्तं में जो बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता है तथा होदि। एवं पुणो पुणो समया अवयव्वा जाव उस्सासो जो चक्षु आदि इन्द्रियों के समान बाह्य में दृष्टिणिट्ठिदो त्ति । तो वि सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं चेव गोचर भी नहीं होता है, ऐसे अभ्यन्तर करण (मन) होइ । (धव. पु. ३, पृ. ६७); Xxx सामीप्या- को अन्तःकरण कहते हैं। में वर्तमानान्तःशब्दग्रहणात् मूहर्तस्यान्तः अन्तर्महर्तः। अन्तःशल्य-अन्तः मध्ये मनसीत्यर्थः, शल्यमिव
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अन्तःशल्यमरण] ८६, जैन-लक्षणावली
[अन्यता शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तःशल्यो लज्जाभिमाना- १ अकार्यरत पुरुष को अन्ध कहते हैं। दिभिरनालोचितातीचारः । (समवा. अभय. वृ. सू. अन्न-पाननिरोध-१. गवादीनां क्षुत्पिपासाबाघा१७, पृ. ३२)।
करणमन्न-पाननिरोधः । (स. सि. ७-२५; त. वा. जिसके अन्तःकरण में अपराधपद कांटे के समान ७, २५, ५; त. श्लो. ७-२५)। २. अन्न-पाननिचभ रहा है पर लज्जा व अभिमानादि के कारण रोधस्तु क्षबाधादिकरोऽङ्गिनाम् । (ह. पु. ५८, जो दोष की आलोचना नहीं करता है, ऐसे साधु को १६५) । ३. तेषां गवादीनां कूतश्चित्कारणात् अन्तःशल्य कहते हैं।
क्षुत्पिपासाबाधोत्पादनमन्न-पाननिरोधः । (चा. सा. अन्तःशल्यमरण--तस्य(अन्तःशल्यस्य)मरणमन्त:- पृ. ५)। ४. अन्न-पानयोः भोजनोदकयोनिरोधः शल्यमरणम् । (समवा. अभय. व. सू. १७, पृ. ३२)। व्यवच्छेदः अन्न-पाननिरोधः । (धर्मबि.मु. वृ. ३-२३)। अन्तःशल्य-अपराध की आलोचना न करने वाले- ५. अन्नं च पानं चान्नपाने, तयोनिरोधः, गवादीनां का जो मरण होता है उसे अन्तःशल्यमरण कहते हैं। कुतश्चित्कारणात् क्षुत्पिपासाबाधोत्पादनमित्यर्थः । अन्तःशुद्धि-ममेदमहमस्येति संकल्पो जायते न (त. सुखबो. ७-२५)। ६. गो-महिषी-बलीवर्दचेत् । चेतनेतरभावेषु सान्तःशुद्धिजिनोदिता ।। (धर्म- वाजि-गज-महिष-मानव-शकुन्तादीनां क्षुत्तृष्णादिपीसं. श्रा. ७-४८)।
डोत्पादनमन्न-पाननिरोधः । (त. वृ. श्रुत.७-२५% 'यह मेरा है और मैं इसका हूँ' इस प्रकारका संकल्प कातिके. टी. ३३२)। ७. नराणां गो-महिष्यादियदि चेतन या अचेतन पदार्थों में न हो तो इसे तिरश्चां वा प्रमादतः । तृणाद्यन्नादिपानानां निरोधो अन्तःशुद्धि कहा जाता है।
व्रतदोषकृत् ।। (लाटीसं. ५-२७१)। अन्तःस्थ वर्ण-अन्तः स्पर्शोष्मणोवर्णयोर्मध्ये तिष्ठ- १ गाय-भैस आदि प्राणियों के खाने-पीनेके समय पर न्तीति अन्तस्था: य-र-ल-ववर्णाः । ते हि कादि-माव- उन्हें भोजन-पान न देना, यह अन्न-पाननिरोध नामक सानस्पर्शानां श-ष-स-हरूपोष्मणां च मध्यस्थाः । अहिंसाणुव्रत का प्रतीचार है। (अभि. रा. भा. १, पृ. ६३)।
अन्नप्राशन-१. गते मासपृथक्त्वे च जन्माद्यस्य क से लेकर म पर्यन्त स्पर्श नाम वाले तथा श, ष, यथाक्रमम् । अन्नप्राशनमाम्नातं पूजाविधिपुरस्सरम् ।। स और ह इन ऊष्म नाम वाले वर्गों के मध्य में जो (म. पु. ३८-९५)। २. नवान्नप्राशनं श्रेष्ठं शिशूय, र, ल, व वर्ण अवस्थित हैं; वे अन्तःस्थ कहे नामन्नभोजनम् । (प्रा. दि. पृ. १६-उद्धृत)। जाते हैं।
जन्म के तीन मास से लेकर नौ मास के भीतर अन्त्य सूक्ष्म-अन्त्यं परमाणूनाम् । (स. सि. ५, बालक को पूजाविधिपूर्वक अन्न खिलाना प्रारम्भ २४; त. वा. ५, २४, १०; त. वृ. श्रुत. ५-२४)। करने को अन्नप्राशन कहते हैं। परमाणुगत सूक्ष्मता को अन्य सूक्ष्म कहते हैं। अन्तशुद्धि - अन्नशुद्धिश्चतुर्दशमलरहितस्याहारस्य अन्त्य स्थूल-१. अन्त्यं जगद्व्यापिनि महास्कन्धे । यतनया शोधितस्य हस्तपुटेऽर्पणम् । (सा. ध. स्वो. (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ११)। २. तत्र टी. ५-४५)। जगद्व्यापी महास्कन्धः अन्त्यस्थूलः । (त. वृ. श्रुत. चौदह मलोंसे रहित और प्रयत्नपूर्वक शोधित आहार ५-२४)।
को हस्त-पुट में अर्पण करना अन्नशुद्धि कहलाती है। जगद्व्यापी महास्कन्ध-गत स्थूलता को अन्त्य स्थूल अन्य (पर) गरणानुपस्थापन प्रायश्चित्त-देखो कहते हैं।
अनुपस्थापन प्रायश्चित्त । ददनन्तरोक्तान (अन्यअन्ध---१. अन्धः योऽकार्यरतः । (प्रश्नो. र. मा. मुनि-छात्राद्यपहरण-तत्प्रहरणादीन्) दोषानाचरतः १६)। २. एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्धि- पर (अन्य) गणोप [गणानुप] स्थापनं प्रायश्चित्तं रेव सह संवसति द्वितीयम् । एतद्द्वयं भुवि न यस्य भवतीति । (चा. सा. पृ. ६४)। स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खल कोऽपराधः ।। देखो अनुपस्थापन प्रायश्चित्त । (अभि. रा. १, पृ. १०५)।
अन्यता-अन्यता सर्वद्रव्याणां परस्परं भेदपरिणाल, १२
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अन्यतीर्थिक-प्रवृत्तानुयोग] ६०, जैन-लक्षणावली [अन्यथानुपपन्नत्व मोऽनादिः । (त. भा. सिद्ध. वृत्ति ७-७)। न्द्रियोऽन्यो वर्तते, कायोऽज्ञः प्रात्मा ज्ञानवान, कायोसर्व द्रव्यों की अनादिकालीन परस्पर विभिन्नता को नित्यः पात्मा नित्यः, कायः आद्यन्तवान् आत्मा अन्यता कहते हैं।
अनाद्यनन्तवान्, कायानां बहुनि कोटिलक्षाणि अति. अन्यतीथिक-प्रवृत्तानुयोग-अन्यतीथिकेभ्यः कपि- क्रान्तानि आत्मा संसारे निरन्तरं परिभ्रमन् स एव लादिभ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तः स्वकीयाचारवस्तुतत्त्वा- तेभ्योऽन्यो वर्तते । एवं यदि जीवस्य कायादपि पृथनामनयोगो विचारः, तत्पुरस्करणार्थः शास्त्रसन्दर्भ क्त्वं वर्तते, तहि कलत्र-पूत्र-गृह-वाहनादिभ्यः पृथइत्यर्थः, सोऽन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग इति । (समवा. क्त्वं कथं न बोभवीति ? अपि तु बोभवीत्येब । एवं अभय. वृ. सू. २६)।
भव्यजीवस्य समाहितचेतसः कायादिषु निःस्पृहस्य अन्यतीथिक अर्थात् कपिल आदि अन्य मताव- तत्त्वज्ञानभावनापरस्य कायादेभिन्नत्वं चिन्तयतो लम्बियों से प्रवृत्त हा जो अपने प्राचार-विषयक वैराग्योत्कृष्टता भवति । तेन तु अनन्तस्य मुक्तिअनुयोग (विचार) है उसके पुरस्कृत करने वाले सौख्यस्य प्राप्तिर्भवतीत्यन्यत्वानुप्रेक्षा। xxx शास्त्रसन्दर्भ को अन्यतीथिक-प्रवृत्तानुयोग कहते हैं। भवन्ति चात्र काव्यानि xxxनो नित्यं जडरूपअन्यत्वभावना-जीवानां देहात् पृथक्त्वे सति मैन्द्रियकमाद्यन्ताश्रितं वर्म यत् सोऽहं तानि वहनि पुत्र-कलत्र-धनादिपदार्थेभ्योऽत्यन्तभेदः, अतस्तत्त्व- चाश्रयमयं खेदोऽस्ति सङ्गादतः । नीर क्षीरवदङ्गतोवृत्त्या लोके कस्यापि सम्बन्धो नास्तीत्यादिचिन्तन- ऽपि यदि मे ऽन्यत्वं ततोऽन्यद् भृशं साक्षात्पुत्र-कलत्रमन्यत्वभावना। (सम्बोधस. व. १९)।
मित्र-गृह-रै-रत्नादिकं मत्परम् ॥ (त. वृत्ति श्रुत. जीव के शरीर से भिन्न होने पर उस शरीर से ६-७)। ६. अण्णं देहं गिण्हदि जणणी अण्णा सम्बद्ध पुत्र-मित्र-कलत्र प्रादि तो उससे सर्वथा भिन्न य होदि कम्मादो। अण्णं होदि कलत्तं अण्णो रहने वाले ही हैं, वस्तुतः जीवका इन सब में से वि य जायदे पुत्तो॥ एवं बाहिरदव्वं जाणदि रूवादु किसी के साथ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा विचार अप्पणो भिण्णं । जाणतो वि ह जीवो तत्थेव हि करना; इसका नाम अन्यत्वभावना है।
रच्चदे मुढो ॥ जो जाणिऊण देसं जीवसरूवाद् अन्यत्वानुप्रेक्षा-देखो अन्यत्वभावना। १. शरी- तच्चदो भिण्णं । अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं रादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा । (स. सि. ६-७)। तस्स अण्णत्तं ।। (कार्तिके. ८०-८२)। २. शरीराद व्यतिरेको लक्षणभेदादन्यत्वम् ॥॥ १शरीर से प्रात्मा की भिन्नता के बार-वार चिन्तxxxतत्र बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदाद- वन करने को अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं। न्यत्वम्, ततः कुशलपुरुषप्रयोगसन्निधौ शरीरादत्यन्त- अन्यथानुपपत्ति-१. अन्यथा अन्येन साध्याभावव्यतिरेकेण आत्मनो ज्ञानादिभिरनन्तरहेयरवस्थानं प्रकारेण, या अनुपपत्तिः लिंगस्य अघटना सा अन्यमुक्तिरन्यत्वं शिवपदमिति चोच्यते । तदवाप्तये च थानुपपत्तिः] । (सिद्धिवि. टी. ५-१५, पृ. ३४६, ऐन्द्रियिकं शरीरम् अतीन्द्रियोऽहम्, अझं शरीरं पं. २०); अन्यथा साध्याभावप्रकारेण अनुपपत्तिः
अनित्यं शरीरं नित्योऽहम्, प्राद्यन्तवच्छरी. अन्यथानुपपत्तिः । (सिद्धिवि. टी.५-२१, पृ. ३५८, रम् अनाद्यन्तोऽहम्, बहूनि मे शरीरशतसहस्राणि पं. १७); तदभावे (व्यापकाभावे) अवश्यं तत् अतीतानि संसारे परिभ्रमतः, स एवाहम् अन्यस्तेभ्यः (व्याप्यं) न भवति इति अन्यथानुपपत्तिरेव समथिता । इत्येवं शरीरादन्यत्वं मे, किमङ्ग पुनर्बाह्य भ्यः परि- (सिद्धिवि. टी. ६-२, पृ. ३७९, पं. ५)। २. x ग्रहेभ्य इति चिन्तनम् अन्यत्वानुप्रेक्षा। (त. वा. ६, XXअसति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः। ७,५)। ३. शरीरव्यतिरेको लक्षणभेदोऽन्यत्वम् । (प्र. न. त. ३-३०)। (त. श्लो. वा. ६-७)। ४. शरीरादपि जीवस्य साध्य के अभाव में हेतु के घटित न होने को अन्यव्यतिरेकोऽन्यत्वम् । (त. सुखबो. वृ. ६-७)। थानुपपत्ति कहते हैं। ५. जीबात् कायादिकस्य पृथक्त्वानुचिन्तनमन्यत्वान- अन्यथानुपपन्नत्व-अन्यथानुपपन्नत्वं साध्याभावे प्रेक्षा भवति । तथाहि-जीवस्य बन्धं प्रति एकत्वे नियमेन साधनस्य अघटनम् । (सिद्धिवि. टी. ५, सत्यपि लक्षणभेदात् काय इन्द्रियमयः प्रात्माऽनि- २३, पृ. ३६१, पं. १३) ।
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अन्यदृष्टि]
६१, जैन-लक्षणावली [अन्य(पर)विवाहकरण देखो-अन्यानुपपत्ति।
च्छेद कहते हैं। जैसे-पार्थ (अर्जुन) ही धनुर्धर है। अन्यदृष्टि-१. अन्यदृष्टिरित्यर्हच्छासनव्यतिरिक्तां अन्यलिङ्ग–अन्यलिङ्ग भौत-परिव्राजकादिवेषः । दृष्टिमाह । (त. भा. ७-१८)। २. जिनवचनव्यति- (त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७)। रिक्ता दृष्टिरन्यदृष्टिरसर्वज्ञप्रणीतवचनाभिरतिः । जैन लिङ्ग से भिन्न भौत (भौतिक) व परिव्राजक (त. भा. सिद्ध. व. ७-१८)।
आदि के वेष को अन्यलिङ्ग कहते हैं । जिनशासन से भिन्न, असर्वज्ञप्रणीत अन्य मत- अन्यलिङ्गसिद्ध-१. अन्यलिङ्गसिद्धाः परिव्राजमतान्तरों से अनुराग रखने को अन्यदृष्टि कहते हैं। कादिलिङ्गसिद्धाः । (श्रा. प्र. टी. ७६; नन्दी. हरि. अन्यदृष्टिप्रशंसा–१. मनसा मिथ्यादृष्टेनि
वृ. पृ. ५१)। २.xxx वल्कलचीरी य अन्न
लिंगम्मि। (नवतत्त्व. गा. ५७)। ३. अन्येषां चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा । (स. सि. ७-२३; त.
परिव्राजकादीनां लिङ्गेन सिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धाः । वृ. श्रुत.७-२३)। २. अन्यदृष्टियुक्तानां क्रियावा
(योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । दिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च
४. अन्य
लिङ्गे परिव्राजकादिसम्बन्धिनि वल्कल-काषाप्रशंसा । (त. भा. ७-१८)। ३. अन्यदृष्टीनां सर्वज्ञप्रणीतदर्शनव्यतिरिक्तानां Xxx पाषण्डिनां
यादिरूपे द्रव्यलिङ्गे ब्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धाप्रशंसा अन्यदृष्टिप्रशंसा । (धर्मबि. मु. वृ. ३-२१)।
स्तेऽन्यलिङ्गसिद्धाः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-७)।
५. जन्मलिने परिव्राजकादिसम्बन्धिन्येव व्यवस्थि१ मन से मिथ्यादृष्टि के ज्ञान-चारित्र गुणों के
ता: सिद्धाः अन्यलिङ्गसिद्धाः । (शास्त्रवा. टी. प्रगट करने को अन्यदृष्टिप्रशंसा कहते हैं।
११-५४)। अन्यदृष्टिसंस्तव-१. अन्यदृष्टिगुक्तानां क्रिया
१ परिवाजक प्रादि अन्य लिङ्गों से सिद्ध होने वाले वादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च
जीवों को अन्यलिङ्गसिद्ध कहते हैं।
मे संस्तवोऽन्यदृष्टिसंस्तवः । (त. भा. ७-१८)।
अन्यलिसिद्धकेवलज्ञान-अन्यलिङ्गसिद्धकेवल२. मिथ्यादृष्टभूतगुणोद्भावनवचनं संस्तवः । (स.
ज्ञानं नाम यदन्यस्मिन् लिङ्गे वर्तमानाः सम्यक्त्वं सि. ७-२३)।
प्रतिपद्य भावनाविशेषात् केवलज्ञानमुत्पाद्य केवलो२ मिथ्यादृष्टि के सद्भूत और असद्भूत गुणों को
त्पत्तिसमकालमेव कालं कुर्वन्ति तदन्यलिङ्गसिद्धवचन से स्तुति करने को अन्यदृष्टिसंस्तव कहते हैं। देव
केवलज्ञानम् । यदि पुनस्तेऽन्यलिङ्गस्थिताः केवलमुअन्ययोगव्यवच्छेद-१. विशेषण-विशेष्याभ्यामुक्तौ त्पाद्यात्मनोऽपरिक्षीणमायुः पश्यन्ति ततः साधुलिङ्गच क्रियया सह । अयोगं योगमपरैरत्यन्तायोग न चा- मेव परिगृह्णन्ति । (प्राव. मलय. वृ. ७८, पृ.८५)। न्यथा ।। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः। जो अन्य लिङ्ग में रहते हुए ही सम्यक्त्व को प्राप्त सामर्थ्याच्चाप्रयोगेऽर्थो गम्यः स्यादेवकारयोः ॥ (सि- कर और भावनाविशेष से केवलज्ञान को उत्पन्न कर द्धिवि. ६, ३२-३३)। २. न वै पूरुषेच्छया चित्रो केवलोत्पत्ति के साथ ही निर्वाण को प्राप्त करते धनुर्धर एव, पार्थ एव धनुर्धरः, नीलं सरोजं भवत्ये- हैं, उनके केवलज्ञान को अन्यलिङ्गसिद्धकेवलज्ञान वेति अयोगव्यवच्छेदादिस्वभावस्थितवाक्येषु अन्य- कहते हैं । थात्वं सम्भाव्यते, तथाप्रतिपत्तिप्रसंगात्। (सिद्धिवि. अन्य (पर) विवाहकरण-१. परस्य (अन्यस्य) स्वो. वृ. ६, ३२-३३)। ३. विशेष्यसंगतवकारो- विवाहः परविवाहः, परविवाहस्य करणं पर (अन्य) ऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः । यथा पार्थ एव धनुर्धरः विवाहकरणम् । (स. सि. ७-२८; त. वा. ७, २८, इति । अन्ययोगव्यवच्छेदो नाम विशेष्यभिन्नता- १)। २. अन्येषां स्व-स्वापत्यव्यतिरिक्तानां विबादात्म्यादिव्यवच्छेदः । तत्रैवकारेण पार्थान्यता- हनं विवाहकरणं कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादात्म्याभावो धनुर्धरे बोध्यते । तथा च पार्थान्यता- दिना वा परिणयनविधानम् (योगशा. स्वो. विव. दात्म्याभाववद्धनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः । ३-६४)। ३. स्वपुत्र-पुत्र्यादीन् वर्जयित्वा अन्येषां (सप्तभं. पृ. २६)।
गोत्रिणां मित्र-स्वजन-परजनानां विवाहकरणं अन्यविशेष्य के साथ प्रयुक्त एवकार को अन्ययोगव्यव- विवाहकरणम् । (कार्तिके. टी. ३३८) ।
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अन्यहितयुता करुणा १२, जैन-लक्षणावली
[अन्वयद्रव्याथिक ३ अपने पुत्र पुत्री आदि को छोड़कर अन्य गोत्र वालों कल्पते । (न्यायवि. २, १७७-७८) । २. अनुरिके, तथा मित्र व स्वजन-परजनादिकों के पुत्र पुत्री त्यध्युच्छिन्नप्रवाहरूपेण वर्तते यद्वा। अयतीत्ययगआदि का विवाह करना, यह अन्य (पर) विवाह- त्यर्थाद्धातोरन्वर्थतोऽन्वयं द्रव्यम् ।। (पञ्चाध्यायी करण नामक ब्रह्मचर्याणुव्रत का अतिचार है। . १-१४२)। अन्यहितयता करुणा-अन्यहितयुता सामान्येनैव अवस्था, देश और काल के भेद के होते हुए जो प्रीतिमत्तासम्बन्धविकलेष्वपि सर्वेषु एवान्येषु सत्त्वेषु कथंचित् तादात्म्य की व्यवस्था देखी जाती है उसे केवलिनामिव भगवतां महामुनीनां सर्वानुग्रहपरा- व्यवहार के लिए अन्वय माना जाता है । यणा हितबुद्धया चतुर्थी करुणा (षोडशक वृ. १३-६)। अन्वयदत्ति-१. अात्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदप्रीतिमत्ता (रागविषयता) का सम्बन्ध नहीं होने पर शेषतः । समं समय-वित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।। भी केवलियों के समान महामुनियों के जो सर्वप्रा- सैषा सकलदत्तिः स्यात् xIxx ॥ (सा. ध. णियों के अनुग्रहविषयक बुद्धि होती है, उसे अन्यहित- १-१८, टि. १)। २. अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रजं वा युता करुणा कहते हैं।
तथाविधम् । ब्रूयादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसअन्यापदेश-"अन्यस्य परस्य सम्बन्धीदं गुड- धर्मणाम् ।। ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयं गृहाखण्डादि" इति व्यपदेशो व्याजोऽन्यापदेशः । (योग- श्रमः । विरज्यन जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥ शा. स्वो. विव. ३-११६) ।
पुत्रः पूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः। यः उप'यह गुड़ अथवा खांड प्रादि अन्य गृहस्थ के हैं, स्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥ तदिदं मे धनं मेरे नहीं हैं', इस प्रकार के कपटपूर्ण वचन को धर्म्य पोष्यमप्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदतिहि परं अन्यापदेश कहते हैं। यह अतिथिसंविभागवत का पथ्या शिवाथिनाम ।। (सा. ध. ७, २४-२७) । पांचवां अतिचार है।
३. सकलदत्तिः प्रात्मीयस्वसन्ततिस्थापनार्थ पूत्राय अन्यापोह-स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिन्यापोहः । गोत्रजाय वा धर्म धनं च समर्प्य प्रदानमन्वयदत्तिश्च (अष्टशती ११)।
सैव । (कातिके. टीका ३६१)। स्वभावान्तर से विवक्षित स्वभाव की भिन्नता को २ अपनी सन्तानपरम्परा को स्थिर रखने के लिये अन्यापोह कहते हैं।
पुत्र को या सगोत्री को धर्म के साधनभूत चैत्यालय अन्योन्यप्रगृहीतत्व-अन्योन्यप्रगृहीतत्वं परस्परेण आदि एवं घनादि के प्रदान करने को अन्वयत्ति पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता । (समवा. अभय. वृ. कहते हैं। इसका दूसरा नाम सकलदत्ति भी है। सू. ३५, रायप. टी. पृ. १६)।
अन्वयदृष्टान्त -१. साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदपदों या वाक्यों की परस्पर सापेक्षता को अन्योन्य- य॑ते सोऽन्वयदृष्टान्तः । (परीक्षा. ३-४४) । २. प्रगृहीतत्व कहते हैं।
साधनसत्तायां यत्रावश्यं साध्यसत्ता प्रदर्श्यते सोऽन्वअन्योन्याभाव-१. गवि योऽश्वाद्यभावश्च सोऽन्यो- यदृष्टान्तः । (षड्दर्शन. टीका ४-५५, पृ. २१०)। न्याभाव उच्यते । (प्रमाल. ३८६)। २. गवि २. अन्वयव्याप्तिप्रदर्शनस्थानमन्वयदृष्टान्तः । (न्याबलीव योऽयमश्वादीनामभावः सोऽन्योन्याभावः, यदी. पृ. ७८)। अन्योऽपरो गोरश्वस्यस्यान्यस्याश्वादेर्गवि अभावस्ता- १ जिस स्थान पर साध्य से व्याप्त साधन दिखाया दात्म्यनिषेधो यः सोऽयमन्योन्याभाव उच्यते इति जाय उसे अन्वयदृष्टान्त कहते हैं। सम्बन्धः । ३. तादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगिताका- अन्वयद्रव्याथिक-णिस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण भावत्वमन्योन्याभावलक्षणम् । (अष्टस. यशो. व. दव्वदव्वेदि [दव्वदव्वमिदि] । दव्वठवणो हि जो ११. पृ. १६६)।
सो अण्णयदव्वत्थिनो भणियो ।। (ल. नयच. २४); गाय आदि किसी एक वस्तु में अन्य अश्व आदि के णिस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदम्वेहि । विबप्रभाव को अन्योन्याभाव कहते हैं।
हावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिरो भणिदो ।। अन्वय-१. अवस्था-देश-कालानां भेदेऽभेदव्यव- (बृ. नयच. १६७, प. ७३); सामान्यगुणाद्यन्वयस्थितिः ।। या दृष्टा सोऽन्वयो लोके ब्यवहाराय रूपेण द्रव्यं द्रव्यमिति द्रवति व्यवस्थापयतीत्यन्वय
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अन्वयव्यतिरेकी] ६३, जैन-लक्षणावली
[अपचयभावमन्द द्रव्याथिकः । (प्रालाप.--नयच. पृ. १४५)। वरसोक्खा ॥ (प्रा. पंचसं. १-१०८; धव. पु. यह भी द्रव्य है, यह भी द्रव्य है। इस प्रकार समस्त १, पृ. ३४२ उ.; गो. जी. २७५) । २. अपगतास्वभावों के अन्वय रूप से जो द्रव्य को स्थापित स्त्रयोऽपि वेदसन्तापा येषां तेऽपगतवेदाः, प्रक्षीणान्तकरता है उसे अन्वयद्रव्याथिक कहते हैं।
हा इति यावत् । (धव. पु. १, पृ. ३४२); मोहअन्वयव्यतिरेकी --- पञ्च रूपोपपन्नोऽन्वयव्यति- णीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो। रेकी । (न्या. दी. पृ. ६०)।
वेदजणिदजीवपरिणामस्स परिणामेण सह कम्मक्खंजो हेतु पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबा- धस्स वा अभावो अवगदवेदो। (धव. पु. ५, पृ. धितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व; इन पाँचों रूपों २२२)। ३. करीषजेन ताणेन पावकेनेष्टकेन च । से युक्त होता है उसे अन्वयव्यतिरेकी हेतु कहते हैं। समतो वेदतोऽपेताः सन्त्यवेदा गतव्यथा. ॥ अपकर्षण (प्रोक्कडुण)-१. पदेसाणं ठिदीणमो- अमित. १-२०२)। वट्टणा प्रोक्कडुणा णाम । (धव. पु. १०, पृ. ५३)। १कारीष, तृण और इष्टिकापाक की अन्नि के २. स्थित्यनुभागयोहानिरपकर्षणम् । (गो. क. जी. समान जो क्रम से स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्र. टी. ४३८) ।
रूप परिणामों के वेदन (उदय) से रहित जीवों को कर्मप्रदेशों की स्थितियों के हीन करने का नाम अप- अपगतवेद या अपगतवेदी कहते हैं। कर्षण है।
अपचयद्रव्यमन्द-अपचयद्रव्यमन्दस्तु यः कृशशअपक्रमषट्क---१. चतसृषु दिक्षूलमधश्चेति रीरतया कमपि प्रयास न कर्तुमीष्टे । (बृहत्क. भवान्तरसंक्रमणषट्केनापक्रमेण युक्तत्वात् षट्काप- वृ. ६६७) । क्रमयुक्तः । (पंचास्तिकाय अमृत. वृत्ति ७२)। जो शरीर के कृश होने से कुछ भी प्रयास (परि२. छक्कापक्कमजुत्तो-अस्य वाक्यस्यार्थः कथ्यते श्रम) न कर सके उसे अपचयद्रव्यमन्द कहते हैं। ---अपगतो विनष्ट: विरुद्धक्रमः प्रांजलत्वं यत्र स अपचयपद-१. अवयवापचयनिबन्धनानि-यथा भवत्यपक्रमो वक्र इति ऊधिोमहादिकचतुष्टय- छिन्नकर्णः छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि । गमन रूपेण षड्विधेनापक्रमेण मरणान्ते युक्तः धव. पु. १, पृ. ७७); छिण्णकरो छिण्णणासो इत्यर्थः । (पंचा. का. जय. वृ. ७२)। ३. पूर्व काणो कंटो इच्चादीणि अवचिदणिबंधणाणि । दक्षिण-पश्चिमोत्तरोधिोगतिभेदेन संसारावस्थायां (धव. पु. ६, पृ. १३७)। २. छिण्णकण्णो छिण्णषट्कापक्रमयुक्तः। (गो. जी. म. प्र. व जी. त.प्र. णासो काणो कुंठो (टो) खंजो बहिरो इच्चाईणि टी. ३५६)।
णामाणि अवचयपदाणि, सरीरावयवविगलत्तमवेमरण के समय विरुद्ध गति का न होना, इसका क्खिय एदेसि णामाणं पउत्तिदंसणादो। (जयध. प्र. नाम अपक्रम है। यह ऊर्ध्व, अधः और पूर्वादि चार; १, पृ. ३३)। इन छह दिशाओं के भेद से छह प्रकारका है। २ छिन्न कर्ण, छिन्ननासा, काना, कुंट (कुबड़ा, वौना इसीसे उसे 'अपक्रमषट्क' के नाम से कहा जाता है। अथवा हाथ से हीन), कुबड़ा, लंगड़ा और बहिरा अपक्व दोष-१.xxx अपक्वं पावकादिभिः । आदि नामपद विशिष्ट शरीरावयव की हीनता के द्रव्यैरत्यक्तपूर्बस्ववर्ण-गन्ध-रसं विदु.॥ (प्राचा. सा. सूचक होने से अपचयपद कहलाते हैं। ८-५२; भावप्रा. टी. १००)। २. अपक्वं यदग्नि- अपचयभावमन्द-अपचयभावमन्दस्तु यो निजसनाऽन्येन वा इन्धनधमादिना प्रकारेण न पक्वम् । हजबुद्धेरभावेनान्यदीयाया बुद्धरनुपजीवनेन हिताहि(बृहत्क. वृ. १०८)।
तप्रवृत्ति-निवृत्ती न कर्तुमीशः स बुद्धेरपचयेन भावतो अग्नि आदि द्रव्य के द्वारा जिसका रूप, रस व गन्ध मन्दत्वादपचयभावमन्दः। अथवा यस्तु परिस्थूरअन्यथा न हुआ हो, उसका सेवन करने पर अपक्व- मतिः स बुद्धेः स्थूलसूत्रतया अन्तनिःसारतालक्षणदोष होता है।
मपचयमधिकृत्यापचयभावमन्दः । (बृहत्क. वृ.६६७) अपगतवेद-१. करिस-तणेद्रावग्गीसरिसपरिणाम- जो अपनी बद्धि की हीनता से अपने हित-अहित में वेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सगसंभवणंत- प्रवृत्ति और परिहार न कर सके और परकी बुद्धि से
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पद दोष ]
कार्य करे उसे बुद्धिहीनता के कारण भावनिक्षेप के श्राश्रय से अपचयभावमन्द कहते हैं । प्रपद दोष - १. अपदं पद्यविधौ पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभिधानम् । यथा श्रार्यापादे वैतालीयपादाभिधानम् । ( श्राव. हरि. वृ. ८८२, पृ. ३७५ ) । ३. प्रपदं यत्र पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोभिधानम् । ( श्राव. मलय. वृ. ८८२, पृ. ४८३) ।
१ किसी पद्य की रचना में अन्य छन्द के कहने को पददोष कहते है । जैसे- श्रार्या छन्द में वैतालीय छन्द के चरण की योजना । यह सूत्र के अलीक आदि ३२ दोषों में १८वां दोष है ।
पद - सचित्त द्रव्यपरिक्षेप - यत्पुनर्वृक्षैः [ परिवेनं] सोऽपदपरिक्षेपः । (बृहत्क. वृ. १९२२) । पादविहीन वृक्षों से ग्राम-नगरादि के वेष्टित करने को पद सचित्त द्रव्यपरिक्षेप कहते हैं ।
पदोपक्रम - अपदानां वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वार्धक्यादिगुणापादनमपदोपक्रमः । श्राव. नि. मलय. वू. गा. ७६, पृ. ११) । पादरहित सचित्त वृक्षादिकों के वृक्ष सम्बन्धी श्रायुवेद के उपदेश से वृद्धत्व आदि गुणों का कथन करना, इसे पद-सचित्त - द्रव्योपक्रम कहते हैं । अपध्यान - १. वध-बन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । श्रध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ ( रत्नक. ३ - ३२ ) । २. परेषां जय-पराजय-वध-बन्धनाङ्गच्छेद- परस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् । ( स. सि. ७- २१; त. वा. ७, २१, २१; चा. सा. पू. ६; त. सुखबो. वृ. ७ - २१; त. वृत्ति श्रुत. ७-२१) । ३. प्रपध्यान इति प्रपध्यानाचरितोऽप्रशस्तध्यानेनासेवितः । अत्र देवदत्तश्रावककङ्कणकप्रभृतयो ज्ञापकम् । (श्रा. प्र. टी. २८६ ) । ४. अपध्यानं जयः स्वस्य यः परस्य पराजयः । बधबन्धार्थहरणं कथं स्यादिति चिन्तनम् || ( ह. पु. ५८-१४६) । ५. संकल्पो मानसी वृत्तिर्विषयेष्वनुतर्षिणी । सैव दुःप्रणिधानं स्यादपध्यानमतो विदुः ॥ ( म. पु. २१ - २५ )। ६. नरपतिजय-पराजयादिसंचिन्तनलक्षणादपध्यानात् x x x । (त. इलो. ७-२१)। ७. पार्पाद्ध-जय-पराजय- सङ्गर-परदारगमन चौर्याद्याः । न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ।। (पु. सि. १४१) । ८. स्वयं विषयाभवरहितोऽप्ययं जीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टं
६४, जैन -लक्षणावली
[ अपरत्व
श्रुतं च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. २२) । ६. अपकृष्टं ध्यानमपध्यानम् । तदनर्थदण्डस्य प्रथमो भेदः । XXX एवमार्त- रौद्रध्यानात्मकमपध्यानमनर्थदण्डस्य प्रथमो भेदः । (योगशा. स्वो विव. ३-७३, पृ. ४६५ व ४६७ ) । १०. वैरिघातो नरेन्द्रत्वं पुरघाताग्निदीपने । खचरत्वाद्यपध्यानं मुहूतत् परतस्त्यजेत् ।। (योगशा. ३ - ७५ ) । ११. वैरिघात - पुरघाताग्निदीपनादिविषयं रौद्रध्यानम्, नरेन्द्रत्वं खचरत्वम्, आदिशब्दादप्सरोविद्याधरीपरि - भोगादि, तेष्वार्तध्यानरूपमपध्यानम् । (योगशा. स्वो विव. ३-७५) । ११. XX X प्रपध्यानं नार्तरौद्रात्म चान्वियात् । ( सा. ध. ५ - ९ ) । १२. वघो बन्धोऽङ्गच्छेद-स्वहृती जय-पराजयौ । कथं स्यादस्य चिन्तेत्यपध्यानं तग्निगद्यते । ( धर्मसं. श्री. ७-९ ) । १ राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरों के बध, बन्धन, छेदन और परस्त्री प्रादि के हरने का विचार करना अपध्यान कहलाता है ।
अपरत्व - १. ते (परत्वापरत्वे) च क्षेत्रनिमित्ते प्रशंसानिमित्ते कालनिमित्ते च सम्भवतः । तत्र क्षेत्रनिमित्ते तावदाकाशप्रदेशाल्पबहुत्वापेक्षे । एकस्यां दिशि बहूनाकाशप्रदेशानतीत्य स्थितः पदार्थः पर इत्युच्यते । ततोऽल्पानतीत्य स्थितोऽपर इति कथ्यते । प्रशंसाकृते अहिंसादिप्रशस्तगुणयोगात् परो धर्मः । तद्विपरीतलक्षणस्त्वधर्मोऽपर इत्युच्यते । कालहेतुकेशतवर्षः पुमान् परः, षोडशवर्षस्त्वपर इत्याख्यायते । (त. सुखबोध वृत्ति ५ - २२ ) । २. दूरदेशवर्तिनि गर्भरूपे [अर्भकरूपे] व्रतादिगुणसहिते च अपरत्वव्यवहारो वर्तते । (त. वृत्ति श्रुत. ५ - २२) ।
१ परत्व और अपरत्व तीन प्रकारके हैं- क्षेत्रनिमित्त, प्रशंसानिमित्त और कालनिमित्त । उनमें वे क्षेत्रनिमित्त श्राकाशप्रदेशों के अल्प-बहुत्व की अपेक्षा माने जाते हैं । जैसे—जो पदार्थ एक दिशा में बहुत श्राकाशप्रदेशों को लांघकर स्थित है वह पर और जो अल्प श्राकाशप्रदेशों को लांघकर स्थित है वह पर माना जाता है । प्रशंसानिमित्त - श्रहिंसा श्रादि प्रशस्त गुणों के सम्बन्ध से धर्म को पर तथा इसके विपरीत धर्म को अपर कहा जाता है । कालहेतुक - सौ वर्ष का वृद्ध पुरुष पर और सोलह वर्ष का बालक अपर कहा जाता है ।
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अपरमर्मवेधित्व] ६५, जैन-लक्षणावली
[अपरिग्रह अपरमर्मवेधित्व-अपरमर्मवेधित्वं परमर्मानुद्घ- भयं प्रति नान्यस्या उपघातं करोति सा अपरावर्तट्टनस्वरूपत्वम् । (समवा. अभय. वृत्ति ३५, रायप. माना । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-४४) । २. यास्त्ववृ.प.१६-१७)।
न्यस्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयमुभयं वाऽनिवार्य स्वकीयं दूसरे के मर्मस्थान के नहीं भेदने वाले वचन का बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति, ता न परावर्तन्त इति बोलना, इसका नाम अपरमर्मवेधित्व है।
कृत्वाऽपरावर्तमाना उच्यन्ते । (शतक. दे. स्वो. अपरविदेह-मेरोः सकाशात् पश्चिमायां दिश्यपर- टी. १)। विदेहः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-१०)।
२ जो प्रकृतियां अन्य प्रकृतियों के बन्ध, उदय या दोनों मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर जो विदेह क्षेत्र का को ही नहीं रोक कर अपने बन्ध, उदय या दोनों प्राधा भाग अवस्थित है वह अपरविदेह कह- को प्राप्त होती हैं, परिवर्तित नहीं होती हैं, उन्हें लाता है।
अपरावर्तमान प्रकृति कहते हैं। अपरसंग्रह-द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वा- अपरिखे दित्व-अपरिखेदित्वं अनायाससम्भवः । नस्तभेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसं- (समवा. अभय. वृ. ३५; रायप. वृ. पृ. १७)। ग्रहः ॥ धर्माधर्माकाश-काल-पुद्गल-जीवद्रव्याणा- अनायास -- विना परिश्रम के-ही वचन के निर्गमैक्यं द्रव्यादिभेदादित्यादिर्यथा ।। (प्र. न. त. ७, मन को अपरिखेदित्व कहा जाता है। यह सत्य १९-२०; स्याद्वादम. टी. श्लो. २८; जैनतर्कप. वचन के पैंतीस अतिशयों में चौतीसवां है। पृ. १२७; नयप्र. पृ. १०१)।
अपरिगृहोता-या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा जो द्रव्यत्व प्रादि अवान्तर सामान्यों को स्वीकार परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। करता हुआ उनके भेदो की उपेक्षा करता है उसे (स. सि. ७-२८; त. वा. ७, २८, २; त. सुखबो. वृ. अपरसंग्रहनय कहते हैं।
७-२८ त. वृ. श्रुत. ७-२८)। अपर संग्रहाभास-द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्वि- जो पतिविहीन स्त्री गणिका या पुंश्चली रूप से पर शेषान् निनुवानस्तदाभासः । (प्र. न. त.७-२१)। पुरुषों के पास प्राती जाती हो उसे अपरिगृहीता इत्वद्रव्यत्व आदि अवान्तर सामान्यों के मानने वाले रिका कहते है। तथा उनके विशेष भेदों का परिहार करने वाले अपरिगृहीतागमन-१. अपरिगृहीता नाम वेश्या नय को अपरसंग्रहाभास कहते हैं।
अन्यसक्ता गृहीतभाटी कुलाङ्गना वा अनाथेति, अपराजित-१. तैरेव विघ्नहेतुभिर्न पराजिताः । तद्गमनम् अपरिगृहीतागमनम्। (श्रा.प्र.टी. २७३; अपराजिताः । (त. भा. ४-२०) । २. तैरेव चाभ्यु- प्राव. हरि. वृ. ६, पृ. ८२५) । २. वेश्या स्वैरिणी दयविघातहेतुभिर्न पराजिता इत्यपराजिताः। (त. प्रोषितभर्तृ कादिरनाथा अपरिगृहीता, तदभिगममाभा. सिद्ध. वृ. ४-२०)।
चरतः स्वदारसन्तुष्टस्यातिचारः, न तु निवृत्तपर. जो विघ्न के कारणों से पराजित न हों, उन्हें अप- दारस्य। (त. भा. सिद्ध. वृ.७-२३)। राजित विमान कहा जाता है ।
वेश्या अधवा अन्य पुरुष में प्रासक्त होकर भाड़े को अपराध (प्रवराह)-१. संसिद्धिराघसिद्धी साधि- ग्रहण करने वाली अनाथ व कुलीन स्त्री अपरिगृहीता दमाराधिदं च एयट्ठो। अवगदराधो जो खलु चेदा कहलाती है। इस प्रकारको अपरिगृहीता स्त्री के सो होदि अवराहो ॥ (समयप्रा. ३३२) । २. पर- साथ समागम करना, यह ब्रह्मचर्य-अणुवत का एक द्रव्यपरिहारेण शुद्धस्वात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अतिचार है। अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधः । (समयप्रा. अपरिग्रह-१. ममेदंभावो मोहोदयजः परिग्रहः, अमृत. वृ. ३३२)।
ततो निवृत्तिरपरिग्रहता। (भ. प्रा. विजयो. टी. २ पर द्रव्यों का परिहार करके शुद्ध प्रात्मा को ५७)। २. विज्ञाय जन्तुक्षपणप्रवीणं परिग्रहं यस्तृणसिद्ध करना, इसका नाम राध है। इस प्रकारके वज्जहाति । विमर्दितोद्दामकषायशत्रुः प्रोक्तो मुनीराध से जो रहित है उसे अपराध कहते हैं । न्द्ररपरिग्रहोऽसौ ॥ (धर्मप. २०-६१)। ३. सर्वअपरावर्तमाना (प्रकृति)-१. या तु बन्धोदयो. भावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । (योगशा.
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अपरिग्रहमहाव्रत] ६६, जैन-लक्षणावली
[अपरीतसंसार ३-२४; त्रि. श. पु. च. १, ३, ६२६)। परिणामों को अपरिवर्तमान परिणाम कहते हैं। १ मोह के उदय से होने वाले 'ममेदभाव को- अपरिश्राविन (प्राचार्य)-जो अन्नस्स वि दोसे न यह मेरा है, इस प्रकार की ममत्वबुद्धि को' परिग्रह कहेइ असो अपरिसावी। (ग. गु. षट्. स्वो. टी. कहा जाता है। उस परिग्रह से निवत्त हो जाना, ७, प. २८)। इसका नाम अपरिग्रहता है।
जो पुरुष दूसरों के भी दोषों को न कहे, उसे अपरिअपरिग्रहमहाव्रत--धण-धण्णाइवत्थूणं परिग्गह- श्रावी कहते हैं। विवज्जणं । तिविहेणावि जोगेणं पंचमं तं महव्वयं ।। अपरिश्राविन (स्नातक)-निष्क्रियत्वात् सकल(गु. गु. षट्. स्वो. टी. ३, पृ. १३) ।
योगनिरोधे त्वपरिश्रावी । (त. भा. सिद्ध. व. धन-धान्यादि सर्व प्रकारके परिग्रह का यावज्जीवन ९-४६)। मन-वचन-काय से त्याग करने को अपरिग्रहमहावत योगों का निरीध हो जाने पर सर्व प्रकारके कर्माकहते हैं।
स्रव से रहित हए अयोगिकेवली को अपरिश्रावी अपरिगत दोष-१. तिलतंडुल उसणोदय चणोदय स्नातक कहते हैं। तुसोदयं अविद्धत्थं । अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं अपरीक्षित प्रतिसेवना - १. अपरिच्छियत्ति णेव गेण्हिज्जो ।। (मूला. ६-५४)। २. तथाऽपरि- कज्जाकज्जाइं अपरिक्खिउं सेवइ। (जीत. च. प. णतोऽविध्वस्तोऽग्न्यादिकेनापक्वः, तमाहारं पानादि- ३, पं. १६)। २. आय-व्ययमपरीक्ष्य पडिसेवणा। कं वा यद्यादत्तेऽपरिणतनामाशनदोष: । (मूला. वृ. (जीत. चू. वि. व्या. पृ. ३४, ७)। ६-४३)। ३. देयद्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेनापरिणमनाद- अपने प्राय-व्यय का विचार न करके जो अपवादपरिणतम् । (योगशा. स्वो. विव. वृ. १-३८, पृ. विशेष नियम–में प्रवृत्त होता है, इसे अपरीक्षित १३७)। ४. तुषचणतिलतण्डुल जलमुष्णजलं च स्व- प्रतिसेवना कहते हैं। वर्णगन्धरसः । अरहितमपरमपीदशमपरिणतम् xx अपरोक्षी-अपरीक्षी युक्तायुक्तपरीक्षाविकलः । X।। (अन. ध. ५-३२)।
(व्यवः भा. मलय. वृ. ६३४, पृ. ८४) । २ अग्नि आदि से जिन पदार्थों के रूप, रस, गन्ध योग्य-अयोग्य की परीक्षा से रहित व्यक्ति अपरीप्रादि नहीं बदले हैं, ऐसे पदार्थों को प्राहार में ग्रहण क्षी कहलाता है। करने पर अपरिणत दोष होता है ।
अपरीतसंसार-१. संसारअपरित्ते दु० प० त० अपरिणामक साधु---जो दव्व-खेत्तकयकाल-भाव- अणादीए वा सपज्जवसिते अणादीए वा अपज्जयो जं जहा जिणक्खायं । तं तह असहा जाण वसिते । (प्रज्ञाप. १८-२४७)। २. अणादियमिअपरिणामयं साहुं । (बृहत्क. ७६४)।
च्छादिदी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुव्वजिनदेव ने जिस वस्तु को द्रव्य, क्षेत्र, काल और करणं अणियट्टिकरणमिदि एदाणि तिण्णि करणाणि भाव की अपेक्षा जैसा कहा है उसका उसी प्रकार कादूण सम्मत्तं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण से श्रद्धान नहीं करने वाले साधु को अपरिणामक पुव्विल्लो अपरित्तो संसारो अोहट्टिदूण परित्तो कहते हैं।
पोग्गलपरियदृस्स अद्धमेत्तो होदण उक्कस्सेण चिद्रादि । अपरिमितकाल सामायिक-ईर्यापथादौ (सामा- (धव. पु. ४, पृ. ३३५) । ३. संसारापरीतः सम्ययिकग्रहणं) अपरिमितकालं वेदितव्यम् । (त. वृ. क्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः। Xxx संसाराश्रुत. ६-१८)।
परीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि ईर्यापथ आदि में जिस सामायिक को ग्रहण किया संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सो अनाजाता है वह अपरिमितकाल सामायिक कहलाती है। दि-सपर्यवसितः । (प्रज्ञाप. मलय. व. १५-२४७, अपरिवर्तमान परिणाम-अणुसमयं वडढमाणा पृ. ३६४)। हायमाणा च जे संकिलेस-विसोहिपरिणामा ते अपरि- २ अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अपरीतसंसारयत्तमाणा णाम । (धव. पु. १२, पृ. २७) ।। अनन्तसंसार की परमिततासे रहित-कहलाता है। प्रतिसमय वर्धमान या हीयमान संक्लेश व विशद्ध ३ जिसने सम्यक्त्व प्रादि के द्वारा संसार को परि
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अपर्याप्त ६७, जैन-लक्षणावली
[अपलाप मित नहीं किया है वह अपरीतसंसार या संसारा- अपज्जत्तणामसण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६२)। परीत कहलाता है। वह अनादि-अपर्यवसित और - २. ता एव षड़ यथास्वं शक्तयो विकला अपर्याप्तसादि-सपर्यवसित के भेद से दो प्रकारका है। यस्ता यस्योदयाद् भवन्ति तदपर्याप्तकनाम । जिसका संसार अनादि होकर कभी अन्त को प्राप्त (कर्मस्त. गो. व. ९-१०: शतकप्र. मल. हे. व. होने वाला नहीं है-जैसे अभव्य जीव का - वह ३८, पृ. ५०)। ३. यदुदयाच्च स्वयोग्यपर्याप्तिअनादि-अपर्यवसित अपरीतसंसार कहलाता है। परिसमाप्तिसमर्थो न भवति तदपर्याप्तकनाम । और जिसका संसार अनादि होकर भी अन्त को (प्रव. सारो टी. गा. १२६४, पृ. ३६५)। ४. प्राप्त होने वाला है-जैसे भव्य जीव का-उसका यदुदयात स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला नाम अनादि-सपर्यवसित अपरीतसंसार है।
जन्तवो भवन्ति तदपर्याप्तनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. अपर्याप्त-१. अपयप्तिा आहार-शरीरेन्द्रिय- वृ. ५०)। ५. पर्याप्तकनामविपरीतमपर्याप्तकनाम प्राणापान-भाषा-मन:पर्याप्तिभी रहिताः । (श्रा. प्र. यदुदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिसमर्थो न भवति । टी. ७०)। २. अपर्याप्तकनामकर्मोदयादनिष्पन्न- (कर्मवि. मलय. व. ५)। ६. अपर्याप्तकनाम उक्तपर्याप्तियोगादपर्याप्तास्त एवापर्याप्तका इति। विपरीतम्-यदुदयात् सम्पूर्णपर्याप्त्यनिष्पत्तिर्भवति । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४४)। ३. अपर्याप्तनामकर्मो- (धर्मसं. मलय. वृ. गा. ६१९)। ७. षड्विधपर्यादयजनितशक्त्याविर्भावितवृत्तयः अपर्याप्ताः । (धव. प्त्यभावहेतुरपर्याप्तनाम । (भ. प्रा. मला. टी. पु. १, पृ. २६७); अपज्जत्तणामकम्मोदयसहिद- २१२४) । ८. यस्योदये स्वपर्याप्तिभिरपरिपूर्णो पुढविकाइयादो अपज्जत्ता त्ति घेत्तब्वा, णाणिप्प- भवति, न्यून एव कालं करोति, तदपर्याप्तनाम च
ज्ञातव्यम् । (कर्मवि. पू. व्याख्या ७३, प. ३३)। रीराणं पि गहणप्पसंगादो ।(धव. पु. ३, पृ. ३३१); १ जिस कर्म के उदय से जीव अपनी यथायोग्य अपज्जत्तणामकम्मोदएण अपज्जत्ता भण्णंति । (धव. पर्याप्तियों को पूरा न कर सके, उसे अपर्याप्त नामपु. ६, पृ. ४१६)। ४. तद्विपक्षनामोदयादपर्या- कर्म कहते हैं। प्तकाः । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-६)। ५. ये पुनः अपर्याप्ति--एतासां (पर्याप्तीनां) अनिष्पत्तिरस्वयोग्यपर्याप्तिविकलास्ते अपर्याप्ताः । (पंचसं. पर्याप्तिः । (धव. पु. १, पृ. २५६); पर्याप्तीनामर्धमलय. वृ. १-५)। ६. ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्ति- निष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। (धव. पु. १, पृ. परिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्तकाः। (षडशी. दे. २५७)। स्वो. वृ. २) । ७. अपर्याप्तनामकर्मोदयादपर्याप्तका पर्याप्तियों की अपूर्णता अथवा उनको अर्धपूर्णता ये स्वपर्याप्तीनं पूरयन्तीति । (स्थाना. अभय. वृ. का नाम अपर्याप्ति है। २, १, ७३) । ८. अपर्याप्तकजीवस्तु नाश्नुते वपू:- अपर्याप्तिनाम- १. षडविधपर्याप्त्यभावहेतुरपूर्णताम् । अपर्याप्तकसंज्ञस्य तद्विपक्षस्य पाकतः ।। पर्याप्तिनाम । (स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, (लाटीसं. ५-७६)।
३३; त. इलो. ८-११)। २. अपर्याप्तिनिवर्तकम३ जो पृथिवीकायिक प्रादि जीव अपर्याप्त नाम- पर्याप्तिनाम, (अपर्याप्तिनाम) तत्परिणामयोग्यकर्म के उदय से सहित होते हैं उन्हें अपर्याप्त कहा दलिकद्रव्यमात्मनोपात्तमित्यर्थः । (त. भा. जाता है। जिन जीवों का शरीर पूर्ण नहीं हुआ है, . ८-१२) । ३. यदुदयेन अपरिपूर्णोऽपि जीवो म्रियते उन्हें अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अन्यथा तदपर्याप्तिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। पर्याप्त नामकर्म के उदय में भी जिनका शरीर १ छह प्रकारकी अपर्याप्तियों के अभाव का जो पूर्ण नहीं हुआ है उनके भी अपर्याप्त होने का कारण है उसे अपर्याप्ति नामकर्म कहते हैं। प्रसंग प्राप्त होता है।
अपलाप-१. कस्प्रचित्सकाशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुअपर्याप्तनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण जीवो रित्यभिधानमपलापः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११३)। पज्जत्तीग्रो समाणेदुं ण सक्कदि तस्स कम्मस्स किसी के पास में प्रागम को पढ़कर अन्य गुरु का
ल. १३
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अपवर्ग] १८, जैन-लक्षणावली
[अपवाद नाम बतलाना अपलाप कहलाता है।
क्रियते स्थित्यनुभागौ यया सा अपवर्तना । (पंचसं. अपवर्ग-१.तभावे(रागादिप्रक्षये)ऽपवर्गः। स प्रात्य- मलय. वृ. गा. १-१)। ६. तयोरेव (स्थित्यनुन्तिको दुःखविगम इति । (धर्मबि. २, ७४-७५)। भागयोः) ह्रस्वीकरणमपवर्तना । अपवय॑ते ह्रस्वीअपवर्गो फलं यस्य जन्म-मृत्यादिवजितः। परमानन्द- क्रियते स्थित्यादि यया साऽपवर्तना। (कर्मप्र. मलय.
kx)। (धर्मबि. श्लोक ५-२६, प. व. गा.१-२)। ७. अपवयेते हस्वीक्रियेते तो ६३)। २. अपवृज्यन्ते उच्छिद्यन्ते जाति-जरा- यया साप्रवर्तना। (कर्मप्र. यशो. टी. गा. १-२) । मरणादयो दोषा अस्मिन्नित्यपवर्गः मोक्षः । (धर्मबि. १ सर्वत्र-बन्धावन्धकाल में-जो स्थिति और मु. च. वृ. १, श्लोक २)।
अनुभाग की अपवर्तना होती है-उन्हें कम किया जहां जन्म, जरा और मरणादि दोषों का अत्यन्त जाता है, इसका नाम अपवर्तना या अपकर्षण है। विनाश हो जाता है ऐसे मोक्ष का नाम अपवर्ग है। अपवर्तनासंक्रम-प्रभूतस्य सतः स्तोकीकरणमअपवर्त-बाह्यप्रत्ययवशादायुषो ह्रासोऽअपवर्तः। पवर्तनासंक्रमः । (पंचसं. मलय. वृ. संक्रम. गा.५७)। बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विष-शस्त्रादेः सति सन्नि- जिसके द्वारा कर्मों की प्रचुर स्थिति और अनुभाग धाने ह्रासोऽपवर्त इत्युच्यते । (त. वा. २, ५३, ५)। को कम किया जाय उसे अपवर्तनासंक्रम कहते हैं । प्रायुविधात के बाह्य निमित्तरूप जो विष व शस्त्र अपवर्त्य- १. बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषप्रादि हैं उनकी समीपता के होने पर जो उस (प्रायु- शस्त्रादेः सन्निधाने ह्रस्वं भवतीत्यपवर्त्यम् । (स. स्थिति) में कमी होती है उसका नाम अपवर्त है। सि. २-५३) । २. विष-शस्त्र-वेदनादिबाह्यअपवर्तन-देखो अपकर्षण व अपवर्तना । १. अप- निमित्तविशेषेणापवर्त्यते ह्रस्वीक्रियते इत्यपवर्त्यम्, वर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात् कर्मफलोपभोगः। (त. भा. अपवर्तनीयमिन्यर्थः । (त. सुखबो. २-५३)। २-५२)। २. अपवर्तनं स्थिति-रसहापनम् । (षडशी. १ जो प्रायु उपघात के कारणभूत विष-शस्त्रादिरूप हरि. वृ. ११)। ३. अपवर्तनं स्वप्रकृतावेव स्थितेः बाह्य निमित्त के मिलने पर हानि को प्राप्त हो ह्रस्वीकरणं प्रकृत्यन्तरे वा स्थितेनयनम् । (पंचसं. सकती है वह अपवर्त्य प्रायु कहलाती है। स्वो. वृ. संक्रम. गा. ३५)। ४. शीघ्र यः सकला- अपवाद-१.xxx रहियस्स तमववाो उचियं युष्ककर्मफलोपभोगस्तदपवर्तनम् । (त. भा. सिद्ध. चियरस्सXxx ॥ (उप. पद ७८४)। २. बाल
२-५१)। ५. अपवर्तनं स्थितिहासः । विशेषा. वृद्ध-श्रान्त-ग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनवृ. गा. ३०१५)। ६. अपवर्तनं दीर्घकालवेद्यस्या- भूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो यथा न स्यायुषः स्वल्पकालवेद्यतापादनम् । (संग्रहणी. दे. वृ. तथा बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृदेवा२५६) । ७. अपवर्तनं तेषामेव कर्मपरमाणूनां दीर्घ- चरणमाचरणीयमित्यपवादः । (प्रव. सा. अमृत. स्थितिकालतामपगमय्य ह्रस्वस्थितिकालतया व्यव- वृ. ३-३०) । ३. रहितस्य द्रव्यादिभिरेव तदनुष्ठास्थापनम् । (पंचसं. मलय. वृ. संक्रम. गा. ३५)। नमपवादो भण्यते । कीदृशमित्याह-उचितमेव ३ अपनी प्रकृति में ही स्थिति के कम करने अथवा पञ्चकादिपरिहाण्या तथाविधान्नपानाद्यासेवनारूपम्। अन्य प्रकृति में उस स्थिति के ले जाने को अपवर्तन कस्येत्याह-इतरस्य द्रव्यादियुक्तापेक्षया तद्रहितकहा जाता है।
स्यैव । तद्रहितस्य पूनस्तदौचित्येनैव च यदनुष्ठान अपवर्तना-१. आ बंधा उक्कड्डइ सव्वहितो- सोऽपवादः । (उप. पद मु. टी. ७८४)। ४. विशेकड्डणा ठिइ-रसाणं । किट्टीवज्जे उभयं किट्रीसू षोक्तौ विधिरवादः । (द. प्रा. टी. २४)। ओवट्टणा णवरं । (कर्मप्र. २२३) २. अपवर्तना २ सामान्य विधि का निर्देश कर देने पर पश्चात् नाम प्राक्तनजन्मविरचितस्थितेरल्पतापादनमध्य- आवश्यकता के अनुसार जो उसमें यथायोग्य वसानादिविशेषात् । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-५१)। विशेषता का विधान किया जाता है, इसका नाम ३. ह्रस्वीकरणमपवर्तनाकरणम् । (पंचसं. स्वो. अपवाद है। जैसे-शुद्ध प्रात्मतत्त्व का साधन वृ. बन्ध.क.गा.१)। ४. हस्सीकरणमोबट्टणाकरणम्। संयम है और उस संयम का मूल कारण शरीर है। (कर्मप्र. चू.बन्ध.क. गा. २)। ५. अपवय॑ते ह्रस्वी- अतएव जो साधु बाल है, वृद्ध है, श्रान्त (थका
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अपवादसापेक्ष उत्सर्ग:] ६६, जैन-लक्षणावली
[अपान हुआ) है, अथवा रोगपीड़ित है; उसके द्वारा संयम पालयत उत्कृष्टः। मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो के मूल साधनभूत उस शरीर का जिस प्रकार मध्यमः । उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः। (त. वा. ६, विनाश न हो, इस प्रकार से कुछ मृदु (शिथिल) ६, १५; त. श्लो . वा. ६-६; त. व. श्रुत. ६-६; संयम भी आचरण योग्य है। इस प्रकारका विशेष कातिके. टी. ३९९)। २. प्राणीन्द्रियपरिहारोऽपविधान।
हृतसंयमः । (चा. सा. पृ. ३२)। ३. अपहृत्यसंयम अपवादसापेक्ष उत्सर्ग-बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानेन इति-प्रोज्झ्य परिवर्त्य संयमं लभते, वस्त्र-पात्रासंयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न द्यतिरिक्तमनुपकारकं चरणस्य वर्ज़यतः संयमलाभः । यथा स्यात्तथा संयतस्य स्बस्य योग्यमतिकर्कशमा- भक्त-पानादि वा संसक्तं विधिना परित्यज्यत इति । चरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूत- (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। ४. अपहरणमपनयनं संयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा पञ्चेन्द्रिय - द्वीन्द्रियादीनामपनयनमुपकरणेभ्योऽन्यत्र बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानस्य स्वस्य योग्यं सृद्वप्याचरण- संक्षेपणमु[म]पवर्तनम्, तस्य संयमः निराकरणम्, माचरणीयमित्यपवादसापेक्ष उत्सर्गः ।। (प्रव. सा. उदरकृम्यादिकस्य वा निराकरणमपहरणसंयमः । अमृत. वृ. ३-३०, पृ. ३१४) ।
(मूला. वृ. ५-२२०)। बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगपीड़ित साधु के द्वारा अपहृतसंयम उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद शुद्ध प्रात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत संयम से तीन प्रकारका है। उनमें प्रासुक वसति व का जिस प्रकार विनाश न हो, इस प्रकार संयत के आहार मात्र बाह्य साधनों से सहित होते हुए अपने योग्य अतिशय कठोर आचरण के करते हुए बाहिरी जीवों के आने पर उनसे अपने आपको दूर भी उक्त संयम के मल साधनभूत शरीर का जिस कर उनकी रक्षा करते हए निर्दोष संयम के पालन प्रकार से विनाश न हो; इस प्रकार उक्त वाल, करने को उत्कृष्ट अपहृतसंयम कहते हैं । मोरपिच्छी वृद्ध, श्रान्त व रुग्ण साध के द्वारा अपने योग्य मुद जैसे मृद उपकरण से जीवों को दूर करना मध्यम भी प्राचरण पाचरणीय होता है। इस प्रकारका अपहृतसंयम है। अन्य उपकरण से जीवों को दूर विधान अपवादसापेक्ष-उत्सर्ग कहलाता है। करना जघन्य अपहृतसंयम है। अपवादिक लिङ्ग - यतीनामपवादकारणत्वात् अपात्र-१. गतकृपः प्रणिहन्ति शरीरिणो वदति परिग्रहोऽपवादः । अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं यो वितथं परुषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा परिग्रहसहित लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गम्। (भ. मदनवाणहतो भजतेऽङ्गनाम् ॥ विविधदोषविधायिप्रा. विजयो. व मूला. टी. ७७)।
परिग्रहः पिवति मद्यमयंत्रितमानसः । कृमिकुलासाधु के लिए अपवाद का कारण होने से परिग्रह कुलितं असते पलं कलिलकर्मविधानविशारदः ।। दृढअपवाद है, अतः उस परिग्रह-सहित वेष को अप- कुटुम्बपरिग्रहपञ्जरः प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । वादिक लिङ्ग कहा जाता है।
गुरुकषाय-भुजङ्गमसेवितो विषयलोलमपात्रमशन्ति अपवृद्धि–संजमासंजम-संजमलद्धीहितो हेदा परि- तम् ॥ (अमित. श्रा. ३६-३८)। २. अपात्रः सम्यवदमाणस्स संकिलेसवसेण पडिसमयमणंतगुणहाणि- क्त्वरहितप्राणी। (सा.ध. स्वो. टी. २-६७) । परिणामो ओवढित्ति भण्णदे। (जयध. पत्र ८१६)। ३. व्रतसम्यक्त्वनिर्मुक्तो रागद्वेषसमन्वितः। सोऽपात्रं संयमासंयम और संयम लब्धियों से च्युत होते हुए भण्यते जैनों मिथ्यात्वपटावृतः ॥ (पूज्य. उपा. जीव के जो संक्लेश के वश प्रतिसमय अनन्त- ४८)। गुणित हानिरूप परिणाम होते हैं, इसका नाम अप- २ जो सम्यक्त्व से रहित हो उसे अपात्र कहते हैं । वृद्धि है।
अपान--१. तेनैव (वीर्यान्तराय-ज्ञानावरणक्षयोपअपहृत (त्य) संयम-१. अपहृतसंयमस्त्रिविध:- शमाङ्गोपाङ्गनामोदयापेक्षिणा) आत्मना बाह्यो उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति । तत्र प्रासुकवसत्या- वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपानः । हारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य (स. सि. ५-१६; त. वा. ५, १६, ३६; त. वृत्ति बाह्यजन्तुपनिपाते प्रात्मानं ततोऽपहृत्य जीवान परि- श्रुत. ५-१६; कातिके. टीका २०६)। २. अधो
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अपान] १००, जैन-लक्षणावली
[अपायविचय गतिसमीरणोऽपानः । (त. भा. हरि. वृ. ८-१२)। सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात्सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गा३. अपानः कृष्णरुग्मन्यापृष्ठपृष्ठान्तपाष्णिगः । पायचिन्तनमपायविचयः । असन्मार्गापायसमाधानं (योगशा. ५-१६)। ५. मूत्र-पुरीषगर्भादीनपनय- वा। अथवा मिथ्यादर्शनाकुलितचेतोभिः प्रवादिभिः तीत्यपानः । (योगशा. स्वो. विव. ५-१३)। प्रणीतादुन्मार्गात् कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुः, अनावीर्यान्त राय और ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम तथा यतनसेवापायो वा कथं स्यात्, पापक रणवचनभाअंगोपांग नामकर्म के उदय युक्त प्रात्मा के द्वारा वनाविनिवृत्तिर्वा कथमुपजायते इत्यपायापितचिन्तजो बाहिरी वायु भीतर की जाती है, उसका नाम नमपायविचयः । (त. वा. ६, ३६, ६-७)। अपान है।
४. अपाया विपदः शारीर-मानसानि दुःखानीति अपाय-देखो अवाय। १. अभ्युदय-निःश्रेयसा- पर्यायाः, तेषां विचयः अन्वेषणम् । (त. भा. हरि. नां क्रियाणां विनाशकप्रयोगोऽपायः । (स. सि. व. ६-३७; त. भा. सि. वृ. ६-३७)। ५. अपाय७-६)। २. अभ्युदय-निःश्रेयसार्थानां नाशकोऽपायो विचयं नाम मिच्छादरिसणाविरइ-पमाद-कसायभयं वा ॥ अभ्युदय-निःश्रेयसार्थानां क्रियासाधनानां जोगा संसारवीजभूया दुक्खावहा अइभयाणय त्ति वा नाशकोऽनर्थोऽपाय इत्युच्यते, अथवा ऐहलौकिकादिसप्तविषं भयमपाय इति कथ्यते । (त. वा. ७, ६, पृ. ३२)। ६. प्रास्रव-विकथा-गौरव-परीषहाद्येष्व- १; त. सुखबो. वृ. ७-६)।
पायस्तु ।। (प्रशमर. इलो. २४८) । ७. संसारहेतवः २ अभ्युदय और नि:श्रेयस की साधक क्रियाओं के प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तयः । अपायो वर्जनं तासां स विनाशक प्रयोग को अथवा ऐहलौकिक प्रादि सात मे स्यात् कथमित्यलम् ॥ चिन्ताप्रबन्धसम्बन्धः शुभप्रकारके भय को अपाय कहते हैं ।
लेश्यानुरञ्जितः । अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यअपायदर्शी-इह-परलोयावाए दंसेइ अवायदंसी हु। मीप्सितम् ।। (ह. पु. ५६, ३६-४०)। ८. मिच्छ(गु. गु. ष. स्वो. वृ. ७, पृ. २८)।
त्तासंजम-कसाय-जोगजणिदकम्मसमुप्पण्णजाइ - जराइस लोक और पर लोक में पाप के फल रूप अपाय मरण-बेयणाणुसरणं तेहितो अवायचिन्तणं च अवाय(विनाश) के देखने वाले पुरुष को अपायदर्शी विचयं णाम धम्मज्भाणं । एत्थ गाहामो- रागहोसकहते हैं।
कसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इह-परलोगाअपायविचय-१. कल्लाणपावगाग्रो पाए विच- वाए झाएज्जो वज्जपरिवज्जी। कल्लाणपावगा जे णादि जिणमदमुविच्च । विचणादि वा अपाये उवाए विचिणादि जिणमयमुवेच्च । विचिणादि वा जीवाण सुहे य असुहे य ।। (मूला. ५-२०३; भ. प्रवाए जोवाणं जे सुहा असुहा ॥ (धव. पु. १३, प. प्रा. १७१२)। २. जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञ- ७२ उ.)। ६. तापत्रयादिजन्माब्धिगतापायप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिनः सम्यङ्मार्गापरिज्ञा- विचिन्तनम् । तदपायप्रतीकारचिन्तोपायानुचिन्तनात्सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायवि- नम् ।। (म. पु. २१-४२)। १०. असन्मार्गादपायः चयः । अथवा, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रेभ्यः कथं स्यादनपायः स्वमार्गतः । स एवोपाय इत्येष ततो नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपाय- भेदेन नोदितः ।। (त. श्लो. ६, ३६, ३)। ११. अनाविचयः । (स. सि. ६-३६; भ. प्रा. मूला. टी. दौ संसारे स्वरं मनोवाक्कायवृत्तेर्ममाशुभमनोवाक्का१७०६)। ३. सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः । यस्यापायः कथं स्यादित्यपाये विचयो मीमांसा अस्मिमिथ्यादर्शनपिहितचक्षुषाम् आचार-विनयाप्रमादवि- नस्तीत्यपायविचयं द्वितीयं धर्म्यध्यानम् । जात्यधयः संसारविवृद्धये भवन्त्यविद्याबाहुल्यादन्धवत् । न्घसंस्थानीया मिथ्यादृष्टयः समीचीनमुक्तिमार्गा. तद्यथा-जात्यन्धा बलवन्तोऽपि सत्पथात्प्रच्यताः परिज्ञानाद दूरमेवापयन्ति मार्गादिति सन्मार्गापाये कुशलमार्गादेशकेनाननुष्ठिता: नीचोन्नतशैलविषमोप- प्राणिनां विचयो विचारो यस्मिस्तदपायविचयम् । लकठिनस्थाणुनिहितकण्टकाकुलाटबीदुर्गपतिताः परि- मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रेभ्यः कथमिमे प्राणिनोऽपेस्पन्दवन्तोऽपि न तत्त्वमार्गमनुसर्तुमर्हन्ति, देशकाभा- युरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचयः । (भ. प्रा. वात् । तथा सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिनः विजयो. टी. १७०८)। १२. कथं मार्ग प्रपद्येरन्नमी
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अपायविचय]
१०१, जैन-लक्षणावली
[अपूर्वकरण
उन्मार्गतो जनाः । अपायमिति या चिन्ता तदपाय- (लोकप्र. ३०-४५६)। २६. अपायविचयं नाम विचारणम् । (त. सा. ७-४१) । १३. अपायविचयं अनादिसंसारे यथेष्टचारिणो जीवस्य मनोवाध्यानं तद्वदन्ति मनीषिणः । अपायः कर्मणो यत्र सो क्कायप्रवृत्तिविशेषोपाजितपापानां परिवर्जनम्, तत्कथं ऽपायः स्मर्यते बुधः । (ज्ञाना. ३४-१)। १४. तत्रा- नाम मे स्यादिति । अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेपायविचयं नामानाद्याजवंजवे यथेष्टचारिणो जीवस्य भ्यः स्वजीवस्य अन्येषां वा कथम् अपायः विनाशः मनोवाक्कायविशेषोपार्जितपापानां परिवर्जनं तत्कथं स्यादिति सङ्कल्पश्चिन्ताप्रबन्धः प्रथमं धर्म्यम् । नाम मे स्यादिति संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धः प्रथमं धर्म्यम् । (कातिके. टी. ४८२)। (चा. सा. पृ. ७७)। १५. भेदाभेदरत्नत्रयभावना- १ जिनमत का आश्रय लेकर कल्याणप्रापक उपायों बलेनास्माकं परेषां वा कदा कर्मणामपायो विनाशो का-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का- चिन्तन भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयं ज्ञातव्यम् । (ब. करना; इसका नाम अपायविचय है। अथवा अपायों द्रव्यसं. ४८; कातिके. टीका ४८२) । १६. एवं का-कर्मापगम स्वरूप स्थितिखण्डन, अनुभागरागद्वेषमोहैर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्रापायांस्तद- खण्डन, उत्कर्षण और अपकर्षण का तथा जीवों पायविचयध्यानमिष्यते ।। (त्रि. श. पु. च. २, के सुख व दुख का विचार करना, इसे अपायविचय ३, ४५६; योगशा. १०-१०; गु. गु. ष. स्वो. टी. धर्मध्यान कहा जाता है। २, पृ. १०) । १७. दुःकर्मात्मदुरीहितैरुपचितं अपायानुप्रेक्षा-अपायानां प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारमिथ्याविरत्यादिभिर्व्यापज्जन्म-जरा-मृतिप्रभृतयो वा जन्यानामनर्थानामनुप्रेक्षा अनुचिन्तनमपायानुप्रेक्षा । उपाय एन:कृताः । जीवेऽनादिभवे भवेत्कथमतोऽपा- (प्रौप. अभय.व.२०, पु. ४५)। यादपाय: कदा कस्मिन् केन ममेत्यपायविच यः सत्का- अपायों का-हिंसादिरूप प्रायवद्वारों से उत्पन्न रणादीक्षणम् ।। (प्राचा. सा. १०-३०)। १८. असु-
होने वाले अनर्थों का-बार बार विचार करना,
होने वाले अनथा का-बार बार हकम्मस्स णासो सुहस्स वा होइ केणुवाएण। इय चितंतस्स हवे अवायविचयं पर भाणं ।। (भावसं. दे. अपार्थक - पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बन्धार्थमपार्थ३६८)। १६. शुभाशुभकर्मभ्यः कथमपायो जीवानां कम् । यथा दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं भवेदित्यपायविचयं ध्यायतीत्यर्थः। (भ.प्रा. मला. टी. पललपिण्डः त्वर कीटिके दिशमुदीची स्पर्शनकस्य १७१२) । २०. कर्मात्मनोः सर्वथा विश्लेषोऽयमपायः, पिता प्रतिसीन इत्यादि । (प्राव. हरि. व मलय. व. विचयस्तद्भावनी भावना । ( प्रात्मप्र. ८८)। ८८१)। २१. एवं सन्मार्गापायः स्यादिति चिन्तनमपायविचयः, पूर्वापर सम्बन्ध से रहित होने के कारण असम्बद्ध सन्मार्गापायो नैवमिति वा । (त. सुखबो. व. ६. अर्थ वाले शब्दसमूह को अपार्थक कहते हैं। जैसे३६)। २२. अपायश्चिन्त्यते वाढं यः शुभाशुभकर्म- दस अनार छह पूत्रा कुण्ड बकरी का चमड़ा मांसणाम् । अपायविचयंxxx ॥ (भावसं. वाम. पिण्ड हे कोडी शीघ्रता कर उत्तर दिशा को स्पर्शन ६४०)। २३. मिथ्यादृष्टयो जन्मान्धसदृशाः सर्वज्ञ- का पिता प्रतिसीन, इत्यादि असम्बद्ध प्रलाप। यह वीतरागप्रणीतसन्मार्गपराङ्मुखाः मोक्षमाकाङ्क्षन्ति, सूत्र के ३२ दोषों में चौथा दोष है। तस्य तु मार्ग न सम्यक् परिजानते, तं मार्गमतिदूरं अपूर्वकरण-१. ततः परमपूर्वकरणम्, अप्राप्तपूर्व परिहरन्तीति सन्मार्गविनाशचिन्तनमपायविचयः उच्य- तादृगध्यवसायान्तरं जीवेनेत्यपूर्वकरणमुच्यते ग्रन्थि ते । अथवा मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्रा- विदारयताम् । (त. भा. हरि. व. १-३, पृ. २५)। णाम् अपायो विनाशः कथममीषां प्राणिनां भविष्य- २. करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः-नानातीति स्मृतिसमन्वाहारो ऽपायविचयो भण्यते। (त. जीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकवृ. श्रुत. ६-३६)। २४. रागद्वेषकषायास्रवादि- परिणामस्यास्य गुणस्यान्तविवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो क्रियासु प्रवर्तमानानामिह-परलोकयोरपायान् ध्याये- व्यतिरिच्यान्यसमयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वाः, अत्रदिति अपायविचयः । (धर्मसं. वृत्ति ३-२७, पृ. तनपरिणामैरसमाना इति यावत् ; अपूर्वाश्च ते कर८०)। २५. प्रास्रवविकथागौरवपरीषहाथै रपायस्तु। णाश्चापूर्वकरणाः। (धव. १, पृ. १८०); करणं
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अपूवकरण] १०२, जैन-लक्षणावली
[अपूर्वार्थ परिणामः, अपुव्वाणि च ताणि करणानि च अपुव- क्षणमुपेयुषाम् । अभिन्नं सदृशोऽन्यो वा ते अपूर्वकरणानि, असमानपरिणामा त्ति जं उत्तं होदि। करणाः स्मृताः ॥ (पंचसं. अमित. १-३५) । ५. स (धव. पु. ६, पृ. २२१) । ३. अपूर्वाः समये समये एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्वपरमाल्हादैअन्ये शद्धतराः, करणा: यत्र तदपूर्वकरणम् । (पंच- कसूखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमक-क्षपकसंज्ञो ऽष्टसं. अमित. १-२८८, पृ. ३८; अन. ध. स्वो. टी. मगुणस्थानवर्ती भवति । (बृ. द्रव्यसं. १३)। २-४७)। ४. अप्राप्तपूर्वमपूर्व स्थितिघात-रसघाताद्य- ६. अपूर्वाणि अपूर्वाणि करणानि स्थितिघात-रसघातपूर्वार्थनिवर्तकं वा अपूर्वकम्, तच्च करणं च अपूर्व- गुणश्रेणि-स्थितिबन्धादीनां निर्वर्तनानि यस्मिन् तदकरणम् । (प्राव. मलय. वृ. नि. १०६)। ५. अपू- पूर्वकरणम् । (कर्मप्र. मलय. वृ. उपश. गा. १२)। र्वम् अभिनवम्, अनन्यसदृशमिति यावत्, करणं ७. खइएण उवसमेण य कम्माणं जं अउव्वपरिस्थितिघात-रसघात-गुणश्रेणि-गुणसङ्क्रम-स्थितिबन्धा- णामो । तम्हा तं गुणठाणं अउवणामं तु तं भणियं । नां पञ्चानामर्थानां निवर्तनं यस्यासावपूर्वकरणः । (भावसं. दे. ६४८)। ८. क्रियन्ते ऽपूर्वापूर्वाणि (पंचसं. मलय. ब. १-१५; कर्मस्त. दे. स्वो. टी. पञ्चामन्यत्र संस्थितः। निवृत्तिबादरस्तेनापूर्वकरण २; धर्मबि. मु. वृ. ८-५। ६. अपूर्वात्मगुणाप्ति- उच्यते ।। स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेण्यधिरोहणम् । त्वादपूर्वकरणं मतम् । (गुण. क्र. ३७) । ७. येना- गुणसङ्क्रमणं चैव स्थितिबन्धश्च पञ्चमः ॥ (सं. प्राप्तपूर्वेण अध्यवसायविशेषेण तं ग्रन्थि घनरागद्वेष- कर्मग्रन्थ १, १२-१३; लो. प्र. ३, ११६७-६८ परिणतिरूपं भेत्तुमारभते तदपूर्वकरणम् । (गुण. क्र. योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. १३२)। टी. २२)। ८. अपूर्वाणि करणानि स्थिति यावत् १ जिस गुणस्थान में भिन्नसमयवर्ती जीवों के रसघात-गुणश्रेणि-स्थितिबन्धादीनां निर्वर्तनानि परिणाम कभी सदृश नहीं होते हैं तथा एक समययस्मिन् तदपूर्वकरणम् । (ज्ञानसार व. ५-६)। वर्ती जीवों के परिणाम कदाचित् सदृश और कदा२ मोहकर्म के उपशम या क्षपणा को प्रारम्भ करते चित् विसदृश भी होते हैं उसे भिन्नसमयवर्ती हुए जो अन्तर्मुहूर्त तक प्रतिसमय अपूर्व ही अपूर्व- जीवों के द्वारा अप्राप्तपूर्व परिणामों के प्राप्त करने इस गणस्थान में विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़ से अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। ६ जिस गुणकर अन्य समयवर्ती जीवोंके न पाये जाने वाले स्थान में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और भाव होते हैं उन्हें अपूर्वकरण परिणाम कहते हैं। स्थितिबन्ध आदि के निवर्तक अपूर्व कार्य होते हैं उसे अपूर्वकरण गुरणस्थान- १. देखो अपूर्वकरण । अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। भिण्णसमयट्ठिएहिं दु जीवेहिं ण होदि सव्वदा सरिसो। अपूर्वस्पर्धक---१. संसारावत्थाए पुव्वमलद्धप्पसकरणेहिं एक्कसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिसो वा ॥ रूवाणि पुव्वफद्दएहितो अणंतगुणहाणीए प्रोवट्टिज्जएदम्हि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठिएहिं जीवहिं । माणसहावाणि जाणि फद्दयाणि ताणि अपुव्वफद्दपुव्वमपत्ता जम्हा होति अपुवा हु परिणामा ॥ याणि त्ति भण्णते । (जयध. अ. ११०६)। २. वर्धतारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहि गलियतिमिरेहि। मानं मतं पूर्व हीयमानमपूर्वकम् । स्पर्धकं द्विविधं मोहस्स ऽपुव्वकरणा खवणुवसमणुज्जया भणिया ॥ ज्ञेयं स्पर्द्धकक्रमकोविदः ॥ (पंचसं. अमित. १-४६)। (प्रा. पंचसं. १, १७-१६; धव. पु. १, पृ. १८३ १. संसार-अवस्था में जिन्हें पहले कभी नहीं प्राप्त उ.; गो. जी. ५२-५४) । २. एवमपूव्वमपूव्वं जह- किया, किन्तु क्षपकश्रेणी में ही प्रश्वकर्णकरणकाल त्तरं जो करेइ ठीखंडं । रसखंडं तम्घायं सो होइ में जिन्हें प्राप्त किया है, और जो पूर्वस्पर्द्धकों से अपुवकरणो त्ति ॥ (शतकप्र. ६, भा. गा. ८८, पृ. अनन्तगुणित हीन अनुभागशक्तिवाले हैं, ऐसे स्पर्धकों २१; गु. गु. ष. स्वो. वृ. १८, पृ. ४५) । ३. समए को अपूर्वस्पर्धक कहते हैं ।। समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो हुँ । जम्हा 1--१. अनिश्चितो ऽपूर्वार्थ: । दृष्टोऽपि उवरिमभावा हेट्ठिमभावेहिं पत्थि सरिसत्तं । तम्हा समारोपात्तादृक् । (परीक्षा. १, ४-५)। २. स्वबिदियं करणं अपुवकरणेत्ति णिद्दिट्ठ । (ल. सा. रूपेणाकारविशेषरूपतया वानवगतोऽखिलोऽप्यपूर्वा३६, पू. व ५१)। ४. अपूर्वः करणो येषां भिन्नं र्थः । (प्र. क. मा. १-४, पृ. ५६) । ३. यः प्रमा
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अपोद्धारव्यवहार] १०३, जैन-लक्षणावली
[अप्रतिघात ऋद्धि णान्तरेण संशयादिव्यवच्छेदेनानध्यवसितः सोऽपूर्वा- पृ. २७३ उद्धृत)। ३. अप्कायो विद्यते यस्य स र्थः । (प्रमेयर. १-४)।
अप्कायिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३)। १ प्रमाणान्तर से अनिश्चित पदार्थको अपूर्वार्थ कहते अप (जल) ही जिनका शरीर हो, उन्हें अप्कायिक हैं। तथा एक वार जान लेने के पश्चात् भी यदि कहते हैं । जैसे- प्रोस, वर्फ और शुद्ध जल आदि । उसमें संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय हो जाय अपजीव - १. समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदयः तो वह पदार्थ भी अपूर्वार्थ कहलाता है।
कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत् पृथिवीं कायत्वेन अपोद्धारव्यवहार-अपोद्धारव्यवहारो हि भेद- गृह्णाति स पृथिवीजीवः । एवमबादिष्वपि योज्यम् । व्यवहारः । (न्यायकु. २-७, पृ. २७७)।
(स. सि. २-१३; त. वा. २, १३, १)। २. अपः भेद-व्यवहार को अपोद्धारव्यवहार कहते हैं। कायत्वेन यो गृहीष्यति विग्रहगतिप्राप्तो जीव: सोअपोह(हा)-१. अपोहनम् अपोहः, निश्चय इत्य- जीवः कथ्यते । (त. वृ. श्रुत. २-१३) । र्थः । (प्राव. मलय. व. १२; नन्दी. मलय. वृ. गा. अप्काय नामकर्म के उदय से युक्त जो जीव कार्मण ७८, पृ. १७६)। २. अपोह्यते संशयनिबन्धनवि- काययोग (विग्रहगति) में स्थित होता हा जलको कल्पः अनया इति अपोहा । (घव. पु. १३, पृ. शरीररूप से ग्रहण नहीं करता है-आगे उसे ग्रहण २४२) । ३. उक्ति-युक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् प्रत्य- करने वाला है-वह अपजीव कहलाता है। भावसम्भावनया व्यावर्तनमपोहः ॥ अथवा ज्ञान- अप्रकोर्णप्रसृतत्व-१. अप्रकीर्णप्रसृतत्वं सुसम्बसामान्यमूहो ज्ञानविशेषोऽपोहः । (नीतिवा. ५-५१, न्धस्य सतः प्रसरणम् । अथवा ऽसम्बन्धानधिकारिपृ. ५२)। ४. अपोह उक्ति-युक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् त्वातिविस्तरयोरभावः । (समवा. अभय. वृ. ३५)। प्रत्यपायसम्भावनया व्यावर्तनम् । xxx अथवा २. अप्रकीर्णप्रसतत्वं सम्बन्धाधिकारपरिमितता । अपोहो विशेषज्ञानम् । (योगशा. स्वो. विव. १-५१, (रायप. टी. पृ. १६) । पृ. १५२; ललितवि. पृ. ४३; धर्मबि. वृ. १-३३; १ उत्तम सम्बन्धयुक्त वचन के विस्तार का नाम धर्मसं. स्वो. वृ. १-१४, पृ. ६ श्राद्धगुणवि. पृ. अप्रकीर्णप्रसृतत्व है। अथवा वचन में सम्बन्धविहीन ३७)। ५. ईहितविशेषनिर्णयरूपोऽपोहः । (जम्बूद्वी. अनधिकारिता और अतिविस्तार का न होना, यह वृ. ३-७०)।
अप्रकीर्णप्रसतत्व है। यह वक्तव्य वचन के ३२ २ जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्प को दूर भेदों में १६वां भेद है। किया जाय, ऐसे ज्ञानविशेष को अपोह या अपोहा अप्रगतिवाक्-१. यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाधिकेष्वकहते हैं।
पिन प्रणमति सा प्रणतिवाक् । (त. वा. १, २०, अप्काय-१. पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवी- १२; धव. पु. १, पृ. ११७)। २. वञ्चनाप्रवणं कायो मृतमनुष्यादिकायवत् । xxx एवमवा- जीवं कर्ता निःकृतिवाक्यतः । न नमत्यधिकेष्वात्मा दिष्वपि योज्यम् । (स. सि. २-१३)। २. पृथिवी- सा चाप्रणतिवागभूत् । (ह. पु. १०-१५) । ३. तवकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवीकायः, मृतमनुष्यादि- णाणादिसु अवणियवयणमवणदिवयणं । (अंगप. कायवत् । xxx एवमापः, अप्कायः । (त. वा. पृ. २६२)। २, १३, १)।
१ जिस वचन को सुनकर जीव तप और विज्ञान में ३ अप्कायिक जीव के द्वारा छोड़े हुए जल शरीर अधिक महापुरुषों को भी प्रणाम नहीं करता है वह को प्रकाय कहते हैं।
अप्रणतिवाक् (अप्रणतिवचन) कहलाता है। अप्कायिक जीव-१. प्रथिवी कायो ऽस्यास्तीति अप्रतिघात ऋद्धि-१. सेल-सिला-तरुपमहाणभंपृथिवीकायिकः तत्कायसम्बन्धवशीकृत आत्मा। तरं होइPण गयणं व । जं वच्चदि सा रिद्धी अप्पएवमबादिष्वपि योज्यम् । (स. सि. २-१३; त. डिघादेत्ति गुणणामं ॥ (ति. प. ४-१०३१) । वा. २, १३, १) । २. प्रोसा य हिमो धूमरि हरघणु २. अद्रिमध्ये वियतीव गमनागमनमप्रतिघातः । (त. सुद्धोदनो घणोदो य। एदे ह पाउकाया जीवावा . ३-३६)। ३. पर्वतमध्येऽपि आकाश इव गमजिणसासणुद्दिट्टा ॥ (पंचसं. १-७८; धव. पु. १, नम् अप्रतिघातः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३६) ।
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प्रतिपात ]
१०४, जैन- लक्षणावली
और भित्ति
१ श्राकाश के समान शैल, शिला, वृक्ष आदि पदार्थों के भीतर से बिना किसी व्याघात के निकल जाने को प्रतिघात ऋद्धि कहते हैं । श्रप्रतिघातित्व - अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गगमनम् श्र प्रतिघातित्वम् । (योगशा. स्वो विव. १-८ ) । देखो प्रतिघात ऋद्धि ।
प्रतिपात - १. प्रतिपतनं प्रतिपातः, न प्रतिपात: अप्रतिपातः । उपशान्तकषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात् प्रच्युतसंयमशिखरस्य प्रतिपातो भवति, क्षीणकषायस्य प्रतिपातकारणाभावादप्रतिपातः । ( स. सि. १-२४)। २. × × × निजरूपतः । प्रच्युत्य सम्भवश्चास्याप्रतिपातः प्रतीयते || / त. इलो. १, २४, २) ।
१ चारित्ररूप पर्वत के शिखर से नहीं गिरने को प्रतिपात कहते हैं । प्रतिपात उपशान्तकषाय जीव का तो होता है, किन्तु क्षीणकषाय का नहीं होता । प्रतिपाति (तो) - देखो ग्रप्रतिपात । १. प्रतिपातीति विनाशी, विद्युत्प्रकाशवत् । तद्विपरीतो प्रतिपाती । (त. वा. १, २२, ४, पृ. ८२ ) । २. जमोहिणाणमुपणं संतं केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणसदि, अण्णा ण विणस्सदि; तमप्पडिवादी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २६५ ) । ३. न प्रतिपाति अप्रतिपाति, यत् किलाऽलोकस्य प्रदेशमेकमपि पश्यति, तदप्रतिपातीति भावः । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. गा. ८) । ४. न प्रतिपाती प्रतिपाती । यत्केवलज्ञानाद्वा मरणादारतो वा न भ्रंशमुपयातीत्यर्थः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१७, पृ. ५३९ ) । यत्प्रदेशमलोकस्य दृष्टुमेकमपि क्षमम् । तत्स्यादप्रतिपात्येव केवलं तदनन्तरम् । ( लोकप्र. ३-८४७ )। ६. आ केवलप्राप्ते रामरणाद्वाऽवतिष्ठमानमप्रतिपाति । (जैनत. पू. ११८ ) ।
१ जो अवधिज्ञान बिजली के प्रकाश के समान विनश्वर नहीं है, किन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति तक स्थिर रहने वाला है, उसे अप्रतिपाती अवधि कहते हैं । ३ जो प्रलोक के एक प्रदेश को भी देखता है उसे प्रतिपाती श्रवधिज्ञान कहा जाता है । अप्रतिबद्ध-- १. अन्तरालग्राम-नगरादिसन्निवेशस्थ - यति-गृहिसत्कार-सन्मान प्राघूर्णकभक्तादौ सर्वत्राप्रतिवृद्धत्वात् 'ग्रपविद्धो य सव्वत्थ' इत्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ४०३ ) । २. अप्पडिबद्धो प्रासक्ति
[प्रप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण
रहित: । ( भ. प्रा. मूला. टी. ४०३ ) ।
जो ग्राम, नगर व अरण्यादि में रहने वाले मुनि या गुहस्थ के द्वारा किये जाने वाले श्रादर-सत्कार से मोहित न होकर सर्वत्र अनासक्त रहता है; ऐसे निर्मोही साधु को प्रतिबद्ध कहते हैं । प्रतिबुद्ध - १. कम्मे णोकम्मम्हि य ग्रहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी प्रप्पfsबुद्ध हवदि ताव || ( समय प्रा. २२ ) । २. अप्रतिबुद्ध: स्वसंवित्तिशून्य बहिरात्मा । समयप्रा. जय. वृ. २२) ।
कर्म - नोकर्म को आत्मा और श्रात्मा को कर्म-नोकर्म समझने वाला जीव अप्रतिबुद्ध ( वहिरात्मा ) कहलाता है।
प्रतिलेख - प्रतिलेखश्चक्षुषा द्रव्यस्थानस्याप्रतिलेखन मदर्शनम् । ५–२२०) ।
विवक्षित द्रव्य या उसके स्थान को आंख से न देखने और पिच्छी से प्रमाजित न करने को श्रप्रतिलेख कहते हैं।
प्रतिश्रावी - प्रतिश्रावी निश्छिद्रशैलभाजनवत् परकथितात्मगुह्यजलाप्रति श्रवणशीलः । ( सम्बोधस. वृ. श्लो. १९) ।
निश्छिद्र पत्थर का वर्तन जिस प्रकार जल को धारण करता है— उसे नहीं निकलने देता- उसी प्रकार जो दूसरे की गुप्त बात को स्थिरता से धारण करता है - उसे प्रगट नहीं होने देता उसे श्रप्रतिश्रावी कहते हैं । यह श्राचार्य के ३६ गुणों में से एक ( ) हैं ।
प्रत्यवेक्षण दोष – प्रलोकितं प्रमृष्टं च न पुनः शुद्धमशुद्धं चेति निरूपितमित्यादान - निक्षेपकरणाच्चतुर्थोऽप्रत्यवेक्षणाख्यो दोषः । (भ. श्री. मूला. टी. ११६८) ।
वस्तु को देखकर और पिच्छी से स्वच्छ करके भी उसकी शुद्धि शुद्धि को न देखते हुए उसे ग्रहण करना या रखना, यह श्रादान निक्षेपणसमिति का प्रत्यवेक्षण नामका चौथा दोष है । अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण १. प्रभार्जनोत्तरकाले जीवाः सन्ति न सन्तीति वाऽप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणम् । (भ. आ. विजयो. ८१४) । २. प्रमार्जनोत्तरकालं जीवाः
पिच्छिकाया वा
( मूला. वृ.
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अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसं.]
१०५, जैन-लक्षणावली
[अप्रत्याख्यानक्रोधादि
सन्त्यत्र, न सन्तीति वा प्रत्यवेक्षितं निक्षिप्यमाणम- सुखबो. वृ. ८-६)। प्रत्यवेक्षितनिक्षेपः । (अन. ध. स्वो. टी. ४-२८)। थोड़ेसे प्रत्याख्यान (व्रत) का नाम अप्रत्याख्यान भूमि प्रादि के प्रमार्जन के पश्चात् 'यहां पर जीव (देशसंयम) है। है या नहीं' इस प्रकार देखे बिना ही वस्तु को रख अप्रत्याख्यानक्रिया-१. संयमघातिकर्मोदयवशाद. देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण कहलाता है। निवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया। (स. सि. ६-५3 त. प्रप्रत्यवेक्षिताप्रमाजित-संस्तरोपक्रमण-अप्र- वा. ६.५, ११; त. सुखबो. व. ६-५) । २. संयमत्यवेक्षिताप्रमाजितस्य प्रावरणादेः संस्तरस्योपक्रमणं विघातिनः कषायाद्यरीन् प्रत्याख्येयान् न प्रत्याचष्ट अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमणम् । (स सि. इत्यप्रत्याख्यानक्रिया। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। ७.-३४; त. वा. ७, ३४,३; चा. सा. पृ. १२ । ३. कर्मोदयवशात् पापादनिवृत्तिरपि क्रिया। अप्रत्यात. वृत्ति श्रुत. ७-३४)।
ख्यानसंज्ञा साxxx॥ (ह. पु. ५८-८२)। बिना देखे और बिना शोधे बिस्तर प्रादिके बिछाने, ४. वृत्तमोहोदयात् पुंसामनिवृत्तिः कुकर्मणः । अप्रलौटने व घड़ी करने आदि को अप्रत्यवेक्षिताप्रमा- त्याख्या क्रियेत्येता: पंच पंच क्रियाः स्मृताः ।। जितसंस्तरोपक्रमण कहते हैं।
(त. श्लो. ६, ५, २६)। ५. संयमघातककर्मविपाकअप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान-अप्रत्यवेक्षिताप्रमा- पारतन्त्र्यान्निर्वृत्ताववर्तनमप्रत्याख्यानक्रिया । (त. वृ. जितस्याहंदाचार्यपूजोपकरणस्य गन्धमाल्यधूपादेरा- श्रुत. ६-५)। त्मपरिधानाद्यर्थस्य च वस्त्रादेरादानमप्रत्यवेक्षिता- १ संयम का घात करने वाले कर्म के उदय से प्रमाजितादानम् । (स. सि. ७-३४; त. वा. ७, विषय-कषायों से विरक्ति न होना अप्रत्याख्यान३४, ३; चा. सा. पृ. १२; त. वृ. श्रुत ७-३४)। क्रिया है। बिना देखे व बिना शोधे पूजा के उपकरणों को, अप्रत्याख्यानक्रोधादि-१. अप्रत्याख्यानकषायोगन्ध, माल्य व धूपादि को तथा वस्त्रादि को ग्रहण दयाद् विरतिर्न भवति । (त. भा. ८-१०)। २. अकरना; अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान कहलाता है। विद्यमानप्रत्याख्याना अप्रत्याख्यानाः, देशप्रत्याख्यानं अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग-१. अप्रत्यवेक्षिता- सर्वप्रत्याख्यानं च नैषामुदये लभ्यते । (श्रा. प्र. टी. प्रमार्जितायां भूमौ मूत्र-पुरीषोत्सर्गोऽप्रत्यवेक्षिताप्र- १७, धर्मसंग्रहणि मलय. व. ६१४)। ३. न विद्यते मार्जितोत्सर्गः । (स. सि. ७-३४; त. वा. ७, देशविरति-सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानं येषु उदयप्राप्ते३४, ३)। २. तत्र जन्तवः सन्ति न सन्ति वेति षु सत्सु ते ऽप्रत्याख्यानाः ।(प्राव. नि. हरि. वृ. १०६ प्रत्यवेक्षणं चक्षुषोापारः, मृदुनोपकरणेन यत्क्रियते कर्मवि. पू. व्या. ४१) । ४. सर्व प्रत्याख्यानं देशप्रयोजनं [प्रमार्जनं] तत्प्रमार्जनम्, अप्रत्यवेक्षितायां प्रत्याख्यानं च येषामुदये न लभ्यते ते भवन्त्यप्रत्याभुवि मूत्र-पुरीषोत्सर्गोऽप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः । ख्यानाः । सर्वनिषेधवचनोऽयं नञ् । (प्रज्ञापना. मलय. (चा. सा. पृ. १२)। ३. प्रत्यवेक्षन्ते स्म प्रत्यवेक्षि- वृ. २३-२६३, पृ. ४६८)। ५. न विद्यते प्रत्यातानि, न प्रत्यवेक्षितानि अप्रत्यवेक्षितानि; अप्रत्य- ख्यानं यदूदये ते प्रत्याख्यानकषायाः। (पंचसं. स्वो. वेक्षितानि च तानि अप्रमाजितानि अप्रत्यवेक्षिताप्र- वृ. १२३)। ६. अविद्यमानं प्रत्याख्यानं येषामदयात् माजितानि । मूत्र-पुरीषादीनामुत्सर्जनं त्यजनम् तेऽप्रत्याख्यानाः क्रोधादयः। अपरे पुनरावरणशब्दउत्सर्ग:XXXI अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितभूमौ मूत्र- मत्रापि सम्बध्नन्ति 'अप्रत्याख्यानावरणाः' इति । पुरीषादेरुत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गः । (त. अप्रत्याख्यानं देशविरतिः, तदप्यावृण्वन्ति । (त. भा. वृ. श्रुत. ७-३४)।
सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १३६)। ७. न विद्यते (कर्म. बिना देखे और बिना शोधे भूमि पर मल-मूत्रादि वि.-वेद्यते) स्वल्पमपि प्रत्याख्यानं येषामुदयात्तेऽप्रके छोड़ने को अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग कहते हैं। त्याख्यानाः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-५, कर्मप्र.मलय. अप्रत्याख्यान-ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं देश- प.१-१,प. ४; कर्मवि. दे. स्वो. व. १७; षडशी. संयम XXX। (भ. प्रा. मूला. टी. २०६६; त, मलय. वृ. ७६, पृ. ७६)। ८. देशविरतिगुणबिघाती
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अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि] १०६, जैन-लक्षणावली
[अप्रमत्तसंयत अप्रत्याख्यानः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४-१८८)। अप्रत्युपेक्षित-देखो अप्रत्युपेक्षण । ६. नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्र- अप्रथमसमय - सयोगिभवस्थ - केवलज्ञानत्याख्यानसंज्ञाऽतो द्वितीयेषु निवेशिता ॥ (कर्मवि. दे. यस्मिन् समये केवलज्ञानम् उत्पन्न तस्मिन् समये स्वो. वृत्ति गा. १७ उद्धृत)। १०. अप्रत्याख्यान- तत्प्रथमसमय-सयोगि भवस्थकेवलज्ञानम्, शेषेषु तु रूपाश्च देशव्रतविघातिनः । (उपासका. ६२५)। समयेषु शैलेशीप्रतिपत्तेरकि वर्तमानमप्रथमसमय. ११. न विद्यते प्रत्याख्यानं अणुव्रतादिरूपं यस्मिन् सयोगिभवस्थ-केवलज्ञानम् । (प्राव. मलय.व. ७८, सो प्रत्याख्यानो देशविरत्यावारकः । (स्थाना. सू. पृ.८३)। २४६, पृ. १८३)।
जिस समय में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है उस समय १ जिनके उदय से व्रत का अभाव होता है, उन्हें । में वह प्रथमसमय-सयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहलाता अप्रत्याख्यानक्रोधादि कहा जाता है।
है। तत्पश्चात् शैलेशी अवस्था प्राप्त होने के पहले अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि-१. यदुदयाद्देश- तक उक्त प्रथम समय के सिबाय शेष समयों में वर्तविरति संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्नोति ते मान सयोगिकेवली के केवलज्ञान को अप्रथमसमयदेशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणा: क्रोध- सयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहते हैं। मान-माया-लोभाः । (स. सि. ८-९; त. वा. ८, अप्रदेशत्व-[कालद्रव्यस्य] एकप्रदेशमात्रत्वाद६,५; त.व. श्रुत. ८-६)। २. अप्रत्याख्यानं संय- प्रदेशत्वमिष्यते । (त. सा. ३-२१) । मासंयमः, तमावृणोतीति अप्रत्याख्यानावरणीयम् । एक प्रदेश मात्र के पाये जाने से पुद्गल परमाण (धव. पु. ६, पृ. ४४)। ३. ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्या- और कालाणुके अप्रमेशत्व माना गया है। नं देशसंयममावण्वन्ति निरुन्धन्तीत्यप्रत्याख्याना- अप्रदेशानन्त-एकप्रदेशे परमाणौ तदव्यतिरिक्तावरणा: क्रोधमानमायालोभाः। (भ. प्रा. मला. टी. परो द्वितीयः प्रदेशोऽन्तव्यपदेशभाक नास्तीति पर२०६६; गो. जी. जी. प्र. टी. २८३; त. सुखबो. माणुरप्रदेशानन्तः । (धव. पु. ३, पृ. १५-१६) । वृ. ८-६)। ४. त एव च क्रोधादयो यथाक्रमं पृथि- एकप्रदेशी पुद्गल परमाणु में चूंकि अन्त नामवीरेखाऽस्थि-मेषशृङ्ग-कर्दमरागसमानाः (कर्मस्तव वाला दूसरा प्रदेश नहीं सम्भव है, अतएव वह गो. वृत्ति में प्रागे 'संवत्सरानुवन्धिन.' विशेषण प्रप्रदेशानन्त कहलाता है । अधिक है) अप्रत्याख्यानावरणा उच्यन्ते । नभो अप्रदेशासंख्यात-जं तं अपदेसासंखेज्जयं तं जोग[नो]ऽल्पार्थत्वादल्पं प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं देश- विभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। (धव. विरतिरूपम्, तदप्यावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणाः । पु. ३, पृ. १२४)। (शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४६; कर्मस्तव गो. योग के अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा एक जीववृत्ति ९-१०, पृ. १६)। ५. त एव च क्रोधादयो प्रदेश प्रप्रदेशासंख्यात कहा जाता है। यथाक्रमं पृथिवीरेखाऽस्थिमेषशृङ्गकर्दमरागसमाना: अप्रदेशिक अनन्त-जं तं अपदेसियाणंतं तं परसम्वत्सरानुबन्धिनोऽप्रत्याख्यानावरणा: । (कर्मस्तव माणू । (धव. पु. ३, पृ. १५)। गो. व. ९-१०, पृ. १६)।
परमाणु को अप्रदेशिक-अनन्त कहा जाता है । १ जिनके उदय से लेश मात्र भी संयमासंयम न अप्रभावना-कुदर्शनस्य माहात्म्यं दूरीकृत्य बलाधारण किया जा सके उन्हें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध- दितः । द्योतते न यदाहन्त्यमसौ स्यादप्रभावना ॥ मान-माया-लोभ कहते हैं।
(धर्मसं. श्रा. ४-५२)। अप्रत्युपेक्षरण-अप्रत्युपेक्षणं गोचरापन्नस्य शय्या- मिथ्यादर्शन के माहात्म्य को दूर करके जैनदर्शन देश्चक्षुषाऽनिरीक्षणम् । (श्रा. प्र. टी. ३२३)। के माहात्म्यके नहीं फैलाने को अप्रभाबना कहते हैं। इन्द्रियविषयता को प्राप्त शय्या प्रादि का प्रांख से । अप्रमत्तसंयत-१. णदासेसपमानो वयगणसीलोनिरीक्षण नहीं करने को अप्रत्युपेक्षण कहते हैं। लिमंडियो णाणी। अणुवसमग्रो अखबो ज्झाणअप्रत्युपेक्षित-अप्रत्युपेक्षितं सर्वथा चक्षुषाऽनिरी- णिलीणो हु अपमत्तो सो ।। (प्रा. पंचसं. १-१६; क्षितम् । (जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ५१)। धव. पु. १, पृ. १७६ उ.; गो. जी. ४६; भावसं. दे.
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अप्रमत्तसंयत
१०७, जैन-लक्षणावली [अप्रशस्त निःसरणात्मक तेजस
६१४) । २. न प्रमत्तसंयता अप्रमतसंयताः, पञ्च- वृ. १७, पृ. ३२)। दशप्रमादरहिता इति यावत् । (धव. पु. १, प. पात्र आदि को या तो मांजना ही नहीं--स्वच्छ १७८)। ३. पमादहेदुकसायस्स उदयाभावेण अप- नहीं करना-या उन्हें विधिपूर्वक नहीं मांजनामत्तो होदूण (पमादहेदुकसानोदप्रो जस्स णत्थि सो उनके मांजने में प्रागमोक्त विधि की उपेक्षा करना; अप्पमत्तो)। (धव. पु. ७, पृ. १२)। ४. प्रमाद- इसका नाम अप्रमार्जनासंयम है। रहितोऽप्रमत्तसंयतः । (त. वा. ६, १, १८)। अप्रवीचार-१.प्रवीचारो हि वेदनाप्रतीकारस्तद५. पंचसमियो तिगुत्तो अपमत्तजई मुणयन्वो । भावे तेपा (ग्रेवेयकादिवासिनां) परमसुखमनवरत(वन्धश. भा. गा. ८७, पृ. २१, ग. गु. षट्. स्वो. मित्येतस्य प्रतिपत्त्यर्थमप्रवीचारा इत्युच्यते । (त. वृत्ति १८, पृ. ४५)। ६. संयतो ह्यप्रमत्तः स्यात्पूर्व- वा. ४, ६, २)। २. प्रवीचारो मैथुनसेवनम्x x वत्प्राप्तसंयमः। प्रमादविरहाद वृत्तेवत्तिमस्खलितां Xप्रवीचारो वेदनाप्रतीकारः । वेदनाभावाच्छषा: दधत् ।। (त. सा. २-२४)। ७. संजलणणोकसाया- देवाः अप्रवीचाराः, अनवरतसुखा इति यावत्। (धव. णुदमो मंदो जदा तदा होदि। अपमत्तगुणो तेण य पु. १, पृ. ३३८-३६)। अपमत्तो संजदो होदि ॥ (गो. जी. ४५)। ८. स १ कामवेदना के प्रतीकार का नाम प्रवीचार है। एव (सद् दुष्टिः) जलरेखादिसशसंज्वलनकषाय- उससे रहित प्रैवेयकादिवासी देवों को अप्रवीचार मन्दोदये सति निष्प्रमादशद्धाऽऽत्मसंवित्तिमलजनक- कहा जाता है। व्यक्ताव्यक्तप्रमादरहितः सन् सप्तमगुणस्थानवर्ती अप्रशस्त ध्यान-अप्रशस्तं (ध्यान) अपुण्यास्रवअप्रमत्तसंयतो भवति । (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। कारणत्वात् । (त. वा. ६,२८, ४) । ६. सोऽप्रमत्तसंयतो यः संयमी न प्रमाद्यति । (योग- पापात्रव के कारणभत प्रात-रौद्रस्वरूप ध्यान को शा. स्वो. विव. १-१६)। १०. नास्ति प्रमत्तमस्येति अप्रशस्त ध्यान कहते हैं। अप्रमत्तो विकथादिप्रमादरहितः, अप्रमत्तश्चासौ सं- अप्रशस्त निदान-१. माणेण जाइ-कुल-रूवमादि यतश्चेत्यप्रमत्तसंयतः। (कर्मस्त. गो. व. २, पृ. प्राइरिय-गणधर-जिणत्तं । सोभग्गाणादेयं पत्थंतो ७२) । ११. न प्रमत्तोऽप्रमत्तः, यद्वा नास्ति प्रमत्त- अप्पसत्थं तु ॥ (भ. पा. १२१७)। २. भोगाय मस्येत्यप्रमत्तः, अप्रमत्तश्चासौ संयतश्चाप्रमत्तसयतः।। मानाय निदानमीशर्यदप्रशस्तं द्विविधं तदिष्टम् । (पंचसं. मलय. व. १-१५, पृ. २१)। १२. चतु- विमूक्तिलाभप्रतिबन्धहेतोः संसार-कान्तारनिपातकार्थानां कषायाणां जाते मन्दोदये सति । भवेत् प्रमाद- रि ।। (अमित. श्रा. ७-२५)। हीनत्वादप्रमत्तो महाव्रती। (गु. क्रमा. ३२, पृ. ५) १मान कषाय से प्रेरित होकर परभव में उत्तम कुल, १३. यश्च निद्राकषायादिप्रमादरहितो व्रती। गुण- जाति, एवं रूपादिके पाने की इच्छा करना; तथा स्थानं भवेत्तस्याप्रमत्तसंयताभिधम् ।। (लोकप्र. ३, प्राचार्य, गणधर और तीर्थकरादि पदों के पाने की
कामना करना अप्रशस्त निदान कहलाता है। १ सर्व प्रकारके प्रमादों से रहित और व्रत, गुण अप्रशस्त निःसररणात्मक तैजस-तत्थ अप्पएवं शील से मण्डित तथा सदध्यान में लीन ऐसे सत्थं बारहजोयणायाम णवजोयणवित्थारं सूचिसम्यग्ज्ञानबान् साधु को अप्रमत्तसंयत कहते हैं। अंगुलस्स संखेज्जदिभागबाहल्लं जासवणकुसमसंकास अप्रमाद - पंचमहव्वयाणि पंचसमिदीयो तिण्णि भूमि-पव्वदादिदहणक्खम पडिवक्ख रहियं रोसिंधणं गुत्तीसो णिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम। वामसप्पभवं इच्छियखेत्तमेत्तविसप्पणं । (धव. पु. (धव. पु. १४, पृ. ८६)।
४. पृ. २८)। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गप्तियों को बारह योजन लम्बे, नौ योजन चौड़े, सूच्यंगुल के धारण करना तथा समस्त कषायों का अभाव होना; संख्यातवें भाग मोटे, जपापुष्प के समान रक्तवर्णइसका नाम अप्रमाद है।
वाले, पथिवी व पर्वतादि के जलाने में समर्थ, प्रतिअप्रमार्जनासंयम-अप्रमार्जनासंयमः पात्रादेरप्र- पक्षसे रहित तथा बायें कन्धेसे प्रगट होकर अभीष्ट मार्जनया ऽविधित्रमार्जनया वेति । (समवा. अभय. स्थान तक फैलने वाले तैजस शरीर को अप्रशस्त
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अप्रशस्त-नोग्रागम-भावोपक्रम] १०८, जैन-लक्षणावली [अप्रशस्तोपशामना निःसरणात्मक तेजस कहते हैं। यह तैजस शरीर पाकर्णन-कौतूहलपरिणामो हि अप्रशस्तरागः । (नि. क्रोध के वशीभूत हुए साधु के बायें कन्धे से निक- सा. वृ. १-६)। लता है।
स्त्री, राजा, चोर और भोजनादि विषयक विकथाअप्रशस्त-नोग्रागम-भावोपक्रम-अप्रशस्तो गणि- प्रों के कहने-सुनने का कौतूहल होना; यह अप्रशस्त कादीनाम्, गणिकाद्यप्रशस्तेन संसाराभिवधिना व्यव- राग है। सायेन परभावमुपक्रामन्ति। (व्यव. सू. भा. मलय.. अप्रशस्त वात्सल्य-पोसन्नाइगिहत्थाणं अप्पसत्थं . १, पृ. २)।
[वच्छलं] । (जीतक. चूणि पृ. १३, पं. १८-१९)। संसार बढ़ाने वाले गणिकादि के अप्रशस्त व्यव- अवसन्न-अवसाद या खेद को प्राप्त-गृहस्थों के साय से जो पर भाव का उपक्रम होता है उसे अप्र- साथ वात्सल्य भाव रखने को अप्रशस्त वात्सल्य शस्त-नोप्रागम-भावोपक्रम कहते हैं।
कहते हैं। अप्रशस्त-प्रतिसेवना-१. अप्पसत्थेति अप्रशस्तेन प्रशस्त विहायोगति-१. जस्स कम्मस्स उदएण भाबेन सेवइ। (जीतद.. च. प. ३, पं. १८-१३)। खरोट-सियालाणं व अप्पसत्या गई होज्ज सा अप्प२. बल-वर्णाद्यर्थं प्रासुकभोज्यपि जं पडिसेवइ सा सत्थविहायोगदीणाम । (धव. पु. ६, पृ. ७७)। अप्रशस्तप्रतिसेवना। किं पुण अविसुद्धं ग्राहाकम्माइं? २. उष्ट्र-खराद्यप्रशस्तगतिनिमित्तमप्रशस्तविहायोगति(जीतक. चू. वि. व्या. ५, पृ. ३४) । ३. अप्रशस्तो नाम । (त. वा. ८, ११, १८; त. सुखबो. वृ.८, बल-वर्णादिनिमित्तं प्रतिसेवी। (व्यव. भा. मलय. ११)। ३. जस्सुदएणं जीवो अमणिदाए उ गच्छइ वृ. गा. ६३४)।
गईए । सा असुहा विहगगई उट्टाईणं हवे सा उ । १ बल व वर्णादि की प्राप्तिके लिए प्रासुक भी भोजन (कर्मवि. गर्ग. १२६, पृ. ५३)। ४. यस्य कर्मण के सेवन करने को अप्रशस्त प्रतिसेवना कहते हैं। उदयेनोष्ट्र-शृगाल-श्वादीनामिवाप्रशस्ता गतिर्भवति, , अप्रशस्त प्रभावना-मिच्छत्त-अण्णाणाईणं अप्प- तदप्रशस्तविहायोगतिनाम । (मूला. वृ. १२-१६५)। सत्था [पहावणा] । (जीतक. चू. पृ. १३)। ५. यदुदयात् पुनरप्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, यथा मिथ्यात्व और प्रज्ञान आदि भावों की प्रभावना खरोष्ट्र-महिषादीनाम्, तदप्रशस्तविहायोगतिनाम । करने को अप्रशस्त प्रभावना कहते हैं।
(षष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६, पृ. १२५; सप्ततिका दे. प्रशस्त भावशीति-यभिस्तेषामेव संयमस्था- स्वो. वृ. ५, पृ. ५३)। नानां संयमकण्डकानां लेश्यापरिणामविशेषाणां वा १जिस कर्म के उदय से ऊँट, गर्दभ और शृगाल ऽधस्तात् संयमस्थानेष्वपि गच्छति सा अप्रशस्ता आदि के समान निन्द्य चाल उत्पन्न हो उसे अप्रशस्त भावशीतिः । (व्यव. भा. मलय. व. गा. ४०६)। विहायोगति नामकर्म कहते हैं। जिन हेतुओं के द्वारा उन्हीं विवक्षित संयमस्थानों, अप्रशस्तोपबृहण-अप्पसत्था (उबवूहा) मि. संयमकाण्डकों एवं लेश्यापरिणामविशेषों के नीचे च्छत्ताइसु (अब्भुज्जयस्स उच्छाहवड्ढणं उबबूहणं)। संयमस्थानों में भी जावे उसे अप्रशस्त भावशीति (जीतक. च. पृ. १३, पं. १५-१६) । कहते हैं।
मिथ्यात्व आदि में उद्यत प्राणियों के उत्साह के अप्रशस्त भावसंयोग-से किं तं अपसत्थे ? बढ़ाने को अप्रशस्त उपहा (उपबृहण) कहते हैं । कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोहेणं अप्रशस्तोपशामना-१. जा सा देशकरणुवसामणा लोही, से तं अपसत्थे। (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४४) तिस्से अण्णाणि दुवे णामाणि-अगुणोवसामणा त्ति च जीव क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से अप्पसत्थुवसामणा त्ति च। (धव. पु. १५, पृ. २७५, मानी, माया के संयोग से मायी और लोभ के संयोग २७६) । २. कम्मपरमाणणं बझंतरंगकारणवसेण से लोभी कहा जाता है। इस प्रकारके अप्रशस्त केत्तियाणं पि उदीरणावरोण उदयाणागमणपइण्णा भाव के संयोग से प्रसिद्ध ऐसे (क्रोधी प्रादि) नाम । अप्पसत्य-उवसामणा ति भण्णदे। (जयध. अ. प. अप्रशस्त भाव संयोग जनित माने गये हैं।
६७०-धव. पु ६, पृ. २५४ का टिप्पण १)। अप्रशस्त राग-स्त्री-राज-चौर-भक्तविकथाऽऽला- ३. संसारपाओग्ग-अप्पसत्थपरिणामणिबंधणत्तादो
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अप्रसेनिकाकुशील] १०६, जैन-लक्षणावली
[अबुद्धजागरिका एसा अप्पसत्थोवसामणा त्ति भण्णदे। (जयध.-क. सव्वेसिमजोगिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया । पा. पु. ७०८ का टिप्पण २)।
(घव. पु. ७, पृ. ८)। किन्हीं कर्म-परमाणोंका बाझ और अन्तरंग कारणों जो सिद्ध जीव बन्ध के कारणों से रहित होकर के वश तथा किन्हीं का उदीरणा के वश उदय में न मोक्ष के कारणों से संयुक्त हैं वे, तथा मिथ्यात्वादि पाना, इसका नाम अप्रशस्तोपशामना है। इसी को सभी बन्धकारणों से रहित अयोगी जिन भी दूसरे नाम से प्रगुणोपशामना भी कहा जाता है। प्रबन्धक हैं। प्रप्रसेनिकाकुशील - कश्चिदप्रसेनिकाकुशीलः अबला-अबल त्ति हादि जं से ण दढं हिदयम्मि विद्याभिमंत्रौषधप्रयोगैर्वा ऽसंयतचिकित्सां करोति, धिदिबलं अस्थि । (भ. प्रा. ९८०)। सोऽप्रसेनिकाकुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. टी. जिसके हृदय में दृढ़ धैर्यबल न हो उसे अबला १९५०)।
कहते हैं। जो साधु विद्या, मंत्र और औषधि के द्वारा असंयमी प्रबहश्रुत-बहुश्रुतो नाम येनाऽऽचारप्रकल्पाध्यजनों की चिकित्सा करता है उसे अप्रसेनिका-कुशील यनं नाधीतम, अधीतं वा विस्मारितम्। (बहत्क. कहते हैं।
वृत्ति ७०३)। अप्रामाण्य -- xxx अर्थान्यथात्वपरिच्छेदसा- जिसने प्राचारकल्प का अध्ययन नहीं किया, अथवा मर्थ्यलक्षणाप्रामाण्यस्य (अप्रामाण्यस्य लक्षणं ह्या- पढ़ करके भी उसे भुला दिया है, ऐसे व्यक्ति को न्यथात्वपरिच्छेदसामर्थ्यम्)XXX। (प्र. क. मा. अबहुश्रुत कहते हैं। पृ. १६३ पं. १३)।
अबाधा, अबाधाकाल-देखो आबाधा । १. होई अर्थ के अन्यथापन के-जैसा कि वह है नहीं वैसा अबाहकालो जो किर कम्मस्स अणउदयकालो। -जानने के सामर्थ्य का नाम अप्रामाण्य है। शतक. भा. ४२, पृ. ६७)। २. ततश्च सप्ततिः तात्पर्य यह कि पदार्थ के जानने में जो यथार्थता सागरोपमानां कोटीकोटयो मोहनीयस्योत्कृष्टा का प्रभाव होता है उसे अप्रामाण्य समझना स्थितिर्भवति । अत्र च सप्तवर्षसहस्राणि कर्मणोचाहिए।
ऽनुदयलक्षणाऽबाधा द्रष्टव्या । बद्धमपीत्थमेतत् कर्म अप्रिय वचन-१. अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैर- सप्तर्षसहस्राणि यावद्विपाकोदयलक्षणां बाधां न शोक-कलहकरम् । यदपरमपि तापकर परस्य तत्सर्व करोतीत्यर्थः । (शतक. मल. हेम. व. ५१, पृ. ६५)। मप्रियं ज्ञेयम् ।। (पु. सि. १८) । २. कर्कश-निष्ठुर- बंधने के पश्चात् भी कर्म जितने समय तक बाधा भेदन-विरोधनादिबहभेदसंयुक्तम् । अप्रियवचनं नहीं पहुंचाता-उदय में नहीं पाता है-उतना प्रोक्तं प्रियवाक्यप्रवणवाणीकैः ।। (अमित. श्रा. समय उसका अबाधाकाल कहलाता है। ६-५४)।
अबाधितविषयत्व- साध्यविपरीतनिश्चायकप्रब२ कर्कश, निष्ठर, दूसरे प्राणियों का छेदन भेदन लप्रमाणरहितत्वमबाधितविषयत्वम् । (न्या. दी. पृ. करने वाले और विरोध को उत्पन्न करने वाले ८५)। वचनों को अप्रिय वचन कहते हैं।
साध्य से विपरीत के निश्चायक प्रबल प्रमाण के अबद्धश्रुत-बद्धमबद्धं तु सुग्रं बद्धं तु दुवालसंग प्रभाव को अबाधितविषयत्व कहते हैं । निद्दिट्ट। तव्विवरीयमबद्धंxxx॥ (प्राव. नि. प्रबद्धजागरिका-जे इमे अणगारा भगवंतो इरि. १०२०)।
यासमिया भासासमिया जाव गुत्तबंभयारी, एए णं द्वादशांग रूप बद्ध श्रुत से भिन्न श्रुत को प्रबद्धश्रुत अबुद्धा अबुद्धजागरिया जागरति । (भगवती सू. १२, कहते हैं।
१, ११ पृ. २५५)। प्रबन्ध (प्रबन्धक)-१. सिद्धा प्रबंधा ॥७॥ ईर्यासमिति और भाषासमिति से युक्त गुप्त ब्रह्मबंधकारणबदिरित्तमोक्खकारणेहिं संजुत्तत्तादो । चारी-नौ ब्रह्मगुप्तियों (शीलवाढों) से संरक्षित (षट्वं. २, १, ७-धव. पु. ७, पृ. ८-६)। ब्रह्मचर्य के परिपालक---तक साधु प्रबुद्धजागरिका २. मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाण जागृत होते हैं।
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अबुद्धि] ११०, जैन-लक्षणावली
[अभद्र अबुद्धि - आत्मस्थदुःखबीजापायोपायचिन्ताशून्य- वेदतीव्रोदयात् कर्म मैथुनं मिथुनस्य यत् । तदब्रह्मात्वादनिवार्यपरदुःखशोचनानुचरणाच्चाबुद्धिः । (भ. पदामेकं पदं सद् गुणलोपनम् ।। (प्रा. सा. ५-४७)। प्रा. मूला. टी. १७५४) ।
११. स्त्री-पुंसव्यतिकरलक्षणमब्रह्म । (शास्त्रवा. टी. जिसे अपने दु:ख के दूर करने की चिन्ता न हो, पर १-४)। दूसरे के दुःख में दुःखी होकर जो उसे दूर करने २ अहिंसादि गुणों के बढ़ाने वाले ब्रह्म के प्रभाव का प्रयत्न करता है वह अबुद्धि है----अज्ञानतावश को-उसके न पालन करने को-प्रब्रह्म कहते हैं । ऐसा करता है।
४ स्त्री-पुरुषों की रागपूर्ण चेष्टा (मैथुन क्रिया) को अबुद्धिपूर्वा निर्जरा-नरकादिषु गतिषु कर्मफल- अब्रह्म कहा जाता है।। विपाकजाऽबुद्धिपूर्वा, सा अकुशलानुबन्धा । (स. सि. अब्रह्मचर्या-ततो (ब्रह्मतः अात्मनः) ऽन्यो वामलो६-७; त. वा. ६, ७, ७)।
चनाशरीरगतो रूपादिपर्यायोऽब्रह्म, तत्र चर्या नामानरकादिक गतियों में कर्मों के उदय से फल को देते भिलाषापरिणतिः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ८७९)। हुए जो कर्म झड़ते हैं उसे अबुद्धिपूर्व-निर्जरा कहते हैं। ब्रह्म से भिन्न जो स्त्री के शरीरगत लावण्य आदि अबुद्धिपूर्व विपाक-देखो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा। है उसका नाम अब्रह्म है, इस प्रब्रह्म की अभिलाषा १. नरकादिषु कर्मफलविपाकोदयोऽबुद्धिपूर्वकः । (त. करना या उसमें परिणत होना, इसे अब्रह्मचर्या भा. ६-७)। २. बुद्धि : पूर्वा यस्य-कर्म शाटयामि कहते हैं। इत्येवंलक्षणा बुद्धिः प्रथमं यस्य विपाकस्य-स अब्रह्मवर्जन-१. पूव्वोइयगुणजुत्तो विसेसो बुद्धिपूर्वः, न बुद्धिपूर्वोऽबुद्धिपूर्वः । (त. भा. सिद्ध. विजियमोहणिज्जो य । बज्जइ अबंभमेगं तो उ वृत्ति ६-७)।
राई पि थिरचित्तो।। सिंगारकहाविरो इत्थीए २ नरकादि में 'मैं कर्म को दूर करता हूँ' इस समं रहम्मि णो ठाइ। चयइ य अतिप्पसंग तहा प्रकारके विचार से रहित जो कर्मफल का विपा- विहसं च उक्कोसं ।। एवं जा छम्मासा एसोऽहिकोदय होता है उसे अबुद्धिपूर्व विपाक कहा जाता है। गतो इहरहा दिळें । जावज्जीव पि इमं वज्जइ अब्रह्म-१. मैथुनमब्रह्म । (त. सू. ७-१६)। एयम्मि लोगम्मि ।। (पञ्चाशक १०,४६४-६६)। २. अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति २. परस्त्रीस्मरणं यत्र न कुर्यान्न च कारयेत् । वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । अब्रह्मवर्जनं नाम स्थूलं तुर्यं च तद् व्रतम् ।। (धर्मसं. (स. सि. ७-१६; त. सुखबो. वृत्ति ७-१६; त. श्रा. ६-६३)। वृत्ति श्रुत. ७-१६)। ३. अहिंसादिगुणबृहणाद् १ पूर्व पांच प्रतिमाओं का परिपालन करते हुए ब्रह्म । अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्य- स्थिरतापूर्वक रात में भी अब्रह्म का सर्वथा त्याग माने बहन्ति वृद्धिमुपयन्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म कर देना और शृंगारकथा को छोड़कर स्त्री के अब्रह्म। किं तत् ? मैथुनम् । (त. वा. ७, १६, साथ एकान्त में न रहते हुए शरीर के शृंगार को १०)। ४. स्त्री-पुंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा त्याग देना; यह अब्रह्मवर्जन नामकी छठी प्रतिमा मैथुनम्, तदब्रह्म । (त. भा. ७-११)। ५. कषा- है। इसका परिपालन छह मास अथवा जीवन पर्यन्त यादिप्रमादपरिणतस्यात्मनः कर्तुः कायादिकरण- भी किया जाता है। २ जिस व्रत में परस्त्री का स्मरण व्यापारात् Xxx मोहोदये सति चेतनाचेतनयोरा- न स्वयं करता है और न दूसरों को कराता है उसे (सिद्ध वृत्ति-चेतनस्रोतसोरा) सेवनमब्रह्म। (त.भा. स्थल अब्रह्मवर्जन (चतुर्थ अणुव्रत) कहते हैं। हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। ६. अब्रह्मान्यत्तु रत्यर्थं अभद्र-अभद्रं हि संसारदुखम् अनन्तम्, तत्कारणस्त्री-पुंस मिथुनेहितम् । (ह. पु. ५८-१३२)। ७. त्वान्मिथ्यादर्शनमभद्रम् । तद्योगान्मिथ्यादृष्टि र. अहिंसादिगुणवृहणाद् ब्रह्म, तद्विपरीतमब्रह्म । (त. भद्रः। (युक्त्यनु. टी. ६३)। श्लो. ७-१६)। ८. यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते संसार सम्बन्धी अनन्त दुःख का नाम अभद्र है। तदब्रह्म । (पु. सि. १०७) । ६. मैथुन मदनोद्रेकाद- उस अभद्र का कारण होने से मिथ्यादर्शन को और ब्रह्म परिकीर्तितम् ।। (त. सा. ४-७७)। १०. उस मिथ्यादर्शन के योग से मिथ्यादृष्टि जीव को
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अभयदान ]
भी अभद्र कहा जाता है । अभयदान --- १.
दानान्तरायस्याऽत्यन्तसंक्षयात्
अनन्त प्राणिगणाऽनुग्रहकरं क्षायिकं अभयदानम् । ( स. सि. २-४; त. वा. २, ४, २ ) । २. दानान्तरायाक्षयादभयदानम् । (त. इलो. २-४ ) । ३. भवत्यभयदाने तु जीवानां वधवर्जनम् । मनोवाक्कायैः करणकारणानुमतैरपि । (त्रि. श. पु. १, १, १५७); तत्पर्यायक्षयाद् दुःखोत्पादात् संक्लेशतस्त्रिधा । वधस्य वर्जनं तेष्वभयदानं तदुच्यते ॥ ( त्रि. श. पु.१, १, १६९) । ४. जं सुहुम-वायराणं जीवाण ससत्ति सयाकालं । कीरइ रक्खणजयणा तं जाणह अभयदानं ति ।। (गु. गु. षट्. स्वो वृ. २, पृ. ६) । ५. धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां जीवितव्ये यतः स्थितिः । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते सर्वे सन्ति देहिनाम् ।। (श्रमित. श्री. ९-८४) । ६. जंकीरइ परिरक्खा णिच्चं मरणभयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदानं सिहामणि सव्वदाणाणं ।। (वसु. श्रा. २३८ ) । ७. सर्वेषां देहिनां दुःखाद्विभ्यतामभयप्रदः । ( सा. ध. २- ७५) । ८. सव्वेसि जीवाणं श्रभयं जो देइ मरणभीरूणं । ( भावसं. दे. ४६ ) । ६ प्रभयं प्राणसंरक्षा । (भावसं. वाम. ५-६६ ) । १०. सर्वेभ्यो जीवराशिभ्यः स्वशक्त्या करणैस्त्रिभिः । दीयते ऽभयदानं यद्दद्यादानं तदुच्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ६ - १६१ ) ।
१ अनन्त प्राणियों के अनुग्रह करने वाले दान कोदिव्य उपदेश को - श्रभयदान कहते हैं। यह अभयदान दानान्तराय के सर्वथा निर्मूल हो जाने पर सयोगकेवली अवस्था में होता है । ४ सूक्ष्म और बादर जीवों की अपनी शक्ति प्रमाण रक्षा करने और उन्हें दुःख नहीं पहुंचाने को भी अभयदान कहते हैं । ( यह अभयदान उक्त दानान्तराय के क्षयोपशम से होता है)।
अभयमुद्रा - दक्षिणहस्तेन ऊर्ध्वाङ्गुलिना पताकाकारण अभयमुद्रा । (निर्वाणकलिका १ - ३३ ) । दाहिने हाथ की अंगुलियों को ऊँचा करके पताका ( ध्वज) के आकार करने को अभयमुद्रा कहते हैं । अभव्य - १. सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्यः, तद्विपरीतोऽभव्य: । ( स. सि. २ - ७ ) ; सम्यग् - दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यति स भव्यः, यस्य तु न भविष्यति सोऽभव्यः । ( स. सि. ८- ६) | २. भव्वा जिणेहि भणिया इह खलु जे सिद्धिगमण
१११, जैन- लक्षणावली
[ अभव्यसिद्धिकप्रायोग्य
जोग्गा हु । ते पुण प्रणाइपरिणामभावप्रो हुति णायव्वा ॥ विवरीया उ प्रभव्वा न कयाइ भवन्नवस्स ते पारं । गच्छसु जंति व तहा तत्तु च्चिय भावो नबरं ।। (श्रा. प्र. गा. ६६-६७ ) । ३. तद्विपरीतोभव्यः । यो न तथा ( सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रपरिणामेन) भविष्यत्यसावभव्य इत्युच्यते । (त. वा. २, ७, ८) सम्यक्त्वादिव्यक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वमिति विकल्पः कनकेतरपाषाणवत् ॥ ( त. वा. ८, ६, ९) । ४. अश्रद्दधाना ये धर्मं जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना मिथ्याज्ञानपरायणाः ॥ अनाद्यनिधना सर्वे मग्नाः संसारसागरे । अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसन्निभाः । ( वराङ्ग. २६, ८- ९ ) । ५ निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः, X × × तद्विपरीतोऽभव्यः । ( धव. पु. १, पृ. १५०-५१ ); भविया सिद्धी जेसि जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । तव्विवदाऽभव्वा संसारादो ण मिज्भंति ॥ ( धव. पु. १, पृ. ३६४ उद्धृत; गो. जी. ५५६ ); सिद्धिपुरक्कदा भविया णाम, तव्विवरीया प्रभविया णाम । ( धव. पु. ७, पृ. २४२ ) । ६. भव्यस्तद्विपक्षः स्यादन्धपाषाणसन्निभः । मुक्तिकारणसामग्री न तस्यास्ति कदाचन ॥ ( म. पु. २४ - २६ ) । ७. अभव्यः सिद्धिगमनायोग्यः कदाचिदपि यो न सेत्स्यति । (त. भा. सिद्ध. वृत्ति २ - ७ ) । ८. भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युः विपरीतास्तथाऽपरे । (त. सा. २ - १० ) । ६. रयणत्तयसिद्धीए ऽणंतच उट्टयसरूवगो भविदुं । जुग्गो जीवो भव्व तव्विवरीओ प्रभव्वो दु || (भा. त्रि. १४) । १०. सम्यग्दर्शनादि-पर्यायाविर्भाव
शक्तिर्यस्यास्ति स भव्यः तद्विपरीतलक्षणः पुनरभव्यः । (त. सुखबो. वृ. २- ७ व ८- ६ ) । ११. अभव्याः अनादिपारिणामिकाभव्यभावयुक्ताः । ( नन्दी हरि. वृ. पू. ११४) । १२. भविष्यत्सिद्धिको भव्यः सुवर्णोपलसन्निभः । प्रभव्यस्तु विपक्षः स्यादन्धपाषाणसन्निभः । (जम्बू. च. ३, २९-३०) ।
१ भविष्य में जो सम्यग्दर्शनादि पर्याय से कभी भी परिणत नहीं हो सकते हैं वे श्रभव्य कहलाते हैं । अभव्यसिद्धिकप्रायोग्य - - भवसिद्धियाणमभवसिद्वियाणं च जत्थ ठिदि प्रणुभागबंधादिपरिणामा सरिसा होण पयट्टति, सो ग्रभवसिद्धियपाश्रोग्गविति भण्ण । ( जयध. - क. पा. पृ. ८३८ का टि. १) ।
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प्रभावप्रमाणता]
जिस स्थान पर भव्य और प्रभव्य जीवों के स्थिति और अनुभाग बन्ध आदि कराने वाले परिणाम समान होकर प्रवृत्त होते हैं, उन्हें प्रभव्यसिद्धिकप्रायोग्य परिणाम कहते 1
११२, जैन-लक्षणावली
प्रभावप्रमारणता - प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि || प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्ताववोधार्थं तत्राभावप्रमाणता || ( प्रमाल ३८१-८२; प्र. क. मा. पृ. १८६ व १६५ उ.) 1 प्रत्यक्षादि प्रमाणों की प्रनुत्पत्ति को, अथवा उक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणरूप श्रात्मा के परिणत न होने को श्रथवा अन्य वस्तु विषयक विज्ञान को प्रभाव प्रमाण कहते हैं ।
श्रभिगत -- १. सम्मत्तम्मि अभिगग्रो विजाणमो वा वि अब्भवगओ वा । ( बृहत्क. भा. ७३४)। २. सम्यक्त्वे य ग्राभिमुख्येन गतः प्रविष्टः सोऽभिगत उच्यते, यो वा जीवादिपदार्थानां 'विज्ञायक:' विशेषेण ज्ञाता सोऽभिगतः, यद्वा यः अभ्युपगतः - 'यावज्जीवं मया गुरुपादमूलं न मोक्तव्यम्' इति कृताभ्युपगमः सोऽभिगतः । ( बृहत्क. वृ. ७३४ ) ।
अथवा प्रथवा
जो सम्यक्त्व के श्रभिमुख हो चुका है, जीवादि पदार्थों का विशेषरूप से ज्ञाता है, जो यह प्रतिज्ञा कर चुका है कि मैं जीवन पर्यन्त गुरु के पादमूल को नहीं छोडूंगा, उसे अभिगत कहते हैं । यह उत्सारकल्पयोग्य के कुछ गुणों में से एक है ।
अभिगतचारित्रार्य- देखो अधिगतचारित्रार्थ | अभिगमन- अभिगमनं सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरप्रवेशनम् । (जीवाजी. मलय. वृ. ३- २, पृ. १७६; सूर्य प्र. वृ. १३ - ८१) ।
बाहिरी मण्डल से भीतरी मण्डल में प्रवेश करने को भिगमन कहते हैं ।
अभिगमर्श -- - १. सो होइ अभिगमरुई सुणाणं जेण प्रत्थदि । एक्कारसमंगाई पइन्नगं दिट्ठिवाय । (उत्तरा २८ - २३, पृ. ३२० ) । २. अर्थ - तः सकलसूत्रविषयिणी रुचिरभिगमरुचिः । ( धर्मसं. स्व. वृ. २, २२, पृ. ३८ ) ।
जिसने अर्थ स्वरूप से ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद रूप सकल श्रुतज्ञान का अभ्यास किया है
[ अभिगृहीता भाषा
उसे श्रभिगमरुचि कहते हैं ।
अभिगृहीत - १. अभिग्गहिदं यद्द शाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतं श्रश्रद्धानम् अभिगृहीतमुच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ५६ ) । २. अभिग्गहिदं परोपदेशादाभिमुख्येन स्वीकृतम्, परोपदेशजम् इत्यर्थः । ( भ. प्रा. मूला. टी. ५६ ) । ३. अभि श्राभिमुख्येन तत्त्वबुद्ध्या, गृहीतं यथा भौत - भागवत - बौद्धादिभिः । ( पंचसं स्वो वृ. ४-२ ) ।
२ दूसरे के उपदेश से ग्रहण किये गये मिथ्यात्व को अभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । अभिगृहीत दृष्टि - प्रभिमुखं गृहीता दृष्टिः, इदमेव तत्त्वमिति बुद्धवचनं सांख्य कणादादिवचनं वा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - १८, पृ. १०० ) । तत्त्व - यथार्थ वस्तुस्वरूप यही है, इस प्रकार बुद्ध, सांख्य व कणाद श्रादि के वचनों पर श्रद्धा करने at भी दृष्टि कहते हैं । श्रभिगृहीता ( मिथ्यात्व) क्रिया -- तत्राभिगृहीता त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रवादिशतानाम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) ।
तीन सौ तिरेसठ प्रवादियों के तत्त्व पर श्रद्धा रखने को अभिगृहीता क्रिया कहते हैं । श्रभिगृहीता भाषा - १. जा पुण भासा प्रत्थं अभिगि भासिया सा श्रभिग्गहिया । ( दशवं. चू. २८०, पृ. २३६ ) । २. श्रर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत् । ( दशवै. नि. हरि. वृ. २७७, पृ. २१० ) । ३. भाषा चाभिगृहे वोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य या प्रोच्यते घटादिवदिति । (श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८० ) । ४. अभिगृहीता प्रतिनियतार्थावधारणम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११ - १६६ ) । ५. अभिगृहीता प्रतिनियतार्थावधारणरूपा यथेदमिदानीं कर्तव्यमिदं नेति । यद्वा XX X अभिगृहीता तु प्रर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत् । (धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३-४१, पृ. १२३ ) । ६. अनेकेषु कार्येषु पृष्टेषु यदेकतरस्यावधारणमिदमिदानीं कर्तव्यमिति सा श्रभिगृहीता ऽथवा घट इत्यादिप्रसिद्धप्रवृत्तिनिमित्तकपदाभिधानं सेति द्रष्टव्यम् । ( भाषार. टी. ७८ ) । १ अर्थ को ग्रहण करके जो भाषा बोली जाती हैजैसे 'घट' श्रादि- वह श्रभिगृहीता भाषा कही जाती है । ६ अनेक कार्यों के पूछे जाने पर 'इस समय इसे करो' इस प्रकार किसी एक का निश्चय
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अभिग्रहमतिक]
करने वाली भाषा को अभिगृहीता भाषा कहते हैं । अथवा प्रवृत्तिनिमित्तक प्रसिद्ध पदों के कथन को अभिगृहीता भाषा कहते हैं । अभिग्रहमतिक - प्रभिग्रहा द्रव्यादिषु नानारूपा नियमा:, तेषु स्व- परविषये मतिः तद्ग्रहण- ग्राहणपरिणामो यस्यासौ अभिग्रहमतिकः । ( सम्बोधस वृ. गा. १६, पृ. १७) । द्रव्यादिकों के विषय में जो अनेक प्रकार के नियम हैं उन्हें अभिग्रह कहते हैं । उक्त नियमरूप अभिग्रहों में स्व श्रौर पर के विषय में ग्रहण करने कराने रूप जिसकी मति (परिणाम) हुआ करती है, उसे श्रभिग्रहमतिक कहते हैं । श्रभिघातगति ( क्रियाभेद ) — जतुगोलक - कन्दु-दारुपिण्डादीनामभिघातगतिः । (त. वा. ५,२४,२१) । लाख का गोला, गेंद और काष्ठपिण्ड श्रादि की अन्य से ताड़ित होने पर जो गति होती है उसे श्रभिघातगति कहते हैं । अभिजातत्व - १. अभिजातत्वं वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता । (समवा. अभय वृ. सू. ३५, पृ. ६) । २. अभिजातत्वं यथाविवक्षितार्थाभिधानशीलता । ( रायप. टी. पू. १६) ।
२ विवक्षित अर्थ के अनुसार कथन की शैली का नाम अभिजातत्व है । यह पैंतीस सत्यवचनातिशयों ठारहवां है।
श्रभिज्ञा ( प्रत्यभिज्ञा ) – 'तदेवेदम्' इति ज्ञानमभिज्ञा । (सिद्धिवि. टी. ४ - १, पू. २२६, पं. ५ ) । 'यह वही हैं' इस प्रकारका जो ज्ञान ( प्रत्यभिज्ञान ) होता है उसे अभिज्ञा कहते हैं । अभिधान-नामनिबन्धन - जो णामसद्दो पत्तो संतो अप्पाणं चेव जाणावेदि तमभिहाणणिबंधणं णाम । (धवला पु. १५, पू. २ ) ।
जो नामशब्द प्रवृत्त होकर केवल अपना ही बोध कराता है, उसे अभिधान- नाम- निबन्धन कहते हैं । यह नामनिबन्धन के तीन भेदों में से दूसरा है । अभिधानमल - अभिधानमलं तद्वाचकः शब्दः । ( धव. पु. १, पृ. ३३ ) ।
मल-वाचक शब्द को अभिधानमल कहते हैं । अभिधायकविधि - तद् - ( अभिधेयविधि - ) ज्ञापकश्चाभिधायकविधिः । (प्रष्टस. यशो वृ. ३, ५० ) ।
ल. १५
११३, जैन- लक्षणावली
[ अभिनिबोध
विवक्षित अर्थ ( श्रभिधेय ) का ज्ञापन कराने वाली विधि को श्रभिधायक विधि कहते हैं । अभिधेयविधि -यस्य बुद्धिः प्रवृत्तिजननीमिच्छा ते सोऽभिधेयविधिः । (प्रष्टस. यशो. वृ. ३, ५० ) । जिसकी बुद्धि प्रवृत्ति की जनक इच्छा को उत्पन्न करे उसे अभिधेयविधि कहते हैं । अभिध्या-सदा सत्त्वेष्वभिद्रोहानुध्यानम् अभिध्या । यथा -- श्रस्मिन् मृते सुखं वसामः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१) ।
प्राणियों के विषय में सदा अभिद्रोह के चिन्तवन करने को प्रभिध्या कहते हैं। जैसे- इसके मर जाने पर हम सुख से रह सकते हैं। अभिनय - अभिनयः चतुभिराङ्गिक- वाचिक-सात्त्विकाहार्यभेदैः समुदितै रसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनम् । (जम्बूद्वी. वृ. ५-१२१, पृ. ४१४)। कायिक, वाचनिक, सात्त्विक और श्राहार्य इन चार भेदों के द्वारा, चाहे वे समुदाय रूप में हों या पृथक् पृथक्, अभिनेतव्य ( जिस वृत्तान्त को नकल करके प्रगट किया जाय ) वस्तु के भाव को प्रगट करना, इसका नाम अभिनय है ।
अभिनवानुज्ञा - अभिनवानुज्ञा नाम यदा किलान्यो देवेन्द्रः समुत्पद्यते तदा तत्कालवर्तिभिः साधुभिर्यदसावभिनवोत्पन्नतयाऽवग्रहमनुज्ञाप्यते सा तेषां साधूनामभिनवानुज्ञा । ( बृहत्क. वृ. ६७० ) जब कोई नया देवेन्द्र उत्पन्न होता है तब वह तत्कालवर्ती साधुनों के द्वारा अवग्रह ( उपाश्रय ) के लिये श्रनुज्ञापित किया जाता है, यह उन साधुनों की अनुज्ञा अभिनवानुज्ञा कही जाती है । अभिनिबोध - १. अभिनिबोधनमभिनिबोधः । ( स. सि. १ - १३) । २. ग्राभिमुख्येन नियतं बोधनमभिनिबोध: । (त. वा. १, १३, ५) । ३. प्रत्थाभिमुहो णियतो बोध: ( अभिनिबोध: ), स एव स्वाधिकप्रत्ययोपादानादभिनिबोधकम् । ( नन्दी. चू. पू.
१० ) । ४. प्रत्थाभिमुहो निप्रो बोहो जो सो मोभिनिबोहो । (विशेषा. भा. ८०, पृ. ३७ ) । ५. ग्रर्थाऽभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोध: । (श्राव. हरि. वृ. १, पृ. ७) । ६. अहिमुह - णियमिदट्ठे सु जो बोधो सो हिणिबोधो । ( धव. पु. ६, पू. १५ - १६ ) । ७. यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च
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अभिनिबोध ]
1
मूर्तीमूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदभिनिबोविकज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४१ ) । ८. अहि. मुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिदिइंदियजं ( गो . जी. ३०६ ) । ६. स्थूल वाग्गोचरानन्तरार्थस्य स्थायिनश्चिरम् । प्रत्यक्षं नियतस्यैतद् वोधादभिनिवोधनम् ।। श्रा. सा. ४ - ३२ ) । १०. ग्रभिनिबोधो हेतोरन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयः । ( लघी. श्रभय. वृत्ति ४-४, पृ. ४५ ) । ११. अभिमुखेषु नियमितेष्वर्थेषु यो बोधः स श्रभिनिबोधः, अभिनिबोध एवाभिनिबोधिकम् । (मूला. वृ. १२ - १८७) । १२. श्रर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतो ऽसंशयरूपत्वाद् बोध: संवेदनमभिनिबोधः । स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकम् । ( स्थानांग सू. ४६३, पू. ३३० ) । १३. श्रर्थाभिमुखो नियतः प्रतिनियतस्वरूपो बोधो बोधविशेषो ऽभिनिबोध: XXX। श्रथवा अभिनिबुध्यतेऽनेनाऽस्मात् श्रस्मिन् वेति अभिनिबोधः तदावरणकर्मक्षयोपशमः । (श्राव. मलय. वू. १, पृ. १२; नन्दी. मलय. वृ. सू. १, पृ. ६५ ) । १४. अभिमुखो वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी, नियत इन्द्रियाण्याश्रित्य स्व-स्वविषयापेक्षी बोधः प्रभिनिबोध: । (श्रनुयो. मल. हेम. वृ. १, पू. २ ) । १५. अर्थाभिमुखो नियतो बोधोऽभिनिबोधः, XX X अभिनिबुध्यते वा श्रनेनास्मात् अस्मिन् वा श्रभिनिबोधः तदावरणकर्मक्षयोपशमः । ( धर्मसं. मलय. वृ. ८१६, पृ. २१) । १६. तत्र चायमाभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्थ:-- अभि इत्याभिमुख्ये, नि इति नैयत्ये, ततश्च अभिमुखः वस्तुयोग्य देशावस्थानापेक्षी, नियत इन्द्रियमनः समाश्रित्य स्व-स्वविषयापेक्षी बोधनं बोधो भिनिबोध: । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. गा. ४, पृ. ६) । १७. लिङ्गाभिमुखस्य नियतस्य लिङ्गिनो बोधनं परिज्ञानमभिनिबोधः स्वार्थानुमानं भण्यते । (त. सुखबो. १ - १३) । १८. धूमादिदर्शनादग्न्यादिप्रतीतिरनुमानमभिनिबोध: । (श्रन. ध. स्वो टी. ३-४; त. वृ. श्रुत. १ - १३) ।
२ अर्थाभिमुख होकर जो नियत विषय का ज्ञान होता है वह श्रभिनिबोध कहलाता है । १६ वस्तु के योग्य देश में श्रवस्थान की अपेक्षा रख कर जो इन्द्रिय और मन के श्राश्रय से अपने नियत विषय का - जैसे चक्षु से रूप का बोध होता है, उसे अभिनिबोध कहते हैं ।
[ प्रभिन्नदशपूर्वी
अभिनिवेश- अभिनिवेशश्च नीतिपथमनागतस्यापि पराभिभवपरिणामेन कार्यस्यारम्भः । स च नीचानां भवति । यदाह-दर्पः श्रमयति नीचान् निष्फल- नयविदुष्करारम्भैः । श्रोतोविलोमत रणव्यसनिभिरायास्यते मत्स्यैः ।। (योगशा. स्व. वि. १ - ५३, पू.
११४, जैन - लक्षणावली
१५६) ।
नीतिमार्ग पर न चलते हुए भी दूसरे के अभिभव ( तिरस्कार ) के विचार से कार्य के प्रारम्भ करने को अभिनिवेश कहते हैं। यह नीच जनों के ही होता है । सो ही कहा है-नीच जन जो अभिमान के वशीभूत होकर निरर्थक व अनैतिक दुष्कर कार्यों को किया करते हैं उनका वह परिश्रम उन मछलियों के समान है जिनकी प्रवाह के विरुद्ध तैरने की आदत है । श्रभिन्नदशपूर्वी - १. रोहिणिपहुदीण महाविज्जाणं देवदाश्रो पंचसया । श्रंगुट्टपसेणाई खुद्दद्यविज्जाण सत्तसया । एत्तूण पेसणाई मग्गंते दसम पुव्वपढणम्मि । ऐच्छंति संजमत्ता ताम्रो जे ते अभिण्णदसपुव्वी ( ति प ४, ६६८-६६ ) २. एत्थ दसपुब्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो XX X रोहिणिप्रदिपंचसय महाविज्जाश्रो सत्तसयदहरविज्जाहि
गया कि भयवं ग्राणवेदित्ति दुक्कंति । एवं ढुक्कमाणाणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुथ्वी, जो पुण ण तासु लोभ करेदि कम्मक्खयत्थी सो अभिण्णदसपुव्वी णाम । ( धव. पु. ६, पू. ६८ ) । ३. दशपूर्वाण्यधीयमानस्य विद्यानुप्रवादस्था क्षुल्लकविद्या महाविद्याश्चाङ्गुष्ठप्रसेनाद्या: प्रज्ञप्यादयश्च तै [ ताभि] रागत्य रूपं प्रदर्श्य, सामर्थ्य स्वकर्माभाष्य पुरः स्थित्वा श्राज्ञाप्यतां किमस्माभिः कर्तव्यमिति तिष्ठन्ति । तद्वचः श्रुत्वा न भवन्तीभिरस्माकं साध्यमस्तीति ये वदन्त्यविचलितचित्तास्ते प्रभिन्नदशपूर्विणः । (भ. श्री. विजयो. टी. ३४ ) । ४. दशपूर्वाण्युत्पादपूर्वादिविद्यानुवादान्तान्येषां सन्तीति दशपूर्विणः । प्रभिन्ना विद्याभिरप्रच्यावितचारित्रास्ते च ते दशपूर्विणश्च विद्यानुवादपाठे स्वयमागतद्वादशशत विद्याभिरचलितचारित्राः । ( भ. प्रा. मूला. टीका ३४ ) |
१. रोहिणी श्रादि महाविद्याओं के पांच सौ तथा अंगुष्ठप्रसेनादि क्षुद्र विद्यानों के सात सौ देवता
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प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व ]
श्राकर विद्यानुवाद नामक दसवें पूर्व के पढ़ते समय प्राज्ञा देने के लिए प्रार्थना करते हैं, फिर भी जो उन्हें स्वीकार नहीं करते ऐसे साधुनों को श्रभिन्नदशपूर्वी कहते हैं ।
प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व - पुलाक-बकुश - प्रतिसेवनाकुशीलेषु उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वाणि श्रुतं भवति । कोऽर्थः ? अभिन्नाक्षराणि एकेनाप्यक्षरेण प्रत्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्तीत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४७)। जो उत्पादपूर्वादि दस पूर्व एक अक्षर से भी कम न हों, ऐसे परिपूर्ण दस पूर्वो को प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व कहा जाता है ।
प्रभिन्नाचार- १. जात्योपजीवनादि परिहरत द्यभिन्नाचारः । ( ब्यव. भा. मलय. वू. ३-१६४, पृ. ३५) । २. न भिन्नो न केनचिदप्यतिचारविशेपेण खण्डित श्राचारों ज्ञान चारित्रादिको यस्यासावभिन्नाचारः । ( अभि. रा १, पृ. ७२५ ) । २ जिसका श्राचार किसी प्रतिचारविशेष के द्वारा खण्डित नहीं होता है उसे प्रभिन्नाचार कहा जाता है । ग्रभिमान १. मानकषायादुत्पन्नोऽहङ्कारोऽभि - मान: । ( स. सि. ४ - २१) । २. मानकषायोदयापादितोऽभिमानः । (त. वा. ४, २१, ४ त. सुखबो. वृ. ४-२१; त. वृत्ति श्रुत. ४ - २१) । १ मान कषाय के उदय से जो ग्रन्तःकरण में ग्रहकारभाव उदित होता है उसका नाम अभिमान है ।
भिखार्थको अभिमुहत्थो ? इंदिय-गोइंदिया गणपायोग्गो । ( धव. पु. १३, पृ. २०६ ) । श्रभिमुख और नियमित अर्थ के ग्राहक ज्ञान का नाम श्राभिनिबोधिक । इस लक्षण में प्रविष्ट 'अभिमुख अर्थ' का स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है जो पदार्थ इन्द्रिय और मन के द्वारा ग्रहण के योग्य होता है उसे प्रकृत में अभिमुखार्थ जानना चाहिए ।
अभिरूढ - १. ग्रभिरूढस्तु पर्याय: X X ×॥ ( लघी. ५-४४ ) । २. × × × ग्रभिरूढोऽस्तु नयोऽभिरूढिबिषयः पर्यायशब्दार्थभित् । ( सिद्धिवि. ११-३१, पृ. ७३६) । जो पर्यायवाची शब्दों की अपेक्षा श्रर्थ में भेद करे उसे अभिष्ट (समभिरूढ ) कहते हैं । जैसे --एक ही इन्द्र व्यक्ति को इन्दन क्रिया की अपेक्षा इन्द्र व
[ अभिवद्धित संवत्सरं
शकन क्रिया से शक भी कहा जाता है । अभिलाप - ग्रभिलप्यते येन यो वा प्रसी अभिलापः शब्दसामान्यम् ग्रर्थसामान्यम् च । (सिद्धिवि. टी. १-८, पृ. ३८, पं. ५-६ ।
जिस (शब्द) के द्वारा कहा जाता है वह शब्द तथा जो कुछ (अर्थ) कहा जाता है वह भी श्रभिलाप कहलाता है ( बौद्धमतानुसार ) । श्रभिवद्धितमास - १. श्रभिवड्ढि इक्कतीसा चउari भागस्यं च तिगहीणं । भावे मूलाहजुप्रो पगयं पुण कम्ममासेणं !! ( बृहत्क. ११३०) । २. अभिवो य मासो एकत्तीस भवे ग्रहोरता । भागसयमेगवीसं चउवीस-सएण छेएणं ॥ ( ज्योतिष्क. २- ३९ ) । ३. एकत्रिंशद् दिनानि एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशत भागानाम् (३११३४) अभिवद्धितमास: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४ - १५ ) । ४. ग्रभिद्वितो नाम मुख्यतः त्रयोदश चन्द्रमासप्रमाणः संव त्सरः परं तद्द्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदयोपचाराद् श्रभिवद्धितः । स चैकत्रिंशदहोरात्राणि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागीकृतस्य चाहोरात्रस्य त्रिकहीन चतुर्विंशं शतं भागानां भवति । ( बृहत्क. बृ. गा. ११३० ) । ५. तथा हि- श्रभिवर्धितमासस्य दिनपरिमाणमेकत्रिंशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं भागानाम् ग्रहोरात्राश्च XX X 1 ( व्यव. भा. मलय. वृ. २- १८, पृ. ७) ।
२ इकतीस दिन-रात और एक दिन के एक सौ चौबीस भागों में से एक सौ इक्कीस भाग प्रमाण ( ३११२४) कालको श्रभिवर्धित मास कहते हैं । अभिवर्द्धत संवत्सर - १. अभिवधितो मुख्यतः त्रयोदश- चन्द्र मासप्रमाणः संवत्सरः । (बृहत्क. वृ. ११३० ) । २. तेरस य चंदमासा एसो अभिवढियो उ नायव्वो । ( ज्योतिष्क २ - ३६) । ३·
नाम
इच्च-तेय तविया खण-लव दिवसा 'उऊ' परिण मंति। पूरेइ णिण्णथलए तमाहु अभिवड्ढियं जाण ( णाम ) | ( सूर्य प्र. ५८ ) । ४. अभिवर्धितसंवत्सरे च एकैकस्मिन् ग्रहोरात्राणां त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा ग्रहोरात्रस्य । (सूर्यप्र. बृ. १०, २०, ५६); तिन्नि ग्रहोरतसया तसीई चेव होइ अभिवड्ढी । चोयालीस भागा बावट्टकरण एण । ( सूर्यप्र. वृ. १०, २०, ५७ उ.); त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि
११५, जैम-लक्षणावलो
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अभिषव]
११६, जैन-लक्षणावली
[अभीक्ष्णज्ञानोपयोग
चतुश्चत्त्वारिंशच्च द्वाषष्ठिभागा अहोरात्रस्य एता- ८-१०)। २. 'पेज्जे' त्ति प्रियस्य भावः कर्म वा वदहोरात्रप्रमाणोऽमिद्धितसंवत्सरः।xxx तथा प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमाया-लोभलक्षणभेदस्वभावयस्मिन संवत्सरेऽधिकमाससम्भवेन त्रयोदश चन्द्रमासा मभिष्वङ्गमात्रमिति । (स्थानांग अभय. व.१-४८, भवन्ति सोऽभिवधितसंवत्सरः । (सूर्यप्र. व. सू. पृ. २४)। ३. भावो नाम जीवस्य परिणामः, ५-७; पृ. १५४); यस्मिन् संवत्सरे क्षण-लव- सोऽभिष्वङ्गोऽमिधीयते ।xxx येन धन-धान्यदिवसा ऋतवः आदित्यतेजसा कृत्वाऽतीव ताता परि- कलत्रादिगार्द्धयपरिणामेनास्य जन्तोरन्ते-आयत्यां णमन्ति, यश्च सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च नारकादिभवदुःखलक्षणं भयमुत्पद्यते स तथाभूतः जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीहि, यथा तं संवत्सर- परिणामोऽभिष्वङ्गः, न सर्वोऽपीति भावार्थः । मभिवधितमाहुः पूर्वर्षयः इति । (सूर्यप्र. व. ५८, (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. १०६-७) । पृ. १७३) । ५. एवंविधेन (अभिवद्धितेन) मासेन १बाह्य और अभ्यन्तर उपकरण युक्त विषय-सुख द्वादशमासप्रमाणोऽभिवधितसंवत्सरः। स चायं त्रीणि में जो राग या आसक्ति होती है उसे अभिष्वंग मतान्यह्रां व्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च कहते हैं। यह लोभ का पर्याय नाम है। द्विषष्टिभागाः (३८३४१)। (त. भा. सिद्ध. वृ. अभिष्वष्करण-२. अभिष्वष्कणं तस्यैव विवक्षित४-१५)।
कालस्य संवर्द्धनम्, परतः करणमित्यर्थः। (बहत्क. २ तेरह चान्द्रमास प्रमाण अभिवधित संवत्सर वृ. १६७५) । २. अभिष्वष्कणं पश्चादपसरणम् । होता है।
(आव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८७)। अभिषव-१. द्रवो वृष्यो वाऽभिषवः । (स. सि. १ वसतिके विवक्षित विध्वंसादि काल को बढ़ाना
-३५)। २ द्रवो वष्यं वाऽभिषवः द्रवः । सौवीरा- -पागे करना, इसका नाम अभिष्वष्कण बादर दिकः वृष्यं वा द्रव्यमभिषवः इत्यभिधीयते । (त. प्राभूतिका है। वा. ७, ३५, ५)। ३. द्रवो वृष्यं चाभिषवः । (त. अभिहत-१. एकदेशात् सर्वस्माद्वाऽऽगतमोदनाश्लो. ७-३५)। ४. अभिषवाहार इति-सुरा-सौवी- दिकं अभिघटम् [अभिहृतम्] । (मूला. व. ६-१९)। रक - मांसप्रकार - पर्णक्याद्यनेकद्रव्यसंघातनिष्पन्नः २. स्यादायातमभिहृतं ग्रामवारगृहान्तरात् । (प्राचा. सुरा-सीधु-मधुवारादिरभिवृष्यवृक्षद्रव्योपयोगो वा । सा. ८-३२)। ३. त्रीन् सप्त वा गृहान् पङ्क्त्या . (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-३०)। ५. सौवीरादिद्रवो स्थितान् मुक्त्वाऽन्यतोऽखिलात् । देशादयोग्यमायातवा वृष्यं वाऽभिषवाहारः। (चा. सा. पु. १३)। मन्नाद्यभिहृतं यतेः। (अन. ध. ५-१६)। ४. ग्रामात् ६. अभिषवोऽनेकद्रव्यसन्धान निष्पन्नः । सुरा-सौ- पाटकात् गृहान्तराद्यदायातं तदभिहृतम् । (भा. प्रा. वीरकादिः मांसप्रकारखण्डादिर्वा सूरामध्वाद्यभिष्य- टी. १९)। न्दिद्रव्योपयोगो वा। (योगशा. स्वो. विव. ३-६८, ३ एक पंक्ति में स्थित तीन या सात घरों को छोड़ प. ५६५) । ७. अभिषवः सुरा-सौवीरकादिर्मास- कर उससे बाहिर के प्रदेश से आये हुए अयोग्य प्रकारखण्डादिर्वा । सूरामध्वाद्यभिष्यन्दिवष्यद्रव्योप- आहारके लेने पर अभिहत (अभिघट) नामका योगो वा । (धर्मसं. मान. स्वो. ब. २-५०, प. उद्गम-दोष होता है। १०६)। ८. द्रवो वृष्यश्चोभयोऽभिषवः । (त. वृत्ति अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-१. जीवादिपदार्थस्वतत्त्व - श्रुत.७-३५)।
विषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तताऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगः । २ द्रव (कांजी) अथवा वृष्य (गरिष्ठ) द्रव्य को (स. सि. ६-२४) । २. ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता अभिषव कहा जाता है । ४ मद्य, सौवीरक (कांजी), ज्ञानोपयोगः । मत्यादिविकल्पं ज्ञानं जीवादिपदार्थविशिष्ट अवस्थागत मांस और पर्णकी प्रादि अनेक स्वतत्त्वविषयं प्रत्यक्ष-परोक्षलक्षणम् अज्ञाननिवृत्त्यद्रव्यों के समुदाय से निर्मित गरिष्ठ खाद्य को अभि- व्यवहितफलं हिताहितानुभयप्राप्तिपरिहारोपेक्षाब्यवषव कहते हैं।
हितफलं यत्तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः । अभिष्वङ्ग--१. अभिष्वङ्गो बाह्याभ्यन्तरोपकरण- (त. वा. ६, २४, ४; चा. सा. प. २५, त. वृत्ति विषयसूखे राग पासक्तिः । (त. भा. सिद्ध. य. श्रुत. ६-२४; त. सुखबो. ६-२४)। ३.अभिवण
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अभेदप्राधान्य ११७, जैन-लक्षणावलो
[अभ्यन्तरा निर्वृत्ति णाणोवजोगजुत्तदाए-- अभिक्खणं णाम बहुवारमिदि तने । प्रवेशो भ्रमतो भिक्षोरभोज्यगृहवेशनम् ।। भणिदं होदि । णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं (अन. ध. ५-५३)। वाऽवेक्खदे। तेसु मुहम्मुह जुत्तदाए तित्थयरणाम- भिक्षार्थ भ्रमण करते हए भिक्षका चाण्डालादि कम्म बज्झइ, दंसणविसुज्झदादीहिं विणा एदिस्से अस्पृश्य शद्र के घर में प्रवेश करने पर अभोज्यअणुववत्तीदो। (धव. पु. ८, पृ. ६१)। ४. संज्ञान- गृहप्रवेशन नामक अन्तराय होता है। भावनायां तु या नित्यमुपयुक्तता । ज्ञानोपयोग अभ्यन्तर अवधि-तत्र योऽवधिः सर्वासू दिक्ष एवासौ तत्राभीक्ष्णं प्रसिद्धितः ।। (त. श्लो. वा. ६, स्वद्योत्यं क्षेत्र प्रकाशयति, अवधिमता च सह सात२४, ६)। ५. अज्ञाननिवृत्ति फले प्रत्यक्ष-परोक्षलक्ष- त्येन तत: स्वद्योत्यं क्षेत्र सम्बद्धं सोऽभ्यन्तरावधिः । णज्ञाने । नित्यमभियूक्ततोक्तस्तज्ज्ञज्ञानोपयोगस्तु ।। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, १५३६) । (ह. पू. ३४-१३५) । ६. अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग जो अवधिज्ञान सर्व दिशाओं में अपने विषयभत इति-अभीक्ष्णं मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणं ज्ञानं द्वादशाङ्गं क्षेत्र को प्रकाशित करे और अपने स्वामी के साथ प्रवचनं प्रदीपाङकुशप्रासादप्लवस्थानीयं, तत्रोपयोगः सदा अपने विषयभूत क्षेत्र में सम्बद्ध रहे उसे प्रणिधानम् । सूत्रार्थोभयविषयं आत्मनो व्यापारः, अभ्यन्तर-अवधि कहते हैं। तत्परिणामितेति यावत् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३)। अभ्यन्त। निर्वृत्ति-देखो प्राभ्यन्तरनिवृत्ति । १ जीवादि पदार्थों के स्वकीय स्वरूप के जानने रूप १. उत्सेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रमितानां विशुद्धानामासम्यग्ज्ञान में नित्य उपयक्त रहने को अभीक्ष्ण- त्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षरादीन्द्रियसंस्थानेनाव - ज्ञानोपयोग कहते हैं।
स्थितानां वृत्तिरभ्यन्तरा निर्वृत्तिः । (स. सि. अभेदप्राधान्य--अभेदप्राधान्यं द्रव्यार्थिकनयगृहीत- २-१७; त. वा. २, १७, ३; मूला. १-१६)। सत्ताधभिन्नानन्तधर्मात्मकबस्तुशक्तिकस्य सदादिप- २. विशुद्धात्मप्रदेशवृत्तिराभ्यन्तरा । (त. श्लो. दस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसन्धानेन पर्यायाथिकनय- २-१७)। ३. नेत्रादीन्द्रियसंस्थानावस्थितानां हि पर्यालोचनप्रादुर्भवच्छक्यार्थबाधप्रतिरोधः। (शास्त्रवा. वर्तनम् । विशद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वतिरान्तरा ॥ यशो. टी. ७-२३, पृ. २५४)।
(त. सा. २-४१)। ४. अभ्यन्तरा चक्षुरादीन्द्रियद्रव्याथिक नयके द्वारा ग्रहण की गई सत्ता आदि से ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशिष्टोत्सेधाङ्गलासंख्येय . अभिन्न अनन्त धर्मस्वरूप वस्तु के ग्रहण करने की भागप्रमितात्मप्रदेशसंश्लिष्टसूक्ष्मपुदगलसंस्थानरूपा । शक्तिवाले सत्-असत् प्रादि पदों की, काल आदि (त. सुखबो. वृ. २-१७)। ५. तत्रोत्सेधासंख्येयके अभेद को लक्ष्य करके पर्यायाथिक नयसे उत्पन्न भागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतहोनेवाली शक्ति से अनन्तधर्मात्मक वस्तु के ग्रहण- चक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिता या वृत्तिरभ्यन्तरा रूप अर्थ में, बाधाको दूर करना; इसका नाम अभेद- निर्वृत्तिः । (प्राचारा. वृत्ति २, १, ६४ पृ. ६४)। प्राधान्य है।
६. बाह्यनिवृत्तीन्द्रियस्य खड्गेनोपमितस्य या । अभेदोपचार—अभेदोपचारश्च पर्यायाथिकनयगृही- धारोपमान्तनिवृत्तिरत्यच्छपुद्गलात्मिका । (लोकप्र. तान्यापोहपर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानु - ३-७५, पृ. ३६)। ७. XXX खड्गस्थानीया पपत्त्या सदादिपदस्योक्तार्थे लक्षणा । (शास्त्रवा. या बाह्यनिर्वृ त्तेः खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गयशो. टी. ७-२३, पृ. २५४)।
लसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निवृत्तिः xxx । पर्यायाथिक नयसे ग्रहण किये गये तथा अन्यापोह में (नन्दी. मलय. व. सू. ३, पृ. ७५)। ८. उत्सेधाजिनका पर्यवसान है ऐसे, केवल सत्-असत् प्रादि गुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धात्मप्रदेशानां प्रतिधर्मों के ग्रहण करने की शक्तिवाले 'सत्' आदि नियतचक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनेन्द्रियसंस्थानेनाव .
स्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः । (मूला. व. धर्मात्मक वस्तु के ग्रहण में जो लक्षणा की जाती है, १-१६) । ६. मसूरिकादिसंस्थानात्परत: उत्सेधाइसका नाम अभेदोपचार है।
गुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामावरणक्षयोपशमअभोज्यगृहप्रवेशन-xxx चाण्डालादिनिके- विशिष्टानां सूक्ष्मपुद्गलप्रदेशसश्लिष्टानां प्रतिनियत
इराला
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अभ्यन्तरोपधिव्युत्सग]
११८, जैन-लक्षणावली
[अभ्याहृत
चक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनाऽवस्थितानामात्मप्रदेशानां (प्रज्ञापना मलय. वृ. २२-२८०, पृ. ४३८) । वृत्तिरभ्यन्तरनिवृत्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. २-१७)। ८. इणमणेण कियमिदि अणटकहणमब्भक्खाणं णाम। १ उत्सेधागल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शद्ध (अङ्गपण्णत्ती प. २६२) । ६. अभ्याख्यानं मिथ्याप्रात्मप्रदेशों को प्रतिनियत चक्षु प्रादि इन्द्रियों के कलङ्घदानम् । (कल्पसू. वृ. ११८)। प्राकाररूप से रचना होने को अभ्यन्तर निर्वृत्ति १ हिंसादि कार्य का करने वाला, चाहे वह कहते हैं।
विरत हो चाहे विरताविरत हो, 'यह उसका कर्ता अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग-१.xxxअभ्यन्तरो- है' इस प्रकार उसके सम्बन्ध में कहना; इसे अभ्यापधित्यागश्चेति । xxxक्रोधादिरात्मभावोऽभ्य- ख्यान कहते हैं। २ अथवा जिसमें जो गुण नहीं है, न्तरोपधिः, कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वा उसमें उस गुणका सद्भाव बतलाने को अभ्याख्यान ऽभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते । (स. सि. ९-२६)। कहते हैं । २. अभ्यन्तरः शरीरस्य कषायाणां चेति । (त. भा. अभ्यास-यावत्प्रमाणो यो राशिभवेत् स्वरूप६-२६)। ३. क्रोधादिभावनिवृत्तिरभ्यन्तरोपधिव्यु- संख्यया । स न्यस्य तावतो वारान् गुणितोऽभ्यास त्सर्गः । क्रोध-मान-माया-लोभ-मिथ्यात्व-हास्य-रत्य- उच्यते ।। (लोकप्र. १-१६५)। रति-शोक - भयादिदोषनिवृत्तिरभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग विवक्षित राशि स्वरूप व संख्या से जितनी हो, उस इति निश्चीयते । कायत्यागश्च नियतकालो याव- स्थापित कर उतने बार गुणा करने को अभ्यास ज्जीवं वा। कायत्यागश्चाभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग इत्यु- कहते हैं। जैसे-५४५४५४५४५३१२५ । च्यते । स पुद्विविधः-नियतकालो यावज्जीवं अभ्यासवर्ती---१. गुरुणो य लाभकंखी अब्भासे चेति । (त. वा. ६, २६, ४-५)। ४. अभ्यन्तरः वट्टते सया। साहू आगार-इंगिएहिं संदिट्टो वत्ति शरीरस्य कषायाणां चेति शरीरस्य पर्यन्तकाले काऊणं ।। (व्यव. भा. १-७६, पृ. ३१)। २. गुरोविज्ञायाकिचित्करत्वं शरीरक परित्यजति-उज्झ- रभ्यासे समीपे वर्तते इति शीलोऽभ्यासवर्ती गुरुपादति । यथोक्तम्-'जं पि य इम सरीरं इटू कत' पीठिकाप्रत्यासन्नवर्तीति भावः । (व्यव. भा. मलय. इत्यादि । क्रोधादयः कषाया: संसारपरिभ्रमणहेतवः, वृ.१-७८, पृ. ३१) । तेषां व्युत्सर्गः परित्यागो मनोवाक्कायः कृत-कारिता- जो साधु ज्ञान, दर्शन और संयम के लाभ की नुमतिभिश्चेति । (त. भा. लिद्ध. व. ६-२६)। इच्छा से सदा गुरु के समीप रहता है तथा नेत्र व ३ क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, मुखादि के आकार और शरीर की चेष्टा से यदि अरति, शोक व भय आदि दोषों के त्याग को तथा कुछ संदेश दिया जाता है तो उसके करने में उद्यत नियत काल तक या यावज्जीवन शरीर के त्याग को रहता है, ऐसे साधु को अभ्यासव” कहा जाता है । भी अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग कहते हैं।
यह प्रौपचारिक विनय के ७ भेदों में प्रथम है। अभ्याख्यान-१. हिंसादेः कर्मणः कर्तुविरतस्य अभ्यासासन-देखो अभ्यासवर्ती। अभ्यासासनम् विरताविरतस्य वा ऽयमस्य कर्तेत्यभिधानमभ्याख्या- उपचरणीयस्यान्तिकेऽवस्थानम् । (समवा. अभय. वृ. नम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७५)। २. अभ्या- ६१, पृ. ८६)। ख्यानं तद्गुणशन्यत्वे ऽपि तद्गुणाभ्युपगमलक्षणम् । उपचरणीय-आदर-सत्कार करने के योग्य गुरु (श्रा. प्र. टी. १२३)। ३. अयमस्य कति अनिष्ट- आदि के समीप में स्थित रहने को अभ्यासासन कथनमभ्याख्यानम् । (धव. पु. ५, पृ. ११६)। कहते हैं। ४. क्रोधमानमायालोभादिभिः परेष्वविद्यमानदोषोद्- अभ्याहृत (पाहारदोपभेद)- १. स्वग्रामादेः साधु
-याख्यानम्। (धव. पु. १२, पृ. २८५)। निमित्तमभिमखमानीतमभ्याहृतम् । (दशव. हरि. ५. हिंसाद्यकर्तुः कर्तुर्वा कर्तव्यमिति भाषणम् । अभ्या- वृ. ३-२, पृ. ११६; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-२२, ख्यानम् XXX॥ (ह. पु. १०-६२)। ६. अभ्या- प. ४०)। २. गृह-ग्रामादेः साध्वर्थ यदानीतं तदभ्याख्यान प्रकटमसद्दोषारोपणम् । (स्थानांग अभय. व. हृतम् । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३४) । १-४६, पृ. २४)। ७. अभ्याख्यानमसदोषारोपणम् । ३. स्व-परमामात् भावुनिमित्त य ानीयत सोऽभ्या
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अभ्याहृत ]
११६,
हृतपिण्ड: । ( श्राब. ह. वृ. मल. हेम. टि. पू. ८१) । १ स्वकीय ग्राम आदि से साधु के निमित्त लाये हुये श्राहार को श्रभ्याहृत कहते हैं ।
जैन - लक्षणावली
अभ्याहृत ( वसतिका दोषभेद ) – कुडचाद्यर्थं कुटीरक - कटादिकं स्वार्थं निष्पन्नमेव यत्संयतार्थमानीतं तदब्भाहिडम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. २३०; कार्तिके. टी. ४४६, पृ. ३३७-३८ ) । अपनी कुटी (झोंपड़ी) के बनाने के लिए लाए गये कुटीरक और चटाई आदि यदि साधु के लिये दी जाती है तो यह उसके लिये अभ्याहत नामका वसतिकादोष होता है ।
अभ्युत्थान- १. अभ्युत्थानं गुर्वादीनां प्रवेश- निष्क्रमणयोः । (भ. ना. विजयो. टी. ११६) । २. गुर्वादीनां प्रवेश - निष्क्रमणयोः सम्मुखमुत्थानं प्रभ्युत्थानम् । (भ. प्रा. मूला. टी. ११६) । ३. अभ्युत्थानमासनत्याग: । (समवा. अभय वृ. ६१, पृ. ६५) । १ गुरु श्रादि के श्राने-जाने पर उनके सम्मान प्रदर्शनार्थ अपना श्रासन छोड़कर खड़े हो जाने को प्रभ्युस्थान कहते हैं ।
अभ्युदय - १. पूजार्थाज्ञैश्वर्यैर्बल परिजन कामभोगभूयिष्ठैः । प्रतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥ ( रत्नक. श्रा. १३५) । २. इन्द्रपदं तीर्थंकर गर्भावतार जन्माभिषेक साम्राज्य - चक्रवर्तिपद - निःक्रमणकल्याण महामण्डलेश्वरादिराज्यादिकं सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तमहमिन्द्रपदं सर्वं सांसारिकं विशि
विशिष्टं सुखमभ्युदयमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२६)।
१ पूजा-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति, श्राज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिजन और कामभोग; इत्यादि की प्रचुरता से प्राप्ति होना, इसका नाम श्रभ्युदय है ।
- एवं बंधं पाविण से अब्भाणं वा वारिसु वा हा प्रभा णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३५) । वर्षा-विहीन मेघ न कहलाते हैं । प्रभावकाशशयन - ग्रब्भावगासरायणं बहिर्निरावरणदेशे शयनम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. २२५)।
गृह श्रादि के बाहर निरावरण स्थान में सोने को श्रावकाशशयन कहते हैं । श्रावकाशाऽतिचार -- १. सचित्तायां भूमौ त्रस
अमनस्क
सहितहरितसमुत्थितायां विवरवत्यां शयनम्, प्रकृतभूमि- शरीरप्रमार्जनस्य हस्त पादसंकोच - प्रसारणम्, पारवन्तिरसंचरणम्, कण्डूयनं वा, हिम-समीरणाभ्यां हृतस्य कदैतदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरि निपतितहिमापकर्षणम् अवश्यायघट्टना वा प्रचुरवातातपदेशो ऽयमिति संक्लेशः अग्नि- प्रावरणादीनां स्मरणम् अभ्रावकाशातिचार: । (भ. श्री. विजय. टी. ४८७) । २. अभ्रावकाशस्य हिमवाताभ्यामुपहतस्य कदैतदुपशमः स्यादिति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरि निपतित हिमस्यापकर्षणमवश्यायघट्टना वा, प्रभूतवातातपदेशोऽयमिति संक्लेशोऽग्नि- प्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकोऽभ्रावकाशातिचारः । (भ. प्रा. मूला. टी. ४८७) ।
१ संचित्त, त्रसजीव - बहुल एवं सछिद्र भूमिपर सोना; भूमि व शरीर के प्रमार्जन के बिना ही हाथ-पैर श्रादि को सकोड़ना व फैलाना, करवट बदलना, शरीर को खुजलाना तथा बर्फ व वायु से पीड़ित होने पर 'कब यह शान्त होता है' ऐसा चिन्तन करना, बांस के पत्तों आदि से ऊपर पड़ी प्रोसबिन्दुओं को हटाना; इत्यादि श्रावकाशशयन के श्रतिचार हैं । अभ्रावकाशी-श्रेऽवकाशोऽस्ति येषां तेऽभ्रावकाशिनः शीतकाले बहिः शायिनः । ( योगिभ.टी. १२) | शीतकाल में निरावरण प्रदेश में सोनेवाले साधु को श्रावकाशी कहते हैं ।
मध्यस्थ (मज्झत्थ) - जे गवि वट्टइ रागे णवि दोसे दोपह मज्झयारम्मि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सव्त्रे अमज्भत्था ।। ( श्राव. नि. गा. ८०३) । जो न तो राग में वर्तमान रहता है और न द्वेष में भी, किन्तु उनके मध्य में अवस्थित रहता है; वह मध्यस्थ होता है । शेष सबको प्रमध्यस्थ जानना चाहिये ।
अमनस्क - १. न विद्यते मनो येषां तेऽमनस्काः । ( स. सि. २ - ११ ; त. वा. २, ११, १; त. सुखबो. २ - ११ ) । २. मनसो द्रव्य भावभेदस्य सन्निधानात् समनस्का:, तदसन्निधानादमनस्काः । XX X केचित् पुनरमनस्काः, शिक्षाद्यग्राहिवेदन कार्यस्य सिद्धे
यथानुपपत्तेः । ( त श्लो. २- ११) । ३. ये पुनभवमनसैवोपयोगमात्रेण मनःपर्याप्तिकरण विशेषनिरपेक्षेण युक्तास्तेऽमनस्का: । ( त. भा. सि. बृ. २ - ११) । ४. न विद्यते पूर्वोक्तं ( द्रव्य भावभेदं )
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अमनोज्ञ] १२०, जैन-लक्षणावली
[अमूढदृष्टि द्विप्रकारं मनो येषां तेऽमनस्काः । (त. वृत्ति श्रुत. राग-द्वेष के वशीभूत होता हुआ पाप कर्म का संचय २-११)।
करता है। २ द्रव्य-भाव स्वरूप मनसे रहित जीवों को प्रम- अमात्य (अमच्च)-१. सजणवयं पुरवरं चितंतो नस्क कहते हैं।
अत्थ (च्छ) इ नरवति च । वबहार-नीतिकुसलो अमनोज्ञ--१. अमनोज्ञं अप्रिय विष-कण्टक-शत्रु- अमच्च एयारिसो xxx ॥ (व्यव. भा. ३, शस्त्रादि, तद् बाधाकारणत्वादमनोज्ञम् इत्युच्यते । पृ. १२६) । २. अमात्यः देशाधिकारीत्यर्थः । (स. सि. ९-३०) । २. अप्रियममनोज्ञं वाधाकारण- (त्रि. सा. टी. ६८३)। ३. यो व्यवहारकुशलो त्वात् । यदप्रियं वस्तु विष कण्टक-शत्रु-शस्त्रादि नीतिकुशलश्च सन् सजनपदं पुरवरं नरपति च तद् बाधाकारणत्वादमनोज्ञमित्युच्यते । (त. वा. ६, चिन्तयन्नवतिष्ठते स एतादशो भवति अमात्यः । ३०, १)। ३. अप्रियममनोज्ञम्, बाधाकारणत्वात् । अथवा यो राज्ञोऽपि शिक्षा प्रयच्छति। (व्यव. भा. (त. श्लो . ९-३०)।
मलय. व. ३, पृ. १२६); अमात्यो राजकार्य१ विष, कण्टक और शत्र प्रादि जो बाधा के कारण चिन्ताकृत् । (व्यव. भा. मलय. व. २-३३) । ४. हैं, उन अप्रिय पदार्थों को अमनोज्ञ कहते हैं। अमात्याः सहजन्मानो मंत्रिणः । (कल्पसूत्र वृ. अमनोज्ञ-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्त प्रार्तध्यान (अम- ३-६२)। गुण्ण-संपयोग-संपउत्त अट्टज्झारण)-१. अमणुण्णं १ जो व्यवहारचतुर व नीतिकुशल होता हुआ णाम अप्पियं, समंतयो जोगो संपयोगो तेण अप्पि- जनपदों सहित श्रेष्ठ नगर और राजा को भी चिन्ता एण समततो संप उत्तो तस्स विप्पयोगाभिकंखी सति- करता है वह अमात्य कहलाता है। २ देश का समण्णागते यावि भवइ, सतिसमण्णागते णाम जो अधिकारी होता है उसे अमात्य कहा जाता है। चित्तणिरोहो काउं झायइ जहा कहं णाम मम एतेसु अमार्गदर्शन-चौरमार्गप्रयच्छकानां मार्गान्तरकथ. अणिठेसु विसएसु सह संजोगो न होज्जत्ति, तेसु नेन तदज्ञापनम् । (था. गु. वि. पृ. १०; प्रश्नव्या. अणिठेसु विसयादिसु परोस समावण्णो अप्पत्तेसु वृ. पृ. १६३)। इठेसु परमगिद्विमावण्णो रागद्दोसवसगयो नियमा चोरों का मार्ग पूछने वालों को दूसरा मार्ग बताकर उदयकिलिन्न व्व पावकम्मरयं उवचिणाइ त्ति अस्स उससे अनभिज्ञ रखना, इसे प्रमार्गदर्शन कहते हैं। पढमो भेदो मतो। (दशवै. च.प २६.३०)। २. कदा अमित्रक्रिया-१. अमित्रक्रिया द्वेषलक्षणा। (गु. ममाऽनेन ज्वर-शूल-शत्रु-रोगादिना वियोगो भविष्य- गु. ष. वृ. १५, पृ. ४१)। २. अमित्रक्रिया पित्रादिषु तीत्येवं चिन्तनम् आर्तध्यानं प्रथमम् । (मला. ३. स्वल्पेऽप्यपराधे तीव्रतरदण्डकरणम् । (धर्मसं. मान. ५-१९८) । ३. अमनोज्ञानां शब्दादिविषयाणां स्वो. व. ३, २७, पृ. ८२)। तदाधारवस्तूनां च रासभादीनां संप्रयोगे तद्विप्रयोग- २ पिता आदि के द्वारा अल्प भी अपराध के हो चिन्तनमसंप्रयोगे प्रार्थना च प्रथमम् । (धर्मसं. मान. जाने पर तीव्र दण्ड देने को अमित्रक्रिया कहते हैं। स्वो. वृ. ३, २७, पृ. ८०)। ४. अमणुन्नाणं सद्दाइ- अमढहक-अतत्त्वे तत्त्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः स्वलक्षविसयवत्थूण दोसमइलेस्सं । धणियं वियोगचितण- णात् । नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्य मसंपयोगाणुसरणं च ।।६।। (प्राव. ४ अ.-अभि. मूढदक ।। (लाटीसं. ४-१११, पंचाध्या. २-५८९) रा. १. पृ. २३५)।
जिस जीव की अतत्त्व में तत्त्वश्रद्धारूप मूढ दृष्टि १ अमनोज्ञ (अनिष्ट) वस्तुओं का संयोग होने पर नहीं रहती है वह अमूढदृक् कहलाता है ।
के वियोग का अभिलाषी होकर जो यह विचार अमढदृष्टि-१. जो हवदि असंमूढो चेदा सम्वेसू किया जाता है कि इन अनिष्ट विषयों के साथ मेरा कम्मभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेसंयोग कैसे नष्ट होगा, यह अमनोजसम्प्रयोग नाम- दम्वो ॥ (समयप्रा. २५०) । २. कापथे पथि का प्रथम प्रार्तध्यान है। इसके प्राश्रय से अनिष्ट दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिविषयों में द्वेषभाव को प्राप्त होकर और अप्राप्त रमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ (रत्नक. १४) । ३. बहुविधेषु इष्ट पदार्थों में लोलुपता को प्राप्त होकर जीव दुयदर्शनवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेषु युक्त्यभावं
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अमूढदृष्टि] १२१, जैन-लक्षणावली
[अमूर्तद्रव्यभाव परीक्षा-चक्षुषा व्यवसाय्य अध्यवस्य विरहितमोहता सावमूढदृष्टिः । (अन. ध. स्वो. टी. २-१०३) । अमूढदृष्टिता । (त. वा. ६, २४, १; चा. सा. पृ. १५. अमूढा ऋद्धिमत्कुतीर्थिकदर्शने ऽप्यविगीतमस्मद्३; त. सुखबो. ६-२४; कातिके. टी. ३२६)। दर्शनम् इति मोहरहितता, सा चाऽसौ दृष्टिश्च बुद्धि४. अमूढदष्टिश्च बालतपस्वितपोविद्यातिशयदर्शनैर्न रूपा अमूढदृष्टि: । (उत्तरा. ने. वृ. २८-३१) । १६. मूढा स्वरूपान्न चलिता दृष्टि: सम्यग्दर्शनादिरूपा परवाइडंबरेहिं अमूढदिट्ठी उ सुलसाई । (गु. गु. प. स्वो. यस्याऽसावमूढदृष्टिः । (दशवं. हरि. वृ. पृ. १०२; वृ.७, पृ. २७)। १७. दोषदृष्टेषु शास्त्रेषु तपस्विव्यव. भा. मलय. वृ. १-६४, पृ. २७; धर्मबि. मु. देवतादिषु । चित्तं न मुह्यते क्वापि तदमूढं निगद्यते । वृ. २-११; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. पृ. १६)। ५. भय- (भावसं. वाम. ४१३)। १८. परतत्त्वेषु मोहोज्झलज्जा-लाहादो हिंसाऽऽरंभो ण मण्णदे धम्मो । जो कत्वं अमूढदृष्टित्वम् । (भा. प्रा. टी. ७७)। १६. जिणवयणे लीणो अमढदिदी हवे सो दु । (कोतिके. अनाहतदष्टतत्त्वेष मोहरहितत्वममढदष्टिता। (त. व. ४१८)। ६. यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्ण- वृत्ति श्रुत. ६-२४) । २०. देवे गुरौ तथा धर्म दृष्टिज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढ- स्तत्त्वार्थदर्शिनी। ख्याता ऽप्यमूढदृष्टि: स्यादन्यथा दृष्टिः । (समयप्रा. अमृत.व.२५०)। ७. लोके शास्त्रा- मूढदृटिता ॥ (लाटीसं. ४-२७७; पंचाध्यायी भासे समयाभासे च देवताऽऽभासे । नित्यमपि तत्त्व- २-७७३)। रुचिना कर्तव्यमममूढदृष्टित्वम् ॥ (पु. सि. २६)। १ दुःखोंके कारणभूत कुमार्ग-मिथ्यादर्शनादि-और ८. देव-धर्म-समयेषु मूढता यस्य नास्ति हृदये कदा- उसमें स्थित मिथ्यादृष्टि जीवों की भी मन-वचनचन । चित्तदोषकलितेषु सन्मतेः सोऽय॑ते स्फुटम- कायसे प्रशंसा न करना, इस का नाम अमढदृष्टि है। मढदष्टिकः ।। (अमित. श्रा. ३-७६)। ६. वीत- ३ जो सन्मार्ग के समान प्रतीत होने वाले मिथ्यारागसर्वज्ञप्रणीतागमार्थाद् बहिर्भूतैः कुदृष्टिभिर्यत् मार्गों में परीक्षारूप नेत्र के द्वारा युक्ति के प्रभाव प्रणीतं धातुवाद-खन्यवाद-हरमेखल-क्षुद्रविद्या-व्यन्तर- को देखकर उन्हें युक्तिहीन जानकर-उनमें विकुर्वणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा मुग्ध नहीं होता है उसे अमूढदृष्टि जानना चाहिए। श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचिं अमूर्त-१. जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहि भक्ति न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । हुंति ते मुत्ता। सेसं हवदि अमुत्तंxxx॥ (पंचा. (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१)। १०. मनो-वाक्-कार्यमिथ्या- का. ६६)। २. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णाभावस्वभावमदर्शनादीनां तद्वतां चाप्रशंसाकरणम् अमूढं सम्यग्- मूर्तम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ६६) । ३. अमृर्ताः दर्शनम् । (रत्नक. टी. १-१४) । ११. तदन्यज्ञान- नाम-गोत्रकर्मक्षयाद् रूपादिसंनिवेशमयमूर्ति रहिताः । विज्ञानप्रशंसाविस्मयोज्झिता। युक्तियुक्तजिनोक्तेर्या (शास्त्रवा.टी. ११-५४) । रुचिः सा ऽमूढदृष्टिता। (प्राचा. सा. ३-६०)। १ जीव जिन विषयों को इन्द्रियों से ग्रहण कर सकते १२. न मूढा अमूढा, अमूढा दृष्टिः रुचिर्यस्यासाव- हैं वे मूर्त होते हैं। उनसे भिन्न शेष सबको अमूर्त मूढदृष्टिस्तस्य भावो ऽमूढदृष्टिता, लौकिक-साम- जानना चाहिए । ३ नाम व गोत्र कर्मों का क्षय हो यिक-वैदिकमिथ्याव्यवहाराऽपरिणामो ऽमूढदृष्टिता। जाने पर रूपादिमय मूर्ति-शरीर-से रहित मुक्त (मूला. वृ. ५-४)। १३. णेगविहा इड्ढीग्रो जीवों को भी अमूर्त जानना चाहिए। पूयं परवादिणं च दठूण । जस्स ण मुज्झइ दिट्ठी प्रमूर्तत्व-१.XXX अमूर्तत्वं विपर्ययात् । अमूढदिट्टि तयं बिंति ॥ (व्यव. भा. मलय. वृ. (द्रव्यानु. ११-५)। २.XXX अमूर्तत्वं गुणो १-६४, पृ. २७ उद्धृत)। १४. यो देव-लिङ्गि-समयेषु मूर्तत्वाभावसमनि (न्वि) तत्वमिति । (द्रव्यानु. टी. तमोमयेषु लोके गतानुगतिके ऽप्यपथैकपान्थे । न ११-५) । ३. अमूर्तत्वं रूपादिरहित्वम् । (ललिद्वेष्टि रज्यति न च प्रचरद्विचारः सोऽमूढदृष्टिरिह तवि. पं. पृ. २५) । राजति रेवतीवत् ॥ (अन. प. २-१०३); अमूढा २ मूर्तता के प्रभावरूप गुण का नाम अमूर्तत्व है। षडनायतनत्यागादनभिभूता, दृष्टिः सम्यक्त्वं यस्या- अमूर्तद्रव्यभाव-अवगाहणादियो अमुत्तदव्वभावो।
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अमृतस्रावी] १२२, जैन-लक्षणावली
[अयन (धव. पु. १२, पृ. २)।
गच्छतः स्थितस्य वा । केन ? अमेध्येनाशभेन पूरीषाअवगाहन प्रादि को अमूर्त अचित्त द्रव्यभाव कहा दिद्रव्येण । (अन. ध. स्वो. टी. ५-४४)। जाता है।
अपवित्र मल-मूत्रादि से साधु के पैर आदि के लिप्त अमृतस्रावी (अमडसवी)-१. येषां पाणिपुट- हो जाने पर अमेध्य नामका भोजन-अन्तराय प्राप्त भोजनं यत् किंचिदमृततामास्कन्दति, येषां वा होता है। व्याहृतानि प्राणिनाममृतवदनुग्राहकाणि भवन्ति ते अम्बधात्री दोष--स्वयं स्वापयति स्वापननिमित्तं ऽमृतस्राविणः । (त. वा. ३-३६, पृ. २०४)। विधानं चोपदिशति यस्मै दात्रे स दाता दानाय २. जेसि हत्थपत्ताहारो अमडसादसरूवेण परिणमइ प्रवर्तते, तद्दानं यदि गृह्णाति तदा तस्याम्बधात्री ते अमडसविणो जिणा । (धव. पु. ६, पृ. १०१)। नामोत्पादनदोषः । (मूला. वृ. ६-२८) । ३. अमृतस्राविणो येषां पात्रपतितं कदन्नमप्यमृतरस- यदि साधु दाता के बच्चों को स्वयं सुलाता है और बीर्यविपाकं जायते, वचनं वा शारीर-मानसःख- उनके सुलाने का उपदेश भी देता है तो चंकि इससे प्राप्तानां देहिनां अमृतवत्सन्तर्पकं भवति ते ऽमृत- दाता दान में प्रवृत्त होता है। अतएव उस दाता के स्राविणः । (योगशा. स्वो. विव. १-८) । ४. येषां द्वारा दिये जाने वाले दान को यदि साधु ग्रहण करता पाणिपात्रगतमन्नं वचनं चामृतवद् भवति ते ऽमृता- है तो वह अम्बधात्री नामक उत्पादनदोष का भागी स्राविणः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
होता है। १ जिनके हाथ में रखा हुआ नीरस भी आहार अम्ल-१. पाश्रवणक्लेदनकृदम्लः । (अनुयो.
समान सरस बन जाय, तथा जिनके वचन हरि. वृ. पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३)। अमृत के समान प्राणियों का अनग्रह करने वाले हों, २. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गला अंबिलरउन्हें अमृतस्रावी कहते हैं।
सेण परिणमंति तं अंबिलं णामकम्म । (धव. पु. ६, अमृतास्रवी ऋद्धि (अमियासवी रिद्धी)-मुणि- पृ. ७५) । ३. अग्निदीपनादिकृद् अम्लीकाद्याश्रितो पाणि-संठियाणि रुक्खाहाराऽऽदियाणि जीय खणे। अम्ल: । यदभ्यदायि-अम्लोऽग्निदीप्तिकृतस्निग्धः पावंति अमियभावं एसा अमियासवी रिद्धी । अहवा शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो मूढवादु:खादीणं महेसिवयणस्स सवणकालम्मि । णासंति तानुलोमकः ॥ यदुदयाज्जीवशरीरमम्लीकादिवद् जीए सिग्घं सा रिद्धी अमियपासवी णाम ॥ (ति.प. अम्लं भवति तदम्लनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. व. ४, १०८४-८५)।
४०, पृ.५१)। जिसके प्रभाव से साधु के हाथ में दिया गया रूक्ष १ पाश्रवण और क्लेदन को करने वाला रस अम्ल भी पाहार अमृत के समान स्वादिष्ट हो जाय; कहलाता है। २ जिस कर्म के उदय से शरीर के अथवा जिसके प्रभाव से मुख से निकले हुए वचन पुद्गल अम्ल रस से परिणत होते हैं, उसे अम्ल प्राणियों को अमृत के समान हितकारी होते हैं, वह नामकर्म कहते है। अमृतानवी ऋद्धि कही जाती है।
अयन-१.xxx उडुत्तिदयं । अयणंxxx॥ प्रमेचक-परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः। (ति. प. ४-२८६)। २. तिण्णि उऊ अयणं । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥ (नाटक (अनुयो. १३७; जम्बूद्वी. सू. १८) । ३. तिन्नि य स. क. १-१८)।
रियवो अयणमेगं ।। (जीवस. ११०) । ४. ते प्रात्मा चूंकि ज्ञातृत्वरूप ज्योति से एक होता हुआ (ऋतवः) त्रयोऽयनम् । (त. भा. ४-१५)। अन्य सब भावों से रहित स्वभाव वाला है, प्रतएव उसे अमेचक-एक ज्ञायकस्वभाव-कहा जाता है। ६.xxx येषां त्रयं स्यादयनं तथैकम् । (वरांग. अमेव्य--लेपोऽमेध्येन पादादेरमेध्यंxxx(अन. २७-६) । ७. ती उडहिं अयणं । (धव. पु. १३, ध. ५-४४); अमेध्यं नामान्तरायो भोजनत्यागकरणं पृ. ३००); दिणयरस्स दक्खिणुत्तरगमणमयणं । स्यात । यः किम ? यो लेपः उपदेहः । कस्य ? पादा- (धव. पु. १४, पृ. ३६)। ८. ऋतुत्रयमयनम् । देश्चरण-जना-जान्वादेः । कस्य ? साधोः स्थानान्तरं (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५;पंचा. का. जय. व. २५)।
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अयशः कीर्ति ]
६. ऋतूनां त्रितयं अयनम् । (ह. पु. ७-२२; त. सुखबो. ३-३८; नि. सा. टी. ३१; म. पु. २ - २५) । १०. तिणि उडू श्रयणमेक्को दु । (जं. दी. प. १३-७ ) । ११. रिउतियभूयं श्रयणं । ( भावसं. दे. ३१५) ।
१ तीन ऋतु ( २३ = ६ मास) को प्रयन कहते हैं । ७ सूर्य के दक्षिण गमन और उत्तर गमन का नाम अयन है, जिसे क्रम से दक्षिणायन और उत्तरायण कहा जाता है ।
यशः कीर्ति - १. तत् ( पुण्यगुणख्यापनकारणं यशस्कीर्तिनाम ) प्रत्यनीकफलमयशः कीर्तिनाम | ( स. सि. ८ - ११ ; त. इलो. ८-११) । २. तद्( यशोनिवर्तकयशोनाम - ) विपरीतमयशोनाम | ( त. भा. ८ - १२ ) । ३. तत्प्रत्यनीकफलमयशस्कीर्तिनाम | पापगुणख्यापनकारणम् अयशः कीर्तिनाम वेदितव्यम् । (त. वा. ८, ११, ३६; भ. प्रा. मूला. टी. २१२४) । ४. अयशःकीर्तिनामोदयादुदास्यजनैर्निन्दितस्वभावो भवति । (पंचसं स्वो वृ. ३ - १२७) । ५. जस्स कम्मस्सुदएण संताणमसंताणं वा अवगुणाणमुब्भावणं जणेण कीरदि तस्स कम्मस्स
सकित्तिणा । ( धव. पु. ६, पृ. ६६ ); जस्स कम्मस्सुदएण जसो कित्तिज्जइ लोएण तं श्रजसकित्तिणाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६६ ) । ६. तद्विपरीतमयशोनाम दोषविषया प्रख्यातिरयशोनामेति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८- १३, पृ. १६३) । ७. तत्प्रत्यनीकमपरमयशस्कीर्तिनाम, यदुदयात् सद्भूतानामसद्भूतानां चाप्यगुणानां स्थापनं तदयशस्कीतिनाम (मूला. वृ. १२ - १६६ ) । ८. पापगुणख्यापनकारणमयशस्कीर्तिनाम । ( त सुखबो. ८, ११) । ६. यदुदयवशान्मध्यस्थस्यापि जनस्य प्रप्रशस्यो भवति, तदयशःकीर्तिनाम । (षष्ठ कर्म. मलय वृ. ५; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७५; पंचसं. वृ. ३ - ६; कर्मप्र. वृ. १ - ६) | १०. अयशः प्रधाना कीर्तिरयशः कीर्तिः यदुदयाज्जीवस्य लोका प्रवर्णवा दादीन् गृह्णन्ति तदयश: कीर्तिनाम । ( कर्मवि. परमा. ७५, पू. ३३) । ११ यदुदयात् पूर्वप्रदर्शिते यशः कीर्तिः न भवति तदयश कीर्तिनाम । ( कर्मवि. दे. स्व. वृ. ५० ) । १२. पुण्ययशसः प्रत्यनीकफलमयशस्कीर्तिनाम । (गो. क. जी. प्र. टी. ३३) । १३. पापदोषप्रकटनकारणम् अयशः कीर्तिनाम । (त.
[योगिकेवली
वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
५ जिस कर्म के उदय से जनों के द्वारा सत् और असत् अवगुणों का उद्भावन किया जाता है उसे प्रयशस्कीति नामकर्म कहते हैं ।
१२३, जैन- लक्षणावली
श्रयुत -- XXX दशाहतं तद्धययुतं वदन्ति ॥ ( वरांग २७ - ७) ।
दश से गुणित हजार (१०००X१०-१००००) को त कहा जाता है । प्रयोग - १. प्रदह्याधातिकर्माणि शुक्लध्यान- कृशानुना । प्रयोगो याति शीलेशो मोक्ष-लक्ष्मीं निरास्रवः ॥ ( पंचसं श्रमित. १ - ५० ) । २. प्रयोगो मनोवाक्कायव्यापारविकलः । ( धर्मवि. वृ. ८-४८, पू. १०१) ।
जो शुक्लध्यानरूप अग्नि से घातिया कर्मों को नष्ट करके योगों से रहित हो जाता है उसे प्रयोग या प्रयोगकेवली कहते हैं ।
प्रयोगकेवली - १. न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः, केवलमस्यास्तीति केवली, प्रयोगश्चासौ केवली च प्रयोगकेवली (धव. पु. १, पृ. १६२ ) । २. योगानां तु क्षये जाते स एवायोगकेवली । (योगशा. १-१६) । देखो प्रयोग |
प्रयोगव्यवच्छेद - १. विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदवोधकः, उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् ।। ( सप्तभं. पृ. २५) । २. विशेषणेन सह उक्तः (एवकारः) प्रयोगं व्यवच्छिनति । (सिद्धिवि. ३२-३३, पृ. ६४७) । विशेषण के साथ प्रयुक्त एवकार ( अवधारणार्थक अव्यय) को प्रयोगव्यवच्छेद कहते हैं । जैसे- शंख पाण्डुर ही होता है ।
प्रयोगिकेवलिगुणस्थान - योगः पूर्वोक्तो विद्यते यस्यासौ योगी, न योगी प्रयोगी, अयोगी चासौ केवली च अयोगिकेवली, तस्य गुणस्थानमयोगिकेवलिगुणस्थानम् । (पंचसं मलय. वृ. १ - १५, पृ. ३२) ।
योग से रहित हुए प्रयोगिकेवली के गुणस्थान (१४) को प्रयोगिकेवलिगुणस्थान कहते हैं । प्रयोगिकेवली - तदो कमेण विहरिय जोगणिरोहं काऊ प्रयोगकेवली होदि । ( धव. पु १, पृ. २२३) जो योगों का निरोध कर चुके हैं, ऐसे चौदहवें गुण
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अयोगिजिन १२४, जैन-लक्षणावली
[अरतिपरीषहजय स्थानवर्ती जिन अयोगिकेवली कहलाते हैं। परीता त्वरतिः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ८६, पृ. अयोगिजिन - १. जेसि ण संति जोगा सुहासुहा ८२) । ५. अरतिश्च तम्मोहनीयोदयजनितश्चित्तविपुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोइजिणा अणोव- कारः उद्वेगलक्षणः। (स्थानांग अभय. वृ. १-४८, माणतबलकलिया ॥ (प्रा. पंचसं. १-१००; धव. पृ. २४) । ६. अरतिमोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगः । पु. १, पृ. २८० उद्धृत; गो. जी. गा. २४२)। (औपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७६)। ७. अरतिर्मा२. मनोवाक्कायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमित्तात्म- नसो विकारः । (समवा. अभय. वृ. २२, पृ. ३६) ।
८. सच्चित्ताचित्तेसु य बाहिरदव्वेसु जस्स उदएणं । नो ऽयोगिजिना भवन्ति । (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। १ जिनके पुण्य-पाप के जनक शुभ-अशुभ योग नहीं (कर्मवि. गर्ग म. ५७, पृ. २७) । ६. यदुदयवशात् पाये जाते ऐसे अनुपम अनन्त बल से युक्त जिनेन्द्रों पुनर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अनीति करोति तदरतिमोहको अयोगिजिन कहते हैं।
नीयम् । (धर्मसं. मलय. वृ. ६१५, पृ. २३१) प्रज्ञाप. अयोगिजिनगुरणस्थानकाल–पञ्चलघ्वक्षरकाल- मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६९; पंचसं. वृ. ३-५)। स्थितिकमयोगिजिनसंज्ञं चतुर्दशं गुणस्थानं वेदि- १०. अरतिरुद्वेगः अशुभपरिणामः । (मला. वृ. ११, तव्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१)।
१०); न रमते न रम्यते वा यया साऽरतिर्यस्य जिस गुणस्थान की स्थिति अ, इ, उ, ऋ और ल पुद्गलस्कन्धस्योदयेन द्रव्यादिष्वरतिर्जायते तस्याइन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल के बरा- रतिरिति संज्ञा । (मला. वृ. १२-१६२)। ११. यदुबर है उसे (१४) अयोगिजिनगुणस्थान कहते हैं। दयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा जीवस्य बाह्याभ्यन्तरेषु अयोगिभवस्थकेवलज्ञान-शैलेश्यवस्थायामयोगि- वस्तुष्वरतिः अप्रीतिर्भवति तत् अरतिमोहनीयम् । भवस्थकेवलज्ञानम् (प्राव. नि. मलय.व. ७८, प.८३) (कर्मवि. दे. स्वो. व. २१, प. ३७-३८)। १२. शैलेशी अवस्था में होने वाले अयोगिकेवली के तथा यदमनोज्ञेषु शब्दादिविषयेषु संयमे वा जीवस्य केवलज्ञान को अयोगिभवस्थकेवलज्ञान कहते हैं। चित्तोद्वेगः सा अरतिः । (बहत्क. क्षे. व. २२, पृ. अयोगी-न योगी अयोगी। (धव. पु. १, पृ. ४१)। १३. यदुदयाद् देश-पुर-ग्राम-मन्दिरादिषु २८०)।
तिष्ठन् जीव: रतिं लभते, परदेशादिगमने चौत्सुक्यं जो योगी--योगयुक्त-नहीं है, उसे अयोगी कहते हैं। करोति सा रतिः । रतेविपरीताऽरतिः । (त. वृत्ति अरण्य-मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातवल्ली- श्रुत. ८-६)। गुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्ण मरण्यम् । (नि. सा. वृ. ५८)। १ जिसके उदय से देशादि के विषय में अनुत्सुकता मनुष्यों के आवागमन से शूय और वृक्ष, बेलि, होती है उसे अरति (नोकषाय) कहते हैं । ३ पुत्रलता एवं गुल्मादि से परिपूर्ण स्थान को अरण्य पौत्रादिकों में जो प्रीति का अभाव होता है उसका कहते हैं।
नाम अरति है। अरति-१. यदुदयाद्दे शादिषु औत्सुक्यं सा रतिः। अरतिपरीषहजय - १. संयतस्येन्द्रियेष्टविषयअरतिस्तद्विपरीता। (स. सि. ८-९; त. वा. ८, सम्बन्धं प्रति निरुत्सकस्य गीत-नृत्य-वादित्रादि६, ४; त. सुखबो. ८-६)। २. एतेष्वेव (बाह्या- विरहितेषु शून्यागार-देवकुल-तरुकोटर-शिला-गुहाभ्यन्तरेषु बस्तुष) अप्रीतिररतिः । (श्रा. प्र. टी. १८) दिषु स्वाध्याय-ध्यान-भावनारतिमास्कन्दतो दृष्ट३. दव-खेत्त-कालभावेसु जेसिमुदएण जीवस्स अरई श्रुतानुभूतरति-स्मरण-तत्कथाश्रवण · कामशरप्रवेशसमुप्पज्जइ तेसिमरदि त्ति सण्णा। (धव. पु. ६, प. निविवरहृदयस्य प्राणिषु सदा सदयस्यारतिपरीषह४७); नतृ-पुत्र-कलत्रादिषु रमणं रतिः । तत्प्रति- जयोऽवसेयः । (स. सि. ६-९)। २. संयमे रतिपक्षा अरतिः । (धव. पु. १२, पृ. २८५); जस्स भावादरतिपरीषहजयः । संयतस्य XXXअरर्ति कम्मस्स उदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु अरई समु- प्रादुष्यती धृतिविशेषान्निवारयतः संयमरतिभावप्पज्जदि तं कम्मं अरई णाम । (धव. पु. १३, पृ. नात् विषयसुखरतिविषाहारसेवेव विपाककटुकेति ३६१)। ४. रमणं रतिः संयमविषया धृतिः, तद्वि- चिन्तयतः रतिपरिबाधाभावादरतिपरीषहजय इति
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अरतिरति] १२५, जैन-लक्षणावली
[अरूपी निश्चीयते । (त. वा. ६, ६, ११; चा. सा. पृ. अर्थ अनन्तर–अन्तर से रहित (अनादि) होता ५१) । ३. दुर्वारेन्द्रियवृन्दरोगनिकररादिबाधो- है, अरहस अर्थात् अन्तर से रहित जो अनादि कर्म करैः प्रोद्भूतामरति व्रतोत्करपरित्राणे गुणोत्पोषणे। है, वह अरहस्कर्म कहलाता है। मंक्षु क्षीणतरां करोत्यरतिजिद वीरः स वन्द्यः सतां यो अरिष्ट-न विद्यते ऽरिष्टम् अकल्याणं येषां ते दण्डत्रयदण्डनाहितमतिः सत्यप्रतिज्ञो व्रती ।। (प्राचा. अरिष्टाः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५)। सा. ७-१५)। ४. लोकापवादभय-सवतरक्षणा- जिनके अकल्याण-जनक कोई वस्तु न पाई जावे क्षरोधक्षुदादिभिरसह्यमुदीर्यमाणाम् । स्वात्मोन्मुखो उन लोकान्तिक देवों को अरिष्ट कहते हैं। यह धृतिविशेषहृतेन्द्रियार्थतृष्णः शृणात्वरतिमाश्रितसं- लौकान्तिक देवों का एक भेद है। यमश्रीः ॥ (अन. ध. ६-६५)।
अरुण-अरुणः उद्यद्भास्करः, तद्वत्तेजोविराजमानाः १ महावतों का परिपालन करने वाले संयत के अरुणाः
अरुणाः । (त. व
। (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५)। अभीष्ट विषयों के प्रति उत्सुकता न रहने से जो वह जो उदित होते हुए सूर्य के समान तेज से सुशोभित गीत, नत्य और वादित्रादि से विहीन शून्य (निर्जन) होते हैं, वे अरुण नामक लौकान्तिक देव कहलाते हैं। गृहादि में रहता हुमा स्वाध्याय व ध्यान में अनु- अरहान रोहन्ति न भवाङ्कुरोदयमासयन्ति, रक्त रह कर कामकथादि के श्रवण आदि से विर- कर्मबीजाभावादिति अरुहाः । (पंचसूत्र व्याख्या २)। हित होता है, यह उसका अरतिपरीषहजय है। कर्मरूपी बीज के विनष्ट हो जाने से जो संसारपरतिरति-अरति: अरतिमोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगः, रूपी अंकुर की उत्पत्ति का प्राश्रय नहीं लेते, अर्थात् तत्फला रतिः विषयेषु मोहनीयाच्चित्ताभिरति: जिनका संसार सदा के लिए नष्ट हो चुका है, उन्हें अरति रतिः । (प्रौपपा. अभय. व. ३४, प. ७६)। अरुह (अरहंत) कहा जाता है। अरतिमोहनीय के उदय से होने वाली चित्तोद्वेगरूप प्ररूप ध्यान-१. अरूपं ध्यायति ध्यानं परं संवेदरति के फलस्वरूप जो विषयों में मन को अनुराग नात्मकम् । सिद्धरूपस्य लाभाय नीरूपस्य निरेनसः। होता है उसे अरतिरति कहा जाता है।
(अमित. श्रा. १५-५६)। २. व्योमाकारमनाकार अरतिवाक्-१. तेषु (शब्दादिविषय-देशादिषु) निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमाङ्गात् कियन्न्यून स्वएवारत्युप्पादिका अरतिवाक । (त. वा. १, २०, प्रदेशघनैः स्थितम् ॥ लोकाग्रशिखरासीनं शिवी१२, पृ. ७५; धव. पु. १, पृ. ११७) । २. तेसु भूतमनामयम् । पुरुषाकारमापन्नमप्यमूर्तं च चिन्त(इंदियविसयेसु) अरइउप्पाइया अरदिवाया। (अंग- येत् ॥ निष्कलस्य विशुद्धस्य निष्पन्नस्य जगद्गुरोः । पण्णत्ती पृ. २६२)।
चिदानन्दमयस्योच्चैः कथं स्यात् पुरुषाकृतिः ॥ इन्द्रियविषयों में अरति उत्पन्न करने वाले वचनों विनिर्गतमधूच्छिष्टप्रतिमे मूषिकोदरे । यादृग्गगनको परतिवाक् कहते हैं।
संस्थानं तदाकारं स्मरेद् विभुम् ॥ (ज्ञानार्णव ४०, अरहस्-अरह त्ति अर्हन् अशोकादिमहापूजार्हत्वात्, २२-२५) । अविद्यमानं वा रहः एकान्तं प्रच्छन्नं सर्वज्ञत्वाद् यस्य १ रूपरहित (अमूर्तिक) निर्मल सिद्धस्वरूप की प्राप्ति सोऽरहाः । (औपपा. अभय. व. १०, पृ. १५)। के लिए रूपादि से रहित और पाप-पंक से वियुक्त अशोकादि पूजा के जो योग्य हैं वे अर्हन कहलाते हैं। हए सिद्ध के स्वरूप का जो संवेदनात्मक ध्यान अथवा रहस् शब्द का अर्थ एकान्त या गुप्त होता है, किया जाता है, उसे अरूप (रूपातीत) धर्म ध्यान सर्वज्ञ हो जाने से जिनके लिए कोई भी पदार्थ रहस कहते हैं। (गुप्त) नहीं रहा है, अर्थात् जिनके सर्वगत ज्ञान प्ररूपी-१. न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि । रूपसे कुछ भी बचा नहीं है, वे अरहस (अरहंत जिन। प्रतिषेधे तत्सहचारिणां रसादीनामपि प्रतिषेधः । तेन या केवली) कहलाते हैं।
अरूपाण्यमूर्तानीत्यर्थः । (स. सि. ५-४)। २. गुणाअरहस्कर्म-रहः अन्तरम्, अरहः अनन्तरम्, अरहः विभागपडिच्छेदेहि समाणा जे णिद्ध-लुक्खगुणजुत्तपोकर्म अरहस्कर्म । (धव. पु. १३, पृ. ३५०)। गला ते रूविणो णाम, विसरिसा पोग्गला अरूविणो रहस शब्द का अर्थ अन्तर और अरहस शब्द का णाम । (धव. पु. १४, पृ. ३१-३२)। ३. शब्द
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अरूप्यालम्बनी]
१२६, जैन-लक्षणावली
- [अर्थ (पुरुषार्थ)
रूप-रस-स्पर्श-गन्धात्यन्तव्युदासतः । पञ्च द्रव्याण्य- १ जिसका निश्चय किया जाता है अर्थात् जो ज्ञान रूपाणिXxx॥ (त. सा. ३-१६)।
के द्वारा जाना जाता है उसे अर्थ कहते हैं। २ जो स्निग्ध-रूक्ष पुदगल गुणाविभागप्रतिच्छेदों से अर्थ (द्रव्य)-१. दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया समान होते हैं वे रूपी और उनसे भिन्न अरूपी असण्णिया भणिया। (प्रव. सा. १-८७) । कहलाते हैं। ३ जो पांच द्रव्य शब्द, रूप, रस, २. प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्मतत्त्वव्यवस्थं सदिगन्ध और स्पर्श से रहित हैं उन्हें प्ररूपी कहते हैं। हार्थरूपम् । (युक्त्यनु. ४६)। ३. परापरपर्यायाप्ररूप्यालम्बनी-सः (स्वरूपानन्दपिपासितः) एव वाप्ति-परिहार-स्थितिलक्षणोऽर्थः। (प्रमाणसं. स्वो. अर्हत्सिद्धस्वरूपं ज्ञान-दर्शन-चारित्राद्यनन्तपर्यायवि- वृ. ७-६६, पृ. १२१, पं. २२-२३)। ४. तद्रव्यशुद्धशुद्धाध्यात्मधर्मम् अवलम्बते इति अरूप्यालम्बनी। पर्यायात्मार्थो बहिरन्तश्च तत्त्वतः । (लघीय. ७)। (ज्ञा. सा. वृ. २७-६)।
५. अनेकपर्यायकलापभाजोऽर्थाः। (त. भा. सिद्ध. प्रात्मस्वरूप प्रानन्दामृत-पान के इच्छुक पुरुष के वृ. ६-६); अर्थः परमाण्वादिः । (त. भा. सिद्ध. द्वारा अर्हन्त व सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का तथा व. 8-४६)। ६. अर्थः अर्थक्रियासमर्थः प्रमाणज्ञान-दर्शन-चारित्रादि अनन्त पर्यायों से विशद्ध शुद्ध गोचरो भावः द्रव्य-पर्यायात्मकः । (न्यायकु. २-७, प्रात्मा का पालम्बन करके जो ध्यान किया जाता प. २१३, पं. २२-२३)। ७. मानेनार्थ्यते इत्यर्थहै, उसे अरूप्यालम्बनी वृत्ति कहते हैं।
स्तत्त्वं चार्थः स्वरूपतः ।। स्थित्युपत्तिव्ययात्मा द्रवति अर्चना (अच्चरणा)- चरु-बलि-पुप्फ-फल-गन्ध- द्रोष्यत्यदुद्रुवत् । स्वपर्यायानिति द्रव्यमस्तान् विवधूव-दीवादीहिं सगभत्तिपगासो अच्चणा । (धव. पु. क्षितान् ।। (प्राचा. सा. ३, ६-७)। ८. द्रव्याणि ८, पृ. ६२)।
च गुणाश्च पर्यायाश्च अभिधेयभेदेऽप्यभिधानभेदेन चरु, बलि (नैवेद्य), पुप्प, फल, गन्ध, धूप और दीप अर्थाः । तत्र गुण-पर्यायान् प्रति गुण-पर्यायैरर्यन्त आदि के द्वारा अपनी भक्ति के प्रकाशित करने को इति वा अर्थाः द्रव्याणि, द्रव्याण्याश्रयत्वेन प्रतिअर्चना कहते हैं।
द्रव्यैराश्रयभूतैरर्यन्त इति वा अर्था गुणाः, द्रव्याणि अर्चा-अर्चा-तथा क्षालितानेः संयतस्य गन्धा- क्रमपरिणामेनेति द्रव्यः क्रमपरिणामेनार्यते इति वा क्षतादिमिः पादपूजनम् । (सा. घ. टी. ५-४५)। अर्थाः पर्यायाः । (प्रव. सा. अमृत. वृ. १-८७)। साधु का पादप्रक्षालन करके जो उसकी गन्ध व ६.अनन्तज्ञान-सुखादिगुणान् तथैवामूर्तत्वातीन्द्रियत्वअक्षत आदि से पादपूजा की जाती है, इसका नाम सिद्धत्वादिपर्यायांश्च इयति गच्छति परिणमति अर्चा है।
आश्रयति येन कारणेन तस्मादर्थो भण्यते । (प्रव. चि (अच्ची)-१. अच्ची णाम आगासाणुगमा सा. जय. व. १-८७)। १०. अर्थो ध्येयो ध्यानीयो परिच्छिण्णा अग्गिसिहा । (दशवै. चू. पृ. १५६)। ध्यातव्यः परार्थः द्रव्यं पर्यायो वा । (कार्तिके. टी. २. दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽचिः। (प्राचारांग ४८७)। शी. वृ. १, १, ३, गा. ११८, पृ. ४४)।
३ जो एक (नवीन) पर्याय की प्राप्ति (उत्पाद), अग्नि को ऊपर उठती हुई ज्वाला या शिखा को पूर्व पर्याय का विनाश (व्यय) और स्थिति (ध्रौव्य) अचि कहते हैं।
से सहित होता है वह अर्थ (द्रध्य) कहलाता है। अर्थ (ज्ञेय)-१. अर्यते इत्यर्थः, निश्चीयते इति यावत् अर्थ (अभिधेय)-१. अर्थो वाक्यस्य भावार्थः । (स. सि. १-२)। २. तत्र अर्यन्ते इत्यर्थाः, अर्यन्ते (ज्ञा. सा. वृ. २७-५)। २. अर्थः शब्दस्याभिधेयम् । गम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति यावत् । ते च रूपादयः। (षोडशक वृ. १३-४)। (प्राव. नि. हरि. व मलय. वृ. ३)। ३. अर्यते परि- शब्द या वाक्य के वाच्य को अर्थ कहा जाता है। च्छिद्यते गम्यते इत्यर्थों द्वादशांगविषयः। (धव. पु. अर्थ (पुरुषार्थ)~-१. यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सो६, पृ. २५६)। ४. अर्यते गम्यते ज्ञायते निश्चीयते ऽर्थः । (नीतिवा. २-१; योगशा. वृ. १-५२, पृ. इत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२)। ५.xxx १५४; श्रा. गु. वि. पृ. ४; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. अर्थः स्व-परगोचरः। (लाटीसं. ३-४६)।
१,१४, पृ.)। २. अर्थो वेश्यादिव्यसनव्यावर्तनेन
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अर्थ (अभिलषनीय)] १२७, जैन-लक्षणावलो
[अर्थचर निष्प्रत्यूहमर्थस्योपार्जनादुपाजितस्य च रक्षणादरक्षि- जिसके द्वारा द्रम्मों-सोना व चांदी प्रादि के तस्य च वर्द्धनाद यथाभाग्यं ग्रामसुवर्णादिसम्पत्तिः। सिक्कों-प्रादि का उत्पादन होता है, अथवा धना(सा. ध. स्वो. टी. २-५६)।
र्जन के लिए जो कुछ किया जाता है उसे अर्थकरण १ समस्त प्रयोजन के साधनभूत धन का नाम कहते हैं। अथवा विविध उपायों से अर्थ-उपार्जन
करने को अर्थकरण कहते हैं। अर्थ (अभिलषनीय)-१. अर्थ्यतेऽभिलष्यते प्रयोज- अर्थक -तेसिमणेयाणं बीजपदाणं दबालसंगनार्थिभिरित्यर्थो हेय उपादेयश्च । (प्र. क. मा. पृ. प्पयाणमटारस-सत्तसय-भास-कुभासरूवाणं परूवो ४, पं. २२-२३)। २. अर्थः व्यवहारिणा हेयत्वेन अत्थकत्तारो णाम । (धव. पु. १, पृ. १२७)। उपादेयत्वेन वा प्रार्थ्यमानो भावः । (न्यायकु. १-५,
अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा रूप द्वादशांगपृ. ११६)।
स्वरूप अनेक बीजपदों की प्ररूपणा करने वाला १ प्रयोजनार्थी के लिए जो वस्तु अभीष्ट होती है अर्थकर्ता कहलाता है। उसे अर्थ कहा जाता है।
अर्थकल्पिक-अत्थस्स कप्पितो खल आवासगमादि अर्थ (सम्यक्त्वभेद)-१. संजातार्थात् कुतश्चित्
जाव सूयगडं । मोत्तुणं छेयसुयं जं जेणहियं तदट्ठस्स। प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि: । (श्रात्मानु. १४)।
(बृहत्क. ४०८)। २. प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः (उपासका. पृ.
जिसने आवश्यक सूत्र से लगाकर सूत्रकृतांग तक के ११४; अन. ध. स्वो. टी. २-६२)।
सूत्रों के अर्थ का अध्ययन किया है, तथा सूत्रकृतांग १ आगमवचनों के बिना किसी अर्थविशेष के प्राश्रय
सूत्र से ऊपर भी छेदसूत्र को छोड़ कर समस्त सूत्रों से जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे अर्थ सम्यक्त्व
के अर्थों को पढ़ा है, ऐसे साधु को अर्थकल्पिक कहते हैं।
कहते हैं। अर्थकथा-१. विज्जा-सिप्पमूवानो अणिवेग्रो संचयो
अर्थक्रिया-१. तत्र विलक्षणाभावतः अवस्तुनि य दवखत्तं । सामं दण्डो भेो उवप्पयाणं च अत्थ
परिच्छेदलक्षणार्थक्रियाभावात् । (धव. पु. ६, पु. कहा ॥ (दशवै. नि. १८६, पृ. १०६)। २. अत्थकहा नाम जा अत्थनिमित्तं कहा कहिज्जइ सा अत्थ
१४२)। २. अर्थक्रिया-अर्थस्य ज्ञानस्य अन्यस्य वा
क्रिया करणम्। (न्यायकु. २-८, प. ३७२) । ३. अर्थकहा । (दशवै. चू. पृ. १०२)। ३. विद्यादिरर्थस्तत्प्र
क्रिया-अर्थस्य कार्यस्य क्रिया करणं निष्पत्तिः । धाना कथाऽर्थकथा । (दशवै. हरि. व. पु. १०७) ।
(लघीय. अभय. व. २-१, पृ. २२)। ४. तत्रार्थक्रिया ४. अर्थस्य कथा अर्थार्जनोपायकथनप्रबन्धाः सेवया वाणिज्येन लेखवृत्त्या कृषिकर्मणा समुद्रप्रवेशेन धातु
ऽर्थदण्डरूपा । (गु. गु. षट्, स्वो. वृ. १५, पृ. ४१)।
१ वस्तु का ज्ञान का विषय होना, यही उसकी वादेन मंत्रतंत्रप्रयोगेण वा इत्येवमाद्यर्थार्जननिमित्त
अर्थक्रिया है। ३ अथवा अर्थ शब्द का अर्थ कार्य है, वचनान्यर्थकथाः । (मला. व. ६-८६)। ५. सामा
उस कार्य का करना, यह वस्तु की अर्थक्रिया है। दि-धातुवादादि-कृष्यादिप्रतिपादिका । अर्थोपादान
४ प्रयोजनसिद्धि के लिए जो प्राणिपीडनात्मक परमा कथार्थस्य प्रकीर्तिता ॥ (गु. गु. ष. स्वो. वृ.
क्रिया की जाती है वह अर्थकिया कही जाती है। ४ सेवा, कृषि व वाणिज्य प्रादि के द्वारा धन के अर्थक्रियाकारिता--पूर्वाकारपरिहारोत्तराकारस्वी
कारावस्थानस्वरूपलक्षणपरिणामेन वस्तूनामर्थक्रियाकथा कहते हैं।
कारिता । (स्या. रह. पृ. ६)। अर्थकरण - अर्थाभिनिवर्तकमधिकरण्यादि येन पूर्व प्राकार के परित्याग (व्यय), उत्तर प्राकार के द्रम्मादि निष्पाद्यते, अर्थार्थ वा करणमर्थकरणं यत्र ग्रहण (उत्पाद) और अवस्थान (ध्रौव्य) स्वरूप यत्र राज्ञोऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, अर्थ एव वा तस्तैरुपायैः परिणाम से वस्तुओं के अर्थक्रियाकारिता हुमा क्रियत इत्यर्थकरणम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४, करती है। १८४, पृ. १६५)।
अर्थचर-अर्थेषु चरन्ति पर्यटन्ति अर्थचराः कार्य
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अर्थज ]
नियुक्ताः कनकाध्यक्षादिसदृशा: । (त. वृत्ति श्रुत. ४-४)।
जो अर्थ के विषय में पर्यटनशील रहते हैं, ऐसे कार्य में नियुक्त सुवर्णाध्यक्ष आदि के सदृश श्रर्थचर कहलाते हैं।
अर्थज - देखो अर्थ (सम्यक्त्व ) । १. वाग्विस्तरपरित्यागादुपदेष्टुर्म हायतेः । अर्थमात्रसमादानसमुत्था रुचिरथंजा ।। (म. पु. ७४ - ४४७ ) । २. अङ्गबाह्यश्रुतोक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गबाह्यश्रुतं विनापि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वं प्रर्थसम्यक्त्वं निगद्यते । ( दर्शनप्रा. टी. १२) ।
१ उपदेष्टा के वचनविस्तार के बिना ही अर्थ मात्र के ग्रहण से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन को अर्थज सम्यग् - दर्शन कहते हैं ।
अर्थदण्ड - १. अर्थः प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्र वास्तुधन- शरीर - परिजनादिविषयम्, तदर्थम् श्रारम्भो भूतोपमर्दो ऽर्थदण्डः, दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्यायाः । अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः, स चैव भूतविषयः उपमर्दनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते । (श्राव. हरि. वृ. ६, पू. ८३० ) । २. दण्डः प्राणातिपातादिः स चार्थाय इन्द्रियादिप्रयोजनाय यः सोऽर्थदण्डः । ( स्थानांग अभय. वृ. सू. ६६, पृ. ४४) । ३. यः स्व-स्वीयस्वजनादिनिमित्तं विधीयमानो भूतोपमर्दः सोऽर्थदण्डः, सप्रयोजन इति यावत् । प्रयोजनं च येन विना गार्हस्थ्यं प्रतिपालयितुं न शक्यते, सोऽर्थदण्डः । XXX यदाह – जं इंदिय-सयणाई पडुच्च पाव करेज्ज सो होई । प्रत्थो दण्डो इत्तो ग्रन्नो उ प्रणत्थदंडोति ॥ ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. २- ३५, पृ. ८१) ।
१२८, जैन-लक्षणावली
१ क्षेत्र, वास्तु, धन, शरीर व परिजन श्रादि विषयक जो गृहस्थ का प्रयोजन है उसको सिद्ध करने के लिए जो प्राणिपीडाजनक प्रारम्भ किया जाता है उसका नाम श्रर्थदण्ड है । अर्थदूषरण (व्यसनभेद) - १. अतिव्ययोऽपात्रव्ययश्चार्थस्य दूषणं । ( नीतिवा. १६-१६, पृ. १७८ ) । २. अर्थोत्पत्तिहेतवो ये सामाद्युपायचतुष्टयप्रभृतयः प्रकारास्तेषां यद् दूषणं तदर्थदूषणव्यसनम् । (बृहत्क. वृ. ९४०) ।
१ अत्यधिक व्यय और प्रयोग्य पात्र के लिए किये
[ अर्थपद
गये श्रनर्थक व्यय का नाम अर्थदूषण है । यह एक राजा को नष्ट करने वाला व्यसन है । २ घन कमाने के जो साम आदि चार उपाय हैं उनमें दूषण लगाने को अर्थदूषण व्यसन कहते हैं । अर्थनय - १. अर्थ - व्यञ्जनपर्यार्थविभिन्नलिङ्ग-संख्याकाल-कारक - पुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थनयाः, न शब्दभेदेनार्थभेद इत्यर्थः । ( धव. पु. १, पृ. ८६ ); क्रिया-गुणाद्यर्थगतभेदेनार्थभेदनात् संग्रह-व्यवहारजु सूत्राः श्रर्थनया: । ( धव. पु. ६, पृ. १८१ ) । २. वस्तुनः स्वरूपं स्वधर्मभेदेन भिन्दानोऽर्थनयः, अभेदको वा । प्रभेदरूपेण सर्वं वस्तु इयति एति गच्छति इत्यर्थनयः । ( जयध. १, पृ. २२३); सद्दत्थणिरवेक्खा अत्थणया । ( जयध. १, पृ. २२३) । ३. अर्थनयाः श्रर्थमेव प्राधान्येन शब्दोपसर्जनमिच्छन्ति । (सूत्रकृ. शी. वृ. २, ७, ८१, पू. १८७) । ४. अर्थप्रधानो नयः श्रर्थनयः । (प्रष्टस. वृ. १६, पृ. २१२) ।
१ जो नय अर्थ और व्यञ्जन पर्यायों के साथ विविध लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के भेद से अभिन्न वर्तमान मात्र वस्तु को विषय किया करते हैं उन्हें अर्थनय कहते हैं । अर्थनिर्यापरणा- अर्थ सूत्राभिधेयं वस्तु, तस्य निरिति भृशं यापना निर्वाहणा पूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमना निर्यापणा । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १ - ५८, पृ. ३९ ) । सूत्रार्थ का पूर्वापर संगति के साथ अपने लिये ज्ञान से तथा अन्यों के लिए वचनों से निर्वाह करना, इसका नाम श्रर्थनिर्यापणा है । यह वाचनासम्पत् का चतुर्थ भेद है ।
पद - १- जेत्तिएहि अक्खरेहि प्रत्थोवलद्धी होदि, तं प्रत्थपदं । ( धव. पु. ६, पृ. १६६; पु. १३, पृ. २६६) । २. जत्तिएहिं अक्खरेहिं प्रत्थोवलद्धी होदि, तेसिं अक्खराणं कलावो प्रत्थपदं णाम । ( जयध. १, पृ. ६१ ) ; तत्थ जेहि श्रक्खरेहि प्रत्थोवलद्धी होदि तमत्थपदं । वाक्यमर्थपदमित्यनर्थान्तरम् । ( जयध. २, पृ. १७ ) ; जत्तो सोदाराणं पदत्यविसए सम्ममवगमो समुप्पज्जइ तमट्ठस्स वाचयं पदमट्ठपदमिदि भण्णदे । ( जयध पत्र ६८४ ) । २ जितने अक्षरों के द्वारा अर्थका परिज्ञान हो जाता उनके समुदायरूप पद का नाम श्रर्थपद है ।
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पर्याय ]
दर्शन - श्रार्य कहलाते है ।
. श्रर्थपर्याय - १. अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धि-हानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्याया: । ( प्रव. सा. जय. वृ. १ - ८० ) ; प्रतिसमयपरिणतिरूपा श्रर्थ पर्याया भण्यन्ते । ( प्रव. सा. जय. वृ. २-३७) । २. सूक्ष्मोsarग्गोचरो वेद्यः केवलज्ञानिनां स्वयम् । प्रतिक्षणं विनाशी स्यात्पर्यायो ह्यर्थसंज्ञकः । ( भावसं वाम. ३७६) । ३. अर्थपर्यायो भूतत्व- भविष्यत्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालावच्छिन्नं वस्तुस्वरूपम् । ( न्या. दी. पू. १२० ) । ४. प्रतिव्यक्त्यनुगतं सत्त्वं चार्थपर्याय: । (स्या रह. पत्र १० ) ।
अर्थविज्ञान - श्रर्थविज्ञानमूहापोह्योगान्मोह- सन्देहविपर्यासव्युदासेन ज्ञानम् । (योगशा. स्वो विव. १, ५१; श्री. गु. वि. पू. ३७) । ऊहापोहपूर्वक वस्तुगत संशय, विपर्यास और मोह ( अनध्यवसाय) को दूर करके यथार्थ जानने को श्रर्थविज्ञान कहते हैं ।
श्रर्थविनय - १. श्रब्भासवित्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । श्रब्भुट्ठाणं अंजलि ग्रासणदाणं च प्रत्थकए ।। (दशवं. नि. ६-३१२; उत्तरा. नि. शा. वृ. १ - २६, पृ. १६ उद्धृत) । २. अर्थ प्राप्तिहेतोरीश्वरा
१ अगुरुलघु गुण के निमित्त से छह प्रकारकी वृद्धि एवं हानिरूप से जो प्रतिक्षण पर्यायें उत्पन्न होती द्यनुवर्तनमर्थं विनयः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १–२६,
हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं ।
१२६, जैन - लक्षणावली
पर्याय नैगम - प्रर्थपर्याययोस्तावद् गुण-मुख्यस्वभावतः । क्वचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते ॥ यथा प्रतिक्षणध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः । (त. इलो. १, ३३, २८-२६, पृ. २७० ) । दो पर्यायों में एक की गौणता और दूसरे की मुख्यता करके विवक्षित वस्तु के विषय में जो ज्ञाता का अभिप्राय होता उसे अर्थपर्याय नैगम कहते हैं। जैसे—शरीरधारी श्रात्मा का सुख-संवेदन प्रतिक्षण विनाश को प्राप्त हो रहा है। यहां पर उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्त सत्तारूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने से गौण है और संवेदनरूप अर्थ पर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है । अर्थ पर्यायाशुद्धद्रव्यनैगम-क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चयः । विनिर्दिष्टोऽथंपर्यायाशुद्धद्रव्यगनैगमः । (त. इलो. १, ३३, ४२ पृ. २७० ) ।
पर्याय को गौणरूपसे और अशुद्ध द्रव्य को प्रधान रूप से विषय करने वाले नय को अर्थ पर्यायाशुद्धद्रव्यनैगमनय कहते है । जैसे—विषयी जीव एक क्षण मात्र सुखी है। यहां पर सुखरूप प्रर्थपर्याय तो गौण है और संसारी जीवरूप श्रशुद्ध द्रव्य मुख्य है ।
अर्थ रुचि - देखो अर्थ ( सम्यक्त्व ) । वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचयः । (त. वा. ३, ३६, २) ।
वचनविस्तार से रहित अर्थ के ग्रहण से ही जिनके प्रसन्नता — तत्त्वरुचि - प्रादुर्भूत हुई है वे श्रर्थरुचि
ल. १७
[अर्थशुद्धि
पृ. १७) ।
१ राजा श्रादि के समीप में स्थित रहना, उनके अभिप्राय के अनुसार कार्य करना, देश-काल के अनुसार प्रस्ताव उपस्थित करना तथा उठकर खड़े हो जाना व उन्हें प्रासन देना इत्यादि जो अर्थ की प्राप्ति
लिये विनय की जाती है वह सब अर्थविनय कहलाता है ।
अर्थ-व्यञ्जन पर्यायार्थनैगम - १. श्रर्थ-व्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः । धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत: । (त. श्लो. १, ३३, ३५ पृ. २७० ) । २. तत्र सूक्ष्मः क्षणक्षयोऽवाग्गोचरोऽर्थपर्यायार्थो वस्तुनो धर्मः । स्थूलः कालान्तरस्थायी वाग्गोचरो व्यञ्जनपर्यायोऽर्थधर्मः । एतद्धर्मद्वयास्तिस्वावलम्बी अर्थव्यञ्जनपर्यायार्थनैगमो भवति । (त. सुखबो. १-३३) ।
१ जो श्रर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय इन दोनों को एक साथ विषय करे, उसे अर्थ- व्यञ्जनपर्यायार्थ नैगमनय कहते हैं । जैसे- धर्मात्मा सुखजीवी होता है ।
प्रर्थशुद्धि - १. व्यञ्जनशब्दस्य सान्निध्यादर्थशब्दः शब्दाभिधेये वर्तते । तेन सूत्रार्थोऽर्थ इति गृह्यते । तस्य का शुद्धि: ? विपरीतरूपेण सूत्रार्थनिरूपणाभ्याम् अर्थाधारत्वान्निरूपणाया अवैपरीत्यस्य अर्थशुद्धिरित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११३) । २. अर्थशुद्धिः सम्यक्सूत्रार्थनिरूपणा । ( भ. प्रा. मूला. टी. ११३ ) ।
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अर्थश्रावणविनय] १३०, जैन-लक्षणावली
[अर्थापत्ति २ सूत्र के अर्थ के सम्यक् प्रतिपादन को अर्थशुद्धि ४४, १)। ३. प्राक् शब्दस्ततस्तत्त्वालम्बनमिदकहते हैं।
मस्य स्वरूपम्, अयमस्य पर्यायः, ततस्तदर्थचिन्तनं अर्थश्रावरणविनय-प्रयत्नेन शिष्यमथं श्रावयति साकल्येन, ततः शब्दार्थयोः स्वरूपविशेषचिन्ताप्रतिएषोऽर्थश्रावणविनयः । (व्यव. भा. मलय. वृ. १०, बन्धः प्रणिधानमर्थसंक्रान्तिः । (त. भा. सिद्ध. व. ३१३)।
8-४६) । ४. अर्थादर्थांन्तरापत्तिरर्थसंक्रान्ति शिष्य के लिए प्रयत्नपूर्वक सूत्र का अर्थ सुनाने को रिष्यते । (ज्ञानार्णव ४२-१६) । ५. द्रव्यात् पर्याअर्थश्रावणविनय कहते हैं।
यार्थे पर्यायाच्च द्रव्यार्थे संक्रमणमर्थसंक्रान्तिः । (त. अर्थसम-अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वाद- सुखबो. ९-४४) । ६. द्रव्यं विमुच्य पर्यायं गच्छति, शांगविषयः, तेण अत्थेण समं सह वदि त्ति अत्थ- पर्यायं विहाय द्रव्यमुपैति इति अर्थसंक्रान्तिः । समं । दव्वसुदाइरिये अप्पवेक्खिय संजमजणिदसुद- (भावप्रा. टी. ७८)। ७. द्रव्यं ध्यायति, द्रव्यं णाणावरणक्खमोवसमसमुप्पणबहिरंगसुदं सयंबुद्धा- त्यक्त्वा पर्यायं ध्यायति, पर्यायं च परिहाय पुनर्द्रव्यं धारमत्थसमं इदि वृत्तं होदि । (धव. पु. ६, पृ. ध्यायति इत्येवं पुनः पुनः संक्रमणमर्थसंक्रान्तिः । २५९); कारकभेदेन (पठनं) अर्थसमम् । (धव. पु. (कार्तिके. टी. ४८७; त. वृत्ति श्रुत. ६-४४) । ६, पृ. २६१); गंथ-बीजपदेहिं विणा संजमबलेण १ ध्यानावस्था में द्रव्य का चिन्तवन करते हुए केवलणाणं व सयंबद्धसप्पण्ण-कदि-अणियोगो अत्थेण पर्याय का और पर्याय का चिन्तवन करते हए द्रव्य
का चिन्तवन करने लगना. यह अर्थसंक्रान्ति है। प्रत्थो गणहरदेवो, अागमसत्तेण विणा सयलसुदणाण- अर्थसिद्ध-xxxपउरत्थो अत्थपरो व मम्मणो पज्जाएणं परिणदत्तादो। तेण समं सुदणाणं अत्थ- अत्थसिद्धत्ति ।। (प्राव. नि.६३५)। . समं । अघवा अत्थो बीजपदं, तत्तो उप्पण्णं सयल- राजगृहनिवासी मम्मण के समान जो प्रचर अर्थ सुदणाणं अत्थसमं । (धब. पु. १४, पृ. ८)। (धन) के संग्रह में तत्पर रहता है वह अर्थसिद्ध जो द्वादशांग के विषयभूत अर्थ के साथ रहता है, कहलाता है। वह पागम का अर्थसम नामक अधिकार कहलाता अर्थाचार - अर्थोऽभिधेयोऽनेकान्तात्मकस्तेन सह है । तात्पर्य यह कि द्रव्यश्रुत के धारक प्राचार्यों की पाठादि: अर्थाचारः । (मूला. वृ. ५-७२)। अपेक्षा न कर संयम से प्रादुर्भूत श्रुतज्ञानावरण के अनेकान्तात्मक अर्थ के साथ-नयाश्रित अभिप्रायक्षयोपशम से जो श्रुत स्वयंबुद्धों के आश्रित होता पूर्वक-शास्त्र का पाठ आदि करने को अर्थाचार है, वह अर्थसम कहलाता है ।
कहते हैं। प्रर्थसमय--१. तेषाम् (पञ्चास्तिकायानाम् ) एवा- प्रर्थापत्ति-१. अर्थापत्तिरियं चिन्ता मेयान्यापोहभिधान-प्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः नोहनम् । (सिद्धिवि. ३-६, पृ. १८२)। २. प्रमाणसंघातोऽर्थसमयः, सर्वपदार्थसार्थ इति यावत् । (पंचा. षटकविज्ञातो यच्चालुः (योऽर्थः) साध्याभावे नियमेका. अमृत. च. ३)। २. तेन द्रव्यागमरूपशब्दसम- नाभवन् यत्रादृष्टमर्थं कल्पयेत् सा अर्थापत्तिः । येन वाच्यो भावसरूपज्ञानसमयेन परिच्छेद्यः (सिद्धिवि. टी. ३-६, पृ. १८२)। ३. अर्थापत्तिरपि पञ्चानामस्तिकायानां समूहोऽर्थसमय इति भण्यते । दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टार्थ(पंचा. का. जय. ७. ३) ।
कल्पना IXxx प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणः २ अध्यागमरूप शब्दसमय के द्वारा कहे गये और भाव- प्रसिद्धो योऽर्थः स येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य श्रुतरूप ज्ञानसमय के द्वारा जाने गये पांच अस्ति- कल्पनमापत्तिः । (प्र. क. मा. पृ. १८७) । ४. कायरूप पदार्थों के समुदाय को अर्थसमय कहते हैं। याऽसौ "प्रमाणषटकविज्ञातो यत्रार्थोऽन्यथाभवन । अर्थसंक्रान्ति-१. द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति, पर्यायं अदृष्टं कल्पयेदन्यं सा त्यक्त्वा द्रव्यमित्यर्थसंक्रान्तिः। (स. सि. १-४४; क्षणलक्षिता मीमांसकैः परिकल्पितार्थापत्तिः सा त. वा. ९-४४, पं.११)। २. द्रव्यं हित्वा पर्याये, तं xxXI (न्यायकु. ६-२१, पृ. ५०५)। त्यक्त्वा द्रव्ये संक्रमणं अर्थसंक्रान्तिः । (त. इलो. ६, ३ प्रत्यक्षादि छह प्रमाणों के द्वारा जाना गया अर्थ
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प्रर्थापत्तिदोष ]
जिस प्रवृष्ट पदार्थ के बिना सम्भव नहीं है, उसकी कल्पना जिस प्रमाण में की जाती है, उसका नाम श्रर्थापत्ति है । जैसे-नीचे जलप्रवाह को देखकर ऊपर संजात प्रदृष्ट वृष्टि की कल्पना । प्रर्थापत्तिदोष-प्रर्थापत्तिदोषो यत्रार्थादनिष्टापत्तिः । यथा - 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इत्यर्थादब्राह्मणघातापत्तिः । ( श्राव. हरि. व मलय. वृ. नि. ८८३) ।
जहां पर श्रभीष्ट अर्थ से अनिष्ट को श्रापत्ति प्रावे उसे श्रर्थापत्तिदोष कहते हैं। जैसे- 'ब्राह्मण की हत्या नहीं करना चाहिए' इस श्रभीष्ट श्रर्थसे श्रब्राह्मण घात की आपत्ति । यह ३२ सूत्रदोषों में से एक है। श्रर्थाय क्रिया - अत्रानिर्वाहे ग्लानादौ वाऽनेषणीयग्रहणमर्थाय क्रिया । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. ३ - २७, पृ. ८२) ।
निर्वाह न होने पर या रोगादि से पीड़ित होने पर अनेषणीय (नहीं लेने योग्य) भी आहार के ग्रहण करने को प्रर्थाय क्रिया कहते हैं । यह पाप के हेतुभूत १३ क्रियास्थानों में प्रथम है । अर्थावग्रह - १. व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः । ( स. सि. १ - १८; त. वा. १, १८,२; त. सुखबो. १- १८ ) । २. व्यञ्जनाऽवग्रहचरमसमयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणोऽर्थावग्रहः । (श्राव. नि. हरि. वृ. ३, पू. १० ) । ३. प्रत्थस्स प्रोग्गहो अत्थोग्गहो, सो य वंजणावग्गहातो चरमसमयाणंतरं एकसमयं अविसव्विदिय[ अविसिट्ठिदिय ] गेण्हतो प्रत्थावग्गहो भवति, चक्खि दियस्स मणसो य वंजणाभावे पढमं चेव जं अविसिद्धमत्थग्गहणकाले यो एगसमयं सो अत्थोग्गहो । ( नन्दी. चू. पू. २६) । ४. प्रप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः । ( धव. पु. १, पृ. ३५४); अपत्तत्थग्गणमत्थावग्गहो । ( धव. पु. ६, पृ. १६; पु. ६, पृ. १५६; पु. १३, पृ. २२० ) । ५. दूरेण य जं गहणं इंदिय-गोइदिएहिं प्रत्थिक्कं । अत्थावम्हणणं णायव्वं तं समासेण || मण चक्खू विसयाणं fiftट्ठा सव्वभावदरसीहि । प्रत्थावग्गहबुद्धी णायव्या होदि एक्का दु । ( जं. दी. प. १३-६६ व ६८ ) । ६. प्राप्ताप्राप्तार्थबोधाववग्रहो व्यंजनार्थयोः (अप्रा प्तार्थबोधोऽर्थस्यावग्रहः ) | ( श्राचा. सा. ४-११ ) । ७. अर्थ्यत इत्यर्थः, अर्थस्यावग्रहणम् अर्थावग्रहः, सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षाऽनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपा -
१३१, जैन - लक्षणावली
[ अर्पित
1
इति
र्थग्रहणम् एकसामयिकम् इत्यर्थः । ( नन्दी. मलय. वृ. २७, पृ. १६८) ८. तत्र अवग्रहणमवग्रहः, श्रर्थस्यावग्रहोऽर्थावग्रहः, अनिर्देश्य सामान्यरूपाद्यर्थग्रहणमिति भावः । ग्रह व नन्द्यध्ययन चूर्णिकृत् - सामन्नस्स वाइविसेसणरहियस्स अनि स्सस्समवगहणं श्रवग्गह इति । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १५ - २००, पू. ३१०) । ε. व्यंजनावग्रहचरमसमयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहलक्षणोऽर्थावग्रहः सामान्यमात्रानिर्देश्य ग्रहणमेकसामयिकमर्थावग्रह भाव: । ( श्राव. मलय. वृ. ३, पू. २५) । १०. श्रर्थावग्रहस्तु किमपीदमित्येतावन्मात्रो मनःषष्ठैः पञ्चभिरिन्द्रियैर्वस्त्ववबोधः । ( कर्मस्तव गो. वृ. ६ - १०, पृ. ८१) । ११. अर्थस्यावग्रहणमवग्रहोsर्थपरिच्छेदः । ( कर्मवि. व्या. गा. १३) । १२. प्रर्यत इत्यर्थः, तस्य शब्द रूपादिभेदानामन्यतरेणापि भेदेनानिर्धारितस्य सामान्यरूपस्यावग्रहणमर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्य क्तज्ञानमित्यर्थः । ( कर्मवि. दे. स्वो.. वृ. ५, पृ. १२; प्रव. सारो. वृ. १२५३ ) । १३. शब्दादेर्यः परिच्छेदो मनाक् स्पष्टतरो भवेत् । किंचिदित्यात्मकः सोऽयमर्थावग्रह उच्यते ।। ( लोकप्र. ३ - ७०९ ) ।
१ व्यक्त पदार्थ के अवग्रह को प्रर्थावग्रह कहते हैं । २ व्यंजनावग्रह के अन्तिम समय में गृहीत शब्दादि अर्थ के अवग्रहण का नाम अर्थावग्रह है । ४. श्रप्राप्त पदार्थ के ग्रहण को प्रर्थावग्रह कहते हैं । अर्धमागधी भाषा - १. मगहद्धविसयभासाणिवद्ध श्रद्धमाहं अट्ठारसदेसीभासाणिययं वा अद्धमागहं । (निशीथचूर्णि - पाइयसद्दमहणणो प्रस्ता. पू. २१, सन् १९२८) । २. प्राकृतादोनां षण्णां भाषाविशे. षाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोर्लसो मागध्याम्' इत्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीय समग्रलक्षणाऽर्धमागधीत्युच्यते । (समवा. अभय वृ. ३४, पृ. ५६) ।
१ जो भाषा श्राधे मगध देश में बोली जाती थी, श्रथवा जो अट्ठारह देशी भाषाओं में नियत थी, उसका नाम अर्धमागधी है ।
श्रपित - १. अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत् । ( स. सि. ५-३२; त. सुखबो. ५- ३२) । २. धर्मान्तरविवक्षाप्रापितप्राधा
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“अहद्भाव १३२, जैन-लक्षणावली
[अलात न्यमर्पितम् । अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजन- होइ अरिहंतो। चउतीसग्रइसयगुणा होति हु तस्सवशात् यस्य कस्यचिद् धर्मस्य विनक्षया प्रापित- इट्ठपडिहारा ।। (बोधप्रा. ३२) ४. देवासुर-मणुप्राधान्यम् अर्थरूपमर्पितमुपनीतमिति यावत् । (त. एसुंअरिहा पूना सुरुत्तमा जम्हा । परिणो हंता वा. ५, ३२, १) । ३. अर्पितं निदर्शितमुपात्तं विव- रयं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ (प्राव. नि. क्षितमित्यनन्तरम् । (त. भा. हरि. वृ. ५-३१)। ९२२)। ५. वंदणा-णमंसणा-पूयणादि अरहंतीति ४. अर्पितं निदर्शितमुपात्तम् । (त. भा. सिद्ध. व. अरहंता, अरिणो वा हंता अरिहंता । (नन्दी. चू. पृ. ५-३१)। ५. वस्तु तावदनेकान्तात्मकं वर्तते । तस्य ३८)। ६. अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजावस्तुनः कार्यवशात् यस्य कस्यचित् स्वभावस्य प्रापि- महन्तीत्यर्हन्तः, तीर्थकरा इत्यर्थः । (श्रा. प्र. टी. १, तमपितं प्राधान्यम् उपनीतं विवक्षितामिति यावत् । नन्दी. मलय. वृ. सू. ४०, पृ. १६२, पंचसूत्र व्या. (त. वृत्ति श्रुत. ५-३२)।
४; ललितवि. पृ. ७६ व ८६; प्राव. हरि. वृ. १प्रयोजन के वश अनेकान्तात्मक वस्तु के जिस नि. ७०, पृ. ४८; नि. १७९, पृ. ११९; नि. किसी धर्म को विवक्षावश जो मुख्यता प्राप्त होती ४१७, पृ. १६६) । ७. अरिहन्ति, अन् अशोकादिहै उसे अर्पित कहते है।
महापूजार्हत्वात्, अविद्यमानं वा रहः एकान्तं प्रच्छन्नं वि-सम्मद्दसणि पस्सइ जाणइ णाणेण सर्वज्ञत्वाद् यस्य सोऽरहाः। (प्रौपपा. अभय. वृ. १०, दब्व-पज्जाया । सम्मत्तगुणविशुद्धो भावो अरुहस्स पृ. १५; दशवै. नि. हरि. वृ.१-६०, पृ. ६२; प्राव. णायव्वो ।। बोधप्रा. ४१)।
नि. मलय. वृ. ७० व १७६, पृ. ७६ व १६१)। सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध होकर जो दर्शन से द्रव्यों ८. अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः । स्वर्गावतरण-जन्मा
और उनकी पर्यायों को देखता है, तथा ज्ञान से उन्हें भिषेक - परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेष -जानता है, यह अर्हन्त का स्वरूप है।
देवकृतानां पूजानां देवासुर-मानवप्राप्तपूजाभ्योऽघिजनन- १. अहंदादीनां यशोजननं कत्वादतिशयानामहत्वात् योग्यत्वात् अर्हन्तः । (धव. विदुषां परिषदि अन्येषामविश्वदिनां दृष्टेष्टविरुद्ध- पु. १, पृ. ४४)। वचनताप्रदर्शनेन निवेद्य तत्संवादिवचनतया महत्ता- १ भगवान् अरहंत चूंकि नमस्कार व पूजा के योग्य प्रख्यापन भगवतां वर्णजननम् ।। (भ. प्रा. विजयो. होते हुए देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं, तथा ज्ञानावरण और ४७) । २. सुगतादीनां दृष्टेप्टविरुद्धवचनताप्रका- दर्शनावरण रूप रज एवं मोह और अन्तराय रूप शनेनासर्वज्ञत्वं प्रज्ञाप्य तत्संवादिवचनतया महत्त्व- अरि के. विघातक हैं; अतएव वे 'अहंन्' इस सार्थक प्रख्यापन महतां वर्णजननम् । (भ. प्रा. मला.४७)। नाम से प्रसिद्ध हैं। सर्वज्ञता से रहित अन्य- बुद्ध, कपिलव कणाद आदि अलङ्कृत-१. अन्यान्यस्वरा शेषकरणन यदलके-- वचनों में प्रत्यक्ष ब अनमान से विरोध दिखला कृतमिव गीयते तदलङ्कृतम् । (रायप. पू. १३१)। कर भगवान् अर्हन्त के वचनों में विसंवाद रहित २. अलङ्कृतमुपमाद्यलकारोपेतम् । (व्यव. भा. होने से महत्त्व को प्रकट करना, इसका नाम अर्हद्- मलय. वृ. ७-१६०) । ३. अन्योऽन्यस्फुटशुभवर्ण जनन है।
स्वरविशेषाणां करणादलङ्कृतम् । (जम्बूद्वी. व. अर्हन- १. अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरु- १-६)। तमा लोए। रजहता अरिहति य अरहंता तेण विविध स्वरविशेषोंके करनेसे जो अलकृतके समान उच्चंते ॥ हंता अरिं च जम्मं अरहंता तेण गाया जाता है उसे अलंकृत कहा जाता है । २ उपमा वच्चंति।। अरिहंति वंदण-णमंसणाणि अरिहंति आदि अलंकारों से युक्त होने के कारण जिनवचन पूय-सबकारं । अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण को अलंकृत–अलंकार गुण युक्त-माना जाता है। उच्चति ।। (मूला. ७-४ व ७,६४-६५)। २. घण- अलात-अलायं नाम उम्मुग्राहियं पंजर-(पज्ज.)घाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया । लियं । (दशवै. चू. पू. १५६)।। चोत्तीसातिसयजुदा अरिहंता एरिसा होति । (नि. उल्मक-अर्धदग्ध-जलते हुए काष्ठका नाम अलात सा. ७१) । ३. तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय है।
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प्रलाभ ]
लाभ - इच्छिदट्ठोवलद्धी लाहो णाम, तव्विवरीयो हो । ( धव. पु. १३, पृ. ३३४) । इच्छित पदार्थ की प्राप्तिरूप लाभ से विपरीत लाभ कहलाता है ।
लाभविजय- १. वायुवदसंगादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतै ककालसम्भोजनस्य वाचंयमस्य तत्समितस्य वा सकृत्स्वतनुदर्शनमात्रतंत्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषु भिक्षामनवाप्याऽप्यसंक्लिष्टचेतसो दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्य लाभादप्यलाभो मे परमं तप इति सन्तुष्टस्यालाभविजयोSवसेयः । ( स. सि. ६-६; त. वृत्ति श्रुत. ६-६) । २. श्रलाभेऽपि लाभवत्सन्तुष्टस्यालाभ विजय: । वायुवदनेकदेशचारिणः, अप्रकाशितवीर्यस्याभ्युपगतैककालभोजनस्य, सकृन्मूर्तिसंदर्शनव्रत कालस्य 'देहि’ इति श्रभ्यवाक्प्रयोगादुपरतस्य अनुपात्तविग्रहप्रति - क्रियस्य, अद्येदं श्वश्चेदम् इति व्यपेतसङ्कल्पस्य एकस्मिन् ग्रामे अलब्ध्वा ग्रामान्तरान्वेषणनिरुत्सुकस्य, पाणिपुटमात्र पात्रस्य, बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषु भिक्षामनवाप्याऽप्यसंक्लिष्टचेतसः, नायं दाता तत्रान्यो वदान्योऽस्तीति व्यपगतपरीक्षस्य, लाभादप्यलाभो मे परमं तपः इति सन्तुष्टस्य प्रलाभविजयोऽवसेयः । (त. वा. ६, ६, २० । ३. अलाभेSपि लाभालाभो मे परं तपोवृद्धिरिति संकल्पेनालाभपरीषहसहनम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६) । १ जो वायु के समान परिग्रह से रहित होकर अनेक देशों में गमन करता है, जिसने दिन में एक ही बार भोजन लेने का नियम स्वीकार किया है, जो मौन के साथ समितियों का पालन करता है, वचन से किसी प्रकारको याचना न करके जो केवल शरीर को दिखलाता है, हाथ ही जिसके पात्र हैं, तथा बहुत दिन व बहुत घरों में घूमकर भी भिक्षा के न प्राप्त होने पर संक्लेश से रहित होता हुआ लाभ से अलाभ को ही श्रेष्ठ समझ कर सन्तुष्ट रहता है, ऐसा साधु लाभविजयी होता है
लाभपरीषहजय - देखो लाभविजय | १. अलाभः अन्तरायकर्मोदयादाहाराद्यलाभकृतपीडा, [तस्य परिषह्नम् अलाभपरीषहजयो भवति ] । ( मूला. वृ. ५-५८ ) । २. प्रलाभस्तु याचिते सति प्रत्याख्यानं विद्यमानमविद्यमानं वा न ददाति यस्य स्वं तत्कदाचिद् वा दत्ते कदाचिन्न, कस्तत्रापरितोषो
१३३, जैन- लक्षणावली
[ लेश्य अलेस्सि
न यच्छति सति ? X XX लाभेऽपि समचेतसैव अविकृतस्वान्तेनैव भवितव्यमित्यलाभपरीषहजयः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-६ ) । ३. हं हो देह सहायतां नव समुद्दिश्यैव पोष्यो मया पूतौ मत्तपसो गृहावविमतो भ्रान्त्वाऽप्यनाप्तेऽशने । दोषः कोऽपि न विद्यते मम पुनर्लाभादला भक्षमा तां पूर्ति प्रतनोत्यतः प्रियतमैषैवेत्यलाभक्षमा || ( आचा. सा. ७–१४) । नानादेशविहारिणो विभवमपेक्ष्य बहुपूच्चनीचैर्गृहेषु भिक्षामनवाप्याऽप्यसंक्लिष्टचेतसो दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्य 'अलाभो मे परमं तपः' इत्येवमधिकगुणमलाभं मन्यमानस्य यदलाभपीडासहनं सोऽलाभपरीषह्जयः । (पंचसं. मलय. वृ. ४-२२) । ५. निःसंगो बहुदेशचार्य निलवन्मौनी विकायप्रतीकारोऽद्येदमिदं श्व इत्यविमृशन् ग्रामेऽस्तभिक्षः परे । बह्वोकस्वपि बह्वहं मम परं लाभादलाभस्तपः स्यादित्यात्त - धृतिः पुरो स्मरयति स्मार्तानलाभं सहन् । (अन. ध. ६- १०३ ) । ६. यो मुनिरङ्गीकृतैकबारनिर्दोषभोजनः चरण्युरिवानेकदेशचारी मौनवान् वाचंयमः समो वा सकृत् निजशरीरदर्शनमात्रतंत्रः करयुगलमात्राऽमत्र: बहुभिर्दिवसैरप्यनेकमन्दिरेषु भोजनमलब्ध्वापि अनार्त - रौद्रचेताः दात्र्यदातृपरीक्षणपराङ्मुखो लाभादलाभो वरं तपोवृद्धिहेतुः परमं तप इति सन्तुष्टचेताः भवति स मुनिरलाभविजयी वेदितव्यः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६ ) । देखो लाभविजय ।
अलीक - तत्रालीकं साधुमसाधुं ब्रवीति, असाधुं साधुमित्यादि । (बृहत्क. वृ. ७५३) । जो यथार्थ साधु को साधु श्रौर असाधु को साधु कहता है वह अलीकरूप असत् वचन का भाषी होता है । यह भाषाचपल के चार भेदों में श्रसत्प्रलापी नामक प्रथम भेद है ।
अलेवड - १. प्रलेवडं यच्च हस्ते न सज्जति । ( भ. प्रा. विजयो. २२० ) । २. प्रलेवडं हस्तालेपकारि मथितादिकम् (भ. प्रा. मूला. टी. २२० ) । जो हाथ में लिप्त न हो ऐसे छांछ श्रादि को प्रलेas प्रहार कहते हैं ।
लेश्य (लेस्सिन ) १. किव्हा इलेसरहिया संसारविणिग्गया अनंतसुहा । सिद्धिपुरीसंपत्ता प्रलेस्सिया ते मुणेयव्वा ( प्रा. पंचसं. १-१५३ ; धव. पु. १, पृ. ३६० उ. ) । २. षड्लेश्याऽतीता प्रलेश्याः (धव.
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अलोक, अलोकाकाश] १३४, जैन-लक्षणावली
[अल्पतरविभक्तिक पु. १, पृ. ३९०); लेस्साए कारणकम्माणं खए- आकाश है वह सब अलोकाकाश कहलाता है । णुप्पण्णजीवपरिणामो खइया लद्धी, तीए अलेस्सिपो अलोलुप--त्रिधाऽपि याचते किंचिद्यो न सांसारिक होदि । (धव. पु. ७, प. १०६)।
फलम् । ददानो योगिनां दानं भाषन्त तमलोलुपम् ।। १ कृष्णादि छहों लेश्याओं से रहित जीवों को- (अमित. श्रा. ६-८) । प्रयोगिकेदली और सिद्धों को-प्रलेश्य कहते हैं। जो किसी भी सांसारिक फल की मन, वचन और अलोक, अलोकाकाश-१. Xxx अागास- काय से याचना नहीं करता हा निष्काम भाव से मदो परमणंतं ।। (मूला. ८-२३)। २. लोयाया- योगी जनों को दान देता है वह दाता अलोलुप कहसट्राणं सर्यपहाणं सदव्वछक्कं हु। सव्वमलोयायासं लाता है। उसके इस गुण को अलौल्य गुण कहा तं सव्वासं [तस्सव्वासं] हवे णियमा। (ति. प. १, जाता है । १३५)। २. ततो (लोकाद्) बहिः सर्वतोऽनन्त- अलौल्य-अलौल्यं सांसारिकफलानपेक्षा । (सा. मलोकाकाशम् । (स. सि. ५-१२)। ३. बहिः सम- ध. स्वो. टी. ५-४७) । न्तादनन्तमलोकाकाशम्। (त. वा. ५, १२, १८)। देखो-अलोलप । ४. लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादिद्रव्याणि स अल्पतर-उदय-जमेण्हि पदेसग्गमुदिदं अणंतरलोकः, तद्विपरीतोऽलोकः । (धव. पु.४, पृ. ६;पु ११, उवरिमसमए तत्तो थोवदरे पदेसम्गे उदयमागदे पृ. २)। ५. सर्वतोऽनन्तविस्तारमनन्तं स्वप्रदेशकम्। एसो अप्पदरउदो णाम । (धव. पु. १५, पृ. ३२५)। द्रव्यान्तरविनिर्मक्तमलोकाकाशमिष्यते । (ह. पु. ४, वर्तमान समय में जो प्रदेशाग्र उदय को प्राप्त है १)। ६. यावति पुनराकाशे जीव-पुद्गलयोर्गति- उससे अव्यवहित आगे के समय में उसकी अपेक्षा स्थिती न सम्भवतो धर्माधमौं नावस्थितो, न कालो अल्पतर प्रदेशाग्र के उदय को प्राप्त होने पर वह दुर्ललितस्तावत्केवलमाकाशमात्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य अल्पतर उदय कहलाता है। सोऽलोकः । (प्रव. सा. अमृत. वृ. २-३६ । ७. शुद्ध- अल्पतर-उदीरणा-जानो एण्हि पयडीयो उदीकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः । (पंचा. का. अमृत. वृ. ८७) रेदि तत्तो अणंतरविदिक्कतसमए बहुदरियाप्रो उदी८.अलोक: केवलाकाशरूपः । (प्रौपपा. अभय.व. ३४, रेदि त्ति, एसा अप्पदर-उदीरणा। (धव. पु. १५, पृ. ७६) । ६. अलोकस्तु धर्मास्तिकायादिवियुक्तः । पृ. ५०)। (कर्मवि. ग. पू. व्या. १७, पृ. ११) । १०.xxx वर्तमान समय में जितनी प्रकृतियों की उदीरणा तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ (द्रव्यसं. २०)। ११. कर रहा है, अनन्तर अतिक्रान्त समय में उनसे जो तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिर्भागेऽनन्तमाकाशमलो- बहुतर प्रकृतियों की उदीरणा की जाती है, इसका कः । (बृ. द्रव्यसं. टी. २०)। १२. तस्माद् बहि- नाम अल्पतर उदीरणा है। र्भूतं शुद्धमाकाशमलोकः । (पंचा. का. जय. वृ.८७; अल्पतर बन्ध-१.xxxएगाईऊणगम्मि विप्रव. सा. जय. व. २-३६)। १३. लोक्यन्ते जीवा- इनो उ। (कर्मप्र. सत्ता. गा. ५२, पृ. ८४)। दयः पदार्थाः यत्राऽसौ लोकः,xxx तद्विपरीतो- २. यदा तु प्रभूताः प्रकृतीबंधनन् परिणामविशेषतः sलोकोऽनन्तमानावच्छिन्नशद्धाकाशरूपः (रत्नक. टी. स्तोका बद्धमारभते, यथाऽष्टौ बदध्वा सप्त वध्नाति, २-३)। १४.XXX सेसमलोयं हवेऽणतं (बृ. न. सप्त वा बद्ध्वा षट्, षड् वा बद्ध्वा एकाम्, च. ६६)। १५.XXX स्यादलोकस्ततो (लोकाद्) तदानीं स बन्धोऽल्पतरः । (कर्मप्र. मलय. वृ. सत्ता. ऽन्यथा ॥ सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैर- ५२) । ३. यत्र त्वष्टविधादिबहुबन्धको भूत्वा शेषतः । व्योममात्रावशेषत्वात् व्योमात्मा केवलं पुनरपि सप्तविधाद्यल्पतरबन्धको भवति स प्रथमभवेत् ।। (पंचाध्या. २, २२-२३)। १६.xxx समय एवाल्पतरबन्धः । (शतक. दे. स्वो. व. २२) । ऽलोकस्तेषां (धर्मादीनां) बियोगतः । निरवधिः १ अधिक कर्मप्रकृतियों को बांध करके जो फिर स्वयं तस्याऽवधित्वं तु निरर्थकम् ॥ (द्रव्यानु. त. परिणामविशेष से एक प्रादि से हीन कर्मप्रकृतियों का १०-६)।
बन्ध होता है, इसे अल्पतर बन्ध कहते हैं। १ लोक से बाहिर सब ओर जितना भी अनन्त अल्पतरविभक्तिक - प्रोसक्काविदे बहुदरामो
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अल्पतरसंक्रम]
१३५, जैन - लक्षणावली
[अवक्तव्य उदय
विरति और श्रविरति रूप से परिणत - देशव्रतों का पालन करने वाले श्रावक व श्राविकार्य श्रल्पसावद्यकर्मार्य कहलाते हैं ।
अल्पावग्रह
विहत्तीश्रो एसो अप्पदरविहत्तिश्रो । बहुदराम्रो विह- १ परस्पर एक-दूसरे को अपेक्षा होनाधिकता के तीनो अनन्तरव्यतिक्रान्ते समये बहुस्थितिविकल्पेषु बोध को अल्पबहुत्व कहते हैं । व्यवस्थितेषु, ग्रोसक्काविदे - वर्तमानसमये स्थिति- अल्पसावद्यकर्मार्य - अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः काण्डघातेन ग्रधःस्थितिगलनेन वा अपकर्षितेषु, एषः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् । (त. बा. अल्पतरविभक्तिकः । ( जयध. पु. ४, पृ. २) । ३, ३६, २) । व्यवहित प्रतीत समय में बहुत स्थितिविकल्पों के रहने पर फिर वर्तमान समय में स्थितिकाण्डकघात के द्वारा प्रथवा श्रधः स्थितिगलन के द्वारा उनका प्रपकर्षण होने पर वह अल्पतरविभक्तिक कहलाता है । अल्पतरसंक्रम- १. श्रोसक्का विदे बहुदरादो एहि पदराणि संकामेदित्ति एस अप्पदरो। एत्थ प्रोस काविद सद्दो प्रणंतरविदिक्कंतसमयवाचनोति घेत्तव । अथवा बहुदरादो पुव्विल्लसमयसंकमादो एहिमोसक्का विदे इदानीमपकर्षिते न्यूनीकृते अल्पतराणि स्पर्द्धकानि संक्रमयतोऽल्पतरसंक्रम इति सूत्रा - सम्बन्धः । ( जयध. ६, पृ. ६५-६६ ) । २. जे for अणुभाग फट्या संकामिज्जति ते जइ अणंतरविदिक्कते समए संकामिदफदए हितो बहुआ होंति तो एसो भुजगार संकमो । ग्रह जइ तत्तो थोवा होति तो एसो प्रप्पदरसंकमो । (धव. पु. १६, पृ. ३६८) ।
वर्तमान समय में जो अनुभाग के स्पर्धक संक्रमण को प्राप्त हो रहे हैं, वे यदि अनन्तर प्रतीत समय में संक्रामित स्पर्धकों की अपेक्षा श्रल्प होते हैं तो यह श्रल्पतरसंक्रम कहलाता है । अल्पबहुत्व -- १. अल्पबहुत्वम् अन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः । ( स. सि. १-८ ) । २. संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेऽपि श्रन्योन्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् श्रल्पबहुत्ववचनम् । संख्यातादिष्वन्यतमेन परिमाणेन निश्चितानामन्योन्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थ मल्पबहुत्ववचनं क्रियते – इमे एभ्योऽल्पा इमे बहव इति । (त. वा. १, ८, १० ) । ३. एतेऽल्पे बहवश्चैतेऽमीभ्यो
तिविविक्तये । कथ्यतेऽल्पबहुत्वं तत्संख्यातो भिन्नसंख्यया । (त. इलो. १, ८, ५७ ) । ४. संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेऽपि परस्परं विशेषप्रतिपत्तिनिमित्तमल्पबहुत्वम् । ( न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०३ ; त. सुखबो. १ - ८ ) । ५. अल्पबहुत्वं गत्यादिरूप - मार्गणास्थानादिषु जीवानां परस्परं स्तोक-भूयस्त्वम् । ( षडशीति मलय. वृ. २, पृ. १२२-२३) ।
अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततः शब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति । (त. वा. १, १६, १६) । श्रोत्रेन्द्रियावरण के प्रल्प क्षयोपशम से परिणत श्रात्मा जो तत वितत श्रादि शब्दों में किसी एक अल्प शब्द का अवग्रह करता है, यह श्रोत्रज अल्पअवग्रह कहलाता है ।
अल्पाहाराव मौदर्य - तत्राहारः पुंसो द्वात्रिंशत्क - वलप्रमाणः । कवलाष्टकाभ्यवहारोऽल्पाहारावमौदर्यम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ९ - १९ ) । पुरुष के ३२ ग्रास प्रमाण आहार में से प्राठ ग्रास मात्र आहार के ग्रहण करने को अल्पाहार-श्रवमौदर्य तप कहते हैं ।
अल्पाहारौनोदर्य - देखो अल्पाहारावमौदर्य । कवलाष्टकाभ्यवहारोऽल्पाहारोनोदर्यम् । (योगशा. स्वो विव. ४ - ८8 ) ।
आठ ग्रास आहार के ग्रहण करने को अल्पाहारौनीदर्य तप कहते हैं ।
प्रल्लीवरणबन्ध - देखो आलेपनबन्ध । १. जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्द सो-से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोबरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लीवणबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ४२ – पु. १४, पृ. ३६ ) । ३. लेवणविसेसेण जडिदाणं दव्वाणं जो बंधो सो अल्लीवणबंधो । ( धव. पु. १४, पृ. ३७) ।
कटक, भित्ति, गोबरपीढ, कोट, शाटिका ( साड़ी आदि वस्त्र ) तथा अन्य भी इसी प्रकार के पदार्थों का जो इतर पदार्थों से सम्बन्ध - एकरूपता - होती है, उसका नाम अल्लीवण या श्रालापनबन्ध है । अवक्तव्य उदय-- अनंतरादीदसमए उदएण विणा
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प्रवक्तव्य उदीरणा] १३६, जैन-लक्षणावली
[अवग्रह एण्हिमुदयमागदे एसो अवत्तव्वउदो णाम । (धव. अवगाढरुचि - आचारादिद्वादशाङ्गाभिनिविष्टपु. १५, पृ. ३२५)।
श्रद्धानोऽवगाढ़रुचिः (त. वा. ३, ३६, २)। अनन्तर अतीत समय में उदय के न होते हुए इस प्राचारादि द्वादशाङ्ग के अध्ययन द्वारा जो दृढ़ समय–वर्तमान समय में उदय को प्राप्त होना, श्रद्धान होता है उसे अवगाढरुचि या अवगाढसम्यइसका नाम प्रवक्तव्य उदय है।
क्त्व कहते हैं। प्रवक्तव्य उदोरणा-अणुदीरणाम्रो उदीरेंतस्य अवगाढसम्यक्त्व-१. अङ्गाङ्गबाह्यसद्भावभावअवक्तव्य-उदीरणा । (धव. पु. १५, पृ. ५१)। नातः समुद्गता । क्षीणमोहस्य या श्रद्धा सावगाडेति अनन्तर अतीत समय में उदीरणा से रहित होकर कथ्यते । (म. पु. ७४-४४८)। २, दृष्टि: साङ्गावर्तमान समय में उदीरणा करने वाले की इस उदी- ङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा । (प्रात्मानु. रणा को प्रवक्तव्य-उदीरणा कहा जाता है। १४) । ३. त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतोऽन्यतमदेशाप्रवक्तव्य द्रव्य-१. अत्यंतरभूएहिं य णियएहिं य वगाहालीढमवगाढम् । (उपासका. पू. ११४)। ४. दोहि समयमाईहिं । वयणविसेसाईयं दव्बमवत्तव्व- अवगाढा त्रिविधस्यागमस्य निःशेपतोऽन्यतमादेशावयं पडइ॥ (सन्मतिप्र. १-३६, प. ४४१-४२) । गाहालीढा । (अन. ध. स्वो. टी. २-६२)। ५. २. स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावैः परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव- अङ्गान्यङ्गबाह्यानि च शास्त्राण्यधीत्य यदुत्पद्यते श्च युगपदादिष्टमवक्तव्यं द्रव्यम् । (पञ्चा. का. सम्यक्त्वं तदवगाढम् । (द. प्रा. टी. १२) । अमृत. वृ. १४)।
देखो-अवगाढरुचि । २ स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और परकीय अवग्रह-१. विषय-विषयिसन्निपातसमयानन्तरद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव; दोनों के द्वारा एक साथ माद्यं ग्रहणम् अवग्रहः । (स. सि. १-१५; धव. पु. द्रव्य का कथन करने पर प्रवक्तव्य (स्यादवक्तव्यं १, पृ. ३५४ व ३७६; धव. पु. ६, पृ. १६; धव. द्रव्यम्) भङ्ग होता है।
पु. ६, पृ. १४४) । २. तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियप्रवक्तव्य बन्ध-यत्र तु सर्वथा अबन्धको भूत्वा विषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः। अवग्रहो ग्रहो पुनः प्रतिपत्य बन्धको भवति स आद्यसमयेऽवक्तव्य- ग्रहणमालोचनमवधारणं इत्यनर्थान्तरम् । (त. भा. वन्धः । (शतक. दे. स्वो. व. २२)।
१-१५; अने. ज. प. १८)। ३. विषय-विषयजहां जीव सर्वथा प्रबन्धक होकर परिणाम के वश सन्निपातसमनन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । विषय. नीचे गिरता हुआ फिर से बन्धक होता है वहां । विषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति, तदनन्तरमर्थस्य प्रथम समय में प्रवक्तव्य बन्ध होता है।
ग्रहणमवग्रहः । (त. वा. १, १५, १)। ४. अक्षार्थयोगे प्रवक्तव्यविभक्तिक-१.अविहत्तियादो विहत्तियानो सत्तालोकोऽर्थाका रविकल्पधीः । अवग्रहोXXX॥ एसो अवत्तव्ववित्तियो। (कसायपा. च. २३५, प. (लघीय. १-५)। ५. विषय-विषयिसन्निपातानन्तर१२३)। २. णिस्संतकम्मियो होदूण जदि स संतकम्मि- माद्यं ग्रहणं अवग्रहःXXX तदनन्तरभूतं सन्मात्र. ओ होदि तो अवत्तव्वविहत्तिो होदि, वडिढ-हाणि- दर्शनं स्वविषयव्यवस्थापन विकल्पमुत्तरपरिणाम अवट्ठाणाणमभावादो। (जयध. पु. ४, पृ. ३) । प्रतिपद्यतेऽवग्रहः । (लघीय. स्वो. वृ. १-५, पृ. २ यदि सत्कर्म से रहित होकर जीव फिर से सत्कर्म ११५-१६)। ६. मर्यादया सामान्यस्यानिर्देश्यस्य वाला होता है तो वह प्रवक्तव्य-विभक्तिक होता है। स्वरूप-नामादिकल्पनारहितस्य दर्शनमालोचनम् । प्रवक्तव्य संक्रम-प्रोसक्काविदे असं कमादो एग्हि तदेवाऽवधारणमालोचनावधारणम् । एतदवग्रहोऽभिसंकामेदि त्ति एस अवत्तव्वसंकमो। (कसायपा. धीयते, अवग्रहणमवग्रह इत्यन्वर्थयोगादिति । (त. चू. २६७, पृ. ३७४)।
हरि. वृ. १-१५) । ७. इह सामण्णस्स रूवादिअत्थअनन्तर अधस्तन समय में संक्रमण से रहित होकर स्स य विसेसनिरवेक्खस्स अणिद्दे सस्स अवग्रहणमवइस समय-वर्तमान समय में यदि संक्रमण ग्रहः । (नन्दी. चू. पृ. २५) । ८. विषय विषयिसंपाअवस्था से परिणत होता है तो उसका यह संक्रमण तानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । विसनो बाहिरो अट्ठो, प्रवक्तव्य संक्रमण कहलाता है।
विसई इंदियाणि, तेसि दोण्हं पि संपादो णाम णाण
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अवग्रहावरणीय] १३७, जैन-लक्षणावली
[अवमान जणणजोग्गावत्था, तदणंतरमप्पण्णं णाणमवग्गहो। अवधारण में जो उस सबको देखता है उसे प्रव(धव. पु. ६, पृ. १६); अवग्गहो णाम विषय-विसइ- धारवान् या अवधारणावान् कहते हैं। सण्णिवायाणंतरभावी पढमो बोधविसेसो । (धव. पु. अवधिमरण-१. अवधिर्मर्यादायाम, अवधिर्नाम ६, पृ. १८); विषय-विषयिसन्निपातानन्तरमाचं यानि द्रव्याणि साम्प्रतं प्रायुष्कत्वेन गृहीतानि पुनग्रहणमवग्रहः । (धव. पु.६, पृ. १४४ व पु. १३, पृ. रायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति, इत्यतोऽवधिमरणम् । २१६); अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः। (उत्तरा. चूणि ५, प. १२७-२८)। २. यो (धव. पु. १३, पृ. २४२)। ६. अक्षार्थयोगजात- यादृशं मरणं साम्प्रतमुपैति तादृगेव मरणं यदि वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् । जातं यद् वस्तुभेदस्य ग्रहणं भविष्यति तदवधिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. तदवग्रहः । (त. श्लो. १, १५, २) ।
२५; भा. प्रा. टी. ३२) । ३. अवधिर्मयादा, तेन ३ पदार्थ और उसे विषय करने वाली इन्द्रियों का मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनयोग्य देश में संयोग होने के अनन्तर उसका सामान्य तयाऽऽयु:कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्ताप्रतिभासरूप दर्शन होता है, उसके अनन्तर वस्तु न्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते । का जो प्रथम बोध होता है उसे अवग्रह कहते हैं। (समवा. अभय. वृ. १७, पृ. ३३)। ४. यादृशेन अवग्रहावरणीय-अवग्रहस्य यदावरकं कर्म तद- मरणेन पूर्वं मृतस्तादृशेनैव मरणमवधिमरणम् । (भ. वग्रहावरणीयम् । (धव. पु. १३, पृ. २१७' । प्रा. मूला. टी. २५)। ५. एतदुक्तं भवति-देशतः जो कर्म अवग्रहज्ञान को आच्छादित करता है उसे सर्वतो वा सादृश्येनावधीकृतेन विशेषितं मरणमवअवग्रहावरणीय कहते हैं।
धिमरणम् । (भा. प्रा. टी. ३२)। अवदान-अवदीयते खण्डयते परिच्छिते अन्येभ्यः २ जैसा मरण वर्तमान काल में प्राप्त होता है वैसा अर्थः अनेनेति अवदानम् । (धव. पु. १३, पृ. ही मरण यदि भविष्य काल में होने वाला है तो २४२)।
उसे अवधिमरण कहते हैं। ३ अवधि का अर्थ जिसके द्वारा विवक्षित पदार्थ अन्य पदार्थों से पृथक् मर्यादा है, उस अवधि से होने वाला मरण अवधिरूप में जाना जाता है उसका नाम अवदान है। यह मरण कहलाता है, अर्थात् नारक प्रादि भव के अवग्रहज्ञान का नामान्तर है ।
कारणभत जिन प्रायकर्मप्रदेशों का अनभव करके अवद्य- १. अवयं गह्यम् । (स. सि. ७-६) । २. मरता है उनका ही अनुभव करके यदि भविष्य में प्रवद्यं गह्यम, निन्द्यमिति यावत् । (त. सुखबो. मरेगा तो उसे अवधिमरण कहा जायगा।
अवनमन (ोरणद)-प्रोणदं अवनमनं भूमानिन्दित या गहित वस्तु को अवद्य कहते हैं। वासनमित्यर्थः। (धव. पु. १३, पृ. ८६)। अवधारण-अवधारणं दत्तावधानतया ग्रहणम् । भूमि स्थित होना-भूमि का स्पर्श कर अवनति (धर्मबि. मु. वृ. ३-६०)।
(नमस्कार) करना, यह अवनमन है। साबधानता से पदार्थ या सूत्रार्थ के ग्रहण करने को अवबद्ध-अवबद्धः परेभ्यो द्रव्यं गृहीत्वा मासअवधारण कहते हैं।
वर्षादिपर्यन्तं सेवां गतः । (प्रा. दि. पु. ७४) । अवधारणी भाषा-अवधार्यतेऽवगम्यतेऽर्थोऽनये- दूसरों से धन लेकर मास या वर्ष प्रादि नियत काल त्यवधारणी, अवबोधबीजभूता इत्यर्थः । भाष्यते तक सेवा के बन्धन में बंध जाने को अवबद्ध कहते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिसृज्यमान- हैं। ऐसा व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य होता है। द्रव्यसंहतिः। (प्रज्ञाप. मलय. व. ११-१६१)। अवमस्तकशयन-अवमस्तकशयनमधोमुखदानम् । पदार्थ का निश्चय करने वाली–ज्ञान की बीजभत (भ. प्रा. मूला. टी. २२५) । -भाषा को अवधारणी भाषा कहते हैं।
नीचे मुख करके सोने को अवमस्तकशयन कहते हैं । अवधारवान-वहारवमवहारे आलोयंतस्स तं अवमान-से कि तं प्रोमाणे ? जण्णं प्रोमिज्जइ । सव्वं ॥ (गु.गु. षट्. स्वो. वृ.७, पृ. २८)। तं जहा-हत्थेण वा दंडेण वा धनुक्केण वा जुगेण
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,जैन - लक्षणावली
श्रवमान ]
वा नालिश्राए वा श्रक्खेण वा मुसलेण वा XXX एएणं श्रवमाणपमाणेणं किं पद्मश्रणं एएणं ? श्रवमाणपमाणेणं खाय-चित्र- रइन- करकचिय- कड-पड-भित्तिपरिक्खेवसंसियाणं दव्वाणं श्रवमाणपमाणणिव्वित्ति. लक्खणं भवइ से तं श्रवमाणे । ( श्रनुयो १३२, पृ. १५४) । २. निर्वर्तनादिविभागेन क्षेत्रं येनावगाह्य मीयते तदवमानं दण्डादि । (त. वा. ३, ३८, ३) । ४. अवमीयते तथा अवस्थितमेव परिच्छिद्यतेऽनेनावमीयत इति वाऽवमानं । ( अनुयो हरि वृ. पृ. ७६) । ४. निर्वर्तनादिविभागेन क्षेत्रं येनावगाह्य मीयते तदवमानं दण्डादि । (त. सुखबो. ३ - ३८ ) । १ जिसके द्वारा प्रवमित किया जाता है - कुएं श्रादि का प्रमाण जाना जाता है-उसको प्रथवा जो कुछ ( कुवां प्रादि) जाना जाता है उसको भी अवमान प्रमाण कहा जाता है। इसके द्वारा खात ( खाई या
कुवां आदि), चित ( ( ईंट श्रादि), रचित ( प्रासादपीठ आदि), कचित ( करोत से चीरी गई लकड़ी श्रादि), चटाई, वस्त्र और भित्ति आदि को परिधि का प्रमाण जाना जाता है । श्रवमौदर्य- - १. बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पर्यादिश्राहारो । एगकवलादिहिं तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं । ( मुला. ५ - १५३ ) । २. संयमप्रजागर-दोषप्रशम-सन्तोष-स्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थं - मवमौदर्यम् । ( स. सि. ६-१६; त. वा. ६, १६, ३) । श्रवममित्यूननाम, अवममुदरमस्य (इति) अमोदरः, श्रवमोदरस्य भावः श्रवमौदर्यम् - न्यूनोद रता । ( त. भा. ९-१९ ) ।
श्रवलम्बनाकरण - परिभविश्राउउवरिमट्ठिदिदव्वस्स प्रोक्कड्डणाए हेट्ठा णिवदणमवलंबणाकरणं नाम (धव पु. १०, पृ. ३३० ) । १ पुरुष का जो बत्तीस ग्रास प्रमाण स्वाभाविक परभबिक श्रायु कर्म की उवरिम स्थिति के द्रव्य का श्राहार है, उसमें क्रमशः एक-दो प्रासादि कम करके श्रपकर्षण के वश नीचे गिरने का नाम अवलम्बनाएक ग्रास तक प्रहार के ग्रहण करने को श्रवमौदर्य करण हैं । तप कहते हैं । प्रवलम्ब ब्रह्मचारी1- १. अवलम्बब्रह्मचारिणः श्रवमौदर्यातिचार - मनसा बहुभोजनादरः, परं क्षुल्लक रूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । बहु भोजयामीति चिन्ता, भुङ्क्ष्व यावद् भवतस्तृप्ति- (चा. सा. पृ. २०; सा. ध. स्वो टी. ७-१९) । रिति वचनम्, भुक्तं मया बह्नित्युक्ते सम्यक् २. पूर्वं क्षुल्लकरूपेण समभ्यस्यागमं पुनः । गृहीतकृतमिति वा वचनं कण्ठदेशमुपस्पृश्य हस्तसंज्ञया गृहवासास्तेऽवलम्बब्रह्मचारिणः ॥ ( धर्मसं. श्री. प्रदर्शनं वमौदर्यातिचारः । (भ. श्री. विजयो. व मूला. टी. ४८७) ।
मन से अधिक भोजन में रुचि रखना, दूसरे को अधिक खिलाने की चिन्ता करना, 'जब तक तृप्ति न हो तब तक खाते रहो' इस प्रकार के वचन
१३८,
[ अवलोकन
कहना, 'मैंने बहुत खाया' इस प्रकार कहने पर 'बहुत अच्छा किया' इस प्रकार के अनुमोदनात्मक वचन कहना, गले का स्पर्श करके हाथ के संकेत से यह कहना कि श्राज तो कण्ठ पर्यन्त भोजन किया है; ये सब प्रवमौदर्यव्रत के प्रतिचार हैं- उसे मलिन करने वाले हैं । श्रवर्णवाद - १. गुणवत्सु महत्सु श्रसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः । ( स. सि. ६-१३) | २. श्रन्तःकलुषदोषादसद्द्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः । गुणवत्सु महत्सु स्वमतिकलुषदोषात् प्रसद्भूतमलोद्भावनमवर्णवाद इति वर्ण्यते । (त. वा. ६, १३, ७; त. श्लो. ६-१३) । ३. गुणवत्सु महत्सु चान्तःकालुष्य सद्भावादसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवदनमवर्णवाद: । (त. सुखबो. ६-१३ ) । ४. गुणवतां महतां प्रसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१३ ) ।
१ गुणी महा पुरुषों में जो दोष नहीं हैं, उनको अन्तरंग की कलुषता से प्रगट करने को प्रवर्णवाद कहते हैं ।
अवलम्बना- अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोत्पत्तये इत्यवग्रहः अवलम्बना । ( धव. पु. १३, पृ. २४२) । चूंकि श्रवग्रह मतिज्ञान अपनी उत्पत्ति में इन्द्रियादि का अवलम्बन लेता है, अतः उसका अवलम्बना यह दूसरा सार्थक नाम है ।
ε-२१) ।
गुरु के समीप क्षुल्लक वेष धारण करके परमागम का अभ्यास कर जो पीछे गृहवास को स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं । अवलोकन - अवलोकनं हरतां चौराणामपेक्षा बुद्धया
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अवश्यायचारण]
१३६, जैन-लक्षणावसी
[अवसंज्ञासंज्ञा
दर्शनम् । (प्रश्नध्या. वृ. प. १९३; श्राद्धगु. पृ. मरण कहा जाता है। १०)।
प्रवसन्नासन्निका-XXX अणताणतपरमाणुपरधन हरण करने वाले चोरों को अपेक्षाबुद्धि से समुदयसमागमेण विणा एक्किस्से प्रोसण्णासण्णियाए देखने का नाम अवलोकन है।
वि संभवाभावा। (धव. पु. ४, पृ. २३)। अवश्यायचारण-अवश्यायमाश्रित्य तदाश्रयजी- अनन्तानम्त परमाणों के समुदाय से जो स्कन्ध वानुपरोधेन यान्तोऽवश्यायचारणाः । (योगशा. स्वो. निर्मित होता है, उसका नाम प्रवसनासन्निका है। विव. १-६, पृ. ४१)।
अन्यत्र इसके उवसन्नासन्न और उत्संज्ञासंज्ञ प्रादि हिमकणों (प्रोसबिन्दुओं) का प्राश्रय लेकर चलते नामान्तर भी पाये जाते हैं। हुए भी तदाश्रित जीवों की विराधना नहीं करने अवसपिरणो-१. तैरेव (अनुभवादिभिरेव) अवसर्प. वाले साधुओं को अवश्यायचारण कहते हैं।
णशीला अवसर्पिणी। (स. सि. ३-२७; त. इलो. अवष्वष्करण-अवष्वष्कणं नाम विवक्षितविध्वंस- ३-२७)। २. अनुभवादिभिरवसर्पणशीला अबसपिनादिकालस्य ह्रासकरणम्, अर्वाकुकरणमित्यर्थः । णी। अनुभवादिभिः पूर्वोक्तरवसर्पणशीला हानिस्वा(बृहत्क. वृ. १६७५)।
भाविका अवसर्पिणी समा । (त. वा. ३, विवक्षित वस्तु के विध्वंसन आदि कालके ह्रास करने २७,४)। ३. जत्थ [बलाउ-उस्सेहाणं] हाणी होदि अर्थात् पहले करने या कम करने को अवष्वष्कण सो प्रोसप्पिणी। (धव. पु. ६, पृ. ११६%) जयध. कहते हैं।
१, पृ. ७४)। ४. अवसर्पति वस्तूनां शक्तिर्यत्र प्रवसन्न-१. जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारी क्रमेण सा । प्रोक्ताऽवसर्पिणी सार्थाxxxn(ह. ज्ञानाचरणभ्रष्ट: करणालसोऽवसन्नः । (चा. सा. प. पु. ७-५७)। ५. भूयबल-विहवसरीर-सरीरिहि, ६३)। २. ज्ञान-चारित्रहीनोऽवसन्नः स्यात् करणा- धम्मणाणगंभीरिमधीरहिं । पोहतएहि अवसप्पिणी लसः ।। (प्राचा. सा. ६-६१)। ३. अवसीदति (म. पु. पुष्प. २, पृ. २५)। ६. (प्रोसप्पिणीए) उस्सेसामाचार्यामित्यवसन्नः । (प्राव. ह. व. म. हे. टि. पृ. धाऽऽउ-बलाणं हाणी-वड्ढी य होति त्ति । (त्रि. सा. ८१) । ४. सामाचारीविषयेऽवसीदति प्रमाद्यति यः ७७६) । ७. अवसर्पति हीयमानाऽऽरकतया अवसर्पसोऽवसन्नः । (प्रव. सारो. व. १०६) । ५. अवसन्न यति वा ऽऽयुष्क-शरीरादिभावान् हापयतीति अवआवश्यकादिष्वनुद्यमः, क्षताचारः । (व्यव. भा. सर्पिणी । (स्थानांग अभय. वृ. १-५०; प्रव. सारो. मलय. वृ. ३-१६५, पृ. ३५)।
वृ. १०३३; जम्बूद्वी. वृ. २-१८)। ८. अवसर्पन्ति १ जिनवचन से अनभिज्ञ होकर जो साधु ज्ञान और क्रमेण हानिमुपपद्यन्ते शुभा भावा अस्यामित्यधसर्पिआचरण से भ्रष्ट होता हा इन्द्रियों के अधीन णी। (ज्योतिष्क. मलय. व. २-८३)। ६. उपभोहोता है उसे अवसन्न श्रमण कहा जाता है। गादिभिरवसर्पणशीला अवसर्पिणी। (त. सुखबो. ४ सामाचारी के विषय में प्रमादयुक्त साधु अवसन्न ३-२७)। १०. अवसर्पयति हानि नयति भोगादीन् कहलाता है।
इत्येवंशीलाऽवसपिणी । (त. वृत्ति श्रुत. ३-२७)। अवसन्नमरण (प्रोसरगमरण)-देखो अासन्न- ११. यस्यां सर्वे शुभा भावाः क्षीयन्तेऽनुक्षणं क्रमात् । मरण । निर्वाणमार्गप्रस्थितात् संयतसार्थाद्यो हीनः अशुभाश्च प्रवर्द्धन्ते सा भवत्यवसर्पिणी ॥ (लोकप्र. प्रच्युतः सोऽभिधीयत प्रोसण्ण इति, तस्य मरणं २६-४४) । ओसण्णमरणमिति । श्रोसण्णग्रहणेन पावस्था: स्व- १ जिस काल में जीवों के अनुभव, प्रायुप्रमाण और च्छन्दाः कुशीला: संसक्ताश्च गृह्यन्ते । तथा चोक्तम् शरीरादि क्रम से घटते जाते हैं उसे प्रवसपिणी -पासत्थो सच्छंदो कुसीलसंसत्त होति प्रोसण्णा। कहते हैं । जं सिद्धिपुत्थिदादो प्रोहीणा साधुसत्थादो ॥ (भ. प्रवसंज्ञासंज्ञा-देखो अवसन्नासन्निका। अनन्ताप्रा. विजयो. २५)।
नन्तसंख्यानपरमाणुसमुच्चयः । अवसंज्ञादिकासंज्ञा मोक्षमार्ग में गमन करते हुए साधुसमूहों से नो स्कन्धजातिस्तु जायते ।। (ह. पु. ७-३७)। हीन है उसे प्रवसन्न तथा उसके मरण को प्रवसन्न- अनन्तानन्तसंख्या वाले परमाणुओं के समुदाय को
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अवस्तोभन १४०, जैन-लक्षणाबली
[अवस्थितगुणकार अवसंज्ञासंज्ञा कहते हैं।
पु. ६, पृ. ८९)। २. दीक्षोपवासं कृत्वा पारणाअवस्तोभन-अवस्तोभनम् अनिष्टोपशान्तये निष्ठी- नन्तरमेकान्तरेण चरतां केनापि निमित्तेन षष्ठोपवनेन थुथुकरणम् । (बहत्क. व. १३०९)।
वासे जाते तेन विहरतामष्टमोपवायसंभवे तेनाचरअनिष्ट की उपशान्ति के लिये थूक करके थू-थू करने तामेवं दश-द्वादशादिक्रमेणाधो न निवर्तमानानां यावको अवस्तोभन कहते हैं।
ज्जीव येषां विहरणं तेऽवस्थितोग्रतपसः । (चा. सा. अवस्थान-पुविल्लट्ठिदिसंतसमाणट्ठिदीणं बंधण- पृ. ६८)। मवट्ठाणं णाम । (जयध. ४, पृ. १४१)।
१दीक्षा के लिये एक उपवास करके पश्चात् पारणा पूर्व के स्थितिसत्त्व के समान स्थितियों के बंधने का करता है, तत्पश्चात् एक दिन के अन्तर से उपवास नाम अवस्थान है।
करता हा किसी निमित्त से एक उपवास के स्थान अवस्थित-१. इतरोऽवधि: सम्यग्दर्शनादिगुणाव- पर षष्ठोपवास (दो उपवास) करने लगता है। स्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवाऽवतिष्ठते, फिर दो उपवासों से विहार करता हुया षष्ठोपवास न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत् ग्रा भवक्षयादा केवल- के स्थान में अष्टमोपवास करने लगता है। इस ज्ञानोत्पत्तेर्वा । (स. सि. १-२२; त. वा. १, २२, प्रकार दशम और द्वादशम श्रादि के क्रम से जो ४; त. सूखबो. १-२२; त. वृत्ति श्रुत. १-२२)। जीवन पर्यन्त इन उपवासों को बढ़ाता ही जाता है, २. अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न पीछे नहीं हटता है, वह अवस्थित-उग्रतप का धारक प्रतिपतत्या केवलप्राप्तेः, अवतिष्ठते आ भवक्षयाद्वा होता है। जात्यन्तरस्थायि भवति लिङ्गवत् । (त. भा. १-२३)।
अवस्थित-उदय-तत्तिये तत्तिये चेव पदेसग्गे उद३. जं प्रोहिणाणं उप्पज्जिय वड्ढि-हाणीहिं विणा
यमागदे अवट्ठिद-उदो णाम । (धव. पु. १५, पृ. दिणयरमंडलं व अवट्ठिदं होदूण अच्छदि जाव केवल
३२५)। णाणमुप्पण्णं ति तं अवट्ठिदं णाम । (धव. पु. १३,
अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में प. २६४)। ४. अवस्थितोऽवधिः शुद्धरवस्थानान्नि
यदि उतने ही प्रदेशाग्र का उदय होता है तो वह यम्यते । सर्वोऽङ्गिनां विरोधस्याप्यभावन्नानवस्थितेः ।।
अवस्थित-उदय कहलाता है। (त. श्लो. १, २२, १५)। ५. अवस्थितमिति---प्रव
अवस्थित-उदीरणा-दोसु वि समएसु तत्तिया तिष्ठते स्म अवस्थितम्, यया मात्रया उत्पन्नं तां मात्रां
चेव पयडीयो उदीरेंतस्स अवट्टिद-उदीरणा। (धव. न जहातीति यावत् । (त. भा. सिद्ध. व. १-२३)। ६. अवस्थितं यन्न प्रतिपतति आदित्यमण्डलवत् ।
पु. १५, पृ. ५०)।
अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में (कर्मस्तव गो. वृ. ९-१०)। ७. यद्धानि-वृद्धिभ्यां
यदि उतनी ही प्रकृतियों की उदारणा को जाती है विना सूर्यमण्डलवदेकप्रकारमेव अवतिष्ठते तदवस्थितम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२) ।
तो दह अवस्थित-उदीरणा कहलाती है। १ जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थान अवस्थित गुरगकार-XXXजं खेत्तोवमप्रगसे जिस परिमाण में उत्पन्न हया है उससे भव के णिजीवपमाणं होदि एसो परमोहीए दव-खेत्त-कालअन्त तक या केवलज्ञान की प्राप्ति होने तक न भावाणं सलागरासि त्ति पुध वेदब्बो । पुणो दो घटता है और न बढ़ता है, किन्तु उतने ही प्रमाण प्रावलियाए असखेज्जदिभागा समसंखा, ते वि पुध टूवे. रहता है उसे अवस्थित अवधि कहते हैं।
दव्वा । तत्थ दाहिणपासट्ठियस्स पडिगुणगा' रो अवट्टिदअवस्थित उग्रतप (अवटिदुग्गतव)-१. तत्थ गुणगारो त्ति दोण्णि णामाणि। (धव. पृ. ६, पृ. ४५)। दिक्खट्र मे गोववासं काऊण पारिय पूणो एक्कहंतरेण क्षेत्रोपम अग्नि जीवों के प्रमाण को परमावधि के गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो, पुणो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शलाका राशि मानतेण छट्ठोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। कर उसे अलग रखना चाहिये । पश्चात् समान संख्या एवं दसम-दुवालसादिक्कमेण हेढा ण पदंतो जाव वाले प्रावली के दो प्रसंख्यात भागों को भी अलग जीविदंत जो विहरदि अवठिदुग्गतवो णाम । (धव. रखना चाहिये। इनमें दाहिने पाश्र्व भाग में स्थित
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अवस्थित ज्योतिष्क |
राशि को अवथित गुणकार या प्रतिगुणकार कहा जाता है ।
१४१,
जैन - लक्षणावली
अवस्थित ( ज्योतिष्क ) -- ग्रवस्थिता इत्यविचारिणोऽवस्थित विमानप्रदेशा अवस्थितलेश्या प्रकाशा इत्यर्थः । सुखशीतोष्णरश्मयश्चेति । ( त. भा. ४, १६) ।
ढाई द्वीप के बाहिर स्थित सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषी देव चूंकि संचार से रहित हैं, श्रतएव वे अवस्थित कहे जाते हैं । उनके विमानों प्रदेश, वर्ण और प्रकाश भी स्थिर हैं । उक्त विमान सुखकर शीत व उष्ण किरणों से संयुक्त हैं ।
अवस्थित ( द्रव्य ) - १. इयत्ताव्यभिचारादवस्थितानि । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवर्तन्ते, ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । ( स. सि. ५ - ४ ) । २. इयत्तानतिवृत्तेरवस्थितानि । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवर्तन्ते ततोऽवस्थितानीत्युच्यन्ते । अथवा, धर्माधर्म-लोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वम्, अलोकाकाशस्य पुद्गलानां चानन्तप्रदेशत्वमित्येतदियत्त्वम् तस्यानतिवृत्तेः श्रवस्थितानीति व्यपदिइयन्ते । (त. वा. ५, ४, ३) । ३. इयत्तां नातिवर्त्तन्ते यतः षडिति जातुचित् । अवस्थितत्वमेतेषां कथयन्ति ततो जनाः ।। (त. सा. ३ - १५) | २ धर्मादिक छहों द्रव्य चूंकि कभी भी 'छह' इतनी संख्या का अतिक्रमण नहीं करते - सदा छह ही रहते हैं, होनाधिक नहीं; इसलिये वे अवस्थित कहे जाते हैं । अथवा धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव; ये समानरूप से असंख्यातप्रदेशी हैं तथा लोकाकाश और पुद्गल अनन्तप्रदेशी हैं, यह जो उनके प्रदेशों का नियत प्रमाण है उसका चूंकि वे द्रव्य कभी अतिक्रमण नहीं करते हैं; इसलिये वे अवस्थित कहे जाते हैं । अवस्थितबन्ध - - यत्र तु प्रथमसमये एकविधादिबन्धको भूत्वा द्वितीयसमयादिष्वपि तावन्मात्रमेव नाति सोऽवस्थितबन्धः । ( शतक. दे. स्वो. वृ. २२) ।
प्रथम समय में एकविध आदि जैसा बन्ध हो रहा था, द्वितीयादि समयों में भी यदि उतना ही बन्ध होता है तो वह अवस्थित बन्ध कहलाता है । अवस्थितविभक्तिक- १. श्रीसक्काविदे [ उस्स
[अवाय, अपाय
क्काविदेवा ] तत्तिया चेव विहत्तीओ एसो अवद्विदविहत्तियो । ( कसायपा. चू. २३४, पृ. १२३; जयध. पु. ४, पृ. २) । २. प्रसक्काविदे उस्सक्काविदे वा जदि तत्तिया तत्तियाश्रो चेव द्विदिबंधवसेण द्विदिविहत्ती होंति तो एसो श्रवद्विदवित्तिश्रो णाम । ( जयध. ४, पृ. २-३ ) । अपकर्षण करने पर यदि उतनी ही स्थितिविभक्तियां रहती हैं तो यह जीव अवस्थितविभक्तिक कहलाता है । अवस्थित संक्रम —जदि तत्तियो तत्तियो चेव दो विसमएस फयाणं संकमो होदि तो एसो प्रवट्टिदसंकमो । ( धव. पु. १६, पृ. ३६८ ) । यदि अनन्तर अतीत और वर्तमान दोनों ही समयों में उतना उतना मात्र ही स्पर्धकों का संक्रमण होता है तो इसे अवस्थित संक्रम जानना चाहिये । अवात्सल्य --- साधर्मिकस्य संघस्य पीडितस्य कुतश्चन । न कुर्याद् यत्समाधानं तदवात्सल्यमीरितम् । धर्मसं. श्री. ४ - ५१ ) ।
किसी भी कारण से पीड़ित साधर्मी जनके संघ का समाधान नहीं करना, इसे श्रवात्सल्य कहते हैं । अवान्तरसत्ता - १. अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । ( पञ्चा. का. अमृत वृ. ८) । २. प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्त रसत्ता, प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता । (नि. सा. वृ. ३४ ) । ३. अपि चावान्तरसत्ता सद्द्रव्यं सन् गुणश्च पर्यायः । संश्चोत्पादध्वंसौ सदिति धौव्यं किलेति विस्तार : || (पञ्चाध्यायी १ - २६६) ।
१. जो प्रतिनियत वस्तु में व्याप्त रहकर अपने स्वरूप के अस्तित्व की सूचना देती है उसे प्रवातरसत्ता कहते हैं ।
श्रवाय, पाय - १. अवायो, ववसाओ, बुद्धी, विणाणी [विण्णत्ती], आउंडी, पञ्चाउंडी । ( षट्खं. ५, ५, ३६ – पु. १३, पृ. २४३ ) । २. विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः । ( स. सि. १, १५ ) । ३. ववसायं च अवायं X XX ॥ (श्राव. नि. ३; विशेषा. १७८ ) । ४. तस्सावगमोऽवाओ । ( विशेषा. १७९ ) । ५. अवगमणमवाओ त्तिय प्रत्थावगमो तयं हवइ सव्वं । ( विशेषा. गा. ४०१) । ६. अवायो निश्चयः ॥ ( लघीय १-५); ईहित विशेषनिर्णयोऽवायः । ( लघीय. स्वो वृ.
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अवाय, अपाय] १४२, जैन-लक्षणावली
[अविग्रहगति १-५; प्र. न. त. २-६; प्र. मी. १, १, २८)। १, १, २८)। २२. ईहियपत्थस्स पुणो थाणू पुरि७. विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः। भाषादि- सो त्ति बहुवियप्पस्स । जो णिच्छयावबोधो सो हु विशेषनिर्ज्ञानात्तस्य याथात्म्येनावगमनमवायः दाक्षि. अवाप्रो वियाणाहि। (जं. दी. प. १३-५६) । णात्योऽयम्, युवा, गौर इति वा । (त. वा. १, १५, २३. तदनन्तर-(ईहानन्तर-) मपायो निश्चयः । ३); ८. प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽवायः । (प्राव. (कर्मवि. पू. व्या. १३, पृ.८%; व्यव. भा. वृ. १०, हरि. वृ. २, पृ. ६) । ६. ईहितस्यार्थस्य निश्चयो- २७६; गु. गु. ष. स्वो. वृ. ३७, पृ. ८६) । २४. ऽवायः। (धव. पु. १, पृ. ३५४); ईहितस्यार्थस्य पुरुष एवायमिति वस्त्वध्यवसायात्मको निश्चयोसन्देहापोहनमवायः। (धव. पु. ६, पृ. १७); ऽपायः । (कर्मस्तव गो. वृ. गा.६-१०, पृ. ८१) । ईहाणंतरकालभावी उप्पण्णसंदेहाभाबरूवो अवायो। २५. सद्भुतविशेषानुयायिलिङ्गदर्शनादसदभूतविशेष(धव. पु. ६, पृ. १८); ईहितस्यार्थस्य विशेष- प्रतिक्षेपेण सद्भुतविशेषावधारणमवायज्ञानम् । निर्ज्ञानाद् याथात्म्यावगमनमवायः । (धव. पु. ६, (धर्मसं. मलय.वृ. ४४); अवग्रहानन्तरमीहितस्यार्थपृ. १४४); स्वगतलिङ्गविज्ञानात् संशयनिराकरण- स्यावगमो निश्चयो यथा शाङ्क एवायं शब्दो न द्वारेणोत्पन्ननिर्णयोऽवायः । यथा उत्पतन-पक्षविक्षे- शाङ्ग इति अवायः । (धर्मसं. मलय. व. ८२३) पादिभिर्बलाकापंक्तिरेवेयं न पताकेति, वचनश्रवणतो २६. ईहितस्यार्थस्य निर्णयरूपो योऽध्यवसाय: दाक्षिणात्य एवायं नोदीच्य इति वा। (धव. पु. १३, सोऽपायः शाङ्क एवायं शार्क एवायमित्यादिरूपो पृ. २१८); अवेयते निश्चीयते मीमांस्यतेऽर्थोऽनेने- अवधारणात्मको निर्णयोऽवायः । (प्रज्ञाप. मलय. त्यवायः । (धव. पु. १३, पृ. २४३) । १०. ईहादो वृ. १५, २, २००)। २७. तस्यैव अवगृहीतस्य उवरिमं जाणं विचारफलप्पयं अवाओ। (जयध. पु. ईहितस्यार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः शाङ्ग १, पृ. ३३६) । ११. तस्यैव (ईहागृहीतार्थस्यैव) एवायं शाङ्ग एवायमित्यादिरूपोऽवधारणात्मकः प्रत्यनिर्णयोऽवायः । (त. श्लो. १, १५, ४)। १२. योऽवाय इत्यर्थः । (नन्दी. मलय. वृ. २६, पृ. १६८% भबितव्यताप्रत्ययरूपात् तदीहितविशेषनिश्चयो- आव. नि. मलय. व. २, पृ. २३) । २८. ईहितस्यैव ऽवायः। (प्रमाणप. पृ. ६८)। १३. ईहणकरणेण वस्तुनः स्थाणुरेवायं न पुरुष इति निश्चयात्मको जदा सुणिण्णो होदि सो अबायो दु। (गो. जी. बोधोऽपायः । (कर्मवि. परमा. व्या. १३, पृ. ६)। गा. ३०८)। १४. तत्त्वप्रतिपत्तिरवायः । (सिद्धिवि. २६. कुतश्चित्तद्गतोत्पतन-पक्षविक्षेपादिविशेषविज्ञावृ. २-६)। १५. तद्विषयस्य (ईहाविषयस्य) नाद् बलाकैवेयं न पताकेत्यवधारणं निश्चयोऽवायः । देवदत्त एवायमित्यवधारणावानध्यवसायोऽवायः । (त. सुखबो. १-१५)। ३०. ईहितस्यैव वस्तुनः (प्रमाणनि. पृ. २८)। १६. सापि (ईहापि) अवायो स्थाणुरेवायमित्यादिनिश्चयात्मको बोधविशेषोऽवाभवति-आकांक्षितविशेषनिश्चयो भवति । (न्यायकु. यः । (कर्मवि. दे. स्वो. व. गा. १३) । ३१. याथा१-५, पृ. ११६)। १७. प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयो- त्म्यावगमनं वस्तुस्वरूपनिर्धारणम् अवायः । (त. ऽवायः। (स्थानांग अभय. वृ. ३६४, पृ. २६६)। वृत्ति श्रुत. १-१५)। ३२. अथेहितस्य तस्येदमिद१८, पुरुष एवायमिति वस्त्वध्यवसायात्मको निश्चयो मेवेति निश्चयः । अवायोxxx॥ (लोकप्र. ३, पायः । (कर्मस्तव गो. वृ. ६-१०, पृ. ८१)। ७१२) । ३३. तत्तो सुणिण्णो खलु होदि अवानो १६. ईहितस्यार्थस्य भवितव्यतारूपस्य सन्देहापो- दु वत्थुजादाणं । (अंगप. २-६२)। हनमवायः भव्य एवायं नाभव्यः, भव्यत्वाविनाभावि- ७ भाषादिविशेष के ज्ञान से यथार्थरूप में जानना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरणानामुपलम्भात् । (मूला. व इसका नाम अवाय है। जैसे-यह दक्षिणी ही १२-१८७) । २०. ईहितार्थस्य लिङ्गः यस्तद्विशेष- है, युवक है, अथवा गौर है इत्यादि। कहीं-कहीं विनिश्चयः । अवायो लाट एवायमिति भाषादिभि- इसका उल्लेख अपाय शब्द से भी हया है। (देखो र्यथा ॥ (प्राचा. सा. ४-१४) । २१. ईहाक्रोडीकृते नं. २६ आदि)। वस्तुनि विशेषस्य 'शाङ्क एवायं शब्दो न शाङ्गः' अविग्रहगति-विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यर्थः । इत्येवंरूपस्यावधारणम् अवायः । (प्रमाणमी. स्वो. वृ. स यस्यां न विद्यतेऽसावविग्रहा गतिः। (स. सि.
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अविघुष्ट]
१४३, जैन-लक्षणावली
[अविपाकनिर्जरा
२-२७; त. वा. २-२७; त. श्लो. २-२७; त. पु. १३, पृ. २८६)। सुखबो. २-२७; त. वत्ति श्रुत. २-२७)। जिस वचन में वितथ-असत्यता नहीं होती, उसे विग्रह का अर्थ रुकावट या कुटिलता होता है, तद- अवितथ श्रुत कहते हैं। नसार जीव की जो गति वक्रता, कुटिलता या मोड़ अविद्या-१. अविद्या विपर्ययात्मिका सर्वभावेष्वसे रहित होती है उसे अविग्रहगति कहते हैं । अर्थात् नित्यानात्माशुचि-दुःखेषु नित्य-सात्मक शुचि-सुखाभिएक समय वाली ऋजगति या इषुगति का नाम मानरूपा । (त. वा. १, १, ४६)। २. नित्यअविग्रहगति है।
शुच्यात्मताख्याति रनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्याअविघुष्ट-विक्रोशनमिव यद्विस्वरं न भवति तद- तत्त्वधीविद्या योगाचार्यः प्रकीर्तिता ।। (ज्ञानसार विघुष्टम् । (जम्बूद्वी. वृ.१-६)।
१४-१) । ३. अविद्या विप्लवज्ञानम् । (सिद्धिवि. जो स्वर विक्रोश (चिल्लाहट) के समान विस्वर टी. पृ. ७४७)। ४. अविद्या कर्मकृतो बुद्धिविपर्यासः । (श्रवणकटु) न हो उसे अवघुष्ट कहते हैं । (प्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ५६)। ५. अनित्ये अविचार-(देखो अवीचार) यद् व्यञ्जनार्थ योगेषु चेतनात् जातिभिन्नमूर्तपुद्गलग्रहणोत्पन्ने परसंयोगे परावर्तविजितम् । चिन्तनं तदवीचारं स्मृतं सद्- या नित्यताख्यातिः सा अविद्या, अशुचिषु शरीरादिषु ध्यानकोविदः ।। (गुण. क्रमा. ७६, पृ. ४७; भाव- श्रवन्नवद्वार रन्ध्रेषु क्रुध्यस्वरूपावतरणनिमित्तेषु शुचिसं. वाम. ७१८) ।
ख्यातिः अनात्मसु पुद्गलादिषु आत्मताख्यातिः 'अहं जो ध्यान व्यञ्जन, अर्थ और योग के परिवर्तन से मन्ये' इति बुद्धिः इदं शरीरं मम अहमेवैतत् तस्य रहित होता है उसे अविचार या अवीचार कहते हैं। पुष्टौ पुष्टः इति ख्यातिः कथनं ज्ञानं तत्र रमणम्, अविचारभक्तप्रत्याख्यान-१. अविचारं वक्ष्य- इयमविद्या। (ज्ञानसार वृ. १४-१)। माणाहदिनानाप्रकाररहितम् ॥ (भ. प्रा. विजयो. अनित्य, अनात्म, अशुचि और दुःख रूप सब पदार्थों टी. ६५)। २. अविचारं परगणसंक्रमणलक्षणवि. में नित्य, सात्म, शचि और सुख रूप जो अभिमान चाररहितम् ।। (भ. प्रा. मूला. टी. ६५) । होता है। इस प्रकार की विपरीत बुद्धि को बौद्धपर गण या अन्य संघ में गमन का परित्याग कर मतानुसार अविद्या माना गया है। पाहार-पान के क्रमशः त्याग करने को अविचारभक्त- अविनेय--१. तत्त्वार्थश्रवण-ग्रहणाभ्यामसम्पादितप्रत्याख्यान कहते हैं।
गुणा अविनेयाः । (स. सि. ७-११)। २. तत्त्वार्थअविच्युति (अवायज्ञानभेद)-१. अवायज्ञाना- श्रवणग्रहणाभ्यामसम्पादितगुणा अविनेयाः। तत्त्वानन्तरमन्तमहतं यावत्तदुपयोगादविच्यवनमविच्यू. र्थोपदेश-श्रवण-ग्रहणाभ्यां विनीयन्ते पात्रीक्रियन्ते इति तिः। xxx अविच्युति-वासना-स्मृतयश्च धरण- विनेयाः, न विनेयाः अविनेयाः (त. वा. ७, ११, लक्षणसामान्यान्वर्थयोगाद्धारणेति व्यपदिश्यते । (धर्म- ८; त. श्लो.७-११)। ३. अविनेया नाम मृत्पिण्डसं. मलय. वृ. ४४); अवग्रहादिक्रमेण निश्चितार्थ- काष्ठ-कुड्यभूता ग्रहण-धारण-विज्ञानोहापोहवियूक्ता विषये तदुपयोगादभ्रंशोऽविच्युतिः। (धर्मसं. मलय. महामोहाभिभूता दुष्टावग्राहिताश्च । (त. भा. ७-६)। वृ. ८२३)। २. तत्रैकार्थोपयोगसातत्यानिवृत्तिर. ४. तत्त्वार्थोपदेश श्रवण-ग्रहणाभ्यां विनीयन्ते पात्रीविच्युतिः । (जैनतर्क. पृ. ११६) ।
क्रियन्ते इति विनेयाः, न विनेया अविनेयाः । (त. अवायज्ञान के पश्चात् अन्तर्मुहर्त तक निश्चय किये सुखबो. व. ७-११)। ५. तत्त्वार्थाकर्णन-स्वीकरणागये पदार्थ के उपयोग से च्यत नहीं होने को अर्थात भ्यामृते अनुत्पन्नसम्यक्त्वादिगुणा न विनेतुं शिक्षउसको धारणा बनी रहने को अविच्युति कहते हैं। यितुं शक्यन्ते ये ते अविनेयाः । (त. वृत्ति श्रुत. अविच्यति, वासना और स्मृति ये तीन धरण ७-११) । सामान्य स्वरूप अन्वर्थक सम्बन्ध से धारणा कहे १ तत्त्वार्थ के श्रवण और ग्रहण के द्वरा विनीतता जाते हैं।
प्रादि सदगणों को न प्राप्त करने वाले अविनेय कहे अवितथ श्रुत-वितथमसत्यम्, न विद्यते वितथं जाते हैं। यस्मिन् श्रुतज्ञाने तदवितथम्, तथ्यमित्यर्थः । (धव. अविपाकनिर्जरा-१. यत्कर्म अप्राप्तविपाककालं
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अविपाकनिर्जरा]
१४४, जैन-लक्षणावली
[अविरतसम्यग्दृष्टि
औपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यात् अनुदीर्णं बलादुदीर्य दोत्ति वा वीरियपरमाणु त्ति वा भावपरमाणु उदयावलि प्रवेश्य वेद्यते पाम्र-पनसादिपाकवत् सा त्ति वा एगट्टा । (कर्मप्र. चू. १-५, पृ. अविपाकजा निर्जरा। (स. सि. ८-२३; त. भा. २३); अविभागपलिच्छेदपरूवणा णाम सरीरहरि. वृ.८-२४; त. वा. ८, २३, २; त. भा. पदेसाण गुणिग्गं चुण्णितं चुण्णितं विभज्जंतं जं सिद्ध. वृ. ८-२४; त. सुखबो. वृ. ८-२३)। विभागं ण देति सो अविभागपलिच्छेयो बच्चति । २. यत्तूपायविपाच्यं तदाऽऽम्रादिफलपाकवत् । अनु- कर्मप्र. चू. बं. क. गा. ५, पृ. २४)। २. एक्कदीर्णमुदीर्याऽऽशुनिर्जरा त्वविपाकजा ॥ (ह. पु. ५८, म्हि परमाणुम्मि जो जहण्णेणऽवढिदो अणुभागो २६५)। ३. अनुदीर्णं तपःशक्त्या यत्रोदीर्योदयाव- तस्स अविभागपडिच्छेदो त्ति सण्णा। (धव. पु. १२, लीम् । प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविषाकजा ॥ पृ. ६२); एगपरमाणुम्मि जा जहणिया बड्ढी सो (त. सा. ७-४) । ४. xxx अविपक्क उवाय- अविभागपडिच्छेदो णाम । तेण पमाणेण परमाणूणं खवणयादो।। (बृ. न. च. १५८)। ५. तपसा जहण्णगुणे उक्कस्सगुणे वा छिज्जमाणे अणंताविभागनिर्जरा या तु सा चोपक्रमनिर्जरा। (चन्द्र. च. १८, पलिच्छेदा सव्वजीवहिं अणंतगुणमेत्ता होंति । (धव. ११०)। ६. विधीयते या (निर्जरा) तपसा मही- पु. १४, पृ. ४३१) । ३. यस्यांशस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन यसा विशेषणी सा परकर्मवारिणी ।। (अमित. श्रा. विभागः कर्तुं न शक्यते सोंऽशोऽविभाग उच्यते । कि३-६५) । ७. द्वितीया निर्जरा भवेत् अविपाकजाता मुक्तं भवति ? इह जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदनऽनुभवमन्तरेणैकहेलया कारणवशात् कर्मविनाशः। केन छिद्यमानं छिद्यमानं यदा विभागं न प्रयच्छति (मूला. वृ. ५-४८)। ८. परिणामविशेषोत्थाप्रा- तदा सोऽन्तिमोऽशोऽविभाग इति । (कर्मप्र. मलय. प्तकालाऽविपाकजा। (प्राचा. सा. ३-३४)। ६. व. १-५, पृ. २४) । यत्कर्म बलादुदयावली प्रवेश्यानुभूयते प्रामादिवत् १ सयोगी जीव के वीर्यगुण के बुद्धि से तब तक छेद सेतरा। (अन. ध. स्वो. टी. २-४३) । १०. उप- किये जावें, जब तक कि उससे आगे और कोई क्रमेण दत्तफलानां कर्मणां गलनमविपाकजा। (भ. विभाग उत्पन्न न हो सके। ऐसे अन्तिम अविभागी प्रा. मूला. टी. १८४७) । ११. यच्च कर्म विपाक- अंश को अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। इसी को कालमप्राप्तमनुदीर्ण मुदयमनागतम् उपक्रमक्रियावि- वीर्यपरमाणु अथवा भावपरमाणु भी कहा जाता है। शेषबलादुदी उदयमानीय प्रास्वाद्यते सहकारफल- २ एक परमाणु में जो जघन्य अनुभाग की वृद्धि होती कदलीफल-कण्टकिफलादिपाकवत् बलाद् विपाच्य है उसका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। भज्यते सा अविपाकनिर्जरा कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. अविरतसम्यग्दृष्टि-१. णो इंदिएसु विरदो णो ८-२३)। १२. अविपाकनिर्जरा तपसा क्रियमाणा- जीवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माऽनशनादि-द्वादशप्रकारेण विधीथमाना। यथा अप- इट्टी अविरदो सो ।। (प्रा. पंचसं. १-११, धव. पु. क्वानां कदलीफलानां हठात् पाचनं विधीयते तथा १, पृ. १७३ उ; गो. जी. २६% भावसं. दे. २६१)। अनुदयप्राप्तानां कर्मणां तपश्चरणादिना त्रिद्रव्यनिक्षे. २. स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपेण कर्मनिषेकाणां गालनम् । (कार्तिके. टी. १०४)। परमात्मद्रव्यमुपादेयम् । इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि १ जिस कर्मका उदयकाल अभी प्राप्त नहीं हरा है, हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीत-निश्चय-व्यवहारनयसाध्यसाउसे तपश्चरणादिरूप औपक्रमिक क्रियाविशेष के धकभावेन मन्यते, परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशसामर्थ्य से बलपूर्वक उदयावली में प्रवेश कराके क्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृअाम्रादि फलों के पाक के समान वेदन करने को हीततस्करवदात्मनिन्दादिसहितः सन्निन्द्रियसुखमनुअविपाकनिर्जरा कहते हैं।
भवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । (बृ. व्यसं. १३, अविभागप्रतिच्छेद-१. अविभागपलिच्छेप्रो णाम पृ. २८) । ३. विरमति स्म सावद्ययोगेभ्यो निवर्तते नत्थि विभागो जस्स सो अविभागपलिच्छेप्रो, सजो- स्मेति विरत:, XXX न विरतोऽविरतः, यद्वा गिस्स करणवीरियं बुद्धीए छिज्जमाणं २ जाहे । क्लीबभावे क्त-प्रत्यये विरमणं विरतम, सावद्ययोगविभाग णो हव्वमागच्छति ताहे अविभागपलिच्छे- प्रत्याख्यानम्, नास्य विरतमस्तीत्यविरतः, स चासौ
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अविरति ]
४. तिविहे वि
विरइ कम्म
सम्यग्दृष्टिश्चेति प्रविरतसम्यग्दृष्टिः । ( पंचसं मलय. वृ. १-१५, पृ. २० ) । हु सम्मत्ते थेवा विन जस्स वसा । सो प्रविरम्रो त्ति भन्नइ X X X ( शतक. भा ८६, पृ. २१; गु. गु. षट्. स्वो वृ. १८ ) । ६. अविरत सम्यग्दृष्टि र प्रत्याख्यान कोदये । (योगशा. स्वो विव. १ - १६ ) । ७. सम्यक्त्वे सति विरतिर्यत्र स्तोकाऽपि नो भवेत् । सोऽत्राविरतिसम्यक्त्वगुणस्तुर्यो निगद्यते । (सं. कर्मप्रकृतिवि. ६ ) । ८. द्वितीयानां कषायाणामुदयाद् व्रतवर्जितम् । सम्यक्त्वं केवलं यत्र तच्चतुर्थं गुणास्पदम् ।। ( गुण. क्रमा. १६, पृ. १२) । ८. सावद्ययोगविरतो यः स्यात् सम्यक्त्ववानपि । गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टयाख्यमस्य तत् ॥ ( लोकप्र. ३ - ११५७ ) ।
१ जो इन्द्रियविषयों से विरत नहीं है, त्रस व स्थावर जीवों का रक्षण भी नहीं करता है, किन्तु जिणवाणी पर श्रद्धा रखता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती -- कहा जाता है । श्रविरति - १. विरमणं विरतिः, न विद्यते विरतिरस्येत्यविरतिः, अथवा अविरमणमविरतिरसंयम इत्यनर्थभेदः, तद्धेतुत्वादविरतिरस्येत्यविरतिर्लोभ परिणामः सर्वेषामेव हिंसानामविरमणभेदानां लोभः । ( जयध. प. ७७७ ) । २. अविरतिस्तु सावद्ययोगानिवृत्तिः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ७४०, पृ. २७६; विशेषा. भा. वृ. गा. ७४०. पृ. ६३४; श्राव. मलय. वृ. ७४०, पृ. ३६५ ) । ३. अविरतिः सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावः । ( षडशीति मलय वृ. ७४) । ४. अभ्यन्तरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपरमसुखामृत रतिविलक्षणा, बहिविषये पुनरव्रतरूपा चेत्यविरतिः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३०, पृ. ७६ ) । ५. निविकारस्वसंवित्तिविपरीतव्रतपरिणामविकारोऽविरतिः । ( समयप्रा. जय. वृ. ६५ ) ।
१ हिंसादि पापों से विरत होने का नाम विरति है । ऐसी विरति के प्रभाव को श्रविरति कहते हैं । प्रविरति और संयम ये समानार्थक शब्द हैं । इस श्रविरति का प्रमुख कारण लोभ है, अतः उस लोभ परिणाम को भी अविरति कहा जाता है । श्रविराधना -- विराधना अपराधासेवनम् तन्निबेधादविराधना | ( षोडशक वृ. १३-१४ ) ।
ल. १६
[अव्यक्त दोष
अपराध के सेवन का नाम विराधना है, उससे विपरीत प्रविराधना जानना चाहिये । तात्पर्य यह कि धारण किये हुए सम्यक्त्व, व्रत या चारित्र की विराधना या प्रासादना नहीं करने को प्रविराधना कहते हैं ।
प्रविरुद्धानुपलब्धि - १. श्रविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिपंवे सप्तधा-स्वभाव व्यापक-कार्य-कारण-पूर्वोत्तरसहचरानुपलम्भभेदात् । ( परीक्षा. ३-७८ ) । २. अविरुद्धस्य प्रतिषेध्येनार्थेन सह विरोधमप्राप्तस्य वस्तुनोऽनुपलब्धिरविरुद्धानुपलब्धिः । (स्याद्वा. र. २ - ८६ ) ।
२ प्रतिषेध्य पदार्थ के साथ विरोध को नहीं प्राप्त होने वाली वस्तु की अनुपलब्धि को श्रविरुद्धानुपलब्धि कहते हैं ।
विसंवाद - १. श्रुतेः प्रमाणान्तराबाधनं पूर्वापराविरोधश्च अविसंवाद: । (लघीय. स्वो वृ. ५-४२) । २. विसंवादो हि गृहीतेऽर्थे प्राप्तिः प्रमाणान्तरवृत्तिर्वा स्यात् । ( न्यायकु . ३ -१०, पृ. ४१० ) । किसी दूसरे प्रमाण से बाधा न पहुंचना और पूर्वापर विरोध की सम्भावना न रहना, यह श्रागमविषयक श्रविसंवाद है । प्रवेक्षा - प्रवेक्षा जन्तवः सन्ति न सन्तीति वा चक्षुषा अवलोकनम् । ( सा. ध. स्वो टी. ५-४० ) । यहां पर जीव हैं या नहीं हैं, इस प्रकार श्रांख से देखने को अवेक्षा या श्रवेक्षण कहते हैं । श्रवैशद्य - १. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् ।। (लघीय. ४) । २. अस्मात् ( वैशद्यात् ) परम् अन्यथाभूतं यद् विशेषाऽप्रतिभासनं तद् बुद्धेः अवैशद्यम् । ( न्यायकु. १-४, पृ. ७४) ।
१. अनुमान आदि की अपेक्षा अधिक अर्थात् वर्ण व श्राकार आदि की विशेषता के साथ जो पदार्थ का ग्रहण होता है, यह वैशद्य का स्वरूप है । इससे विपरीत का नाम श्रवैशद्य है ।
अव्यक्त दोष - १. आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मए त्ति जाणादि । बालस्सालोचेतो णवमो प्रालोचणादोसो || ( भ. प्रा. ५६६ ) । २. अस्यापराधेन ममातिचारः समानस्तमयमेव वेत्ति । ग्रस्मै यद्दत्तं तदेव मे युक्तं लघूकर्तव्यमिति स्वदुश्चरितसंवरणं
१४५, जैन - लक्षणावली
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श्रव्यक्त दोष ]
दशमो दोषः (त. वा. ६, २२, २) । ३. परगृहीतस्यैव प्रायश्चित्तस्याऽनुमतेन स्वदुश्चरितसंवरणं ( दशमो दोषः) । (त. श्लो. - २२ ) । ४. यत्किचित्प्रयोजनमुद्दिश्यात्मना समानायैव प्रमादाचरितमावेद्य महदपि गृहीतं प्रायश्चित्तं न फलकरमिति नवमोऽव्यक्तदोषः । (चा. सा. पृ. ६१-६२ ) । ५. स्वसमानज्ञान- तपोबालस्यालोचनं भवेत् । अव्यक्तं ह्री- भयप्रायश्चित्तभीत्या दिहेतुत: । ( श्राचा. सा. ६-३६) । ६. अव्यक्तः प्रायश्चित्ताद्यकुशलो यस्तस्यात्मीयं दोषं कथयति यो लघुप्रायश्चित्तनिमित्तं तस्याव्यक्तनाम नवमम् । (मूला. वृ. ११-१५ ) ७. अव्यक्तोऽगीतार्थः तस्याव्यक्तस्य गुरोः पुरतो यदपराधालोचनं तदव्यक्तमेव नवमः ( श्रव्यक्तः ) प्रालोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३४२, पृ. १६ ) । ८. अव्यक्तं प्रकाशयति दोषम्, स्फुटं न कथयतीत्यव्यक्तदोषः । ( भावप्रा. टी. ११८ ) । १ मैंने मन, वचन और काय से स्वयं किये गये, कराये गये व श्रनुमत इस सब दोष की आलोचना कर ली है; सो यह जानता है। इस प्रकार ज्ञानबाल या चारित्रबाल के पास श्रालोचना करना, यह श्रीलोचना का श्रव्यक्त नामका दोष है । २ मेरा अपराध इसके अपराधके समान है, उसे यही जानता है । इसे जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिये योग्य है, इस प्रकार अपने अपराध को प्रगट न करना, इसे प्रालोचना का श्रव्यक्त नामक दोष कहा जाता है । आलोचना के दस दोषों में इसका कहीं नौवें और कहीं दसवें भेद रूप में उल्लेख हुआ है।
श्रव्यक्तबालमरण – १. अव्यक्तः शिशुर्धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति, न च तदाचरणसमर्थशरीरः सोऽव्यक्तबालः, तस्य मरणमव्यक्त बालमरणम् । (भ. प्रा. टी. २५) । २. धर्मार्थ कामकार्याणि न वेत्ति न तदाचरणसमर्थशरीरोऽव्यक्तवालः । [तस्य मरणमव्यक्त बालमरणम् । ] ( भावप्रा श्रुत. टी. ३२ ) । जो धर्म, अर्थ और कामरूप कार्यों को न जानता है और न जिसका शरीर उसके श्राचरण करने में समर्थ है; उसे अव्यक्त बाल कहते हैं। ऐसे व्यक्ति के मरण को व्यक्तवालमरण कहते हैं । अव्यक्तमन - कार्ये कारणोपचाराच्चिन्ता मनः, व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं
१४६, जैन-लक्षणावली
[ व्याघात
मनः येषां ते व्यक्तमनसः । नि व्यक्तमनसः श्रव्यक्तमनस: ।] ( धव. पु. १३, पृ. ३३७ ) । कार्य में कारण का उपचार करके यहां मन शब्द से चिन्ता का अभिप्राय लिया गया है। जिनका मन व्यक्त नहीं है. श्रर्थात् संशय, विपर्यय व श्रनध्यवसाय से रहित नहीं है उन्हें अव्यक्तमन कहा जाता है। ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान ऐसे श्रव्यक्तमन जीवों की संज्ञा श्रादि को नहीं जानता है । अव्यक्तमिथ्यात्व — ग्रव्यक्तं मोहलक्षणम् । ( गुण. *मा. ६, पृ. ३) ।
मोहस्वरूप मिथ्यात्व को श्रव्यक्तमिथ्यात्व कहते हैं । अव्यक्तेश्वर दोष यदाऽव्यक्तेश्वरेण वारितं गृह्णाति तदाऽव्यक्तेश्वरो नाम । (अन. घ. स्वो. टी. ५-१५) ।
जिस दान का स्वामी कोई अव्यक्त - श्रप्रेक्षापूर्वकारी या बालक - हो, उसके द्वारा वर्जित श्राहारादि के ग्रहण करने पर श्रव्यक्तेश्वर नाम का निषिद्ध उद्गम दोष होता है ।
अव्यय - श्रव्ययो लब्धानन्तचतुष्टयस्वरूपादप्रच्युतः । ( समाधिशतक ६) ।
अनन्त चतुष्टयरूप स्वरूप के प्राप्त करने पर जो फिर उससे च्युत नहीं होता है उसे श्रव्यय कहते हैं ।
अव्याकृता ( भाषा) 1- १. अव्याकृता चैत्र अस्पष्टाप्रकटार्था । ( दशवं. हरि. वृ. नि. ७-२७७; श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८० ) । २. श्रव्याकृता प्रतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११ - १६६ ) । ३. गंभीर महत्था श्रवोअडा ग्रहव अव्वत्ता । ( भाषार. ७६ ) ; प्रतिगम्भीगे दुर्ज्ञान [त ] तात्पर्यो महान् ग्रर्थो यस्याः साऽव्याकृता भवति । अथवा बालादीनामव्यक्ता भाषाऽव्याकृता भवति । ( भाषार. टी. ७६ ) ।
३ जिसका अर्थ कठिनता से जाना जाता है ऐसी भाषा को व्याकृता कहते हैं । अथवा बालक श्रादि की अव्यक्त भाषा को श्रव्याकृता जानना चाहिये ।
व्याघात -- १. न विद्यते प्रत्ययान्तरेण व्याघातो बाधास्येत्यव्याघातम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. २१०४) । २. नास्ति प्रत्ययान्तरेण व्याघातो निखिलद्रव्य पर्यायसाक्षात्कारप्रतिबन्धो यस्य तदव्याघातम् । ( भ. प्रा. मूला. टी. २१०४) ।
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अव्याप्त, अव्याप्ति] १४७, जैन-लक्षणावली
[अशरणानुप्रेक्षा अन्य किसी भी कारण के द्वारा बाधा जिसके विवक्षित अर्थ की सम्यक सिद्धि होने तक निरन्तर सम्भव नहीं है उसे अव्याघात कहते हैं।
स्वरूप से वचनों का प्रयोग करने को अव्युच्छेदित्व अव्याप्त, अव्याप्ति-१. लक्ष्यैकदेशवर्तित्वमव्या- कहते हैं। यह ३५ सत्यवचनातिशयों में अन्तिम है। प्ति: कीर्तिता बुधैः । यथा जीवस्य देहत्वमसिद्धं पर- अव्युत्पन्न-१. गृहीतोऽगृहीतोऽपि वार्थो यथावदनिमात्मनि ।। (मोक्षपं. १६) । २. लक्ष्यैकदेशवृत्त्याव्या- श्चितस्वरूपोऽव्युत्पन्नः। (प्र. क. मा. ३-२१, पृ. प्तम् । यथा गोः शावलेयत्वम् । (न्यायदी. पृ. ७)। ३६६)। २. अव्युत्पन्नं तु नाम-जाति-संख्यादि२ जो लक्षण लक्ष्य के एक देश में रहे उसे अव्याप्त विशेषापरिज्ञानेनानिर्णीतविषयानध्यवसायग्राह्यम् । -अव्याप्ति दोष से दूषित-कहा जाता है। (प्र. र. मा. ३-२१)। अव्याबाध-न विद्यते विविधा कामादिजनिता १ गृहीत अथवा अगृहीत पदार्थ का जब तक यथार्थ पा समन्ताद् बाधा दुःखं येषां ते अव्याबाधाः । (त. स्वरूप निश्चित नहीं हो जाता, तब तक उसे अव्यवृत्ति श्रुत. ४-२५)।
त्पन्न कहा जाता है। जिनके काम-विकारादि जनित बाधाएँ नहीं होती अशबल-निरतिचारत्वादशबलः । (त. भा. सिद्ध. ऐसे लौकान्तिक देव अव्याबाध नाम से कहे जाते हैं। वृ. 8-४६, पृ. २८६)। अव्याबाध सुख--१. अणुवमममेयमक्खयममलम- अतिचार से रहित स्नातक मुनि को अशबल कहा जरमरुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंतियमव्याबाधं जाता है । यह स्नातक के पांच भेदों में दूसरा है। सुहमजेयं । (भ. प्रा. २१५३) । २. सहजशद्धस्वरू- अशबलाचार-अभ्याहृतादिपरिहारी अशबलापानुभवसमुत्पन्नरागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदे- चारः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. ३५) । कदेशसंवेदनं कृतं पूर्व तस्यैव फलभूतमव्याबाधमन- अभ्याहृत प्रादि दोषों का परिहार करने वाले साधु न्तसुखं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. १४)। ३. वेदनीयकर्मो- के चारित्र को अशबलाचार कहते हैं। दयजनितसमस्तबाधारहितत्वादव्याबाधगुणश्चेति । अशब्दलिंगज श्रुत-धूमलिंगादो जलणावगमो (परमात्मप्र. टी. ६१)।
असलिंगजो। (धव. पु. १३, पृ. २४५)। १ अनुपम, अपरिमित (अनन्त), अविनश्वर, कर्म- अन्यथानुपपत्ति रूप लिंग से होने वाले ज्ञान को मल के सम्बन्ध से रहित, जरा से विहीन, रोग से प्रशब्दलिंगज श्रुत कहा जाता है। जैसे-धूम लिंग उन्मुक्त, भय से विरहित, संसार से अतीत, ऐका- से होने वाला अग्नि का ज्ञान । न्तिक, प्रात्यन्तिक और अजेय ऐसे बाधारहित अशरणानुप्रेक्षा-१. मणि-मंतोसह-रक्खा हय-गयमुक्तिसुख को अव्याबाध सुख कहा जाता है। रहयो य सयलविज्जाओ। जीवाणं ण हि सरणं अव्याहत-इह ऐकान्तिकमिह परलोकाविरुद्धं फला- तिसु लोए मरणसमयम्हि ॥ सग्गो हवे हि दुग्गं न्तराबाधितं वाऽब्याहतमुच्यते । (प्राव. नि. हरि.व भिच्चा देवा य पहरणं वज्जं । अइरावणो गइंदो मलय. व. ६३६)।
इंदस्स ण विज्जदे सरणं ।। णवणिहि चउदहरयणं जो इहलोक और परलोक के विरोधसे सर्वथा रहित हय-मत्तगइंद-चाउरंगबलं । चक्केसस्स ण सरण हो उसे अव्याहत कहा जाता है।
पेच्छंतो कहिये काले । जाइ-जर-मरण-रोग-भयदो अव्याहतपौर्वापर्य-अव्याहतपौर्वापौर्यत्वं पूर्वापर- रक्खेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरणं बंधोदयवाक्याविरोधः । (समवा. अभय. व. ३५, रायप. सत्तकम्मवदिरित्तो॥ (द्वादशानु. ८-११) । २. हयवृ.पृ. १६)।
गय-रह-णर-बल-वाहणाणि मंतोसधाणि विज्जायो। जो वचन पूर्वापर कथन से अविरुद्ध हो वह अव्या- मच्चुभयस्स ण सरणं णिगडी णीदी य णीया य ।। हतपौर्वापौर्य वचन कहलाता है। यह वचन के ३५ जम्म-जरा-मरण-समाहिदम्हि सरणं ण विज्जदे लोए। अतिशयों में नौवां है।
जर-मरण-महारिउवारणं तु जिणसासणं मुच्चा ॥ अव्युच्छेदित्व - अव्युच्छेदित्वं विवक्षितार्थानां मरणभयम्हि उवगदे देवा वि सईदया ण तारंति । सम्यसिद्धि यावत् अनवच्छिन्नवचनप्रमेयता । धम्मो ताणं सरणं गदि त्ति चितेहि सरणतं । (समवा. अभय. वृ. ३५)। .
(मूला. ८, ५-७)। ३. यथा मृगशावकस्यकान्ते
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अशरणानुप्रेक्षा १४८, जैन-लक्षणावली
[अशरणानुप्रेक्षा बलवता क्षुधितेनामिषषिणा व्याघेणाभिभूतस्य न नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम् । तस्माद् किञ्चिच्छरणमस्ति तथा जन्म-जरा-मृत्यु-व्याधि- भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणम्। सुहृदर्थोऽपि[न] अनप्रभतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तोः शरणं न विद्यते। पायी, नान्यत् किञ्चिच्छरणमिति भावनमशरणानुपरिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायी भवति न प्रेक्षा । (त. वा. ६, ७, २)। ६. व्यादारितास्ये सति व्यसनोपनिपाते, यत्नेन संचिता अर्था अपि न भवा- यत्कृताङ्गे[-तान्ते] न प्राणिनां प्रा[त्रा] णमिहास्ति न्तरमनुगच्छन्ति, संविभक्तसुख-दुःखा: सुह्रदोऽपि न किञ्चित् । मृगस्य सिंहोग्रनिशातदंष्ट्रा यत्र प्रविष्टामरणकाले परित्रायन्ते, बान्धवाः समुदिताश्च रुजा त्मतनोरिवान।। (वरांग. ३१-८७) । ७. तत्थ भवे परीतं न परिपालयन्ति, अस्ति चेत् सुचरितो धर्मो कि सरणं जत्थ सुरिदाण दीसदे विलयो। हरि-हरव्यसनमहार्णवे तारणोपायो भवति । मृत्युना नीय- बंभादीया कालेण य कवलिया जत्थ ॥ सीहस्स कमे मानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम् । तस्माद् । पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि । तह मिच्चुणा भवव्यसनसङ्कटे धर्म एव सरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि॥ जइ देवो नान्यकिञ्चिच्छ रणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा । वि य रक्खदि मंतो तंतो य खेत्तपालो य। मिय(स. सि. -७)। ४. यथा निराश्रये जनविरहिते माणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति ॥xx वनस्थलीपृष्ठे बलवता क्षुत्परिगतेनामिषैषिणा सिंहे- Xदसण-णाण-चरित्त सरणं सेवेह परमसद्धाए । नाभ्याहतस्य मृगशिशोः शरणं न विद्यते, एवं जन्म- अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ।। (कातिजरा-मरण-व्याधि-प्रियविप्रयोगाऽप्रियसप्रयोगेप्सिता- के. २३-२५ व ३०)। ८. न स कोऽप्यस्ति दुबुद्धे लाभ-दारिद्रय-दौर्भाग्य-दौर्मनस्य - मरणादिसमुत्थेन शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठ कृतान्तस्य न पाश: दुःखेनाभ्याहतस्य जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति प्रसरिष्यति ।। समापतति दुर्वारे यम-कण्ठीरवक्रमे । चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो नित्यमशरणोऽस्मी- त्रायते तु न हि प्राणी सोद्योगैस्त्रिदशैरपि ॥ प्रारब्धा ति नित्योद्विग्नस्य सांसारिकेष भावेष्वनभिष्वङ्गो मगबालिकेव विपिने संहार-दन्तिद्विषा पुंसां जीवभवति । अर्हच्छासनोक्त एव विधौ घटते, तद्धि परं कला निरेति पवनव्याजेन भीता सती। त्रातुं न शरणमित्यशरणाणुप्रेक्षा । (त. भा. ६-७)। ५. क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमां न त्वं नि ण क्षुधितव्याघ्रादिद्रुतमगशाववज्जन्तोर्जरा-मत्युरुजान्तरे लज्ज से ऽत्र जनने भोगेष रन्तं सदा ।। (ज्ञानार्णव परित्राणाभावोऽशरणत्वम् । शरणं द्विविधम्-लौकिक श्लो. १-२ व १७, पृ. २६ व २६) । ६. दत्तोदयेलोकोत्तरं चेति । तत्प्रत्येक विधा ---जीवा-जीव- ऽर्थनिचये हृदये स्वकार्ये सर्वः समाहितमतिः पुरतः मिश्रक भेदात् । तत्र राजा देवता वा लौकिकं समास्ते । जाते त्वपायसमयेऽम्बुपतौ पतत्रेः पोतादिव जीवशरणम्, प्राकारादि अजीवशरणम्, ग्राम-नगरा- द्रुतवतः शरणं न तेऽस्ति ॥ बन्धुत्रजः सुभटकोटिदि मिश्रकम् । पञ्च गुरवो लोकोत्तरं जीवशरणम्, भिराप्तवर्गमन्त्रास्त्र-तन्त्रविधिभिः परिरक्ष्यमाणः । तत्प्रतिबिम्बाद्यजीवशरणम्, सधर्मोपकरणसाधुवर्गों जन्तुर्बलादधिबलोऽपि कृतान्तदूतैरानीयते यमवशाय मिश्रकशरणम् । तत्र यथा मृगशावस्य एकान्ते बल- वराक एकः ।। संसीदतस्तव न जातु समस्ति शास्ता वता क्षुधितेन आमिषैषिणा व्याघ्रणाभिद्रुतस्य न । त्वत्तः परः परमवाप्तसमग्रबोधेः । तस्यां स्थिते किञ्चिच्छरणमस्ति तथा जन्म-जरा-मृत्यु-व्याधि- त्वयि यतो दुरितोपतापसेनेयमेव सुविधे विधुरा प्रियविप्रयोगाप्रियसंयोगेप्सितालाभ-दारिद्रय- दौर्मन- श्रिया स्यात् ।। (यशस्ति. २, ११२-१४) । १०. स्यादिसमुत्थितेन दुःखेनाभिभूतस्य जन्तोः शरणं न इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो विद्यते, परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायी तदन्तकातङ्क कः शरण्यः शरीरिणाम् ।। पितुर्मातुः भवति न व्यसनोपनिपाते, थत्नेन संचिता अर्था अपि स्वसुओतुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते न भवान्तरमनुगच्छन्ति, संविभक्तसुख-दुःखाः सुहृदो- जन्तुः कमभिर्यमसद्मनि ।। शोचते स्वजनानन्तं नीय. ऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते, बन्धवः समुदिताश्च मानान स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं तु शोचन्ति नात्मानं रुजा परीतं न परियान्ति । अस्ति चेत् सुचरितो मूढबुद्धयः ।। संसारे दुःख-दावाग्निज्वलज्ज्वालाकराधर्मों व्यसन-महार्णवतरणोपायो भवति । मृत्युना लिते। वने मगार्भकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ।।
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शरणानुप्रेक्षा ]
( योगशा. ४, ६१-६४ ) । ११. संसारदुःखोपद्रुतस्य शरणाभावोऽशरणत्वम् । (त. सुखबो. वृ. ६-७) । १२. तत्तत्कर्म ग्लपितवपुषां लब्धवल्लिप्सितार्थं मन्वानानां प्रसभमसुवत्प्रोद्यतं भङ्क्तुमाशाम् । यद्वद्वार्यं त्रिजगति नृणां नैव केनापि दैवं तद्वन्मृत्युर्ग्रसन रसिक स्तद्वृथा त्राणदैन्यम् || सम्राजां पश्यतामप्यभिनयति न किं स्वं यमश्चण्डिमानं शकाः सीदन्ति दीर्घे क्व न दयितवधू दीर्घनिद्रा मनस्ये । श्रा: काल - व्यालदंष्ट्रां प्रकटतरतपोविक्रमा योगिनोऽपि व्याक्रोष्टुं न क्रमन्ते दि बहिरहो यत् किमप्यस्तु किं मे ॥ ( श्रन. ध. ६, ६०-६१ ) । १३. यथा मृगबालकस्य निर्जने वने बलवता मांसाकांक्षिणा क्षुधितेन द्वीपिना गृही - तस्य किञ्चिच्छरणं न वर्तते, तथा जन्म-जरा-मरणरोगादिदुःखमध्ये पर्यटतो जीवस्य किमपि शरणं न वर्तते, सम्पुष्टोऽपि कायः सहायो न भवति भोजनादन्यत्र दुःखागमने प्रयत्नेन सञ्चिता श्रपि रायो भवान्तरं नानुगच्छन्ति, संविभक्तसुखा अपि सुहृदो मरणकाले न परिरक्षन्ति रोगग्रस्तं पुमांसं संगता अपि बान्धवा न प्रतिपालयन्ति, सुचरितो जिनधर्मो दुःख - महासमुद्र सन्तरणोपायो भवति, यमेन नीयमानमात्मानमिन्द्र-धरणेन्द्र - चक्रवर्त्यादयोऽपि शरणं न भवन्ति, तत्र जिनधर्म एव शरणम् । एवं भावना शरणानुप्रेक्षा भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-७ ) । १ मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और विद्या; ये कोई भी मरण के समय में प्राणी का रक्षण नहीं कर सकते हैं। देखो जिस इन्द्र का स्वर्ग तो दुर्ग के समान है, देव जिसके किंकर हैं, वज्र जिसका शस्त्र है, और हाथी जिसका ऐरावत है; उसको भी मरण से बचाने वाला कोई नहीं है । जन्म और मरण आदि से यदि कोई रक्षा कर सकता है तो वह कर्मबन्धनादि से रहित अपना श्रात्मा ही कर सकता है । इत्यादि प्रकार बार-बार चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है । अशरणभावना - देहिनां मरणादिभये संसारे शरणं किमपि नास्तीत्यादिचिन्तनमशरणभावना । (सम्बोधस. वृ. १६, पृ. १८) ।
मरणादि के भय से व्याप्त संसार में रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करने का नाम अशरणभावना है । (देखो अशरणानुप्रेक्षा ) । अशरीर - जेसि शरीरं णत्थि ते अशरीरा । के ते ?
१४६, जैन - लक्षणावली
[ अशुद्ध चेतना
१४, पृ. २३८ ) ; अट्ठसरीरा णाम । ( धव. पु.
परिणिव्वा । ( धव. पु. कम्म-कवचादो णिग्गया १४, पृ. २३६) । जिनके शरीर का सम्बन्ध सदा के लिए छूट चुका है, और जो आठ कर्म रूप कवच से निकल चूके हैं, ऐसे सिद्ध परमात्मा शरीर कहे जाते हैं । अशुचित्व - प्रनुप्रेक्षा - १. शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनि शुक्रशोणिताशुचिसंवर्धितमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्र प्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतो
बिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयति । स्नानानुलेपन- धूपप्रघर्ष - वास- माल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य । सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकीं शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७ ) । २. शरीरस्याद्युत्तराशुभकारणत्वादिभिरशुचित्वम् । (त. वा. ६, ७, ६) । ३. प्रशुभकारणत्वादिभिरशुचित्वम् । (त. इलो. ६-७ ) । ४. शरीरस्याऽशुचिकारण-कार्यस्वभावत्वमशुचित्वम् । (त. सुखबो. ६–७) ।
१ वीर्य व रुधिर से वृद्धिगत यह शरीर पुरीषालय ( टट्टी) के समान अपवित्रता को उत्पन्न करने वाला है । चर्म से प्राच्छादित होकर निरन्तर मलमूत्रादि को वहाने वाले इस शरीर की अपवित्रता स्नान और सुगन्धित उपटन आदि से भी दूर नहीं की जा सकती है । जीव की प्रात्यन्तिक शुद्धि को सम्यग्दर्शनादि हो प्रगट कर सकते हैं। इस प्रकार निरन्तर विचार करना, यह प्रशुचित्व- श्रनुप्रेक्षा है । इसे शुचि भावना भी कहते हैं । अशुद्ध-उपयोग-उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्धः । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २-६४ )। पर द्रव्य के संयोग के कारणभूत जीव के उपयोग को शुद्धोपयोग कहते हैं ।
1
श्रशूद्ध - ऋजुसूत्रनय - जो सो सुद्धो उजुसुदनो सो चक्खुपासियतेंजणपज्जयविसश्रो । ( धव. पु. ६, पृ. २४४) ।
जो चक्षु इन्द्रिय से स्पृष्ट- उसके द्वारा देखी गईव्यंजन पर्याय को विषय करता है उसे प्रशुद्ध ऋजुसूत्रनय कहते हैं ।
अशुद्ध
'चेतना - १. कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना । (पंचा. का. अमृत. वू.
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शुद्ध द्रव्यनैगम ]
१६ ) । २. XXX अशुद्धात्मकर्मजा || ( पञ्चाध्यायी २ - १६३) । कार्यानुभूति और कर्मफलानुभूति को अशुद्ध चेतना कहते हैं।
१५०, जैन - लक्षणावली
अशुद्ध द्रव्यनैगम - यस्तु पर्यायवद् द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः । व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः ॥ (त. श्लो. १, ३३, ३६) ।
द्रव्य पर्याय वाला अथवा गुण वाला है, इस प्रकार जो व्यवहार नय के श्राश्रित निर्णय होता है उसे श्रशुद्धद्रव्यनैगम नय कहते हैं ।
अशुद्ध द्रव्यलक्षण -- सर्वद्रव्यविशेषेषु च द्रव्यं द्रव्यमित्यनुगत बुद्धि-व्यवहाराभिधान निबन्धनद्रव्योपाधि तदेवाशुद्धद्रव्यलक्षणम् । (स्या रह. वृ. पृ. १० ) 1 सर्व द्रव्यविशेषों में 'यह द्रव्य है, यह द्रव्य है इस प्रकारको अनुगत बुद्धि, व्यवहार और वचन की कारण जो द्रव्य उपाधि है यही अशुद्ध द्रव्य का लक्षण है ।
अशुद्धद्रव्य - व्यञ्जनपर्यायनगम - विद्यते चापरोशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययो । श्रर्थीकरोति यः सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते ॥ (त. श्लो. १,३३,४६) । जो नैगम नय शुद्ध द्रव्य और व्यञ्जन पर्याय को विषय करता है उसे अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय नैगमन कहते हैं । जैसे मनुष्य गुणी है। यहां पर गुणवान् श्रशुद्ध द्रव्य है और मनुष्य व्यञ्जनपर्याय है । कथञ्चित् श्रभेदरूप से दोनों को यह नय जानता है । शुद्ध द्रव्याथिक या अशुद्ध द्रव्यास्तिक नय१. अशुद्धद्रव्यार्थिकः पर्यायकलङ्काङ्कितद्रव्यविषय: व्यवहारः । ( जयध. पु. १, पृ. २१९ ) । २. अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतार्थावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाऽचेतन वस्तुद्वय प्रतिपादक सांख्यदर्शनाश्रितः । सम्मतित. वृ. गा. ३, पृ. २८० ) । ३. व्यवहारनयमतार्थावलम्वी शुद्धद्रव्यास्तिको नयश्च द्वैतप्रतिषादनपरः, भेदकल्पनासापेक्षो ह्यशुद्धद्रव्यास्तिक इति बोध्यम् । (स्या. रह. वृ. पृ. १० ) । ४. कर्मोपाधिसापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः, यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा । उत्पाद व्ययसापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तम् । भेदकल्पनासापेक्षोऽसावशुद्धद्रव्यार्थिकः यथात्मनोदर्शनज्ञानादयो गुणा: । ( नयप्रदीप २, पृ. ६६१) । १ पर्यायरूप कलंक से मलिनता को प्राप्त हुए द्रव्य
[ अशुभ क्रिया
को विषय करने वाला जो व्यवहार है उसे प्रशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहते हैं । २ व्यवहारनय के विषयभूत पदार्थ का श्राश्रय लेकर जो सांख्यमत में चेतन पुरुष और प्रचेतन प्रकृति इन दो तत्त्वों का एकान्त रूप से कथन किया गया है, यह श्रशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के आश्रित है ।
शुद्ध पर्यायार्थिकनय - प्रशुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपज्जायपरतंते सुहुमपज्जायभेदेहिं णाणत्तमुबगए XXX 1 ( धव. पु. १३, पृ. १६६ - २०० ) । जो व्यञ्जनपर्याय के वशीभूत हो — उसे विषय करता है - वह अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहलाता है । अशुद्ध भाव - १. ग्रन्यश्चोपाधिकः स्मृतः । ( द्रव्यानु. १२-८) । २. अन्योऽशुद्धभाव चौपाधिकः, उपाधिजनितबहिर्भावपरिणमनयोग्यता शुद्धस्वभावता । (द्रव्यानु. टी. १२-९) । उपाधि (स्वाभाविक धर्म) से उत्पन्न होने वाले बाहिरी भावों को अशुद्ध भाव कहते हैं । अशुद्ध संग्रह - १. होइ तमेव श्रशुद्धो इगजाइ विसेसग्रहणेण ॥ (ल. न. च. ३६) । २. तथा द्रव्यमिति घट इति च द्रव्यत्व घटत्वावान्तरसामान्येन सकलजीवादिद्रव्य-सौवर्णादिघटव्यक्तीनां संग्रहणादशुद्धसंग्रहो विज्ञेयः । (त. सुखबो. १ - ३३ ) । १ जो किसी एक जातिविशेष को ग्रहण करे उसे शुद्ध संग्रहनय कहते हैं । २ द्रव्यत्व या घटत्वरूप अवान्तर सामान्य के द्वारा जो सकल जीवादि द्रव्यों को और सुवर्णादिमय घट व्यक्तियों को ग्रहण करता है वह अशुद्ध संग्रहनय कहलाता है । अशुद्ध सद्भूतव्यवहार - अशुद्धगुण-गुणिनोरशुद्धद्रव्य-पर्याययोर्भेदकथनमशुद्धसद्भूतव्यवहारः । (नयपृ. १०२; द्रव्यानु. टी. ७-४ ) । अशुद्ध गुण गुणी के और अशुद्ध द्रव्य पर्याय के भेदकथन को शुद्ध सद्भूतव्यवहार कहते हैं । अशुभ काययोग - १. प्राणातिपाताऽदत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभः काययोगः । ( स. सि. ६-३; त. वा. ६, ३, १; त सुखबो ६-३; त. वृत्ति श्रुत. ६-३ ) । २. हिंसाऽब्रह्मचौर्यादि काये कर्माशुभं विदुः । ( उपासका ३५४ ) । हिंसा, चोरी और
प्रदीप
मैथुनसेवन श्रादि काय सम्बन्धी शुभ क्रियाओं को शुभ काययोग कहते हैं । अशुभ क्रिया- ज्ञान-दर्शन- चारित्र तपसामतीचारा
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अशुभ तैजसशरीरसमुद्घात] १५१, जैन-लक्षणावली
[अशुभोपयोग अशुभक्रियाः। (भ. प्रा. विजयो. टी. ६)। अशुभ योग-१. अशुमपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । ज्ञान, दर्शन, चारिन्न और तप में अतीचार या दोष (स. सि. ६-३)। २. प्राणातिपाताऽनतभाषणलगाने वाली क्रियायों को प्रशभ क्रिया कहते हैं। वधचिन्तनादिरशुभः। (त. वा. ६, ३, १)। ३. अशुभ तैजसशरोरसमुद्घात--१. तत्थ अप्पसत्थं मिथ्यादर्शनाद्यनुरञ्जितोऽशुभः (त. श्लो. ६-३)। (तेजासरीरसमूग्घादं) बारहजोयणायाम णवजोय. ४. प्राणातिपातादिलक्षण स्त्रिविधोऽप्यशभः [योगः] । णवित्थारं सूचि-अंगुलस्स संखेज्जदिभागबाहल्लं जास- (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४)। ५. संक्लेशपरिणामवणकुसुमसंकाशं भूमिपव्वदादिदहणक्खम पडिवक्ख- हेतुकस्त्रिविधोऽपि कायादियोगोऽशुभः । (त. सुखबो. रहियं रोसिंधणं वामंसप्पभवं इच्छियखेत्तमेत्तविसप्प- ६-३) । ६. अशुभपरिणाम निर्वृत्तो निष्पन्नो योगः णं । (धव. पु. ४, पृ. २८); कोधं गदस्स संजदस्स अशुभः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३)। वामंसादो बारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण १ कुत्सित परिणाम से प्रादुर्भूत मन-वचन-काय की मूचि-अंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लेण जासवण- क्रिया को अशुभ योग कहते हैं। कुसुमवण्णेण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तऽन्भंतरट्ठियसत्त- अशुभ वाग्योग-~१. अनृतभाषण-परुषाऽसभ्यवचविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं चेव संजदं मारेदि नादिरशुभो वाग्योगः । (स. सि. ६-३, त. वा. त असुहं (णिस्सरणप्पयं तेजइयरीरं) णाम । (धव. ६,३,१; त. सुखबी. ६-३)। २. असत्याऽसभ्य पु. १४, पृ. ३२८)। २. स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं पारुष्यप्रायं वचनगोचरम् । (उपासका. ३५४) । किञ्चित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्न क्रोधस्य संयम- ३. असत्याऽहिताऽमित-कर्कश-कर्णशूलप्रायभाषणादिनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो रशुभः वाग्योगः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३)। दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः सूच्यङ्गुलसंख्येयभाग- १ असत्य, परुष (कठोर) और असभ्य भाषण को मूलविस्तारो नवयोजनानविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो अशुभ वाग्योग कहते हैं। वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं अशुभ श्रुति- देखो दुःश्रुति । १. हिंसा-रागादिप्रविरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्थ तेनैव संयमिना सह स च वर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः । (स. भस्म व्रजति द्वीपायनवत्, असावशुभतेज:समुद्घातः। सि. ७-२१; त. वा. ७, २१, २१) । २. (बृ. द्रव्यसं. १०, पृ. २१; कातिके. टी. १७६)। हिंसादिकथाश्रवणाभीक्ष्णव्यावृत्ति [व्यापति] लक्षणा१ महातपस्वी मुनि के किसी कारण से क्रोध उत्पन्न च्चाशुभश्रते:xxx। (त. श्लो. ७-२१) । होने पर जो उसके बायें कन्धे से जपापुष्प के ३. रागादिप्रवृद्धितो दुष्टकथाश्रबण-श्रावण-शिक्षणसमान लाल वर्ण वाला पुतला निकलकर बारह व्यापतिरशुभश्रुतिः। (चा. सा. पृ. १०; त. सुखबो योजन लम्बे, नौ योजन चौड़े और सच्यङ गल के ७-२१)। ४. यत्राधीते श्रते कामोच्चाटन-क्लेशसंख्यातवें भाग बाहल्य वाले अपने क्षेत्र के भीतर मूर्च्छनैः । अशुभं जायते पुंसामशुभश्रुतिरिष्यते ।। स्थित जीवों का विनाश करके शरीर में प्रविष्ट (धर्मसं. श्रा. ७-१३) । होता हुआ उस साधु को भी मार डालता है। उसे १ हिंसा, राग और द्वेष आदि बढ़ाने वाली खोटी अशुभ-तैजस-शरीर कहते हैं । वह समुद्घात अवस्था कथानों को सुनने-सुनाने और पढ़ने-पढ़ाने को अशुभ में निकलता है और पृथिवी-पर्वतादि के भी जलाने श्रति कहते हैं। यह एक अनर्थदण्ड का भेद है, जिसे में समर्थ होता है।
दुःश्रुति भी कहते हैं। अशुभ मनोयोग-१. वधचिन्तनेाऽसूयादिरशुभो अशुभोपयोग-१. विसयकसानोगाढो दुस्सुदिदुमनोयोगः। (स. सि. ६-३; त. वा. ६, ३, १; चित्त दुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवलोगो त. सुखबो. ६-३; त. वृत्ति श्रुत. ६-३) । २. मदे- जस्स सो असुहो ।। (प्रव. सा. २-६६) । २. विशि
pसूयनादि स्यान्मनोव्यापारसंश्रयम् । (उपासका. ष्टोदयदशाविश्रान्तदर्शन-ज्ञान-चारित्रमोहनीयपुद्ग३५५)।
लानुवृत्तिपरत्वेन परिगृहीताशोभनोपरागत्वात् परमदूसरे के बध-बन्धनादि का विचार करने तथा ईा भट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वराहत्सिद्धसाधुभ्योऽन्यऔर डाह करने आदि को प्रशभ मनोयोग कहते हैं। त्रोमार्गश्रद्धाने विषय-कषायदुःश्रवण-दुराशयदुष्टसेव
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अशोभन]
१५२, जैन-लक्षणावली
[अश्वकणकरणाद्धा
नोग्रताचरणे च प्रवृत्तो ऽशभोपयोगः । प्रव. सा. प्रश्लोकभय-'इलोकः श्लाघायाम्' श्लोकनं श्लोकः अमृत. व. २-६६)। ३. उपयोगोऽशभो राग-द्वेष- श्लाघा प्रशंसा, तद्विपर्ययोऽश्लोकः, तस्माद् भयम् मोहैः क्रियाऽऽत्मनः । (अध्या. रह. ५६)। अश्लोकभयम् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १८४, पृ. १ विषय-कषाय से प्राविष्ट जो तीव्र उपयोग राग- ४७३) । १. 'श्लोकृङ् श्लाघायाम्' श्लोक: प्रशंसा द्वषोत्पादक मिथ्या शास्त्रों के सनने, दान करने श्लाघा, तद्विपर्ययोऽश्लोकः, तस्माद् भयम् अश्लोकऔर दूषित पाचरण करने वाले मिथ्यादष्टियों के भयम् । (प्राव. भा. मलय. वृ. १८४, पृ. ५७३)। सहवास में रहने रूप उन्मार्ग में प्रवृत्त होता है उसे देखो अश्लाघाभय । प्रशभोपयोग कहते हैं। उस उपयोगस्वरूप जीव को अश्वकर्णकरण (अस्सकण्णकरण)-देखो प्रादोलभी अभेद विवक्षा में अशुभोपयोग कहा जाता है। करण । १. अस्सकण्णकरणत्ति व
करण । १. अस्सकण्णकरणेत्ति वा पादोलकरणेत्ति वा अशोभन-अशोभनं गर्वादिदूषितं वचनम् ।
मोवट्टण-उव्वट्टणकरणेत्ति वा तिण्णि णामाणि अस्स(बृहत्क. वृ. ७५३)।
कण्णकरणस्स। (कसायपा. चू. ४७२, पृ. ७८७; अहंकार आदि दोषों से दूषित वचन को अशोभन
धव. पु. ६, पृ. ३६४) । २. अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः, वचन कहते हैं। ऐसे अशोभन वचन का बोलने वाला
अश्वकर्णवत्करणमश्वकर्णकरणम् । यथाश्वकर्ण अग्राअसत्प्रलापी भाषाचपल कहलाता है।
त्प्रभृत्या मूलात् क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेद
मपि करणं क्रोधसंज्वलनात् प्रभृत्या लोभसंज्वलनाद्यअश्रुतनिश्रित-१. यपुत्नः पूर्वं तदपरिकर्मितमतेः
थाक्रममनन्तगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्थाकर. क्षयोपशमपटीयस्त्वात् प्रौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायते
णमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । (धव. पु. ६, दि. ५)। तदश्रुतनिश्रितमिति । (प्राव. नि. हरि. वृ. १, पृ.६)।
२ जिस प्रकार घोड़े का कान अग्र भाग से मूल भाग २. यत् प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि सहजविशिष्ट
पर्यन्त उत्तरोत्तर हीन दिखायी देता है उसी प्रकार क्षयोपशमवशादुत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादि
जिस करण (परिणामविशेष) के द्वारा संज्वलन बुद्धिचतुष्टयम् । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४, पृ. १०)। क्रोध से संज्वलन लोभ तक अनुभागस्पर्धकों की ३. प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि यत्सहजविशिष्टक्ष
व्यवस्था उत्तरोत्तर होन होती हई की जाती है उसे योपशमवशादत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितम । (प्रव. सारो.
प्रश्वकर्णकरण कहते हैं। अश्वकर्णकरण, पादोलकरण वृ. १२५३)।
और अपवर्तनोद्वर्तनाकरण ये तीनों एकार्थक नाम २ शास्त्राभ्यास के बिना ही स्वाभाविक विशिष्ट
हैं। आदोल नाम हिंडोला का है। जिस प्रकार क्षयोपशम के वश जो औत्पत्तिकी प्रादि चार बद्धि
हिडोले का स्तम्भ और रस्सी के अन्तराल में स्वरूप विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अश्रुत- विकोण प्राकार घोडे के कान सदश दिखता है, निश्रित प्राभिनिबोधिक मतिज्ञान कहते हैं।
इसी प्रकार यहाँ पर भी क्रोधादि संज्वलन कषाय के अश्रुपात अन्तराय-xxx अश्रुपातः शुचा- अनुभाग का सन्निवेश भी क्रम से घटता हुआ त्मनः ॥ पातोऽश्रूणां मृतेऽन्यस्य क्वापि वाक्रन्दतः दिखता है, इसलिए इसे प्रादोलकरण कहते हैं। श्रुतिः । (अन. ध. ५, ४५-४६)।
क्रोधादि कषायों का अनुभाग हानि-वृद्धि रूप से शोक से स्वयं अश्रपात होना तथा किसी के मर जाने दिखाई देने के कारण इसको अपवर्तनोद्वर्तनाकरण पर अन्य व्यक्ति के प्राक्रन्दन को सुनकर या मर भी कहते हैं। जाने पर शोकाकुल मनुष्य के अाँसुओं के गिरने अश्वकर्णकरणाद्धा (अस्सकण्णकरणद्धा)-१. को अश्रुपात कहते हैं। यह एक भोजन का अन्त- संताणि बज्झमाणगसरूवो फड्डगाणि जं कुणइ । राय है।
सा अस्सकण्णकरणद्ध xxx॥ (पंचसं. उपश. प्रश्लाघाभय - अश्लाघाभयम् अकीर्तिभयम । ७५)। २. सन्ति विद्यमानानि मायाकर्मदलानि (ललितवि. पं. पृ. ३८)।
बध्यमानसंज्वलनलोभस्वरूपेण फड्डकानि यत्कअकीर्ति या अपकीर्ति के भय को अश्लाघाभय रोति साऽश्वकर्णकरणाद्धा प्रथमा भण्यते । (पंचसं. कहते हैं।
स्वो.व. उपश. ७५)। ३.विद्यमानानि यानि संक्रमि
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अष्टम धरा]
१५३, जैम-लक्षणावली
[असत्य मनोयोग
तानि मायाकर्मदलिकानि पूर्वबद्धसंज्वलनलोभदलि- जिस वचन में स्वकीय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विद्यकानि वा तानि बध्यमानस्वरूपतस्तत्कालबध्यमान- मान भी वस्तु का उसी स्वकीय द्रव्य-क्षेत्र-कालसंज्वलनलोभरूपतया । किमुक्तं भवति ? तत्काल- भाव से निषेध किया जाता है वह प्रथम असत्य बध्यमानसंज्वलनलोभस्पर्द्धकानां चात्यन्तं नीरसानि है। जैसे देवदत्त के अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव यत्र करोति सा प्रश्वकर्णकरणाद्धा । (पंचसं. मलय. से रहते हुए भी यह कहना कि यहां देवदत्त वृ.७५)।
नहीं है। प्रश्वकर्णकरण के काल को अश्वकर्णकरणाद्धा कहते असत्य (द्वितीय)-असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रहैं। जिस काल में विद्यमान मायाकषाय के प्रदेश- काल-भावस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् पिण्ड को संक्रान्त करते हुए बध्यमान संज्वलन यथास्ति घटः ।। (पु. सि. ६३)। लोभ के स्पर्धकों स्वरूप किया जाता है, वह अश्व- जो वस्तु परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से असत् है उसे कर्णकरणाद्धा कहलाता है।
उक्त परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् कहना, यह अष्टम धरा-देखो ईषत्प्राग्भार । तिहवण- असत्य वचन का दूसरा भेद है। जैसे घटस्वरूप से मुड्ढारूढा ईसिपभारा घरटुमी रुंदा। दिग्घा इगि- घट के न होने पर भी यह कहना कि 'यहाँ घट है। सगरज्जू अडजोयणपमिदबाहल्ला ।। (त्रि. सा. असत्य (तृतीय)-वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपे
णाभिधीयते यस्मिन् । अन्तमिदं च तृतीयं विज्ञेयं लोक के शिखर पर जो एक राजु चौड़ी, सात राजु गौरिति यथाश्वः ।। (पु. सि. ६४)। लम्बी और पाठ योजन ऊँची पाटी पृथिवी है। स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विद्यमान पदार्थ को परउसे अष्टम धरा कहते हैं।
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत् कहना, यह असत्य का असतीपोष-१. सारिका-शुक-मारि-श्व-कुर्कुट- तीसरा भेद है । जैसे गाय को घोड़ा कहना । कलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं असत्य (चतुर्थ) - गहितमवद्यसंयुतमप्रियमपि विदुः ॥ (त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४७; योगशा. भवति बचनरूपं वत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं ३-११२)। २. असतीपोष: प्राणिघ्नप्राणिपोषो तुरीयं तु ।। पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमंजसं प्रलपितं भाटिग्रहणार्थ दासपोषश्च । (सा. ध. स्वो. टी. च । अन्यदपि यदुत्सूत्र तत् सर्वं गहितं गदितम् ।। ५-२२)।
छेदन-भेदन-मारण-कर्षण-वाणिज्य - चौर्यबचनादि । १ हिंसक प्राणियों-जैसे मैना, तोता, बिल्ली, कुत्ता, तत् सावधं यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ।। अरतिमर्गा व मोर प्रादि-को पालना तथा भाडा प्राप्त कर भीतिकरं खेदकरं वैर-शोक-कलहकरम् । यदकरने के लिए दासी का भी पोषण करना असतीपोष परमपि तापकरं परस्य तत् सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ।। (पु. कहलाता है।
सि. ९५-९८)। प्रसत्-प्रतो (सतो)ऽन्यदसत् । (त. भा. ५-२६)। गहित, सावद्य और अप्रिय वचनों को बोलना; यह उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप सत् से विपरीत असत असत्य का चौथा भेद है। प्रागम विरुद्ध जो भी कहलाता है।
पिशनता व हास्य आदि से गभित, कठोर और असत्प्रतिपक्षत्व-तादृशसमबलप्रमाणशन्यत्वमसत्- असमंजस (अयोग्य) वचन हो वह गहित कहलाता प्रतिपक्षत्वम् । (न्यायदी. पू. ८५)।
है । जिस वचन के आश्रय से प्राणी के शरीर के साध्य के प्रभाव के निश्चय कराने वाले समान छेदने-भेदने, बघ करने तथा कृषि कार्य, व्यापार और बलयुक्त अन्य प्रमाण के प्रभाव को असत्प्रतिपक्षत्व चोरी आदि में प्रवृत्ति हो; उसे सावद्य कहते हैं। कहते हैं।
जो वचन अप्रीति, भय, खेद, वैरभाव, शोक और असत्य (प्रथम)--स्वक्षेत्र-काल-भावैः सदपि हि लड़ाई-झगड़ा कराने वाला हो उसे तथा और भी जो यस्मिन् निषिध्यते वस्तु । तत् प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति सन्तापजनक वचन हो उसे अप्रिय कहा जाता है । यथा देवदत्तोऽत्र । (पु. सि. ६२)।
असत्य मनोयोग --१. xxx तविवरीमो ल. २०
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प्रसत्यामृषा भाषा]
१५४, जैन-लक्षणावली
[असदृशवेषग्रहण
मोसोxxx ॥ (प्रा. पंचसं. १-८९; धव. पु. जो मन न सत्य है और न असत्य है, वह असत्य१, पृ. २८१ उद्; गो. जी. २१८) । २. तद्विपरीतो मृषा (अनुभय) मन कहलाता है। उसके प्राश्रय से मोषमनोयोगः । [असत्यं वितथं मोघमित्यनर्थान्तरम् । होने वाले योग को असत्य-मषा मनोयोग कहते हैं। असत्ये मनः असत्यमनः, तेन योगः असत्यमनोयोगः ।]
वचनयोग-जो व सच्चमोसो त (धव. पु. १, पृ. २८०)। ३. तद्विपरीतः असत्यार्थ
जाण असच्चमोसवचिजोगो। अमणाणं जा भासा विषयज्ञानजननशक्तिरूपभावमनसा जनितः प्रयत्न. सण्णीणामंतणीयादी।। (प्रा. पंचसं. १-६२; धव. विशेष: मृषा (असत्य) मनोयोगः । (गो. जी. म.
पु. १, पृ. २८६ उद्धृत; गो. जी. २२१)। प्र. व जी. प्र. टी. पृ. २१६)।।
सत्यता और असत्यता से रहित (अनुभय) वचन ३ असत्य पदार्थ के विषय करने वाले ज्ञान को के द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषा वचनयोग उत्पन्न करने वाली शक्तिरूप भावमन से जनित कहते हैं। प्रयत्नविशेष को असत्य मनोयोग कहते हैं।
असत्य वचनयोग--१. तव्ववरीयं मोसं । (भ. असत्यामृषा भाषा-१. जं नेव सच्चं नेव मोसं
प्रा. ११६४)। २. तबिवरीयो मोसो। (प्रा. णेव सच्च-मोसं असच्चमोसं नाम । तं च उत्थं भास
पंचसं.१-११; गो. जी. २२०)। ३. असत्यार्थजायं। (प्राचारा. सू. २, १, १, ३५५ पृ. ३५४) । विषयो वाग्व्यापारप्रयत्नः असत्यवचोयोगः । (गो. २. चतुर्थी भाषा योच्यमाना न सत्या नापि मृषा
जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. २२०) । नापि सत्यामृषा आमन्त्रणाज्ञापनादिका साऽत्रा
असत्य अर्थ को विषय करने वाले वचन के व्यापार सत्याऽमृषेति । (प्राचारा. शी. व. २, १,१,३५५
रूप प्रयत्न को प्रसत्यवचनयोग कहते हैं। पृ. ३५५)। ३. XXX असच्चमोसा य पडिसेहा ॥ (दशवै. नि. २७२)। ४. यत्तु वस्तुसाधक
असदारम्भ---- असन्.-.-असून्दर:-प्रारम्भोऽस्येत्य
सदारम्भः, अविद्यमानं वा यदागमे व्यवच्छिन्नं तदाबाधकत्वाविवक्षया व्यवहारपतितस्वरूपमात्राभिधि
रभत इत्यसदासम्मः, न सदा-न सर्वदा-स्वशक्तित्सया प्रोच्यते तदसत्यामषम् । (प्राव. ह. वृ. मल,
कालाद्यपेक्ष प्रारम्भोऽस्येति वा । (षोडशक व. हेम. टि. पृ. ७६)। ५. या पुनस्ति सृष्वपि भाषास्वनधिकृता तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविनी सा ग्रामंत्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामषा । (प्रज्ञाप.
असत्-असमीचीन--कार्य के प्रारम्भ करने वाले
को असदारम्भ (बाल) कहते हैं । अथवा असत् अर्थात मलय. वृ. ११-१६१) । ६. अणहिगया जा तीसु वि ण य पाराहण-विराहणुवउत्ता। भासा असच्च
पागम में जो व्यवच्छिन्न है उसके प्रारम्भ करने वाले
को असदारम्भ (बाल) कहा जाता है। प्रथका जो मोसा एसा भणिया दुवालसहा ॥ (भाषार. ६६); या तिसृष्वपि सत्या-मृषा-सत्यामृषाभाषा
अपनी शक्ति और काल की अपेक्षा सदा प्रारम्भ नहीं
करता है वह असदारम्भ (बाल) कहलाता है। स्वनधिकता, एतेनोक्तभाषात्रयविलक्षणभाषात्वमेत. ल्लक्षणमुक्तम्, च पुनर्न आराधन-विराधनोपयुक्ता,
यह असदारम्भ का निरुक्त लक्षण है (असत्-भारम्स एतेनापि परिभाषानियंत्रितमनाराधकविराधकत्वं
या अ-सदा-प्रारम्भ) । लक्षणान्तरमाक्षिप्तम्, एषाऽसत्यामृषा भाषा ।
असदृशानुभाग----अध जे उदीरेदि अणेगास (भाषार. टी. ६६)।
वग्गणासु ते असरिसा णाम । (कसायपा. चू. पृ. १ जो भाषा सत्य, असत्य और उभय तीनों रूप से ८८४) । रहित अर्थात् अनुभयरूप हो वह चतुर्थी असत्या
अनेक वर्गणाओं में जिन अनभागों की उदीरणा की मृषा भाषा है जो आमंत्रणादिरूप है।
जाती है, उनका नाम असदृश अनुभाग है। असत्य-मृषा मनोयोग–ण य सच्चमोसजुत्तो जो असदृश वेषग्रहरण-असदृशवेषग्रहणं नाम स्वयमार्य: दु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे सन्ननार्यवेषं करोति, पुरुषो वा स्वं रूपमन्तहित्य असच्चमोसो दु मणजोगो॥ (प्रा. पंचसं. १-६० स्त्रीवेष विदधातीत्यादि। (बृहत्क. वृ. १३०६) । धव. पु. १, पृ. २८२ उद्.; गो. जी. २१६)। स्वयं प्रार्य होते हए अनार्य के वेष के धारण करने
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असद्ध्यान] १५५, जैन-लक्षणावली
[असद्भूतव्यवहार को, अथवा पुरुष होते हुए स्त्री के वेष के धारण करने (चक्कबंध-मुरवबंध-विज्जाहरबंध-णागपासबंध-संसरको असदृशवेषग्रहण कहते हैं।
वासबंधादीणं) तेसु (सीवण्णी-खइरऽसोगकट्रादिस) असद्ध्यान- १. पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वा- 8वणा असब्भावट्ठवणबंधो णाम । (धव. पु. १४, द्वस्तुविम्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरी- पृ. ५) । रिणाम् ।। (ज्ञानार्णव ३-३०, प. ६६); अज्ञात- श्रीपर्णी, खैर और अशोक वक्ष की लकड़ी आदि वस्तुतत्त्वस्य रागाद्युपहतात्मनः । स्वातन्त्र्यवृत्तिर्या में चक्रबन्ध व मुरजबन्ध आदि बन्धभेदों की जन्तोस्तदसध्यानमुच्यते ।। (ज्ञानार्णव २५-१६)। अयथास्वरूप से-उन आकारों के न रहने पर वस्तुस्वरूप के न जानने और राग-द्वेषादि से भी-स्थापना करना; इसे असदभावस्थापनाबन्ध माविष्ट होने के कारण जीव के जो स्वेच्छाचारिता कहते हैं। होती है, उसे असद्ध्यान कहा जाता है। यह दुनि प्रसभावस्थापनाभाव-तविवरीदो (सब्भावदृष्ट अभिप्राय व मिथ्यात्वादि के निमित्त से हा ढवणभावादो विवरीदो) असम्भावदवणभावो' । करता है।
(धव. पु. ५, पृ. १८३)। असद्भावस्थापना-प्राकृतिमति सद्भावस्थापना, विराग और सरागी भावों का अनुकरण नहीं करने अनाकृतिमति तद्विपरीता। (धव. पु. १४, पृ. ५) वाली स्थापना को प्रसवभावस्थापनाभावनिक्षेप विवक्षित वस्तु के आकार से शन्य वस्तु में उस कहते हैं। वस्तु की स्थापना को असद्भावस्थापना कहते हैं। असद्भावस्थापनामङ्गल--१. बुद्धीए समारोदूसरे नाम से इसे अतदाकारस्थापना भी कहा। विदमंगलपज्जयपरिणदजीवगुणसरूवक्ख-वराडयादयो जाता है।
असब्भावट्ठवणमङ्गलं । (धव. पु. १, पृ. २०) । प्रसभावस्थापनाकाल - असब्भावट्ठवणकालो २. मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना, णाम मणिभेद-गेस्प-मट्टी-ठिक्करादिस्सु वसंतो ति परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति संप्रत्ययात् । (त. श्लो. बुद्धिबलेण ठविदो । (धव. पु. ४, पृ. ३१४)। १, ५, ५४, पृ. १११)। मणिभेद, गेरू, मट्टी और ठीकरे आदि में जो बुद्धि- १ अक्ष (चौपड़ खेलने के पास) और वराटक बल से यह वसन्त है' इस प्रकार से जो वसन्त काल (कौड़ी) आदि में मंगल पर्याय से परिणत जीव के का आरोप किया जाता है उसे असदभावस्थापना- गण स्वरूप की बुद्धि से कल्पना करना असदभावकाल कहते हैं।
स्थापनामंगल है। असद्भावस्थापनानिबन्धन-तविवरीयं (सब्भा- असभावस्थापनावेदना-अण्णा (पाएण अणुबट्ठवणणिबंधणविवरीयं) असब्भावट्ठवणणिबंधणं । हरंतदव्वभेएण इच्छिददव्वठवणरूवसब्भावट्ठवणवेय(धव. पु. १५, पृ. २) ।
णाविवरीदा) असम्भावठवणवेयणा । (धव. पु. १०, जो निबन्धन विवक्षित द्रव्य का अनुकरण करता है पृ. ७)। उसकी उस रूप से कल्पना करने रूप सदभावस्था- वेदना के आकार से रहित द्रव्य में वेदना की स्थापना से विपरीत स्वरूप वाला असद्भावस्थापना- पना करने को असद्भावस्थापनावेदना कहते हैं। निबन्धन होता है।
प्रसद्भूतव्यवहार-१. अण्णे सिं अण्णगुणो भणइ असद्भावस्थापनापूजा -- वराटकादौ सङ्कल्प्य असब्भूदXX.XI (बृ. न. च. २२३)। २. असजिनोऽयमिति बुद्धितः । याऽर्चा विधीयते प्राच्यर- भूतव्यवहारो द्रव्यादेरुपचारतः । परपरिणतिसद्भावा मता त्वियम् । (धर्मसं. श्रा. ६-८६)। श्लेषजन्योxxx॥ (यः परद्र व्यस्य परिणत्या जिनेन्द्र के आकार से रहित कौडी प्रादि में 'यह । मिश्रितः अर्थात् द्रव्यादेर्धर्माधर्मादेरुपचारत उपचर
णात् परपरिणतिश्लेषजन्यः-परस्य वस्तुनः परिणतिः पूजन की जाती है उसे प्राच्य जन असदभाव. परिणयनं, तस्य श्लेषः संसर्गः तेन जन्यः परपरिणतिस्थापना पूजा कहते हैं।
श्लेषजन्यः) असद्भूतव्यवहारः कथ्यते । (द्रव्यानु. टी. असभावस्थापनाबन्ध---अजहासरूवेण. (एदेसि ७-४, प्र.१००)। ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्या
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असद्वेद्य ]
न्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः
१०३) ।
३ अन्य अर्थ में प्रसिद्ध धर्म के अन्य अर्थ में समारोप करने को श्रसद्भूतव्यवहारनय कहते हैं । सद्वेद्य - १. यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् । श्रप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यम् । ( स. सि. ८-८; त. श्लो. ८, ८ ) । २. यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् । नारकादिगतिषु नानाप्रकारजातिविशेषावकीर्णासु कायिक बहुविधं मानसं वाऽतिदुःसहं जन्म-जरा-मरण- प्रियविप्रयोगाऽप्रियसंयोग-व्याधि-वध-बन्धादिजनितं दुःखं यस्य फलं प्राणिनां तदसद्वेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यम् असद्द्यम् । (त. वा. ८, ८, २) । ३. यत्फलं दुःखमनेकविधं कायिक मानसं चातिदुःसहं नरकादिषु गतिषु जन्म-जरा-मरण-वध-बन्धादिनिमित्तं भवति तदसद्वेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यम् । (त. सुखबो. वृ. ८ - ८ ) । ४. यदुदयान्नरकादिगतिषु शारीर-मानसादिदुःखं नानाप्रकारं प्राप्नोति तदसद्वेद्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-८ ) ।
२ जिसके उदय से नरकादि गतियों में शारीरिक व मानसिक प्रादि नाना प्रकार के दुःखों का वेदन हो उसे द्वेद्य कहते हैं । समीक्ष्याधिकरण - १. असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणं समीक्ष्याधिकरणम् । ( स. सि. ७, ३२; त. इलो. ७–३२; सा. ध. स्वो. टी. ५-१२) । २. समीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणं समीक्ष्याधिकरणम् । अधिरुपरिभावे वर्तते, करोतिश्चापूर्वप्रा दुर्भावे, प्रयोजनमसमीक्ष्य प्राधिक्येन प्रवर्तनमधिकरणम् । तत् त्रेधा काय वाङ्मनोविषयभेदात् । तदधिकरणं त्रेधा व्यवतिष्ठते । कुतः ? काय वाङ्मनोविषयभेदात् । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम्, वाग्गतं निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपीडाप्रधानं यत्किञ्चन वक्तृत्वम्, कायिकं च प्रयोजनमन्तरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्र- पुष्प फलच्छेदन भेदन- कुट्टन - क्षेपणादीनि कुर्यात् । अग्नि- विषक्षारादिप्रदान चारभेत इत्येवमादि, तत्सर्वमसमीक्ष्या धिकरणम् । (त. वा. ७, ३२, ४-५; त. सुखबो. वृ. ७-३२; चा. सा. पृ. १० ) । ३. असमीक्ष्य अनालोच्य प्रयोजनमात्मनोऽर्थमधिकरणं उचितादुपभोगादतिरेककरणमसमीक्ष्याधिकरणम्, मुसल-दात्रशिलापुत्रक शस्त्र-गोधूमयन्त्रक शिलाग्न्यादिदानलक्षण
१५६, जैन-लक्षणावली
( नयप्रदीप पृ.
[असं क्लिष्ट
म् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - २७ ) । ४. असमीक्ष्याधिकरणं पञ्चमम् — प्रसमीक्ष्य प्रयोजनमपर्यालोच्य श्राधिक्येन कार्यस्य करणमसमीक्ष्याधिकरणम् । (रत्नक. टी. ३-३५) । ५. समीक्ष्य प्रविचार्य अधिकस्य करणम् असमीक्ष्याधिकरणम् । तत् त्रिधा भवतिमनोगतं वाग्गतं कायगतं चेति । तत्र मनोगतं मिथ्यादृष्टीनामनर्थककाव्यादिचिन्तनं मनोगतम् । निष्प्रयोजनकथा - परपीडावचनं यत्किञ्चिद् वक्तृत्वादिकं वाग्गतम् । निःप्रयोजनं सचित्ताचित्तदल-फल- पुष्पादिछेदनादिकम् अग्नि विष क्षारादिप्रदानादिकं काय गतम् । एवं त्रिविधं असमीक्ष्याधिकरणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३२ ) । ६. समीक्ष्याधिकरणमनल्पीकरणं हि यत् । श्रर्थात् स्वार्थमसमीक्ष्य वस्तुनोऽनवधानतः । ( लाटीसं. ६-१४४)। ७. समीक्ष्यैव तथाविधकार्यमपर्यालोच्यैव प्रवणतया यद् व्यवस्थापितमधिकरणं वास्युदूखल-शिलापुत्रक- गोधूमयंत्रकादि तदसमीक्ष्याधिकरणम् । (धर्मवि. वृ. ३-३०) ।
I
२ प्रयोजन का विचार न करके अधिकता से प्रवृत्ति करने को समीक्ष्याधिकरण कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-मनोगत, वाग्गत प्रौर कायगत समीक्ष्याधिकरण । मिथ्यादृष्टियों के द्वारा रचे गये श्रनर्थक काव्य आदि का चिन्तन करना मनोगत समीक्ष्याधिकरण है। बिना प्रयोजन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली कथाओं का कहना व स्वेच्छाचरिता से जो कुछ भी बोलना, यह वागत असमीक्ष्याधिकरण है । विना प्रयोजन सचित्त - श्रचित्त पत्र व फल-फूल श्रादि का छेदन भेदन श्रादि करना, तथा अग्नि विष आदि का देना; यह कायगत समीक्ष्याधिकरण है । असम्यक्त्व (प्रदर्शन) परीषह - असम्यक्त्वपरीषहः - सर्वपापस्थानेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निःसंगश्चाहं तथापि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिभावानेक्षे, तो मृषा समस्तमेतदिति श्रसम्यक्त्वपरीषहः । ( आव. सू. हरि. वृ. ४, पृ. ६५८ ) । देखो प्रदर्शनपरीषह ।
असंकुट - सव्वं लोगागासं विश्रापदि त्ति संकुडो । ( धव. पु. १, पृ. १२० ) ।
जीव केवलसमुद्घात अवस्था में चूंकि सर्वलोकाकाश को व्याप्त करता है, अतः उसे प्रसंकुट कहा जाता है।
प्रसंक्लिष्ट - दोषपरिहारी असंक्लिष्टः । ( व्यव.
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असंक्षेपाद्धा] १५७, जैन-लक्षणावली
[असंज्ञी भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. ३५)।
नोइन्द्रियावरण के लर्वघाति स्पर्धकों के उदय से संक्लेश आदि दोष रहित व्यक्ति को असंक्लिष्ट जो जीव की अवस्था-मन के बिना शिक्षा उपकहते हैं।
देशादि के न ग्रहण कर सकने योग्य प्राप्त होती है प्रसंक्षेपाद्धा-१. जहण्णग्रो पाउनबंधकालो जह- उसे असंज्ञित्व कहते हैं। ण्णविस्समणकालपुरस्सरो असंखपाद्धा णाम । (धव. असंज्ञिश्रुत-जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा प्र. ६, प.१६७ टि.१)। २. न विद्यते अस्मादन्यः गवसणा चिंता वीमंसा से णं प्रसन्नीति लब्भइ । संक्षेपः, स चासौ अद्धा च असंक्षेपाद्धा, आवल्यसं- से तं कालिग्रोवएसेणं । XXX जस्स णं नस्थि ख्येयभागमात्रत्वात् । (गो. क. जी. प्र. टी. १५८)। अभिसंधारणपुध्विया करणसत्ती से णं असण्णीत्ति जिससे संक्षिप्त प्रायुबन्धकाल और न हो ऐसे प्राव- लब्भइ। से तं हेऊवएसेणं । XXX असण्णिलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल को असंक्षेपाद्धा सुअस्स खोवसमेणं असण्णी लब्भइ। से तं दिदिकहते हैं।
वाग्रोवएसेणं ।xxxसे तं असण्णिसुझं । (नन्दी. असंख्येय--१. संख्यामतीतोऽसंख्येयः । (स. सि. सू. ३६) । ५-८)। २. स (असंख्येयः काल:) च गणितविषया- कालिक्युपदेश से, हेतूपदेश से और दृष्टिवादोपदेश तीतत्वादुपमया कयाचिन्नियम्यते । (त. भा. सिद्ध. से असंज्ञो तीन प्रकार का है। जिसके ईहा, अपोह, ७.४-१५)। ३. संख्याविशेषातीतत्वादसंख्येयः। मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श नहीं होते (त. वा. ५, ८, १)। ४. जो रासी एगेगरूवे वह कालिक्युपदेश से असंज्ञी कहा जाता है। विद्यअवणिज्जमाणे णिदादि सो असंखेज्जो, जो पुण ण मान अर्थ के पर्यालोचन का नाम ईहा और निश्चय समप्पइ सो रासी अणंतो। (धव. पु. ३, पृ. का नाम अपोह है। अन्वय धर्म के अन्वेषण को २६७); Xxx तदो (संखेज्जादो) उवरि । मार्गणा और व्यतिरेक धर्म के स्वरूप के पर्यालोचन जमोहिणाणविसो तमसंखेज्जं णाम । (धव. पु. को गवेषणा कहा जाता है। यह कैसे हुआ, इस ३, पृ. २६८)।
समय क्या करना चाहिए तथा भविष्य में यह कैसे १ जो राशि संख्या से रहित-गणनातीत--हो, होगा; इत्यादि विचार को चिन्ता और यथावस्थित वह असंख्येय या असंख्यात कही जाती है।
वस्तु के स्वरूप के निर्णय को विमर्श कहते हैं। जो प्रसंगानुष्ठान- यत्वभ्यासातिशयात् सात्मीभूत- बुद्धिपूर्वक अपने शरीर के संरक्षणार्थ अभीष्ट पाहामिव चेष्टयते सद्भिः । तदसङ्गानुष्ठानं भवति त्वे- रादि में प्रवृत्त नहीं हो सकता है तथा अनिष्ट से तत् तदावेधात् ॥ (षोडशक १०-७)।
निवृत्त भी नहीं हो सकता है वह हेतू के उपदेश जो अनुष्ठान पुनः पुनः सेवन रूप अभ्यास की अधि- की अपेक्षा असंज्ञी कहा जाता है। दृष्टिवाद के कता से किया जाता है उसे असंगानुष्ठान कहते हैं। उपदेशानुसार मिथ्यादृष्टि को असंज्ञी कहा जाता है। यह अनुष्ठान के प्रीत्यनुष्ठान आदि चार भेदों में इन तीन प्रकार के असंज्ञियों के श्रुत को असंजिअन्तिम है।
श्रुत कहते हैं। असंघातित-असंघातितः एकफलकात्मकः । (व्यव. असंज्ञी-देखो असंज्ञिश्रुत । १. सम्यक् जानातीति सू. भा. मलय. व. ८-८)।
संज्ञं मनः, तदस्यातीति संज्ञी।xxxतविवरीदो जो संस्तारक (विछाने का साधन) एक पटिये रूप असण्णी दु ।। (धव. पु. १, पृ. १५२); शिक्षा-क्रिहोता है उसे असंघातित एकांगिक अपरिशाटिसंस्ता- योपदेशालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। (धव. पु. रक कहते हैं।
७, पृ. ७)। २. अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी प्रसंज्ञित्व-xxx भवत्वेवं यदि मनोऽनपेक्ष्य कथितो जिनः । (त. सा. २-९३) । ३.xxx ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबन्धनमिति । मणवज्जिय जे ते धुव असणि । सिवखालावाइंग (धव. १, पृ. ४०६); णोइंदियावरणस्स सव्व- लेति पाव, अण्णाण गूढ दढ मूढभाव । असु णव जि घादिफद्दयाणमुदएण असिण्णत्तस्य सणादो। (धव. समत्ति उ पंच ताहं, वज्जरइ जिणिदु असण्णियाहं ।। पु. ७, पृ. ११२)।
(म. पु. पुष्प. १२, पृ. १७५-७६)। ४. xxx
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असंतोष]
१५८, जैन-लक्षणावली
[असंयतसम्यग्दृष्टि
असंज्ञी हेयादेयविवेचकः ॥ (पंचसं. अमित.३१६, पृ. करके उदयप्राप्त दलिकके साथ वेदन करना, इसका ४४)। ५. शिक्षोपदेशनालापग्राहिणः संज्ञिनो मताः। नाम प्रसंप्राप्त उदय है। प्रवृत्तमानसाणा विपरीतस्त्वसंज्ञिनः ।। (अमित. असंबद्धप्रलाप- १. धर्मार्थ-काम-मोक्षाऽसम्बद्धा श्रा. ३-११)। ६. शिक्षा-क्रियोपदेशालापग्राहिक: वाग असंबद्धप्रलापः। (त. वा. १, २०, १२, पृ. संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। (मूला. वृ. १२-१५६)। ७५) । २. धम्मत्थ-काम-मोक्खाऽसम्बद्धवयमसंबद्धा७. यथोक्त- (विशिष्टस्मरणादिरूप-) मनोविज्ञान- लामो । (अंगपण्णत्ती पृ. २६२)।। विकला असंज्ञिनः। (जीवाजी. मलय. वृ.१-१३, पृ. १ थर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से असम्बद्ध वचनों १७); ये तु सम्मूर्च्छनजेभ्य उत्पन्नास्तेऽसंज्ञिनः। को असम्बद्धप्रलाप कहते हैं। (जीवाजी. मलय. वृ. १-३२. पृ. ३५)। ८. संज्ञानं संज्ञा असंभव-१. बाधित लक्ष्यवृत्त्यसम्भवि। (न्यायदी. भूत-भवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम्, सा विद्यते पृ. ६)। २. लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरितः । येषां ते संज्ञिनः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाजः (मोक्षपं. १७)। इत्यर्थः । यथोक्तमनोविज्ञानविकला: असंज्ञिनः । जो लक्षण लक्ष्य में ही न रहता हो उसे असम्भवी (पंचसं. मलय. वृ. १-५)।
कहते हैं । असम्भव नाम भी इसी लक्षणदोष का है। १ जो जीव मन के न होने से शिक्षा, उपदेश और असंयत-१. असंजदो णाम कथं भवदि ? संजमपालाप प्रादि को ग्रहण न कर सकें उन्हें असंज्ञी घादीणं कम्माणमूदएण। (षट्खं. २, १, ५४-५५ जीव कहते हैं।
पु. ७, पृ. ६५)। २. चारित्रमोहस्य सर्वघातिस्पर्धअसंतोष- तत्रासन्तोषास्तृप्त्यभावः । (योगशा. कस्योदयात् असंयत औदयिकः। (स. सि. २-६ स्वो. विव. २-१०६)।
त. सुखबो. २-६; त. वृत्ति श्रुत. २-६)। ३. जीवा तृप्ति के अभाव को असन्तोष कहते है।
चउदसभेया इंदियविसया य अडवोसं तु । जे तेसु असंदिग्धत्व-१. असन्दिग्धत्वम् प्रशंशयकारिता। व विरया असंजया ते मुणयव्वा ॥ (प्रा. पंचसं. (समवा. अभय. वृ. ३५)। २. असन्दिग्धत्वं परिस्फु- १-१३७; धव. पु. १, पृ. ३७३ उ.) । ४. चारित्रटार्थप्रतिपादनात् । (रायप. मलय. वृ. ४, पृ. २७)। मोहोदयादनिवृत्तिपरिणामोऽसंयतः । चारित्रमोहस्य सन्देह या संशय से रहित वचन के प्रतिपादन को सर्वघातिस्पर्धकोदयात् प्राण्युपघातेन्द्रियविषये द्वेषाअसन्दिग्धत्व कहते हैं । यह ३५ सत्यवचनातिशर्यों भिलाषनिवत्तिपरिणामरहितोऽसंयत औदयिकः । (त. में ११वां है।
वा. २, ६, ६)। ५. संज्वलनवर्जकषायद्वादशकोअसंदिग्धवचनता-असन्दिग्धवचनता परिस्फुट- दयादसंयतत्वमेकरूपम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-६)। वचनता । (उत्तरा. नि. शा. व. १-५८, पृ. ३६)। ६. वृत्तिमोहोदयात् पुंसोऽसंयतत्वं प्रचक्ष्यते । (त. सन्देह रहित स्पष्ट वचनों के बोलने को असन्दिग्ध- इलो. २, ६, १०)। ७. महता तपसा युक्तो मिथ्यावचनता कहते हैं। यह चार प्रकार की वचन- दृष्टिरसंयतः। (वरांग. २६-१७)।। सम्पत् में चौथा है।
४ चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के असंप्राप्त उदय-१. असंपत्त उदग्रो णाम अपत्त- उदय से प्राणिहिंसा और इन्द्रियविषयों में क्रम से कालियं पनोगेण कालपत्तेण समं वेदिज्जति । स द्वष और अभिलाषा की निवत्तिरूप परिणाम का च्चेव ठिइउदीरणा बुच्चइ। (कर्मप्र. चू. उदी. गा. न होना, इसका नाम असंयत है। २६, पृ. ४३)। २. यत्पुनरकालप्राप्तं कर्मदलिक- असंयतसम्यादृष्टि-१. सम्यक्त्वोपेतश्चारित्रमो.
योगेण वीर्यविशेषसज्ञितेन समाकृष्य काल- दयादि (दा)पादिताविरतिरसंयतसम्यग्दृष्टिः। प्रोपप्राप्तेन दलिकेन सहानुभूयते सोऽसम्प्राप्त्युदयः ।। शमिकेन क्षायोपश मिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन (कर्मप्र. मलय. वृ. २६, पृ. ४३; कर्मप्र. यशो. वृ. समन्वितचारित्रमोहोदयादत्यन्तमविरतिपरिणामप्रव२६, पृ. ४४) ।
णोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते । (त. वा. २ जो कर्मदलिक उदय को प्राप्त नहीं हुआ है उसका ९, १, १५) । २. वृत्तमोहस्य पाकेन जनिताविरतिवीर्यविशेषरूप उदीरणा के प्रयोग से अपकर्षण भवेत् । जीवः सम्यक्त्वसंयूक्तः सम्यग्दृष्टिरसंयतः ।।
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असंयम
१५६, जैन-लक्षणावली
[असातवेदनीय
(त. सा. २-२१)। ३. पाकाच्चारित्रमोहस्य व्यस्त- संसारो मोक्षस्तं समापन्ना मूक्तास्ते च ते जीवाश्च प्राण्यक्षसंघमः । त्रिष्वेकतमसम्यक्त्वः सम्यग्दष्टि रस- तेषां प्रज्ञापना । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-५)। यतः ॥ (पंचसं. अमित. ६-२३)।
मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध जीवों की प्रज्ञापना अर्थात् १ सम्यग्दर्शन से युक्त होकर जो चारित्रमोहनीय के प्ररूपणा करने को प्रसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना उदय से संयमभाव से विहीन है, उसे असंयत सम्य- कहते हैं। ग्दृष्टि कहते हैं।
असंस्कृत (असंखय)-उत्तरकरणेण कयं जं किंची असंयम-१. असंयमो ह्यविरति लक्षणः। (प्राव. संखयं तु नायव्वं । सेसं असंखयं खलु असंखयस्सेस नि. हरि. व मलय. व. ७४०)। २. प्राणातिपाता- निज्जुत्ती ।। (उत्तरा. नि. १८२)।। दिलक्षणोऽसंयमः । (प्राव. हरि. व. ११०६, प. अपने कारणों से उत्पन्न घटादि के उत्तरकाल में ५१६))। ३. छक्कायवहो मण-इंदियाण अजमो विशेषाधानस्वरूप उत्तरकरण के द्वारा जो निर्मित असंजमो भणियो। इति बारसहाxxx॥ (पंच- होता है उसे संस्कृत कहते हैं। इसको छोड़कर शेष सं. च. ४-३) । ४. षटकायवधो मनइन्द्रियाणाम- सब असंस्कृत कहे जाते हैं। यमोऽसंयमो भणित इति द्वदशधा । (पंचसं. स्वो. व. असंहार्यमति--संहार्या क्षेप्या परकीयागमप्रक्रि४-३)। ५. प्राणिघाताक्षविषयभावेन स्यादसंयमः। याभिरसमञ्जसाभिर्बुद्धिर्यस्यासौ संहार्यमतिः, न (त. सा. २-८५)। ६. षण्णां कायानां पृथिव्यप्ले- संहार्यमतिरसंहार्यमतिर्भगवदर्हत्प्रणीततत्त्वश्रद्धा । (त. जोवायु-वनस्पति-त्रसलक्षणानां वधो हिंसा, तथा भा. सिद्ध. वृ.७-१८)। मनसोऽन्तःकरणस्येन्द्रियाणां च श्रोत्रादीनां पञ्चानां जिसकी अहंदुपदिष्ट तत्त्वों पर श्रद्धा हो तथा स्व-स्वविषये यथेच्छं प्रवर्तमानानामयमोऽनियंत्रण- जिसकी बद्धि असमीचीन मिथ्यादृष्टियों की प्रागममिति, एवममुना प्रकारेण द्वादशधा द्वादशप्रकारो- प्रक्रियाओं से अपहृत नहीं की जा सकती है उसे ऽसंयमोऽविरतिरूपो भणित: । (पंचसं. मलय. व. असंहार्यमति कहते हैं। ४-३)। ७. व्रताभावात्मको भावो जीवस्यासंयमो असात--१. असादं दुवखं । (धव. पु. ६, पृ. ३५)। मतः । (पंचाध्यायी २-११३३) ।
२. अनारोग्यादिजनितं दुःखमसातम् । (शतक. मल. ३ षट्काय जीवों का घात करने तथा इन्द्रिय और हेम. व. ३७, प. ४५)। मन के नियन्त्रित न रखने का नाम असंयम है। २ रोग प्रादि के होने से जो पीड़ा होती है उसका असंविग्न-असंविग्नाः शिथिलाः पार्श्वस्थादयः ।। नाम असात है। (बृहत्क, वृ. ४२१)।
असातवेदनीय-१. परितापरूपेण यद्वद्यते तदपार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधनों को असंविग्न सातवेदनीयम् । (श्रा. प्र. टी. १४; धर्मसंग्रहणी कहते हैं।
मलय. वृ. ६११) । २. यदुदयान्नरकादिगतिषु असंवतबकुश-प्रकटकारी तु असंवृतबकुशः । (त. शारीर-मानसदुःखानुभवनं तदसातवेदनीयम् । (मूला. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६; प्रव. सारो. वृ. ७२४ ; धर्म- व. १२-१८६)। ३. असादं दुक्खम्, तं वेदावेदि भुंजासं. मान. स्वो. वृ. ३-५६, पृ. १२५)।
वेदि त्ति असादवेदणीयं । (धव. पु. ६, पृ. ३५)। जो शरीर व उपकरणों की विभूषा आदि को प्रगट ४. अनारोग्यादिजनितं दुःखमसातम्, तद्रूपेण विपामें किया करते हैं, ऐसे साधुओं को असंवृतबकुश केन वेद्यते इत्यसातवेदनीयम् । (शतक. मल. हेम. कहते हैं।
वृ. ३७, पृ. ४५)। ५ यस्योदयात् पुनः शरीरे असंसार-अनागतिरसंसार: शिवपदपरमामृतसुख- मनसि च दुःखमनुभवति तदसातवेदनीयम् । (प्रज्ञाप. प्रतिष्ठा । (त. वा. ६, ७, ३) ।
मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६७) । ६. दुःखकारणेप्रागति-संसार परिभ्रमण-से रहित होकर मक्ति न्द्रियविषयानभवनं कारयत्यरतिमोहनीयोदयबलेन के सर्वोत्कृष्ट सुख में प्रतिष्ठित होना, यह आत्मा तदसातवेदनीयम् । (गो. क. जी. प्र. टी. २५) । को प्रसंसार (सिद्ध) अवस्था है।
१ जिस कर्म का बेदन- अनभवन-परिताप के साथ प्रसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना -- न संसारोऽ- किया जाता है उसे असातवेदनीय कहते हैं।
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असातसमयप्रबद्ध] १६०, जैन-लक्षणावली
[असुरकुमार असातसमयप्रबद्ध-अकम्मसरूवेण ट्रिदा पोग्गला दिकर्मबन्धसन्तानपरतंत्रस्यात्मनः कर्मोदयसामान्ये असादकम्मसरूवेण परिणदा जदि होंति, ते असाद- सति प्रसिद्धत्वपर्यायो भवतीत्यौदयिकः। (त. वा. समयपबद्धा णाम । (धव. पु. १२, पृ. ४८६)। २, ६, ७; त. सुखबो. २-६)। २. असिद्धत्तं अट्ठअकर्मस्वरूप से स्थित पुद्गल जब असातावेदनीय कम्मोदयसामण्णं । (धव. पु. ५, पृ. १८९); कर्म के स्वरूप से परिणत होते हैं तब उनका नाम अघाइकम्मचउक्कोदयजणिदमसिद्धत्तं णाम । (धव. प्रसातसमयप्रवद्ध होता है।
पु. १४, पृ. १३)। ३. कर्ममात्रोदयादेवासिद्धत्वम् । असातावेदनीय- असादं दुक्खं, तं वेदावेदि (त. श्लो. २, ६, १०)।। भुंजावेदि त्ति असादावेदणीयं । (धव. पु. ६, पृ ३५); १ कर्मसामान्य का उदय होने पर जो जीव की जीवस्स सुहसहावस्स दुक्खुप्पाययं दुक्खपसमण- अवस्थाविशेष होती है उसका नाम प्रसिद्धत्व है। हेदुदव्वाणमवसारयं च कम्ममसादावेदणीयं णाम। प्रसिद्धहेत्वाभास - १. असिद्धस्त्वप्रतीतो यः (धव. पु. १३, पृ. ३५७)।
xxxI (न्यायावतार, २३)। २. अन्यथा च असाताका अर्थ दुःख होता है, उस दुःख का जो संभूष्णुरसिद्धः। (सिद्धिवि. स्वो. वृ. ६-३२, पृ. वेदन कराता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं। ४३०, पं. ३) । ३. असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः । असामान्य स्थिति–एक्कम्हि टिदिविसेसे जम्हि (परीक्षा. ६-२२)। ४. यस्यान्यथानुपपत्तिः प्रमाणेन न समयपबद्धसेसयमत्थि सा ट्रिदी सामण्णा त्ति णाद- प्रतीयते सोऽसिद्धः। (प्र. न. त. ६-४८)। ५. व्वा । जम्हि णत्थि सा ट्ठिदी असामण्णा त्ति णाद- नासन्ननिश्चितसत्त्वो वान्यथानुपपन्न इति सत्त्वस्याव्वा। (कसायपा. चू. पृ. ८३५)।
सिद्धौ सन्देहे वाऽसिद्धः। (प्रमाणमी. २, १, १७) । जिस स्थितिविशेष में समयप्रबद्ध शेष नहीं पाये ६. अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः । (न्यायदी. ३, पृ. जाते हैं उसे असामान्य स्थिति कहते हैं।
८६); अनिश्चियपथप्राप्तोऽसिद्धः । (न्यायदी. असावद्य कर्मार्य - असावद्यकार्याः संयताः, पृ. १००)। कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात् । (त. वा. ३, ६ पक्ष में जिस हेतु के रहने का निश्चय न हो उसे ३६, २) । २. असावद्यकर्यािस्तु यतयः । (त. वृत्ति प्रसिद्धहेत्त्वाभास कहते हैं । श्रुत. ३-३६)।
असुखकरुणा-असुखं सुखाभावः, यस्मिन् प्राणिनि असि-मषी श्रादि सावध कर्मों से रहित होकर कर्मः दुःखिते सुखं नास्ति तस्मिन् याऽनुकम्पा लोकप्र क्षयजनक विरति में परिणत हुए मनियों को असा- आहार-वस्त्र-शयनासनादिप्रदानलक्षणा सा द्वितीया। वद्यकर्यि कहते हैं।
(षोडशक वृ. १३-६)। असिकर्यि - १. असिधनुरादिप्रहरणप्रयोग- जिनके सुख नहीं, ऐसे दुखी प्राणियों पर अनुकम्पा कुशलाः असिकर्मार्याः । (त. वा. ३, ३६, २)। या दया के करने को असुखकरुणा कहते हैं। २. असि-तरवारि वसुनन्दक-धनुर्वाण-छुरिका-कट्टा- असुर -१. देवगतिनामकर्मविकल्पस्यासुरत्वसंवर्तरक-कुन्त-पट्टिश-हल-मुशल-गदा-भिडिमाल- लोहघन- नस्य उदयादस्यन्ति परानित्यसुराः। (स. सि. ३-५; शक्ति-चक्रायुधचञ्चवः असिकर्मार्याः उच्यन्ते । (त. त. वा. ३, ५, २; त. वृत्ति श्रुत. ३-५; त. सुखबो. वृत्ति श्रुत. ३-३६, पृ. ३६६)।
३-५) । २. तत्र अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । १ खडग व धनष प्रादि शस्त्रों के प्रयोग करने में कुशल पार्यों को असिकर्मार्य कहते हैं। प्रसिद्ध-संशयादिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं २ जिनका स्वभाव अहिंसा आदि के अनुष्ठान में सिद्धम्, तद्विपरीतमसिद्धम् । (प्र. क. मा. ३-२०, अनुराग रखने वाले सुरों से विपरीत होता है उनका पृ. ३६६)।
नाम असुर है। जिसका स्वरूप प्रमाण से सिद्ध न हो, ऐसे पदार्थ प्रसूरकूमार-१. गम्भीराः श्रीमन्तः काला महा(साध्य) को प्रसिद्ध कहते हैं।
काया रत्नोत्कटमुकुटभास्वराश्चूडामणिचिह्ना असुरप्रसिद्धत्व-१. कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्धः। प्रना- कूमाराः । (त. भा. ४-११)। २. असुरकुमारास्त.
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श्रसूया ]
थाविधनामकर्मोदयान्निचितशरीरावयवाः सर्वांगोपांगेषु परमलावण्याः कृष्णरुचयो रत्नोत्कटमुकुटभास्वरा महाकायाः । ( संग्रहणी देवभद्र वृ. १७ ) । ३. असुरकुमारा भवनवासिनश्चूडामणिमुकुट रत्नाः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, १, ११७) । ४. अस्यन्ति क्षिपन्ति देवान् सुरान् ते असुराः कुमाराकाराः, कुमारवत् क्रीडाप्रियत्वाच्च कुमाराः, ते च ते कुमाराश्च असुरकुमारा: । (दण्डकप्र. वृ. २) ।
१ जो भवनवासी देव गम्भीर, शोभासम्पन्न, वर्ण से कृष्ण, महाकाय और अपने मुकुट में चूड़ामणि रत्न को धारण करते हैं उन्हें असुरकुमार कहते हैं । असूया - १. असूया क्रोधपरिणाम एव । यथाऽयं ते पिता गतासुकस्तनुः 1 ( त. भा. हरि. वृ. ६-१ ) । २. असूया क्रोध विशेष एव । यथा - राजपत्न्यभिरतोऽयम्, तथापि शुद्धवृत्तमात्मनं मन्यते इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - १) । ३. गुणेषु दोषाविष्करणं ह्यसूया । (स्या. मं. टी. ३) ।
२ विशेष प्रकार के क्रोध का नाम श्रसूया है । जैसे - राजपत्नी में रत होता हुआ भी यह अपने को सदाचारी मानता है । ३ दूसरे के गुणों में दोषों के निकालने को श्रसूया कहते हैं ।
१६१, जैन-लक्षणावली
असृज् -असृग् रक्तं रससम्भवो धातुः । (योगशा. स्वो विव. ४ -७२ ) ।
रस से उत्पन्न होने वाली रक्तरूप धातु का नाम असृज् है ।
श्रस्ति श्रवक्तव्यद्रव्य - १. सबभावे श्राइट्ठो देसो देसो य उभयहा जस्स । तं प्रत्थि प्रवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा । ( सम्मति. ३. १, ३८ पृ. ४४६) । २. स्वद्रव्य क्षेत्र काल - भावैर्युगपत्स्व-परद्रव्य क्षेत्र काल - भावैश्वादिष्टमस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १४) । २ स्वद्रव्य क्षेत्र काल-भाव के साथ ही युगपत् स्वपरद्रव्यादिचतुष्टय से विवक्षित द्रव्य को अस्तिवक्तव्य कहते हैं ।
अस्तिकाय - १. जेसिं प्रत्थि सहाम्रो गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहिं । ते होंति प्रत्थिकाया णिप्पणं जेहिं इलुक्कं ॥ ( पंचा. का. ५ ) । २. प्रदेश प्रचयो हि कायः, स एषामस्ति ते अस्तिकायाः जीवादयः पञ्चैवोपदिष्टाः । (त. वा. ४, १४, ५) । ३. संति
ल. २१
[ अस्ति नास्तिद्रव्य जदो तेणेदे प्रत्थि त्ति भणति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य प्रत्थिकाया य । ( द्रव्यसं. २४ ) । ४. प्रस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः अस्तिकायः । ( श्रनुयो. (हरि. वृ. पू. ४१; प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३; जीवाजी. मलय. वृ. ४) । १ जिनका गुणों और अनेक प्रकार की पर्यायों के साथ श्रस्ति स्वभाव है - प्रभेद या तद्रूपता है - वे स्तिकाय कहलाते हैं ।
अस्तित्व - १. अस्तित्वं भावानां मौलो धर्मः सत्तारूपत्वम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- ७) । २. तत्रास्तित्वं परिज्ञेयं सद्भूतत्वगुणं पुनः । (द्रव्यानु. ११-२) ।
१ पदार्थों के सत्तारूप मौलिक धर्म का नाम श्रस्तित्व है । यह जीवादि पदार्थों का साधारण अनादि पारिणामिक भाव है । प्रस्तिद्रव्य - स्वद्रव्य-क्षेत्र काल- भावैरादिष्टमस्तिद्रव्यम् । (पंचा. का. श्रमृत. वृ. १४) । स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से विवक्षित द्रव्य को श्रस्तिद्रव्य (कथंचित् द्रव्य है) कहते हैं । श्रस्ति नास्ति श्रवक्तव्यद्रव्य -- १. सब्भावाऽसन्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स । तं प्रत्थि णत्थि प्रवत्तव्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥ ( सम्मति ३, १, ४० पृ. ४४७) । २. स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावः परद्रव्य-क्षेत्रकाल- भावैश्च युगपत्स्व-परद्रव्य-क्षेत्र काल- भावश्चादिष्टमस्ति च नास्ति घावक्तव्यं च द्रव्यम् ॥ ( पंचा. का. अमृत. वृ. १४) ।
२ स्वद्रव्य क्षेत्र - काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र कालभाव से क्रमशः तथा स्व और पर द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव से युगपत् विवक्षित द्रव्य को श्रस्ति नास्तिवक्तव्यद्रव्य कहते हैं । श्रस्ति नास्तिद्रव्य - - १. ग्रह देसो सब्भावे देसोSसब्भावपज्जवे णियो । तं दवियमत्थि णत्थि य एसविसेसियं जम्हा || ( सम्मति ३, १, ३७ पृ. ४४६ ) । २. स्वद्रव्य क्षेत्र काल- भावैः परद्रव्यक्षेत्र - काल - भावैश्च क्रमेणादिष्टमस्ति च नास्ति च द्रव्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १४ ) ।
२ स्वद्रव्य क्षेत्र - काल-भाव श्रौर परद्रव्य-क्षेत्र कालभाव की अपेक्षा क्रम से विवक्षित द्रव्य को अस्तिनास्तिद्रव्य कहते हैं ।
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अस्ति-नास्तिप्रवाद पूर्व] १६२, जैन-लक्षणावली
[अस्थिरनाम अस्ति-नास्तिप्रवादपूर्व-१. पञ्चानामस्तिकाया- करने वाले नयका विषय अस्तिस्वभाव है । नामर्थो नयानां चानेकपर्यायरिदमस्तीदं नास्तीति च अस्तेयमहावत-१. क्षेत्रे पथि कले वापि स्थितं कात्स्न्येन यत्रावभासितं तदस्ति-नास्तिप्रवादम् । नष्टं च विस्मृतम् । हार्य न हि परद्रव्यमस्तेयव्रतअथवा षण्णामपि द्रव्याणां भावाभावपर्यायविधिना मुच्यते । (वरांग. १५-११४)। २. अनादानमदस्व-पर पर्यायाभ्यामुभयनयवशीकृताभ्यामपितानर्पित- त्तस्याऽस्तेयव्रतमुदीरितम् । (त्रि. श. पु. च. १, ३, सिद्धाभ्यां यत्र निरूपणं तदस्ति-नास्तिप्रवादम् । ६२४) । ३. सकलस्याप्यदत्तस्य ग्रहणाद् विनिवर्त(त. वा. १,२०, १२) । २. अत्थिणत्थिपवादं णाम नम् । सर्वथा जीवनं यावत् तदस्तेयव्रतं मतम् । पुब्वं अदारसण्हं वत्थणं १८ सट्रितिसदपाहडाणं (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३, ४२, पृ. १२४) । ३६० सट्टिलक्खपदेहि ६०००००० जीवाजीवाणं १ खेत, मार्ग और कल (कीचड़) प्रादि में स्थित, अत्थि-णत्थित्तं वण्णेदि । (धव. पु. १, प. ११५); नष्ट और विस्मत दूसरे की वस्तु के ग्रहण न करने को षण्णामपि द्रव्यणां भावाभावपर्यायविधिना स्व-पर- अस्तेयत्रत कहते हैं। पर्यायाभ्यामुभयनयवशीकृताभ्यामपितानपितसिद्धाभ्यां अस्त्रमुद्रा-दक्षिणकरेण मुष्टि बद्ध्वा तर्जनीयत्र निरूपणं षष्ठिपदशतसहस्रः ६०००००० क्रियते मध्यमे प्रसारयेत् इति अस्त्रमुद्रा। (निर्वाणक. पृ. तदस्तिनास्तिप्रवादम् । (धव. पु. ६, पृ. २१३)। ३१)। ३. अत्थि-णस्थिपवादो सव्वदव्वाणं सरूवादिच- दाहिने हाथ से मट्टी बांधकर तर्जनी और मध्यमा उक्केण अत्थित्तं पररूवादिचउक्केण णत्थित्तं च परू- अंगुलियों के फैलाने को अस्त्रमुद्रा कहा जाता है।
पडिसेहधम्मे णयगहणलीण णाणादुण्ण- अस्थि-XXXअस्थि कीकसं मेदसम्भवम् । यणिराकरणद्वारेण परूवेदि त्ति भणिदं होदि। (योगशा. स्वो. विव. ४-७२) । (जयध. १, पृ. १४०)। ४. यद्यथा लोके अस्ति मेदा से उत्पन्न होने वाली कीकस नास्ति च तद्यत्र तथोच्यते तदस्ति-नास्तिप्रवादम्। अस्थि कहते हैं। (समवा. अभय. व. १४); यल्लोके यथास्ति यथा प्रस्थितिकरण-परीषहोपसर्गाभ्यां सन्मार्गाद वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदेवास्ति भ्रश्यतां नृणाम् । स्वशक्ती न स्थिति कुर्यादस्थितीनास्ति वेत्येवं प्रवदतीत्यस्ति-नास्तिप्रवादम् । (समवा. करणं मतम् ॥ (धर्मसं. श्रा. ४-५०)। अभय. व. १८)। ५. षष्टिलक्षपदं षट्पदार्थानामनेक- परीषह और उपसर्ग प्रादि से पीड़ित होकर सन्मार्ग प्रकारैरस्तित्व-नास्तित्वधर्मसूचकमस्ति-नास्तिप्रवा- से भ्रष्ट होने वाले मनुष्यों को अपनी शक्ति के होने दम् । (श्रुतभ. टी. ११)। ६. जीवादिवस्तु अस्ति पर भी उसमें स्थिर नहीं करना अस्थितिकरण नास्ति चेति प्रकथकं षष्ठिलक्षपदप्रमाणं अस्ति- दोष कहलाता है। नास्तिप्रवादपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ७. सिय अस्थि-णत्थिपमूहा तेसि इह रूवणं पवादो त्ति । निवर्तकम्) अस्थिरनाम। (स. सि. ८-११; त. अत्थि यदो तो वम्मा (?) अत्थि-णत्थिपवादपुव्वं भा. ८-१२; त. वा. ८, ११, ३५; त. श्लो. ८, च ।। (अंगप. २-५२, पृ. २८६)।
११)। २. तद्विपरीतमस्थिरनाम । यद्दयादीषदुप२ भाव पर्याय व प्रभाव पर्याय विधि से जिस पूर्व- वासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसम्बन्धाच्च अङ्गोश्रुत में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन उभय नयों पाङ्गानि कृशीभवन्ति तदस्थिरनाम । (त. वा. ८, के प्राश्रित स्व पर्याय और पर पर्याय-स्व-परदव्य- ११, ३५)। ३. यदुदयात्तदवयवानामेव (शरीरावयक्षेत्र-काल-भाव-से विवक्षा के अनुसार छहों दव्यों वानामेव) चलता भवति कर्ण-जिहादीनाम् । (श्रा. की प्ररूपणा की जाती है उसे अस्ति-नास्तिप्रवादपूर्व प्र. टी. २३)। ४. जस्स कम्मस्स उदएण रस-रुहिरकहते हैं। उसके पदों की संख्या साठ लाख है। मांस-मेद-मज्जट्ठि-सुक्काणं परिणामो होदि तमथिरं अस्तिस्वभाव-अस्तिस्वभाव अाम्नातः स्वद्रव्या- णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६३); जस्स कम्मस्सुदएण दिग्रहे नये। (दव्यान. १३-१)।
रसादीणमुवरिमधादुसरूवेण परिणामो होदि तमथिरं स्वदव्य-क्षेत्रादि के द्वारा वस्तु के अस्तित्व के ग्रहण णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६५)। ५. अस्थिरना
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अस्थिरनाम] १६३, जैन-लक्षणावली
[अहिंसाणुव्रत मोदयादस्थिराणि जीवानामङ्गोपाङ्गानि भवन्ति । प्रादि अवयवों में अस्थिरता या चंचलता हो उसे (पंचसं. स्वो. वृ. ३-९)। ६. अस्थिरनामापि शरी- अस्थिर नामकर्म कहते हैं। रावयवानामेव, यदुदयादस्थिरता चलता मृदुता अस्नानव्रत (अण्हारण)-१. ण्हाणादिवज्जणेण य भवति कर्ण-त्वगादीनां तदस्थिरनामेति । (त. भा. विलित्तजल्ल-मल-सेदसव्वगं । अण्हाणं घोरगूणं संजहरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२)। ७. चलभावनिवर्तक- मदुगपालयं मुणिणो ।। (मूला. १-३१)। २. संयममस्थिरनाम । (भ. प्रा. विजयो. टी. २१२४)। द्वयरक्षार्थं स्नानादेवर्जनं मुनेः। जल्ल-स्वेदमलालिप्त८. जीहा-भमुहाईणं अंगावयवाण जस्स उदएणं । गात्रस्यास्नानता स्मृता ॥ (प्राचा. सा. १-४३)। निप्फत्ती उ सरीरे जायइ तं अथिरनामं तु । (कर्म- १ शरीर के जल्ल (सूखा मैल), मल और पसीना वि. गर्ग. १४१, पृ. ५७)। ६. यदुदयाद् [अस्थ्या - से लिप्त होने पर भी इन्द्रियसंयम और प्राणिदयः शरीरावयवाः] जिह्वादिवदस्थिरा भवन्ति तद- संयम की रक्षा के लिए स्नान के सर्वथा परित्याग स्थिरनाम। (कर्मस्तव गो. व. ९-१०, पृ.८७)। को अस्नानव्रत कहते हैं । यह मुनि के २८ मूलगुणों १०. यतश्च भ्र-जिहादीनामस्थिराणां निष्पत्तिर्भ में से एक है। वति तदस्थिरनाम। (समवा. अभय. व. ४२)। अहंकार--१. अहंकृतिरहंकारोऽहमस्य स्वामीति ११. यदुदयात् एतेषां रसादिसप्तधातूनामस्थिरत्व- जीवपरिणामः । (युक्त्यनु. टी. ५२, पृ. १३२)। मुत्तरोत्तरपरिणामो भवति तदस्थिरनाम । (मूला. २. ये कर्मकृता भावा: परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः। वृ. १२-१९६) । १२. यदुदये जीवस्यास्थिरा ग्रीवा- तत्रात्माभिनिवेशोऽहंकारोऽहं यथा नृपतिः ।। (तत्वादयो भवन्ति तदस्थिरनाम । (कर्मवि. पू. व्या. ७५, नु. १५)। ३. अहंकारोऽहमेव रूपसौभाग्यसम्पन्न प. ३३)। १३. यस्योदयादीषदूपवासादिकरणे स्व- इति । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ४. कर्मजनिल्पशीतोष्णादिसम्बन्धाद्वाऽङ्गोपाङ्गानि कृशीभवन्ति तदेह-पुत्र-कलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्तत्रैवाभेदेन तदस्थिरनाम । (त. सुखबो. वृ. ८-११)। १४. गौर-स्थूलादिदेहोऽहं राजाहमित्यहंकारलक्षणमिति । यददयवशाज्जिहादीनामवयवानामस्थिरता भवति (ब. द्रव्यसं. टी. ४१)। तदस्थिरनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-१६३, पृ. २ जो कर्मजनित भाव वस्तुत: प्रात्मा से भिन्न हैं ४७४; धर्मसंग्रहणी मलय. वृ. ६२०; षष्ठ कर्मः उनमें अपनेपन का जो दुराग्रह होता है उसका मलय. वृ. ६; पंचसं. मलय. वृ. ३-८, पृ. ११७; नाम अहंकार है। प्रव. सारो. वृ. १२६५) । १५. यदुदयेन भ्र-जिह्वाद्य- अन्निश - अहोरात्रमष्टप्रहरात्मकमहन्निशम् । वयवा अस्थिरा भवन्ति तदस्थिरनाम । (शतक. (प्राव. नि. हरि. वृ. ६६३)। मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ५०; कर्मवि. दे. स्वो. पाठ पहरों के समुदायरूप दिन-रात को अहन्निश वृ. ५०, पृ. ५८)। १६. जिह्वा-भ्रूप्रभृतीनामंगा- कहते हैं। वयवानां यस्य कर्मण उदयान्निष्पत्तिः (पुनः) शरीरे अहिंसा-अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेजायते तत् अस्थिरनाम । (कर्मवि. परमा. व्या. व. ति । (पु. सि. ४४) । १४१, पृ. ५८) । १७. धातूपधातूनां स्थिरभावे- रागादि भावों को अनुभूति या अनुत्पत्ति को नानिवर्तनं यतस्तदस्थिरनाम । (गो. क. जी. प्र. टी. अहिंसा कहते हैं। ३३)। १५. अस्थिरभावकारकमस्थिरनाम। (त. अहिंसाणुव्रत-१. सङ्कल्पात् कृतकारितमननाद्योवृत्ति श्रुत. ८-११)। १६. तद्विपरीतमस्थिरनाम, गत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलयदुदयाज्जिह्वादीनां शरीरावयवानामस्थिरता । वधाद् विरमणं निपुणाः ।। (रत्नक. श्लो. ५३)। (कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ७-८)।
२. त्रसप्राणिव्यपरोपणान्निवृत्तोऽगारीति पाद्यमणु२. जिसके उदय में कुछ उपवास आदि के करने से व्रतम् । (स. सि. ७-२०)। ३. प्राणातिपाततः तथा थोड़े शीत या उष्णता के सम्बन्ध से अंग-उपांग स्थूलाद्विरतिः । (पद्मच. १४-१८४)। ४. द्वीन्द्रियाकृशता को प्राप्त होते हैं उसे अस्थिर नामकर्म कहते दिव्यपरोपणान्निवृत्तः । द्वीन्द्रियादीनां जनमानां हैं । ३ जिस कर्म के उदय से शरीर के कान व जीभ प्राणिनां व्यपरोपणात् त्रिधा निवृत्तः अगारीत्याद्य
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हिंसाणुव्रत ]
मणुव्रतम् । (त. वा. ७, २०, १) । ५. देवतातिथिप्रीत्यर्थं मंत्रौषधिभयाय च । न हिस्याः प्राणिनः सर्वे हिंसा नाम तद्व्रतम् ।। ( वराङ्ग १५-११२) । ६. त्रसस्थावरकायेषु त्रसकायाऽपरोपणात् । विरतिः प्रथमं प्रोक्तमहिंसाख्यमणुव्रतम् ।। (ह. पु. ५८ - १३८ ) । ७. वावरेइ सदग्रो अप्पाण समं परं पि मण्णंतो । णिदण- गरहणजुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥ तसघार्द
करमणकाहिं णेव कारयदि । कुव्वंतं पिण इच्छदि पढमबयं जायदे तस्स || (कार्तिके. ३३१-३२ ) । ८. प्रणुव्रतं द्वीन्द्रियादीनां जङ्गमप्राणिनां प्रमत्त योगेन प्राणव्यपोणान्मनोवाक्कायैश्च निवृत्तः । (चा. स. पू. ४) । ६. शुद्धीन्द्रियाणि भेदेषु चतुर्धा सकायिकाः । विज्ञाय रक्षणं तेषामहिंसाणुव्रतं मत्तम् ।। (सुभा. सं. ७६४) । १०. शान्ताद्यष्टकषायस्य सङ्कल्पैर्नवभिस्त्रसान् । श्रहिंसतो दयार्द्रस्य स्यादहिंसेत्यणुव्रतम् ।। (सा. ध. ४-७ ) । ११. देवयपियर - णिमित्तं मंतोसहिजंतभयनिमित्तेण । जीवा ण मारियव्वा पढमं तु श्रणुव्वयं होइ ॥ (ध. र. १४३)। १२. योगत्रयस्य सम्बन्धात् कृतानुमतकारितैः । न हिनस्ति त्रसान् स्थूलमहिंसाव्रतमादिमम् ।। (भावसं. वाम. ४५२) । १३. देवता - मंत्रसिद्धयर्थं पर्वण्यौषधि - कारणात् । न भवन्त्यङ्गिनो हिस्याः प्रथमं तदणुव्रतम् ।। ( पूज्य. उपा. २३) । १४. त्रसानां रक्षणं स्थूलदृष्टसंकल्पनागसाम् ( ? ) । निःस्वार्थं स्थावराणां च तदहसाव्रतं मतम् ।। ( धर्मसं. श्री. ६-८ ) । १५. सहिसापरित्यागलक्षणोऽणुव्रताऽऽह्वये ( लाटीसं. ५ - २६१) । १६. निरागो द्वीन्द्रियादीनां संकल्पाच्चानपेक्षया । ( धर्मसं. मान. २-२५, पृ. ५७) ।
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१ मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से त्रस जीवों की सांकल्पिक हिंसाका परित्याग करने को अहिंसाणुव्रत कहते हैं । श्रहिंसामहाव्रत - १. कुल जोणि जीव-मग्गण-ठाणाइस जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदम् ।। (नि. सा. ५६ ) । २. कायेंदियगुण- मग्गण - कुलाउ - जोणीसु सव्वजीवाणं । णाऊण य ठाणासु हिंसाविवज्जणमहिसा ।। (मूला. १-५ ) ; इंदियादिपाणा पंचविधाऽवज्जभीरुणा सम्मं । ते खलु ण हिंसिदव्वा मण वचि कायेण सव्वत्थ ॥ ( मूला. ५-६२ ) । ३. हिसानृत- स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो वि
१६४, जैन - लक्षणावली
[हिंसामहाव्रत
रतिव्रतम् ।। देश- सर्वतोऽणुमहती ॥ (त. सू. ७, १-२ ) । ४. पढमे भंते महत्वए पाणाइवायाश्रो वेरमणं सव्वं भंते X X X पढमे भंते महत्वए उवट्ठियोमि सव्वा पाणाइवायाओ वेरमणं । (दशवं. सूत्र ४-३, पृ. १४४ ) । ५. पढमे भंते महत्वए उवट्टिश्रोमि सव्वाओ पाणाइवायानो वेरमणं । ( पाक्षिकसूत्र पू. (१८) । ६. अहिंसा नाम पाणातिवायविरती । (दशवं. चू. पू. १५ ) ; साय अहिंसाइ वा अज्जीवाइवातो त्ति वा पाणातिपातविरइत्ति वा एगट्टा | ( दशवे. चू. पू. २० ) । ७. क्रियासु स्थान पूर्वासु वधादिपरिवर्जनम् । षण्णां जीवनिकायानामहिंसाऽऽयं महाव्रतम् ॥ ( ह. पु. २ - ११७) । ८. प्राणिवियोगकरणं प्राणिनः प्रमत्तयोगात् प्राणवधः, ततो विरतिरहिंसाव्रतम् (भ. प्रा. विजयो. टी. ४२१, पृ. ६१४) । ६. श्रप्रतिपीडयाः सूक्ष्मजीवाः, बादरजीवानां गत्यादिमागणा- गुणस्थान - कुल योन्याऽऽयुष्यादिकं ज्ञात्वा गमनस्थान- शयनासनादिषु स्वयं न हननम्, परैर्वा न घातनम् श्रन्येषामपि हिंसतां नानुमोदनं हिंसाविरतिः ( हिंसा महाव्रतम् ) । (चा. सा. पृ. ४० ) । १०. सत्याद्युत्तरनिःशेषयमजातनिबन्धनम् । शीलंश्चयद्यधिष्ठानमहिंसाख्यं महाव्रतम् ॥ वाक्-चित्ततनुभिर्यत्र न स्वप्नेऽपि प्रवर्तते । चर-स्थिराऽङ्गिनां घातस्तदाद्यं व्रतमीरितम् ।। (ज्ञानार्णव ८, ७-८ ) । ११. प्रमादोऽज्ञान- संशय-विपर्यय-राग-द्वेष-स्मृतिभ्रंशयोगदुष्प्रणिधान धर्मानादरभेदादष्टविधः । तद्योगात् त्रसानां स्थावराणां च जीवानां प्राणव्यपरोणं हिंसा, तन्निषेधादहिंसा प्रथमं व्रतम् । (योगशा. स्वो विव. १ -२० ) । १२. जन्म-काल- कुलाक्षाद्यैर्ज्ञात्वा सत्त्वतति श्रुतेः । त्यागस्त्रिशुद्धया हिंसादे: स्थानादौ स्यादहिंसनम् ॥ ( श्राचा. सा. १ - १६) । १३. न यत् प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । त्रसानां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम् ।। (योगशा. १-२०; त्रि. श. पु. चू. १, ३, ६२२ ) । १४. सव्वा पाणाइवायाश्रो वेरमणं । (समवा. ५ ) । १५. पाणातिपातं तिविहं तिविहेण णेव कुज्जा ण कारवे पढमं सो व्वयलक्खणं । ( नारदाध्ययन १ - ३ ) । १६. तसाणां थावराणं च जं जीवाणमहिंसणं । तिविहेणावि जोगेण पढमं तं महव्वयं ॥ ( गु. गु. षट् स्वो वृ. पू. १३) । १७. प्रमादयोगतोऽशेषजीवाऽसुव्यपरोपणात् । निवृत्तिः सर्वथा यावज्जीवं सा प्रथमं व्रतम् ॥ ( धर्मसं.
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अहोरात्र]
१६५, जैन-लक्षणावली
[आकस्मिक भय
मान. ३-४०, पृ. १२१)। १५. प्रमादयोगाद्यत्सर्व- परोपकरणानां यद दानमाकम्पितं मतम् ।। (प्राचा. जीवास्वव्यपरोपणम् । सर्वथा यावज्जीवं च प्रोचे सा. ६-२६)। ७. प्राकम्पितं गुरुच्छेदभयादावर्जनं तत् प्रथमं व्रतम् ॥४।। (अभि. रा. भा. १, पृ. गुरोः । (अन. ध. ७-४०)। ८. प्रावजितः सन्ना८७२)।
चार्यः स्तोक मे प्रायश्चित्तं दास्यतीति बुद्धया वैया२ काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, प्रायु और वृत्त्यकरणादिभिरालोचनाचार्यमाकम्प्य प्रारभ्य यदायोनि; इनके प्राश्रय से सब जीवों को जानकर लोचयति एष (आकम्पित) आलोचनादोषः। (व्यव. स्थान-शयनादि क्रियाओं में हिंसा का परित्याग भा. मलय. व. १-३४२, पृ. १६)। ६. पालोचनां करना; इसका नाम अहिंसामहावत है।
कुर्वन् शरीरे कम्प उत्पद्यते भयं करोतीत्याकम्पितअहोरात्र-१. एएणं मुहुत्तपमाणेणं तीसं मुहुत्ता दोषः । (भावप्रा. टी. ११८) । १०. प्राकम्पितम् अहोरत्तं । (अनयो. १३७. प. १७६)। २. तीसमहत्ता उपकरणादिदानेन गुरोरनुकम्पामुत्पाद्य व अहोरत्तो। (जीवसमास १०८; भगवती. श. ६ (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। जम्बूद्वी. सू. १८)। ३. ते (मुहर्ताः) त्रिंश- १ मोजन, पान, उपकरण और कृतिकर्म के द्वारा दहोरात्रम् । (त. भा. ४-१५)। ४. त्रिंशन्मुहर्ता प्राचार्य को अपने प्रति दया करते हुए कोई अहोरात्रः। (त. वा. ३, ३८, ७, पृ. २०६; त. आलोचना करता है । वह सोचता है कि इस प्रकार सुखबी. ३-३८)। ५. अहोरात्रमष्टप्रहरात्मकम, अह- से सब पालोचना हो जावेगी व प्राचार्य यह अनन्निशमित्यर्थ । (प्राव. नि.हरि. वृ. ६६३, पृ. २५७)। ग्रह-अल्प प्रायश्चित्त देने रूप-करेंगे ही। उक्त ६. कलाया दशमभागश्च त्रिशन्महतं च भवत्यहो- क्रिया से पालोचना करने पर आकम्पित दोष रात्रः। (धव. पु. ६, पृ. ६३) । ७. त्रिंशन्मुहूर्तमहो- होता है। रात्रम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५)। ८. गगन- प्राकर-१. पाकरो लवणाद्युत्पत्ति भूमिः । (औपपा. मणिगमनायत्तो दिवा रात्रः (अहोरात्रः)। (पंचा. अभय. वृ. ३२, पृ. ७४; प्रश्नव्या. ७. पृ. ७५)। का. अमृत. वृ. २५) । ६. त्रिंशन्मुहूर्तेरहोरात्रः। २. आकरो लोहाद्युत्पत्तिभूमिः । (कल्पसू. वृ. (पंचा. का. जय. वृ. २५)। १०. आदित्यस्य हि ४-८८)। परिवर्तनं मेरुप्रादक्षिण्येन परिभ्रमणं अहोरात्रमभि- नमक प्रादि (लोहा व गेरू प्रादि) के उत्पन्न होने धीयते । (न्यायकु. २-७, पृ. २५५) । ११. षष्टि- के स्थान को-खनिको-पाकर कहते हैं। नालिकमहोरात्रम् । (नि. सा. वृ. ३१)। अाकर्ष-अाकर्षणम् आकर्षः, प्रथमतया मुक्तस्य वा १ तीस मुहूर्त प्रमाण काल को अहोरात्र कहते हैं। ग्रहणम् । (आव. नि. हरि. व मलय. व. ८५७)। प्राकम्पित-१. भत्तेण व पाणण व उवकरणेण सम्यक्त्व, श्रत, देशविरति और सर्वविरति: इन किरियकम्मकरणेण । अणुकंपेऊण गणि करेइ पालो- सामायिकों को प्रथम बार छोड़कर जो फिर से यणं कोई ॥ पालोइदं असेसं होहिदि काहिदि अणु- ग्रहण करना है, उसका नाम प्राकर्ष है। ग्गहमिमो त्ति । इय पालोचंतस्स हु पढमो पालो- आकस्मिक भय-देखो अकस्माद्भय । १. बज्झयणादोसो ॥ (भ. पा. ५६३-६४)। २. उपकर- णिमित्ताभावा जं भवमाकम्हियं तं ति। (विशेषा. णेषु दत्तेषु प्रायश्चित्तं मे लघु कुर्वन्तीति विचिन्त्य ३४५१) । २. यत्तु बाह्यनिमित्तमन्तरेणाहेतुकं भयम् दानं प्रथममालोचनादोषः । (त. वा. ६, २२, २)। अकस्माद् भवति तदाकस्मिकम् । (प्राव. भा. हरि. ३. प्रायश्चित्तलघुकरणार्थमुपकरणदानम् । (त. श्लो. वृ. १८४, पृ. ४७२) । ३. यद् बाह्यनिमित्तमन्तरे६-२२) । ४. तत्रोपकरणेषु दत्तेषु प्रायश्चित्तं मे लघु णाहेतुकं भयमुपजायते तदकस्माद् भवतीत्याकस्मिकुर्वीतेति विचिन्त्य भयदादानं [भयाद्दानं] प्रथम प्राक- कम । (श्राव. भा. मलय. व. १८४, प. ५७३)। म्पितदोषः । (चा. सा. पू. ६१)। ५. भक्त-पानोप- ४. विद्युत्पाताद्याकस्मिकभयम् । (त. वृत्ति श्रुत. करणादिनाचार्यमाकम्प्यात्मीयं कृत्वा यो दोषमालो- ६-२४) । ५. अकस्माज्जातमित्युच्चैराकस्मिकभयं चयति तस्याकम्पितदोषो भवति । (मूला. वृ. ११, स्मृतम् । तद्यथा विद्युदादीनां पातात्पातोऽसुधारि१५)। ६. ददात्यल्पं मम प्रायश्चित्तं भीत्येति सूरये। णाम् ।। भीतिभूयाद्यथा सौस्थ्यं मा भूद् दौस्थ्यं कदापि
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आकस्मिकी क्रिया] १६६, जैन-लक्षणावली
[आकाश मे। इत्येवं मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा।। अर्था- प्रतिवस्तुनियतो ग्रहणपरिणामः । (पंचसं. मलय. दाकस्मिकभ्रान्तिरस्ति मिथ्यात्वशालिनः । कुतो व. गा.५, पृ. ७)। १०. आकारोऽर्थविकल्पः स्यात् मोक्षोऽस्य तदभीतेनिर्भीकैकपदच्युते: ।। (पंचाध्यायी Xxx। (लाटीसं.३-१६; पञ्चाध्यायी २, २, ५४३-४५; लाटीसं. ४, ६६-६८)। ४. निहें- ३६१)। तुक केवलस्वमनोभ्रान्तिजनितं यद भयं तदाकस्मिक- १ अन्तरङ्ग अभिप्राय को सूचित करने वाली शरीर भयम् । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ६, पृ. २५)। की बाह्य चेष्टा को प्राकार कहते हैं । ३ कर्म-कर्ता१ बाह्य निमित्त के बिना जो अकस्मात् भय होता पन को प्राकार कहा जाता है। ७ सत्तासामान्य की है वह प्राकस्मिक भय कहलाता है।
अपेक्षा अवान्तर जातिविशेषरूप मनुष्यत्वादि को प्राकस्मिकी क्रिया--सहसाकारेण आकस्मिकी। प्राकार कहते हैं। इस प्रकार के आकार को अवग्रह क्रिया। (गु. गु. षट. स्वो. वृ. १५, पृ. ४१)। ग्रहण किया करता है। सहसा किसी कार्य के हो जाने को आकस्मिकी क्रिया आकारशुद्धि-प्राकारशुद्धिस्तु राजाद्यभियोगादिकहते हैं।
प्रत्याख्यानापवादमुक्तीकरणात्मिकेति । (धर्मबिन्द्र प्राकाङ्क्षा -१. अभिधानापर्यवसानमाकाङ्क्षा । म. ७.३-१४)। (अष्टस. यशो. व.१०३, प. ३५३)। २.xxx राजादि के द्वारा लगाये गये अभियोग से व व्रतादियत्पदं विना यत्पदस्यानन्वयस्तत्पदे तत्पदवत्त्वरूपे सम्बन्धी अपवाद से मुक्त करने को प्राकारशद्धि सम्बन्धे पदान्तरव्यतिरेकेणान्वयाभावे च। (अभि- कहते हैं। यह प्राकारशद्धि अणव्रतादि ग्रहण की धा. २, पृ. ५७)।
विधि में गभित है। शब्दसमाप्ति के न होने का नाम प्राकाङ्क्षा है। प्राकाश-१. सव्वेसि जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गअभिप्राय यह कि जब तक शब्दों से श्रोता को लाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि विवक्षित अर्थ का बोध नहीं होता है, तब तक प्रायासं ॥ (पंचा. का. गा. १०)। २. अवगहणं उसकी आकाङ्क्षा बनी रहती है।
प्रायास जीवादीसव्वदव्वाणं ।। (नि. सा. ३०)। प्राकार --१.पाक्रियतेऽनेनाभिप्रेतं ज्ञायते इत्याकारो ३. आकाशस्यावगाहः। (त. सू. ५-१८)। ४. जीवबाह्यचेष्टारूपः । स एवान्तराकूतगमकरूपत्वात्वाल्ल- पुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाहः आकाक्षणमिति । (प्राव. नि. हरि. व. ७५१, पृ. २८१)। शस्योपकारो वेदितव्यः । (स. सि. ५-१८)। ५. २. प्राकारोऽगुलि-हस्त-भ्रू-नेत्रक्रिया-शिर:कम्पादि- अाकाशं व्यापि सर्वस्मिन्नवगाहनलक्षणम् । (वरांग. रनेकरूपः परशरीरवर्ती। XXXआकार: शरी- २६-३१)। ६. अाकाशन्तेऽस्मिन् द्रव्याणि स्वयं रावयवसमवायिनी क्रियाऽन्तर्गतक्रियासूचिका । चाकाशते इत्याकाशम् । (त. वा. ५, १, २१: त. अनधिकृतसन्निधौ चेष्टाविशेषैः स्वाकूतप्रकाशनमा- एलो. ५-१); जीवादोनि द्रव्याणि स्वैः स्वः पर्यायः कारः। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-२१)। अव्यतिरेकेण यस्मिन्नाकाशन्ते प्रकाशन्ते तदाकाशम, ३. कम्म-कत्तारभावो आगारो। (धव. पु. १३, पृ. स्वयं चात्मीयपर्यायमर्यादया अाकाशते इत्याकाशम् । २०७) । ४. पमाणदो पूधभूदं कम्ममायारो। (जय- अवकाशदानाद्वा। अथवा इतरेषां द्रव्याणाम् अवध. १, पृ. ३३१); पायारो कम्मकारयं सयलत्थ- काशदानादाकाशम् । (त. वा. ५, १,२१-२२)। ७. सत्थादो पुध काऊण बुद्धिगोयरमुवणीयं । (जयध. सव्वदव्वाण अवकासदाणतणतो आगासं। (अनुयो. १, पृ. ३३८)। ५. भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यव- च. पृ. २६)। ८. आगासस्थिकायो अवगाहलक्खणो। स्थया । (म. प्र. २४-२)। ६. कोप-प्रसादजनिता (दशवै. चु. ४, पृ. १४२) । ६. सर्वद्रव्यस्वभावाssशारीरी वृत्तिराकारः। (नीतिवा. १०-३७) । दीपनादाकाशम्, स्वभावेनावस्थानादित्यर्थः । (अनुयो. ७. आकारः सत्त्वसामान्यादवान्तरजातिविशेषो मनु- हरि. व. पु. ४१) । १०. प्राकाशन्ते दीप्यन्ते स्वज्यत्वादिः । (न्यायकु. १-५, पृ. ११६)। ८. प्राकारः धर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम् । (दशव. हरि. स्थलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावसूचको दिगवलोकना- व. १-११८)। ११. एवमागासदव्वं पि (बवगदपंचदिः । (जीतक. चू. वि. व्याख्या पृ. ३८) । ६. अाकार: वण्णं, ववगदपंचरसं, ववगददुगंधं, ववगदअट्ठफासं)।
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प्रकाश ]
वरि श्रागा सदव्यमणंतपदेसियं सव्वगयं श्रोगाहणलक्खणं । ( धव. पु. ३, पृ. ३); ग्रोगाहणलक्खणं आयासदव्वं । ( धव. पु. १५, पृ. ३३) । १२. जीवादीनां पदार्थानामवगाहनलक्षणम् । यत् तदाकाशमस्पर्शममूर्तं व्यापि निष्क्रियम् । (म. पु. २४-३८; जम्बूस्वा. ३ - ३८ ) । १३. श्राकाशमनन्तप्रदेशाध्यासितं सर्वेषामवकाशदानसामर्थ्यपेतम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ३६) । १४ सयलाणं दव्त्राणं जं दादु सक्कदे हि अवगासं । तं श्रायासं X×× ॥ ( कार्तिके. २१३) । १५. तच्च (क्षेत्र) अवगाहलक्षणमाकाशम् । (सूत्रकृ शो. वृ. १, नि. ६, पृ. ५) । १६. जीवादीनि द्रव्याणि स्वैः स्वैः पर्यायव्यतिरेकेण यस्मिन्नाकाशन्ते प्रकाशन्ते तदाकाशम् । स्वयं चात्मीयपर्यायमर्यादया श्राकाशते इत्याकाशम् । (त. सुखबो. ५ - १ ) । १७. द्रव्याणामवकाशं वा करोत्याकाशमस्त्यतः ॥ जीवानां पुद्गलानां च कालस्याधर्म-धर्मयोः 1 अवगाहन हेतुत्वं तदिदं प्रतिपद्यते ॥ (त. सा. ३, ३७-३८ ) । १८. सव्वेसि दव्वाणं श्रवयासं देइ तं तु प्रयासं । ( भावसं. दे. ३०८ ) । १६. चेयणरहियममुत्तं प्रवगाहणलक्खणं च सव्वगयं । लोयालोयविभेयं तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठ || (बृ. न. च. 8८) । २०. अवकाशप्रदं व्योम सर्वगं स्वप्रतिष्ठितम् । (ज्ञानार्णव ६- ३५, पृ. ६० ) । २१. नित्यं व्यापकमाकाशमवगा हैकलक्षणम् । चराचराणि भूतानि यत्रासम्बाधमासते ।। (चन्द्र. च. १८-७२ ) 1 २२. अवगाहनलक्षणमाकाशम् । (पंचा. का. जय. वृ. ३) । २३. पञ्चानामवकाशदानलक्षणमाकाशम् । (नि. सा. वृ. १ - ९ ) ; प्रकाशस्य अवकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः । (नि. सा. वृ. १-३०) । २४. सर्वगं स्वप्रतिष्ठं स्यादाकाशमवकाशदम् । लोकालोको स्थितं व्याप्य तदनन्तप्रदेशभाक् ॥ (योगशा. स्वो विव. १ - १६, पृ. ११२ ) । २५. सर्वेषां द्रव्याणामवकाशदायकमाकाशम् । (भ. आ. मूला. टी. ३६; आरा. सा. टी. ४) । २६. आ समन्तात् सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानि इत्याकाशम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. ४ ) । २७. श्राङिति मर्यादया स्व-स्वभावपरित्यागरूपया काशन्ते स्वरूपेण प्रतिभासन्ते श्रस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इत्याकाशम् । यदा त्वभिविधावाङ् तदा श्राङिति सर्वभावाभिव्याप्त्याकाशते इत्याकाशम् ।
[ आकाशगामित्व
( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १ - ३ ) । २८. अवगाहो प्रागासं XXX | ( नवतत्त्वप्र. गा. १० ) । २३. अवगा - हनक्रियावतां जीव- पुद्गलादीनां तत्क्रियासाधनभूतमाकाशद्रव्यम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ६०५) । ३०. सकलतत्त्वमनन्तमनादिमत्सकलतत्त्व निवासदमात्मगम् । द्विविधमाह कथंचिदखण्डितं किल तदेकमपीह समन्वयात् ॥ ( अध्यात्मक. ३-३३) । ३१. यो दत्ते सर्वद्रव्याणां साधारणावगाह्नम् । लोकालोकप्रकारेण द्रव्याकाशः स उच्यते । (द्रव्यानु. १०-९) ।
१ जो सब जीवों को तथा शेष-- धर्म, अधर्म और काल — एवं पुद्गलों को भी स्थान देता है उसे काश कहते हैं ।
णाम
आकाशगता चूलिका – १० श्रायासगया तेत्तिएहि चेव पदेहि ( २०६८६२०० ) ग्रागासगमणणिमित्तमंत-तंत-तवच्छरणणि वण्णेदि । ( धव. पु. १ पृ. ११३; जयध. १, प. १३६); श्राकाशगतायाम् द्विकोटि-नवशतसहस्रं कान्ननवतिसहस्र - द्विशतपदायां ( २०६८६२०० ) प्राकाशगमनहेतुभूतविद्या मंत्र-तंत्र- तपोविशेषाः निरूप्यन्ते । ( धव. पु. ६, पृ. २१०; श्रुतभक्ति टी. ε; गो. जी. जी. प्र. ३६२ ) । २. सुण्णदुगं वाणवदी श्रवणवदी सुण्ण दो वि कोडियं । श्रायासे गमणाणं तंत- मंतादिगयणगया । ( श्रुतस्कन्ध ३६ ) । ३. प्रयास गया गमणे गमणस्स सुमंत-तंत जंताइ । हेवणि कहदि तवमवि तत्तियपयमेत्तसंबद्धा || ( अंगप. ३-६ ) । १ प्रकाश में गमन करने के कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तप का वर्णन करने वाली चूलिका को प्राकाशगता चूलिका कहते हैं । श्राकाशगामित्व - १. उट्ठीग्रो प्रासीणो काउस्सग्गेण इदरेण ॥ गच्छेदि जीए एसा सिद्धी गयणगामिणी णाम । ( ति प ४, १०३३-३४) । २. पर्यावस्थानिषण्णा वा कायोत्सर्गशरीरा वा पादोद्धारनिक्षेपणविधिमन्तरेणाकाशगमन कुशला प्राकाशगामिनः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०२; चा. सा. पृ. ९७ ) । ३. पलियंक - काउस्सग्ग-सयणासणपादुक्खेवादिसव्वपयारेहिं प्रागासे संचरणसमत्था
गागामिणो । ( धव. पु. ६, पृ. ८० ) ; आगासे जहिच्छाए गच्छंता इच्छिदपदेसं माणुसुत्त रपब्वयावरुद्धं श्रागासगामिणो त्ति घेत्तव्वा । ( धव. पु. ६,
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आकाशचारण ]
पृ. ८४) । ५. पर्यंकासनेनोपविष्टः सन् श्राकाशे गच्छति, ऊर्ध्वस्थितो वा आकाशे गच्छति, सामान्यतयोपविष्टो वा आकाशे गच्छति, पादनिक्षेपणोत्क्षेपणं विना आकाशे गच्छति प्राकाशगामित्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)
२ जिस ऋद्धि के प्रभाव से पर्यंकासन से बैठे हुए अथवा कायोत्सर्ग से स्थित साधु पैरों को उठाने व रखने की विधि के बिना ही श्राकाशगमन में कुशल होते हैं उसे श्राकाशगामित्व या आकाशगामिनी ऋद्धि कहते हैं । आकाशचाररण - चउहिं अंगुलेहितो ग्रहियपमाण भूमीदो उवरि आयासे गच्छंतो आगासचारणा गाम । XXX जीवपीडाए विणा पादुक्खवेण आगासचारणा णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ८० ) ; चरणं चारितं संजमो पावकिरियाणिरोहोत्ति एयट्ठो, तम्हि कुसलो णिउणो चारणो, तवविसेसेण जणि मागासट्ठियजीव [वध ] परिहरण कुसलत्तणेण सहिदो श्रागासचारणो । श्रागासगमण मेत्तजुत्तो आगासगामी । आगासगामित्तादो जीववधपरिहरणकुसलत्तणेण सहिदो आगासचारणो । आगासगमणमेत्त जुत्तो आगासगामी । श्रागासगामित्तादो जीववधपरिहरणकुसलत्तणेण विसेसिदग्रागासगामित्तस्स विसेसुवलंभादो प्रत्थि विसेस | धव. पु. ६, ८४-८५)। भूमि से चार अंगुल ऊपर प्रकाश में चलने को शक्ति वाले साधुत्रों को श्राकाशचारण कहते हैं । ये श्राकाशचारण ऋषि पादक्षेप करते हुए भी प्राणियों को पीड़ा न पहुँचा कर आकाश में गमन किया करते हैं । श्राकाशातिपाती-ग्राकाशं व्योम, प्रतिपतन्ति अतिक्रामन्ति, आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादले - पादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीलानाकाशातिपातिनः । श्राकाशवादिनो वा— अमूर्तानामपि पदार्थानां साधने समर्थवादिन इति भावः । ( श्रपपा अभय वृ. १५, पृ. २९ ) ।
जो श्राकाशगामी विद्या के प्रभाव से श्रथवा पादलेपादि के प्रभाव से श्राकाश में आ जा सकते हैं, श्रथवा श्राकाश से इष्ट व अनिष्ट सोने आदि की वर्षा कर सकते हैं वे श्राकाशातिपाती कहे जाते हैं ।
[ अकिञ्चन्य
श्रथवा जो श्रमूर्त श्राकाशादि की सिद्धि में समर्थ होते हैं उन्हें श्राकाशादिवादी कहते हैं । श्राकाशादिवादी- देखो श्राकाशातिपाती । श्राकाशास्तिकायानुभाग - जीवादिदव्वाणमाहारत्तमागासत्थियाणुभागो (धव. पु. १३, पृ. ३४६ ) । जीवादि द्रव्यों को श्राश्रय देना, यह श्राकाशास्तिकायानुभाग है ।
आकिञ्चन्य - १. होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुह-दुहृदं । गिद्द देण दु वट्टदि प्रणयारो तस्सऽचिन्हं ॥ ( द्वादशानु. ७६ ) । २. उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिः प्राकिञ्चन्यम् । नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः, तस्य भावः कर्म वाकिञ्चन्यम् । ( स. सि. ९-६; न. ध. स्व. टी. ६-५४) । ३. शरीर - धर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमा किञ्चन्यम् । ( त. भा. ६-६) । ४. ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम् । उपातेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यमित्याख्यायते । नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः, तस्य भावः कर्म वाकिञ्च - न्यम् || (त. वा. ६, ६, २१) । ५. पक्खी उबमाए जं धम्मुवगरणाइलोभ रेगेण ( ? ) । वत्थुस्स श्रगहणं खलु तं प्राचिणमिह भणियं ॥ ( यतिधर्मवि. ११, १३) । ६. अकिञ्चनता सकलग्रन्थत्यागः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ४६ ) । ७. तिविहेण जो विवज्जदि चेयणमियरं च सव्वहा संगं । लोयववहारविरदो णिग्गंथत्तं हवे तस्स ।। ( कार्तिके. ४०२ ) । ८. ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । ग्रभिसन्धिनिवृत्तिर्या तदाकिञ्चन्यमुच्यते । (त. सा. ६ - २० ) । ६. XX X वपुरादिनिर्ममतया नो किञ्चनाssस्ते यतेराकिञ्चन्यमिदं च संसृतिहरो धर्मः सतां सम्मतः ॥ ( पद्मनं. पं. १ - १०१ ) । १०. ग्रकिञ्चनोऽहमित्यस्मिन् पथ्यक्षुण्णच रे चरन् । तददृष्टतरं ज्योतिः पश्यत्यानन्दनिर्भरम् || ( अन ध. ६ - ५४) । ११. उपानेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहनं नैर्मल्यं वा आकिञ्चन्यम् । (त. सुखबो. ९-६ ) । १२. नास्ति अस्य किञ्चन किमपि किञ्चनो निष्परिग्रहः, तस्य भावः कर्म वा ग्रकिञ्चन्यम् । निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसन्धिनिषेधनमित्यर्थ: । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ६ ) ।
१ जो अनगार (साधु) बाह्य श्राभ्यन्तर समस्त
१६८, जैन- लक्षणावली
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प्राकीर्ण ]
परिग्रह से रहित होकर सुख-दुख देने वाले निज भाव - राग-द्वेष का निग्रह करता हुआ निर्द्वन्दभाव से - सर्व संक्लेश से रहित होकर निराकुल भाव से रहता है उसके प्राकिंचन्य धर्म होता है । प्राकी ( इण्ण) - १. प्रकीर्यते व्याप्यते विनयादिभिर्गुणैरिति प्रकीर्ण: । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. गा. १-६४, पृ. ४६ ) । २. श्रइण्णं णाम जं साहूहि आयरियं विणा वि श्रमादिकारणेहि गेण्हई | ( अभिधा २, पृ. ५) ।
१ जो विनयादि गुणों के द्वारा व्याप्त किया जाता है— उनसे परिपूर्ण होता है उसे आकीर्ण कहते हैं। कुञ्चन (ग्राउंटर ) - १. ग्राउंटणं गात्रसंखेवो । ( आव. चू. ६, गा. ११४) । २. ग्राकुञ्चनं जंघादे: सङ्कोचनम् । ( प्रव. सारो. वृ. २०६, पृ. ४८ ) । २ जांघ श्रादि के संकोचने को प्राकुञ्चन कहते हैं । श्राकुट्टी - 'कुट्ट छेदने श्राकुट्टनमा कुट्टः, स विद्यते यस्यासावाकुट्टी । (सूत्रकृ. शी. वृ. १, १, २, २५ ) । प्राणी के अवयवों के छेदन-भेदनादिरूप व्यापार का नाम श्राकुट्ट है। उससे जो सहित होता है उसे श्राकुट्टी कहा जाता है ।
१६६, जैन - लक्षणावली
श्राक्रन्दन - १. परितापजाताश्रुपातप्रचुरविप्रलापादिभिर्व्यक्त क्रन्दनमाक्रन्दनम् । ( स. सि. ६ - ११; त. वा. ६, ११, ४; त. इलो. ६-११) । २. परितापनिमित्तेन अश्रुपातेन प्रचुरविलापेन अंगविकारादिना चभिव्यक्तं क्रन्दनम् प्राक्रन्दनं प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ६, ११, ४) । ३. ग्राक्रन्दनमुच्चैरार्तविलपनम् । ( त. भा. हरि वृ. ६-१२ ) । ४. परितापसंयुक्ताश्रु निपाताङ्गविकारप्रचुरविलापादिव्यक्तम् नम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१२ ) । ५. श्राक्रन्द्यते आक्रन्दनम् । परितापसंजातवाष्पपतन बहुविलापादिभिर्युक्तं प्रकटं अंगविकारादिभिर्युक्तं क्रन्दनमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-११) ।
आक्रन्द
१ परिताप के कारण प्रभुपातपूर्वक विलाप करते हुए चिल्ला-चिल्ला कर रोने को श्राक्रन्दन कहते हैं । प्राक्रोशपरीषहजय - १. मिथ्यादर्शनोदृप्तामर्ष परुयावज्ञानिन्दासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिखाप्रवर्धनानि शृण्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुमपि शक्नुवतः पापकर्मविपाकमभिचिन्त
ल. २२
[आक्रोशपरीषहजय
यतस्तान्याकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषाय- विषंलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरीहसनमवधार्यते । ( स. सि. ६-६; पंचसं. मलय. वृ. ४-२३) । २. ग्रक्कोसेज्ज परो भिक्खु न तेसिं पडसंजले । सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खु न संजले ।। (उत्तरा २-२४) । ३. श्रनिष्टवचनसहनमाक्रोशपरीषहजयः । तीव्र मोहाविष्टमिथ्यादृष्टया र्य-म्लेच्छ-खलपापाचार मत्तोदृप्तशंकित प्रयुक्त 'मा'शब्द-धिक्कार-परुषावज्ञानाक्रोशादीन् कर्णविरेचनान्
-
हृदयशूलोद्भावकान् क्रोधज्वलनशिखाप्रवर्धनकरानप्रियान् शृण्वतोऽपि दृढमनसः भस्मसात् कतुमपि समर्थस्य परमार्थावगाहितचेतसः शब्दमात्रश्राविणस्तदर्थान्वीक्षणविनिवृत्तव्यापारस्य स्वकृताशुभकर्मोदयो ममैष यतोऽमीषां मां प्रति द्वेष इत्येवमादिभिरुपायैरनिष्टवचन सहन माक्रोशपरीषहजय इति निर्णीयते । (त. वा. ६, ६, १७; चा. सा. पृ. ५३ ) । ४. आक्रोश: ग्रनिष्टवचनम्, तद् यदि सत्यं कः कोपः ? शिक्षयति हि मामयमुपकारी, न पुनरेवं करिष्यामीति । असत्यं चेत् सुतरां कोपो न कर्तव्य इत्याक्रोशपरीषहजयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) । ५. श्राक्रोशस्तीर्थयात्राद्यर्थ पर्यटतः मिथ्यादृष्टिविमुक्तावज्ञा संघनिन्दावचनकृता बाधा, X X X क्षमणं सहनम् XX X ततः परीषहजयो भवति । (मूला. वृ. ५-५७ )। ६. मिथ्यादर्शनोदृप्तोदीरितान्यमर्षाविज्ञा- निन्दावचनानि क्रोधहुतवहोद्दीपनपटिष्ठानि शृण्वतोऽपि तत्प्रतीकारं कर्तुमपि शक्नुवतो दुरन्तः क्रोधादिकषायोदयनिमित्तपापकर्मविपाक इति चिन्तयतो यत्कषायलवमात्रस्यापि स्वहृदयेऽनवकाशदानमेष आक्रोशपरीषहविजय: । (पंचसं. मलय. वृ. ४- २३ ) । ७. वर्णी कर्ण-हृदां विदारणकरान् क्रूराशयैः प्रेरितानाक्रोशान् धन गर्जतर्जन खरान् शृण्वन्नशृण्वन्निव । शक्त्यात्युत्तमसम्पदापि सहित: शान्ताशयश्चिन्तयन् यो बाल्यं खलसंकुलस्य शयनक्लेशक्षमी तं स्तुवे ॥ ( श्राचा. सा. ७ - २१ ) 1८. मिथ्यादृशश्चण्ड दुरूक्तिकाण्डैः प्रविश्यतोऽरुंषि मृधं निरोद्धम् । क्षमोऽपि यः क्षाम्यति पापपाकं ध्यायन् स्वमाक्रोशसहिष्णुरेषः ।। ( अन. ध. ६ - १०० ) । ६. परं भस्मसात्कर्तुं शक्तस्याप्यनिष्टवचनानि शृण्वतः परमार्थावहितचेतसः स्वकर्मणो दोषं प्रयच्छ.
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[प्रागति
माक्षेपणी कथा]
१७०, जैन-लक्षणावली तोऽनिष्टवचनसहनमाकोशजयः। (प्रारा. सा. टी. णाम छद्दव्व-णवपयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समवायां४०) । १०. यो मुनिमिथ्यादर्शनोद्धततीव्रक्रोधसहि- तरणिराकरणं सुद्धि करेंती परूवेदि । (धव. पु. तानामज्ञानिजनानामवज्ञानं निन्दामसभ्यवचनानि च १, पृ. १०५); आक्षेपणी तत्त्वविधानभूतां xx लम्भितोऽपि शृण्वन्नपि क्रुधग्निज्वालां न प्रकटयति, XI (धव. पु. १. पृ. १०६ उ.)। ६. आक्षेपणी स्वआक्रोशेषु अकृतचेतास्तत्प्रतीकारं विधातुं शीघ्र मतसंग्रहणीxxx यथार्हम् । (अन. ध. ७-८८)। शक्नुवन्नपि निजपापकर्मोदयं परिचिन्तयन् तद्वा- ७. प्रथमानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगक्यान्यश्रुत्वा तपोभावनापरान्तरङ्गो निजहृदये कषा- रूपपरमागमपदार्थानां तीर्थकरादिवृत्तान्त-लोकसंस्थायविषमविषकणिकामपि न करोति स मुनिराक्रोश- न-देश-सकलयतिधर्म-पंचास्तिकायादीनां परमताशंकापरीषहविजयी भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। रहितं कथनं आक्षेपणी कथा। (गो. जी. मं.प्र. व ११. आक्रोशनमाक्रोशोऽसत्यभाषात्मकः, स एव जी. प्र. टी. ३५७)। ८. आयारं ववहारं हेऊ परीषहः आक्रोशपरीषहः । (उत्तरा. शा. व. २, पृ. दित-दिदिवायाई। देसिज्जइ जीए सा अक्खेवणि८३)। १२. आक्रोशोऽनिष्टवचनम्, तच्छु त्वा देसणा पढमा ॥ (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २, पृ. ५) । सत्येतरालोचनया न कुप्येत । (प्राव. ४, हरि. ६. आक्खेवणीकहाए कहिज्जए कहिज्जमाणाए] व. पु. ६५७)। १३. अाक्रुष्टोऽपि हि नाक्रो- पण्हदो सुभव्वस्स । परमदशंकारहिदं तित्थयरपुराणशेत् क्षमाश्रमणतां विदन् । प्रत्युताक्रोष्टरि यति- वित्तंतं ।। पढमाणुप्रोग-करणाणुप्रोग-वरचरण-दव्वश्चिन्तयेदुपकारिताम् ॥ (ध. ३ अधि.-अभिधा. अणुयोगं । सठाणं लोयस्स य जदि-सावय-धम्मवि१, पृ. १३१) । १४. नाकृष्टो मुनिरा. त्थारं ॥ (अंगपण्णत्ती १, ५६-६०)। क्रोशेत्सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः। अपेक्षेतोपकारित्वं न तु ५ नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों और दूसरे द्वेषो कदाचन । (प्राव. १, प्र. म. द्वि.-अभिधा. समयों के निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्यों १, पृ. १३१)।१५. चाण्डालः किमयं द्विजाति रथवा और नौ पदार्थों के स्वरूप का निरूपण करने वाली शद्रोऽथवा तापसः किंवा तत्त्वनिवेशपेशलमतिर्यो- कथा को प्राक्षेपणी कथा कहते हैं। गीश्वरः कोऽपि वा। इत्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः प्राक्षेपणीरस-विज्जा चरणं च तवो पुरिसक्कासंभाष्यमाणो जनों रुष्टो न हि चैव हृष्टहृदयो रो य समिइ-गुत्तीग्रो । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ योगीश्वरो गच्छति ।। (उत्त. २.१-अभिधा. अक्खेवणीइ रसो।। (दशवै. नि. १६५, पृ. ११०)। १, पृ. १३१)।
जहां ज्ञान, चारित्र, तप, पुरुषार्थ, समिति और १ कोष बढ़ाने वाले, अत्यन्त अपमान कारक, कर्कश, गप्ति का उपदेश दिया जाता है वह आक्षेपणी कथा पोर निन्द्य वचनों को सुन करके प्रतीकार करने का रस (सार) है में समर्थ होते हुए भी उस ओर ध्यान न देकर पाप आख्यायिकानिःसृता-जा कूडकहाकेली अक्खाइकर्म का फल मान उसके सहन करने को प्राक्रोश. अणिस्सिया हो एसा। जह भारह-रामायणसत्थेपरीषहजय कहते हैं।
ऽसंबद्धवयणाणि ॥ (भाषार. ५०); या कूटकथाप्राक्षेपरणी कथा-१. आक्खेवणी कहा सा विज्जा- केलिरेषाख्यायिकानिःसृता भवेत् । यथा-भारतचरणमुवदिस्सदे जत्थ। (भ. प्रा. ६५६)। २. पायारे रामायणशास्त्रेऽसम्बद्धवचनानि । (भाषार. टी. ववहारे पण्णत्ती चेव दिट्रिवाए य । एसा चउम्विहा ५०)। खलु कहा उ अक्खेवणी होइ ॥ (दशवै. नि. १९४, असत्य कथा-केलिरूप भाषा को आख्यायिकानिःसृता पृ. ११०)। ३. आक्षेपणी पराक्षेपकारिणीमकरोत् कहते हैं। जैसे-भारत व रामायण प्रादि ग्रन्थों के कथाम् । (पद्मच. १०६-६२)। ४. श्रोत्रपेक्षयाss- असम्बद्ध वचन । चारादिभेदानाश्रित्य अनेकप्रकारेतिकथा त्वाक्षेपणी प्रागति-१. अण्णगदीदो इच्छिदगदीए आगमणभवति । xxxआक्षिप्यन्ते मोहात् तत्त्वं प्रति मागदी णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४६) । २. आगअनया भव्यप्राणिनः इति आक्षेपणी । (दशवै. मनमागतिः, नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः । (स्थाना. हरि. वृ. नि. १९४, पृ.११०)। ५. तथा अखेवणी अभय. वृ. १-२६ पृ. १८)।
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श्रागम ]
१ श्रन्यगति से इच्छित गति में थाने को प्रागति कहते हैं ।
श्रागम - १ तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । श्रागममिदि परिकहियं X × ×॥ (नि. सा. ८) । २. सुधम्मातो प्रारम्भ प्रायरियपरं - परेणागतमिति श्रागमो, अत्तस्स वा वयणं श्रागमो । ( अनुयो. चू. पृ. १६) । ३. आगमनमागमः - श्राङ् अभिविधि-मर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया वा, गमः परिच्छेद आगमः । (श्राव. नि. हरि. वृ. २१, पृ. १६) । ४. श्रागमतत्त्वं ज्ञेयं तद्दृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यतया । उत्सर्गादिसमन्वितमल मैदम्पर्यशुद्धं च ॥ ( षोडषक १ - १० ) । ५. श्रागम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया पदार्थाः अनेनेत्यागमः । ( जीतक. चू. वि. व्याख्या पृ. ३३) । ६. प्राचार्यपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः । ( अनुयो. हरि. वृ. ४-३८, पृ. २२) । ७. आगमो हयाप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । ( ललितवि. पृ. ६९ ) । ८ श्रागमस्त्वागच्छति श्रव्यवच्छित्त्या वर्ण-पद- वाक्यराशिः प्राप्तप्रणीतः पूर्वापरविरोधशंकारहितस्तदालोचनात्तत्त्वरुचिः श्रागमः उच्यते, कारणे कार्योपचारात् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १- ३, पृ. ४० ) । ६. पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहतेः। द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ( धव. पु. ३, पृ. १२ व १२३ उ ) ; आागमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण प्रणिदियत्थविसनो प्रचितिय हाम्रो जुत्तिगोयरादीदो ॥ ( धव. पु. ६, पृ. १५१ ) । १०. आगम: सर्वज्ञेन निरस्तराग-द्वेषेण प्रणीतः उपेयोपायतत्त्वस्य ख्यापकः । (भ. श्री. विजयो. टी. २३) । ११. हेयोपादेयरूपेण चतुर्वर्गसमाश्रयात् । कालत्रयगतानर्थान् गमयन्नागमः स्मृतः ॥ ( उपासका १०० ) । १२. प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । ( परीक्षा. ३-६६; न्या. दी. पृ. ११२ ) । १३. यत्र निर्वाण संसारौ निगद्येते सकारणौ । सर्वबाधकनिर्मुक्त श्रागमोऽसौ बुधस्तुतः ॥ ( धर्मप. १८-७४) । १४. XX X पुव्वापरदोस - वज्जियं वयणं (आगो) । ( व. श्री. ७) । १५. प्राप्तोक्तिजार्थविज्ञानमागमस्तद्वचोऽथवा । पूर्वापराविरुद्धार्थ प्रत्यक्षाद्यैरबाधितम् ॥ (श्राचा. सा. ३-५ ) । १६. आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः प्राप्तवचन सम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः । उक्तं च-दृष्टेष्टाव्याहृताद् वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः ।
[ आगमद्रव्यं
तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तिनम् ॥ प्राप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। ( स्थानां. अभय वृ. ३३८, पृ. २४६) । १७. प्राप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः, उपचारादाप्तवचनं चेति । (प्र. न. त. ४-१; जैनतर्क. १, पृ. १९ ) । १८. अबाधितार्थप्रतिपादकम् आप्तवचनं ह्यागमः । ( रत्नक. टी. ४); भव्यजनानां हेयोपादेयतत्त्वप्रतिपत्तिहेतुभूतागम XXX I ( रत्नक. टी. ५) । १६. शब्दादेव पदार्थानां प्रतिपत्तिकृदागमः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४४२) । २०. तद् ( प्राप्त ) वचनाज्जातमर्थज्ञानमागमः । श्रागम्यन्ते मर्यादयाऽवबुध्यन्तेऽर्था श्रनेनेत्यागमः । (रत्नाकरा. ४-१, पू. ३५ ); स च स्मर्यमाणः शब्द श्रागमः । (रत्नाकरा. ४-४, पृ. ३७) । २१. आ अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण, मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणया, गम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते प्रर्था येन स श्रागमः । ( आव. नि. मलय. वृ. २१, पृ. ४६) । २२. श्रागमस्तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षश्चतुरवचनसन्दर्भः । (नि. सा. वृ. १-५ ) । २३. आागमो वीतरागवचनम् । ( धर्मरत्नप्र. स्वो वृ. पू. ५७) । २४. पूर्वापरविरुद्धात्मदोषसंघातवर्जितः । यथावद्वस्तुनिर्णीतिर्यत्र स्यादागमो हि सः ॥ ( भावसं वाम. ३३० ) । २५ तत्रागमो यथासूत्रादाप्तवाक्यं प्रकीतितम् । पूर्वापराविरुद्धं यत्प्रत्यक्षाद्यैरबाधितम् ॥ (लाटीसं. ५ - १५७) ।
१ पूर्वापरविरोधादि दोषों से रहित शुद्ध प्राप्त के वचन को श्रागम कहते हैं । श्रागमद्रव्य - १. अनुपयुक्तः प्राभूताज्ञाय्यात्मा श्रागमः । अनुपयुक्तः प्राभृतज्ञायी आत्मा आगमद्रव्यमित्युच्यते । (त. वा. १, ५, ६ ) । २. आत्मा तत्प्राभृतज्ञायी यो नामानुपयुक्तधीः । सोऽत्रागमः समाम्नातः स्याद् द्रव्यं लक्षणान्वयात् ।। (त. श्लो. १, ५, ६१ ) । ३. तत्र आत्मा यो जीवादिप्राभृतं तत्त्वतो जानाति परन्तु चिन्तन परप्रतिपादनलक्षणोपयोगानुपयुक्तः, स श्रागमद्रव्यम् । ( न्यायकु. २. पू. ८०६, पं. ११-१२ ) । ४. तत्र जीवादिप्राभृतज्ञायी चिरपरप्रतिपादनाद्युपयोगरहितः श्रुतज्ञानी श्रागमद्रव्यम् । (लघीय प्रभय. टी. ७-४, पू. ६८ ) ।
१७१, जंन-लक्षणावली
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आगमद्रव्य-अग्रायणीय] १७२, जैन-लक्षणावली
[आगमद्रव्यनमस्कार १ जो जीव विवक्षित प्राभृत का ज्ञाता होकर वर्त- पारो अणुवजुत्तो पागमदव्वचयणलद्धी । (धव. मान में तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे पु. ६, पृ. २२८) । प्रागमद्रव्य कहते हैं।
जो 'च्यवनलब्धि वस्तु' का पारगामी होकर वर्तमान आगमद्रव्य-अनायरणीय--अग्गेणियपुव्वहरो अणु- में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमद्रव्यवजुत्तो पागमदब्बग्गेणियं । (धव. पु. ६, पृ. २२५)। च्यवनलब्धि कहते हैं जो अग्रायणीय पूर्व का ज्ञाता होता हुआ तद्विषयक प्रागमद्रव्यजिन-जिणपाहुडजाणो अणुवजुत्तो उपयोग से रहित होता है उसे आगमद्रव्य-अनाय- अविणट्रसंसकारो प्रागमदव्वजिणो। (धव. पु. ६, णीय पूर्व कहते हैं।
पृ. ६)। प्रागमद्रव्यकरण-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं जो जित
व्ये वा करण जो जिनप्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक संस्कार द्रव्यकरणमिति ।XXX अागमतः करणशब्दार्थ- से रहित होता हया वर्तमान में उसके उपयोग से ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः । (प्राव. भा. मलय. वृ. रहित हो उसे पागमद्रव्यजिन कहते हैं। १५३, पृ. ५५८)।
प्रागमद्रव्यजीव-जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राकरण शब्द के अर्थ के ज्ञाता, पर अनुपयुक्त --तद्विष
भृतज्ञायी वा अनुपयुक्त ग्रात्मा प्रागमद्रब्यजीवः । यक उपयोग से रहित-पुरुष को आगमद्रव्यकरण
(स. सि. १-५; त. वृत्ति श्रुत.१-५) । कहते हैं।
जीवविषयक अथवा मनुष्यजीवविषयक प्राभूत का प्रागमद्रव्यकर्म---१. xxxतपढ़मं । कम्मा
ज्ञाता होकर जो वर्तमान में उसके उपयोग से रहित गमपरिजाणुगजीवो उवजोगपरिहीणो । (गो. क.
है उसे प्रागमद्रव्यजीव कहते हैं। ५४)। २. तत्र कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमस्य वाच्यवाचक-ज्ञातृ-ज्ञेयसम्बन्धपरिज्ञायकजीवो यः तदर्थाव
प्रागमद्रव्यत्याग-द्रव्येण बाह्यवृत्त्या इन्द्रियसुधारण-चिन्तनव्यापाररूपोपयोगरहित: स प्रागमद्रव्य
खाभिलाषेण उपयोगभूतेन वा यत् त्यागः द्रव्यकर्म भवति । (गो. क. जी. प्र. टी. ५४) ।
त्यागः, द्रव्यस्य द्रव्याणां वा पाहारोपधिप्रमुखस्य १ जो जीव कर्मागम का ज्ञाता होकर वर्तमान में
त्यागः, द्रव्यरूपः त्याग: द्रव्यत्यागः, स च प्रागमत: तद्विषयक उपयोग से रहित होता है, उसे आगम
द्रव्यत्यागः [त्याग] स्वरूपज्ञानी अनुपयुक्तः। (ज्ञानद्रव्यकर्म कहते हैं।
सार वृ. ८, उत्थानिका, पृ. २६) । आगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्ताभृत-कम्मपयडिपाहुड -
जो जीव त्यागस्वरूप का ज्ञाता होकर तद्विषयक
उपयोग से रहित होता है उसे आगमद्रव्यत्याग जाणो अणुवजुत्तो आगमदव्यकम्मपयडिपाहुडं । (धव. पु. ६, पृ. २३०)।
कहते हैं।
दिट्रिवादजाणयो कर्मप्रकृतिप्राभत का जानकार होकर जो वर्तमान में प्रागमद्रव्यदृष्टिवाद-तत्थ तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमदव्यकर्म- अणुवजुत्तो भट्टाभट्टसंसकारो पुरिसो अागमदव्वदिप्रकृतिप्राभूत कहते हैं।
ट्ठिवादो। (धव. पु. ६, पृ. २०४) । प्रागमद्रव्यकाल ...अागमदो दव्वकालो कालपाह
जो दृष्टिवाद का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विषयक
उपयोग से रहित होता हुआ उसके विस्मृत या डजाणगो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ४, पृ. ३१४)। जो कालविषयक प्रागम का ज्ञाता होकर वर्तमान
अविस्मृत संस्कार से युक्त हो उसे प्रागमद्रव्यमें अनुपयुक्त है उसे आगमद्रव्यकाल कहते हैं।
दृष्टिवाद कहते हैं। प्रागमद्रव्यक्षेत्र--पागमदो दव्वखेत्तं खेत्तपाहड
प्रागमद्रव्यनन्दी-तत्रागमतो नन्दिशब्दार्थज्ञाता जाणो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ४, पृ. ५)। __ तत्र चानुपयुक्तः । (बृहत्क. वृ. २४) । जो क्षेत्रप्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्वि- नन्दि-शब्द और उसके अर्थ का ज्ञाता होकर वर्तमान षयक उपयोग से रहित हो उसे पागमद्रव्यक्षेत्र में अनुपयुक्त पुरुष को आगमद्रव्यनन्दी कहते हैं। कहते हैं।
प्रागमद्रव्यनमस्कार-नमस्कारप्राभूतं नामास्ति प्रागमद्रव्यच्यवनलब्धि-तत्थ चयणलद्धिवत्थु- ग्रन्थः यत्र नय-प्रमाणादि-निक्षेपादिमुखेन नमस्कारो
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प्रागमद्रव्यनारक] १७३, जैन-लक्षणावली
[प्रागमद्रव्यमंगल निरूप्यते, तं यो वेत्ति, न च साम्प्रतं तन्निरूप्येऽर्थ (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६)। उपयुक्तोऽन्यगतचित्तत्वात् । स नमस्कारयाथात्म्य- प्रमाण, नय और निक्षेप आदि के द्वारा प्रतिक्रमण ग्राहिश्रुतज्ञानस्य कारणत्वादागमद्रव्यनमस्कार इत्यु- आवश्यक विषयक प्रागम का ज्ञाता होकर जो वर्तच्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. ७५३)।
मान में उसके उपयोग से रहित है उसे आगमद्रव्यनमस्कारविषयक प्राभत का ज्ञाता होकर जो वर्त- प्रतिक्रमण कहते हैं। मान में तद्विषयक उपयोग से रहित होता हया आगमद्रव्यबन्ध---जो सो पागमदो दव्वबंधो णाम उसके अर्थ का निरूपण नहीं कर रहा है उसे तस्स इमो णिसो-ठिद जिदं परिजिदं वायणोवआगमद्रव्य-नमस्कार कहते हैं।
गदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसम णामसमं घोससमं । अागमद्रव्यनारक - णेरइयपाहुडजाणो अणु- जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा वजुत्तो आगमदव्वणेरइयो। (धव. पु. ७, पृ. ३०)। परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा नारकप्राभृत का ज्ञाता होकर वर्तमान में अनुप- जे चामण्णे एवमादिया अणुवजोगा दव्वे त्ति कटु युक्त जीव को पागमद्रव्यनारक कहते हैं।
जावदिया अणुवजुत्ता भावा सो सव्वो आगमदो प्रागमद्रव्यपरिहार-तत्र आगमतः परिहार- दव्वबंधो णाम । (षट्ख.-धव. पु. १४, पृ. २७)। शब्दार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः । (व्यव. भा. मलय. स्थित, जित एवं परिजित प्रादि जो बन्ध सम्बन्धी वृ. २-२७, पृ. १०)।
पागम के नौ अधिकार हैं; उनका ज्ञाता होकर परिहार शब्द के अर्थ के जानने वाले, किन्तु वर्तमान तद्विषयक वाचना-पच्छनादि उपयोगविशेषों से जो में तद्विषयक उपयोग से रहित पुरुष को प्रागम- वर्तमान में रहित है उसे पागमद्रव्यबन्ध कहते हैं । द्रव्यपरिहार कहते हैं।
प्रागमद्रव्यबन्धक -बंधयपाहुडजाणया अणुवपागमद्रव्यपूर्ण-पागमतो द्रव्यं पूर्ण-पदस्यार्थ- जुत्ता आगमदव्वबंधया णाम । (धव. पु.७, पृ. ४)। ज्ञाता अनुपयुक्तः। (ज्ञानसार वृ. १-८)। बन्धकविषयक प्राभृत का ज्ञाता होकर जो वर्तमान
में उसके उपयोग से रहित होता है उसे पागमउपयोग से रहित होता है उसे आगमद्रव्यपूर्ण द्रव्यबन्धक कहते हैं। कहते हैं।
प्रागमद्रव्यभाव-भावपाहुडजाणो अणुवजुत्तो आगमद्रव्यपूर्वगत-पुब्वमण्णवपारो अणुवजुत्तो । अागमदव्वभावो । (धव. पु. ५, पृ. १८४) । आगमदव्वपुव्वगयं । (धव. पु. ६, पृ. २११)। भावविषयक प्राभूत का ज्ञायक, किन्तु वर्तमान में पूर्वगत श्रुत के पारगामी, किन्तु वर्तमान में उसके उसके उपयोग से रहित जीव को प्रागमद्रव्यभाव उपयोग से रहित पुरुष को आगमद्रव्यपूर्वगत कहते हैं। कहते हैं।
आगमद्रव्यमंगल---१. प्रागमोऽणुवजुत्तो मंगलप्रागमद्रव्यप्रकृति-- पागमो गंथो सुदणाणं दुवा- सद्दाणुवासियो वत्ता । तन्नाणल द्धिसहियोऽवि नोवलसगमिदि एयट्ठो। आगमस्स दब्बं जीवो पागम- उत्तो त्ति तो दव्वं ।। (विशेषा. २६) । २. तत्र दव्व, सा चेव पयडी आगमदव्वपयडी। (धव. पु. प्रागमतः खल्वागममधिकृत्य, प्रागमापेक्षमित्यर्थः । १३, पृ. २०३)।
xxx तत्रागमतो मंगलशब्दाध्येता अनुपयुक्तो आगमद्रव्य से अभिप्राय जीव का है । वही द्रव्यमंगलम्, 'अनुपयोगो द्रव्यम्' इति वचनात् । प्रकृति प्रागमद्रव्यप्रकृति कही जाती है । तात्पर्य यह (प्राव. नि. हरि. वृ. १, पृ. ५)। ३. तत्थ आगमदो कि जीवप्रकृतिविषयक आगम के ज्ञाता, किन्तु वर्त- दव्वमंगलं णाम मंगलपाडजाणो अणुवजुत्तो, मान में अनुपयुक्त जीव को आगमद्रव्य प्रकृति मंगलपाहुडसद्दरयणा वा, तस्सत्थट्ठवणक्ख ररयणा कहते हैं।
वा । (धव. पु १, पृ. २१) । आगमद्रव्यप्रतिक्रमरण-प्रमाण-नय-निक्षेपादिभिः ३ जो जीव मंगलप्राभत का ज्ञाता होकर वर्तमान में प्रतिक्रमणावश्यकस्वरूपज्ञ-सूत्रानुपपुक्त: प्रत्ययप्रति- तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे, अथवा क्रमणकारणत्वादागमद्रव्यप्रतिक्रमणशब्देनोच्यते । मंगलप्राभत की शब्दरचना या उक्त प्राभूतार्थ की
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आगमद्रव्यमास] १७४, जैन-लक्षणावलो
[प्रागमद्रव्यसिद्ध स्थापनारूप अक्षरों की रचना को भी प्रागमद्रव्य- शमस्वरूप का जानकार होता हुआ जो वर्तमान में मंगल कहते हैं।
तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे पागमद्रव्यशम प्रागमद्रव्यमास-पागमतो मास-शब्दार्थज्ञाता तत्र कहते हैं। चानुपयुक्तः । (व्यव. भा. मलय. व.१-१४)। आगमद्रव्यश्रमरण-द्रव्यश्रमणो द्विधा आगमतो 'मास' शब्द के अर्थ के जानने वाले, पर वर्तमान में नोपागमतश्च । प्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः । (दशवै. उसमें अनुपयुक्त पुरुष को प्रागमद्रव्यमास कहते हैं। नि. हरि. व. ३-१५३)। प्रागमद्रव्ययोग-तत्थ प्रागमदव्वजोगो णाम जो श्रमणशास्त्र का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग जोगपाहुडजाणो अणुवजुत्तो। (धव. पु. १०, पृ. से रहित होता है उसे पागमद्रव्यश्रमण कहते हैं । ४३३)।
प्रागमद्रव्यश्रुत-१. से किं तं आगमतो दव्वसुझं? योगविषयक प्राभूत के ज्ञायक, किन्तु वर्तमान में जस्स णं सुए त्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं जाव, णो उसके उपयोग से रहित पुरुष को प्रागमद्रव्ययोग अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुवोगो दव्वमिति कटु । कहते हैं।
नेगमस्स णं एगो अणुव उत्तो पागमतो एगं दव्वसुग्रं प्रागमद्रव्यवन्दना -वन्दनाव्यावर्णनप्राभतज्ञोऽन- जाव 'कम्हा' । जइ जाणइ अणुवउत्ते न भवइ । से पयुक्त आगमद्रव्यवन्दना । (मूला. वृ. ७-७७)। तं आगमतो दव्वसुधे । (अनुयो. सू. ३३, वन्दना के वर्णन करने वाले प्राभूत के ज्ञायक, प. ३२)। २. यस्य कस्यचित् श्रुतमिति पदं श्रुतकिन्तु वर्तमान में अनुपयुक्त जीव को पागमद्रव्य- पदाभिधेयमाचारादिशास्त्रं शिक्षितं स्थितं यावद्वावन्दना कहते हैं।
चनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचना-पृच्छनादिआगमद्रव्यवर्गणा-वग्गणपाहुडजाणो अणुव- भिवर्तमानोऽपि श्रुतोपयोगेऽवर्तमानत्वादागमत:जुत्तो पागमदव्ववग्गणा णाम। (धव. पु. १४, पृ. आगममाश्रित्य-द्रव्यश्रुतमिति समुदायार्थः । (अनुयो. ५२)।
मल. हेम.वृ. ३३)। ३. यस्य श्रुतमिति पदं शिक्षितावर्गणाप्राभूत का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग दिगुणान्वितं ज्ञातम्, न च तत्रोपयोगः, तस्य आगमतो से रहित होता है उसे पागमद्रव्यवर्गणा कहते हैं। द्रव्यश्रुतम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-१२, पृ. ८)। प्रागमद्रव्यवंदना-वेयणपाहुडजाणो अणुवजुत्तो २ जिसके 'श्रुत'पद और उसके वाच्यभूत प्राचारागादि आगमदव्ववेयणा । (धव. पु. १०, प. ७)।
आगम शिक्षित व स्थित आदि के क्रम से वाचनोपवेदनाविषयक प्राभूत के ज्ञायक, किन्तु वर्तमान में गत तक (अनुयोगद्वार सूत्र १३) गुणों से युक्त हों, उसके उपयोग से रहित जीव को आगमद्रव्यवेदना वह वाचना-पच्छना आदि से युक्त होता हुया भी कहते हैं।
जब श्रुतोपयोग से रहित होता है तब उसे पागमप्रागमद्रव्यव्यवहार-पागमतो व्यवहारपदज्ञाता द्रव्यश्रुत कहा जाता है। तत्र चानुपयुक्तः । (व्यव. भा. मलय. वृ.१-६)। प्रागमद्रव्यसामायिक-सामायिकवर्णनप्राभतज्ञायी जो जीव व्यवहार पद का ज्ञाता होकर तद्विषयक अनुपयुक्तः प्रागमद्रव्यसामायिकं नाम । (मला. उपयोग से रहित हो उसे पागमद्रव्यव्यवहार वृ.७-१७; अन. ध. स्वो. टी. ८-१६)। कहते हैं।
सामायिक के वर्णन करने वाले प्राभूत का ज्ञाता पागमद्रव्यवत-भाविव्रतत्वग्राहिज्ञानपरिणतिरा- होकर जो वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है त्मा आगमद्रव्यवतम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. उसे पागमद्रव्यसामायिक कहते हैं। ११८५)।
प्रागमद्रव्यसिद्ध - सिद्धस्वरूपप्रकाशनपरिज्ञानपआगामी काल में व्रत के ग्रहण करने वाले ज्ञान से रिणतिसामर्थ्याध्यासित आत्मा अागमद्रव्यसिद्धः । परिणत होने वाले प्रात्मा को प्रागमद्रव्यव्रत (भ. प्रा. विजयो. टी. १); पागमद्रव्यसिद्धः सिद्धकहते हैं।
प्राभूतज्ञः सिद्धशब्देनोच्यतेऽनुपयुक्तः। (भ. प्रा. प्रागमद्रव्यशम-द्रव्यशम: आगमतः शमस्वरूप- विजयो. टी. ४६) । परिज्ञानी अनुपयुक्तः । (ज्ञानसार व. ६, पृ. २२)। सिद्धों के स्वरूप का निरूपण करने वाले प्रागम का
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प्रागमद्रव्यस्कन्ध]
१७५, जैन-लक्षणावली [आगमद्रव्याल्पबहुत्व ज्ञाता होकर वर्तमान में जो उसके उपयोग से रहित तद्विषयक उपयोग से रहित है, वह प्रागमद्रव्याध्ययन है उसे पागमद्रव्यसिद्ध कहते हैं।
कहलाता है। नैगम नय की अपेक्षा एक दो प्रादि प्रागमद्रव्यस्कन्ध-से किं तं प्रागमतो दव्वक्खं- जितने भी अध्ययन उपयोग से रहित होते हैं उतने धे ? जस्स णं खंधे त्ति पयं सिक्खियं सेसं जहा (एक-दो आदि) वे आगमद्रव्याध्ययन कहे जाते हैं। दव्वावस्सए (सू. १३-१४) तहा भाणिदव्वं । प्रागमद्रव्यानन्त-तत्थ पागमदो दव्वाणंतं अणंनवरं खंधाभिलावो जाव । (अनुयो. सू. ४६)। तपाहुडजाणो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ३, पृ. १२)। जिसे 'स्कन्ध' यह पद शिक्षितादि के क्रम से वाच- जो जीव अनन्तविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तनोपगत तक ज्ञात है, पर वर्तमान में जो तद्विषयक मान में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे पागमउपयोग से रहित है, उसे आगमद्रव्यस्कन्ध । द्रव्यानन्त कहते हैं। कहते हैं।
प्रागमद्रव्यानुपूर्वी-से किं तं आगमयो दव्वाणुप्रागमद्रव्यस्तव-चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभृत- पुवी ? जस्स णं आणुपुव्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं ज्ञाय्यनुपयुक्त आगमद्रव्यस्तवः । (मला. वृ. ७-४१)। जियं मियं परिजियं जाव, नो अणुप्पेहाए । कम्हा ? चौबीस तीर्थंकरों के स्तवनविषयक प्राभत का ज्ञाता अणवनोगो दवमिति कट । णेगमस्स णं एगो होकर भी जो वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से। अणुवउत्तो पागमयो एगा दव्वाणुपुव्वी जाव 'कम्हा'। रहित हो उसे पागमद्रव्यस्तव कहते हैं।
जइ जाणए अणुवउत्ते ण भवइ, से तं प्रागमयो प्रागमद्रव्यस्पर्शन - तत्थ फोसणपाहुडजाणगो दव्वाणुपुब्बी। (अनुयो. सू. ७२)। अणुवजुत्तो खग्रोवसमसहिरो आगमदो दव्वफोसणं जिसके प्रानुपूर्वी पद शिक्षित व स्थित आदि के क्रम णाम । (धव. पु. ४, पृ. १४२)।
से वाचनोपगत तक गुणों से सहित हैं, परन्तु जो स्पर्शनविषयक प्राभूत के ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से रहित है; उसे पागमद्रव्यानुउसके उपयोग से रहित, क्षयोपशमयुक्त पुरुष को पूर्वी कहते हैं। पागमद्रव्यस्पर्शन कहते हैं।
प्रागमद्रव्यानुयोग - आगमतोऽनुयोगपदार्थज्ञाता प्रागमद्रव्याङ्ग-अंगसुदपारो अणुवजुत्तो भट्ठा- तत्र चानुपयुक्तः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६) । भट्ठसंसकारो आगमदव्वंग । (धव. पु. ६, पु. १६२)। अनुयोग पद के अर्थ के जानने वाले, किन्तु वर्तमान जो अंगश्रुत का पारगामी होकर उसके विनष्ट में उसके उपयोग से रहित जीव को पागमद्रव्यानुअथवा अविनष्ट संस्कार से सहित होता हा वर्त- योग कहते हैं। मान में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागम- प्रागमद्रव्यान्तर–अंतरपाहुडजाणो अणुवजुत्तो द्रव्यांग कहते हैं।
अंतरदव्वागमो वा आगमदव्वंतरं। (धव. पु. ५, प्रागमद्रव्याध्ययन-से कि तं प्रागमयो दव्वज्झ- प. २) । यणे ? जस्स णं अज्झयणेत्ति पयं सिक्खियं ठियं अन्तरविषयक पागम के ज्ञायक, किन्तु वर्तमान में जियं मियं परिजियं जाव एवं जावइया अणुवउत्ता अनुपयुक्त जीव को प्रागमद्रव्यान्तर कहते हैं। आगमग्रो तावइग्राइं दव्वज्झयणाई । एवमेव ववहा- अथवा अन्तरविषयक द्रव्य-पागम को प्रागमद्रव्यारस्स वि । संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा जाव, से न्तर कहते हैं। तं आगमयो दव्वज्झयणे । (अनुयो. सू. १५०, पृ. प्रागमद्रव्याहन - आगमद्रव्याहन्नर्हत्स्वरूपव्या२५०)।
वर्णनपरप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तदर्थेऽन्यत्र व्याप्तः । (भ. जिस जीव के 'अध्ययन' यह पद शिक्षित, स्थित, प्रा. विजयो. टी. ४६)।। जित, मित व परिजित आदि गुरुवाचनोपगत तक अर्हन्त के स्वरूप का वर्णन करने वाले प्रागम के है, इस प्रकार नैगम नय की अपेक्षा जितने भी ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित अध्ययन उपयोग से रहित हैं वे सब द्रव्य-अध्ययन होकर अन्य विषय में उपयुक्त जीव को प्रागमहैं । अभिप्राय यह है कि जो जीव अध्ययन पद का द्रव्यार्हन् कहते हैं। शिक्षित-स्थित प्रादि के क्रम से ज्ञाता तो है; पर प्रागमद्रव्याल्पबहुत्व - अप्पाबहुअपाहुडजाणो
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आगमद्रव्यावश्यक]
१७६, जैन-लक्षणावली [भागमभावचतुर्विशतिस्तव अणुवजुत्तो पागमदव्वप्पाब । (धव. पु. ५, पृ. अध्ययन का ज्ञाता होकर जो
अध्ययन का ज्ञाता होकर जो वर्तमान में तद्विषयक २४२)।
उपयोग से भी सहित हो, उसे आगमभाव-अध्ययन जो जीव अल्पबहुत्वप्राभृत का ज्ञाता होकर वर्तमान कहते हैं। में उसके उपयोग से रहित हो उसे आगमद्रव्याल्प- प्रागमभावकर्म-कम्मागमपरिजाणगजीवो कम्माबहुत्व कहते हैं।
गमम्हि उवजुत्तो। भावागमकम्मो त्ति य तस्स य प्रागमद्रव्यावश्यक-जस्सं णं प्रावस्सए त्ति पदं सण्णा हबे णियमा । (गो. क. ६५) । सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं नामसमं घोस- कर्मविषयक प्रागम को जानते हुए उसमें उपयुक्त समं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्ख- जीव को प्रागमभावकर्म कहते हैं। लिग्रं अमिलिअं अवच्चामेलिनं पडिपुण्णं पडिपुण्ण- प्रागमभावकर्मप्रकृतिप्राभूत- कम्मपयडिपाहुडघोसं कंठोट्टविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ जाणो उवजुत्तो पागमभावकम्मपयडिपाहुडं । वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए, नो (धव. पु. ६, पृ. १३०)। अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुवयोगो दव्वमिति कट्ट ।।
। कम्हा ! अणुवागा दवामात कट्ट। कर्मप्रकृतिप्राभत के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त जीव (अनुयो. सू. १३)।
को पागमभावकर्मप्रकृतिप्राभूत कहते हैं। जिसे प्रावश्यक यह पद शिक्षित, स्थित, जित व
प्रागमभावकाल - कालपाहुडजाणो उवजुत्तो मित आदि के क्रम से गुरुवाचनोपगत तक है और
जीवो पागमभावकालो। (धव. पु. ४, पृ. ३१६) । जो वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना एवं धर्मकथा में
कालविषयक पागम के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त व्याप्त है; पर अनुप्रेक्षा (चिन्तन) में व्यापृत नहीं
जीव को प्रागमभावकाल कहते हैं। है, उसे आगमद्रव्यावश्यक कहते हैं। प्रागमद्रव्योत्तर - द्रव्योत्तरमागमतो ज्ञाताऽनूप
प्रागमभावकृतिजा सा भावकदी णाम सा युक्तः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-१, पृ. ३)।
उवजुत्तो पाहुडजाणगो॥ एत्थ पाहुडसद्दो कदीए 'उत्तर' पद के अर्थ के ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में अनु
विसेसिदब्बो, पाहडसामण्णण अहियाराभावादो ।
तदो कदिपाहडजाणग्रो उवजुत्तो भावकदि त्ति सिद्धं । पयुक्त जीव को पागमद्रव्योत्तर कहते हैं। प्रागमद्रव्योपक्रम -- आगमत उपक्रमशब्दार्थस्य
(षट्खं. ४, १, ७४---पु. ६, पृ. ४५१) ।
जो जीव कृतित्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमिति बचनात् । (व्यव. भा. मलय. वृ. १-१, पृ. १; जम्बू
उपयोग से भी युक्त है उसे आगमभावकृति द्वी. शा. वृ. पृ. ५)।
कहते हैं। जो उपक्रम पद का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विष
आगमभावक्षेत्र-प्रागमदो भावखेत्तं खेत्तपाहुड. यक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमद्रव्योपक्रम
जाणगो उवजुत्तो । (धव. पु. ४, पृ. ७ व पु. ११, कहते हैं।
पृ. २)। पागमभाव-१. प्रागम: प्राभृतज्ञायी पुमांस्तत्रो
क्षेत्रविषयक प्रागम का ज्ञाता होकर जो जीव उसमें पयुक्तधीः । (त. श्लो. १, ५, ६७) । २. जीवादि- उपयुक्त है उसे पागमभावक्षेत्र कहते हैं। प्राभूतविषयोपयोगाविष्ट आत्मा अागमभावः । आगमभावग्रन्थकृति-गंथकइपाहुडजाणग्रो उव(न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०७) । ३. तत्र प्रागम- जुत्तो पागमभावगंथकई णाम । (धव. पु. ६, पृ. भावो जीवादिप्राभूतज्ञायी तदुपयुक्तः श्रुतज्ञानी । (लघीय. अभय. वृ. ७-४, पृ.६८)।
ग्रन्थकृतिविषयक प्राभत का ज्ञाता होकर जो जीव २ जीवादिप्राभूतविषयक उपयोग से युक्त जीव उसमें उपयुक्त है उसे प्रागमभावग्रन्थकृति कहते हैं । को आगमभाव निक्षेप कहते हैं।
आगमभावचतुर्विंशतिस्तव-चतुर्विंशतिस्तवव्याप्रागमभाव-अध्ययन-से कि आगमयो भावज्झ. वर्णनप्राभृतज्ञायी उपयुक्त प्रागमभावचतुर्विंशतियणे ? जाणए उवउत्ते, से तं प्रागमनो भावज्झयणे। स्तवः । (मूला. वृ. ७-४१)। (अनुयो. सू. १५०, पृ. २५१ ।
चविंशतिस्तव के वर्णन करने वाले प्राभूत के
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ग्रागमभावच्यवनलब्धि ]
१७७,
ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावचतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । श्रागमभावच्यवनलब्धि - चयणलद्धिवत्थुपारो उवजुत्तो श्रागमभावचयणलद्धी । ( धव. पु. ६, पृ. २२८) ।
जैन - लक्षणावली
च्यवनलब्धि नामक वस्तु का पारंगत होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावच्यवनलब्धि कहते हैं । श्रागमभावजिन जिणपाहुडजाणो उवजुत्तो आगमभावजिणो । ( धव. पु. ६, पू. ८) । taaron प्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावजिन कहते हैं । श्रागमभावजीव - १. जीवप्राभूतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वात्मा आगमभावजीवः । ( स. सि. १-५ ) । २. तत्प्राभृतविषयोपयोगाविष्ट श्रात्मा श्रागमः । जीवादि - प्राभृतविषये णोपयोगेनाविष्ट ग्रात्मा श्रागमतो भावजीवो भावसम्यग्दर्शनमिति चोच्यते । (त. वा. १, ५, १०) । ३. तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टः परिणत श्रात्मा श्रागमभावजीवः कथ्यते, मनुष्यजीव प्राभृतविषयोपयोगसंयुक्तो वाऽत्मा श्रागमभावजीब: कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) ।
१ जीवविषयक अथवा मनुष्यजीव विषयक प्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावजीव कहते हैं ।
श्रागमभावदृष्टिवाद - दिट्टिवादजाणो उवजुत्तो श्रागमभावदिट्टिवादो | ( धव. पु. ε, पृ. २०५) । दृष्टिवाद का ज्ञायक होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावदृष्टिवाद कहते हैं । श्रागमभावनन्दी - तत्राऽऽगमतो नन्दि-शब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः । (बृहत्क. मलय. वृ. २४) । नन्दी शब्द के अर्थ का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग से भी युक्त है उसे श्रागमभावनन्दी कहते हैं ।
श्रागमभावनमस्कार - स्थापना ( ? ) अर्हदादीनां श्रागमनमस्कारज्ञानं आगमभावनमस्कारः । (भ. श्रा. विजयो. टी. ७५३) ।
अरिहन्त प्रादि के नमस्कारविषयक श्रागम के ज्ञाता और उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावनमस्कार कहते हैं ।
ल. २३
[ श्रागमभावबन्ध
श्रागमभावनारक- - रइयपाहुडजाणो उवजुत्तो श्रागमभावणेरइश्रो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ३०) | नारकविषयक प्राभृत का ज्ञाता होकर जो जीव उसमें उपयुक्त है उसे श्रागमभावनारक कहते हैं । श्रागमभावपूर्ण - भावपूर्ण : ग्रागमतः पूर्णपदार्थः [र्थज्ञ: ] समस्तोपयोगी । ज्ञानसार वृ. १-८, पृ. ४) ।
जो 'पूर्ण' पद के अर्थ का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग से सहित हो उसे श्रागमभावपूर्ण कहते हैं । श्रागमभावपूर्वगत — चोदसविज्जाद्वाणपारो उवजुत्ता आगमभावपुव्वगयं । ( धव. पु. ६, पृ. २११ ) ।
चौदह विद्यास्थानरूप पूर्वो का पारंगत होकर जो जीव उसमें उपयुक्त है उसे श्रागमभावपूर्वगत कहते हैं ।
श्रागमभावप्रकृति[-जा सा श्रागमदो भावपयडी णाम तिस्से इमो णिद्द सो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं प्रत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टा वा प्रणुपेणा वा थय-शुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टु जावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम । ( षट्खं. ५, ५, १३६ - धव. पु. १३, पृ. ३६०) ।
जो जीव प्रकृतिविषयक स्थित व जित श्रादि घोषसम पर्यन्त श्रागमाधिकारों से युक्त होकर तद्विषयक वाचना- प्रच्छनादि में व्याप्त भी हो उसे श्रागमभावप्रकृति कहते हैं । श्रागमभावप्रतिक्रमण - प्रतिक्रमणप्रत्यय श्रागमभावप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६) । प्रतिक्रमणविषयक श्रागम के ज्ञान से युक्त होकर जो जीव तद्विषयक उपयोग से भी सहित हो उसे श्रागमभावप्रतिक्रमण कहते हैं । श्रागमभावबन्ध — जो सो आगमदो भावबंधो णाम तरस इमो गिद्द सो— ठिदं जिदं परिजिदं वायनोवगदं सुत्तसमं प्रत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टा वा अणुपेणा वा थय-शुदि धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टु
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प्रागमभावभाव] १७८, जैन-लक्षणावली
[अागमाभास जावदिया उवजुत्ता भावा सो सवो आगमदो भाव- प्रकाशक बोध को आगमभावाहन कहते हैं। बंधो णाम। (षट्खं. ५, ६, १२-पु. १४, पृ. ७)। प्रागमभावाल्पबहत्व - अप्पाबहुअपाहुडजाणतो जो जीव बन्धविषयक प्रागम के स्थित-जितादि नौ उवजुत्तो आगमभावप्पाबहुधे । (धव. पु. ५, पृ. अर्थाधिकारों से सहित होकर तद्विषयक वाचना- २४२)। प्रच्छनादिरूप उपयोग से भी युक्त हो उसे पागम- अल्पबहत्वविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक भावबन्ध कहते हैं।
उपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभावाल्पबहुत्व प्रागमभावभाव - भावपाहुडजाणो उवजुत्तो कहते हैं। आगमभावभावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)।
प्रागमभावावश्यक-१. से कि तं पागमतो भावविषयक प्राभृत का ज्ञायक होकर तद्विषयक उप
भावावस्सयं ? जाणए उवउत्ते, से तं प्रागमतो योगयुक्त पुरुष को प्रागमभावभाव कहते हैं।
भावावस्सयं। (अनुयो. सू. २३, पृ. २८)। २. संवेआगमभाववर्गणा-वग्गणपाहुडजाणो उवजुत्तो
गजणितविसुज्झमाणभावस्स सुतमणुस्सरतो तदा आगमभाववग्गणा । (धव. पु. १४, पृ. ५२)।
भावयोगपरिणयस्स पागमतो भावावस्सगं भवति । वर्गणाविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक
(अनुयो. चू. पृ. १३)। ३. तत्र आगमतो भावाउपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभाववर्गणा
वश्यकज्ञाता उपयुक्तः, तदुपयोगानन्यत्वात् । अथवाकहते हैं।
ऽऽवश्यकार्थोपयोगपरिणाम एवेति । (प्राव. नि. हरि. प्रागमभाववेदना-तत्थ वेयणाणियोगद्दारजाणग्रो
वृ.७६, पृ. ५२) । ४. ज्ञायक उपयुक्त आगमउवजुत्तो आगमभाववेयणा । (धव. पु. १०, पृ. ८)।
तो भावावश्यकम्। इदमूक्तं भवति-आवश्यकवेदना अनुयोगद्वार का ज्ञाता होकर तद्विषयक उप
पदार्थज्ञस्तज्जनितसंवेगेन विशद्धयमाणस्तत्र चोपयोग से युक्त पुरुष को प्रागमभाववेदना कहते हैं।
युक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् । (अनुयो. अागमभावसामायिक - सामायिकवर्णनप्राभत
मल. हेम. वृ. सू. २३, पृ. २८)। ज्ञाय्युपयुक्तो जीव आगमभावसामायिकं नाम ।
१ अावश्यकविषयक शास्त्र के जानने वाले और (मूला. वृ. ८-१७)।
उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावावश्यक कहते हैं। सामायिक का वर्णन करने वाले प्राभत का ज्ञाता
प्रागमभावोपक्रम-१. भावोपक्रमो द्विधा प्रागहोकर उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावसामा
मतो नोग्रागमतश्च । आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः । यिक कहते हैं।
(प्राव. नि. हरि. व. ७६, पृ. ५५)। २. भावोपप्रागमभावाग्रायरणीय-तत्थ अग्गेणियपुव्वहरो
क्रमो द्विधा पागमतो नोग्रागमतश्च । तत्रागमत उवजुत्तो पागमभावग्गेणियं । (धव. पु. ६, पृ.
उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, उपयोगो २२५)।
भावनिक्षेप इति वचनात् । (व्यव. भा. मलय. व. प्राग्रायणीय पूर्व का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग
१, पृ. २)। ३. आगमत उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता से युक्त जीव को पागमभावाग्रायणीय कहते हैं।
तत्र चोपयुक्तः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ६)। आगमभावान्तर-अंतरपाडजाणो उवजुत्तो भावागमो वा पागमभावंतरं। (धव. पु. ५, पृ. ३)।।
२ उपक्रम शब्द के अर्थ के ज्ञाता और उसमें उपयुक्त
जीव को पागमभावोपक्रम कहते हैं। अ.तरविषयक प्राभूत के ज्ञायक और उसमें उपयुक्त जीव को प्रागमभावान्तर कहते हैं। अथवा अन्तर
प्रागमसिद्ध-पागमसिद्धो सव्वंगपारो गोयमो विषयक भावागम को आगमभावान्तर कहते हैं। व्व गुणरासी । (प्राव. नि. ६३५)। प्रागमभावाहन - अर्हद्व्यावर्णनपरप्राभृतप्रत्य
जो गौतम के समान गुणसमूह से अलंकृत होकर
समस्त अंगश्रत का पारगामी हो उसे पागमसिद्ध विजयो. टी. ४६)।
कहते हैं। अरहन्त के स्वरूप का वर्णन करने वाले प्राभूत के प्रागमाभास-१. राग-द्वेष-मोहाक्रान्तपुरुषवचज्ञान से सहित जीव को अथवा उनके स्वरूप के नाज्जातमागमाभासम् । (परीक्षामुख ६-५१) ।
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प्रागमोपलब्धि] १७६, जैन-लक्षणावली
[प्राचारवान् २. अनाप्तवचनप्रभवं ज्ञानमागमाभासम् । (प्र. न. (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४६) । त. ६-८३)।
२ जिस उपायभूत माया व्यवहार के द्वारा दूसरे जीवों १ राग, द्वेष और मोह से व्याप्त पुरुष के वचनों का घात किया जावे उसे प्राचरण कहते हैं। माया से उत्पन्न हुए या रचे गये प्रागम को पागमाभास कषाय के प्रणिधि व उपधि प्रादि पर्याय शब्दों में से कहते हैं।
यह भी एक है। प्रागमोपलब्धि-१. अत्तागमप्पमाणेण अक्खर पाचरितदोष-तच्च (कुटी-कटकादिक) दूरदेशाकिंचि अविसयत्थे वि । भवियाऽभविया कुरवो दानीतमाचरितम् । (भ. प्रा. मला. टी. २३०) । नारग दियलोय मोक्खो य। (बृहत्क. भा. १-५३)। दूर देश से लाई गई कुटी व चटाई आदि के ग्रहण २. प्राप्ताः सर्वज्ञाः, तत्प्रणीत आगम प्राप्तागमः, करने को प्राचरित (वसतिका-उद्गम) दोष xxx इयमत्र भावना-प्राप्तागमप्रामाण्यवशात् कहते हैं। तस्मिस्तस्मिन् वस्तुनि योऽक्षरलाभः, यथा-भव्य प्राचार-देखो प्राचारांग। १. से किं तमायारे? इति अभव्य इति देवकुरव इत्यादि, सा आगमोप- प्रायारे णं समणाणं णिग्गंथाणं पायार-गोयर-विणयलब्धिः । (बृहत्क. भा. मलय. व. १-५३)। वेणइय-सिक्खा-भासा-प्रभासा-चरण-करण-जाया-माप्राप्तप्रणीत प्रागम के द्वारा विवक्षित वस्तु के या वित्तीग्रो प्राघविजं । xxxसे तं पायारे। विषय में जो अक्षरों का लाभ होता है-जैसे भव्य, (णंदी. ४५, पृ. २०६)। २. पाचरणमाचार:, अभव्य और देवकूर आदि-उसे पागमोपलब्धि आचर्यत इति वा प्राचारः, शिष्टाचरितो ज्ञानाद्याकहते हैं।
सेवन विधिरिति भावार्थः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याप्रागाल-१.xxx बीयाग्रो एइ पागलो ॥ चार एवोच्यते । (नन्दी. हरि. व. प. ७५) । ३. (पंचसं. उपश. २०, प. १६२) । २. द्वितीयस्थिते- प्राचारो ज्ञानादिर्यत्र कथ्यते स प्राचारः। (त. भा. यत्पतति तदागालः। (पंचसं. स्वो. वृ. उपश. २०, हरि. व सिद्ध. वृ. १-२०)। ४. प्राचारे चर्याविप. १६२)। ३. आगालमागालो, विदियट्टिदिपदे- घानं शुद्धयष्टक-पञ्चसमिति-त्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते। साणं पढमट्रिदीए प्रोकड्डणावसेणागमणमिदि वुत्तं (त. वा. १, २०, १२, धव. पु. ६, पृ. १९७)। होदि । (जयध.प्र.प. ६५४)। ४. यत्पुन द्वितीय- ५. नाणंमि दंसणंमि अ चरणमि तवंमि तह य स्थितेः सकाशादुदीरणाप्रयोगेण समाकृष्योदये प्रक्षि- विरियम्मि। आयरणं आयारो इय एसो पंचहा पति स ागालः । (पंचसं. मलय. वृ. उपश. २०, भणिदो॥ (गु. गु. षट. स्वो. वृ. ३, पृ. १४) । पृ. १६३) । ५. यत्पूनद्वितीयस्थितेः सकाशादुदी- ६. पाचरणमाचार: पाचर्यत इति वा प्राचारः, पूर्वरणाप्रयोगेणव दलिकं समाकृष्योदये प्रक्षिपति सा पुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरित्यर्थः । तत्प्रतिउदीरणापि पूर्वसूरिभिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमागाल इत्यु- पादकग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते । (नन्दी. मलय. व. च्यते । (शतक. दे. स्वो. वृ. ९८, पृ. १२८)। ४५, पृ. २०६)। ७. प्राचरन्ति समन्ततोऽनुतिष्ठ६. द्वितीयस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशात् प्रथमस्थिता- न्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आवागमनमागालः । (ल. सा. टी. ८८)।
चारः। (गो. जी. जी. प्र. ३५६) । २ द्वितीय स्थिति का द्रव्य जो उदयस्थिति में १ जिस श्रुतस्कन्ध में निर्ग्रन्थ साधनों के प्राचार प्राता है, इसका नाम आगाल है। ६ द्वितीय स्थिति (ज्ञानाचारादि), भिक्षाविधि, विनय, विनयफल. के द्रव्य का अपकर्षण करके उसके प्रथम स्थिति शिक्षा, भाषा, प्रभाषा, चरण (व्रतादि), करण में निक्षेपण करने को प्रागाल कहते हैं।
(पिण्डशुद्धि आदि), संयमयात्रा, आहारयात्रा और प्राचरण-१. माया प्रणिधि: उपधिः निकृतिः वृत्ति (नियमविशेषों का परिपालन); इनका कथन प्राचरणं वञ्चना दम्भः कूटम् अतिसन्धानम् अनार्ज किया गया है उसका नाम प्राचार है। मित्यनर्थान्तरम् । (त. भा. ८-१०)। २. पाचर्य- प्राचारवान्-१. प्राचारं पंचविहं चरदि चराते अभिगम्यते भक्ष्यते वा परस्तयोपायभूतयेत्याचर
वेदि जो णिरदिचारं। उवदिसदि य पायारं एसो णम् । तथा च वक-मार्जार-गृहकोलिकादयः प्रसिद्धाः। प्रायारवं णाम ॥ (भ.पा. ४१६)। २. यायार.
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श्राचारविनय ]
वमायारं पंचविहं मुणइ जो उ श्रायरइ । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. ७, पृ. २८ ) ।
१ जो निरतिचार पांच प्रकार के श्राचार का स्वयं आचरण करता है, दूसरों को प्राचरण कराता है, तथा उसका उपदेश भी देता है; वह श्राचारवान् कहलाता है ।
[ श्राचार्य (प्रायरिय)
श्रायरियाणि देसंतो प्रायरिथ्रो तेण वुच्चदे ॥ (मूला. ७, ८-९) । २. पंचाचारसमग्गा पंचिदिय दंति - दप्पणिद्दलणा । धीरा गुणगंभीरा श्रायरिया एरिसा होंति । (नि. सा. ७३ ) । ३. पंचमहव्वयतुंगा तक्कालिय-स-परसमयसुदधारा । णाणागुणगणभरिया
१८०, जैन - लक्षणावली
श्राचारविनय - तत्राचारविनयः स्वस्य परस्य वा संयोग [ गुण] प्रतिमादिहारादिसामाचारीसाधनलक्षण: । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. ३७, पृ. ८६ ) । संयम, तपोगुण, प्रतिमा ( श्रावक के स्थानभेद ) एवं विहारादिरूप समाचारी के सिद्ध करने का नाम आचारविनय है । आचाराङ्ग :- देखो आचार । १. कथं चरे कथं चिट्ठे कथमासे कथं सए । कथं भुंजेज्ज भासेज्ज कथं पावं ण बज्झदि ॥ जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जद सये । जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ॥ ( मूला. १०-१२१, १२२) । २. एत्थायारंग मट्ठारह पद सहस्सेहि " कधं चरे कधं चिट्ठे......... एवमादियं मुणीणमायारं वण्णेदि । ( धव. पु. १, पृ. ६; जयध. १, पृ. १२२ ) । ३. अष्टादशपदसहस्रपरिमाणं गुप्ति समितियत्याचारसूचकमाचाराङ्गम् सप्तभयविप्रमुक्त प्राचार्य: । ( धव. पु. १, पृ. ४८ ) ;
इरिया मम पसीयं तु ॥ ( ति प १-३) । ४. मंदररवि-ससि उवही वसुहाणिलधरणिकमलगयणसमा । णिययं श्रायारधरा श्रायरिया XXX ॥ ( पउमचरि ८६ - २० ) । ५. प्राचरन्ति तस्माद् व्रतानीत्याचार्या: । ( स. सि. ६ - २४; त. इलो. ६ - २४; त. सुखबो. ६ - २४; त. वृत्ति श्रुत. ६-२४) । ६. पंचविहं आयारं श्रायरमाणा तहा पगासंता । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥ (श्राव. नि. ९६४) । ७. प्राचरन्ति यस्माद् व्रतानीत्याचार्य. । यस्मात् सम्यग्ज्ञानादिगुणाधारादाहृत्य व्रतानि स्वर्गापवर्गसुखामृतबीजानि भव्या हितार्थमाचरन्ति स आचार्य: । (त. वा. ६, २४, ३) ८. पंचविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः । श्राचाराङ्गघरो वा तात्कालिकस्व समय पर समयपारगो वा मेरुरिव निश्चल, क्षितिरिव सहिष्णुः, सागर इव बहिः क्षिप्तमलः,
१८०००
१८००० । ( श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७२ ) । ४. यत्याचारसूचकं अष्टादश सहस्रपदप्रमाणमाचाराङ्गम् । ( त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) । ५. आयारं पढमंगं तस्थद्वारससहस्सपयमेत्तं । यत्थाय रंति भव्वा मोक्खपहं तेण तं गाम ॥ कहं चरे कहं तिट्ठे कहमासे कहं सये । कहं भासे कहं भुंजे कहं पावंण बंधइ । जदं चरे जदं तिट्ठे जदमासे जद सये । जदं भासे जदं भुंजे एवं पावं ण वंधइ || महव्वयाणि पंचैव समिदी प्रोSक्खरोहणं । लोम्रो श्रावासया छक्कमवच्छहभूसया ॥ दंतवणमेगभत्ती ठिदिभोयणमेव हि । यदीणं यं समायारं वित्थरेवं [णं ] परुव ॥ ( श्रंगपण्णत्ती १, १५-१९ ) ।
पवयण-जलहि-जलोयर व्हायामल - बुद्धि-सुद्ध छावा - सो । मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वज्जो ॥ देस-कुल- जाइसुद्धो सोमंगो संग-भंग- उम्मुक्को । गयण व्व णिरुवलेवो ग्राइरियो एरिसो होई ॥ संग्रह - णिग्गहकुसलो सुत्तत्थ-विसारयो पहियकित्ती । सारण-वारण - साहण - किरियुज्जत्तो हु आइरियो ॥ ( धव. पु. १, पृ. ४९ उद्धृत) । ६. पञ्चस्वचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च वर्तयन्ति ते श्राचार्याः । (भ. श्री. विजयो. तथा मूला. टी. ४४४ ) । १०. [आाचारं ] पञ्चप्रकारं स्वयमाचरन्ति तेभ्योऽन्ये चागत्याचरन्ति इत्याचार्या: । ( प्रायश्चित्तवि. वृ. २५१ ) । ११. विचार्य सर्वमैतिह्यमाचार्यकमुपेयुषा । श्राचार्यवर्यानर्चामि संचार्य हृदयाम्बुजे || ( उपासका ४८७) । १२. यस्मात् सम्यग्ज्ञानादिपञ्चाचाराधारादाहृत्य व्रतानि स्वर्गापवर्गसुख कल्पकुजबीजानि भव्या श्रात्महितार्थमाचरन्ति स प्राचार्य: । (चा. सा. पृ. ६६ ) । १३. पंचाचारसमग्गे पंचिदयणिज्जिदे विगयमोहे | पंचमहवयणिलये पंचमगइणायगारिए || (जं. दी.
१ जिसमें कैसे चला जाय, कैसे खड़ा हुया जाय, और कैसे बैठा जाय, इत्यादि मुनियों के प्राचार का वर्णन किया जाता है उसे प्राचारांग कहते हैं । श्राचार्य (प्रायरिय) - १. सदा प्रायारविद्दण्हू सदा आयरियं चरे । प्रयारमायारवंतो प्रायरिओ तेण उच्चदे || जम्हा पंचविहाचारं प्राचरंतो पभासदि ।
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आचार्य (डायरिय)]
१८१, जैन-लक्षणावली
[प्राचार्यवर्णजनन
प. १-३) । १४. ये चारयन्याचरितं विचित्रं स्वयं हैं वे प्राचार्य कहलाते हैं। चरन्तो जनमर्चनीयाः । प्राचार्यवर्या विचरन्तु ते मे प्राचार्यपदायोग्य-हत्थे पाए कन्ने नासा उटठे प्रमोदमाने हृदयारविन्दे ॥ (अमित. श्रा. १-३)। विवज्जिया चेब। वामणग-वडभ-खुज्जा पगुल-टुंटा य १५. प्राचार्यः अनुयोगधरः । (प्राचा. शी. व. २, काणा य । पच्छावि हुँति विगला आयरियत्तं न १, २७६, पृ. ३२२) । १६. सङ्ग्रहानुग्रहप्रौढो रूढः कप्पए तेसि । सीसो ठावेअव्वो काणगमहिसो व श्रुत-चरित्रयोः । यः पञ्चविधमाचारमाचारयति नन्नम्मि ॥ (प्रा. दि. उद्धत, पृ. ११३); पंचायोगिनः ॥ बहिःक्षिप्तमलः सत्त्वगाम्भीर्यातिप्रसाद- चारविनिर्मुक्तः क्रूर: परुषभाषणः । कुरूप: खण्डिवान् । गुणरत्नाकर: सोऽयमाचार्योऽवार्यधैर्यवान् । ताङ्गश्च दुष्टदेशसमुद्भवः ॥ हीनजाति-कुलो मानी (प्राचा. सा. २, ३२-३३) । १७. छत्तीसगुणसमग्गे निविद्यश्चाविशेषवित् । विकत्थनश्च सासूयो बाह्यपंचविहाचारकरणसंदरिसे । सिस्साणुग्गहकुसले दृश्टिश्चलेन्द्रियः ॥ जनद्वेष्यः कातरश्च निर्गुणो धम्माइरिए सदा वंदे ॥ (लघु प्रा. भक्ति पृ. निष्कलः खलः । इत्यादिदोषभाग् साधुर्नाचार्यपदम३०५)। १८. पञ्चधाचारं स्वयमाचरन्ति शिष्यां- हति ।। (प्रा. दि. पु. ११३)। श्चाचारयन्तीत्याचार्याः : (सा. दं.-क्रियाक. टी. पृ. जो दर्शनाचार प्रादि पाँच प्रकार के प्राचार से १४२, कातिके. टी. ४५६); पञ्चधा चरन्त्याचारं रहित हो, क्रूर हो, कठोर भाषण करने वाला हो, शिष्यानाचारयन्ति च । सर्वशास्त्रविदो धीरास्ते कुरूप हो, विकृत अंग हो, दुष्ट देश में उत्पन्न हुमा प्राचार्याः प्रकीर्तिताः ।। (क्रियाक. टी. पृ. १४३)। हो, जाति-कुल से हीन हो, अभिमानी हो, विद्यावि१६. सण-णाणपहाणे वीरिय-चारित्त-वरतवायारे। हीन हो, विशेषज्ञ न हो, प्रात्मप्रशंसक हो, ईर्ष्यालु अप्पं परं च मुंजइ सो पाइरियो मुणी भेग्रो॥ हो, बाह्य शरीरादि में दृष्टि रखने वाला हो, (द्रव्यसं. ५२)। २०. पाचाराराधनादि-चरणशास्त्र- इन्द्रियों की चंचलता से युक्त हो, जनों से द्वेष रखने विस्तीर्णबहिरङ्गसहकारिकारणभूते व्यवहारपञ्चा- वाला हो, कातर हो, गुणहीन हो, कलाओं से शून्य चारे च स्वं परं च योजयत्यनुष्ठानेन सम्बन्धं करोति हो, और दुष्ट हो; ऐसा साधु प्राचार्य पदके अयोग्य स आचार्यो मवति । (बृ. द्रव्यसं. ५२, पृ. १६२)। होता है। २१. ग्राङित्यभिव्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्च- प्राचार्यभक्ति-१. अहंदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च विधाचार चरति प्राचारयति वा परान् प्राचार्यते वा भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः (प्राचार्येषु भावविमुक्यथिभिः प्रासेव्यते इति प्राचार्यः । (उत्तरा. शुद्धियुक्तोऽनुराग प्राचार्यभक्तिः)। (स. सि. ६, नि. शा. वृ. १-५७, पृ. ३७; योगशा. स्वो. विव. २४; त. वा. ६, २४, १०)। २. प्राचार्येषु श्रुत४-६०)। २२. प्राचार्योऽनुयोगाचार्यादिकः । (व्यव. ज्ञान-दिव्यनयनेषु परहितकरप्रवृत्तिषु स्व-परसमयभा. मलय. व. २-३४), प्राचार्यों गच्छाधिपतिः। विस्तरनिश्चयज्ञेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति(व्यव. भा. मलय. वृ. २-६४)। २३. पञ्चाचार- स्त्रिधा कल्प्यते । (चा. सा. पृ. २६)। ३. प्राचारतो नित्यं मूलाचारविदग्रणीः । चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्य र्येषु अनुरागो भक्तिः । (भा. प्रा. टी. ७७)। यः स प्राचार्य इष्यते ॥ (नीतिसार १५)। २४. ४. प्राचार्याणाम् अपूर्वोपकरणदानं सन्मुखममनं संभ्रआचाराद्या गुणा अष्टौ तपो द्वादशधा दश । स्थिति- मविधानं पादपूजनं दान-सन्मानादिविधानं मन:कल्पः षडावश्यमाचार्योऽमीभिरन्वितः । (धर्मसं. श्रा. शुद्धियुक्तोऽनुराग प्राचार्यभक्तिरुच्यते । (त. वृत्ति १०-११६) । २५. प्राचार्योऽनादितो रूढे योगादपि श्रुत. ६-२४)। निरुच्यते । पञ्चाचारं परेभ्यः स प्राचारयति संय- १ आचार्यों में भावविशुद्धियुक्त अनुराग रखने को मी ।। (लाटीसं. ४-१६७; पञ्चाध्यायी २-६४५)। प्राचार्यभक्ति कहते हैं। २६. पडिरूवो ते यस्सी जुगप्पहाणागमो महुरवक्को। आचार्यवर्णजनन-१. मुक्ताहार-पयोधर-निशाकरगंभीरो धीमंतो उवएसपरो अ आयरियो। (प्रा. वासराधीश्वर-कल्पमहीरुहादय इव प्रत्युपकारानपे'दि. पु. ११३ उ.) ।
क्षानुग्रहव्यापृताः, निर्वाणपुरप्रापणक्षमे मार्ग निर्मले ५ जिनसे भव्य जीव व्रतों का प्राचरण किया करते स्थिताः, परानपि विनतान् विनेयान् प्रवर्तयन्तः,
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प्राचीर्ण (प्राचिण्ण)] १८२, जैन-लक्षणावली
[पाच्छेद्य दोष आयतातिधवलज्ञानपृथुलदर्शनपक्षमलेक्षणाः, कुलीना लंकारानंगसंगविवजितम् ।। (प्राचा. सा. १-४२)। विनता विभया विमाना विरागा विशल्या विमोहा ६. नग्नता नाग्न्यमाचेलक्यमित्यर्थः, तदपि चाचेलवचसि तपसि महसि वा ऽद्वितीया इव भूषणं सूरय क्यमिह श्रुतोपदेशेनान्यथा धारणं परिजीर्णाल्पमूल्यइति सूरिवर्णजननम् ।। (भ. प्रा. विजयो. टी. ४७)। खण्डितासर्वतनुप्रावरणत्वं च, तत्रापि लोके नाग्न्य२. पञ्चधाचारं स्वयमाचरन्ति शिष्यानाचारयन्ति व्यपदेशप्रवृत्तिदर्शनात् । (पञ्चसं. मलय. वृ. ४-२३, इति प्राचार्याः । प्रत्युपकारनिरपेक्षपरोपकाराः, सुर- पृ. १९०)। ७. आचेलक्कं वस्त्रादिपरिग्रहाभावो भूधरवद्धीराः सर्वशास्त्रपारदृश्वानः स्वयं श्रेयःपथे नग्नत्वमात्रं वा। (भ. प्रा. मूला. टी. ४२१)। स्थिताः, विनीतविनेयास्तत्र स्थापयन्तः शुद्धदेश- ८. न विद्यते चेलं वस्त्रं यस्य सः अचेलकस्तस्य कुल-जातयो विनयसिद्धाः मानमर्माविधो विगतराग- भावः आचेलक्यम्, विगतवस्त्रमित्यर्थः। (कल्पसूत्र द्वेष-माहाः शल्यव्यपेतास्तपसि तेजसि यशसि तरसि वृ.१)। वचसि च निरौपम्या इति गुणग्रहणं सूरीणां वर्ण- १ वस्त्र, चमड़ा, बक्कल अथवा पत्ता आदि में किसी जननम् । (भ. प्रा. मला. टी. ४७)।
से भी शरीर को आच्छादित नहीं करना; इस १ प्राचार्य मुक्ताहार, मेघ, चन्द्रमा, सूर्य और कल्प- प्रकार समस्त परिग्रह के परित्याग का नाम आचेवृक्ष आदि के समान प्रत्युपकार से निरपेक्ष होते हैं। लक्य है। ६ जीर्ण, अल्प मुल्य वाले और खण्डित स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हए वे अन्य विनम्र शिष्यों वस्त्र के धारण करने पर भी पाचेक्य माना को भी उस पर चलाते हैं; सर्व शास्त्रों के पारगामी गया है। होते हैं; राग, द्वेष, व मोह से रहित होते हैं; तथा प्राच्छेद्य दोष-१. राया-चोरादीहिं य संजदभिनिःशल्य, निर्भय, एवं निरभिमानी होते हैं। इस खासमं तु दळूण । बीहेदूण णिजुज्जं अच्छिज्जं प्रकार से प्राचार्यों की प्रशंसा करने को प्राचार्यवर्ण- होदि णादव्वं ।। (मला. ६-२४)। २. अच्छेज्ज जनन कहते हैं।
चाछिदिय जं सामी भिच्चमाईणं ॥ (पंचाशक प्राचीर्ण (प्राचिण्ण)-देखो अभिहत दोष । ६०८)। ३. भृत्यादेराच्छिद्य यद्दीयते तदाच्छेद्यम् । १. उजु तिहिं सत्तहि वा घरेहिं जदि आगदं दु प्रा- (प्राचाराङ्ग शी. वृ. २, १, सू. २६६, पृ. ३१७) । चिण्णं । (मूला. ६-२०)। २. ऋजुवृत्त्या पक्तिस्व- ४. राजामात्यादिभिर्भयमुपदश्य परकीयं यद्दीयते रूपेण यानि त्रीणि सप्त गृहाणि वा व्यवस्थितानि तदुच्यते अच्छेज्जं । (भ. प्रा. विजयो. व मला. तेभ्यस्त्रिभ्यः सप्तभ्यो वा गृहेभ्यो यद्यागतमोदनादि- २३० कातिके. टी. ४४६) । ५. अच्छेज्ज़ कं वाचिन्न ग्रहणयोग्यम्, दोषाभावात् । (मूला. बु. -तिविहं-पहुअच्छेज्जं सामिअच्छेज्जं तेणअच्छेज्ज ।
(जीतक. चू. पृ. १५, पं. २०)। ६. प्रभु हादिनासीधी पंक्ति में स्थित तीन या सात घरों से लाये यकः, अन्येषां दरिद्रकौटुम्बिकानां बलाद् दातुमनीगये पाहार को प्राचीर्ण कहते हैं। ऐसा आहार 'प्सितामपि यद् देयं ददाति तत् प्रभु-पाच्छेद्यम् । साधु के लिए ग्राह्य होता है।।
स्वामी ग्रामादिनायक: स यदा साधून् दृष्टवा कलपाचेलक्य (प्रच्चेलक्क)-१. वत्थाजिण-बक्केण हेनेतरथा वा कौटुम्बिकेभ्योऽशनाद्युदाल्य ददाति य अहवा पत्ताइणा असंवरणं । णिब्भूसण णिग्गंथं तदा स्वाम्याच्छेद्यम् । स्तेनाश्चौरा: ते सार्थेकेभ्यो अच्चेलक्कं जगदि पूज्ज ।। (मूला. १-३०)। बलादाच्छेद्य यत् पाथेयादि साधुभ्यो दद्युस्तत् स्तेन२. सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यम् । (भ. प्रा. विज- विषयाच्छेद्यम् । (जीतक. च. वि. व्या. पृ. ४६) । यो. टी. ४२१)। ३. अविद्यमानं चेलं वस्त्रं यस्या- ७. नप-तस्करभीत्यादेर्दत्तमाच्छेद्यमच्यते। सावचेलकस्तद्भाव: प्राचेलक्यम् । (जीतक. च. वि. ८-३४)। ८. यदाच्छिद्य परकीयं हठात् गृहीत्वा व्या. पृ. ५३) । ४. चेलानां वस्त्राणां बहुधन-नवी- स्वामी प्रभुश्चौरो वा ददाति तदाच्छेद्यम् । (योगशा. नावदात-सुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभाव: अचेलत्वमित्य- स्वो. विव. १-३८, पृ. १३४)। ६.xxx र्थः । (समवा. अभय. व. २२, पृ. ३६)। ५. बल्क- आच्छेद्यं देयं राजादिभिर्भीषितः । (अन. ध. ५, लाजिनवस्त्राद्यैरंगासंवरणं वरम् । आचेलक्यम- १७); यदा हि संयतानां भिक्षाश्रमं दृष्ट्वा याजा
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आजीव] १८३, जैन-लक्षणावली
[आजीविकाभय तत्तल्यो वा चौरादिर्वा कुटुम्बिकान् 'यदि संयताना. २. पात्मनो जाति कूलं च निर्दिश्य शिल्पकर्म तप:मागतानां भिक्षादानं न करिष्यथ तदा युष्माकं द्रव्य- कर्मेश्वरत्वं च निदिश्याजीवनं करोति यतोऽतः प्रामपहरिष्यामो ग्रामाद्वा निर्वासयिष्यामः' इति भीष- जीववचनान्येतानि, तेभ्यो जातिकथनादिभ्यः पुनयित्वा दापयति तदा दीयमानमाच्छेद्यनामा दोषः रुत्पाद आहारस्य योऽयं स आजीवदोषो भवत्येषः, स्यात् । (अन. ध. टी. ५-१७)। १०. आच्छेद्यं वीर्यगृहन-दीनत्वादिदोषदर्शनादिति । (मूला. वृ. यत् भृतकादिलभ्यमाच्छिद्य दीयते । (व्यव. भा. वृ. ६-३१)।। ३, पृ. ३५)। ११. यबलात् कस्मादपि उद्दाल्य जाति, कुल, शिल्प, तप और ऐश्वर्यादि को प्रगट गृही दत्ते तदाच्छेद्यम् । (ग. ग. षट. स्वो. व. २०, करके भिक्षा एवं वसति आदि को उत्पन्न करना; पृ. ४६)। १२. राजभयाच्चौरभयाद्यद्दीयते तदा- यह आजीव दोष है। च्छेद्यम् । (भा. प्रा. टी. ६६) ।
प्राजीवदोषदुष्टा वसति- १. प्रात्मनो जातिं कुलं १ संयतों के भिक्षाश्रम को देख कर राजा, अमात्य । ऐश्वयं वाभिधाय स्वमाहात्म्यप्रकटनेनोत्पादिता अधवा चोर आदि के द्वारा भयभीत करके जो दान वसतिराजीवशब्देनोच्यते । (भ. प्रा. विजयो. २३०)। की योजना की जाती है। यह प्राच्छेद्य नामका २. स्वस्य जाति कुलमैश्वर्यमभिधाय माहात्म्यप्रकाशदोष है।
नेनोत्पादिता (वसतिः) आजीवदोषदुष्टा । (भ. प्रा. प्राजीव--१. जाई कुल गण कम्मे सिप्पे आजीव- मला. टी. २३०, कार्तिके. टी. ४४६-५०)। णा उ पंचविहा । सूयाए असूयाए व अप्पाण कहेहि अपनी जाति, कुल अथवा ऐश्वर्य के कथन द्वारा एक्केक्के ।। (पिण्डनि. ४३७)। २. आजीवे जाइ- अपना माहात्म्य प्रगट करके वसति को प्राप्त करना; कुलादिभिन्ने ।। (जीतक. च.पृ. १५, पं. २६)। ३. अ- यह प्राजीव नामका वसतिदोष है। ऐसी वसति तीताद्यर्थसूचकं निमित्तं जाति-कुल-गण-कर्म-शिल्पानां प्राजीवदोष से दूषित कही जाती है। कथनादिना आजीवनम् । (जीतक. च. वि. व्या. पृ. प्राजीवन-देखो आजीव । आजीवनं यदाहार४६, १५-२५)।
शय्यादिकं जात्याद्याजीवनेनोत्पादितम् । (व्यव. भा. १ जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्पके भेद से प्राजीव मलय. व. ३-१६४, पृ. ३५)। पांच प्रकार का है। अपनी उक्त जाति आदि को देखो आजीवदोष और आजीवदोषदुष्टा वसति । सूचा से-अप्रगट रूप में-अथवा असूचा से- श्राजीवना दोष-पिण्डार्थं दातुः सत्कजात्यादि प्रगट रूप में-कह कर भोजन प्राप्त करना, यह स्वस्य प्रकाशयतः आजीवनादोषः। (गु. ग. ष. स्वो. प्राजीव नामका उत्पादन दोष है।
वृ. २०, पृ. ४६)। प्राजीवकुशील-प्रात्मनो जाति कुलं वा प्रकाश्य देखो आजीवदोष और पाजीवदोषदुष्टा वसति । यो भिक्षादिकमुत्पादयति स प्राजीवकुशीलः । केन- प्राजीव (आजीविका) पिण्ड-१. जात्याद्याजीचिदुपद्रुतः परं शरणं प्रविशति,अनाथशालां वा प्रवि- वनादवाप्त आजीविकापिण्डः । (प्राचारा. शी. वृ. श्यात्मनश्चिकित्सां करोति स वाऽऽजीवकुश [शी] लः। २,१, २७३, पृ. ३२०) । २. जाति-कुल-गण-कर्म(भ. प्रा. विजयो. टी. १९५०)।
शिल्पादिप्रधानेभ्य प्रात्मनस्तद्गुणत्वारोपणं भिक्षार्थअपनी जाति या कुल को प्रकट करके भिक्षादिक के माजीवपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८; धर्मसं. उत्पन्न करने वाले साधु को प्राजीवकुशील कहते मान. स्वो. वृ. ३, २२, पृ. ४१)। हैं। तथा किसी के द्वारा उपद्रव किये जाने पर देखो प्राजीवदोष । दूसरे की शरण में जाने वाले और अनाथशाला में प्राजोवभय-आजीवो वर्तनोपायस्तस्मिन अन्येनोजाकर अपनी चिकित्सा कराने वाले साधु को भी परुध्यमाने भयमाजीवभयम् । (ललितवि. मु. पंजिप्राजीवकुश[शी]ल कहते हैं।
का पृ. ३८)। प्राजीव दोष-देखो प्राजीव । १.जादी कूलं च देखो प्राजीविकाभय ।। सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं । तेहिं पुण उप्पादो आजीविकाभय-१. आजीविकाभयं दुर्जीविकाआजीवदोसो हवदि एसो ॥ (मूला. ६-३१)। भयम् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १८४, पृ. ४७३) ।
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आज्ञा (प्राणा)] १८४, जैन-लक्षणावली
[प्राज्ञाविचय २. आजीविका प्राजीवनम्, तस्या उच्छेदेन भयमा- नी], आज्ञां तवाहं ददामीत्येवमादिवचनमाज्ञापनी जीविकाभयम् । (प्राव. भा. मलय. वृ. १८४, पृ. भाषा। (मूला. वृ. ५-११८)। ४. 'इदं कुरु' इत्या५७३)। ३. आजीविका जीवनवृत्तिः, तदपायचिन्ता- दिका आज्ञापनी। (भ. प्रा. मला. टी. ११६५) । जनित माजीविकाभयम् । (गु. गु. ष. स्वो. वृ. ६, ५. आज्ञापन प्रभुत्वेनाऽऽदेशो यः स्वोक्तकारिणा । पृ. २५)।
तत्किचिदाशु कर्तव्यं यन्मयादिश्यते तव ।। (प्राचा. २ आजीविका के नष्ट होने से जो भय उत्पन्न होता सा. ५-८६)। ६. प्राज्ञापनी कार्यनियोजनभाषा । है उसे आजीविकाभय कहते हैं।
यथा इदं कुर्याः इत्यादिः । (गो. जी. म. प्र. टी. प्राज्ञा (पारणा)-१. प्राणा णाम प्रागमो सिद्धंतो २२५)। ७. इदं कुरु इत्यादिकार्यनियोजनभाषा जिणवयणमिदि एयट्ठो। एत्थ गाहामो-सुणिउण- आज्ञापनी । (गो. जी. जी. प्र. २२५)। ८. आज्ञामणाइणिहणं भूदहिदं भूदभावणमणग्छ । अमिद- पनी कार्ये परस्य यथेदं विति। (धर्मसं.मान. स्वो. मजिदं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ॥ ज्झाएज्जो- वृ. ३-४१, पृ. १२३)। ६. आणावयणेण जुना णिरवज्ज जिणाणमाणं जगप्पईयाणं । अणि उणजण- प्राणवणी पुव्वभणि भासायो। करणाकरणाणियमा दुण्णेयं णयभंगपमाणमगहणं । एसा आणा । (धव. दृट्ठविवक्खाइ सा भिण्णा ।। (भाषार. ७३) । पु. १३, प. ७०-७१); आणा सिद्धंतो पागमो इदि २ स्वाध्याय करो व असंयम से विरत होवो इत्यादि एयट्ठो । (धव. पु. १४, पृ. ३२६) । २. प्राज्ञाप्यते अनुशासनात्मक भाषा को प्राज्ञापनी भाषा कहते हैं। इत्याज्ञा-हिताहितप्राप्ति-परिहाररूपतया सर्वज्ञो- प्राज्ञारुचि (प्रारणारुई)-१. रागो दोसो मोहो पदेशः। (प्राचारा. शी. वृ. २, २, ७४, पृ. १०२)। अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। प्राणाए रोयंतो सो ३. आज्ञा स्यादाप्तवचनम् । (त्रि. श. पु. च, २, ३, खलु प्राणारुई नाम । (उत्तरा. २८-२०; प्रव. ४४१) । ४. उल्लंघने क्रोधादिभयजनिकेच्छाऽऽज्ञा। सारो. ९५३) । २. भगवदहत्प्रणीताज्ञामानिमित्त(शास्त्रवा. टी. ३-३) ।
श्रद्धाना आज्ञारुचयः। (त. वा. ३, ३६, २) । ३. १ आज्ञा से अभिप्राय आगम, सिद्धान्त अथवा जिन- सर्वज्ञाज्ञानिमित्तेन षड्द्रव्यादिषु या रुचिः । साऽऽज्ञा वाणी का है-ये सब शब्द समानार्थक हैं। २ वह XXXII (म. पु. ७४-४४१)। ४. राग-द्वेषमहाप्रभावशालिनी जिन-प्राज्ञा जगत के जीवों को रहितस्य पुंसः प्राज्ञयैव धर्मानुष्ठानगता रुचिराज्ञासन्मार्ग दिखलाने के लिए उत्तम दीपक के समान रुचिः । (धर्मसं. मान. स्वो. व. २,२२, प. ३७)। होकर उनके लिये हित की प्राप्ति और अहित के ५. प्राज्ञा सर्वज्ञवचनात्मिका, तया रुचिर्यस्य सः । परिहार में समर्थ है।
(उत्तरा. नि. वृ. २८-१६)। ६. जिणग्राणं मन्नतो आज्ञाकनिष्ठता (पारणाकरिगट्ठदा)-१. प्राणा जीवो प्राणारुई मुणेयव्वो। (गु. गु. ष. स्वो. व. सिद्धंतो पागमो इदि एयट्ठो। तिस्से कणिढदा सग- १४, पृ. ३६)। खेत्ते थोवत्तं प्राणाकणिट्ठदा णाम । (धव. पु. १४, २ भगवत् अर्हत्सर्वज्ञप्रणीत श्रागम मात्र के निमित्त से पृ. ३२६)।
होने वाले श्रद्धान और श्रद्धावान् जीवों को भी प्राज्ञाप्राज्ञा से आगम अभिप्रेत है। उस प्रागम की कनि- रुचि कहा जाता है। ष्ठता-हीनता या श्रत को अल्पता का नाम प्राज्ञाविचय - १. पंचत्थिकाय-छज्जीवणिकाये
आगमकनिष्ठता है। यह आहार शरीर की उत्पत्ति कालदव्बमण्णे य। आणागेज्झे भावे आणाविचयेण में कारण होती है।
विचिणादि ॥ (मूला. ५-२०२; भ. प्रा. १७११; प्राज्ञापनी (प्रारणवरगो)-१. प्राणवणी णाम जो धव. पु. १३, पृ. ७१ उद्.) । २. उपदेष्टुरभावान्मजस्स प्राणत्तियं देइ सा प्राणवणी भवति । जहा न्दबुद्धित्वात् कर्मोदयात् सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुगच्छ पच पठ कुरु भुख एवमादि । (दशवै. चू. दृष्टान्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य ७, पृ. २३६) । २. स्वाध्यायं कुरुत, विरमतासंय- 'इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिनाः' इति गहनपदार्थमात् इत्यादिकानुशासनवाणी आणवणी । (भ.प्रा. श्रद्धानादर्थावधारणमाज्ञाविचयः । (स. सि. ६-३६ः विजयो. टो. ११६५)। ३. प्राज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञापना त. वा. ६, ३६, ४; भ. पा. मला. टी. १७०८%
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आज्ञाविचय] १८५, जैन-लक्षणावली
[आज्ञाविचय त. वृत्ति श्रुत. ६-३६); अथवा- स्वयं विदित- सूक्ष्मान् यथागमम् ॥ आज्ञा विचय एष स्यात् Xx पदार्थतत्त्वस्य सतः परं प्रति पिपादयिषो स्वसिद्धा- X॥(म. पु. २१, १४.-१)। ६. अतीन्द्रियेषु भावेषु न्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थं तर्क-नय-प्रमाणप्रयोजन- बन्ध-मोक्षादिषु स्फुटम् । जिनाज्ञानिश्चयध्यानमाज्ञापरः स्मृति समन्वाहारः सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादा- विचयमीरितम् ।। (ह. पु. ५६-४६)। १०. कर्माणि ज्ञाविचयः इत्युच्यते । (स. सि. ६-३६; भ. पा. मूलोत्तरप्रकृतीनि, तेषां चतुर्विधो बन्धपर्यायः, उदयमूला. टी. १७०८; त. वृत्ति श्रुत. ६-३६) । फलविकल्पो जीवद्रव्यं मुक्त्यवस्थेत्येवमादीनामती३. प्राज्ञाप्रकाशनार्थो वा । अथवा सम्यग्दर्शनविशुद्ध- न्द्रियत्वात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावाद् परिणामस्य विदितस्व-परसमयपदार्थनिर्णयस्य सर्वज्ञ- बुद्धचतिशयेऽसति दुरवबोधं यदि नाम वस्तुतत्त्वं प्रणीतानाहितसौक्षम्यानस्तिकायादीनानवधार्य 'एव- तथापि सर्वज्ञज्ञानप्रामाण्यादागमविषयतत्त्वं तथैव, मेते' इत्यन्यं पिपादयिषतः कथामार्गे श्रुतज्ञानसाम- नान्यथेति निश्चयः सम्यग्दर्शनस्वभावत्वान्मोक्षहेतु
र्थ्यात् स्वसिद्धान्ताविरोधेन हेतु-नय-प्रमाणविमर्द- रित्याज्ञाविचारनिश्चयज्ञान माज्ञाविचयाख्यं धर्मध्याकर्मणा ग्रहणसहिष्णन् कृत्वा प्रभाषयतः तत्समर्थ- नम् । अन्ये तु वदन्ति स्वयमधिगतपदार्थतत्त्वस्य परं नार्थस्तर्क-नय-प्रमाणयोजनपरः स्मृतिसमन्वाहारः प्रतिपादयितुं सिद्धान्तनिरूपितार्थप्रतिपत्तिहेतुभूतयुसर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते । (त. क्तिगवेषणावहितचित्ता सर्वज्ञज्ञानप्रकाशनपरा अनया वा. ६,३६, ५)। ४. प्राणाविजए णाम-तत्थ युक्त्या इयं सर्वविदामाज्ञावबोधयितुं शक्येति प्रवर्तप्राणा णाम आणेति वा सुत्तं ति वा वीतरागादेसो मानत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यत इति । (भ. प्रा. विजवा एगट्टा । विजयो णाम मग्गणा । कहं ? जहा जे यो. टी. १७०८)। ११. तत्राज्ञा सर्वज्ञप्रणीतागमः । सुहुमा भावा अणिदियगिज्झा अवज्झा चक्खुविसया- तामाज्ञामित्थं विचिनुयात् पर्यालोचयेत् । Xxx तीया केवलनाणीपच्चक्खा ते वीयरागवयणं ति तत्र प्रज्ञायाः परिदुर्बलत्वादुपयुक्तोऽपि सूक्ष्मया शेकाऊण सद्दहइ । भणितं च-पंचत्थिकाए आणाए मुष्या यदि नावैति भूतमर्थं सावरणज्ञानत्वात् । जीवे आणाए छव्विहे। सद्दहे जिणपण्णत्ते धम्मज्झा- xxx तथाऽप्येवं विचिन्वतोऽवितथवादिनः क्षीणणं झियायइ ॥ तहा-तमेव सच्चं नीसंकं जं रागद्वेषमोहाः सर्वज्ञाः नान्यथाव्यवस्थापितमन्यथा. जिणेहि पवेदितं । भणितं च-वीयरागो हि सवण्णू वयन्ति भाषन्ते वा ऽनृतकारणाभावात् । अतः सत्यमिच्छं व उ भासइ । जम्हा तम्हा वई तस्स तच्चा मिदं शासनमित्याज्ञायां स्मृतिसमन्वाहारः । (त. भा. भूतत्थदरसिणी ॥ एवं प्राणाविजयं । (दशवै. च. सिद्ध. वृ. ६-३७)। १२. प्रमाणीकृत्य सार्वज्ञीमा१, पृ. ३२)। ५. प्राप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञाविचय- ज्ञामर्थावधारणम् । गहनानां पदार्थानामाज्ञाविचय स्तदर्थनिर्णयनम् । (प्रशमर. २४८)। ६. एदीए उच्यते ॥ (त. सा. ७-४०)। १३. प्रा अभिविआणाए पच्चक्खाणुमाणादिपमाणाणमगोयरत्थाणं जं धिना ज्ञायन्तेऽर्था यया साज्ञा प्रवचनम, सा विचीयते झाणं सो प्राणाविचो णाम ज्झाणं । (धव. पु. १३, निर्णीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिस्तदाज्ञाविचयं धर्मपृ. ७१)। ७. तत्थ य मइदोव्वलेणं तबिहाइरिय- ध्यानमिति, प्राकृतत्वेन विजयमिति; आज्ञया विजीविरहयो वा वि । णेयगहणत्तणेण य णाणावरणो- यते अधिगमद्वारेण परिचिता क्रियते यस्मिन्नित्याज्ञादएणं च ॥ हेऊदाहरणासंभवे य सइ सुठु जं न विजयम् । (स्थाना. अभय. वृ. ४, १, २४७) । बुज्झज्जा। सव्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चितए १४. प्राज्ञाविचयमतीन्द्रियज्ञानविषयं विज्ञातं चतुर्ष मइमं ॥ अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा ज्ञानेषु बुद्धिशक्त्यभावात् परलोक-बन्थ-मोक्ष-लोकाजगप्पवरा। जियराग-दोस-मोहा य णण्णहावादिणो लोकसदसद्विवेकवृद्धिप्रभाव-धर्माधर्म-कालद्रव्यादिपदातेणं । (ध्यानश. ४७-४६ [प्राव. हरि. व. पृ. र्थेषु सर्वज्ञप्रामाण्यात्तत्प्रणीतागमकथितमवितथं नान्य५६७]; धव. पु. १३, पृ. ७१ पर कुछ पाठभेदों के थेति सम्यग्दर्शनस्वभावत्वान्निश्चयचिन्तनं नवमं साथ उद्धृत)। ८. जैनी प्रमाणयन्नाज्ञां योगी योग- धर्म्यम् । (चा. सा. पू. ६०)। १५. वस्तुतत्त्वं स्वविदांवरः । ध्यायेद् धर्मास्तिकायादीन् भावान् सिद्धान्तप्रसिद्धं यत्र चिन्तयेत् । सर्वज्ञाज्ञाभियोगेन
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प्राज्ञाविचय]
१८६, जैन-लक्षणावली [आज्ञाव्यापादिकी क्रिया तदाज्ञाविचयो मतः ॥ (ज्ञानार्णव ३३-६) । धर्म दशाङ्गं जिनः, प्राहैकादश देशसंयतदशाः सद्१६. स्वयं मन्दबद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्याया- द्वादशाहं तपः ।। सम्यकप्रेक्षा चक्षषा वीक्षमाणः, भावेऽपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति यद् यादृक्षं सर्ववेद्याचचक्षे । तत्तादृक्षं चिन्तयन् वस्तु 'सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न गम्यते । यायादाज्ञाधर्म्यध्यानमुद्रां मुनीन्द्रः ।। (आत्मप्र. ८९, प्राज्ञासिद्धं तु तद् ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ॥' ६०)। २६. धर्म्यमपि ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्यइति श्लोककथितक्रमेण पदार्थनिश्चयकरणमाज्ञा- भावनाभिः कृताभ्यासस्य नयादिभिरतिगहनं न बुध्यते विचयध्यानं भण्यते । (बु. द्रव्यसं. ४८, पृ. १७७; तुच्छमतिना, परं सर्वज्ञमतं सत्यमेवेति चिन्तनं आज्ञाकातिके. टी.४८२, प. ३६७)। १७. आज्ञा जिन- विचयः। (धर्मसं. मान.स्वो. व. ३-२७, पृ.८०)। प्रवचनम्, तस्या विचयो निर्णयो यत्र तदाज्ञा विच- २७. स्वसिद्धान्तोक्तमार्गेण तत्त्वानां चिन्तनं यथा । यम् । प्राकृतत्वादाणाविजयं प्राज्ञागुणानुचिन्तनमि- प्राज्ञया जिननाथस्य तदाज्ञाविचयं मतम् ।। (भावसं. त्यर्थः । (औपपा. अभय. वृ. २०, पृ. ४४)। १८. वाम. ६३७) । २८. प्राज्ञाविच यसंज्ञं स्यात् श्रुतार्थविज्ञातुं न तु शक्यमावृतियुताऽध्यक्षानुमानादिना- श्चिन्तनात्मकम् । (लोकप्र. ३०-४५७) । त्यक्षानन्तविवर्तवतिसकलं वस्त्वस्तदोषाहताम् । १ जीवादि पांच अस्तिकाय, पृथिवीकायिक आदि प्राज्ञावाग्विच यस्तयोक्तमन्तं नैवेति तद्वस्तूनश्चिन्ता- छह जीवनिकाय और कालद्रव्य; ये जो जिनाज्ञा के ऽऽज्ञाविचयो विदुर्नयचयः संज्ञानपुण्योदयः ॥ (प्राचा. अनुसार ग्रहण योग्य पदार्थ हैं उनका उसी प्रकार सा. १०-२६)। १६. एते पदार्थाः सर्वज्ञनाथेन से-जिनागम के अनुसार-विचार करना, यह वीतरागेण प्रत्यक्षेण दृष्टा न कदाचिद व्यभिचरन्ती- प्राज्ञाविचय धर्मध्यान है। त्यास्तिक्यबुद्धचा तेषां पृथक पृथग्विवेचनेनाऽऽज्ञा. प्राज्ञाव्यवहार- १. पाणाववहारो--गीयायरिया विचयः । यद्यप्यात्मनः प्रत्यक्षबलेन हेतुबलेन वा न आसेवियसत्थत्था खीणजधाबला दो वि जणा पगिटूस्पृष्टा तथापि सर्वज्ञाज्ञानिर्देशेन गृह्णाति, 'नान्यथा- देसंतरनिवासिणो अन्नोन्नसमीवमसमत्था गन्तं जया, वादिनो जिनाः' यत इति। (मला. व. ५-२०२)। तया मइधारणाकुशलं अगीयत्थसीसं गूढत्थेहिं अइ२०. प्राज्ञां यत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामवाधिताम् । यारपयासेवणे हि पेसेइ ति । (जीतक. चू. पृ. २, तत्त्वतश्चिन्तयेदर्थान् तदाज्ञाध्यानमुच्यते ।। (योगशा. पं. ३२)। २. देसंतरट्ठिाणं गूढपयालोअणा प्राणा। १०-८; गु. ग. षट्. स्वो.व. २, पृ. १० गुण. क्रमा. (गु. गु. षट. स्वो.वृ.३, पृ. १३)। ३. तथा प्राज्ञायत २८) । २१. इमामाज्ञां समालम्ब्य स्याद्वादन्याय- अादिश्यत इत्याज्ञा। तद्रूपव्यवहारस्तु केनापि योगतः। द्रव्य-पर्यायरूपेण नित्यानित्येषु वस्तुषु ॥ शिष्येण निजातिचारालोचकेन आलोचनाचायः स्वरूप-पररूपाभ्यां सदमद्पशालिषु । यः स्थिरप्रत्ययो सन्निहितोऽप्राप्तः, दूरे त्वसौ तिष्ठति । ततः केनध्यानं तदाज्ञाविचयाह्वयम् ॥ (त्रि. श. पु. च. २, चित्कारणेन स्वय तावत् तत्र गन्तुं न शक्नोति । २,४४८-४६)। २२. छद्दव्व णवपयत्था सत्त वि अगीतार्थस्तु कश्चित्तत्र गन्ता विद्यते । तस्य हस्ते तच्चाई जिणवराणाए । चितइ विसयविरत्तो प्राणा- आगमभाषया गूढानि अपराधपदानि लिखित्वा यदा विचयं तु तं भणियं ।। (भावसं. दे. ३६७)। २३. शिष्यं प्रस्थापयति; गुरुरपि तथैव गूढपदैः प्रायश्चित्तं सर्वज्ञाज्ञयाऽत्यन्तपरोक्षार्थावधारणार्थमित्थमेव सर्व- लिखित्वा प्रेषयति तदासौ आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवज्ञाज्ञासम्प्रदाय इति विचारणमाज्ञाविचयः । (त. हारः । (जीतक. च. वि. व्या. पृ. ३३)। सुखबो. ९-३६) । २४. प्राज्ञाया निर्धारः सम्यग्द- ३ देशान्तर स्थित गुरु को अपने दोषों की पालोर्शनम्, आज्ञाया अनन्त [न्ततत्वपूर्वापराविरोधि- चना कर लेने के लिए किसी अगीतार्थ के द्वारा त्वादिस्वरूपे चमत्कारपूर्वकचित्तविश्रामः प्राज्ञा- पागमभाषा में पत्र लिखकर भेजने तथा गरु के विचय धर्म्यध्यानम् । (ज्ञा. सा. दे. वृ. ६-४, पृ. द्वारा भी उसी प्रकार गूढ़ पदों में ही प्रायश्चित्त २३)। २५. सत्तका द्विविधो नयः शिवपथस्त्रेधा लिखकर भेजने को प्राज्ञाव्यवहार प्रायश्चित्त चतुर्धा गतिः, कायाः पञ्च षडङ्गिनां च निचयाः कहते हैं। सा सप्तभङ्गीति च । अष्टौ सिद्धगुणा पदार्थनवकं प्राज्ञाव्यापादिको क्रिया-१. यथोक्तामाज्ञामावश्य
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श्रज्ञासम्यक्त्व ]
कादिषु चारित्रमोहोदयात् कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथा प्ररूपणादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया । (स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, १०)। २. यथोक्ताज्ञानसक्तस्य कर्तुं मावश्यकादिषु । प्ररूपणाऽन्यथा मोहादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ।। (ह. पु. ५८-७७) । ३. आवश्यकादिषु ख्यातामर्हदाज्ञामुपासितुम् । अशक्तस्यान्यथाख्यानादाज्ञाव्यादिकी क्रिया ॥ ( त श्लो. ६, ५, २०) । ४. जिनेन्द्राज्ञां स्वयमनुष्ठातुमसमर्थस्यान्यथार्थ समर्थनेन तद्व्यापादनमाज्ञाव्यापादनक्रिया । (त. सुखबो. ६ - ५ ) । ५. चारित्र - मोहोदयात् जिनोक्तावश्यकादिविधानासमर्थस्य अन्यथाकथनमाज्ञाव्यापादनक्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६-५) । १ चारित्रमोह के उदय से जिनोक्त आवश्यकादि क्रियानों के पालन करने में स्वयं असमर्थ होने के कारण जिनाज्ञा से विपरीत कथन करने को श्राज्ञाव्यापादिकी क्रिया कहते हैं । श्राज्ञासम्यक्त्व देखो आज्ञारुचि । १. प्रज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । ( श्रात्मानु. १२) । २. भगवदर्हत्सर्वज्ञ प्रणीतागमानु ज्ञासंज्ञा श्राज्ञा । ( उपासका . पू. ११४) । ४. देवोऽर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः । धर्मस्तदुक्त एवेति निर्बन्धः साधयेद् दृशम् । (अन. ध. २-६३) । ५. प्राप्तागम-यतीशानां तत्त्वानामल्पबुद्धितः । जिनाज्ञयैव विश्वासो भवत्याज्ञा हि सा परा ॥ ( भावसं वाम. ३२७) । ६. तत्राज्ञा जिनोक्तागमानुज्ञा । (अन. ध. स्वो टी. २-६२ ) । ७. जिन सर्वज्ञवीतरागवचनमेव प्रमाणं क्रियते तदाज्ञासम्यक्त्वं कथ्यते ।। (द. प्रा. टी. १२) । देखो आज्ञारुचि ।
प्राढक - १. चतुःप्रस्थमाढकम् । (त. वा. ३, ३८, ३, पृ. २०६ ) । २. प्रस्थैश्चतुभिरेकः स्यादाढकः प्रथितो जने । ( लोकप्र. २८ - २७४) ।
१ चार प्रस्थ (एक प्राचीन मापविशेष ) प्रमाण माप को ढक कहते हैं । श्रातङ्क - प्रातङ्कः सद्योघाती रोगः । ( पञ्चसू. टी. पू. १५) ।
शीघ्र प्राणघातक रोग को प्रातङ्क कहते हैं । श्रातङ्कसम्प्रयोगसम्प्रयुक्त श्रायंकसंपयोगसंप
१८७, जैन - लक्षणावली
[ आतपनाम
उत्तो तस्स विप्पयोगाभिकखी सतिसमन्नागते । तत्थ आतंको नाम प्रासुकारी, तं जरो प्रतिसारो सू (सा) सं सज्जहूओ एवमादि । आतंकगहणेण रोगोवि सूइस्रो चेव । सो य दीहकालिनो भवइ । तं गंडी अदुवा कोढी एवमादि । तत्थ वेदणानिमित्तं श्रयं करोगेसु पदोसमावण्णो प्रारुग्गभिकखी राग-दोसवसगओ हाणुगओ निवसतो सुभकम्मरयमलं उवचिणोति । श्रट्टज्झाणस्स तइम्रो भेदो गम्रो । ( दशवै. चू. १, पृ. ३० ) ।
आशुघाती रोग का नाम आतंक है। ऐसे ज्वर व प्रतिसार आदि रोग के उपस्थित होने पर उसके विनाश का बार-बार स्मरण करना, यह तृतीय ( आतंकसं प्रयोग संप्रयुक्त) श्रार्तध्यान है । आतप - १. आदित्यादिनिमित्त उष्ण प्रकाशलक्षणः । स. सि. ५ - २४; त. इलो. ५-२४) । २. प्रातप उष्णप्रकाशलक्षणः । श्रातपः श्रादित्यनिमित्त: उष्णप्रकाशलक्षणः पुद्गलपरिणामः । (त. वा. ५, २४, १८ ) । ३. को प्रादवो णाम ? सोष्णः प्रकाशः आतपः । ( धव. पु. ६, पृ. ६० ) । ४. श्रातपोऽपि पुद्गल परिणाम:, तापकत्वात् स्वेदहेतुत्वात् उष्णत्वात् श्रग्निवत् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२४, पू. ३६३) । ५. श्रा समन्तात् तपति सन्तापयति जगदिति श्रातपः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १ – ५७, पृ. ३८ ) ६. उष्ण प्रकाशलक्षणः सूर्यबहिः प्रभृतिनिमित्तमातप: । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) ।
१ सूर्य आदि के निमित्त से जो उष्ण प्रकाश होता है उसे आप कहते हैं । आतपनाम- १ यदुदयान्निर्वृत्तमातपनं तदातपनाम | तदादित्ये वर्तते । ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १५) । २. प्रातपति येन, आतपनम्,
तपतीति वातपः । तस्य निर्वर्तकं कर्म प्रतपनाम, तदादित्ये वर्तते । (त. वा. ८, ११, १५; त. श्लो. ८ - ११) । ३. प्रातपसामर्थ्य जनकमातपनाम । (त. भा. ८ - १२ ) । ४. प्रतपनाम यदुदयादातपवान् भवति । (श्रा. प्र. टी. २२; श्राव. नि. हरि. वृ. १२२ ) । ५. सूर्यविमान रत्नपृथिवी जीवजनितदाहो यस्तदातपनाम । ( पंचसं. स्वो वृ. ३-१२७, पृ. ३८ ) । ६. प्रातपनमातपः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे प्रदग्रो होज्ज तस्स कम्मस्स ग्रादप्रति ण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६० ) । ७. प्रातपतीत्या
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आताप]]
१८८, जैन-लक्षणावली
[आत्मप्रवाद
तपः, पातप्यते वाऽनेनेति प्रातपः। तस्यातपस्य देखो प्रातपनाम । सामर्थ्य शक्तिरतिशयो येन कर्मणोदितेन जन्यते प्रात्मकैवल्य-कर्मणोऽपि वैकल्यामात्मकैवल्यमतदापनाम । प्राङो मर्यादावचनत्वात् । (त. भा. स्त्येव । (अष्टशती ४)। सिद्ध. व.८-१२)।८. जस्सुदएणं जीवे होइ सरीरं कर्म की भी विकलता को प्रात्मकैवल्य कहा तु ताविलं इत्थ । सो प्रायवे विवागो जह रविबिबे जाता है। तहा जाण ।। (कर्मवि. गर्ग. गा. १२५, पृ. ५१) । प्रात्मज्ञप्ति-नन्वहंप्रत्ययोत्पत्तिरात्मज्ञप्तिनिगद्यते । ६. यदूदयाज्जीवस्तापवच्छरीरो भवति तदातपनाम। (त. श्लो. १-२०२, पृ. ४१)। (समवा. अभय. व. ४२, पृ. ६७)। १०. यस्य 'मैं है' इस प्रकार की प्रतीति के उत्पन्न होने को कर्मण उदयाज्जीवस्य शरीरं तापवदुष्णप्रकाशकारि प्रात्मज्ञप्ति कहते हैं। भवति स पातपस्य विपाकः। (कर्मवि. परमा. व्या. आत्मज्ञान-आत्मज्ञानं वादादिव्यापारकाले कि१२५, पृ. ५२) । ११. यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्व- मम प्रतिवादिन जेतुं मम शक्तिरस्ति न बा इत्यारूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति लोचनम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-५८, पृ. ३६)। तदातपनाम । (कर्मस्त. गो वृ. ६-१०, पृ. ८८; क्या इस प्रतिवादी को जीतने की मेरी शक्ति है या शतक. मल. हेम. वृ.३७-३८, ५.५१; प्रव. सारो. नहीं, इस प्रकार (शास्त्रार्थ) आदि व्यापार के वृ. १२६४; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४४; कर्मप्र. समय विचार करना; इसका नाम आत्मज्ञान है। यशो. टी. १, पृ. ६)। १२. यदुदयवशाज्जन्तुशरी- यह चार प्रकार की प्रयोगसम्पत्ति का प्रथम भेद है। राणि भानुमण्डलगतपृथिवीकायिकरूपाणि स्वरूपेणा- प्रात्मतत्त्व-१. अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्त नुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातप- भ्रान्तिरात्मनः । (समाधि. ३६)। २. अविक्षिप्तं नाम । (षष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६, पृ. १२६, प्रज्ञा- रागाद्यपरिणतं देहादिनाऽऽत्मनोऽभेदाध्यवसायपरिप. २३-२६३, पृ. ४७३; पंचसं. मलय. वृ. ३-७; हारेण स्वस्वरूप एव निश्चलतां गतम्, इत्थंभूतं मनस्तकर्मप्र. टी. १, पृ. ६)। १३. प्रातपनाम यदुदयाज्ज- त्वं वास्तवं रूपमात्मनः । (समाधि. टी. ३६)। न्तुशरीरं स्वयमनुष्णं सत् आतपं करोति । (धर्मसं. मन की विक्षेप-रहित अवस्था का नाम ही प्रात्ममलय. वृ. ६१६)। १४. यदुदयादातपनं निष्पद्यते तस्व-प्रात्मा का स्वरूप है। तदातपनाम । (भ. प्रा. मूला. टी. २०६५)। १५. प्रात्मदमन-१. प्रात्मनो दमनम् आहारे सुखे च यदुदयेन प्रादित्यवदातापो भवति तदातपनाम । (त. योऽनुरागस्तस्य प्रशमनात् । (भ. प्रा. विजयो. टी. वृत्ति श्रुत. ८-११)।
२४०)। २. पात्मनो दमनमाहारे सुखे वानुराग२ जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रातप हो अथवा प्रशमनाइपखण्डनम् । (भ. प्रा. मला. टी. २४०)।, जो प्रातप का निवर्तक हो उसे प्रातपनामकर्म आहार और इन्द्रियसुख में अनुराग को शान्त कहते हैं।
करके जो अभिमान को नष्ट किया जाता है उसे प्राताप-देखो पातप । १. मूलोष्णवती प्रभा प्रात्मदमन कहते हैं। तेजः, सर्वाङ्गव्याप्युष्णवती प्रभा आतापः, उष्ण- प्रात्मभावना-मोहारातिक्षतेः शुद्धः शुद्धाच्छुद्धरहिता प्रभोद्योतः इति तिण्हं भेदोवलंभादो। (धव. तरस्ततः । जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभापु. ८, पृ. २००)।
वना ।। (लाटीसं. ४-३१८; पंचाध्यायी २-८१३)। सर्वांगव्यापिनी उष्णतायुक्त प्रभा को प्राताप कहा मोहकर्म का उत्तरोत्तर विनाश करते हुए प्रात्मा को जाता है।
शुद्ध से शुद्धतर और शुद्धतर से शुद्धतम बनाने को प्रातापनाम-देखो आतपनाम । १. जस्स कम्म- प्रात्मप्रभावना कहते हैं। स्सुदएण सरीरे पादावो होदि तं प्रादावणाम। प्रात्मप्रवाद - १. यत्रात्मनोऽस्तित्व-नास्तित्वसोष्णप्रभा आतापः । (धव. पु. १३, पृ. ३६५)। नित्यत्वानित्यत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्वादयो धर्माः षड्२. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवशरीर पातपो भवति जीवनिकायभेदाश्च युक्तितो निर्दिष्टाः तदात्मप्रवातदातापनाम । (मूला. वृ. १२-१९२)।
दम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७६)। २. प्रात्म
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आत्मप्रशंसा] १८६, जैन-लक्षणावली
[प्रात्मरक्ष प्रवादपूर्वं यत्रात्मन: संसारि-मुक्ताद्यनेकभेदभिन्नस्य विशिष्टनामकर्मोपात्तपरिच्छिन्नस्थान-परिमाणनिर्माप्रवदनम् । (दशवै. नि. हरि. वृ. १-१६)। ३. प्राद- णश्चक्षरादिकरणग्राम आत्मभूतः [बाह्यो हेतु:] । पवाद सोलसहं वत्थूण १६ वीसूत्तर-तिसयपाहुडाणं xxxतन्निमित्तो (द्रव्योग निमित्तो) भावयोगो ३२० छव्वीसकोडिपदेहिं २६००००००० आदं वीर्यान्तराय-ज्ञान-दर्शनावरणक्षय-क्षयोपशमनिमित्त वण्णेदि वेदो त्ति वा विण्ह त्ति वा भोत्ते त्ति वा इच्चा- प्रात्मनः प्रसादश्चात्मभूत: [ग्राभ्यन्तरः] इत्याख्यादिसरूवेण। (धव. पु. १, पृ. ११८); यत्रात्मनो- मर्हति । (त. वा. २, ८,१) । ऽस्तित्व-नास्तित्वादयो धर्माः षड़जीवनिकायभेदाश्च प्रात्मा से सम्बद्ध विशिष्ट नामकर्म के निमित्त से युक्तितो निर्दिष्टास्तदात्मप्रवादम् । (धव. पु. ६, स्थान व परिमाण निर्माण के अनुसार जो चक्ष पृ. २१६)। ४. प्रादपवादो णाणाविहदुण्णए जीव- आदि इन्द्रियों का समूह उत्पन्न होता है वह चैतन्याविसए णिराकरिय जीवसिद्धि कुणइ । अस्थि जीवो नुविधायी उपयोग का बाह्य प्रात्मभूत हेतु होता है। तिलक्खणो सरीरमेत्तो स-परप्पयासो सुहुमो अमुत्तो तथा द्रव्ययोग के निमित्त से जो भावयोग और भोत्ता कत्ता अणाइबंधणबद्धो णाण-दसणलक्खणो वीर्यान्तराय, ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के क्षय व उड्ढगमणसहावो एवमाइसरूवेण जीवं साहेदि त्ति वृत्तं क्षयोपशम के अनुसार जो आत्मा की प्रसन्नता भी होदि। सव्वदवाणमादं सरूवं वण्णेदि प्रादपवादो होती है, यह उक्त उपयोग का प्राभ्यन्तर आत्मभूत त्ति के वि पायरिया भणंति । (जयध. १, पृ. हेतु होता है। १४२)। ५. प्रात्मप्रवादं सप्तमम्-पाय त्ति प्रात्मभ्रान्ति-१.XXX विक्षिप्त भ्रान्तिराआत्मा, सोऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्रवा- त्मनः । (समाधितं. ३६)। २. रागादिपरिणतं देहादम् । (समवा. अभय. वृ. १४७, पृ. १२१)। दिना आत्मनोऽभेदाध्यवसायेन स्वस्वरूप एव अस्थि६. षडविंशतिकोटिपदं जीवस्य ज्ञान-सखादिमयत्व- रतां गतं मनः आत्मनो भ्रान्तिः अात्मस्वरूपं न कर्तृत्वादिधर्मप्रतिपादकमात्मप्रवादम् । (श्रतभक्ति भवतीति । (समाधितं. टी. ३६)। टी. ११, पृ. १७५; त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। शरीर को प्रात्मा मानकर रागादि से परिणत हुश्रा ७. अप्पपवादं भणियं अप्पसरूवप्परूवयं पूछ । मन जो प्रात्मस्वरूप में अस्थिरता को प्राप्त होता छब्बीसकोडिपयगय मेवं जाणंति सुपयत्था ।। (अंग- है, इसका नाम आत्मभ्रान्ति है। पण्णत्ती २-८५, पृ. २६४)।
प्रात्मयोगी-तथाऽऽत्मयोगी - प्रात्मनो योगः १प्रात्मा के अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, कुशल मनःप्रवृत्तिरूप: प्रात्मयोगः, स यस्यास्ति स और कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि धर्म एवं छह जीवनि- तथा, सदा धर्मध्यानावस्थित इत्यर्थः । (सूत्रकृ. शी. कायोंके प्रतिपादन करने वाले पूर्व को प्रात्मप्रवाद व. २, २, ४२, पृ. ८६)। कहते हैं।
निर्मल मन की प्रवृत्तिरूप प्रात्मयोग से यक्त प्रात्मप्रात्मप्रशंसा-स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा। ज्ञानी को प्रात्मयोगी कहते हैं । (नि. सा. वृ. ६२)।
प्रात्मरक्ष-१. प्रात्मरक्षा: शिरोरक्षोपमाः । (स. अपने विद्यमान या अविद्यमान गुणोंकी स्तुति स. ४-४; त. वा. ४-४) । २. आत्मरक्षाः शिरोकरने को प्रात्मप्रशंसा कहते हैं ।
रक्षस्थानीयाः। (त. भा. ४-४)। ३. आत्मरक्षाः प्रात्मभूत (लक्षण)-१. तत्र आत्मभूतमग्नेरौ- शिरोरक्षोपमाः । आत्मानं रक्षन्तीति आत्मरक्षाः, ते पुण्यम् । (त. वा. २,८,३) । २. यद्वस्तुस्वरूपानु- शिरोरक्षोपमाः। श्रावृतावरणा: प्रहरणोद्यता रौद्राः प्रविष्टं तदात्मभूतम् । यथाग्नेरौष्ण्यम् । (न्या. दी. पृष्ठतोऽवस्थायिनः । (त. वा. ४, ४, ५)। ४. प्रा
त्मानं रक्षन्तीत्यात्मरक्षास्ते शिरोरक्षोपमाः। (त. जो लक्षण अग्नि की उष्णता के समान वस्तु के श्लो. ४-४)। ५. आत्मरक्षा: शिरोरक्षसमानाः स्वरूप में प्रविष्ट-तन्मय-हो उसे प्रात्मभूत। प्रोद्यताऽसयः। विभवायैव पर्यन्तात् पर्यटन्त्यमरेशिलक्षण कहते हैं।
नाम् ॥ (म. पु. २२-२७)। ६. प्रात्मरक्षास्तु हत)-तत्र प्रात्मना सम्बन्धमापन्न- रक्षकाः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७३)। ७.
प्रात
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आत्मरक्षी]
१६०, जैन-लक्षणावली
आत्मा (प्रादा, अप्पा)
इन्द्राणामात्मानं रक्षन्तीत्यात्म रक्षा:, "कर्मणोऽण" । प्रात्मसंयोग-१. प्रोवसमिए य खइए खग्रोवसते झपायाभावेऽपि स्थितिपरिपालनाय प्रीत्युत्पत्तये मिए य पारिणामे अ। एसो चउविहो खलु नायव्वो चेन्द्राणां परितो दृढनिबद्धसभटोचितपरिकरा धनु- अत्तसंजोगो । जो सन्निवाइनो खलु भावो उदएण रादिप्रहरणव्यग्रपाणयः स्व-स्वस्वामिन्यस्तनिश्चल- वज्जियो होइ। इक्कारससंजोगो एसो चि य अत्तदृष्टयः परेषां क्षोभमापादयन्तोऽङ्गरक्षका इव तिष्ठ- संजोगो॥ (उत्तरा. नि. १,५०-५१) । २. प्रात्मन्ति । (संग्रहणी दे. वृ. १)। ८. प्रात्मन इन्द्रस्य संयोगः प्राग्वदात्मार्पित (तत्रापितो नाम क्षायिकादिरक्षा येभ्यस्ते प्रात्मरक्षा अङ्गरक्षा: शिरोरक्षसदृशाः। र्भावः स्वाधारे भाववति ज्ञाताऽयमित्यादिरूपेण (त. वृत्ति श्रुत. ४-४)।
ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारेण वक्त्रा १शिरोरक्ष-अङ्गरक्षक के समान–इन्द्र की रक्षा स्थापितः-शा. व. नि. ४६) सम्बन्धनसंयोगः । करने वाले उसके पास में अवस्थित रहने वाले- (उत्तरा. नि. शा. व. १, ५० व ५१)। देवों को प्रात्मरक्ष कहते हैं।
प्रौपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिप्रात्मरक्षी-विषयाभिलाषविगमान्निनिदान: सन् णामिक भावों के साथ प्रात्मा का जो संयोग है उसे आत्मानं रक्षत्यपायेभ्यः कुगतिगमनादिभ्यः इत्ये- आत्मसंयोग कहते हैं। प्रौदयिक को छोड़कर इन वंशोल प्रात्मरक्षी। यद्वाऽऽदीयते स्वीक्रियते पात्म- भावों के परस्पर संयोग से जो ग्यारह (द्वि. सं. हितमनेनेत्यादानः संयमः, तद्रक्षी। (उत्तरा. सू. ६+त्रि. सं. ४-+च. सं. १ = ११) संयोगज भंग शा. वृ. ४-१०, पृ. २२५)।
होते हैं इस सबको प्रात्मसंयोग कहा जाता है। जो इन्द्रियविषयों की अभिलाषा के नष्ट हो प्रात्मशरीरसंवेजनी - आयसरीरसंवेयणी जहा जाने से निदान से रहित होता हुमा कुगति में ले जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं एवं सुक्क-सोणिय-मंसजाने वाले अपायों से अपने प्रात्मा की रक्षा करता । वसा-मेद-मज्जट्रि-ण्हारु-चम्म-केस-रोम-णह-दंत-पताहै उसे प्रात्मरक्षी कहते हैं।
दिसंघायणिप्फण्णत्तणेण मुत्त-पुरीसभायणतणेण य प्रात्मवाद-एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य असुइ त्ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएइ, एसा सव्ववावी य । सव्वंगणिगूढो वि य सचेयणो णिग्गुणो आयसरीरसंवेयणी । (दशवं. नि. हरि. वृ. ३, परमो ।। (गो. क. ८८१)।
१६६ उ.)। संसार में सर्वत्र व्यापक एक ही महान् प्रात्मा है, यह हमारा शरीर शुक्र, शोणित, मांस, वसा, वही पुरुष है, वही देव है, तथा वही सर्वांगों से मेदा, मज्जा, अस्थि, स्नायु, चर्म, केश, रोम, नख, प्रच्छन्न होकर चेतन, निर्गुण और सर्वोत्कृष्ट है। दांत और प्रांतों आदि के समुदाय से बना है; इस प्रकार के मन्तव्य को प्रात्मवाद कहते हैं। इसलिए तथा मूत्र-पुरीष (मल) आदि से भरा प्रात्मसंकल्प-आत्मसंकल्पः शरीर-कर्म-राग-द्वेष- होने के कारण अशुचि है। शरीरविषयक यह मोहादिदुःखपरिणामरहितोऽयं ममात्मा वर्तते, शरीरे कथन चूंकि श्रोता के लिए संवेग को उत्पन्न तिष्ठन्नशद्धनिश्चयनयेन गरीरं न स्पृशति, कर्म करता है, अत एव उसे आत्मसंवेजनी कथा कहते हैं। बन्धनबद्धो ऽपि सन् कर्मबन्धनैर्बद्धो न भवति नलि- प्रात्मा (प्रादा, अप्पा)-१. एगो मे सासदो अप्पा नीदलस्थितजलवदितीदृशं भेदज्ञानमात्मसंकल्प णाण-दसणलक्खणो । (नि. सा. १०२) । २. स्वसं. उच्यते । (मोक्षप्रा. टी. ५)।
वेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अनन्तसौख्यया. मेरा प्रात्मा शरीर, कर्म, राग, द्वेष और मोहादि नात्मा लोकालोकविलोकनः ॥ (इष्टोप. २१) । स ख परिणामों से रहित है; वह शरीर में ३. सोऽस्त्यात्मा सोपयोगोऽयं क्रमाद्धेतूफलावहः। रहते हुए भी अशुद्ध निश्चयनय से शरीर से अस्पृष्ट यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकः ।। है, और कर्म-बन्धनों से बद्ध होने पर भी प्रवद्ध है प्रमेयत्वादिभिर्धम रचिदात्मा चिदात्मकः । ज्ञान-दर्शन-जैसे कमलपत्र जल में रहते हुए भी जल से तस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ॥ ज्ञानाद भिन्नो न अलिप्त रहता है। इस प्रकार के भेदविज्ञान को चाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं आत्मसंकल्प (अन्तरात्मता) कहते हैं।
सोऽयमात्मेति कीर्तितः।। (स्वरूपसं. २-४)। ४. एवं
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प्रात्मागुल ]
चैतन्यवानात्मा सिद्धः सततभावतः । ( शास्त्रवा. १-७८ ) । ५. अजातोऽनश्वरो मूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः । देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः । ( श्रात्मानु. २६६ ) । ६. दंसण - णाणपहाणो संदेसो हु मुत्तिपरिहीणो । स-गहियदेहपमाणो णायव्वो एरिसोप्पा || ( तत्त्वसार १७ ) । ७. आत्मा हि स्व-परप्रकाशादिरूपः । ( न्यायवि. १-४ ) | ८. श्रात्मा हि ज्ञान दृक्सौख्यलक्षणो विमलः परः । सर्वाशुचिनिदानेभ्यो देहादिभ्य इतीरितः ॥ ( जी. चंपू ७ - २२ ) । ६. प्रतति सन्ततं गच्छति शुद्धि-संक्लेशात्मक परिणामान्तराणीत्यात्मा । (उत्तरा. सू. शा. वृ. १ - १५ ) । १०. प्रतति सततमेव अपरापरपर्यायान् गच्छतीति श्रात्मा जीवः । (धर्मबि. मु. वृ. १-१, पृ. १) । ११. आत्मा ज्ञान- दर्शनोपयोगगुणद्वयलक्षणः । (ज्ञा. सा. वृ. १३-३, पृ. ४६ ) । १२. 'प्रत' धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते । गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते । तेन कारणेन यथासम्भवं ज्ञान - सुखादि गुणेषु समन्तात् प्रतति वर्तते यः स श्रात्मा, XXX शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासम्भवं तीव्र - मन्दादिरूपेण श्रा समन्तात् प्रतति वर्तते यः स आत्मा । XX X उत्पाद व्यय ध्रौव्यैरा समन्तादति वर्तते यः स श्रात्मा । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५७) । १३. आत्मा तावदुपयोगलक्षण: । (स्या. मं. टी. १७) ।
१६१, जैन-लक्षणावली
१ ज्ञान दर्शनस्वरूप जीवको श्रात्मा कहा जाता है । श्रात्मागुल - १. जस्सि जस्सि काले भरहेरावदमही जे मणुवा । तस्सि तस्सि ताणं श्रंगुलमादंगुलं णाम । ( ति प १ - १०६ ) । २. से कि तं श्रयंगुले ? जेणं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं X XX (अनुयो. सू. १३३ ) । ३. जे जम्मि जुगे पुरिसा असयंगुलसमूसिया हुंति । तेसि सयमंगुलं जं तयं तु प्रयंगुलं होइ ॥ ( जीवस. १०३ ) । ४. जम्हि य जम्हि य काले भर
रावसु होंति जे मणुया । तेसि तु अंगुलाई श्रादगुल णामदो होइ || ( जं. दी. प. १३-२७) । ५. यस्मिन् काले पुमांसो ये स्वकीयाङ्गुलमानतः । अष्टोत्तरशतोत्तुङ्गा श्रात्माङ्गुलं तदङ्गुलम् । (लोकप्र. १ - ४० ) । ६. तत्र ये यस्मिन् काले भरत-सगरादयो मनुष्याः प्रमाणयुक्ता भवन्ति तेषां यदात्मीयमङ्गुलं तदात्माङ्गुलम् । ( संग्रहणी दे. वृ. २४४ ) ।
[आत्यन्तिकमरण
१ भरत - ऐरावत क्षेत्रों में उत्पन्न विभिन्न कालवर्ती मनुष्यों के अंगुल को उस उस समय श्रात्मांगुल कहा जाता है ।
आत्मागुलाभास - एतत्प्रमाणतो (अष्टोत्तरशतोत्तुङ्गप्रमाणतो) न्यूनाधिकानां तु यदङ्गुलम् | तत्स्यादात्माङ्गलाभासं न पुनः पारमार्थिकम् ॥ ( लोकप्र. १ -४१ ) ।
तत्थ
एक सौ आठ अंगुल प्रमाण ऊँचाई से होन या अधिक प्रमाण वाले मनुष्यों का श्रंगुल श्रात्मगुल न होकर श्रात्मांगुलाभास है । श्रात्माधीन क्रियाकर्म ( श्रादाही ) किरियाकम्मे कीरमाणे अप्पायत्तत्तं अपरवसत्तं दहीणं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ८८ ) । क्रियाकर्म करते समय परवश न होकर स्वाधीन रहना, इसे आत्माधीन क्रियाकर्म कहते हैं । आत्माराम - श्रात्मारामस्य - प्रात्मैवाराम उद्यानं रतिस्थानं यस्य, अन्यत्र गतिप्रतिबन्धकत्वात् । X X X अथवा श्रात्मनोऽपि सकाशादारामो निवृत्तिर्यस्येत्याराम इति ग्राह्यम्, वस्तुतः स्वात्मन्यपि रतेः रागरूपतया मोक्षप्रतिबन्धकत्वेन मुमुक्षुभिरनादरणीयत्वात् । (अन. ध. स्व. टी. ८-२४) । जो विवेकी जीव श्रात्मा को ही श्राराम - रति का स्थानभूत उद्यान - मान कर विषय भोगादि से पराङ्मुख होता हुआ उसी में रमण करता है वह श्रात्माराम कहलाता है । श्रथवा श्रात्मा की प्रोर से भी जो श्राराम - निवृत्ति को प्राप्त होकर निविhere दशा को प्राप्त हो जाता है वह श्रात्माराम कहलाता है ।
-
श्रात्मोत्कर्ष - ग्रात्मन उत्कर्ष प्रात्मोकर्षः - ग्रहमेव जात्यादिभिरुत्कृष्टो न मत्तः परतरोऽन्योऽस्तीत्यध्यवसाय: । ( जयध. प. ७७७ ) ।
जाति- कुलादि में मेंरे से बड़ा और कोई नहीं है, इस प्रकार से अपने उत्कर्ष के प्रगट करने को श्रात्मोत्कर्ष कहते हैं । प्रात्यन्तिकमररण- १. प्रात्यन्तिकं अवधिमरणविपर्यासाद्धि श्रादियंतियमरणं भवति । तं जहायानि द्रव्याणि सांप्रतं मरति, मुंचतीत्यर्थः, न ह्यसौ पुनस्तानि मरिष्यति । (उत्तरा चू. ५, पृ. १२८ ) । २. प्रात्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्ययुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय
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आदाननिक्षेपणसमिति]
१६२, जैन-लक्षणावली
[आदाननिक्षेपणसमिति
मरिष्यति; एवं यन्मरणं तद् द्रव्वापेक्षया अत्यन्त- चक्खपरिक्खिय पमज्जिउं जो ठवेइ गिण्हइ वा। भावितत्वात् प्रात्यन्तिकमिति । (समवा. अभय. वृ. आयाणभंडनिक्खेवणाइसमियो मूणी होइ॥ (उप
देशमाला २६९; गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ३, पृ. १४)। २ जीव नारक प्रादि प्रायस्वरूप जिन कर्मप्रदेशों ८. निक्षेपणं यदादानमीक्षित्वा योग्यवस्तुनः । समितिः का अनुभव करके मरता है-उन्हें छोड़ता है, अथवा सा तु विज्ञेया निक्षेपादाननामिका ।। (ह. पु. २, मर चुका है - उन्हें छोड़ चुका है-वह भविष्य में १२५)। ६. सहसा दृष्ट मष्टप्रत्यवेक्षणदूषणम् । उनका अनुभव करके मरने वाला नहीं है उन्हें त्यजतः समितियादान निक्षेपगोचरा ॥ (त. सा. पुनः छोड़ने वाला नहीं है ----अतः इस प्रकार के ६-१०)। १०. शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरद्रव्याश्रित मरण को प्रात्यन्तिकमरण कहा जाता है। णानि च । पूर्व सम्यक समालोच्य प्रतिलिख्य पुन: प्रादाननिक्षेपरणसमिति- १. पोत्थइ-कमंडलाइं पुनः ।। गृह्णतोऽस्य प्रयत्नेन क्षिपतो वा धरातले । गहण-विसग्गेसु पयतपरिणाभो । आदावण-णिक्खेवण- भवत्यविकला साधोरादानसमितिः स्फुटम् ।। (ज्ञानासमिदी होदि त्ति णिहिट्ठा ।। (नि. सा. ६४)। र्णव १८, १२-१३)। ११. धर्माविरोधिनां परानु२. णाणुवहिं संजुमुवहिं सउचुवहिं अण्णमप्पमुवहिं परोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाघनानां ग्रहणे विसर्जने वा । पयदं गह-णिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा ॥ च निरीक्ष्य प्रमृज्य प्रवर्तनमादान-निक्षेपणसमितिः । (मूला. १-१४); आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय (चा. सा. पृ. ३२)। १२. निक्षेपादानयोः समितिचक्खुणा पमज्जेज्जो। दव्वं च दवठाणं संजमलद्धीय निक्षेपादानसमितिश्चक्षुःपिच्छकप्रतिलेखनपूर्वकसयत्नसो भिक्खू ।। (मूला. ५-१२२); सहसाणाभोइय- ग्रहण-निक्षेपादिः । (मूला. वृ. १-१०)। १३. ज्ञादुप्पमज्जिद-अप्पच्चुवेक्षणा दोसा। परिहरमाणस्स नोपधि-संयमोपधि-शौचोपधीनामन्यस्य चोपधेर्यत्नेन हवे समिदी प्रादाणणिक्खेवा ।। (मला. ५-१२३; यौ ग्रहण-निक्षेपौ प्रतिलेखनपूर्वकौ सा आदाननिक्षे
११९८)। ३. रजोहरण-पात्र-चीवरादीनां पणा समितिर्भवति । (मला. व. १-१४)। १४. पीठफलकादीनां चावश्यकार्थं निरीक्ष्य प्रमृज्य चादान- ज्ञानोपकरणादीनामादानं स्थापनं च यत् । यत्नेनानिक्षेपो आदान-निक्षेपणसमितिः । (त. भा. ९-५)। दान-निक्षेपसमितिः करुणापरा ॥ (प्राचा. सा. ४. प्रादानं ग्रहणम्, निक्षेपणं मोक्षणमौधिकोपग्रहिक- १-२५); विहायादान-निक्षेपौ सहसाऽनवलोक्य च । भेदस्योपधेरादान-निक्षेपणयोः समितिरागमानुसा- दुःप्रमार्जनमप्रत्यवेक्षणं चार्द्रमानस: ।। विधायोपाधिरेण प्रत्युवेक्षण-प्रमार्जना। (त. भा. हरि. व सिद्ध. तशवीक्षणं प्रतिलेखनैः । लब्धस्वेदरजःसूक्ष्मलतावृ. ७-३)। ५. आदानं ग्रहणम्, निक्षपो न्यास: तिमृदुभिः पुनः ।। तौ प्रमृज्योपधेर्यत्नान्निक्षेपादास्थापनम्, तयोः समितिः प्रावचनेन विधिना अनुगता नयोः कृतिः । यतेरादाननिक्षेपसमितिः परिकीर्तिता ।। आदान-निक्षेपणा समितिः । xxx आदान- (प्राचा. सा. ५, १३०-३२)। १५. आदानग्रहणेन निक्षेपसमितिस्वरूपविवक्षया प्राह-'रजोहरणादि' निक्षेप उपलक्ष्यते । तेन पीठादेर्ग्रहणे स्थापने च या रजोहरणादिपात्र चीवरादीनामिति चतुर्दश विधोप- समितिः । (योगशा. स्वो. विव. १-२६)। १६. धेर्ग्रहणं द्वादशविधोपधिग्रहणं च पंचविंशतिविघोपधि- आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलिख्य च यत्नतः । गृल्ली. ग्रहश्च, पीठफलकादीनामिति चाशेषौपग्राहिकोप- यानिक्षिपेद्वा यत् सादानसमितिः स्मृता ।। (योगशा. करणम् आवश्यकार्थमित्यवश्यतया वर्षासू पीठफल- १-३६)। १७. सुदृष्टमृष्टं स्थिरमाददीत स्थाने कादिग्रहः, कदाचिद्धमन्त-ग्रीष्मयोरपि, क्वचिदनुप- त्यजेत्तादशि पूस्तकादि। कालेन भूयः कियतापि विषये जलकणिकाकुलायां भूमौ, एवं द्विविधमप्यूधि पश्येदादाननिक्षेपसमित्यपेक्षः ।। (अन. घ. ४-१६८)। स्थिरतरमभिसमीक्ष्य प्रमृज्य च रजोहत्याऽऽदान. १८. पुस्तकाद्युपधिं वीक्ष्य प्रतिलेख्य च गृह्णतः । निक्षेपौ कर्तव्यावित्यादान-निक्षेपणा समितिः । (त. मुञ्चतो दान-निक्षेपसमितिः स्याद्यतेरियम् ।। (धर्मसं. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-५)। ६. धर्मोपकरणानां श्रा. ६-७)। १६. यत्पुस्तक-कमण्डलुप्रभृतिक गृह्यते ग्रहण-विसर्जनं प्रति यतनमादान निक्षेपणसमितिः। तत्पूर्व निरीक्ष्यते, पश्चान्मृदूना मयूरपिच्छेन प्रति(त. वा. ६, ५, ७; त. श्लो. ६-५)। ७. पुटिव लिख्यते, पश्चाद् गृह्यते, चतुर्थी समितिर्भवति ।
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आदानपद]] १६३, जैन-लक्षणावली
[आदित्यमास (चा. प्रा. टी. ३६)। २०. धर्मोपकरणग्रहण-विसर्जने दंति । (जयध. १, पृ. ३४)। सम्यगालोक्य मयूरबण प्रतिलिख्य तदभावे वस्त्रा- १ पागम का विवक्षित अध्ययन व उद्देश्य आदि दिना प्रतिलिख्य स्वीकरणं विसर्जनं च सम्यगादान सर्वप्रथम जिस पद के उच्चारण से प्रारम्भ होता है निक्षेपणसमितिर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-५)। उसे आदानपद कहते हैं। जैसे-पावंती (प्राचा२१. ग्राह्य मोच्यं च धर्मोपकरणं प्रत्युवेक्ष्य यत् । रांग का पांचवां अध्ययन), चाउरंगिज्जं (उत्तराप्रमाय॑ चेयमादान-निक्षेपसमितिः स्मृता ।। (लोकप्र. ध्ययनों में तीसरा) और असंखयं (उत्तराध्ययनों में ३०-७४७)। २२. प्रासन-संस्तारक-पीठफलक- चौथा अध्ययन) इत्यादि पद । २. 'यह इसके है' इस वस्त्र-पात्र दण्डादिकं चक्षुषा निरीक्ष्य प्रतिलिख्य च विवक्षा में जो पद निष्यन्न होते हैं उन्हें प्रादानपद सम्यगुपयोगपूर्व रजोहरणादिना यद् गृह्णीयाद्यच्च समझना चाहिए। जैसे - छत्री, मौली, गर्भिणी निरीक्षित-प्रतिलेखितभूमौ निक्षिपेत् सा आदान- और अविधवा आदि। निक्षेपणसमितिः । (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३-४७, प्रादानभय-१. किञ्चन द्रव्यजातमादानम् तस्य प. १३१)। २३. धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां नाश हरणादिभ्यो भयमादानभयम् । (प्राव. भा. हरि. द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां पुस्तकादीनां ग्रहणे विस- व मलय. वृ. १८४, पृ. ४७३ व ५७३)। २. धनादिजने च निरीक्ष्य मयूरपिच्छेन प्रमृज्य प्रवर्तनमादान- ग्रहणाद् भयमादान भयम् । (कल्पसूत्र वि. वृ. १-१५, निक्षेपणसमितिः। (कातिके. टी. ३६६, . ३००)। पृ.३०)। ३. प्रादीयत इत्यादानम्, तदर्थं चौरादिभ्यो
त चादान-निक्षेपस्वरूपा समितिः स्फुटम् । यद्भयं तदादानभयम्। (ललितवि. मु.पंजि. पृ. ३८)। वस्त्राभरण-पात्रादिनिखिलोपधिगोचरा ॥ यावन्त्यू- ३ जो 'यादीयते' अर्थात् ग्रहण किया जाता है, इस पकरणानि गृहकर्मोचितानि च । तेषामादान-निक्षेपौ निरुक्ति के अनुसार ग्रहण की जाने वाली वस्तु कर्तव्यौ प्रतिलेख्य च ।। (लाटीसं. ५, २५३-५४)। प्रादान कहलाती है। उसके लिए जो चोर आदि २. ज्ञान, संयम और शौच के साधनभूत पुस्तक, से भय होता है उसे प्रादानभय कहते हैं । पिच्छी व कमण्डल तथा अन्य उपधि को भी साव- श्रादित्य-१. प्रादौ भव प्रादित्यो बहलवचनात् धानीपूर्वक देख-शोध करके उठाने और रखने को त्य-प्रत्ययः इति व्युत्पत्तेः । (सूर्यप्र. वृ. २०-१०५, आदान-निक्षेपणसमिति कहते हैं।
१०६)। २. अदितेर्देवमातुरपत्यानि आदित्याः। प्रादानपद-१. पावंती चाउरंगिज्ज असंखयं अहा- (त. वृत्ति श्रुत. ४-२५)।। तथिज्ज अद्दइज्जं जण्ण इज्जं पुरिसइज्ज (उसुकारि- १ आदि में होने वाले का नाम आदित्य है। २ ज्ज) एलइज्जं वीरीयं धम्मो मग्गो समोसरणं जं- अदिति-देवमाता–को सन्तानों को आदित्य मइयं से तं पायाणपएणं । (अनुयो. १३०, पृ. (लौकान्तिक देवविशेष) कहा जाता है। १४१) । २. प्रादानपदं नाम आत्तद्रव्यनिबन्धनम् । आदित्यमास-१. प्राइच्चो खलु मासो तीसं अद्धं xxx वधूरन्तर्वत्नीत्यादीनि आत्तभर्तृ-धृतापत्य- च होइ दिवसाणं । (ज्योतिष्क. ३७)। २. स निबन्धनत्वात् । (धव. पु. १, पृ. ७५-७६); चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा व्यशीत्यधिकछत्ती मउली गम्भिणी अइहवा इच्चाईणि आदा- दिनशतप्रमाणस्य षष्ठभागमानः । यदि वा आदित्यणपदाणि, इदमेदस्स अत्थि त्ति विवक्खाए उप्पण्ण- चारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽयादित्यः। (व्यव. तादो। (धव. पु. ६, पृ. १३५-३६)। ३. दंडी भा. मलय. वृ. २-१५, पृ. ७)। ३. आदित्यमासछत्ती मोली गम्भिणी अइहवा इच्चादिसण्णायो । स्त्रिशदहोरात्राणि रात्रिन्दिवस्य चार्द्धम, दक्षिणाप्रादाणपदाग्रो, इदमेदस्स अत्थि त्ति संबंधणिबंध- यनस्योत्तरायणस्य वा षष्ठभागमान: इत्यर्थः । (बृहत्क. णत्तादो। (जयध. १, पृ. ३१-३२) । ४. दव्व- वृ. ११३०)। खेत्त-काल-भावसंजोयपदाणि रायासि-धणुहर-सुर- १ साढ़े तीस (३०१) दिन-रात प्रमाण काल को लोयणयर-भारहय-अइरावय-सारय-वासंतय-कोहि - प्रादित्यमास कहते हैं। २ यह प्रादित्यमास उत्तरामाणिइच्चाईणि णामाणि वि आदाणपदे चेव णिव- यण अथवा दक्षिणायन के छठे भाग प्रमाण होता
ल. २५
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प्रादित्यसंवत्सर ]
१६४, जैन-लक्षणावली
[आदेश
है (१८३ ÷ ६–३०३) । प्रथवा सूर्य के संचार से उत्पन्न होने के कारण इस मास को भी श्रादित्य कहा जाता है । श्रादित्यसंवत्सर - १. छप्पि उऊपरियट्टा एसो संवच्छरो उ श्राइच्चो । ( ज्योतिष्क ३४ ) । २. तथा यावता कालेन षडपि प्रावृडादयः ऋतवः परिपूर्णाः प्रावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष प्रादित्यसंवत्सरः । ( सूर्य प्र. मलय. वृ. १०, २०, ५) ।
श्रद्धेयता दर्शनादेव यस्य भवति, स च शरीरगुणो यस्य विपाकाद् भवति तदादेयनाम । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८ - १२) । ६. श्रादेयता ग्रहणीयता बहुमान्यता इत्यर्थः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स प्रादेयत्तमुपज्जदि तं कम्ममादेयं णाम । ( धव. पु. ६. पू. ६५ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण जीवो प्रादेज्जो होदि तमादेज्जणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६६ ) । ७. यस्य कर्मणं उदयेनादेयत्वं प्रभोपेतशरीरं भवति १ जितने काल में परिपूर्ण छह ऋतुनों का परिवर्तन तदादेयनाम | अथवा यदुदयादा देयवाच्यं (क्यं) तदादेहोता है उतने काल का नाम श्रादित्यसंवत्सर है। यम् । (मूला. वृ. १२ - १६५ ) । ८. यदुदयाज्जीवः ( एक ऋतु ६१ दिन, ६१x६= ३६६ दिन) । सर्वस्यादेयो भवति ग्राह्यवाक्यो भवति तदादेयनाम । प्रादिमान् वैनसिक बन्ध - तत्रादिमान् स्निग्ध- ( कर्मवि. गर्ग. पू. व्या. ७५, पृ. ३३ ) । ६. यदुदयेन रूक्षगुणनिमित्त: विद्युदुल्काजलधाराग्नीन्द्रधनुरादि- यत्किञ्चिदपि ब्रुवाणः सर्वस्योपादेयवचनो भवति विषयः । (त. वा. ५, २४, ७) । तदादेयनाम । ( कर्मस्त. गो. ६-१०, पृ. ८७; प्रव. स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से बिजली, उल्का, सारो. वृ. १२६६ ; शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, जलधारा, अग्नि और इन्द्रधनुष प्रादिरूप जो पुद्- पृ. ५१; धर्मसं. मलय. वृ. ६२१ ) । १०. तथा गलों का बन्ध होता है वह आदिमान् वैनसिक बन्ध यदुदयवशात् यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्वं लोक: कहलाता है । प्रमाणीकरोति, दर्शनसमनन्तरमेव जनोऽभ्युत्थानादि श्रादिमोक्ष - १. इत्थिश्रो जे ण सेवंति आइमोक्खा समाचरति तदादेयनाम | (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३, हि ते जणा इति । ( सूत्रकृ. १ - ५) । २. ग्रादिः २६३; पंचसं. मलय. वृ. ३-८ पृ. ११७; कर्मप्र. संसारस्तस्मात् मोक्ष प्रादिमोक्षः (तं) संसारविमुक्ति यशो. टी. १, पृ. ६) । ११. प्रादेयनामकर्मोदयात यावदिति । धर्मकारणानां वा ऽऽदिभूतं शरीरम्, ग्राह्यवाक्यो भवति । (पंचसं स्वो वृ. ३ - ६, पृ. द्विमुक्ति यावत् यावज्जीवमित्यर्थः । (सूत्रकृ.शी. ११) । १२. प्रभायुक्तसरीरकारकमादेयनाम । (त. वृ. १, ७, २२ ) । वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ जो स्त्रियों का सेवन नहीं करते हैं, ऐसे पुरुषों को श्रादिमोक्ष कहते हैं । प्रदेयनाम- १. प्रभोषेतशरीरका रणमादेयनाम | ( स. सि. ८-११; भ. प्रा. मूला. टी. २१२१) । २. प्रादेयभावनिर्वर्तकं प्रदेयनाम । ( त. भा. प १२) । ३. प्रभोषेतशरीरताकरणमादेयनाम । यस्योदयात् प्रभोपेतशरीरं दृष्टेष्टमुपजायते तदादेयनाम | (त. वा. ८, ११, ३६; त. इलो. ८-११) । ४. प्रदेयनाम यदुदयादादेयो भवति, यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्वं लोकः प्रमाणीकरोति । ( श्रा. प्र. टी. २४; धर्मसं. मलय. वृ. ६२१, पृ. २३३) । ५. गृहीतवाक्यत्वादादरोप जननहेतुतां प्रतिपद्यते उदयावलिकं प्रविष्टं सत् । एतदुक्तं भवति - यस्यादेयनामकर्मोदयस्तेनोक्तं प्रमाणं क्रियते यत् किञ्चिदपि, दर्शनसमनन्तरमेव चाभ्युत्थानादि लोकः समाचरतीत्येवंविधविपाकमादेयनामेति XX X अथवा श्रादेयता
१ जिस कर्म के उदय से प्रभा ( कान्ति) युक्त शरीर हो उसे श्रादेयनामकर्म कहते हैं । ४ जिसके उदय से प्राणी श्रदेय - ग्राह्य या बहुमान्य होता है, वह जो भी व्यवहार करता है या बोलता है उसे लोग प्रमाण मानते हैं, उसे श्रादेय नामकर्म कहा जाता है । श्रादेयवचनता - श्रादेयवचनता सकलजनग्राह्यवाक्यता । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-५८, पृ. ३९ ) । सर्व लोगों के द्वारा वचनोंकी ग्राह्यता या उपादेयता को श्रादेयवचनता कहते हैं । यह श्राचार्य के ३६ गुणों के अन्तर्गत चार प्रकार की वचनसम्पत् में प्रथम है ।
श्रादेश - अपर: (निर्देश:) ग्रादेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । ( धव. पु. १, पृ. १६० ) । प्रदेश से अभिप्राय भेद या विशेष का है । अर्थात् चौदह मार्गणारूप भेदों के श्राश्रय से जो विवक्षित वस्तुका कथन किया जाता है वह प्रदेश कहलाता है ।
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प्रादेशकषाय] १६५, जैन-लक्षणावलो
आधाकर्म प्रादेशकषाय-१. आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे प्राद्यन्तमरण-१. साम्प्रतेन मरणेनासादृश्यभावि लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि यदि मरणमाद्यन्तमरणमुच्यते, अादिशब्देन साम्प्रतिक काऊण । (कसायपा. चू. पृ. २४)। २. आदेश- प्राथमिक मरणमूच्यते, तस्य अन्तो विनाशभावो कषाय: कैतवकृतभृकुटिभङ्गुराकारः, तस्य हि कषा- यस्मिन्नुत्तरमरणे तदेतदाद्यन्तमरणमभिधीयते । यमन्तरेणापि तथादेशदर्शनात् । (प्राव. नि. हरि. प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशैर्यथाभूतैः साम्प्रतमुपैति मृति वृ. ६१८, पृ. ३६०)। ३. भिउडि काऊण भटिं तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यन्तकृत्वा, तिवलिदनिडालो त्रिवलितनिटल:, भकूटिहेतोः मरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५)। २. प्रकृतित्रिवलितनिटलः इत्यर्थः । एवं चित्रकर्मणि लिखितः स्थित्यनुभव-प्रदेशर्देशतः सर्वतो वान्यादृशैर्मरणमाद्यक्रोधः आदेशकषायः । Xxx सब्भाववणा न्तमरणम, प्रादेः प्रथममरणस्यान्तो विनाशो यस्मिकसायपरूवणा कसायबुद्धी च प्रादेसकसानो। (जय. नुत्तरमरण इति व्युत्पत्तेः। (भ. प्रा. मूला. टी. ध. १, पृ. ३०१)।
२५)। १ जिसकी भौंहें चढ़ी हुई हैं तथा मस्तक पर वर्तमान मरण से आगामी मरण के विलक्षण होने त्रिवली-चर्मगत तीन रेखायें-पड़ी हुई हैं, इस को प्राद्यन्तमरण कहते हैं। अर्थात् प्रकृति, स्थिति, प्रकार से चित्र में अंकित क्रोध कषाय को आदेश- अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा कर्मों की बन्धकषाय कहा जाता है।
उदयादि अवस्था जैसी वर्तमान मरण के समय है आदेशभव--प्रादेशभवो णाम चत्तारि गइणामाणि, वैसी वह अगले मरण के समय देशतः या सर्वतोतेहिं जणिदजीवपरिणामो वा। (धव. पु. १६, पृ. भावेन न हो, इसका नाम प्राद्यन्तमरण है। ५१२)।
प्राधाकर्म-१. जं तमाधाकम्मं णाम । तं प्रोद्दाचार गतिनामकर्मों को अथवा उनसे जनित जीव- वण विद्दावण-परिघावण-प्रारंभकदणिप्पण्णं तं सव्वं परिणाम को प्रादेशभव कहते हैं।
प्राधाकम्मं णाम । (षट्खं. ५, ४, २१-२२-पु. १३, प्रादोलकरण-देखो अश्वकर्णकरण । १. संपहि ४६)। २. छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिआदोलनकरणसण्णाए अत्थो वुच्चदे-पादोलं नाम णिप्पण्णं । प्राधाकम्म णेयं सय-परकदमादसंपण्णं ।। हिदोलम्, आदोलमिव करणमादोलकरणम्। यथा (मला. ६-५) । ३. आहा अहे य कम्मे हिंदोलत्थंभस्स वरत्ताए च अंतराले तिकोणं होऊण पायाहम्मे य अत्तकम्मे य । पडिसेवण पडिसुणणा कण्णायारेण दीसइ एवमेत्थ वि कोहादिसंजलणाण- संवासऽणुमोयणा चेव ।। पोरालसरीराणं उद्दवण-तिमणुभागसंणिवेसो कमेण हीयमाणो दीसइ त्ति एदेण वायणं च जस्सट्टा । मणमाहित्ता कीरइ पाहाकम्म कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोलकरणसण्णा तयं वेंति । (पिण्डनि. ६५ व ६७)। ४. जीवस्य जादा । एवमोवट्टणमुव्वट्टणकरणे त्ति एसो वि उपद्रवणं प्रोद्दावणं णाम । अङ्गच्छेदनादिव्यापार: पज्जायसद्दो अणुगयट्ठो दट्टव्वो, कोहादिसंजलणाण- विद्रावणं णाम । संतापजननं परिदावणं णाम । मणुभागविण्णासस्स हाणि-वढिसरूवेणावट्ठाणं पे- प्राणिप्राणवियोजनं प्रारम्भो णाम । प्रोद्दावण-विहाक्खियूण तत्थ प्रोवट्टणमुव्वद्रणसण्णाए पुव्वाइरिएहिं वण-परिघावण-प्रारंभकज्जभावेण णिप्फण्णमोरालियपयट्टाविदत्तादो। (जयध.-धव. पु. ६, पृ. ३६४, शरीरं तं सव्वं प्राधाकम्म णाम । जम्हि सरीरे टि. ५)। २. से काले ओवट्टणि-उव्वट्टण अस्सकण्ण विदाणं जीवाणं प्रोद्दावण-विद्दावण-परिद्दावण-प्रारंभा आदोल । करणं तियसण्णगयं संजलणरसेसू वट्रि- अण्णेहितो होंति तं शरीरमाधाकम्मं ति भणिदं हिदि ।। (लब्धि. ४५६)।
होदि । (धव. पु. १३, पृ. ४६)। ५. अोरालग्ग१ भादोल नाम हिंडोले (झूले) का है। हिंडोले के हणेणं तिरिक्ख-मणुयाऽहवा सुहुमवज्जा। उद्दवणं पुण समान जो करण --परिणाम--क्रम से उत्तरोत्तर जाणसू अइवायविवज्जिय पीडं ।। काय-वइ-मणो हीयमान होते हुए चले जाते हैं, इसे प्रादोलकरण । तिन्नि उ अहवा देहाउ-इंदियप्पाणा । सामित्तावाकहते हैं। अपवर्तन-उद्वर्तन और अश्वकर्ण करण याणे होइ तिवायो य करणेसुं । हिययमि समाहेउं इसी के नामान्तर हैं।
एगमणेगं च गाहगं जो उ। वहणं करेइ दाया कायेण
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प्राधाकर्म]
१६६, जैन-लक्षणावली आध्यात्मिक धर्म्यध्यान तमाह कम्मं ति ।। (पिण्डनि. भा. २५-२७, पृ. ३८)। करणं तदाधाकर्म । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ६. प्राहाकम्म-द्धाणकप्पाइयं वा बहु अइयारं करेज्जा। ४८) । १४. साधु चेतसि प्राधाय प्रणिधाय, साधुदीहगिलाणकप्परस वा अवसाणे आहाकम्मसन्नि- निमित्तमित्यर्थः, कर्म–सचित्ताचित्तीकरणमचित्तस्य हिसेवणं वा कयं होज्जा। (जीतक. चू. पृ. २०, वा पाको निरुक्तादाधाकर्म । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. पं. ५-६)। ७. वृक्षच्छेदस्तदानयनं इष्टकापाकः ३, २२, पृ. ३८)। भूमिखननं पाषाणसिकतादिभिः पूरणं धरायाः कुट्टनं ३. जिस एक या अनेक साधुओं के निमित्त मन को कर्दम करणं कीलानां करणं अग्निनायस्तापनं (कार्ति. आहित-प्रवर्तित करके औदारिकशरीरधारी तिर्यच -अग्निना लोहतापनं) कृत्वा प्रताड्य क्रकचः व मनुष्यों का अपद्रावण-प्रतिपात (मरण) रहित काष्ठपाटनं बासीभिस्तक्षणं, (कार्ति.-'वासीभिस्त- पीडन-और त्रिपात-मन-वचन-काय-अथवा क्षणं' नास्ति) परशुभिश्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण देह, प्राय और इन्द्रिय प्राण इन तीनों का विनाश षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पा- किया जाता है उसे प्राधाकर्म या अधःकर्म कहते दिता अन्येन वा कारिता वसतिराधाकर्म-शब्देनो- हैं। इसके प्राधाकर्म, अधःकर्म, अात्मघ्नकर्म और च्यते । (भ. प्रा. विजयो. टी. २३०, कातिके. टी. प्रात्मकर्म ये गामान्तर हैं। ४ उपद्रावण, विद्रावण, ४४६)। ८. साध्वयं यत्सचित्तमचित्ती क्रयते अचित्तं परिद्रावण और प्रारम्भकार्य के द्वारा निष्पन्न वा पच्यते तदाधाकर्म । (प्राचारांग शी. व. २, १, औदारिक शरीर को प्राधाकर्म कहते हैं। अभिप्राय २६६, पृ. ३१६)। ६. प्राधाय विकल्प्य यति मनसि यह कि जिस शरीर में स्थित प्राणियों के अन्य प्राणियों कृत्वा सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाको के निमित्त से उपद्रावण आदि होते हैं उस शरीर निरुक्तादाधाकर्म । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। को प्राधाकर्म कहते हैं। ७ वृक्षों के छेदने, इंटों के १०. प्राधाकर्म अध्वानकल्पादिकं वा शुष्ककदली- पकाने एवं भूमि के खोदने प्रादि रूप व्यापार से फलादिधरणतः। दीर्घग्लानेन वा सता यदाधाकर्मर- छह काय के प्राणियों को बाधा पहँचा कर स्वयं या सादिकारणतः । सन्निधिसेवनं वा चरितम् । (जीतक. अन्य के द्वारा वसतिका के उत्पादन को भी प्राधाचू. वि. व्या. पृ. ५१, २०-४)। ११: वृक्षच्छेदेष्ट- कर्म कहा जाता है। कापाक-कई मकरणादिव्यापारेण षण्णां जीवनिका- अाधार्मिक- देखो प्राधाकर्म । आधार्मिक यानां बाधां कृत्वा स्वेनोत्पादिता अन्येन वा कारिता यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम् । (व्यव. भा. मलय. क्रियमाणा वानुमोदिता वसतिराधाकम-शब्देनोच्यते। वृ. ३-१६४, पृ. ३५)। (भ. प्रा. मला. टी. २३०)। १२. प्राधानम् आधा साधनों के लिए बनाये गये आहार को प्राधाकर्मिक xxx साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानम्, यथा अमु- कहते हैं। कस्य साधोः कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, प्राधाकमिका-देखो प्राधाकर्म । आधार्मिका आधया कर्म पाकादिक्रिया प्राधाकर्म, तद्योगाद् साधूनामेवार्थाय कारिता । (बृहत्क. वृ. १७५३) । भक्ताद्यपि प्राधाकर्म।xxxयद्वा प्राधाय -साधु साधुओं के लिए बनवाई गई वसतिका को आधाचेतसि प्रणिधाय-यत् क्रियते भक्तादि तदाधा- कमिका कहते हैं। कर्म । (पिण्डनि. मलय. वृ. ६२); अधःकर्मेति प्राधिकरणिकी क्रिया-देखो अधिकरणक्रिया। अधोगति निबन्धनं कर्म अधःकर्म। xxxआत्मानं हिंसोपकरणादानादधिकरणिकी क्रिया। (स. सि. दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति विनाशयतीत्यात्मनम्। ६-५; त. वा. ६, ५, ८)। तथा यत् पाचकादिसम्बन्धि कर्म पाकादिलक्षणं हिंसा के उपकरण-खड़ग व भाला आदि-के ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः सम्बन्धि क्रियते ग्रहण करने को प्राधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। अनेनेति प्रात्मकर्म । एतानि (प्राधाकर्म, अधःकर्म, प्राध्यात्मिक धर्म्यध्यान -स्वसंवेद्यमाध्यात्मि
आत्मघ्नकर्म, प्रात्मकर्म) च नामान्याधाकर्मणो कम् । (चा. सा. पृ. ७६)। मुख्यानि । (पिण्डनि. मलय. वृ. ६५)। १३. यत् स्वसंवेद्य-स्वसंवेदनगोचर-धर्म्यध्यान को प्राषटकायविराधनया यतिन प्राधाय संकल्पनाशनादि- ध्यात्मिक धर्म्यध्यान कहते हैं।
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आध्यान ]
प्राध्यान- प्राध्यानं स्यादनुध्यानमनित्यत्वादिचि
न्तनैः । ( म. पु. २१-२८) ।
संसार, देह व भोगादि की अनित्यतादि के बार-बार चिन्तन को प्राध्यान कहते हैं ।
१६७, जैन- लक्षणावली
प्रान - सङ्ख्येया ग्रावलिका प्रातः, एक उच्छ्वास इत्यर्थ: । (षडशीति दे. स्वो वृ. ६६, पृ. १६५ ) । सङ्ख्यात श्रावली प्रमाण काल को प्रान (उच्छ्वास ) कहते हैं ।
प्रानति तथा पूजितसंयतस्य पञ्चाङ्गप्रणामकरणम् ग्रनतिः । (सा. ध. ५-४५ ) । दो हाथ, दो जानु और मस्तक इन पांच अंगों से प्रणाम करने को श्रानति कहते हैं । श्रान-पानपर्याप्ति - देखो उच्छ्वास निःश्वासपर्या - प्ति । उच्छ्वास - निःसरणशक्ते निष्पत्तिरानपानपर्याप्तिः । ( मूला. वृ. १२ - १६५ ) । उच्छ्वास के निकलने की शक्ति की उत्पत्ति का नाम श्रान-पान पर्याप्त है । आन-पानप्राण- १. उच्छ्वासपरावर्तोत्पन्नखेदरहितविशुद्धचित्प्राणाद्विपरीतसदृश श्रान-पानप्राणः । (बृ. द्रव्यसं . टी. ३) । २. उच्छ्वास - निःश्वासनामकर्मोदयसहितदेोदये सत्युच्छ्वास - निःश्वासप्रवृत्तिकारणशक्तिरूपान-पानप्राणः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. १३१ ) ।
२ उच्छ्वास - निःश्वास नामकर्म के साथ शरीर नाम कर्म का उदय होने पर उच्छ्वास- निःश्वास प्रवृत्ति की कारणभूत शक्ति को श्रानपानप्राण कहते हैं । मानप्राण- १. असंख्येया आवलिका एक आनप्राणः, द्विपञ्चाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छतसंख्यावलिकाप्रमाण एक प्रानप्राण इति वृद्धसम्प्रदायः । तथा चोक्तम् - एगो प्राणापाणू तेयालीस सया उ बाव
| श्रावलियमाणं प्रणंतनाणीहिं णिद्दिट्ठो || ( सूर्य प्र. मलय. वृ. २०, १०५ - १०६ ) । २. प्रानप्राणौ उच्छ्वास- निःश्वासकालः । कल्पसूत्र विनय. वृ. ६–११८, पृ. १७३) । असंख्यात श्रावलियों का एक प्रान प्राण होता है । वृद्धसम्प्रदाय के अनुसार तेतालीस सौ बावन श्रावली प्रमाण प्रानप्राण होता है । प्रानप्रारणकाल — हृष्टस्य नीरोगस्य श्रम- बुभुक्षादिना निरुपकृष्टस्य यावता कालेनैतावुच्छ्वास-नि:
[ श्रानयन
श्वासौ भवतः तावान् कालः आनप्राणः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८, पृ. ३४४ ) । देखो श्रानप्राण |
श्रानप्राणद्रव्यवर्गणा - प्राणपाणुव्वग्गणा णाम प्राणपादव्वाणि घेत्तूण आणपाणुत्ताए परिणामेंति जीवा । (कर्मप्र. चू. बं. क. गा. १६, पृ. ४१ ) । जिन पुद्गलवर्गणात्रों को ग्रहण कर जीव उन्हें श्वासोच्छवास के रूप में परिणमित करता है उन्हें श्रनप्राणद्रव्यवर्गणा कहते हैं ।
प्रानप्रारणपर्याप्ति - देखो मानपानपर्याप्ति व उच्छ्वासपर्याप्ति । प्रानप्राणपर्याप्तिः उच्छ्वासनिःश्वासयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा तथा परिणमय्याss प्राणतया विसर्जनशक्तिः । (स्थाना. अभय वृ. २, १७, ३, पृ. ५०) ।
उच्छ्वास- निःश्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर और उनको उच्छ्वास - निःश्वास रूप से परिणमाकर श्रानप्राणरूप से विसर्जन की शक्ति का नाम श्रानप्राणपर्याप्त है ।
आनयन - १. श्रात्मना संकल्पिते देशे स्थितस्य प्रयोजनवशाद्यत्किञ्चिदानयेत्याज्ञापनमानयनम् । ( स. सि. ७-३१; त. वा. ७, ३१, १, चा. सा. पृ. ६) । २. अन्यमानयेत्याज्ञापनमानयनम् । (त. इलो. ७, ३१) । ३. प्रनयनं विवक्षितक्षेत्राद् बहिः स्थितस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षेत्रे प्रापणम्, सामर्थ्यात् प्रेष्येण, स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यात् परेण तु आनयने न व्रतभङ्गः स्यादिति बुद्धया प्रेष्येण यदा SSC सचेतनादिद्रव्यं तदाऽतिचारः । (योगशा. स्वो विव. ३ - ११७ ) । ४. तद्दशाद् बहिः प्रयोजनवशादिदमानयेत्याज्ञापनमानयनम् । ( रत्नक. टी. ४–६) । ५. आनयनं सीमहर्देशादिष्टवस्तुनः प्रेष्येण विवक्षितक्षेत्रे प्रापणम् । च शब्देन सीमबहिदेशे स्थितं प्रेष्यं प्रति इदं कुर्वित्याज्ञापनं वा । (सा. ध. स्व. टी. ५ - २७) । ६. प्रनयनं विवक्षितक्षेत्राद् विवक्षितक्षेत्रे बहिः स्थितस्य सचेतनादिद्रव्यस्य प्रापणम् । ( धर्मसं. मान. स्वो वृ. २- ५६, पृ. ११५) । ७. श्रात्मसंकल्पित देशस्थितेऽपि प्रतिषिद्धदेशस्थितानि वस्तूनि कार्यवशात्तद्वस्तुस्वामिनं कथयित्वा निजदेशमध्ये श्रानाय्य क्रय-विक्रयादिकं यत्करोति तदानयनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३१) । ८. श्रात्मसंकल्पिताद्देशाद् बहिः स्थितस्य वस्तुनः ।
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आनयनप्रयोग] १६८, जैन-लक्षणावली
[प्रानुपूर्वी आनयेतीङ्गितः किञ्चिद् ज्ञापनानयनं मतम् ॥ वेशक्रमनियामकमानपूर्वी नामेत्यपरे। (त. भा. ८, (लाटीसं. ६-१२६)।
१२) । २. प्रानुपूर्वी नाम यदुदयादपान्तरालगती १ प्रतिज्ञात देश में स्थित रहते हए प्रयोजन के वश नियतदेशमनुश्रेणिगमनम् । (श्रा. प्र. टी. २१)। मर्यादित क्षेत्र के बाहर से जिस किसी वस्तु के ३. आनुपूर्वी-वृषभनासिकान्यस्तरज्जूसंस्थानीया, मंगाने को प्रानयन कहते हैं।
यया कर्मपुद्गलसंहत्या विशिष्टं स्थानं प्राप्यतेऽसौ, प्रानयनप्रयोग-देखो आनयन । १. विशिष्टावधिके यया वोवोत्तमागाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरभूप्रदेशाभिग्रहे परतो गमनासंभवात् सतो यदन्यो- विशेषो भवति साऽऽनुपूर्वीति । (प्राव. नि. हरि. वृ. ऽवधिकृतदेशाद बहिर्वतिनः सचित्तादिद्रव्यस्यानयनाय १२२, पृ.८४)। ४. भवाद् भवं नयत्यानुपूा यया प्रयुज्यते 'त्वयेदमानेयम्' सन्देशकप्रदानादिना प्रानय- साऽऽनुपूर्वी वृषभाकर्षणरज्जुकल्पा । (पंचसं. च. स्वो. नप्रयोगः । आनायनप्रयोग इत्यपरे पठन्ति । (त. भा. वृ. ३-१२७, पृ. ३८)। ५. पुव्वत्तरसरीराणमन्तरेहरि. व सिद्ध. वृ. ७-२६; प्राव. हरि. वृ. ६, पृ. एग-दो-तिण्णिसमए वट्टमाणजीवस्स जस्स कम्मस्स ८३५, श्रा. प्र. टी. ३२०)। २ प्रानयने विवक्षित- उदएण जीवपदेसाण विसिट्रो संठाणविसेसो होदि क्षेत्राद बहिर्वर्तमानस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षे- तस्य प्राणुपून्वि त्ति सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ५६); त्रप्रापणे प्रयोगः, स्वयं गमने ब्रतभङ्गभयादन्यस्य । मुक्कपुव्वसरीरस्स अगहिदुत्तरसरीरस्स जीवस्स अट्ठस्वयमेव वा गच्छत: सन्देशादिना व्यापारणमानयन- कम्मक्खंधेहिं एयत्तमुवगयस्स हंसधवलविस्सासोवचप्रयोगः । (धर्मबि. वृ. ३-३२) ।
एहि उवचियपंचवण्णकम्मक्खधंतस्स विसिट्टमुहागादेखो पानयन ।
रेण जीवपदेसाणं अणु परिवाडीए परिणामो प्राणुपानापानपर्याप्ति-देखो पानपानपर्याप्ति । पुवी णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३७१)। ६. प्रानुउच्छवासनिस्सरणशक्ते निष्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचया- पूर्वी च क्षेत्रसन्निवेशक्रमः, यत्कर्मोदयादतिशयेन वाप्तिरानापानपर्याप्तिः । (धव. पु. १, पृ. २५५)। तद्गमनानुगुण्यं स्यात् तदप्यानुपूर्वीशब्दवाच्यम् । देखो पानपानपर्याप्ति।
(त. भा. सिद्ध. व. ८-१२) । ७. यदुदयादन्तरालप्रानुगामिक प्रवधि-देखो अनुगामी। १. प्रानुः गतौ जीवो याति तदानुपूर्वी नाम । (समवा. अभय. गामिकं यत्रक्वचिदुत्पन्न क्षेत्रान्तरगतस्यापि न प्रतिपतति भास्करवत् घटरक्तभाववच्च। (त. भा. भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता १-२३)। २. अनुगमनशीलम् प्रानुगामिकम्, अव- गमनपरिपाटीहानुपूर्वीत्युच्यते, तद्विपाकवेद्य धिज्ञानिनं लोचनवद् गच्छन्तमनुगच्छतीति भावार्थः। प्रकृतिरपि प्रानुपूर्वी। (कर्मस्त. गो. वृ. ९-१०, (नन्दी. हरि. व. १५, पृ. २३)। ३. अनुगमनशील पृ. ८६)। ६. नारय-तिरिय-नरामरभवेसु जंतस्स प्रानुगामिकः लोचनवत् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ५६, अंतरगईए। अणुपुव्वीए उदगो सा चउहा सुणसु पृ. ४२)। ४. तथा गच्छन्तं पुरुषमा समन्तादन- जह होइ॥ (कर्मवि. गर्ग. १२१, पृ. ५०)। १०. गच्छतीत्येवंशीलमानुगामि प्रानुगाम्येव वाऽऽनुगामि- आनुपूर्वी नरकादिका, यदुदये जीवो नरकादो गच्छति, कः । स्वार्थे कः प्रत्ययः। अथवा अनुगमः प्रयोजनं नरकादिनयने कारणं रज्जुवद् वृषभस्य । (कर्मवि. पू. यस्य स आनुगामिकः, लोचनवत् गच्छन्तमनु- व्या. ७५, पृ. ३३)। ११. तथा कूर्पर-लांगलगच्छति सोऽवधिरानुगामिक इति भावः । (प्रज्ञाप. गोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वि-त्रि-चतुःसमयमलय. वृ. ३३-३१७, पृ. ५३६)। ५. उत्पत्तिक्षेत्रा- प्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो दन्यत्राप्यनुवर्तमानमानुगामिकम् । (जैनत. ११, जीवस्यानुश्रेणिगमनं प्रानुपूर्वी, तन्निबन्धनं नाम पृ.७)।
अानुपूर्वीनाम । (सप्ततिका मलय. वृ. ५, पृ. देखो अनुगामी अवधि ।
१५२) । १२. प्रानुपूर्वी नाम यदुदयादन्तरालगतौ प्रानुपूर्वो-१. गतावुत्पत्तुकामस्यान्तर्गतौ वर्तमा- नियतदेशमनुसृत्य अनुश्रेणिगमनं भवति । नियत नस्य तदभिमुखमानुपूर्व्या तत्प्रापणसमर्थमानुपूर्वी ना- एवाङ्गविन्यास इत्यन्ये । (धर्मसं. मलय. वृ, ६१८)। मेति । निर्माणनिमितानां शरीराङ्गोपाङ्गानां विनि- १३. कूर्पर-लाङ्गल-गोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वि
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आनुपूर्वीसंक्रम] १६६, जैन-लक्षणावली
[प्राप्रच्छना त्रि-चनुःसमय प्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं १ जिस नामकर्म के उदय से विग्रहगति में जीव के गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आन- पूर्वशरीर के आकार का विनाश नहीं होता है उसे पूर्वी। तद्विपाकवेद्या कमंप्रकृतिरपि कारणे कार्योप- प्रानुपूर्व्य नामकर्म कहते हैं । चारात् प्रानुपूर्वी। (पंचसं. मलय. व. ३-६, प्रान्तर तप-देखो पाभ्यन्तर तप । अन्तरव्यापारपृ. ११५; प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६०, पृ. भूयस्त्वादन्यतीर्थविशेषतः । बाह्य द्रव्यानपेक्षत्वादा६८०; प्रव. सारो. वृ. १२६३)। १४. गत्यभि- न्तरं तप उच्यते ।। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२० उद्.)। धानव्यपदेश्यमानपूर्वीनाम। (कर्मवि. दे. स्वो. व. प्रायश्चित्तादिरूप छह प्रकार के तप को चंकि ४२)। १५. विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो ___ लौकिक जन देख नहीं सकते हैं, विधर्मी जन भाव जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाट्यानुपूर्वी । तद्वि- से उसका पाराधन नहीं कर सकते, तथा मुक्तिपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानपूर्वी । (कर्मप्र. यशो. टी. प्राप्ति का अन्तरङ्ग कारण भी वह है। अतएव उसे १, पृ. ५)।
प्रान्तर या प्राभ्यन्तर तप कहते हैं। १ जो जीव विवक्षित गति में उत्पन्न होने का प्रापृच्छा-१. आदावणादिगहणे सण्णाउन्भामइच्छुक होकर अन्तर्गति-विग्रहगति-में वर्तमान गादिगमणे वा । विणयेणायरियादिसु आपुच्छा होदि है वह जिस कर्म के उदय से श्रेणि के-आकाशप्रदेश- कायव्वा ।। (मला. ४-१४)। २. प्राप्रच्छनमापंक्ति के अनुसार जाकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त पृच्छा, स च कर्तुमभीष्टे कार्ये प्रवर्तमानेन गुरोः करता है उसका नाम प्रानुपूर्वी है। अन्य कितने ही कार्या 'अहमिदं करोमीति'। (प्राव. नि. हरि. व. प्राचार्य यह भी कहते हैं कि जो कर्म निर्माण नाम- ६६७)। ३. अापुच्छा प्रतिप्रश्नः किमयमस्माभिरकर्म के द्वारा निर्मित शरीर के अंग और उपांगों को नुगृहीतव्यो न वेति संघप्रश्नः। (भ. प्रा. विजयो. रचनाविशेष के क्रम का नियामक होता है वह टी. ६९); आपृच्छा किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो पानुपूर्वी नामकर्म कहलाता है।
न वेति संघ प्रति प्रश्नः । (भ. प्रा. मला. टी. ६६)। पानपूर्वोसंक्रम - कोह-माण-माया-लोभा एसा ४. आपृच्छनमापृच्छा, विहार-भूमिगमनादिषु प्रयोपरिवाडी आणुपुव्वीसंकमो णाम । (कसायपा. चू. जनेषु गुरोः कार्या । च-शब्दः पूर्ववत् । इहोक्तम्-- पृ. ७६४)।
अापुच्छणा उ कज्जे गुरुणो तस्संमयस्स वा नियमा। क्रोध, मान, माया और लोभ का क्रम से एक का एवं खु तयं सेयं जायइ सह निज्जराहेऊ ॥ इति । दूसरे में संक्रमण होने को अर्थात् क्रोधसंज्वलन का (स्थाना. अभय. वृ. १०, १, ७५०, पृ. ४७५)। मानसंज्वलन में, मानसंज्वलन का मायासंज्वलन में ५. पापुच्छा-आपृच्छा स्वकार्य प्रति गुर्वाद्यभिऔर मायासंज्वलन का लोभसंज्वलन में संक्रमण होने प्रायग्रहणम् । (मूला. वृ. ४-४) । को प्रानुपूर्वीसंक्रम कहते हैं।
१ वृक्ष के मूल में अथवा खुले आकाश में कायोत्सर्ग भानुप्रय॑नाम-देखो प्रानुपूर्वी। १. पूर्वशरीरा- आदि के ग्रहणरूप प्रातापनयोगादि के विषय में तथा काराविनाशो यस्योदयाद् भवति तदान पूयं नाम। आहार या अन्य किसी निमित्त से दूसरे ग्राम के (स. सि. ८-११) । २. यदुदयात् पूर्वशरीराकारा- लिए जाने प्रादि कार्य के विषय में विनयपूर्वक विनाशस्तदानुपूयं नाम। यत्पूर्वशरीराकाराविनाशः प्राचार्य प्रादि से पूछना, इसका नाम प्रापृच्छा है । यस्योदयात् भवति तदानुपूयं नाम ।। (त. वा. ८, प्राप्रच्छन---ग्रन्थारम्भ-कचोल्लोच-कायश द्धिक्रिया११, ११)। ३. यदुदयात् पूर्वशरीराकाराविनाश- दिषु । प्रश्नः सूर्यादिपूज्यानां भवत्याप्रच्छनं मुनौ ।। स्तदानुपूयं नाम । (त. श्लो. ८-११)। ४. पूर्वो- (प्राचा. सा. २-१३)। तरशरीरयोरन्तराले एश-द्वि-त्रिसमयेषु वर्तमानस्य ग्रन्थ के प्रारम्भ में, केशलंच करने के समय और यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवप्रदेशानां विशिष्टसंस्था- कायशुद्धि प्रादि क्रियाओं को करते हुए प्राचार्य नविशेषो भवति तदानुपूयं नाम । (मूला. वृ. १२, प्रादि पूज्य पुरुषों से पूछने को प्राप्रच्छन कहते हैं। १९८)। ५. यदुदयेन पूर्वशरीराकार[रा] नाशो आप्रच्छना-देखो आपृच्छा। १. पापुच्छणा उ भवति तदानुपूर्व्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। कज्जे Xxx। (प्राव. नि. ६६७) । २. आउ
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आपृच्छनावच, श्राप्रच्छनी भाषा ]
च्छणा उ कज्जे गुरुणो गुरुसम्मयस्स वा णियमा । एवं खु तयं सेयं जायति सति णिज्जराहेऊ ।। (पंचाशक १२-५७० ) । ३. इदं करोमीति प्रच्छनं श्राप्रच्छना । ( श्रनुयो हरि. वृ. पृ. ५८ ) । देखो आपृच्छा । आपृच्छनावच, श्रप्रच्छनी भाषा- १. कथ्यतां यन्मया पृष्टं तदित्याप्रच्छनावचः ॥ ( श्राचा. सा. ५, २. किमेतदित्यादिप्रश्नभाषा आप्रच्छनी । (गो. जी. जी. प्र. टी. २२५) ।
१ जो मैंने पूछा है उसे कहिए - मेरे प्रश्न का उत्तर कहें, इत्यादि प्रकार के वचनों को श्राप्रच्छनावचन या श्राप्रच्छनी भाषा कहते हैं । प्रापेक्षिक सौक्ष्म्य - आपेक्षिकं ( सौक्ष्म्यं) बिल्वामलक-बदरादीनाम् । ( स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, १०; त. सुखबो. ५ - २४ ) ।
दो या दो से अधिक वस्तुनों में जो अपेक्षाकृत सूक्ष्मता ( छोटापन) दिखती है उसे श्रापेक्षिक सौक्ष्म्य कहते हैं । जैसे—बेल की अपेक्षा श्रांवला छोटा है ।
८७)
२००, जैन - लक्षणावली
श्रापेक्षिक स्थौल्य - प्रापेक्षिकं ( स्थौल्यं) बदरामलक - बिल्व तालादिषु । ( स. सि. ५ - २४; त. वा. ५, २४, ११; त. सुखबो. ५ -२४) ।
दो या दो से अधिक वस्तुओंों में जो एक-दूसरे की अपेक्षा स्थूलता (बड़ापन ) दिखती है उसे प्रापेक्षिक स्थौल्य कहते हैं । जैसे—प्रवले की पेक्षा बेल बड़ा है ।
प्राप्त ( प्रत ) - १. ववगयप्रसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे प्रत्तो । (नि. सा. १-५ ) । २. णाणमादीणि अत्ताणि जेण प्रत्तो उ सो भवे । रागद्दोसपहीणो वा जे व इट्ठा विसोधीए ।। ( व्यव. भा. १०-२३५, पृ. ३५) । ३. प्राप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् । ( रत्नक. ५) । ४. ये दर्शन ज्ञान-विशुद्धलेश्या जितेन्द्रियाः शान्तमदा दमेशाः । तपोभिरुद्भासितचारुदेहा श्राप्ता गुप्ता भवन्ति ॥ निद्रा-श्रम क्लेश विषादचिन्ता-क्षुत्तृड्-जरा-व्याधि- भयैविहीनाः । श्रविस्मयाः स्वेदमलैरपेता प्राप्ता भवन्त्यप्रतिमस्वभावाः ॥ द्वेषश्च रागश्च विमूढता च दोषाशयास्ते जगति प्ररूढाः । न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानर्हतस्त्वाततमान् वदन्ति ॥ ( वरांग. २५, ८६-८८ ) ।
[ प्राप्त (अत्त)
५. यो यत्राऽविसंवादकः स तत्राऽऽप्तः । ( श्रष्टशती ७८ ) । ६. प्राप्तो रागादिरहितः । ( दशवं. भा. हरि. वृ. ४-३५, पृ. १२८; सूत्रकृ. शी. वृ. सू. १, ६, ३३, पृ. १८५)। ७. आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद् विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धेत्वसम्भवात् ॥ ( ललितवि. पृ. ६६; धव. पु. ३, पृ. १२ उ.) । ८. प्राप्तागमः प्रमाणं स्याद्यथावद्वस्तुसूचकः । यस्तु दोषैर्विनिभुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ॥ ( श्राप्तस्वरूप १ ) । ६. सर्वज्ञं सर्वलोकेशं सर्वदोषविवर्जितम् । सर्वसत्त्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः ।। ( उपासका ४९ ) । १०. यथानुभूतानुमितश्रुतार्थाविसंवादिवचनः पुमानाप्त: । ( नीतिवा. १५-१५) । ११. प्रत्तो दोसविमुक्कोXXX। छुह तव्हा भय दोसो रागो मोहो जरा रुजा चिन्ता । मच्चू खेस्रो सेश्रो अरइ मत्रो विभश्रो जम्मं ॥ णिद्दा तहा विसा दोसा एदेहि वज्जियो प्रत्तो । ( वसु. श्रा. ७-९) । १२. अभिधेयं यस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञातं चाभिधत्ते स प्राप्तः । (प्र. न. त. ४-४; षड्द. स. टी. पृ. २११ ) । १३. प्राप्तास्त एव ये दोषैरष्टादशभिरुज्झिताः । ( धर्मश. २१, १२८ ) । १४. व्यपेताऽशेषदोषो यः शरीरी तत्त्वदेशकः । समस्तवस्तुतत्त्वज्ञः स स्यादाप्तः सतां पतिः ॥ ( श्राचा. सा. ३-४ ) । १५. यथार्थदर्शनः निर्मूलक्रोधापगमादिगुणयुक्तश्च पुरुष इहाऽऽप्तः । ( धर्मसं. मलय. वृ. ३२) । १६. प्राप्तः शंकारहितः । (नि. सा. वृ. १-५) । १७. मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्युक्तः सार्वश्य-सम्पदा | शास्ति मुक्तिपथं भव्यान् योऽसावाप्तो जगत्पतिः ॥ ( अन ध. २ - १४) । १८. प्राप्यते प्रोक्तोऽर्थो यस्मादित्याप्तः; यद्वा प्राप्ती रागादिदोषक्षयः, सा विद्यते यस्येत्यर्शश्रादित्वादिति प्राप्तः । X X X अक्षरविलेखनद्वारेण श्रङ्कोपदर्शनमुखेन करपल्लव्यादि चेष्टाविशेषवशेन वा शब्दस्मरणाद् यः परोक्षार्थविषयं विज्ञानं परस्योत्पादयति सोऽप्याप्त इत्युक्तं भवति । (रत्नाकरा ४–४, पृ. ३७) । १६. घातिकर्मक्षयोद्भूत केवलज्ञान रश्मिभिः । प्रकाशक : पदार्थानां त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् । सर्वज्ञः सर्वतो व्यापी त्यक्तदोषो ह्यवंचकः । देवदेवेन्द्रवन्द्यां त्रिराप्तोऽसौ परिकीर्तितः ॥ ( भावसं वाम ३२८, ३२९ ) । २०. प्राप्तः प्रत्यक्षप्रमितसकलपदार्थत्वे सति परम हितोपदेशकः । ( न्या. दी. पू. ११३) ।
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ग्राबाधा]
२०१, जैन-लक्षणावली
[प्राभिनिबोधिक
२१. प्राप्तोऽष्टादशभिर्दोषनिमुक्तः शान्तरूपवान्। मिथ्यात्व का नाम प्राभिग्रहिक है। (पू. उपासकाचार ३)। २२. क्षुत्पिपासे भय-द्वेषौ प्राभिनिबोधिक-१. ईहा अपोह मीमंसा मग्गणा मोह-रागौ स्मृतिर्जरा। रुग्मृती स्वेद-खेदौ च मदः य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिस्वापो रतिर्जनिः । विषादविस्मयावेतौ दोषा अष्टा- बोहियं ।। (नन्दी. गा. ७७; विशेषा. ३६६)। दशेरिताः। एभिर्मुक्तो भवेदाप्तो निरञ्जनपदा- २. अत्थाभिमुहो णियतो बोधो अभिनिबोधः । स श्रित: ।। (धर्मसं. श्रा. ४, ७-८)। २३. यथास्थिता- एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकम् । अहवा र्थपरिज्ञानपूर्वकहितोपदेशप्रवण प्राप्तः । (जैन तर्क. अभिनिबोधे भवं, तेण निव्वत्तं, तम्मतं तप्पयोयणं वा पृ. १६)।
ऽऽभिणिबोधिकम् । अहवा आता तदभिनिबुज्झए, ३ वीतराग, सर्वज्ञ और प्रागम के ईश (हितोपदेशी) तेण वाऽभिणिबुज्झते, तम्हा वा[ऽभिणि] बुज्झते, पुरुष को प्राप्त कहते हैं।
तम्हि वाभिनिबुज्झए इत्ततो पाभिनिबोधिकः । स प्राबाधा-देखो अवाधा। १. न बाधा अबाधा, एवाऽभिणिबोधिकोपयोगतो अनन्यत्वादाभिनिबोधिअबाधा चेव आबाधा। (धव. पु. ६, पृ. १४८)। कम् । (नन्दीसुत्त चू. सू. ७, पृ. १३) । ३. पच्चवख २. कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । परोक्खं वा जं अत्थं ऊहिऊण णिदिसइ। तं होई रूवेणुदीरणस्स व आबाहा जाव ताव हवे ॥ (गो. अभिणिबोहं अभिमुहमत्थं न विवरीयं । (बृहत्क. १, क. १५५)।
३६)। ४. होइ अपोहोऽवामो सई धिई सव्वमेव २ कर्मरूप से बन्ध को प्राप्त हया द्रव्य जितने समय मइपण्णा। ईसा सेसा सव्वं इदमाभिणिबोहियं तक उदय या उदीरणा को प्राप्त नहीं होता, उतने जाण ।। (विशेषा. ३६७)। ५. प्रा अथ काल का नाम अबाधा या पाबाधाकाल है। नियतो बोधः अभिनिबोधः । अभिनिबोध एव आभिपाबाधाकाण्डक-उक्कस्साबाधं विरलिय उक्क- निबोधिकम् XXXI अभिनिबोधे वा भवम्, तेन स्सटिदि समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पाबाधा- वा निर्वृत्तम्, तन्मयं तत्प्रयोजनं वा, अथवा अभिकंडयपमाणं पावेदि। (धव. पु. ६, पृ. १४६)। निवुध्यते तद् इत्याभिनिबोधिकम्, अवग्रहादिरूपं विवक्षित कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में उसी के उत्कृष्ट मतिज्ञानमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वात् भेदोपचारात् आबाधाकाल का भाग देने पर जो लब्ध हो उतना इत्यर्थः । अभिनिबुध्यते वाऽनेनेत्याभिनिबोधिकः, आबाधाकाण्डक का प्रमाण होता है, अर्थात् उतने तावरणकर्मक्षयोपशमः इति भावार्थः । अभिनिबुध्यस्थितिविकल्पों का पाबाधाकाण्डक होता है। तेऽस्मादिति वाभिनिबोधिकम्, तदावरणक्षयोपशम प्राभिग्रहिक-१. पाभिग्रहिकं येन बोटिकादि- एव । अभिनिबुध्यतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमे सत्याकुदर्शनानामन्यतमदभिग्रहाति । (कर्मस्त. गो. व. भिनिबोधिकम् । प्रात्मैव वा अभिनिबोधोपयोग६-१०, पृ.८३)। २. तत्राभिग्रहिकं पाखण्डिनां परिणामाननन्यत्वात् अभिनिबुध्यते इति प्राभिनिबोस्व-स्वशास्त्र नियंत्रितविवेकालोकानां परपक्षप्रति- धिकम् । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. २४-२५; प्राव. क्षेपदक्षाणां भवति । (योगशा. स्वो. विव. २-३)। नि. हरि. वृ. १, पृ. ७)। ६. जमवग्गहादिरूवं ३. तत्राभिग्रहेण इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यद इत्येवं पच्चुप्पन्नत्थगाहगं लोए। इंदिय-मणोणिमित्तं तं रूपेण कुदर्शनविषयेण निर्वृत्तमाभिग्रहिकम, यद्वशाद आभिणिबोहिगं वेंति ।। (धर्मसं. हरि. ८२३)। बोटिकादिकुदर्शनानामन्यतमं दर्शनं गृह्णाति । (षड- ७. अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिदिइंदिशीति मलय. व. ७५-७६; षडशीति दे. स्वो. व. यजं । बहउग्गहाइणा खलु कयछत्तीसा तिसयभेयं । ५१; सम्बोधस. व. ४७, पृ. ३२; पंचसं. मलय. व. (प्रा. पंचसं. १-१२१; धव. पु. १, पृ. ३५६ उद्.; ४-२)। ४. अभिग्रहेण निर्वृत्तं तत्राभिग्रहिक स्म- गो. जी. ३०६)। ८. तत्थ आभिणिबोहियणाणं तम् । (लोकप्र. ३-६६०)।
णाम पंचिदिय-णोइंदिएहिं मदिणाणावरणखोबस३ यही दर्शन (सम्प्रदाय) ठीक है, अन्य कोई भी मेण य जणिदोऽवग्गहेहावायधारणाअो सद्द-परिसदर्शन ठीक नहीं है। इस प्रकार के कदाग्रह से निर्मित रूव-रस-गंध-दिट्र-सुदाणभूदविसयाओ। बहु-बहुविह
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आभिनिबोधिक] २०२, जैन-लक्षणावली
[पाभियोगिकी खिप्पाऽणिस्सिदाणुत्त-धुवेदरभेदेण तिसयछत्तीसानो। प्राभिनिवेशिक-१. अभिनिवेशे भवं आभिनिवे(धव. पु. १, पृ. ६३); अहिमुह-णियमियप्रत्थावबो- शिकम् । अर्हत्प्ररूपितप्रोद्दलनं गोष्ठामाहिलस्येव । हो आभिणिबोहो, थल-वद्रमाण-अणंतरिदअत्था अहि- (पंचसं. च. स्वो. व. ४-२, पृ. १५६) । २. प्राभिमुहा। चक्खिदिए रूवं णियमिदं, सोदिदिए सद्दो, निवेशिकं जानतोऽपि यथास्थितं वस्तु दुरभिनिवेशघाणिदिए गंधो, जिभिदिए रसो, फासिदिए फासो, लेशविप्लावितधियो जमालेरिव भवति । (योगशा. णोइंदिए दिट्ठ-सुदाणभूदऽत्था णियमिदा। अहिमुह- स्वो. विव. २-३) । ३. प्राभिनिवेशिकं यदभिनिवेणियमिदऽठेसु जो बोहो सो अहिणिबोहो। अहि- शेन निर्वृत्तम्, यथा गोष्ठामाहिलादीनाम् । (सम्बोणिबोध एव पाहिणिबोधियं णाणं । (धव. पु. ६, पृ. धस. वृ ४७, पृ. ३२, पंचसं. मलय. वृ. ४-२, १५-१६); तत्थ अहिमहणियमिदत्थस्स बोहणं पृ. १५६) । ४. यतो गोष्ठामाहिलादिवदात्मीयआभिणिबोहियं णाम णाणं । को अहिमुहत्थो? कुदर्शने । भवत्यभिनिवेशस्तत्प्रोक्तमाभिनिवेशिकम् ।। इंदिय-णोइंदियाणं गहणपापोग्गो । कुदो तस्स (लोकप्र. ३-६६३)। णियमो ? अण्णत्थ अप्पत्तीदो। अत्थिदियालो- २ वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानते हुए भी दुराग्रह गुवजोगेहितो चेव माणुसेसु रूवणाणुप्पत्ती। अत्थि- के वश से जमालि के समान जिनप्ररूपित तत्त्व दिय-उवजोगेहितो चेव रस-गंध-सह-फासणाणप्पत्ती। के अन्यथा प्रतिपादन करने को प्राभिनिवेशिक दिट्ठ-सुदाणुभूदटू-मणेहितो णोइंदियणाणप्पत्ती । मिथ्यात्व कहते हैं। एसो एत्थ णियमो। एदेण णियमेण अभिमूहत्थेसू आभियोगिक-देखो पाभियोग्य । अभियोगः पारजमुप्पज्जदि णाणं तमाभिणिबोहियणाणं णाम। वश्यम्, स प्रयोजनं येषां ते पाभियोगिका: । (वि(धव. पु. १३, पृ. २०६-१०)। ६. अभिमुखो पाकसूत्र अभय. वृ. २-१४, पृ. २६)। निश्चितो यो विषयपरिच्छेदः सर्वैरेव एभिः प्रकार: अभियोग का अर्थ पराधीनता है वह, पराधीनता तदाभिनिबोधिकम् । (त. भा. सिद्ध. व. १-१३)। ही जिनका प्रयोजन है, अर्थात् जो दूसरों के प्राधीन १०. अभिमुखं योग्यदेशावस्थितं नियतमर्थमिन्द्रिय- रहकर उनको आज्ञानुसार सेवाकार्य किया करते हैं मनोद्वारेणात्मा येन परिणामविशेषेणावबुध्यते स उन्हें आभियोगिक देव कहते हैं। परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्यायः प्राभिनिबोधिकम् । आभियोगिकभावना- १. कोउन भूई पसिणे (प्राव. नि. मलय. वृ. १, पृ. २०) । ११. अर्थाभि- पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। इड्ढि-रस-सायगुरुतो मुखो नियतः प्रतिस्वरूपको बोधो बोधविशेषोऽभि- अभियोगं भावणं कुणइ ।। (बृहत्क. भा. १३०८)। निबोधोऽभिनिबोध एव आभिनिबोधिकम् xxx। २. कोऊय-भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाएसी। अथवा अभिनिबुध्यते अस्मादस्मिन् वेति अभिनि- इड्ढि-रस-सायगुरुप्रो अभियोग भावणं कुणइ । बोधस्तदावरणक्षयोपशमस्तेन निर्वृत्तमाभिनिबोधि- (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ४, पृ. १८ उ.)। कम् । तच्च तत् ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानम् । १ कौतुक दिखाकर, भूतिकर्म बताकर, प्रश्नों के इन्द्रिय-मनोनिमित्तो योग्यप्रदेशावस्थितवस्तुविषयः उत्तर देकर और शरीरगत चिह्नादिकों के शुभाशुभ स्फुट: प्रतिलाभो बोधविशेष इत्यर्थः । (प्रज्ञाप. फल बताकर आजीविका करने को तथा ऋद्धि, रस मलय. वृ. २६-३१२, पृ. ५२६)। १२. स्थूल-वर्त- और सात गौरवमय प्रवृत्तियों के रखने को प्राभियोमानयोग्यदेशावस्थितोऽर्थः अभिमुखः, अस्येन्द्रियस्या- गिकभावना कहते हैं। यमर्थ इत्यवधारितो नियमितः। अभिमुखश्चासौ प्राभियोगिकी, प्राभियोगी-१. पा समन्तात् नियमितश्चासौ अभिमुखनियमितः, तस्यार्थस्य बोधनं आभिमुख्येन [वा] युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त ज्ञानम्, आभिनिबोधिकं मतिज्ञानम् । (गो. जी. म. इत्याभियोग्याः किंकरस्थानीया देवविशेषास्तेषामियप्र. व जी. प्र. टी. ३०६)।
माभियोगी । (बृहत्क. वृ. १२६३)। २. आभियोगाः ८ अभिमख और नियमित पदार्थ के इन्द्रिय और किंकरस्थानीया देवविशेषास्तेषामियं आभियोगिकी। मन के द्वारा जानने को प्राभिनिबोधिक ज्ञान कहते (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-८१, पृ. १७८)। हैं। यह मतिज्ञान का नामान्तर है।
१ जो देव इन्द्रादि के सेवाकार्य में नियुक्त रहते हैं वे
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आभियोग्य]
२०३, जैन-लक्षणावली [प्राभ्यन्तर प्रात्मभूतहेतु प्राभियोग्य कहलाते हैं। उनसे सम्बन्धित भावना कार्यासेवनमाभोगः । (प्राव. ह. वृ. मल. हे. टि. का नाम पाभियोगिकी या प्राभियोगी है।
पृ.१०)। प्राभियोग्य-१. आभियोग्या दाससमाना वाहना- ३ जान करके भी अकार्य के सेवन करने को प्राभोग दिकर्मणि प्रवृत्ताः। (स. सि. ४-४)। २. पाभि- कहते हैं। योग्या दासस्थानीयाः। (त. भा. ४-४) । ३. प्रा. प्राभोगनिर्वतित कोप-यदा परस्यापराधं सम्यभियोग्या दाससमानाः । यथेह दासा वाहनादिव्यापार गवबुध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य कुर्वन्ति तथा तत्राभियोग्या वाहनादिभावेनोपकुर्वन्ति। नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते ग्राभिमुख्येन योगोऽभियोगः, अभियोगे भवा आभि- तदा स कोप आभोगनिर्वतितः। (प्रज्ञाप. मलय. योग्याः। xxxअथवा अभियोगे साधवः प्राभि- वृ. १४-१६०, पृ. २६१)। योग्याः, अभियोगमहन्तीति वा। (त. वा. ४, ४, दूसरे के अपराध को भलीभांति जान करके तथा ६)। ४. वाहनादिभावेनाभिमुख्येन योगोऽभियोग- व्यवहार से पुष्ट कोप के कारण का प्राश्रय लेकर स्तत्र भवा अभियोग्यास्त एव आभियोग्याः इति । 'अन्य प्रकार से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती है' यह xxx अथवा अभियोगे साधवः आभियोग्याः, देखकर जब क्रोध करता है तब उसके इस क्रोध को अभियोगमहन्तीति वा आभियोग्यास्ते च दाससमा- प्राभोगनिर्वतित कोप कहते हैं। नाः। (त. श्लो. ४-४) । ५. अभियुज्यन्त इत्याभि- प्राभोगनिर्वतिताहार–प्राभोगनमाभोगः पालोयोग्याः वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमानाः, चनम्, अभिसन्धिरित्यर्थः । प्राभोगेन निर्वर्तितः वाहनदेवा इत्यर्थः । (जयध. पत्र ७६४) । ६. भवे- उत्पादित प्राभोगनिर्वर्तितः, आहारयामीतीच्छापूर्व युराभियोग्याख्या दासकर्मकरोपमाः ।। (म. पु. २२, निर्मापितः इति यावत् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८, २९)। ७. दासप्राया भाभियोग्याः । (त्रि. श. पु. ३०४, पृ. ५००)। च. २, ३, ७७४)। ८. पा समन्तादभियुज्यन्ते अभिप्रायपूर्वक बनवाया गया पाहार प्राभोगनिर्वप्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्या दासप्रायाः। तिताहार है । यह नारकियों का पाहार है। (संग्रहणी दे. वृ. १; बृहत्सं. मलय. वृ. २)। प्राभोगबकुश-१. संचित्यकारी प्राभोगबकुशः । ६. अभियोगे कर्मणि भवा आभियोग्या दासकर्मकर- (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६) । २. द्विविध-(शरीरो. कल्पाः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-४)।
पकरण-) भूषणमकृत्यमित्येवंभूतं ज्ञानम्, तत्प्रधानो १ सवारी प्रादि में काम आने वाले दास समान बकुश आभोगबकुशः । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. देवों को प्राभियोग्य कहते हैं।
३-५६, पृ. १५२)। ३. प्राभोगः साधूनामकृत्यआभियोग्यभावना-देखो आभियोगिकी। १. मंता- मेतच्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवंभूतं ज्ञानम् । तत्प्रभिप्रोग-कोदुग-भूदीयम्मं पउंजदे जो हु । इड्ढि-रस- धानो बकुश प्राभोगबकुशः । (प्रव. सारो. वृ. सादहे, अभियोगं भावणं कुणइ ॥ (भ. प्रा. ३, ७२४) । २८२) । २. जे भदिकम्म-मंताभियोग-कोदहलाइ- १ जो साधु विचारपूर्वक करता है-शरीर व उपसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥ करणों को विभूषित रखता है-उसे प्राभोगबकुश (ति. प. ३-२०३)।
कहते हैं। १ ऋद्धि, रस और सात गारव के हेतुभूत मंत्राभियोग प्राभ्यन्तर आत्मभूतहेतु-तन्निमित्तो (द्रव्ययोग(भूतावेशकरण), कुतूहलोपदर्शन (अकालवृष्टि प्रादि निमित्तो) भावयोगो वीर्यान्तराय-ज्ञान-दर्शनावरणदर्शन) और भूतिकर्म का करने वाला अभियोग्य- क्षय-क्षयोपशमनिमित्त आत्मनः प्रसाद भावना को करता है।
इत्याख्यामहति । (त. वा. २, ८, १)। प्राभोग-१. आभोगो उवयोगो। (प्रत्या. स्व. गा. द्रव्ययोगनिमित्तक भावयोग और वीर्यान्तराय तथा ५५)। २. पाभोगनमाभोगः, 'भुज-पालनाभ्यव- ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म के क्षय-क्षयोपशमहारयोः' मर्यादयाऽभिविधिना वा भोगनं पालनमा- निमित्तक प्रात्मा के प्रसाद को प्राभ्यन्तर आत्मभत भोगः । (प्रोवनि. वृ. ४, पृ. २६)। ३. ज्ञात्वाप्य- हेतु कहते हैं ।
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आभ्यन्तर तप] २०४, जैन-लक्षणावली
[आमरणान्त दोष प्राभ्यन्तर तप-१. कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ? मनो- तरा निर्वृत्तिः । (धव. पु. १, पृ. २३२)। नियमनार्थत्वात् । (स. सि. ६-२०)। २. अन्तः- १ प्रतिनियत चक्ष प्रादि इन्द्रियों के प्रकार से अवकरणव्यापारात् । प्रायश्चित्तादितपः अन्तःकरण- स्थित उत्सेधाङ्ल के असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध व्यापारालम्बनम्, ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम् । बाह द्रव्या- प्रात्मप्रदेशों के अवस्थान को प्राभ्यन्तर निर्वृत्ति नपेक्षत्वाच्च । न हि बाह्यद्रव्यमपेक्ष्य वर्तते प्रायश्चि
(द्रव्येन्द्रिय) कहते हैं। तादि ततश्चास्याभ्यन्तरत्वमवसे यम् । (त. वा. ६,
प्राभ्यन्तर प्रत्यय-तत्थ अभंतरो कोधादिदव्व२०, २-३; चा. सा. पृ. ६०)। ३. इदं प्रायश्चि
कम्मक्खंधा अणंताणतपरमाणुसमुदयसमागमसमुप्पत्तादिव्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्
ण्णा जीवपदेसे हिं एयत्तमुवगया पयडि-द्विदि-अणुभागतंत्रान्तरीयश्च भावतोऽनासेव्यत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्ग
भेयभिण्णा । (जयध. १, पृ. २८४) । त्वाच्चाभ्यन्तरं तपो भवति । (दशवै. नि. हरि. व.
अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदाय के आगमन से १-४८, पृ. ३२)। ४. इदं चाभ्यन्तरस्य कर्मण
उत्पन्न जो क्रोधादि कषायरूप द्रव्य कर्मस्कन्ध प्रकृति, सापकत्वात्, अभ्यन्तरैरेवान्तमुखैर्भगवद्भिर्जायमान
स्थिति और अनुभाग में विभक्त होकर जीवप्रदेशों त्वाच्चाभ्यन्तरत्वम्। (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
के साथ एकता को प्राप्त होते हैं उन्हें प्राभ्यन्तर ५. इच्छानिरोधनं यत्र तदाभ्यन्तरमीरितम् । (धर्मसं.
प्रत्यय कहते हैं। था. ९-१६६)। २ जो प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्य की अपेक्षा न
आमन्त्रण-आमच्चणं कामचारानुज्ञा। (प्रष्टस. कर अन्तःकरण के व्यापार के आश्रित होते हैं वे
यशो. वृ. ३, पृ. ५८)। प्राभ्यन्तर तप कहलाते हैं।
इच्छानुसार काम करने की अनज्ञा देने को आमंत्रण प्राभ्यन्तर द्रव्यमल-१. पुणु दिढजीवपदेसे णि
कहते हैं। बद्धरूवाई पयडि-ठिदिनाई।अणभागपदेसाई चहि आमन्त्रणी भाषा-१. यया वाचा परोऽभिमखीपत्तेक्कभेज्जमाणं तु । णाणावरणप्पहदी अविहं क्रियते सा आमंत्रणी। (भ. प्रा. विजयो. ११९५)। कम्ममखिलपावरयं ॥ अभंतरदव्वमलं जीवपदेसे २. गृहीतवाच्य-वाचकसम्बन्धो व्यापारान्तरं प्रत्यभिनिबद्धमिदि हेदो । (ति. प. १, ११-१३)। २. घन- मुखीक्रियते यया सामंत्रणी भाषा । (मूला. ७.५, कठिनजीवप्रदेशनिबद्धप्रकृति-स्थित्यनुभागप्रदेशविभ. ११८)। ३. तत्रामन्त्रणमन्यस्य परत्रासक्तचेतसः । क्तज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्माभ्यन्तरद्रव्यमलम । (धव. प्राभिमुख्य करो हंहो नरेन्द्रेत्यादिकं वचः ।। (प्राचा. पु. १, पृ. ३२)।
सा. ५-८५)। ४. 'पागच्छ भो देवदत्त' इत्याद्या२ सवन व कठिन जीवप्रदेशों से जो प्रकृति, स्थिति, ह्वानभाषा आमन्त्रणी। (गो. जी. जी. प्र. २२५) । अनभाग और प्रदेश बन्ध रूप से ज्ञानावरणादि पाठ ५. संबोहणजुत्ता जा अवहाणं होइ जं च सोऊणं । प्रकार के कर्मपुदगल सम्बद्ध रहते हैं उन्हें प्राभ्यन्तर अामंतणी य एसा पण्णत्ता तत्तदंसीहिं। (भाषार. द्रव्यमल कहते हैं।
७२)। ६. या सम्बोधनः हे-अये भोप्रभृतिपदैर्युक्ता प्राभ्यन्तर त-१. उत्सेधाग्लासंख्येयभाग
सम्बद्धा, यां च श्रुत्वा अवधानं श्रोतृणां श्रवणाभिप्रमितानां शुद्धात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षरादीन्द्रीय
मुख्यम्, सम्बोधनमात्रेणोपरमे किमामन्त्रयसीति प्रश्न. संस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वत्तिः। (स.
हेतुजिज्ञासाफलकं भवति । एषा तत्त्वदर्शिभिरामन्त्रणी सि. २-१७)। २. विशुद्धात्मप्रदेशवत्तिराभ्यन्तरा। प्रज्ञप्ता। (भाषार. टी. ७२)। उत्सेधागुलासंख्येयभागप्रमितानां विशद्धानामात्म- १ जिस भाषा के द्वारा दूसरे को अभिमख किया प्रदेशानां प्रतिनियतचक्षरादीन्द्रियसंस्थानमानावमा- जावे उसे आमन्त्रणी भाषा कहते हैं। नावस्थितानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः। (त. वा. आमरणान्त दोष-मरणमेवान्तो मरणान्तः, आ २, १७, ३)। ३. लोकप्रमितानां विशुद्धानामात्मप्र- मरणान्तात् आमरणान्तम्, असञ्जातानुतापस्य कालदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिताना- सौकरिकादेरिव या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोषः मुत्सेधागुलस्यासंख्येयभागप्रमितानां वा वृत्तिराभ्य- आमरणान्तदोषः । (प्रौपपा. वृ. २०, पृ. ४४)।
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श्रामर्जन ]
मरण होने तक बिना किसी प्रकार के पश्चात्ताप के कालसौरिक ( एक कषायी) आदि के समान जो हिंसादि पापों में प्रवृत्ति होती है उसे श्रामरणान्त दोष कहते हैं ।
आमजन - ग्रामर्जनं मृदुगोमयादिना लिम्पनम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४- २७, पृ. ६) । मृदु गोबर आदि से लीपने को ग्रामर्जन कहते हैं । श्रामर्शन - १. क्षपकस्य शरीरैकदेशस्य स्पर्शनम् आमर्शनम् । (भ. श्री. विजयो. ६४६ ) । २. शरीरैकदेशस्पर्शनम् । (भ. श्री. मूला. टी. ६४९ ) । समाधिमरण करने वाले साधु के शरीर के एकदेश का स्पर्श करने को श्रामर्शन कहते हैं । श्रामर्शलब्धि - देखो श्रमशोषधि ऋद्धि | तत्र श्रामर्शन मामर्शः, संस्पर्शनमित्यर्थः । स एव श्रौषधिर्य स्यासावामशौषधिः साधुरेव संस्पर्शनमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थ इत्यर्थः, लब्धि-लब्धि मतोरभेदात् । स एवामर्शलब्धिरिति । ( नाव. नि. हरि. व मलय. वृ. ६६; प्रव. सारो. वृ. १४६६ ) ।
जो साधु स्पर्श मात्र से ही रोग के दूर करने में समर्थ होता है उसे श्रभेद विवक्षा से श्रामर्शलब्धि-श्रामर्श ऋद्धि का धारक — कहा जाता है । आमशषधि ऋद्धि - देखो ग्रामर्शलब्धि | रिसिकर-चरणादीणं अल्लियमेत्तम्मि जीए पासम्म । जीवा होंति णिरोगा सा अम्मरिसोसही रिद्धी ॥ ( ति. प. १०६८ ) ।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के स्पर्श मात्र से रोगियों के रोग दूर हो जाते हैं उसे श्रामशौषधि ऋद्धि कहते हैं । श्रामशषधिप्राप्त -- १. ग्रामर्शः संस्पर्शः, यदीयहस्त पादाद्यामर्श औषधिप्राप्तो यस्ते श्रमशोषधिप्राप्ता । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३) । २. प्रामर्षः श्रोषधत्वं प्राप्तो येषां ते ग्रामपौषधप्राप्ताः । X X X तवोमाहप्पेण जेसि फासो सयलोसह सरू - वत्तं पत्तो तेसिमामोसहिपत्ता त्ति सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६५-६६) । ३. आमर्शः संस्पर्शो हस्त-पादा द्यामर्शः सकलौषधि प्राप्तो येषां त ग्रामशौषधिप्राप्ता: । (चा. सा. पृ. ६९ ) ।
श्रमर्श का अर्थ स्पर्श होता है, जिन महर्षियों के हाथ-पांव श्रादि का स्पर्श श्रौषधि को प्राप्त हो गया है - रोगियों के दुःसाध्य रोगों के दूर करने में
२०५, जैन-लक्षणावली
[ग्राम्नायार्थवाचक
श्रौषधि का काम करता है - वे महर्षि श्रमशोषधिप्राप्त - श्रामशौषधिऋद्धि के धारक - कहे जाते हैं ! प्रामुण्डा - ग्रामुण्ड्यते संकोच्यते वितर्कितोऽर्थ
नया इति ग्रामुण्डा । ( धव. पु. १३, पृ. २४३) । जिसके द्वारा विमर्शित पदार्थ का संकोच किया जाय उसे प्रामुण्डा बुद्धि (अवाय) कहते हैं । श्रामषबधप्राप्त - देखो श्रमशषिधिप्राप्त | श्राम्नाय - १. घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । ( स. सि. ६ - २५; त. इलो. ६ - २५) । २. ग्राम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनम्, रूपादानमित्यर्थं । ( त. भा. ६ - २५; योगशा. स्व. वि. ४–६० ) । ३. घोषविशुद्धपरिवर्तनमाम्नायः । व्रतिनो वेदितसमाचारस्यैहलौकिक फलनिरपेक्षस्य द्रुत - विलम्बितादिघोषविशुद्धं परिवर्तनमाम्नाय इत्युपदिश्यते ! (त. वा. ६, २५, ४) । ४. आम्नायोऽपि परिवर्तनम्, उदात्तादिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः । गुणनं संख्यानं पदाक्षरद्वारेण, रूपादानमेकरूपम् एका परिपाटी द्वे रूपे त्रीणि रूपाणीत्यादि । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ६ - २५ ) । ५. आम्नायो गुणना । (भ. श्री. विजयो. १०४ ) ; घोषविशुद्ध श्रुतपरावर्त्य - मानमाम्नायः स्वाध्यायो भवत्येव । (भ. श्री. विजयो. १३९) । ६. श्राम्नायः कथ्यते घोषो विशुद्धं परिवर्तनम् । (त. सा. ७ - १६) । ७. व्रतिनो विदितसमाचारस्यैहलौकिक फलनिरपेक्षस्य द्रुतविलम्बितपदाक्षरच्युतादिघोषदोषविशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । (चा. सा. पू. ६७) । ८. परिवर्तनमाम्नायो घोषदोषविवर्जितम् । ( आचा. सा. ४-६१ ) । ६. आम्नायो घोषशुद्धं यद् वृत्तस्य परिवर्तनम् । (अन. ध. ७, ८७ ) । १०. प्रष्टस्थानोच्चारविशेषेण यत् शुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नायः । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - २५ ); कार्तिके. टी. ४६६ ) ।
३ श्राचारशास्त्र का ज्ञाता व्रती जो ऐहिक फल की अपेक्षा न कर द्रुतविलम्बित आदि घोष से विशुद्ध - इन दोषों से रहित - -पाठ का परिशीलन करता है, यह श्राम्नाय स्वाध्याय कहलाता है । श्राम्नायार्थवाचक - १. ग्राम्नायः आगम: यस्योत्सर्गापवादलक्षणोऽर्थः, तं वक्तीत्याम्नायार्थवाचक: पारमर्षप्रवचनार्थकथनेनानुग्राहकोऽक्ष निषद्यानुज्ञायी पञ्चम आचार्य: । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-६, पृ. २०८ ) । २. आम्नायमुत्सर्गापवादलक्षणमर्थं वक्ति
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प्राय]
२०६, जैन-लक्षणावली
[आयोजिकाकरण
यः स प्रवचनार्थकथनेनानग्राहकोऽक्षनिषद्याद्यनज्ञायी एति भवधारणं प्रतीति प्रायुः । (धव. पु. १३, पृ. आम्नायार्थवाचकः, प्राचारगोचरविषयं स्वाध्यायं ३६२)। ६. भवधारणसहावं आउग्रं । (जयध. २, वा । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
पृ. २१)। १०. चतुर्गतिसमापन्नः प्राणी स्थानात् १ आम्नाय के अनुसार प्रागम के उत्सर्ग और अप- स्थानान्तरमेति यद्वशात् तदायुः । (पंचसं. स्वो. वृ. वादरूप अर्थ के प्रतिपादन करने वाले प्राचार्य को ३-१, पृ. १०७)। ११. न-तिर्यङ-नारकामर्त्य भेदाआम्नायार्थवाचक कहते हैं। वह परमषिप्रोक्त दायुश्चतुर्विधम् । स्व-स्वजन्मनि जन्तूनां धारक परमागम के अर्थ का व्याख्यान करके शिष्यों का गुप्तिसन्निभम् ।। (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४७२)। अनुग्रह किया करता है। यह प्रव्राजक प्रादि पांच १२. आयुर्नरकादिगतिस्थितिकारणपुद्गलप्रचयः । प्राचार्यभेदों में अन्तिम है।
(मूला. वृ. १२-२); नारक-तिर्यङ्-मनुष्य-देवभवआय-प्रायः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणःXXXI धारणहेतुः कर्मपुद्गलपिण्ड आयुः, औदारिक-तन्मिश्र. (समवा. अभय. वृ. ३३)।
वैक्रियिक-तन्मिश्रशरीरधारणलक्षणं वा प्रायः । सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति को प्राय कहते हैं। (मूला. व. १२-६४)। १३. आयु:कर्म पञ्चम, प्रायतन-सम्यक्त्वादिगुणानामायतनं गृहमावास जीवस्य चतुर्गतिष्ववस्थितिकारणम् । (कर्मवि. पू. आश्रय आधारकरणं निमित्तमायतनं भण्यते । (ब. व्या. ६, पृ. ५)। १४. एति गच्छति प्रतिबन्धकतां द्रव्यसं. टी. ४१, पृ. १४८) ।
नारकादिकुगतेनिष्क्रामितुमनसो जन्तोरित्यायुः । सम्यग्दर्शनादि गणों के आधार, पाश्रय या निमित्त (कर्मवि. पर. व्या. ६, प. ६)। १५. एति प्रा. को प्रायतन कहते हैं।
गच्छति प्रतिबन्धकतां स्वकृतकर्मबद्धनरकादिगतेप्रायास-आयासो दुःखहेतुश्चेष्टाविशेषः, प्रहरण- निष्क्रमितुमनसो जन्तोः इत्यायुः । (प्रज्ञाव. मलय. सहायान्वेषणं संरम्भावेशारुणविलोचन-स्वेदद्रवप्रवाह- व. २३-२८८, पृ. ४५४; पंचसं. मलय. व. ३-१, प्रहारवेदनादिकः । (त. भा. सि. वृ. ६-६, पृ. १६२)। पृ. १०७; प्रव. सारो. वृ. १२५०; कर्मप्र. यशो. दुःख के कारणभूत चेष्टाविशेष को प्रायास कहते हैं। व. १, १, पृ. २) । १६. एति गच्छति अनेन गत्यपायु कर्म-१. एति अनेन नारकादिभवमिति न्तरमित्यायुः, यद्वा एति आगच्छति प्रतिबन्धकतां आयुः । (स. सि. ८-४; तः वृत्ति श्रुत. ८-४; त. स्वकृतकर्मावाप्तनरकादिदुर्गनिर्गन्तुमनसोऽपि जन्तोसुखबो..-४)। २. चतुष्प्रकारमायुष्कंXxx रित्यायुः,XXX यद्वा आयाति भवाद् भवान्तरं स्थितिसत्कारणं स्मृतम् ।। (वरांग. ४-३३) । ३. संक्रामतां जन्तूनां निश्चयेनोदयमागच्छति xxx यद्भावाभावयोर्जीवित-मरणं तदायुः । यस्य भावात् इत्यायुःशब्दसिद्धिः । Xxx अथवा प्रायान्त्युप
आत्मनः जीवितं भवति, यस्य चाभावात् मृत इत्यु- भोगाय तस्मिन्नुदिते सति तद्भवप्रायोग्याणि सर्वाच्यते तद् भवधारणमायुरित्युच्यते। (त. वा.८, १०, ण्यपि शेषकर्माणीत्यायुः। (कर्मवि. दे. स्वो व.३, २)। ४. नारक-तिर्यग्योनी-सुर-मनुष्य-[ योनि- पृ. ५)। मनुष्य-] देवानां भवनशरीरस्थितिकारणमायुष्कम् । १ नारक प्रादि भव को प्राप्त कराने वाले कर्म को (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ६३)। ५. एति याति चेत्यायुः, अनुभतमेति अननुभूतं च याति । (श्रा.प्र. टी. ११,
प्रायोग्य काल-सगजीविदतिभागस्स पढधर्मसं. मलय. ६०८)। ६. आयुरिति अवस्थिति- मसमयप्पहुदि जाव विस्समणकालअप्रंतरहेट्ठिमसमग्रो हेतवः कर्मपुद्गलाः। (प्राचारा. शी. वृ. २, १, पृ. त्ति आउप्रबंघपायोग्गकालो । (धव. पु. १०, पृ. १२)। ७. यद्भावाभावयोर्जीवित-मरणं तदायुः । (त. ४२२)। श्लो. ८-१०)। ८. एति भवधारणं प्रति इत्यायः। अपने जीवित-भुज्यमान आयु-के त्रिभाग के जे पोग्गला मिच्छत्तादिकारणेहि णिरयादिभवधारण- प्रथम समय से लेकर विश्रामकाल के अनन्तर सत्तिपरिणदा जीवणिविट्ठा ते पाउअसण्णिदा (अव्यवहित) अधस्तन समय तक का काल नवीन होंति । (धव. पु. ६, पृ. १२); भवधारणमेदि प्रायु के बन्ध के योग्य होता है। कुणदि त्ति पाउनं । (धव. पु. १३, पृ. २०९); प्रायोजिकाकरण-१. अपरे 'पाउज्जियाकरणं'
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आरभटा]
२०७, जैन-लक्षणावली
[प्रारम्भक्रिया
पठन्ति । तत्रैवं शब्दसंस्कारमाचक्षते-पायोजिका- सचित्तहिंसाद्यपकरणस्याद्यः प्रक्रम. आरम्भः। (भ. करणमिति । अयं चात्रान्वयार्थः-पाइ मर्यादायाम्, प्रा. विजयो. ८११, अन. ध. स्वो. टी. ४-२७); या मर्यादया केवलिदृष्टया शुभानां योगानां व्यापा- पृथिव्यादिविषयो व्यापार प्रारम्भः। (भ. प्रा. रणमायोजिका, भावे बुञ्, तस्याः करणमायोजिका- विजयो. ८२०)। १०. प्रादौ क्रमः प्रक्रम प्रारम्भः । करणम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३६, पृ. ६०४; पंचसं. (चा. सा. पृ. ३६)। ११. प्रारभ्यन्ते विनाश्यन्त मलय. वृ. १-१५, पृ. २८) । २. प्रायोजिकाकरण इति प्रारम्भाः जीवाः, अथवा प्रारम्भः कृष्यादिनाम केवलिसमुद्घातादर्वाग्भवति, तत्राङ् मर्यादा- व्यापारः, अथवा प्रारम्भो जीवानामुपद्रवणम् । याम्, प्रा मर्यादया केवलिदृष्ट्या योजनं व्यापारणमा- (प्रश्नव्या. वृ. ११) । १२.xxxअंगि[अग्नि-] योजनम्, तच्चातिशुभयोगानामवसेयम्, प्रायोजन- वातादिः स्यादारम्भो दयोज्झितः ॥ (प्राचा. सा. मायोजिका, तस्या: करणमायोजिकाकरणम् । (पंचसं. ५-१३) । १३. अपद्रावयतो जीवितात्परं व्यपरोउदी. क. मलय. वृ. ७६, पृ. १४७)।
पयतो व्यापार प्रारम्भः। (व्यव. भा. मलय.व. केवलिसमुद्घात के पूर्व जो अतिशय शुभ योगों का १-४६; प्रव. सारो. वृ. १०६०) । १४. प्राणिनः प्रायोजन (व्यापार) किया जाता है उसे प्रायोजिका- प्राणव्यपरोप प्रारम्भः। (भा. प्रा. टी. ९६)। करण कहते हैं। इसे दूसरे नामों से प्रावजित- १५. प्राणव्यपरोपणादीनां प्रथमारम्भ एव प्रारम्भः । करण और आवर्जीकरण भी कहा जाता है। (त. वृत्ति श्रुत. ६-८); प्रारभ्यत इत्यारम्भः प्रारभटा–१. वितहकरणम्मि तुरियं अण्णं अण्णं प्राणिपीडाहेतुापारः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१५) । व गिव्ह प्रारभडा। (पंचव. २४६); आरभडा १ कार्य के प्रारम्भ कर देने को प्रारम्भ कहा जाता प्रत्युपेक्षणेति प्रविधिक्रिया । (पंचव. हरि. व. है। जीवों को पीड़ा पहुंचाने वाला जो व्यापार २४५); वितथकरणे वा प्रस्फोटनाद्यन्यथासेवने वा (प्रवृत्ति) होता है वह भी प्रारम्भ कहलाता है। आरभटा, त्वरितं वा द्रुतं वा सर्वमारभमाणस्य, आरम्भकथा -- तित्तिरादीनामियतां तत्रोपयोग अन्यदर्द्धप्रत्युपेक्षितमेव मुक्त्वा कल्पमन्यद्वा गृह्णतः इत्यारम्भकथा । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, ४८२, प्रारभडेति । (पञ्चव. हरि. वृ. २४६)। २. वितह- पृ. १६६)। करणेण तुरियं, अन्नन्नागिन्हणे व प्रारभडा। (गु. वहां इतने तीतर आदि का उपयोग होना चाहिये, गु. षट्. स्वो. वृ. २८, पृ. ६१)
इत्यादि प्रकार की प्राणिविघात से सम्बद्ध कथा १ झाड़ने प्रादिके अन्यथा सेवन में, अथवा शीघ्रता से का नाम प्रारम्भकथा है। प्रारम्भ करते हुए, अथवा अर्ध प्रत्युपेक्षित को छोड़ प्रारम्भकोपदेश-१. प्रारम्भकेभ्यः कृषीबलादिकर अन्य कल्प को ग्रहण करते हए प्रारभटा नामक भ्यः क्षित्युदक-ज्वलन-पवन-वनस्पत्यारम्भोऽनेनोपादोष (प्रतिलेखनादोष) होता है।
येन कर्तव्य इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः । (त. वा. प्रारम्भ-१. प्रक्रम प्रारम्भः। (स. सि. ६-८ ७, २१, २१; चा. सा. पृ. ६)। २. पामरादीनाप्रारम्भः प्राणिपीडाहेतुव्यापारः । (स. सि. ६-१५)। मने एवं कथयति-भूरेवं कृष्यते, उदकमेवं निष्का२. प्राणिवधस्त्वारम्भः। (त. भा. ६-६)। ३. ष्यते, वनदाह एवं क्रियते, क्षुपादय एवं चिकित्स्यन्ते, प्रारम्भो हैंस्र कर्म। हिंसनशीला हिंस्राः, तेषां कर्म इत्याद्यारम्भ अनेनोपायेन क्रियते इत्यादिकथनं हैंसमारम्भ इत्युच्यते । (त. वा. ६, १५, २)। प्रारम्भोपदेशनामा चतुर्थः पापोपदेशो भवति । (त. ४. प्रारंभा उद्दवउxxxI (व्यव. सू. भा. १, वृत्ति श्रुत. ७-२१)। ४६, पृ. १८; प्रव, सारो. १०६०) । ५. प्राणाति- १ कृषि प्रादि प्रारम्भके करने वाले मनुष्योंको भूमि पातादिक्रियावृत्तिरारम्भः । (त. भा. हरि. व. खोदने, जल सींचने और वनस्पति काटने प्रादिरूप ६-६) । ६. कृष्यादिकस्त्वारम्भः । (श्रा. प्र. टी. हिंसामय प्रारम्भ का उपदेश दे
हिंसामय प्रारम्भ का उपदेश देने को प्रारम्भकोप१०७)। ७. प्राणातिपातादिक्रियानिवृत्तिरारम्भः। देश (अनर्थदण्ड) कहते हैं। (त. भा. सिद्ध. वृ.६-६)। ८. प्राणि-प्राणवियोज- प्रारम्भक्रिया-१. छेदन-भेदन-विशस-(विस्र सनमारम्भो णाम । (धव. पु. १३, पृ. ४६) । ६. त. वा.) नादिक्रियापरत्वमन्येन वा प्रारम्भे क्रिय
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प्रारम्भभक्तकथा]
२. श्रारम्भ
मा प्रहर्षः प्रारम्भक्रिया (स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ११; त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) । क्रियमाणेऽन्यैः स्वयं हर्ष प्रमादिनः । सा प्रारम्भक्रियात्यन्तं तात्पर्यं वाञ्छितादिषु ।। (ह. पु. ५८, ७६) । ३. छेदनादिक्रियासक्तचित्तत्वं स्वस्य यद् भवेत् । परेण तत्कृतौ हर्षः सेहारम्भक्रिया मता ॥ (त. श्लो. ६, ५, २३) । ४. भूम्यादिकायोपघातलक्षणा शुष्कतृणादिछेद लेखनादिका वाऽप्यारम्भक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) । १ प्राणियों के छेदन-भेदन श्रादि क्रियानों में स्वयं प्रवृत्त होने को, तथा अन्य को प्रवृत्त देखकर हर्षित होने को प्रारम्भक्रिया कहते हैं । श्रारम्भभवतकथा - ग्राम- नगराद्याश्रयाश्छाग-महिष्यादयः, आरण्यका आटविकास्तित्तिर- कुरङ्ग-लावकादयः एतावन्तोऽमुकस्य रसवत्यां हत्वा संस्क्रियन्त इत्येवंरूपा । (श्राव. ह. वृ. मल. हे. टि. पृ. ९२ ) । प्रमुक के यहां भोज में ग्राम-नगरादि के श्राश्रित रहने वाले बकरे वा भैंसा आदि इतनी संख्या में तथा जंगल में रहने वाले तीतर व हिरण श्रादि इतनी संख्या में मार कर पकाए जाने वाले हैं, इत्यादि प्रकार की कथावार्ता को प्रारम्भभक्तकथा कहते हैं । प्रारम्भिकी क्रिया - देखो प्रारम्भक्रिया । प्रारम्भः पृथिव्याद्युपमर्दः, उक्तं च- प्रारंभी उद्दवतो सुद्धनाणं तु सव्वेसि ॥ श्रारम्भः प्रयोजनं कारणं यस्याः साप्रारम्भिकी। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २२ - २८४, पृ. ४४७) ।
पृथिवीकायादि जीवों के संहाररूप प्रारम्भ ही जिस क्रिया का प्रयोजन हो उसे प्रारम्भिकी क्रिया कहते हैं । श्रारम्भ-प्रेषोद्दिष्टवर्जक - १. वज्जे सावज्जमारंभं अट्ठमि पडिवण्णो ||६|| अवरेणावि आरंभ णवमी नोकरावए । दसमी पुण उद्दिट्ठ फासूयं पिण भुं ||७|| (गु. गु. षट्. स्वो वृ. १५) । २. प्रारम्भश्च स्वयं कृष्यादिकरणम् प्रेषश्च प्रेषणं परेषां पापकर्मसु व्यापारणम्, उद्दिष्टं च तमेव श्रावकमुद्दिश्य सचेतनमचेतनीकृतं पक्वं वा यो वर्जयति परिहरति स आरम्भ-प्रेषोद्दिष्टवर्जकः । (सम्बोध. स. वृ. ६१, पृ. ४५) ।
२ जो श्रावक कृषि श्रादि करने रूप प्रारम्भ को, दूसरों को पापकार्यों में प्रवृत्त कराने रूप प्रेषण को,
२०८, जैन- लक्षणावली
[आरम्भविरत
तथा अपने उद्देश्य से श्रचित्त किये गये अथवा unty गए सचेतन उद्दिष्ट (भोज्य पदार्थ ) को छोड़ देता है उसे प्रारम्भ प्रेष-उद्दिष्टवर्जक (प्राठवीं, नौवीं और दसवीं इन तीन प्रतिमाओं का परिपालक ) कहा जाता है । आरम्भविरत - १. सेवा - कृषि - वाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ॥ ( रत्नक. १४५ ) । २. जो आरंभ ण कुणदि प्रणं ण कारयदि णेव अणुमण्णे । हिंसा संतट्ठमणो चत्तारंभो हवे सो हु ।। ( कार्तिक. ३८५) । ३. एवं चिय प्रारंभं वज्जइ सावज्जमट्ठमासं व । तप्पडमा XXX ॥ (श्रा. प्र. वि. १०-१४) । ४. प्रारम्भविनिवृत्तो ऽसि मसि - कृषि - वाणिज्यप्रमुखादारम्भात् प्राणातिपातहेतोविरतो भवति । (चा. सा. पू. १६) । ५. सर्वप्राणिध्वंस हेतुं विदित्वा यो नाssरम्भं धर्मवित् तत्करोति । मन्दीभूतद्वेषरागादिवृत्तिः सोडनारम्भः कथ्यते तत्त्वबोधः ।। (धर्मप. २०-६० ) । ६. निरारम्भः स विज्ञेयो मुनीन्द्रैर्हतकल्मषैः । कृपालुः सर्वजीवानां नारम्भं विदधाति यः ॥ ( सुभा. सं. ८४० ) । ७. विलोक्य षड्जीवदिघ तमुच्चरारम्भमत्यस्यति यो विवेकी । आरम्भमुक्तः स मतो मुनीन्द्रविरागिकः संयम-वृक्षसेकी । ( अमित श्रा. ७, ७४) । ८. जं किंचि गिहारंभं बहु योगं वा सया विवज्जेइ । आरभणियत्तमई सो अट्ठमु सावग्रो भणि ॥ ( वसु. श्री. २६८ ) । ६. अष्टी मासान् ( पूर्व प्रतिमानुष्ठान सहित ) स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्टमी। × × × वज्जे सावज्जमारंभ अट्ठमि पडिवन्न ||५|| (योगशा. स्वो विव. ३- १८४, पृ. २७२) । १०. निरूढसप्तनिष्ठोंऽगिघाताङ्गत्वात्करोति न । न कारयति कृष्यादीनारम्भविरतस्त्रिधा ।। (सा. ध. ७ - २१ ) । ११. यः सेवा - कृषि - वाणिज्यव्यापारत्यजनं भजेत् । प्राण्यभिघातसंत्यागादारम्भविरतो भवेत् ।। ( भावसं वाम ५४० ) । १२. निर्व्यूढसप्तधर्मोऽङ्गिवधहेतून् करोति न । न कारयति कृष्यादीनारम्भर हितस्त्रिधा || ( धर्मसं. श्री. ८-३६) । १३. सर्वतो देशतश्चापि यत्रारम्भस्य वर्जनम् । अष्टमी प्रतिमा साXXX ।। (लाटीसं. ७-३१) ।
१ हिंसा के कारणभूत सेवा, कृषि व वाणिज्य श्रादि प्रारम्भों का परित्याग करने वाले श्रावक को
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प्रारम्भ-समारम्भ] २०६, जैन-लक्षणावली
[आर्जव धर्म आरम्भविरत (अष्टम प्रतिमा धारक) कहते हैं। सेव्यन्ते स्वार्थप्रसाघकानि क्रियन्ते सम्यग्दर्शनादीनि
पूर्व प्रतिमाओं के साथ पाठ मास तक स्वयं मोक्षसुखाथिभिरनयेत्याराधना पाराध्यनिष्ठ पाराप्रारम्भ न करने वाले श्रावक को प्रारम्भविरत कहा धकव्यापारः उपजातसम्यग्दर्शनादिपरिणामस्यात्मजाता है।
नस्तद्गतातिशयवृत्तिः। (भ. प्रा. मूला. टी. १) । प्रारम्भ-समारम्भ-प्रारम्भसमारम्भो त्ति प्रारभ्य- ३. पाराधना परिशुद्धप्रव्रज्यालाभलक्षणा । (उप. प. न्ते विनाश्यन्त इति प्रारम्भा जीवास्तेषां समारम्भ व. ४६६) । उपमर्दः । अथवा प्रारम्भः कृष्यादिव्यापारस्तेन समा- १ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के उद्योतन, रम्भो जीवोपमर्दः । अथवा प्रारम्भो जीवानामुपद्रव- उद्यापन, निर्वहन, साधन एवं निस्तरण-भावान्तरणम्, तेन सह समारम्भः परितापनमित्यारम्भ-समा- प्रापण-को पाराधना कहते हैं। रम्भः, प्राणवधस्य पर्याय इति । अथवेहारम्भ-समा- अाराधनो भाषा-१. पाराहणी उ दव्वे सच्चा रम्भशब्दयोरेकतर एव गणनीयो बहसमरूपत्वादिति।xxx। (दशवै. नि. २७२)। २. प्राराध्यते (प्रश्नव्या. वृ. ११)।
परलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्यारा'प्रारभ्यन्ते विनाश्यन्ते इति प्रारम्भाः जीवाः' इस धनी। (दशव. नि. हरि.व. २७२)। निरुक्ति के अनुसार प्रारम्भ शब्द का अर्थ जीव २ जिस भाषा के द्वारा दूसरे प्राणियों को पीड़ा न होता है, उनके समारम्भ-पीडन का नाम पहुंचा कर वस्तु का यथार्थ कथन किया जाता है उसे प्रारम्भ-समारम्भ है । अथवा कृषि प्रादि व्यापार से प्राराधनी भाषा कहते हैं। जो प्राणिविघात होता है वह प्रारम्भसमारम्भ कह- प्राराम-१. विविधपुष्पजात्युपशोभित आरामः । लाता है । अथवा जीवों को उपद्रव के द्वारा जो (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १७)। २. आगत्य रमन्तेऽत्र संतप्त किया जाता है उसे प्रारम्भसमारम्भ जानना माधवीलतागृहादिषु दम्पत्य इति स पारामः । चाहिए। अथवा प्रारम्भ और समारम्भ इन दो (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १४२, पृ. २५८)। शब्दों में से किसी एक ही की गणना करना चाहिए। १ नाना जाति के पुष्पों से शोभित उपवन को प्राराधक-१. पंचिदिएहिं गुत्तो मणमाईतिविह- पाराम कहते हैं। करणमाउत्तो। तव-नियम-संजमंमि अ जुत्तो आराधनो प्रारोह-आरोहो नाम शरीरेण नातिदैर्घ्य नातिहोइ ।। (प्रोधनि. २८१, पृ. २५०)। २.णिहयकसानो ह्रस्वता,Xxx अथवा पारोहः शरीरोच्छायः। भव्वो दसणवंतो हु णाणसंपण्णो। दुविहपरिग्गह- (बृहत्क. व. २०५१)। चत्तो मरणे पाराहो हवइ॥ संसारसूहविरत्तो शरीर से न तो अति लम्बा होना और न अति वेरग्गं परमउवसमं पत्तो। विविहतवतवियदेहो मरणे छोटा भी होना, इसका ग्राम प्रारोह है। अथवा आराहो एसो ॥अप्पसहावे णिरो वज्जियपरदब्व- शरीर की ऊंचाई को पारोह कहते हैं। संगसुक्खरसो । णिम्महियराय-दोसो हवेइ आराहो प्रार्जव धर्म-१. मोत्तण कुडिलभाव णिम्मलहिदमरणे ॥ (प्रारा. सा. १७-१६)। ३.xxx येण चरदि जो समणो। प्रज्जवधम्म तइयो तस्स भव्यस्त्वाराधको विशुद्धात्मा। (भ. प्रा. मूला. १ दु संभवदि णियमेण । (द्वादशानु. ७३)। २. योगउद्धृत)।
स्यावक्रता प्रार्जवम् । (स. सि. ६-६; त. श्लो. ६, जो पांचों इन्द्रियों से गुप्त है अर्थात् उन्हें अपने ६; त. सुखबो. ह-६; त. वृत्ति श्रुत. ह-६)। ३. अधीन रखता है, मन प्रादि (वचन व काय) तीन भावविशद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । ऋजुभाव: करणों की प्रवृत्ति में सावधान है। तथा तप, नियम ऋजुकर्म वार्जवम्, भावदोषवर्जनमित्यर्थः । (त. भा. व संयम में संलग्न है; वह पाराधक कहलाता है। 8-६)। ४. योगस्यावक्रता प्रार्जवम् । योगस्य प्राराधना-१. उज्जोवणमुज्जवणं णिबहणं साहणं काय-वाङ्मनोलक्षणस्यावक्रता आर्जवमित्युच्यते । च णिच्छ (त्थ)रणं । दसण-णाण-चरित्तं तवाणमारा- (त. वा. ६, ६, ४)। ५. प्रज्जवं नाम उज्जुगत्तणं हणा भणिदा ॥ (भ. प्रा. २)। २. पाराध्यन्ते ति वा अकुडिलत्तणं ति वा। एवं च कुव्वमाणस्स - ल. २७
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आर्तध्यान] २१०, जैन-लक्षणावली
[प्रार्तध्यान कम्मणिज्जरा भवइ, अकुवमाणस्स य कम्मो- मोहाद् ध्यानं तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ वचयो भवइ। (दशवं. चू. पृ. १८; उज्जुता- (दशवै. नि. हरि. वृ. १-४८)। ७. ऋतं दुःखं भावो प्रज्जवं । (दशव. च.प. २३३)। ६. परस्मि- तन्निमित्तो ढाध्यवसायः, ऋते भवमातम, क्लिष्टनिकृतिपरेऽपि मायापरित्यागः प्रार्जवम् । (दशवै. मित्यर्थः। (ध्यानश. ५-पाव. हरि. व. पु. ५८४)। नि. हरि. व. १०-३४६)। ७. जो चितेइ ण वंकं ८. इष्टेतरवियोगादिनिमित्तं प्रायशो हि तत् । यथाकुणदि ण वंकं ण जंपए वंकं । ण य गोवदि णिय- शक्त्यपि हेयादावप्रवृत्त्यादिवजितम् ।। उद्वेगकृद्विदोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स ॥ (कार्तिके. ३९६)। षादाढयमात्मघातादिकारणम् । आर्तध्यानं xx ८. आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताऽभाव आर्जवम् । (भ. X॥ (हरि. अष्टक. १०,२-३)। ६. ऋतमर्दनप्रा. विजयो. टी. ४६)। ६. वाङ्मनःकाययोगा- मातिर्वा, तत्र भवमार्तम् । ऋतं दुःखम्, अथवा अर्दनामवक्रत्वं तदार्जवम् । (त. सा. ६-१६)। १०. नमातिर्वा, तत्र भवमार्तम् ।। (त. वा. ६, २८, १)। आर्जवं मायोदयनिग्रहः । (औपपा. अभय. व. १६, १०. तत्रातिरर्दनं बाधा ह्यात तत्र भवं पुनः । सुकृष्ण३३)। ११. योगस्य कायवाङ्मनोलक्षणस्यावक्रता- नील-कापोतलेश्याबलसमुद्भवम् ।। (ह. पु. ५६-४)। ऽऽर्जवमित्युच्यते । (चा. सा. पृ २८)। १२. ऋजो- ११. अातं दुःखभवं दुःखानुबन्धि चेति । (त. भा. र्भाव आर्जवं मनोवाक्कायानामवक्रता। (मूला. वृ. सिद्ध. ६-२६); आतिश्च दुःखं शारीरं मानसं ११-५)। १३. चित्तमन्वेति वाग येषां वाचमन्वेति चानेकप्रकारम, तस्यां भवमातं ध्यानम् । (त. भा. च क्रिया। स्वपरानुग्रहपराः सन्तस्ते विरला: कलौ॥ सिद्ध.व.-३१)। १२. ऋतमर्दनतिर्वा, ऋते (अन. घ. ६-२०)। १४. अज्जवो य अमाइत्तर भवमार्तमतौ भवमार्तमिति वा दुःखभावं प्रार्थनाXx। (ग. गु. षट्. स्वो. वृ. १३, पृ. ३८)। भाव वेत्यर्थः। (त. श्लो. ६-२८)। १३. अट १५. मनोवचन-कायकर्मणामकौटिल्यमार्जवम् । (त. तिव्वकसायं xxx || दु:खयरविसयजोए केम वृत्ति श्रुत. ६-६)। १६. ऋजुरवक्रमनोवाक्काय- इमं चयदि इदि विचितंतो। चेदि जो विक्खित्तो कर्मा, तस्य भावः कर्म वा आर्जवम्, मनोवाक्काय- अज्झाणं हवे तस्स ॥ मणहरविसयविनोगे कह तं विक्रियाविरहो मायारहितत्वम् । (सम्बोधस. वृ. पावेमि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो सो चिय १६०, पृ. १७; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-४३, पृ. अटें हवे ज्झाणं ॥ (कार्तिके. ४७१, ४७३-७४)। १२८)।
१४. तंबोल-कुसुम-लेवण-भूसण-पियपुत्तचिंतणं अट्ट। १ कुटिलता को छोड़कर निर्मल अन्तःकरण से (ज्ञा. सा. पद्म. ११)। १५. राग-द्वेषोदय प्रकर्षादिप्रवृत्ति करना प्रार्जव धर्म कहलाता है, जो मुनि के न्द्रियाधीनत्वराग-द्वेषोद्रेकात् प्रियसंयोगाऽप्रियवियोगसम्भव है।
वेदना-मोक्षण-निदानाकांक्षणरूपमार्तम् ॥ (पंचा. का. प्रार्तध्यान-१. अमणुण्णसंपयोगे इट्ठविरोए परि- अमृत, वृ. १४०)। १६. प्रियभ्रंशेऽप्रियप्राप्तौ निदाने स्सहणिदाणे । अटें कसायसहियं झाणं भणियं समा- वेदनोदये । पातं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः।। सेण ॥ (भ. प्रा. १७०२)। २. अमणुण्णजोग-इट्ठ- (त. सा. ७-३६) । १७. ऋते भवमथार्तं स्यादसद्विप्रोग-परीषह-णिदाणकरणेसु । अट कसायसहियं ध्यानं शरीरिणाम् । दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्याझाणं भणिदं समासेण ॥ (मला. ५-१९८)। ३. वासनावशात् ॥ (ज्ञानार्णव २५-२३)। १८. ऋतं आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वा- दुःखम, तस्य निमित्तं तत्र वा भवम्, ऋते वा हारः। विपरीतं मनोज्ञस्य ।। वेदनायाश्च ।। निदानं पीडिते भवमातं ध्यानम्। (स्थाना. अभय. व. ४, च ।। (त. सू. ६, ३०-३३)। ४. ऋतं दुःखम्, अर्द- १, २४७)। १६. तत्रात मनोज्ञामनोज्ञेषु वस्तुषु नमतिर्वा, तत्र भवमार्तम् । (स. सि. ९-२८, त. वियोग-संयोगादिनिवन्धनचित्तविक्लवलक्षणम् । (स. सुखबो. ६-२८; त. वत्ति श्रत. ९-२८)। ५. तत्थ मवा. अभय.व. ४)। २०. तत्र ऋतं द:खंत संकिलिट्ठज्झवसानो अटें । (दशवं. चू. पृ. २६)। भवमार्तम्, यद्वा अतिः पीडा यातनं च, तत्र भवमा६. राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु स्त्रीगन्धमाल्य- तम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-७३)। २१. स्वदेशमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति त्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीय
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आर्तध्यान] २११, जैन-लक्षणावली
[आलम्बन कामिनीवियोगादनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्या- किये जाते हैं वे आर्य कहलाते हैं। नम् ॥ (नि. सा. वृ. ६६) । २२. अनिष्टयोग-प्रिय- प्रायिका- आर्यिका उपचरितमहाव्रतधराः स्त्रियः । विप्रयोगप्रभृत्यनेकातिसमुद्भवत्वात् । भवोद्भवातरथ हेतुभावाद्यथार्थमेवात मिति प्रसिद्धम्। (प्रात्मप्र. उपचरित महाव्रतों को धारक महिलाओं को ६१)। २३. आत विषयानुरञ्जितम् । (धर्मसं. आर्यिका कहा जाता है। मान. स्वो. वृ. ३-२७, पृ. ८०)। २४. प्रार्तभावं आर्ष विवाह-१. गोमिथुनपुरःसरं कन्याप्रदानागत प्रातः, आर्तस्य वा ध्यानमार्तध्यानम् । (प्रा. दार्षः । (धर्मबि. मु. ३. १-१२)। २. गोमिथुनदानचू. ४ अ.-अभिधा. १, पृ. २३५)। २५. अतिः पूर्वकमार्षः। (श्राद्धगु. पृ. १; योगशा. स्वो. विव. शारीर-मानसी पीडा, तत्र भव प्रातः, मोहोदयाद- १-४७; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-५, पृ. ५)। गणितकार्याकार्यविवेकः । (अभिधा. १, पृ. २३५)। गौयगल के दानपूर्वक कन्या प्रदान करने को प्रार्ष २६. निदइ निप्रयकयाइं पसंसई विम्हिरो विभूईओ। विवाह कहते हैं। पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होई ॥ सद्दा
क्रिया-प्रार्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति इविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो । जिणमय
परा किया। यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसम्पदः ।। मणविक्खंतो वट्टइ अम्मि झाणम्मि ॥ (पाव. ४
यासो दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याणसम्पदाम् । अ. १६-१७-अभिधा. १, पृ. २३७)। २७. शब्दा
तदार्हन्त्यमिति ज्ञेयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ।। (म.पु. दीनामनिष्टानां वियोगासंप्रयोगयोः । चिन्तनं वेद
३६, २०३-४)। नायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषः । इष्टानां प्रणिधानं च
परहंत के भाव अथवा कर्मरूप क्रिया को पार्हन्त्य संप्रयोगावियोगयोः । निदानचिन्तनं पापमार्तमित्थं
क्रिया कहते हैं, जिसमें स्वर्गावतरणादि रूप चतुर्विधम् ।। (अध्यात्मसार १६, ४-५)।
कल्याण-सम्पदायें प्राप्त होती हैं। स्वर्ग से अवतीर्ण १ अनिष्ट का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए,
हुये भगवान् अरहंत को जो कल्याण-सम्पदानों की इष्ट का वियोग होने पर उसकी प्राप्तिके लिए, पीड़ा
प्राप्ति होती है वह प्रार्हन्त्य क्रिया कहलाती है, जो के होने पर उसके परिहार के लिए, तथा निदान
तीनों लोकों को क्षोभ उत्पन्न करने वाली है। आगामी काल में सुख की प्राप्ति की इच्छा के लिए
प्रालपनबन्ध-देखो पालापनबन्ध । रथ-शकटाबार-बार चिन्तन करना; इसे प्रार्तध्यान कहते हैं।
दीनां लोहरज्जु-वरत्रादिभिरालपनादाकर्षणात् बन्धः प्रार्य-१. गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः। (स.
पालपनबन्धः । अनेकार्थत्वात् धातूनां लपि: पाकसि. ३-३६; त. वा. ३, ३६, २; रत्नक. टी. ३,
र्षणक्रियो ज्ञेयः । (त. वा. ५, २४, ६)। २१; त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। २. इक्ष्वाकु-हर्युग्र
रथ व शकट आदि के अंग-उपांगरूप काष्ठ प्रादि कुरुप्रधाना: सेनापतिश्चेति पुरोहिताद्याः। धर्मप्रिया
को लोहमय सांकल व रस्सी आदि के द्वारा खींच स्ते नृपते त एव आर्यास्त्वनार्या विपरीतवृताः ।। (वरांग. ८-४)। ३. सदगुणरर्यमाणत्वाद् गुणवद्
कर बांधना, यह मालपनबन्ध कहलाता है। भिश्च मानवः । (त. श्लो. ३, ३७, २) । ४. अर्ध- प्रालब्ध दोष- १. उपकरणादिकं लब्ध्वा यो षडविंशतिजनपदजाताः भूयसा आर्याः । अन्यत्र जाता वन्दनां करोति तस्यालब्धदोषः। (मला. व. ७, म्लेच्छाः । तत्र क्षेत्र-जाति-कूल-कर्म-शिल्प-भाषा- १०६) । २. उपध्याप्त्या क्रिया लब्धम् । (अन. ध. ज्ञान-दर्शन-चारित्रेष शिष्टलोकन्यायधर्मानपेताचरण- स्वो. टी. ८-१०६)। शीला पार्याः । (त. सिद्ध. वृ. ३-१५)। ५. आराद १ उपकरण प्रादि पाकर गुरु की वन्दना करने को हेयधर्मेभ्यो याताः प्राप्ता उपादेयधर्मरित्यार्याः ।। प्रालब्ध दोष कहते हैं। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३७, पृ. ५५)।
मालम्बन-१. आलंबणेहिं भरियो लोगो झाइदु१ जो गुणों से युक्त हों, अथवा गुणी जन जिनकी मणस्स खवगस्स । जं जं मणसा पेच्छइ तं तं पालसेवा-सुश्रुषा करते हैं उन्हें प्रार्य कहते हैं । ५ जो हेय बणं होई । (धव. पु. १३, पृ. ७०)। २. पालम्बनं धर्म वालों में से उपादेय धर्म वालों के द्वारा प्राप्त वाच्ये पदार्थे अर्हत्स्वरूपे उपयोगस्यैकत्वम् । (ज्ञान
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आलम्बन-ग्रहणसाधन]
२१२, जैन-लक्षणावली
[पालीढ स्थान
सार दे. वृ. २७-५)। ३. पालम्बनं बाह्यो विषयः। पालावियाणं बंधो होदि सो सम्वो पालावणबंधो (षोडशक वृ. १३-४)।
णाम । (षट्खं. ५, ६, ४१-पु. १४, पृ. ३८) । १ सारा लोक ध्यान के पालम्वनों से भरा हुआ है। २. से किं तं आलावणबंधे ? पालावणबंधे ज णं ध्याता साधु जिस किसी भी वस्तु को आधार बना तणभाराण वा, कट्टभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलाकर मन से चिन्तन करता है वही उसके लिए ध्यान लभाराण वा, वेल्लभाराण वा, वेत्तलता-वाग-वरत्तका पालम्बन बन जाती है। ३ ध्यान के आधार- रज्जु-वहिल-कुस-दब्भमादीएहिं पालावणबंधे समुभूत बाह्य पदार्थ को उसका पालम्बन कहा। प्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज जाता है।
कालं, सेत्तं पालावणबंधे। (भगवती ८, ९, ११आलम्बन-ग्रहरणसाधन-१. जेण वीरियेण प्राण- खण्ड ३, पृ. १०३)। ३. रज्जु-वरत्त-कट्ठदव्वादीहि पाण-भास-मणाणं पाउग्गपोग्गले कायजोगेण घेत्तुण जं पूधभूदाणं [दव्वाणं बंधणं सो आलावणबंधो प्राणपाण-भास-मणत्ताए प्रालंबिता णिसिरति तं णाम । (धव. पु. १४, प. ३४); कद्रादीहि वीरियं बालंबणगहणसाहणं ति वच्चति । (कर्मप्र. अण्णदव्वेहि अण्णदव्वाणं पालाविदाणं जोइदाणं जो चु. बं. क. ४, पृ. २१)।
बंधो होदि सो सव्वो पालावणबंधो णाम । (धव. जिस शक्तिविशेष के द्वारा श्वासोच्छ्वास, भाषा पु. १४, पृ. ३६) । ३. तृण-काष्ठादिभाराणां रज्जुऔर मन के योग्य पुदगलों को काययोग से ग्रहण वेत्रलतादिभिः। संङ्ख्यकालान्तमहतौं बन्ध पालाकर श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनरूप से अवल- पनाभिधः ।। (लोकप्र. ११-३२) । म्बित कर निकालता है उसे पालम्बन-ग्रहण-साधन १ शकट (बड़े पहियों वाली गाड़ी), यान (समुद्र में कहते हैं।
गमन करने वाली नौकाविशेष), युग (घोड़ा व आलम्बनशुद्धि- पालम्बनशुद्धिर्गुरु-तीर्थ-चैत्य-यति- खच्चर से खींचा जाने वाला तांगा जैसा), छोटे वन्दनादिकमपूर्वशास्त्रार्थ ग्रहणम्, संयतप्रायोग्यक्षेत्रमा- पहियों वाली छोटी गाड़ी, गिल्ली (पालकी), रथ र्गणम्, वैयावृत्यकरणम्, अनियतावासस्वास्थ्यसम्पा- (युद्ध में काम आने वाला), स्यन्दन (चक्रवर्ती आदि दने श्रमपराजयम् (मूला.-संपादनं श्रमजयो), महापुरुषों की सवारी), शिविका (पालकी), नानादेशभाषाशिक्षणम्, विनेयजनप्रतिबोधनं चेति गृह, प्रासाद, गोपुर और तोरण; इन सबका जो प्रयोजनापेक्षया पालम्बनशुद्धिः । (भ. प्रा. विजयो. लकड़ी, लोहा, रस्सी, चर्ममय रस्सी और दर्भ व मूला. टी. ११६१)।
(काश) प्रादि से बन्धन होता है उसे पालापनबन्ध गुरु, तीर्थ, चैत्य एवं यति आदि की वन्दनापूर्वक- कहते हैं। अभिप्राय यह कि लकड़ी प्रादि अन्य अपूर्व शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करना; संयत के द्रव्यों से जो पृथग्भूत दूसरे द्रव्यों का सम्बन्ध होता योग्य स्थान का अन्वेषण करना; साधुओं की वैया- है उसे पालापनबन्ध कहते हैं। वृत्य करना, अनियत आवासों में रहकर स्वास्थ्य- प्रालीढ स्थान-१. तत्थ पालीढं नाम दाहिणं लाभ करना, परिश्रमजयी होना, नाना देशों की पायं अग्गतोहुत्तं काऊणं वामपायं पच्छतोहुत्तं उसाभाषाओं का सीखना, तथा विनेय (शिष्य) जनों रेउ अंतरा दोण्हवि पादाणं पंच पाए। (प्राव. नि. को प्रतिबोध देना; यह सब प्रयोजन की अपेक्षा मलय. वृ. १०३६, पृ. ५६७)। २. तत्र दक्षिणमूरुआलम्बनशुद्धि है।
मग्रतो मुखं कृत्वा वाममूरु पश्चान्मुखमपसारयति, पालापनबन्ध-देखो आलपनबन्ध । १. जो सो अन्तरा च द्वयोरपि पादयोः पञ्च पादाः, ततो वामआलावणबंधो णाम तस्स इमो णि सो-सगडाणं हस्तेन धनुगृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यञ्चामाकर्षति, वा जाणाणं वा जुगाणं वा गड्डीणं वा गिल्लीणं वा तत् पालीढस्थानम् । (व्यव. भा. मलय. व. २-३५, रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पृ. १३)। पासादाणं वा गोवराणं वा तोरणाणं वा से कटठेण २दाहिने पैर को प्रागे करके और बायें पैर को वा लोहेण वा रज्जुणा वा बभेण वा दम्भेण वा पांच पादों के अन्तर से पीछे पसार कर बायें हाथ जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि में धनुष लेकर दाहिने हाथ से उसकी प्रत्यञ्चा को
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पालुंछन]
२१३, जैन-लक्षणावली
[आलोचन
खींचते हए खड़े होने को प्रालीढस्थान कहते हैं। निषण्णाय प्रसन्नमनसे विदितदेश-कालस्य शिष्यस्य पालु छन-कम्म-महीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीय- सविनयेनात्मप्रमादनिवेदनं दशभिर्दोषविवजितमालोपरिणामो। साहीणो समभावो पालंछणमिदि समु- चनमित्याख्यायते । (त. वा. ६, २२, २)। ६. प्राद्दिढें ।। (नि. सा. ११०) ।
लोचनं मर्यादया गुरोनिवेदनं पिण्डिताख्यानस्य । (त. कर्मरूप वृक्ष के मलोच्छेद करने में समर्थ ऐसे स्व- भा. हरि. व.-२२)। ७. पालोचनं मर्यादनं मर्याकीय स्वाधीन समभावरूप परिणाम को पालुंछन दया गुरोनिवेदनम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२२)। कहते हैं।
८. पालोचनं प्रमादस्य गुरवे विनिवेदनम् । (त. सा. प्रालेपनबन्ध-देखो अल्लीवणबन्ध । कुडयप्रासा- ७-२२)। ६. एकान्तनिषण्णायापरिश्राविणं दादीनां मृत्पिण्डेष्टकादिभिः प्रलेपदानेनान्योन्यालेप- रहस्याय गुरवे प्रसन्नमनसे विद्यायोग्योपकरणग्रहणानादर्पणादालेपनबन्धः । (त. वा. ५, २४, ६)। दिष प्रश्नविनयमन्तरेण प्रवृत्तस्य विदितदेश-कालस्य भित्ति व भवन आदि के मिट्टी व ईंट आदि से लेप शिष्यस्य सविनयमात्मप्रमादनिवेदनमालोचनमित्युदेने से जो परस्परमें एकरूपता होती है उसे पालेपन- च्यते । (चा. सा. पृ. ६१)। १०. पालोचनं गुरुबन्ध कहते हैं।
निवेदनम्। (स्थाना. अभय. व. ३, ३, १६८)। आलोकितपान-भोजन-१. पालोकितपानभोजन- ११. आलोचनं दशदोषविवजितं गुरवे प्रमादनिवेमिति प्रतिगेहं पात्रमध्यपतितपिण्डश्चक्षुराधुपयुक्तेन दनमालोचनम् । (मला. व. ११-१६)। १२. तत्रा.' प्रत्यवेक्षणीयस्तत्समुत्थागन्तुकसत्त्वसंरक्षणार्थमागत्य च लोचनं गुरोः पुरतः स्वापराधस्य प्रकटनम् । तच्चाप्रतिश्रयं भूयः प्रकाशवति प्रदेशे स्थित्वा सुप्र [त्यसेवनानुलोम्येन प्रायश्चित्तानुलोम्येन च । प्रासेवनावेक्षितं पानभोजनं विधाय प्रकाशप्रदेशावस्थितेन नुलोम्यं येन क्रमेणातिचार आसेवितस्तेनैव क्रमेण बल्गनीयम् । (त. भा. सिद्ध. व. ७-३)। २. प्रा- गुरोः पुरतः प्रकटनम् । प्रायश्चित्तानुलोम्यं च गीतालोक्यते स्मालोकितम् । पानं च भोजनं च पानभो- र्थस्य शिष्यस्य भवति । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०, जनम् । आलोकितं च तत्पानभोजनं चालोकित- प्र.३१२)। १३. तत्र गुरवे स्वयं कृतवर्तमानप्रमादपानभोजनम् ॥ (त. सुखबो. ७-४)। ३. पानं च निवेदनं निर्दोषमालोचनम् । (त. सुखबो. वृ. ६-२२, भोजनं च पान-भोजने, आलोकिते सूर्यप्रत्यक्षेण पुनः पृ. २१६)। १४. पालोचनं सत्कर्मणां वर्तमानशुपुननिरीक्षिते ये पान-भोजने ते आलोकितपान- भाशुभकर्मविपाकानामात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलम्भनम् । भोजने । अथवा पानं च भोजनं च पानभोजनं समा- अन. ध. स्वो. टी. ८-६४)। १५. पाङ मर्यादाहारो द्वन्द्वः। आलोकितं च तत् पानभोजनं च पालो- याम् । सा च मर्यादा इयम्--जह कितपानभोजनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-४) । कज्जमकज्ज उज्जुए भणइ । तं तह पालोएज्जा २ प्रकाश में देख कर भोजन-पान करने को आलोकित- माया-मयविप्पमुक्को य । अनया मर्यादयाxxx पान-भोजन कहते हैं।
लोकनं लोचना प्रकटीकरणम् आलोचनम्, गुरोः अालोचन -देखो आलोचना। १. सुहमसुहम्- पुरतो वचसा प्रकटीकरणमिति भावः । यत् प्रायदिणं संपडिय अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो श्चित्तमालोचनामात्रेण शुद्धयति तदालोचनाहतया चेददि स खलु आलोयणं चेदा॥ (समयप्रा. ४०५)। कारणे कार्योपचारादालोचनम् । (व्यव. भा. मलय. २. जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्त परिणाम। वृ. १-५३, पृ. २०)। १६. एकान्तनिषण्णाय आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥ (नि. प्रसन्नचेतसे विज्ञातदोष-देश-कालाय गुरवे तादृशेन सा. १०६) । ३. तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोष- शिष्येण विनयसहितं यथाभवत्येवमवञ्चनशीलेन विवजितमालोचनम् । (स. सि. ९-२२; त. श्लो. शिशुवत्सरलबुद्धिना प्रात्मप्रमादप्रकाशनं निवेदन६-२२)। ४. पालोचनं विवरणं प्रकाशनमाख्यानं माराधनाभगवतीकथितदशदोषरहितमालोचनम् । प्रादुःकरणमित्यनर्थान्तरम् । (त. भा. ६-२२)। (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२; कातिके. टी. ४४६)। ५. तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोषजितमालोच- १७. गुरोरने स्वप्रमादनिवेदनं दशदोषरहितमालोचनम् । तेषु नवसु प्रायश्चित्तविकल्पेषु गुरवे एकान्ते नम् । (भावप्रा. टी. ७८) ।
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आलोचना] २१४, जैन-लक्षणावली
[प्रावरण १ अनेक भेदरूप जो शुभाशुभ कर्म उदय को प्राप्त और जाति प्रादि की कल्पना से रहित वस्तुसामान्य होते हैं उनको प्रात्मस्वरूप से पृथक् समझ कर दोष का जो मर्यादापूर्वक बोध होता है उसे पालोचना रूप मानना, इसका नाम पालोचन है। ३ गुरु के कहा जाता है। सम्मख दस दोषों से रहित अपने प्रमादजनित दोषों पालोचनानय-(नयतो नयप्रपञ्चतः इत्यर्थः । के निवेदन करने को पालोचन कहते हैं।
अथवा कदा कारक इत्येतावद् द्वारं गतम्, नयत पालोचना-देखो आलोचन । १. करणिज्जा जे इत्येतत्तु द्वारान्तरमेव) इहाभिमुख्येन गुरोरात्मदोषजोगा तेसूवउत्तस्स निरइयारस्स । छउमत्थस्स प्रकाशनम् अालोचनानयः । (प्राव. भा. हरि. व. विसोही जइणो पालोयणा भणिया। (जीतक. सू. १७८, पृ. ४६६)। ५)। २. उग्गहसमयाणंतरं सब्भूयविसेसत्थाभि- प्रमुखता से गुरु के समक्ष अपने दोषों के प्रगट करने मुहमालोयणं पालोयणा भण्णति । (नन्दी. चू. का नाम पालोचनानय है । पृ. २६) । ३. तत्थ आलोयणा नाम अवस्स- आलोचनानुलोम्य - आलोचनानुलोम्यं तु पूर्व करणिज्जेसु भिक्खायरियाईसु जइवि अवराहो नत्थि- लघवः पालोच्यन्ते पश्चाद् गुरवः । (प्राव. नि. हरि. तहावि प्रणालोइए अविणपो भवइ त्ति काऊण अवस्सं वृ. १५०१)। पालोएयव्वं । सो जइ किंचि अणेसणाइ अवराहं गुरु के सामने पहले लघु अपराधों की और पीछे सरेज्जा, सो वा पायरितो किंचि सारेज्जा तम्हा गुरु अपराधों की आलोचना करने को पालोचनानपालोएयव्वं । पालोयणं ति वा पगासकरणं ति वा लोम्य कहते हैं। अक्खणं विसोहि त्ति वा । (दशवै. चू. १, पृ. २५)। आलोचनाह - पालोयणारिहं-या मज्जायाए ४. आलोयणा पयडणा भावस्स सदोसकहणमिह वट्टइ। का सा मज्जाया ? जह बालो जंपतो कज्जगझो। गुरुणो एसा य तहा सुविज्जराएण विन्ने- मकज्जं च उज्जुनो भणइ । तं तह पालोएज्जा प्रा॥ (मालो. वि. हरि.१५-३) । ५. आलोचना माया-मयविप्पमुक्को उ॥ एसा मज्जाया। आलोप्रयोजनवतो हस्तशताद् बहिर्गमनागमनादौ गुरोवि- यणं पगासीकरणं समुदायत्थो। गुरुपच्चक्खीकरणं कटना । (प्राव. नि. हरि. व. १४१८, पृ. ७६४)। मज्जायाए । ज पावं पालोइयमेत्तेणं चेव सुज्झइ एयं ६. प्राङ् मर्यादायाम्, आलोचनं दर्शनं परिच्छेदो आलोयणारिहं । (जीतक. चू. पृ. ६)। . मर्यादया यः स पालोचनं यथोक्तं पुरस्ताद् वस्तु- जिन अपराधों की शुद्धि केवल पालोचना से ही सामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूप-नाम-जात्यादिकल्पना- हो जाती है उन्हें पालोचनाह कहते हैं। वह पालोवियूतस्य यः परिच्छेदः सा आलोना मर्यादया चना मर्यादापूर्वक-बालक के समान माया और भवति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१५)। ७. गुरूण- मद से रहित होकर-सरलतापूर्वक की जानी मपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरु चाहिए। व्व थिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पाय- आलोचनाशुद्धि-१. हंतूण कसाए इंदियाणि च्छित्तं । (धव. पु. १३, पृ. ६०)। ८. स्वकृताप- सव्वं च गारवं हंता। तो मलिदराग-दोसो करेहि राघगृहनत्यजनमालोचना । (भ. प्रा. विजयो. टी. आलोयणासुद्धि ॥ (भ. प्रा. ५२४) । २. माया६); स्वापराधनिवेदनं गुरूणामालोचना । (भ. प्रा. मृषारहितता पालोचनाशुद्धिः । (भ. प्रा. मूला. टी. विजयो. टी. ६६)। ६. स एव वर्तमानकर्मविपा- १६६)। कमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलम्भमानः पालोचना भवति। १ क्रोधादि कषाय, इन्द्रियविषय, सब (तीनों प्रकार (समयप्रा. अमृत. वृ. ४०५)।
का) गारव और राग-द्वेष को दूर कर आलोचना ३. अवश्यकरणीय भिक्षाचर्या (भिक्षार्थ गमन) आदि करने को पालोचनाशद्धि कहते हैं। में यद्यपि अपराध नहीं है, फिर भी आलोचना करना प्रावरण-१. प्रावरणं कारणभूतं (प्रज्ञानादिदोचाहिए क्योंकि प्रालोचना न करने पर अविनय षजनक) कर्म । अथवाxxxज्ञान-दर्शनावरणे होता है । पालोचना, प्रकाशकरण, और अक्खण (?) आवरणम् ।(प्रा. मी. वृ. ४)। २. प्रावियते आच्छाविशद्धि: ये सब समानार्थक हैं। ६ अपने रूप, नाम द्यतेऽनेनेत्यावरणम् । यद्वा प्रावृणोति आच्छादयति
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आवर्जन]
२१५, जैन-लक्षणावली
[आवश्यक
xxxआवरणं मिथ्यात्वादिसचिवजीवव्यापा- प्रावलि-१. असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिराहृतकर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः । (कर्म- समागमेणं सा एगा प्रावलिन त्ति वुच्चइ । (अनुयो. वि.दे. स्वो. टी. ३, पृ. ४)।।
सू. १३७; जम्बूद्वी. सू. १८; भग. सू. ६-७)। १ अज्ञानादि दोषों के कारणभत कर्म को प्रावरण २. ते (समयाः) संखा प्रावलिया।(जीवस. १०६)। कहते हैं । अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो ३. ते त्वसङ्ख्येया श्रावलिका । (त. भा. ४-१५)। कर्म प्रावरण कहलाते हैं।
४. होंति हु असंखसमया पावलिणामोxxx। आवर्जन-उक्तं च-पावज्जणमूवमोगो बावारो (ति. प.४.२८७)। ५. असंख्येयाः समया पावलिका। वा इति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३६, पृ. ६०४)। (त. वा. ३, ३८, ७)। ६. प्रावलिका असंख्येयसआवर्जन का अर्थ उपयोग या व्यापार होता है। मयसंघातोपलक्षितः कालः । (नन्दी. हरि. व. पु. केवलिसमद्घात के समय वेदनीय, नाम और गोत्र ३६; प्राव. नि. हरि. बृ. ३२ एवं ६६३)। ७. कर्मों की स्थिति को प्राय के समान करने के लिये।
तेसि (समयाणं) असंखेज्जाण समुदयसमितीए प्रावजो व्यापार होता है वह आवर्जनकरण कहलाता है। लिया। (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५४) । ८. असंख्येय
समयसमुदायः प्रावलिका। (पंचसं. स्वो. व. २, प्रार्वाजतकरण-देखी पायुक्तकरण-१. केवलि
४२, पृ. ७६) । ६. ते चासंख्येयाः समया पावलिका समुग्धादस्स अहिमुहीभावो आवज्जिदकरणमिदि ।
भण्यते । सा च जघन्ययुक्तासंख्येयसमयप्रमाणा (जयध. अ. प. १२३७ –धव. पु. १०, पृ.
भवति । (त. भा.सिद्ध.व.४-१५ प्राव. नि. मलय. ३२५ का टि.७)।२.अपरे प्रावजितकरणमित्याहुः ।
व. ६६३; जीवाजी. वृ. ३, २, १७८) । १०. असंतत्रायं शब्दार्थः-प्रावजितो नाम अभिमुखीकृतः ।
खेज्जे समए घेत्तण एया आवलिया हवदि xxx तथा च लोके वक्तारः प्रावजितोऽयं मया, सम्मुखीकृत इत्यर्थः । ततश्च तथा भव्यत्वेनाजितस्य मोक्ष
आवलि असंखसमया। (धव. पु. ३, पृ. ६५; गमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं क्रिया शभयोगव्या- पु. ४, पृ. ३१८)। ११. तेसि पि य समयाणं संखा
रहियाण आवली होई। (भावसं. दे. ३१२)। पारणं आवर्जितकरणम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३६,
१२. श्रावलि असंखसमया xxx । (जं. दी. पृ. ६०४; पंचसं. मलय. वृ. १-१५, पृ. २८)।
प. १३-५; गो. जी. ५७४) । १३. जघन्ययुक्ता२ मोक्ष गमन के प्रति अभिमुख हुए जीव (केवली)
संख्यातसमयराशिः प्रावलिः। (गो. जी. जी. प्र. के द्वारा की जानेवाली क्रिया-शुभ भोगों के
५७४) । १४. प्रावलि तेहि समएहिं असंखहि व्यापार-को प्रावजितकरण कहते हैं। इसे प्रायो
किज्जइ। (म. पु. पुष्प. २, सं. २२)। १५. असंजिकाकरण भी कहते हैं।
ख्येयसमयसमुदायात्मिका प्रावलिका । (सूर्यप्र. मलय. प्रावर्तनता-१. वय॑तेऽनेनेति वर्तनं क्षयोपशम
वृ.३०, १०५-६)।१६. प्रावलिका असंख्यातकरणमेव, ईहाभावनिवृत्यभिमुखस्यापायभावप्रतिप- समयरूपा । (कल्पसू. वि. वृ. ६-११८) । १७. असंत्यभिमुखस्य चार्थविशेषावबोधविशेषस्य प्रा मर्या- ख्येयैः समयरेकावलिका । (प्रज्ञाप. मलय. व. दया वर्तनमावर्त्तनम, तदभाव पावर्तनता; (नन्दी. . . हरि. व. पृ. ६६)। २. ईहातो निवृत्यापायभाबं १ असंख्यात समयसमह की एक प्रावलि होती है। प्रत्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन स आवर्तन- प्रावश्यक (प्रावासय)-१. ण वसो अवसो अवस्तदभाव पावर्त्तनता। (नन्दी. मलय.वृ. सू. ३२)। सस्स कम्ममावासयं ति बोद्धव्वा । (मूला.७-१४)। २ जिस बोध परिणाम के द्वारा ईहासे निवृत्त होकर २. समणेण सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा। अपायभाव के प्रति अभिमुख होता है उसका नाम अंतो अहोनिसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ।। (अनुप्रावर्तन और उसके भाव का नाम प्रावर्तनता है। यो. स. २८, गा. २, पृ. ३१, विशेषा. ८७६)। प्रावर्षण-आवर्षणम् उदकेन छटकप्रदानम् । ३. आवस्सगं अवस्सकरणिज्जं जं तमावसं, अहवा (बृहत्क. वृ. १६८१)।
गुणाणमावासत्तणतो, अहवा प्रा मज्जायाए वासं -जल से छींटे देने का नाम प्रावर्षण है।
करेइ त्ति आवासं, अहवा जम्हा तं प्रावासयं जीवं
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आवश्यककरण]
२१६, जैन-लक्षणावली _ [आवश्यकापरिहाणि आवासं करेति दसण-णाण-चरणगुणाण तग्हा तं चैकार्थः, निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति नियुआवासं, अहवा तक्करणातो णाणादिया गुणा आव- क्तिः । आवश्यकानां निर्यक्तिः अावश्यकनिर्यवितसिंति त्ति आवासं, अहवा आ मज्जायाते पसत्थभाव- रावश्यकसम्पूर्णोपायः । अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाणातो आवासं, अहवा आ मज्जाए वस आच्छादने चरणं तस्यावबोधकं पृथक् पृथक् स्तुतिरूपेण "जयति पसत्थगुणेहि अप्पाणं छादेतीति पावासं । (अनुयो. भगवानित्यादि" प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं चू. पृ. १४)। ४. श्रमणादिना अहोरात्रस्य मध्ये न्याय आवश्यकनियुक्तिरित्युच्यते । (मूला. वृ. ७, यस्मादवश्यं क्रियते तस्मादावश्यकम् । (अनुयो. १४)। ५. यस्मात् सूत्रे निश्चयेनाधिक्येन साधु वा मल. हेम. व. २८, पृ. ३१) । ५. अवश्यं कर्तव्य- आदौ वा युक्ताः सम्बद्धा निर्युक्ताः, निर्युक्ता एव मावश्यकम्, अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोती- सन्तस्ते श्रुताभिधेया जीवाजीवादयोऽर्था अनया त्यावश्यकम्, यथा अन्तं करोतीत्यन्तकः। अथवा प्रस्तुतनियुक्त्या बद्धा व्यवस्थापिताः, व्याख्याता 'वस निवासे' इति गुणशून्यमात्मानमावासयति गुणे- इति यावत्, तेनेयं भवति नियुक्तिः । नियुक्तानां रित्यावासकम्, गुणसान्निध्यमात्मानं करोतीति सूत्रे प्रथममेव सम्बद्धानां सतामर्थानां व्याख्यारूपा भावार्थः । (प्राव. हरि. वृ. पृ. २१; अनुयो. हरि. युक्तिर्योजनम् । नियुक्तियुक्तिरिति प्राप्ते शाकपाथिवृ. पृ. ३; अनुयो. मल. हेम. वृ. ८, पृ. १०-११)। वादिदर्शनात् युक्तलक्षणस्य पदस्य लोपात् नियु२ श्रमण (मुनि) और श्रावक दिन-रात के भीतर क्तिरिति भवति । (प्राव. नि. मलय. वृ. ८८)। जिस विधि को अवश्यकरणीय समझ कर किया १ 'निर' का अर्थ निरवयव या सम्पूर्ण और युक्ति करते हैं उसका नाम आवश्यक है।
___का अर्थ उपाय है। तदनुसार सम्पूर्ण या अखण्डित पावश्यक करण-अन्ये 'आउस्सियकरणं' इति उपाय को नियुक्ति जानना चाहिए। ४ साधु
ब्रुवते । तत्राप्ययमन्वर्थः-आवश्यकेन अवश्यंभावेन साध्वियों के देवसिक और रात्रिक आवश्यक कर्तव्यों .....करणमावश्यककरणम् । तथाहि-समुदघातं केचित् के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को प्रावश्यक
कुर्वन्ति, केचिच्च न कुर्वन्ति । इदं त्वावश्यकरणं नियुक्ति कहते हैं। सर्वेऽपि केवलिनः कुर्वन्तीति । (प्रज्ञाप. मलय. व. अावश्यकापरिहारिण-१. षण्णामावश्यकक्रियाणां
३६-३४५, प. ६०४-५, पंचसं. मलय. व. १५, यथाकालं प्रवर्तनमावश्यकापरिहाणिः। (स. सि. ६, .. पृ. २८)।
२४) । २. षण्णामावश्यकक्रियाणां यथाकालप्रवर्तनजिस क्रिया को अवश्य-अनिवार्यरूप से-किया मावश्यकापरिहाणिः । षडावश्यकक्रिया:-सामाजाता है उसे अावश्यककरण कहते हैं। जैसे- यिक चतुर्विशतिस्तव: वन्दना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं केलिसमधात को कितने ही केवली किया करते कायोत्सर्गश्चेति । तत्र सामायिकं सर्वसावद्ययोगनिहैं और कुछ नहीं भी किया करते हैं, पर इस पाव- वृत्तिलक्षणं चित्तस्यैकत्वेन ज्ञाने प्रणिधानम्। चतुश्यककरण को तो सभी केवली किया करते हैं। विशतिस्तव: तीर्थकरगुणानुकीर्तनम् । वन्दना त्रिशु
आवश्यकनियुक्ति-१. जुत्ति त्ति उवाय त्ति य द्विः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना । णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती ॥ (मूला. ७-१४)। अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम्, अनागतदोषापोहनं २. णिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ति । प्रत्याख्यानम्, परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनि(प्राव. नि. ८८) । ३. निश्चयेन सर्वाधिक्येन प्रादौ वृत्तिः कायोत्सर्गः । इत्येतासां षण्णामावश्यकक्रियावा युक्ता निर्युक्ताः, अर्यन्त इत्यर्थाः जीवादयः श्रुत- णां थथाकालप्रवर्तनम् अनौत्सुक्यं आवश्यकाऽपरिविषयाः, ते ह्या निर्युक्ता एव सूत्रे, यत् यस्मात् हाणिरिति परिभाष्यते । (त. वा. ६, २४, ११; बद्धा सम्यग् अवस्थापिताः योजिता इति यावत्, ते नेयं त. सुखबो. वृ. ६-२४)। ३. एदेसि (समदा-थवनियुक्तिः । निर्युक्तानां युक्तिनियुक्तिरिति प्राप्ते वंदण-पडिक्कमण-पच्चक्खाण-विनोसग्गाणं) छण्ण यूक्तशब्दस्य लोपः क्रियते-उष्ट्रमुखी कन्येति यथा, आवासयाणं अपरिहीणदा अखंडदा आवासयापरिहीनिर्युक्तार्थव्याख्या नियुक्तिरिति हृदयम् । (प्राव. णदा । (धव. पु. ८, पृ.८५) । ४. अावश्यकक्रियानि. हरि. वृ. ८८) । ४. युक्तिरिति उपाय इति णां षण्णां काले प्रवर्तनं नियते । तासां साऽपरि
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आवश्यकी क्रिया] २१७, जैन-लक्षणावली
[आवीचिमरण हाणि या सामायिकादीनाम् ॥ (ह. पु. ३४-१४२)। ३. उड्ढगया आवासाxxx(त्रि. सा. २६५) । ५. आवश्यकक्रियाणां तु यथाकालं प्रवर्तना। आव- ४. एककस्मिन्नण्डरे असंख्यातलोकमात्राः पावासाः, श्यकापरिहाणिः षण्णामपि यथागमम ॥ (त. श्लो. तेऽपि प्रत्येकजीवशरीरभेदाः सन्ति । (गो. जी. म. ६, २४, १४)। ६. एतेषां (सामायिकादीनां) प्र. व जी. प्र. टी. १९४)। षण्णामावश्यकानामपरिहाणिरेका चतुर्दशी भावना। १ भवनवासी और व्यन्तर देवों के जो निवासस्थान (भा. प्रा. टी. ७७)। ७. सुमुहर्ताद्यनपेक्षम् अवश्यं द्रह, पर्वत और वृक्ष प्रादि के ऊपर अवस्थित होते हैं निश्चयेन कर्तव्यानि आवश्यकानि, तेषामपरिहाणिः वे प्रावास कहलाते हैं। ४ निगोद जीवों के प्राश्रयआवश्यकाऽपरिहाणिः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। भूत अण्डरों में से प्रत्येक में जो असंख्यात लोक प्रमाण १ समता-वन्दनादि छह आवश्यक क्रियाओं का स्कन्धविशेष होते हैं उनका नाम प्रावास है। वे यथासमय परिपालन करने को प्रावश्यकापरिहाणि प्रावास प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवों के शरीरभेदरूप हैं। कहते हैं।
आवासक-देखो आवश्यक । प्रावश्यकी क्रिया-१. अवश्यं गन्तव्यकारणमि- ग्राम हिनी मुद्रा..-हस्ताभ्यामजलि कृत्वा प्रकामत्यतो गच्छामीति अस्यार्थस्य संमूचिका आवश्यकी, मूल पर्वाङ्गुष्ठसंयोजनेनावाहनी मुद्रा। (निर्वाणक. पृ. अन्यापि कारणापेक्षा या या क्रिया सा क्रिया अव- ३२)। श्या क्रियेति सूचितम् । (अनुयो. हरि. व. पु. ५८)। दोनों हाथों से अञ्जलि को बांधकर प्रकाममूल २. अवश्यकर्तव्यमावश्यकम्, तत्र भवा आवश्यिकी, (पहुंचे), पर्व और अगुष्ठ के परस्पर मिलाने को ज्ञानाद्यालम्बनेनोपाश्रयात् बहिरवश्यं गमने समुप- आवाहनीमुद्रा कहते हैं। स्थिते अवश्यं कर्तव्यमिदमतो गच्छाम्यहमित्येवं गुरुं प्रावीचिमरण-१. प्रावीची नाम निरन्तरमित्यर्थः, प्रति निवेदना आवश्यकीति हृदयम् । (अनुयो. मल. उववन्नमत्त एव जीवो अणुभावपरिसमाप्ते: निरन्तरं हेम. वृ. सू. ११८, पृ. १०३)।
समये समये मरति । (उत्तरा. चू. पृ. १२७)। १ जाने का कारण अवश्य है, अतः जाता हूँ; इस २. वीचि-शब्दस्तरङ्गाभिधायी, इह तु वीचिरिव अर्थ को सूचक क्रिया तथा कारणसापेक्ष अन्यान्य वीचिरिति प्रायुष उदये वर्तते-यथा समूद्रादी क्रिया भी प्रावश्यकी क्रिया कही जाती है।
वीचयो नैरन्तरर्येणोद्गच्छन्ति एवं क्रमेण आयुष्कापावाप (भक्त)कथा - १. शाक-घृतादीन्येता- ख्यं कर्म अनूसमयमदेति इति तदय प्रावीचिशब्देन वन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा भण्यते । प्रायुषः अनुभवनं जीवितम्, तच्च प्रतिसमयं आवापकथा । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २८२, पृ. जीवितभङ्गस्य मरणम् । अतो मरणमपि अत्र १६६) । २. अमुकस्य राज्ञः सार्थवाहादेर्वा रसवत्यां आवीचि, उदयानन्तरसमये मरणमपि वर्तते इति । दश शाकविशेषाः, पञ्च पलानि सपिस्तथाऽऽढकस्त- (भ. प्रा. विजयो. २५) । ३. आ समन्ताद्वीचय इव न्दुलानामुपयुज्यत इत्यादि यदा सामान्येन विवक्षित- वीचयः-पायुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिस्तरसदतीद्रव्यसंख्याकथां करोति सा पावापभक्तकथा। दावीचि । अथवा वीचिः-विच्छेदस्तदभावादवीचि, (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ६२)।
दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं१ अमुक रसोई में इतने शाक व घी आदि का उप- प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम् । (समवा. अभय. योग होगा, इस प्रकार की चर्चा करने को प्रावाप- वृ. १७, पृ. ३४) । ४. प्रतिसमयमनुभूयमानायुषो. (भक्त)कथा कहते हैं।
ऽपरापरायुर्दलि कविच्युति लक्षणा अवस्था यस्मिन् आवास-१. दह-सेल-दुमादीणं रम्माणं उवरि मरणे तदावीचिमरणम् । (प्रव. सारो. वृ. होति पावासा। (ति. प. ३-२३); xxxदह- १००६, पृ. २६६)। ५. तत्र अवीचिमरणम्गिरिपहदीण उवरि अावासा ॥ (ति. प. ६-७)। वीचिः विच्छेदः, तदभावाद प्रवीचिः-नारा२. अंडरस्स अंतो ट्ठियो कच्छउडंडरंतोट्ठियवक्खार- तिर्यङ्-नराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृतिनिज-निजायुष्कसमाणो आवासो णाम । (धव. पु. १४, पृ. ८६)। कर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनात् विचटनम् । (उत्तरा.
ल. २८
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आवीतलिङ्ग] २१८, जैन-लक्षणावली
[आशीविष ने. वृ. ५, पृ. ६६)। ६. तत्र प्रतिक्षणमायुःक्षयः नविशेषः । (दशवै. सू. हरि. वृ. ६-५५, पृ. २०४)। प्रावीचिमरणम्, समुद्राम्बुषु वीचीनामिव प्रायुःपूद्- अवष्टम्भ समन्वित (पाश्रय सहित) प्रासनविशेष गलाणुषु रसानां प्रतिसमयमुद्भूयोद्भूय विलयनात् । को प्राशालक कहते हैं। ऐसे प्रासन का प्राचरण (भ, प्रा. मला. २५)। ७. यत्प्रतिसमयमायुषः साधु के लिए निषिद्ध है। कर्मणो निषेकस्योदयपूर्विका निर्जरा भवति तदावी- प्राशी-स्थिता वयमियत्कालं यामः क्षेमादयोऽस्तु चिमरणम् । (सा. ध. स्वो. टी. १-१२) । ८. समु. ते । इतीष्टाशंसनं व्यन्तरादेराशीनिरुच्यते ॥ (प्राचा. द्रादिकल्लोलवत् प्रतिसमयमायुस्त्रटयति तदावीचि- सा. २-१०)। कामरणम् । (भा. प्रा. टी. ३२)।
निवासस्थान को छोड़ते समय उस क्षेत्र के स्वामी २ वीचि नाम तरंग का है। तरंग के समान जो व्यग्तरादि को 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा आशीर्वाद निरन्तरता से प्रायुकर्म के निषेकों का प्रतिक्षण क्रम देना, यह प्राशी नामक सामाचार है। से उदय होता है उसके अनुभवन को प्रावीचिमरण पा(अ)शीतिका-प्रायश्चित्तनिरूपिका आशीकहा जाता है।
तिका । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०, पृ. ६७, पं. प्रावीतलिङ्ग - साध्यधर्मप्रतिपत्तिरावीतमुच्यते। २०-२१)। (प्रमाणप. पृ.७५)।
प्रायश्चित्त का निरूपण करने वाले एक अंगबाह्यश्रुत साध्यधर्म का ज्ञान कराने वाले हेतु को प्रावीतलिङ्ग को प्राशीतिका या प्रशीतिका कहा जाता है । कहते हैं।
पाशीविष-१. मर इदि भणिदे जीनो मरेइ 'प्राशंसा-१. आशंसनमाशंसा, आकाङ्क्षणमित्य- सहस त्ति जीए सत्तीए। दुक्खरतवजुदमुणिणा प्रा-. र्थः। (स. सि. ७-३७)। २. पच्चक्खाणं सेयं सीविसणाम रिद्धी सा॥ (ति. प. ४-१०७८) । अपरिमाणेण होइ कायव्वं । जेसि तु परीमाणं तं २. अविद्यमानस्यार्थस्य प्राशंसनमाशी:, प्राशीविषं दुठं होइ आसंसा ॥ (उत्तरा. नि. ३-१७७, पृ. येषां ते प्राशीविषाः । जेसिं जं पडि मरिहि त्ति वयणं १७६) । ३. पाकाङ्क्षणमाशंसा । आकाङ्क्षणमभि- णिप्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्ति वयणं भिक्खं लाषः प्राशंसेत्युच्यते । (त. वा. ७, ३७, १)। भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीसं छिंददि; ते ४. शुभेच्छाऽऽशंसा, निषेधानुपपत्तश्चेष्टसाधनत्वनि- आसीविसा णाम समणा।xxxआसी अविसमषेधस्य बाधात् । (शास्त्रवा. टी. ३-३)।
मियं जेसिं ते पासीविसा-जेसि वयणं थावर-जंगम१ आकांक्षा या इच्छा करने को प्राशंसा कहा विसपूरिदजीवे पड़च्च 'णिव्विसा होंतु' ति णिस्सरिदं जाता है।
ते जीवावेदि, वाहिवयण-दालिद्दादिविलयं पडुच्च प्राशा-अविद्यमानस्यार्थस्याशासनमाशेत्यपरलोभ- णिप्पडिदं संतं तं तं कज्ज करेदि ते वि पासीविसा पर्यायः । अथवा-पाश्यति तनूकरोत्यात्मानमित्या- ति उत्तं होदि । तवोवलेण एवं विहसत्तिसंजुत्तशा लोभ इति । (जयध. प. ७७७) ।
वयणा होदूण जे जीवाणं णिग्गहाणुग्गह ण कुणंति अविद्यमान वस्तु की इच्छा करने को प्राशा कहते ते प्रासीविसा त्ति घेत्तव्वा । (धव. पु. ६, पृ. ८५)। हैं। अथवा जो आत्मा को कृश करे उसे प्राशा कहते १ दुश्चर तपश्चरण करने वाले मुनि के जिस ऋद्धि कहते हैं । यह लोभ का पर्यायनाम है।
के प्रभाव से 'मर जा' ऐसा कहने पर प्राणी सहसा प्राशाम्बर-१. यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशा- मरण को प्राप्त होता है उसे प्राशीविष ऋद्धि म्बरमूचिरे। (उपासका. ८६०)। २. आशाम्बरः कहते हैं। दिगम्बरः परिधानादिवस्त्रवजितो लोकप्रसिद्धो जैने- प्राशीविष-देखो पासीविष । १. आश्यो दंष्ट्राकदेशीयो दर्शनविशेषः । (सम्बोधस. वृ. २, पृ. २)। स्तासु विषं येषां ते पाशीविषाः। ते च कर्मतो १जिसकी समस्त प्राशायें-इच्छायें-नष्ट हो चुकी जातितश्च । तत्र कर्मतस्तिर्यङ्-मनुष्याः कुतोऽपि हैं ऐसे वस्त्र प्रादि समस्त परिग्रह से रहित साधु को गुणादाशीविषाः स्युः। देवाश्चासहस्राराच्छापादिना आशाम्वर (दिगम्बर) कहा जाता है।
परव्यापादनादिति । xxx जातितः पाशीविषा प्राशालक-पाशालकस्तु अवष्टम्भसमन्वित प्रास- जात्याशीविषाः वृश्चिकादयः। (स्थाना. अभय. .
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आश्रम]
२१६, जैन-लक्षणावलो
[प्रासन्न (प्रोसण्ण)
४, ३, ३४१, पृ. २५१)। २. आशीविषलब्धिनि- प्रासनप्रदान-पासणपदाणं णाम ठाणग्रो ठाणं ग्रहानुग्रहसामर्थ्यम् । (योगशा. स्वो. विव. १-९)। संचरंतस्स पासणं गेण्हिऊण इच्छिए ठाणे ठवेइ । ३. पासी दाढा, तग्गयमहाविषाऽऽसीविसा। (प्रव. (दशवै. च. पृ. २७)। सारो. वृ. १५०१)।
एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाले के प्रासन १प्राशी का अर्थ दाढ़ होता है, जिनकी दाढ़ों में को लेकर अभीष्ट स्थान में स्थापित करना, इसका विष होता है वे प्राशीविष कहलाते हैं।
नाम प्रासनप्रदान है। पाश्रम-१. प्राश्रमः तापसाद्यावासः । (प्रोपपा. प्रासनशुद्धि-पर्यङ्काद्यासनस्थायी बद्ध्वा केशादि अभय. व. ३२, पृ. ७४)। २. आश्रमस्तापसविनि- यो मनाक् । कुर्वस्तां न चलत्यस्याऽऽसनशुद्धिर्भवेदिवासः । (प्रश्नव्या. अभय. व. पु. १७५) । ३. ग्रा- यम् ।। (धर्मसं. श्रा. ७-४७) । श्रमास्तीर्थस्थानानि तापसस्थानानि वा। (कल्पसू.
पर्यक प्रादि (कायोत्सर्ग) प्रासन से स्थित होकर व वि. वृ. ४-८८)।
बालों आदि को बांध कर जो उस वन्दना को करता ३ तीर्थस्थानों को या तपस्यिों के निवासस्थानों को हुआ किचित् भी विचलित नहीं होता है, उसके आश्रम कहते हैं।
प्रासनशुद्धि होती है। प्राषाढमास-मिथुनराशौ यदा तिष्ठत्यादित्यः स
प्रासनानुप्रदान-पासनानुप्रदानम् प्रासनस्य स्था
नात् स्थानान्तरसञ्चारणम् । (समवा. अभय. ब. काल आसाढमास इत्युच्यते । (मूला. व. ५-७५)। जिस काल में सूर्य मिथुन राशि पर रहता है उसे
६१, पृ. ८६)।
प्रासन का एक स्थान से दूसरे स्थान में स्थानान्तप्रासाढमास कहते हैं।
रित करना, इसका नाम प्रासनानप्रदान है। पासक्त-पासक्तः पतितेऽपि वीर्ये नारीशरीरमालि
प्रासनाभिग्रह-पासनाभिग्रहः तिष्ठत एवासनानङ्गय तिष्ठति । (प्रा. दि. १६, पृ.७५)।
यनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनम् । (समवा. अभय. वीर्यपात हो जाने पर भी जो स्त्री के शरीर का
वृ. ६१, पृ. ८६)। प्रालिंगन करके स्थित रहता है उसे प्रासक्त कहा
ठहरते हुए साधु को प्रासन लाते हुए 'यहां बैठिये' जाता है। इस प्रकार के नपुंसकों में यह अन्तिम
ऐसा कहना, इसका नाम प्रासनाभिग्रह है। भेव है। ये सब ही दीक्षा के अयोग्य होते हैं।
प्रसन्न (पोसण्ण)--१. प्रोसण्णमरणमच्यतेप्रासन-निश्चयेनात्मनोऽनन्येऽवस्थानं यत्तदासनम्। निर्वाणमार्गप्रस्थितात् संयतसार्थाद् यो हीनः प्रच्युतः लोकव्यवहारेण तदवस्थानसाधनाङ्गत्वेन यम-निय- सोऽभिधीयते प्रोसण्ण इति । तस्य मरणं प्रोसण्णमाद्यष्टाङ्गेषु मध्ये शरीरालस्य-ग्लानिहानाय नाना- मरणमिति। प्रोसण्णग्रहणेन पार्श्वस्थाः स्वच्छन्दाः विधतपश्चरणभारनिर्वाहक्षम भवितुं तत्पाटवोत्पाद
कुशीला: संसक्ताश्च गृह्यन्ते । तथा चोक्तम्नाय यन्निर्दिष्टं पर्यंकापर्यंक-वीर-वन-स्वस्तिक
पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होति प्रोसण्णा । जं पद्मकादिलक्षणमासनम् । (प्रारा. सा. टी. २६) । सिद्धिपच्छिदादो प्रोहीणा साधुसत्थादो। के पूनस्ते? निश्चयत: प्रात्मा से अनन्य में प्रात्मा में ही- ऋद्धिप्रिया रसेष्वासक्ता: दुःखभीरवः सदा दु:खजो अवस्थान है, इसका नाम प्रासन है। इस कातराः कषायेषु परिणताः संज्ञावशगा: पापश्रुताअवस्थान के साधनभूत यम-नियमादि पाठ अंगों में भ्यासकारिणः त्रयोदशविधासु क्रियास्वलसाः सदा निर्दिष्ट जो पर्यक, अर्धपर्यक, वीरासन, वज्रासन, संकलिष्टचेतसः भक्ते उपकरणे च प्रतिबद्धाः निमित्तस्वस्तिक और पद्मासन आदि लोकप्रसिद्ध प्रासन- मंत्रौषधयोगोपजीविनः गृहस्थवैयावृत्त्यकराः गुणविशेष हैं उन्हें भी व्यवहार से प्रासन कहा जाता है। हीना गुप्तिषु समितिषु चानुद्यताः मन्दसंवेगा दशप्रासनक्रिया - उत्कटाऽऽसनादिकाऽऽसनक्रिया । प्रकारे धर्मेऽकृतबुद्धयः शबलचारित्रा आसन्ना इत्यु(भ. प्रा. विजयो. टी. ८६)।
च्यन्ते । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५, पृ.८८)। उत्कट प्रासन आदि के उपयोग का नाम आसन- २. निर्वाणमार्गप्रस्थितसंयतसार्थात् प्रच्युत आसन्न क्रिया है।
उच्यते । तदुपलक्षणं पार्श्वस्थ-स्वच्छन्द-कुशील-संस
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आसन्नभव्यता ]
क्तानाम् । × × × ते यद्यन्ते श्रात्मशुद्धि कृत्वा म्रियन्ते तदा प्रशस्तमेव मरणम् । ( भा. प्रा. टी. ३२) ।
१ ऋद्धिप्रिय, रसों में श्रासक्त, दुःखभीरु, कषायपरिगत, श्रहारादि संज्ञात्रों के वशीभूत कुश्रुताभ्यासी, तेरह प्रकार के चारित्र के पालन में प्रालसी, सदा संक्लिष्टचित्त, भोजन व उपकरण में संसक्त; निमित्त, मंत्र व श्रौषधि से जीविका करने वाले; गृहस्थों की वैयावृत्त्य ( सेवा सुश्रूषा) करने वाले, गुणों से रहित, गुप्ति व समितियों में श्रनुद्यत, मन्द संवेग से सहित धर्म से विमुख तथा दूषित चारित्र वाले साधुत्रों को श्रासन्न कहते हैं । ( देखिये 'श्रवसन्न') । आसन्नभव्यता भव्यो रत्नत्रयाविर्भावयोग्यो जीवः, श्रासन्नः कतिपयभवप्राप्त निर्वाणपदः, श्रासन्नश्चासौ भव्यश्चासन्नभव्यस्तस्य भाव प्रसन्न भव्यता । सा. घ. स्व. टी. १-६) ।
कुछ ही भवों को धारण करके मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव की रत्नत्रय के आविर्भावविषयक योग्यता को प्रसन्नभव्यता कहते हैं । आसन्नमरण -- देखो श्रासन्न । श्रासादन - १. कायेन वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनम् । ( स. सि. ६-१० ) । २. वाक्कायाभ्यां ज्ञानवर्जनमासादनम् । कायेन वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनं वेदितव्यम् । (त. चा. ६, १०, ५) । ३. वाक्कायाभ्या मनावर्तनमासादनम् । (त. श्लो. ६-१० ) । ४. आयं सादयतीति आसादनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् । नैरुक्तो यशब्दलोप: । ( कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ७०)। ५. कायेन वचनेन च सतो ज्ञानस्य विनयप्रकाशन-गुणकीर्तनादेरकरणमासादनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - १० ) । ६. काय - वाग्भ्यामननुमननं कायेन वाचा वा परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनं वेत्यासादना । ( गो . क. जी. प्र. ८०० ) ।
१ शरीर से व वचन से प्रकाशित करने योग्य दूसरेके ज्ञान को रोक देना, इसका नाम श्रासादन है । यह ज्ञानावरण व दर्शनावरण के बन्ध का कारण है । ४ प्रनन्तानुबन्धी कषाय के वेदन अर्थात् द्वितीय गुणस्थान को प्रासादन कहा जाता है । प्रासादना - देखो प्रत्यासादना ।
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२२०, जैन - लक्षणावली
[सुरिकी भावना
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प्रासोविष - देखो आशीविष और प्राशीविष । १. प्रास्यो दंष्ट्राः, तासु विषमेषामस्तीति श्रासीविषाः । ते द्विप्रकारा भवन्ति--जातितः कर्मतश्च । तत्र जातितो वृश्चिक - मण्डूको रग-मनुष्यजातयः, कर्मतस्तु तिर्यग्योनयः मनुष्या देवाश्चासहस्रारादिति । एते हि तपश्चरणानुष्ठानतो ऽन्यतो वा गुणतः खल्वासीविषा भवन्ति । देवा अपि तच्छक्तियुक्ता भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ७०. पू. ४८ ) । २. आस्यो दंष्ट्राः, तासु विषमेषामस्तीति श्रासीविषाः । ते द्विविधा जातितः कर्मतश्च । तत्र जातितो वृश्चिक मण्डूकोरग- मनुष्यजातयः क्रमेण बहु- बहुतर- बहुतमविषाः । वृश्चिकविषं हि उत्कर्षतोऽर्ध भरत क्षेत्रप्रमाणं शरीरं व्याप्नोति, मण्डूकविषं भरतक्षेत्रप्रमाणम्, भुजंगमविषं जम्बूद्वीपप्रमाणम्, मनुष्यविषं समय [ग्र ] क्षेत्रप्रमाणम् । कर्मतश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयो मनुष्याः देवाश्चासहस्रारात् एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः प्रासीविष- वृश्चिक- भुजंगादिसाध्यां क्रियां कुर्वन्ति शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीति भावः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७०, पृ. ७६ ) । ३. आस्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते ग्रासीविसाः । उक्तं चप्रासी दाढा तग्गयविसाऽऽसीविसा मुणेयव्वा इति । ( जीवाजी, मलय. वृ. १-३६) । देखो - श्रासीविष । श्रासुरविवाह
पणबन्धेन कन्याप्रदानमासुरः । (योगशा. स्वो विव. १-४७; धर्म बि. मु. वृ. १-१२; श्राद्धगु. पृ १४, धर्मसं. मान. स्वो वृ. १-५, पृ. ५) । वर से द्रव्य लेकर कन्या के देने को श्रासुरविवाह कहते हैं ।
श्रासुरिको भावना - १. श्रणुबद्ध रोस - विग्गहसंसत्ततवो निमित्त डिसेवी । णिक्किवणिराणुतावी श्रासुरिश्रं भावणं कुणदि || (भ. प्रा. १८३ ) । २. अणुवद्धविग्गहो चिय संसत्ततवो निमित्तमाएसी । निक्किव-निराणुकंपो प्रासुरियं भावणं कुणइ ॥ (बृहत्क. १३१५; गु. गु. षट्. स्वो वृ. ४, पृ. १८ ) । १ भवान्तरगामी क्रोध को रखना, कलहयुक्त तप करना, ज्योतिष श्रादि निमित्तज्ञान के द्वारा जीविका करना, दयारहित होकर क्रियानों की करना तथा प्राणिपीड़न करके भी पश्चात्ताप न करना; ये सब श्रासुरिको भावना के लक्षण हैं ।
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आसेवनाकुशील] २२१, जैन-लक्षणावलो
[प्रास्र (श्र)व प्रासेवनाकुशील-प्रासेवना संयमस्य विपरीता- पीड़ित भी प्राणी उस विष की वेदना से मुक्त हो ऽऽराधना, तया कुशील प्रासेवनाकुशीलः । (प्रव. जाते हैं, वे प्रास्याविष कहलाते हैं । सारो. वृ. ७२५; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-५६, प्रास्त्र (श्र)व—१. कायावाङ्मनःकर्म योगः ॥ स पृ. १५३)।
प्रास्रवः ।। (त. सू. ६, १-२)। २. शुभाशभकर्मासंयम को विपरीत पाराधना या असंयम का सेवन गमद्वाररूपः प्रास्रवः। (स. सि. १-४; त. वृत्ति करने वाले साधु को प्रासेवनाकुशील कहते हैं। श्रुत. १-४); योगप्रणालिकयात्मनः कर्म आस्रवतीप्रासेवनानुलोम्य-प्रासेवनानुलोम्यं येन क्रमेणा- ति योग आस्रवः । (स. सि. ६-२)। ३. स एष तिचार आसेवितस्तेनैव क्रमेण गुरोः पुरतः प्रकटनम्। त्रिविधोऽपि योग प्रास्रवसंज्ञो भवति । शुभाशुभयोः (योगशा. स्वो. विव. ४-६.)।
कर्मणोरास्रवणादास्रवः, सरसः सलिलावाहि-निर्वाहिजिस क्रम से अतिचार का सेवन किया है उसी स्रोतोवत् । (त. भा. ६-२)। ४. प्रास्रवति अनेन, क्रम से उसके गुरु के सामने प्रगट करने को प्रासेव. प्रास्त्रवणमात्रं वा प्रास्रवः । (त. वा. १, ४, ६); नानुलोम्य कहते हैं।
तत्प्रणालिकया कर्मास्रवणादास्रवाभिधानं सलिलवाप्रास्तरण-(प्रवेक्षा-प्रमार्जनानपेक्षम्) पास्तरणं हिद्वारवत् । यथा सर:सलिलवाहिद्वार तदास्रबणसंस्तरोपक्रमणम् । (सा. घ. ५-४०)।
कारणत्वात् प्रास्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालि'जीव-जन्तु हैं या नहीं इस प्रकार बिना देखे और कया प्रात्मनः कर्म प्रास्रवतीति योग प्रास्रव इति बिना शोधे बिछौना के बिछाने को पास्तरण व्यपदेशमर्हति । (त. वा. ६, २, ४) । ५. प्रास्र यते कहते हैं।
गृह्यते कर्म अनेन इत्यास्रवः शुभाशुभकर्मादानहेतुः । आस्तिक्य-१. जीवादयोऽर्था यथास्वं भावैः सन्ती- (त. भा. हरि. वृ. १-४) । ६. काय-वय-मणोकिति मतिरास्तिक्यम् । (त. वा. १, २, ३०)। रिया जोगो सो पासवो। (श्रा. प्र. ७९); काय२. आस्तिक्यमिति-अस्त्यात्मादिपदार्थकदम्बकमि- वाङ्-मनःक्रिया योगःXXXस पासव: Ixxx त्येषा मतिर्यस्य स आस्तिकः, तस्य भावः तापरि- आत्मनि कर्मानुप्रवेशमात्रहेतुरास्रव इति। (श्रा. प्र. णामवृत्तिता आस्तिक्यम् । (त. भा. सिद्ध. व. टी. ७६) । ७.xxxमिथ्यात्वाद्याश्तु हेतवः । ये १-२)।
बन्धस्य स विज्ञेयः प्रास्रवो जिनशासने ॥ (षड्द. जीवादि पदार्थ यथायोग्य अपने स्वभाव से संयुक्त स. ४-५०, पृ. १७५)। ८. प्रास्रवन्ति समाहैं, इस प्रकार की बुद्धि को प्रास्तिक्य कहते हैं। गच्छन्ति संसारिणां जीवानां कर्माणि यैः येभ्यो वा प्रास्यविष-देखो आशीविष व आशीविष। प्रकृ- ते प्रास्रवा रागादयः। (सिद्धिवि. टी. ४-६, पृ. ष्टतपोबला यतयो यं ब्रुवते म्रियस्वेति स तत्क्षण २५६)। ६. स प्रास्रव इह प्रोक्तः कर्मागमनकारएव महाविषपरीतो म्रियते ते प्रास्यविषाः। (त. णम् । (त. श्लो. ६, २, १)। १०. प्रास्र यते गुदा. ३, ३६, ३ पृ. २०३-४) ।
ह्यते कर्म त प्रास्रवाः, शुभाशुभकर्मादान हेतबः इत्यर्थः । प्रकृष्ट तप के सामर्थ्य से संयुक्त जिन मुनियों के xxx आस्रवो हि मिथ्यादर्शनादिरूपः परि'मर जा' ऐसा कहने पर प्राणी उसी समय भयानक णामो जीवस्य । (त. भा. सिद्ध. व. १-४)। ११. 'विष से व्याप्त होकर मर जाता है वे प्रास्यविष प्रास्रवति आगच्छति जायते कर्मत्वपर्यायः पुद्गलाकहलाते हैं।
नां येन कारणभूतेन प्रात्मपरिणामेन स परिणाम: प्रास्याविष-उपविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्य- प्रास्रवः, अथवा प्रास्रवणं कर्मतापरिणतिः पुद्गलागतो निविषीभवति, यदीयास्यनिर्गतवचःश्रवणाद्वा नामास्रवः । (भ. प्रा. विजयो. टी. १-३८)। महाविषपरीता अपि निविषीभवन्ति, ते प्रास्याविषाः। १२. आश्रवति प्रविशति कर्म येन स प्राणातिपाता(त. वा. ३, ३६, ३ पृ. २०३)।
दिरूपः पाश्रवः कर्मोपादानकारणम् । (सूत्रकृ. शी. जिनके मुख में गया हुमा तीव्र विष से मिश्रित भी वृ. २, ५, १७ पृ. १२८)। १३. कर्मबन्धहेतुरानभोजन निविष हो जाता है, अथवा जिनके मुख से वः। (औपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७९)। १४. निकले हए वचन को सुनकर भयानक विष से निरास्रवस्वसंवित्तिविलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभा
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आस्र (श्र) व ]
शुभकर्मागमनमा स्रव: । (बृ. द्रव्यर्स. टी. २८) । १५. कायवाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स आस्रवः । (त. सा. ४-२ ) । १६. कर्मणामागमद्वारमा स्रवं संप्रचक्षते । स कायवाङ्मनः कर्म योगत्वेन व्यवस्थितः ।। (च. च. १८- ८२ ) । १७. यद्वाक्कायमन:कर्म योगोऽसावास्रवः स्मृतः । कर्मास्रवत्यनेनेति X X X ॥ ( श्रमित. श्रा. ३-३८) । १८. मनस्तनुवचः कर्म योग इत्यभिधीयते । स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः ।। (ज्ञानार्णव १, पृ. ४२ ) । १६. मनोवचन - कायानां यत्स्यात् कर्म स श्राश्रवः । (योगशा. स्व. वि. १-१६, पृ. ११४); मनोवाक्कायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः । (योगशा. ४–७४); एते योगाः, यस्मात् शभं सद्वेद्यादि श्रशुभमसद्वेद्यादि कर्म प्राश्रवन्ति प्रस्वते तेन कारणेन श्राश्रवा इति कीर्तिताः । श्रस्त्र यते कर्मेभिरित्या स्रवः । (योगशा. स्वो विव. ४ -७४) । २०. शरीरवाङ्मनःकर्म योग एवात्रवो मतः । ( धर्मश. २१ - ८४ ) । २१. आसवति कर्म यतः स श्रास्रव: कायवाङ्मनोव्यापारः । ( षड्द. स. टी. ४७, पृ. १३७ ) । २२. आा समन्तात् स्वति उपढौकते कर्मानेनास्रवः । (मूला. वृ. ५-६) । २३. मिच्छत्ताऽविरइ - कसाय जो हेऊहिं श्रासवइ कम्मं । जीवम्मि उवहिमज्भे जह सलिलं छिद्दणा वाए ।। ( वसु. श्री. ३६ ) । २४. श्रात्मनः कर्मास्रवत्यनेनेत्यास्रवः । स एव त्रिविधवर्गणालम्बन एव योगः कर्मागमनकारणत्वात् श्रास्रवव्यपदेशमर्हति । (त. सुखबो. ६ - २ ) । २५. ज्ञानावृत्त्याऽऽदियोग्याः सद्गधिकरणा येन भावेन पुंसः शस्ताशस्तेन कर्मप्रकृतिपरिणति पुद्गला ह्यास्रवन्ति । आगच्छन्त्यास्रवोऽसावकथि पृथगसदृग्मुखस्तत्प्रदोषप्रष्ठो वा विस्तरेणास्त्रवणमुत मतः कर्मताप्तिः स तेषाम् ॥ (अन. ध. २-३६) । २६. आस्रवन्ति श्रागच्छन्ति ज्ञानावरणादिकर्मभावं तद्योग्या अनन्तप्रदेशिनः समानदेशस्था: पुद्गला येन मिथ्यादर्शनादिना तत्प्रदोष - निह्नवादिना वा विघ्नकरणं तेन जीवपरिणामेन स आस्रवः । अथवा आस्रवणं आस्रवः पुद्गलानां कर्मत्वपरिणतिः । (भ. प्रा. मूला. टी. ३८) । २७. श्राश्रवति प्रदत्ते जीवः कर्म यैस्ते श्राश्रवाः हिंसानृतस्तैन्याब्रह्मपरिग्रहलक्षणाः पञ्च । (श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८४) । २८. प्रास्रवः कर्मसम्बन्धः
२२२, जैन-लक्षणावली
[प्रत्रवानुप्रेक्षा
XXX। ( विवेकवि. ८ - २५२ ) । २६. योगद्वारेण कर्मागमनमास्रवः । ( श्रारा. सा. टी. ४ ) । ३०. आत्मप्रदेशेषु कर्मपरमाणव आगच्छन्ति स आस्रवो मिथ्यात्वाविरति प्रमाद कषाय-योगरूपः । ( भा. प्रा. टी. ६५ ) । ३१. शुभाशुभकर्मागमनद्वारलक्षण वास्रव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १ - ४ ) ; श्रास्रवति आगच्छति श्रात्मप्रदेशसमीपस्थोऽपि पुद्गलपरमाणुसमूहः कर्मत्वेन परिणमतीत्यास्रवः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२ ) ; नूतनकर्मग्रहणकारणम् आस्रव उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. 8- १) । ३२. कर्मपुद्गलादानमास्रव: । ( अध्यात्मसार १८ - १३१) । १ काय, वचन और मन को क्रियारूप योग को श्रस्रव कहते हैं । श्रात्रवनिरोध - कर्मागम निमित्ताऽप्रादुर्भूति रास्रवनिरोधः । तस्य XX X कायवाङ्मनः प्रयोगस्य स्वात्मलाभ हेत्वसन्निधानात् अप्रादुर्भूतिः श्रास्रवनिरोधः इत्युच्यते । (त. वा. ६, १, १ ) ।
कर्मागम के निमित्तभूत काय, वचन व मन के प्रयोग का प्रादुर्भाव होना, इसे प्रास्रवनिरोध कहते हैं ।
श्रास्रवभावना - देखो प्रस्रवानुप्रेक्षा । संसारमध्यस्थित समस्तजीवानां मिथ्यात्व कषायाविरतिप्रमादार्त- रौद्रध्यानादिहेतुभिर्निरन्तरं कर्माणि बध्यमानानि सन्ति, इत्यादिचिन्तनमात्रवभावना । ( सम्बोधस. वृ. १६, पृ. १८ ) ।
समस्त संसारी जीवों के मिथ्यात्व कषाय, श्रविरति, प्रमाद एवं प्रार्त- रौद्र ध्यान आदि कारणों से निरन्तर कर्म बंधा करते हैं; इत्यादि विचार करना, यह श्रावभावना है। प्रास्त्रवानुप्रेक्षा- देखो श्रावभावना | १. आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदी स्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायाव्रतादयः । तत्रेन्द्रियाणि तावत् स्पर्शनादीनि वनगज-वायस-पन्नग-पतङ्ग-हरिणादीन् व्यसनार्णवमवगाहयन्ति तथा कषायादयोऽपीह वध-बन्धापयश:परिक्लेशादीन् जनयन्ति, अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदुःखप्रज्वालितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमात्रवदोषानुचिन्तनमात्रवानुप्रेक्षा । ( स. सि. ९-७) २. प्रावा हि इहामुत्र चापायप्रसक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियादयः । तद्यथा - प्रभूतयवसोदकप्रमाथावगाहनादिगुणसम्पन्न वनविचारिणः मदान्धा
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आहरण]
२२३, जैन-लक्षणावली
[आहारक (शरीर)
बलवन्तोऽपि वारणा: xxx। (त. वा. ६, ७, समुद्भवसर्वकालसन्तर्पणहेतुभूतस्वसंवेदनज्ञानानन्दा७)। ३. पासवानुप्रेक्षास्वभावप्रकाशनायाह-प्रास्र- मृतरसप्राग्भारनिर्भरपरमाहारविलक्षणो निजोपार्जिवान् इहामुत्रापाययुक्तान् महानदीत्रोतोवेगतीक्ष्णान् तासद्वेदनीयकर्मोदयेन तीव्रबुभक्षावशाद व्यवहारनयाअकुशलागम-कुशलनिर्गमद्वारभूतान् इन्द्रियादीन् धीनेनात्मना यदशन-पानादिकमाद्रियते तदाहारः । अवद्यतश्चिन्तयेत् । (त. भा. सिद्ध. व. ९-७)। (प्रारा. सा. टी. २६)। ४. मणवयणकायजोया जीवपएसाण फंदणविशेषा। १औदारिकादि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होंति ॥ योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को प्राहार कहते हैं । मोहविवागवसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स । ते ३ जिसके आश्रयसे साधु सूक्ष्म तत्त्वों का आहरण या आसवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अणेयविहा ।। (काति- उन्हें प्रात्मसात् करता है- तद्विषयक शंका से रहित के. ८८-८६)।
होता है-उसे आहार (शरीर) कहा जाता है। १ महानदी के प्रबल प्रवाह के समान इन्द्रिय, कषाय पाहारक (शरीर)-१. शुभं विशुद्धमव्याघाति और अविरति आदि प्रास्त्रव हैं जो इस लोक व पर- चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव [शुभं विशुद्धमव्याघाति लोक दोनों ही लोकों में दुःखदायक हैं। इस प्रकार चाहारक चतुर्दशपूर्वधर एव-भाष्यसम्मतपाठ] । प्रास्त्रवजन्य दोषों के चिन्तन को प्रास्त्रवानप्रेक्षा (त. सू. २-४६) । २. सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमकहते हैं। ..
परिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वय॑ते पाहरण-साध्य-साधनान्वय-व्यतिरेकप्रदर्शनमाह- तदित्याहारकम् । (स. सि. २-३६)। ३. प्राहिरणम्, दृष्टान्त इति भावः । (प्राव. नि. मलय. वृ. यते तदित्याहारकम् । सूक्ष्मपदार्थनिर्जानार्थमसंयम८६, पृ.१०१)।
परिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाहियते निर्वय॑ते साध्य और साधन के अन्वय-व्यतिरेक के दिखलाने तदित्याहारकम् । (त. वा. २, ३६, ७); तद्यथाको प्राहरण (दृष्टान्त) कहते हैं ।
कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थम्, कदाचित् पाहार-१. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थम्, संयमपरिपालनार्थं च योग्यपुदगलग्रहणम् आहारः। (स. सि. २-३०, भरतरावतेष केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ श्लो. वा. २-३०, त. वृत्ति श्रुत. २-३०)। महाविदेहेषु केवलिसकाशं जिगमिषुरौदारिकेण. मे २. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुदगल- महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निवर्तयति । ग्रहणमाहारः। तैजस-कार्मणशरीरे हि प्रासंसारान्ता- (त. वा. २, ४६, ४); दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थतत्त्वन्नित्यमुपचीयमानस्वयोग्यपुद्गले, अतः शेषाणां त्रया- निर्णयलक्षणमाहारकम् । (त. वा. २, ४६, ८)। णां शरीराणामौदारिक-वैक्रियिकाहारकाणामाहाराद्य- ४. प्रयोजनार्थिना आह्रियते इत्याहारकम् । (प्राव. भिलाषकारणानां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रह- नि. हरि. वृ. १४३४, पृ. ७६७)। ५. आह्रियत णामाहार इत्युच्यते । (त. वा. २, ३०, ४)। ३. इत्याहारकम्, गृह्यत इत्यर्थः, कार्यसमाप्तेश्च पुनर्मआहरति आत्मसात् करोति सूक्ष्मानर्थाननेति पाहारः। च्यते याचितोपकरणवत् । (अनुयो. हरि. व. पु. (घव. पु. १, पृ. २६२); शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिण्ड- ८७)। ६. शुभं मनःप्रीतिकरं विशुद्धं संक्लेशरहितम् ग्रहणमाहारः। (धव. पु. ७, पृ. ७मूला. व. १२-१५६); सरीरपाओग्गपोग्गलक्खंघग्गहणमा- शरीरम् Xxx। (त. श्लो. २-४६) । ७. कार्याहारो। (धव. पु. १४, पृ. २२६) । ४. औदारिक- थिभिश्चतुर्दशपूर्वधरैराह्रियते इत्याहारकम् । (पंचवैक्रियिकाहारकशरीरपरिपोषक: पुद्गलोपादानमा- सं. स्वो. वृ. १-४)। ८. शुभतरशुक्लविशुद्धद्रव्यहार इति । (षदशी. मलय. व. ३३, पृ. १६३)। वर्गणाप्रारब्धं प्रतिविशिष्टप्रयोजनाय आह्रियतेऽन्त५. णोकम्म-कम्महारो कवलाहारो य लेप्प आहारो। मुहूर्त स्थिति प्राहारकम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. २, उज्ज मणो वि य कमसो पाहारो छविहो यो। ३७)। ६. आहारस्सुदएण य पमत्तविरदस्स होदि (भावसं. दे. ११०; प्र. क. मा. २-१२, पृ. ३०० आहारं। असंजमपरिहरणट्ठसंदेहविणासणच ॥ उद्.)। ६. निर्विकारपरमाह्लादकारिसहजस्वभाव- णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहदिकल्लाणे।
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श्राहारक (शरीर ) ]
परखेत्ते संवित्ते जिण - जिणघरवंदण च ॥ उत्तमगहि हवे धादुविहीणं सुहं असंहणणं । सुहसं ठाणं धवलं हत्थमाणं पत्युदयं ॥ श्रव्वाघादी अंतोमुहू
कालट्ठदी जहणिदरे । पज्जत्तीसंपूण्णे मरणं पि कदाचि संभव || (गो. जी. २३४-३७) । १०. आ हारकाः - विशिष्टतरपुद्गलाः, तन्निष्पन्नमाहारकम्, अयं (आहारककाययोगः ) च चतुर्दशपूर्वधरस्य समुत्पन्न विशिष्ट प्रयोजनस्य कृताहारकशरीरस्य भवतीति । ( श्रपपा. श्रभय वृ. ४२, पृ. १११ ) । ११. अर्थानाहरते सूक्ष्मान् गत्वा केवलिनोऽन्तिकम् । संशये सति लब्धर्द्धरसंयम जिहासया । यः प्रमत्तस्य मूर्धोत्थो धवलो धातुवर्जितः । अन्तर्मुहूर्त स्थितिक: सर्वव्याघातविच्युतः ॥ पवित्रोत्तमसंस्थानो हस्तमात्रोऽनघद्युतिः । ग्रहारकः स बोद्धव्यो ××× ॥ ( पंच. अमित १, १७५ - ७७, पृ. २४) १२. चतुदेशपूर्व विदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते निर्वर्त्यते इत्याहारकम् । × × × उक्तं च - कज्जंमि समुcood सुकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहरिज्जइ भणियं ग्राहारयं तं तु । कार्यं चेदम्-पाणिदय-रिद्धिदंसण सुहुमपयत्थाव गहणहेउ वा । संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलंमि ॥ ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २१-२६७, पृ. ४०६ ) । १३. चतुर्दश पूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शन। दिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्ट लब्धिवशादाह्रियते निर्वर्त्यते इत्याहारकम् । ( सप्ततिका च. मलय. वृ. ५, पृ. १५०; षष्ठ कर्म. . दे. स्वो वृ. ६, पृ. १२३) । १४. चतुर्दशपूर्वविदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते निर्वर्त्यते इत्याहारकम् । अथवा आहिन्ते गृह्यन्ते तीर्थंककरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवावयः पदार्था अनेन इत्याहारकम् । ( शतक मल. हेम. वृ. २-३, पृ. ५; षडशीति हरि. व्या. ३४) । १५. आकाशस्फटिक - स्वच्छं श्रुतकेवलिता कृतम् । अनुत्तरामरेभ्योऽपि कान्तमाहारकं भवेत् ।। ( लोकप्र. ३-६६ ) ।
२ सूक्ष्म पदार्थों के निर्धारण के लिए अथवा असंयम - के परिहार की इच्छा से प्रसत्तसंयत के द्वारा जो शरीर रचा जाता है वह प्रहारक कहलाता है । आहारक (जीव ) - १. ग्राहरदि सरीराणं तिह एयरवग्गणा य । भासा मणस्स णियदं तम्हा आहार भणियो । ( प्रा. पंचसं. १-१७६; धव.
२२४, जैन - लक्षणावली
[आहारक- कार्मणबन्धन
पु. १, पृ. १५२ उ., गो. जी. ६६४ ) । २. शेषा उक्तविलक्षणा प्रहारका जीवाः श्रोज-लोम-प्रक्षेपाहाराणां यथासम्भवं येन केनचिदाहारेण । (श्रा. प्र. टी. ६८ ) । ३. उदयावण्णसरीरोदएण तद्द ह वयणचित्ताणं | णोकम्मवग्गणाणं गहणं श्राहारयं णाम || ( गो. जी. ६६३ ) । ४. गृह्णाति देहपर्याप्तियोग्यान् यः खलु पुद्गलान् । श्राहारकः स विज्ञेयः XXX ॥ (त. सा. २ - ९४ ) । ५. षट् चाहार शरीरेन्द्रियानप्राण भाषा मनःसंज्ञिकाः पर्याप्तीः यथासम्भवमाहरतीत्याहारकः । (त. सुखबो. २ - ३० ) । ६. आहारयति प्रोज-लोम प्रक्षेपाहा राणामन्यतममाहारमित्याहारक: । ( षडशीति मलय. वृ. १२, पृ. १३४; पंचर्स. मलय. वृ. ८, पृ. १४; षडशीति दे. स्वो. वृ. १ - १४) । ७. ग्राहारकः प्राहारकशरीरलब्धिमान् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १० - ६६६, पृ. १) । १ जो प्रौदारिकादि तीन शरीरवर्गणात्रों में से किसी एक वर्गणा को तथा भाषावर्गणा और मनोवगंणाको नियमसे ग्रहण करता है वह श्राहारक कहलाता है । २ प्रोज, लोम और प्रक्षेप आहार में से किसी एक प्रकार के श्राहार के ग्रहण करने वाले जीव को श्राहारक कहते हैं । ७. आहारक शरीरलब्धि से संयुक्त जीव को प्राहारक कहते हैं । श्राहारक आहारक बन्धन - देखो प्रहारकाहारकबन्धन । यथाऽऽहारकपुद्गलानामाहारकपुद्गलैरेवाहारकाहारकबन्धनम् XXX ( कर्मवि. ग. पू. व्या. १०४) ।
श्राहारकशरीरपुद्गलों का अन्य आहारकशरीरपुद्गलों के साथ बन्धन कराने वाले कर्म को श्राहारक- श्राहारक बन्धन नामकर्म कहा जाता है । श्राहारक-कार्मरणबन्धन - १. श्राहारग कम्मबंधणं तह । ( कर्मवि. ग. १०४, पृ. ४३)। २. × × × तथाऽऽहारक-कार्मणबन्धनं च तृतीयम् । (कर्मवि. ग. पू. व्या. १०४, पृ. ४३) । ३. तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैगृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह सम्बन्ध आहारककार्मणबन्धनम् । (पंचसं मलय. वृ. ३-११, पृ. १२१ ; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७) ।
जो नामकर्म श्राहारक और कार्मण पुद्गलों को लाख के समान परस्पर में सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारक - कार्मणबन्धन नामकर्म कहते हैं ।
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श्राहारक-तैजस-कार्मणब. ]
श्राहारक-तैजस-कार्मरणबन्धन - श्राहारक- तैजसकार्मणबन्धननामाप्येवमेव ( प्राहारकपुद्गलानामाहारक - तैजस- कार्मणपुद्गलैरेव बन्धनम् श्राहारकतंजस - कार्मणबन्धनम् ) । ( कर्मवि. पू. व्या. १०४, पृ. ४३) ।
जो कर्म श्राहारक, तैजस और कार्मण पुद्गलों को परस्पर सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारक तेजस - कार्मणबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारक- तैजसबन्धन - १. यथाऽऽहारकपुद्गलानामाहारक पुद्गलैरेवाहारका हारकबन्धनं तथाऽऽहारक-तैजसपुद्गलैरेवाहारक- तैजसबन्धनं द्रष्टव्यं द्वितीयम् । ( कर्मवि. पू. व्या. १०४ ) । २ तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह सम्बन्धः आहारकतैजसबन्धनम् । (पंचसं. मलय. वृ. ३-११, पृ. १२१; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७) । जो कर्म आहारक और तेजस पुद्गलों को परस्पर में लाख के समान सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारक- तैजसबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारकद्रव्यवर्गरणा - देखो श्राहारद्रव्यवर्गणा । आहारगदव्ववग्गणा णाम प्रोरालिय-वेउब्विय श्राहारगाणं तिन्हं सरीराणं गहणं पवत्तति । ( कर्मप्र. चू. १-१८, पृ. ४० ) ।
जिस वर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण कर प्रौदारिकादि तीन शरीरों की उत्पत्ति प्रवर्तित होती है उसे श्राहारकद्रव्यवर्गणा कहते हैं । श्राहारकबन्धन - १. तेसि जं संबंध अवरोप्पर पुग्गलाणमिह कुणइ । तं जउसरिसं जाणस आहारगबंध पढमं ।। ( कर्मवि. ग. १०३, पृ. ४३ ) । २. यदुदयादाहारकशरीरपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजस- कार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तदाहारकबन्धनम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २२, २१३, पृ. ४७० ) ।
१ जो कर्म बद्ध और बध्यमान श्राहारक शरीर के योग्य पुद्गलों को लाख के समान परस्पर में सम्बन्ध के योग्य करता है उसे श्राहारकबन्धन नामकर्म कहते हैं । २ जिस कर्मके उदय से गृहीत और गृह्यमाण आहारक शरीर के पुद्गलोंका परस्पर में तथा तेजस और कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ भी ल. २६
२२५, जैन-लक्षणावली
[श्राहारकशरीराङ्गोपाङ्ग
सम्बन्ध हो उसे आहारकबन्धन कहते हैं । श्राहारक योग - श्राहरदि श्रणेण मुणी सुहुमे प्रत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा श्राहारगो जोग । ( व. पु. १, पृ. २६४ उ.; गो. जी. २३८ ) । जिसके द्वारा मुनि सूक्ष्म तत्त्व के विषय में सन्देह होने पर केवली के पास जाकर उसका निर्णय करते हैं उसे प्रहारक योग कहते हैं । श्राहारकवर्गणा- - तदनन्तरं ( वैक्रियवर्गणानन्तरं ) द्रव्यतो वृद्धानां परिणामं त्वाश्रित्य सूक्ष्मतराणामेकोत्तर वृद्धिमतामेव स्कन्धानां समुदायरूपा आहारकशरीरनिष्पत्तिहेतुभूता अनन्ता आहारकवर्गणाः । ( शतक. मल. हेम. वृ. ८७-८८, पृ.१०४) । वैक्रियिकवर्गणा के अनन्तर द्रव्य की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त, परन्तु परिणाम के श्राश्रय से प्रत्यन्त सूक्ष्म, एकोत्तर वृद्धियुक्त स्कन्धों के समुदाय रूप होकर श्राहारकशरीर की निष्पत्ति की कारणभूत श्रनन्त वर्गणायें श्राहारकवर्गणा कहलाती हैं । श्राहारकशरीरनाम - यदुदयादाहारवर्गणा पुद्गलस्कन्धाः सर्वशुभावयवाहारशरीरस्वरूपेण परिणमन्ति तदाहारकशरीरं नामकर्म । ( मूला. वृ. १२ - १६३) । जिस कर्म के उदय से श्राहारवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध समस्त शुभ श्रवयवों वाले श्राहारकशरीररूप से परिणत होते हैं उसे श्राहारकशरीर नामकर्म कहते हैं ।
श्राहारकशरीरबन्धननाम - देखो प्रहारक आहारकबन्घन और आहारकबन्धन । पूर्वगृहीतैराहारकशरीरपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् आहारकपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति आत्माऽयोऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसममाहारकशरीरबन्धननाम | ( कर्मवि. दे. स्व. वृ. ३४, पृ. ४६ ) । जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत श्राहारकशरीर के पुद्गलों के साथ वर्तमान में गृह्यमाण आहारकशरीर के पुद्गल परस्पर में मिलकर एकरूपता को प्राप्त हों उसे श्राहारकशरीरबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्राहारकशरीराङ्गोपाङ्ग – देखो श्राहारकाङ्गोपाङ्ग । जस्स कम्मस्स उदएण आहारसरीरस्स अङ्गोवङ्ग-पच्चंगाणि उप्पज्जति तं श्राहारयसरीरंगोवंगं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७३) । जिस कर्म के उदय से श्राहारक शरीर के अंग, उपांग
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माहारकसमुद्घात] २२६, जैन-लक्षणावली
[आहारद्रव्यवर्गणा और प्रत्यंग उत्पन्न होते हैं उसे प्राहारकशरीरांगो- आहारक और कार्मण शरीर सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धों पांग नामकर्म कहते हैं।
का जो एक जीवमें परस्पर बन्ध होता है उसे पाहारपाहारकसमुद्घात-१. अथोक्तविधिना अल्पसा- कार्मणशरीरबन्ध कहते हैं। वद्य-सूक्ष्मार्थग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वृत्त्यर्थ प्रा- प्राहारकाहारकबन्धन-देखो आहारक-पाहारकहारकसमुद्धातः। (त. वा. १,२०, १२, पृ.७७)। बन्धन । पूर्वगृहीतानामाहारकपुद्गलानां स्वैरेवाहार२. पाहारके प्रारभ्यमाणे समुद्घात आहारकसमुद्- कपुद्गलैगृह्यमाणः सह यः सम्बन्धः स पाहारकाघातः । स च आहारकशरीरनामकर्माश्रयः। (जीवा- हारकबन्धनम् । (पंचसं. मलय. वृ. ३-११, पृ. जी. मलय. व. १-१३, पृ. १७; पंचसं. मलय. वृ. १२१, कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७)। २-१७, पृ. ६४)।
पूर्वगृहीत आहारकपुद्गलों का गृह्यमाण प्राहारक१ अल्प पाप और सूक्ष्म तत्त्वों के अवधारण रूप पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होने को प्राहारकाहारकप्रयोजन को सिद्ध करने वाले प्राहारक शरीर को बन्धन कहते हैं। रचना के लिए जो समुद्घात (प्रात्मप्रदेशबहिर्गमन) आहार-तैजस-कार्मरणशरीरबन्ध--पाहार-तेयाहोता है उसे पाहारकसमुदघात कहते हैं।
कम्मइयसरीरबंधो (आहार-तेया-कम्मइयसरीरआहारकसंघातननाम-यदुदयात् माहारकशरीर. खंधाणं एक्कम्हि जीवे णिविटाणं जो अण्णोण्णेण स्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति अन्योऽन्य- बंधो सो आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधो णाम )। सन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् पाहारकसंघातन- षट्खं. ५, ६,५६-पु. १४, पृ. ४४)। नाम । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ३५, पृ. ४७)। पाहारक, तेजस और कार्मण शरीरों सम्बन्धी पूदजिस कर्म के उदय से प्राहारक शरीररूप से परिणत गलस्कन्धों का जो एक जीव में परस्पर बन्ध होता हुए पुद्गल परमाणुओं को प्रात्मा संघातित करता है है उसे प्राहार-तैजस-कार्मणशरीरबन्ध कहते हैं।
-परस्पर के संनिधान (समीपता) से व्यवस्थापित आहार-तैजसशरीरबन्ध-पाहारतेयासरीरबंधो करता है-उसे पाहारकसंघातन नामकर्म कहते हैं। (पाहार-तेयासरीरक्खंधाणं एकम्हि जीवे णिविट्राणं पाहारकाङ्गोपाङ्गनाम-देखो आहारशरीरांगो- जो अण्णोण्णेण बंघो सो आहार-तेयासरीरबंघो
ग। यदुदयाद् आहारकशरीरत्वेन परिणतानां णाम)। (षट्खं. ५, ६,५४-पु. १४, पृ. ४३) । पुदगलांनामाङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् आहारक और तेजस शरीरों के पुदगलस्कन्धों का आहारकाङ्गोपाङ्गनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. व. ३३, एक जीव में जो परस्पर वन्ध होता है उसे पाहारपृ. ४६)।
तैजस शरीरबन्ध कहते हैं। जिस कर्म के उदय से प्राहारकशरीररूप से परिणत पाहारद्रव्यवर्गणा-१. आहारदव्ववग्गणा णाम हुए पुद्गल परमाणुओं का अंग-उपांग के विभाग का॥ आहारदव्ववग्गणं तिण्णं सरी से परिणमन होता है उसे पाहारकाङ्गोपाङ्ग नाम- पवत्तदि । ओरालिय-वेउव्विय- आहारसरीराणं कर्म कहते हैं।
जाणि दव्वाणि घेत्तण ओरालिय-वे उव्विय-आहारपाहारकाययोग- अाहरति आत्मसात् करोति सरीरत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि सूक्ष्मानाननेनेति आहारः । तेन आहारकायेन योगः दव्वाणि आहारदव्वग्गणा णाम । (षट्खं. ५, ६, आहारकाययोगः । (धव. पु. १, पृ. २६२)। ७२८-३०-पु. १४, पृ. ५४६)। २. जिस्से परसूक्ष्म पदार्थोंको प्रात्मसात् करने वाले प्राहारकाय से माणुपोग्गलवखंधे घेतण तिण्णं सरीराणं गहणं णिप्पजो योग होता है उसे पाहारकाययोग कहते हैं। ती पवत्तदि होदि सा आहारदव्ववग्गणा णाम । आहारकार्मरणशरीरबन्ध-ग्राहार-कम्मइयशरी- (धव. पु. १४, पृ. ५४६); जाणि ओरालिय-वेउ. रबंधो (आहार-कम्मइयसरीरवखंधाणं एक्कम्हि जीवे बिय-पाहारसरीराणं पायोग्गाणि दव्वाणि ताणि णिविट्ठाणं जो अण्णोण्णेण बंधो सो प्राहार-कम्मइय- घेत्तूण पाविऊण अोरालिय-वेउव्विय आहारसरीरत्ताए सरीरबंधो णाम-देखो सू. ४८ की धवला)। (षट- पोरालिय-वेउव्विय-पाहारसरीराणं सरूवेण ताणि खं. ५, ६, ५५-पु. १४, पृ. ४३) ।
परिणामेदूण परिणमाविय जेहि सह परिणमंति बंधं
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पाहारपर्याप्ति] २२७, जैन-लक्षणावली
[आहारशरीरनाम गच्छंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा पृ. ११७; षष्ठ कर्म. दे. स्वो. वृ. ६, पृ. १२६)। णाम । (धव. पु. १४, प. ५४७)।
६. आहारवर्गणाभ्य आगतसमयप्रबद्धपुद्गलस्कन्धान् जिसके प्राश्रय से प्रौदारिक, वैक्रियिक और पाहारक खल-रसभागेन परिणमयितुं पर्याप्तनामकर्मोदयसहिइन तीनों शरीरों की निष्पत्ति होती है उसे आहार- ताहारवर्गणावष्टम्भजनिता आत्मनः शक्तिनिष्पत्तिः द्रव्यवर्गणा कहते हैं।
आहारपर्याप्तिः । (गो. जी. म. प्र. टी. ११९)। पाहारपर्याप्ति-१. आहारपज्जत्ती णाम खल- १०. औदारिक-वैकियिकाहारक-शरीरनामकर्मोदयरसपरिणामसत्ती। (नन्दी. चू. पृ. १५) । २. शरी- प्रथमसमयमादिं कृत्वा तच्छरीरत्रय-षट्पर्याप्तिपर्यायरेन्द्रिय-वाङ्मनःप्राणाऽपानयोग्यदलिकद्रव्याहरण- परिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धान् खल-रसभागेन परिणमक्रियापरिसमाप्तिः आहारपर्याप्तिः । (त. भा. ८, यितुं पर्याप्तिनामकर्मोदयावष्टम्भसम्भूतात्मनः शक्ति१२ नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४३.४४) । ३. आहारग्रहण- निष्पत्तिः आहारपर्याप्तिः । (गो. जी. जी. प्र. टी. समर्थकरणनिष्पत्तिराहारपर्याप्तिः ।xxx शरी- ११९ कातिके. टी. १३४)। ११. तत्रैषाऽऽहाररस्येन्द्रियाणां वाचो मनस: प्राणापानयोश्चागमप्र- पर्याप्तिर्ययाऽऽदाय निजोचितम् । पृथक् खल-रसत्वेसिद्धवर्गणाक्रमेण यानि योग्यानि दलिकद्रव्याणि नाऽऽहारं परिणति नयेत् ॥ (लोकप्र. ३-१७)। तेषाम् अाहरणक्रिया ग्रहणम्-आदानम्, तस्याः १ पाहारवर्गणा के परमाणुओं को खल और रस परिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः करण विशेषः। (त. भा. भागरूप से परिणमन कराने की शक्ति को आहारहरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२) । ४. तत्राहारपर्याप्तेरर्थ पर्याप्ति कहते हैं। उच्यते-शरीरनामकर्मोदयात् पुद्गलविपाकिनः प्राहारपोषध-तत्राहारपोषधो देशतो विवक्षितआहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धाः समवेतानन्तपरमाणु- विकृतेरविकृते राचाम्लस्य वा सकृदेव द्विरेव वा भोजनिष्पादिता प्रात्मावष्टब्धक्षेत्रस्थाः कर्मस्कन्धसम्बन्ध- नम्। (योगशा. स्वो. विव. ३-८५, प. ५११)। तो मूर्तिभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्रयन्ति; तेषा- विवक्षित विकृति-विकारजनक घी-दूध आदि, मुपगतानां पुद्गलस्कन्धानां खल-रसपर्यायः परि. अविकृति-कामादि विकार को न उत्पन्न करने णमनशक्तेनिमित्तानामाप्तिराहारपर्याप्तिः (खल- वाला सादा भोजन-अथवा प्राचाम्ल (संस्काररसपर्यायः परिणमनशक्तिराहारपर्याप्तिः–मला. रहित कांजी व भात आदि) का एक-दो बार भोजन वृ.)। (धव. पु. १, पृ. २५४; मूला. वृ. १२, करना; यह देशतः आहारपोषधव्रत कहलाता है। १६५)। ५. आहारपर्याप्तिर्नाम खल-रसपरिणमन- प्राहारमिश्रकाययोग - आहार-कार्मणस्कन्धतः शक्तिः। (स्थाना. अभय. वृ. २, १, ७३, पृ. ५०)। समुत्पन्नवीर्येण योगः आहारमिश्रकाययोगः । (धव. ६. पाहारग्रहणसमर्थकरणपरिनिष्पत्तिः आहारपर्या- पु. १,१. २६३) । प्तिः। (त. भा. सिद्ध. व. ८-१२)। ७. यया आहारकशरीर और कार्मणशरीर के स्कन्धों से शक्त्या करणभूतया जन्तुराहारमादाय खल-रसरूप- उत्पन्न हए वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे तया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः । (प्रब. सारो. आहारमिश्रकाययोग कहते हैं । वृ. १३१७; विचारस. वि. व्या. ४२, पृ. ६; बृहत्क. आहारशरीर-अंतोमुहूत्तसंचिदपदेसकलाप्रो आवृ. १११२; संग्रहणी दे. वृ. २६८)। ८. यया बाह्य- हारसरीरं णाम । (धव. पु. १४, पृ.७८)। माहारमादाय खल-रसरूपतया परिणमयति सा आहा- अन्तर्मुहूर्त काल में संचित नोकर्मप्रदेशों के समूह रपर्याप्तिः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-१२, पृ. २५; का नाम पाहारशरीर है। नन्दी. मलय. वृ. १३, पृ. १०५, षडशीति मलय. प्राहारशरोरनाम-जस्स कम्मस्स उदएण आहारवृ. ३, पृ. १२४; पंचसं. मलय. वृ. १-५, पृ.८; वग्गणाए खंधा आहारसरीररूवेण परिणमंति तस्स जीवाजी. मलय. वृ. १-१२, पृ. १०; षष्ठ कर्म. पाहारसरीरमिदि सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६६)। मलय. वृ. ५, पृ. १५३; शतक. मल. हेम. वृ. ३७, जिस कर्म के उदय से आहारवर्गणा के स्कन्ध ३८, पृ. ५०; कर्मस्तव गो. वृ. ९-१०, पृ. १६; माहारशरीर के रूप में परिणत होते हैं उसे पाहारकर्मवि. दे. स्वो. वृ. ६ षडशीति दे. स्वो. व. २, शरीरनामकर्म कहते हैं।
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आहारशरीरबन्धननाम] २२८, जैन-लक्षणावली
[अाहतकर्म आहारशरीरबन्धननाम-देखो प्राहारकशरीरबन्धन तीर्थंकर के पादमूल में जाना; इसे प्राहारसमुद्घात नामकर्म । जस्स कम्मस्स उदएण आहारसरीरपरमाणू कहते हैं । अण्णोण्णण बंधमागच्छंति तमाहारसरीरबंधणणाम। प्राहारसंज्ञा-१. आहारदसणेण य तस्सुवजोगेण (धव. पु. ६, पृ. ७०)।
ऊणकुट्टाए । सादिदरुदीरणाए हवदि हु आहारजिस कर्म के उदय से आहारशरीर के परमाणु पर
सण्णा दु । (प्रा. पंचसं. १-५२; गो. जी. १३४)। स्पर में बन्ध को प्राप्त होते हैं उसे पाहारशरीर- २. आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयबन्धन नामकर्म कहते हैं।
प्रभवः खल्वात्मपरिणाम इत्यर्थः। (प्राव. हरि. वृ. पाहारशरीरसंघातनाम-देखो प्राहारकशरीर- प्र. ५८०; जीवाजी. व. १-१३, पृ. १५) । ३. प्रससंघातनाम । जस्स कम्मस्स उदएण पाहारसरीर- द्वेदनीयोदयादोज-लोम - प्रक्षेपभेदेनाहाराभिलाषपूर्वक क्खं वाणं सरीरभावमुबगदाणं बंधणणामकम्मोदएण विशिष्टपदगलग्रहणमाहारसंज्ञा, संज्ञा नाम विज्ञानं एगबंधणबद्धाण मट्टत्तं होदि तमाहारसरीरबंधण- तद्विषयमाहारमभ्यवहरामीति । (त. भा. हरि. व णाम । (धव. पु. ६, पृ.७०)।
सिद्ध. वृ. २-२५)। ४. आहारे या तृष्णा काङ्क्षा जिस कर्म के उदय से शरीर अवस्था को प्राप्त
सा आहारसंज्ञा । (धव. पु. २, पृ. ४१४)। ५. प्राआहारशरीर के स्कन्ध बन्धन नामकर्म के उदय से
हाराभिलाष आहारसंज्ञा, सा च तैजसशरीरनामकर्मोंएक बन्धनबद्ध होकर छिद्ररहित अवस्था को प्राप्त दयादसातोदयाच्च भवति । (प्राचारा. नि. शी. वृ. होते हैं उसे प्राहारशरीरसंघात नामकर्म कहते हैं। १, १, १, ३६, पृ. ११)। ६. तत्राहारसंज्ञा आहाराश्राहारसमुद्घात -- देखो आहारकसमुद्घात। भिलाषः। (स्थाना. अभय. वृ. ४-४, ३५५, पृ. १. आहारसमुग्धादो णाम पत्तिड्ढीणं महारिसीणं २६३)। ७. तत्राहारसंज्ञा क्षुद्वेदनीयोदयादाहाराभिहोदि । तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वंगसुंदरं खणमे- लाषः । (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३-२७, पृ. ८०)। त्तण प्रणयजीयणलक्खगमणक्खम अप्पडिहयगमणं ८.पाहारे विशिष्टान्नादौ संज्ञा वाञ्छा आहारसंज्ञा । उत्तमंगसंभवं प्राणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च (गो. जी.जी. प्र. टी. १३५)। ६.पाहारे योऽभिलाषः लद्धप्पसरूवं । (धव. पु. ४, पृ. २८); आहारसमु- स्याज्जन्तोः क्षदवेदनीयतः । द्याहारसंज्ञा सा ज्ञेयाx ग्घादो णाम हत्थपमाणेण सव्वंगसुंदरेण समचउरस्स
xxI (लोकप्रकाश ३-४४४)। संठाणेण हंसधवलेण रस-रुधिर-मंस-मेददि-मज्ज
१पाहार के देखने से, उसकी प्रोर उपयोग जाने सुक्कसत्तधाउअवज्जिएण विसग्गि-सत्थादिसयल.
से तथा पेट के खाली होने से असातावेदनीय की बाहामुक्केण वज्जसिलाथंभ-जल-पव्वयगमणदच्छण
उदीरणा होने पर जो पाहार की अभिलाषा होती सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं ।
है उसका नाम प्राहारसंज्ञा है। (धव. पु. ७, पृ. ३००)। २. समुत्पन्नपद-पदार्थ
माहितविशेषत्व- १. आहितविशेषत्वं वचनान्तराभ्रान्तेः परद्धिसम्पन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य
पेक्षया ढौकितविशेषता। (समवा. अभय. वृ. ३५, शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्या
प. ६०)। २. आहितविशेषत्वं शेषपुरुषवचनानिर्गत्य यत्र-कुत्रचिदन्तर्मुहूर्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तदर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मूनेः पद-पदार्थनिश्चयं
पेक्षया शिष्येषूत्पादितमतिविशेषता। (रायप. मलय.
वृ. सू. ४, पृ. २८)। समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति असो अाहारसमु
द्घातः॥ (बृ. द्रव्यसं. टी. ११, कातिके. टी. १ दूसरों के वचनोंको अपेक्षा विशेषता की उपस्थिति १७६)।
को प्राहितविशेषत्व कहते हैं । यह ३५ सत्यवचना१ प्रमाण में एक हाथका, सर्वांगसुन्दर, समचतुरन- तिशयों में ३१वां है। संस्थान से सहित, हंसके समान धवल, रस-रुधिरादि प्राहृतकर्म-१. यद् गृहादेः साधुवसतिमानीय सात धातुओं से रहित, समस्त वाधाओंसे विनिर्मुक्त, ददाति तदाहृतम्। (प्राचारा. शी. वृ. २, १, २६६, पर्वत एवं जल आदि के भीतर गमन में समर्थ और पृ. ३१७) । २. पाहृतं स्वग्रामाद्याहृतादि । (व्यव. मस्तक से उत्पन्न हए ऐसे शुभ शरीर के द्वारा भा. मलय. व. ३-१६४, पृ. ३५) । ३. यद् ग्रामा
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इक्ष्वाकु] २२६, जैन-लक्षणावली
[इच्छा न्तराद् गृहाद् वा यतिनिमित्तमानीतं तदाहृतम् । २ अपने अभिप्राय को इंगित या इंगिनी कहा (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०, पृ. ४६) ।
जाता है। १ गृहादि से साधु की वसति में लाकर जो दिया इङ्गिनी-अनशन-इङ्गिनी श्रुतविहितः क्रियाविजाता है वह पाहृत नामक उद्गम दोष से दूषित शेषस्तद्विशिष्टमनशनमिङ्गनी । अस्य प्रतिपत्ता तेनैव होता है।
क्रमेणायुषः परिहाणिमवबुध्य तथाविध एव स्थण्डिले इक्ष्वाकु-१. पाकन्तीक्षुरसं प्रीत्या बाहुल्येन त्वयि एकाकी कृतचतुर्विधाहारपत्याख्यानश्छायात् उष्णप्रभो। प्रजाः प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कीर्त्यसे । मुष्णाच्छायां संक्रामन् सचेष्टः सम्यग्ध्यानपरायणः (ह. पु. ८-२१०)। २. आकानाच्च तदेक्षूणां रस- प्राणान् जहाति इत्येतदिङ्गिनीरूपमनशनम् । (योगसंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरित्यभद् देवो जगतामभि- शा. स्वो. विव. ४-८९)। संमतः ॥ (म. पु. १६-२६४)।
प्रागमविहित एक क्रियाविशेष का नाम इङ्गिनी है। कर्मभूमि के प्रारम्भ में भगवान् आदिनाथ ने प्रजा उसको स्वीकार करने वाला क्रमसे होने वाली के लिए चूंकि इक्षुरस के संग्रह का उपदेश दिया प्रायु की हानि को जानकर जीव-जन्तु रहित एकान्त था, अतएव उन्हें इक्ष्वाकु कहा जाता है।
स्थान में रहता हा चारों प्रकार के प्राहार इङ्गाल-देखो अङ्गार दोष । १. जे णं णिग्गंथे वा का परित्याग करता है। वह छाया से उष्ण णिग्गंथी वा फासु-एसणिज्ज असण-पाण-खाइम- प्रदेश में और उष्ण प्रदेश से छाया में संक्रमण करता साइमं पडिग्गाहेत्ता समुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोव- हुमा सावधान रहकर ध्यान में तत्पर रहता है व न्ने प्राहारं प्राहारेति एस णं गोयमा स इंगाले पाण- प्राणों को छोड़ता है-मृत्यु को स्वीकार करता है। भोयणे। (भगवती ७, १, १६-खण्ड ३, पृ. ५)। इसे इङ्गिनीरूप अनशन कहा जाता है। २. निर्वाता विशाला नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रा- इङ्गिनीमरण-देखो इङ्गिनी व इङ्गिनी-अनशन । नुराग इङ्गालः। (भ. प्रा. विजयो. ३-२३०; १. आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षम इङ्गि
टी. ४४६)। ३. इङ्गालं सरागप्रशंसनम् । नीमरणम् । (धव. पु. १, पृ. २३-२४) । २. इङ्गिनी (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २५, पृ. ५८)।
श्रुतविहितक्रियाविशेषः, तद्विशिष्टं मरणमिङ्गिनीमर१ साधु और साध्वी प्रासुक व एषणीय प्रशन, पान, णम् । अयमपि हि प्रवृज्यादिप्रतिपत्तिक्रमेणवायुषः खादिम एवं स्वादिम आहार को ग्रहण करके मोह परिहाणिमवबुध्य प्रात्तनिजोपकरणः स्थावर-जङ्गमको प्राप्त होता हुआ यदि लोलुपता व प्रासक्ति से प्राणिविजितस्थण्डिलस्थायी एकाकी कृतचतुर्विधाउस पाहार को खाता है तो यह इङ्गाल (अंगार) हारप्रत्याख्यानः छायात उष्णं उष्णाच्छायां सङ्क्रामन् नाम का एषणा दोष होता है। २ यह वसतिका सचेष्टः सम्यग्ज्ञानपरायणः प्राणान् जहाति एतदिङ्गिहवा और अधिक गर्मी-सर्दी से रहित विशाल और नीमरणमपरिकर्मपूर्वकं चेति । (त. भा. सिद्ध. व. ६, सुन्दर है; ऐसा समझ कर उसमें अनुराग करने से १९) । ३. स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं इंगालदोष होता है।
मरणं इङ्गिनीमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. इङ्गित-इङ्गितं निपुणमतिगम्यं प्रवृत्ति-निवृत्ति- २६)। ४. अप्पोवयारवेक्खं परोवयारूणमिंगणीमरसूचकमीषभ्रू-शिरःकम्पादि। (जीतक. चू. वि. णं। (गो. क. ६१)। ५. परप्रतीकारनिरपेक्षमाव्या. ४-२५, पृ. ३८)।
त्मोपकारसापेक्षमिङ्गिनीमरणम् । (चा. सा. पृ. ६८ निपुणबुद्धियों के द्वारा जान सकने के योग्य ऐसे कार्तिके. टी. ४६६)। प्रवृत्ति या निवृत्ति के सूचक कुछ भ्रुकुटि व शिर के १ दूसरेके द्वारा की जाने वाली सेवा-सुश्रूषा को स्वीकम्पन प्रादि शारीरिक संकेतों को इङ्गित कहा कार न करके स्वयं ही शरीर की सेवा-सुश्रुषा करते जाता है।
हुए जो मरण होता है उसे इङ्गिनीमरण कहते हैं । इङ्गिनी--१. इंगिणीशब्देन इङ्गितमात्मनो भण्यते। इच्छा-१. एषणं इच्छा बाह्याऽभ्यन्तरपरिग्रहाभि(भ. प्रा. विजयो. २६)। २. इंगिणीशब्देन इंगित- लाषः । (जयध. प. ७७७)। २. इच्छाऽभिलाषस्त्रमात्मनोऽभिप्रायो भण्यते । (भ. प्रा. मूला. २६)। लोक्यविषयः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४६)।
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इच्छाकार] २३०, जैन-लक्षणावली
[इच्छायोग ३. इच्छा अन्तःकरणप्रवृत्तिः। (सूत्रकृ. शी. वृ. २, इच्छानुरूप वचनप्रयोग का नाम इच्छानुलोमवचनी २, ३५, पृ. ७१)। ४. इच्छा तद्वत्कथाप्रीतिः है। जैसे-उसी प्रकार मैं भी होना चाहता हूं, X.xx। (ज्ञानसार २७-४ )। ५. इच्छा इत्यादि वचनप्रयोग। साधकभावाभिलाषः, तद् योगपञ्चकं येषु विद्यते ते इच्छानुलोमवाक्-तवेष्टं पुष्टं कुर्वेऽहमित्याद्येच्छातद्वन्तः श्रमणा:, तेषां कथासु गुणकथनादिषु प्रीतिः नुलोमवाक् ।। (प्राचा. सा. ५-८६)।
उक्तं च हरिभद्रपूज्य:-तज्जुत्तकहापीई तुम्हारे प्रभीष्ट को मैं पुष्ट करता है, इत्यादि प्रकार संगया विपरिणामणी इच्छा इति । (ज्ञानसार देव- के वचन को इच्छानुलोमवाक् कहते हैं। चन्द्र वृ. २७-४)।
इच्छानुलोमा-देखो इच्छानुलोमवचनी। १. इच्छा१बाह्य और प्राभ्यन्तर परिग्रह की अभिलाषा नुलोमा नाम कार्यं कर्तमिच्छता केनचित् प्रष्टे कश्चिको इच्छा कहते हैं। २ तीनों लोक सम्बन्धी अभि- दाह करोति (तु) भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति । लाषा का नाम इच्छा है। यह लोभ कषाय का (धर्मसं. मान. स्वो. व. ३-४१, पृ. १२३)। नामान्तर है। ..
२. णियइच्छियत्तकहणं णेया इच्छाणुलोमा य ।। इच्छाकार-१. इट्टे इच्छाकारो xxx। (भाषार. ७६) । ३. निजेप्सितत्वं स्वेच्छाविषयत्वम्, (मूला. ४-५) । २. तत्रैषणमिच्छा क्रियाप्रवृत्त्यभ्यु- तत्कथनं स्वेच्छानुलोमा ज्ञेया। यथा कश्चित् किपगमः, करणं कारः, इच्छया करणं इच्छाकारः, ञ्चित्कारभमाणः कञ्चन पृच्छति करोम्येतदिति । आज्ञा-बलाभियोगव्यापारप्रतिपक्षो व्यापारणं चेत्यर्थः। स प्राह-करोतु भवान्, ममाप्येतदभिप्रेतमिति । (अनुयो. हरि. व. पृ. ५८)। ३. एषणमिच्छा, (भाषार. वृ. ७६)। करणं कारः, XXX इच्छया बलाभियोगमन्तरेण १कार्य करने के इच्छुक किसी के द्वारा पूछने पर करणम् इच्छाकारः, इच्छाक्रियेत्यर्थः । तथा च ममेदं जो कोई यह कहता है कि 'करो, मुझे भी यह अभीकुरु. इच्छाक्रियया, न च बलाभियोगपूर्विकयेति ष्ट है', इस प्रकार की भाषा को इच्छानुलोमा कहा भावार्थः। (प्राव. नि. हरि. व.६६६, पृ. २५% जाता है। जीतक. चू. वि. व्या. पृ. ४१, ६-४)। ४. इच्छा- इच्छाप्रवृत्तदर्शनबालमरण - तयोः (इच्छानिमभ्युपगमं करोतीति इच्छाकारः आदरः। (मूला. च्छाप्रवृत्तमरणयोः) आद्यमग्निना धूमेन शस्त्रेण व. ४-४); इठे इष्टे सम्यग्दर्शनादिके शुभपरि- विषेण उदकेन मरुत्प्रपातेन उच्छवासनिरोधेन अतिणामे वा, इच्छाकारो-इच्छाकारोऽभ्युपगमो हर्षः शीतोष्णपातेन रज्ज्वा क्षुधा तृषा जिह्वोत्पाटनेन स्वेच्छया प्रवर्तनम् । (मला. वृ. ४-५)। ५. पुस्त- विरुद्धाहारसेवनया बाला मृति ढोकन्ते कूतश्चिन्निकालापयोगादेर्या याञ्चा विनयान्विता। स्व-परार्थे मित्ताज्जीवितपरित्यागैषिणः । (भग. प्रा. विजयो. यतीन्द्राणां सेच्छाकारः प्ररूपितः ।। (प्राचा. सा. टी. २५; भा. प्रा. टी. ३२)।
कारणवश प्राणघात की इच्छा करने वाले अज्ञानी १अभीष्ट सम्यग्दर्शनादि अथवा शुभ परिणाम को जन अग्नि, धूम, शस्त्र, विष, पानी, प्रांधी, श्वासस्वीकार करना, उसमें हर्ष प्रगट करना और इच्छा- निरोध, अतिशय शैत्य या उष्णता, रस्सी (फांसी), नसार उसमें प्रदर्तना; इसका नाम इच्छाकार है। भूख, प्यास, जीभ का उखाड़ना और विपरीत ३ बलप्रयोग के बिना इच्छा से 'मेरा यह कार्य कर आहार का सेवन ; इत्यादि कारणों में किसी भी दो' इस प्रकार प्रेरणा करना; यह इच्छाकार कह- कारण के द्वारा जो मृत्यु का प्राश्रय लेते हैं, यह लाता है।
इच्छाप्रवृत्तदर्शनबालमरण कहलाता है। इच्छानुलोमवचनी -- देखो इच्छानुलोमवाक्। इच्छायोग-१. कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि १. इच्छानुलोमवचनी इच्छानुवृत्तिभाषा यथा तथा प्रमादतः । विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग भवतीत्यादिः । (गो. जी. म. प्र. टी. २२५)। २. तथैव उच्यते ॥ (योगदृष्टिस. ३)। २. तज्जुत्तकहापीईइ मयाऽपि भवितव्यमित्यादि इच्छानुवृत्तिभाषा इच्छा- संगया विपरिणामिणी इच्छा। (योगवि. ५)। नुलोमवचनी । (गो. जी. जी. प्र. टी. २२५) । ३. ज्ञातागमस्यापि प्रमादिनः कालादिवैकल्येन चैत्य
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इच्छाविभाषण]
२३१, जैन-लक्षणावली [इत्वरपरिगृहीतागमन वन्दनाद्यनुष्ठानमिच्छाप्राधान्यादिच्छायोगः । (शा- एवम्भूताभिधाने कि केन संगतम् ? इत्यसत्, यस्मात् स्त्रवा. टी. ६-२७)।
इत्थम्भूतस्यैव इदम् ‘एवम्भतः' इति नामान्तरम् । ३ पागम का ज्ञाता होकर भी प्रमादवश कालादि । (न्यायकु. ५-४४, पृ. ६३६) । को विकलता से स्वेच्छापूर्वक चैत्यवन्दना प्रादि १क्रिया के प्राश्रयसे वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन करने क्रियाओं के करने को इच्छायोग कहते हैं। वाले नय को इत्थंभूत (एवम्भूत) नय कहते हैं। इच्छाविभाषण-१. दीनाद्यन्नाद्यदानेन पूण्यं नन जैसे-गमनक्रियापरिणत गाय को ही गौ भवेदिति । पृष्टेऽभ्युपगमान्नार्थं भवेदिच्छाविभाष- इत्थंलक्षणसंस्थान- १. वृत्त-त्र्यस्र-चतुरस्रायतणम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४०)। २. कश्चित् पृच्छति परिमण्डलादीनामित्थंलक्षणम् । (स. सि. ५-२४;त. हे मुने, दीन-हीनादीनामन्नादिदानेन पुण्यं भवेन्न वा सुखबो. वृ. ५-२४)। २. वृत्तं त्र्यस्र चतुरस्रमायतं भवेत् ? मुनिरन्नार्थं वदति पुण्यं भवेदेवेत्यभ्युपगम । परिमण्डलमित्येबमादि संस्थानमित्थंलक्षणम् । (त. इच्छाविभाषणम् । (भा. प्रा. टी. ६६)।
वा. ५, २४, १३)। ३. संस्थानमित्थंलक्षणं चतुर१ दीन-हीन जनों को अन्नादि के देने से क्या पुण्य स्रादिकम। (त. श्लो. ५-२४)। ४. संस्थानं होता है, इस प्रकार किसी के पूछने पर अन्न के कलशादीनामित्थंलक्षणमिष्यते । (त. सा. ६-६३)। लिये होता है ऐसा स्वीकारात्मक वचन कहना, यह ५. इत्थंलक्षणं संस्थानं त्रिकोण-चतु:कोण-दीर्घ-परिएक इच्छाविभाषण नाम का उत्पादन दोष माना मण्डलादि । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। जाता है।
गोल, त्रिकोण एवं चतष्कोण प्रादि विविध इच्छावृत्ति-पूर्वात्तानशनातापयोगोपकरणादिषु । प्राकारों को इत्थंलक्षणसंस्थान कहते हैं। सेच्छावृत्तिर्गणीच्छानुवृत्तिर्या विनयास्पदा ॥ (प्राचा. इत्वर अनशन- १. न अशनमनशनम्, आहारसा. २-९)।
त्याग इत्यर्थः । तत्पुनद्विधा इत्वरं यावत्कथिकं च । पूर्व में गृहीत अनशन व प्रातापनयोग आदि करने के तत्रत्वरं परमितकालम्, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुसमय प्राचार्य की इच्छा के अनुसार सविनय पाच- र्थादिषण्मासान्तम् । (दशवै. नि. हरि. वृ. १, १, रण करने को इच्छावृत्ति कहते हैं।
४७, पृ. २६)। २. तत्रत्वरं नमस्कारसहितादि । इतर मैत्री-इतरः प्रतिपन्नः पूर्वपुरुषप्रतिपन्नेषु xxx चतुर्थभक्तादिषण्मासपर्यवसानमित्वरमनवा स्वजनसम्बन्धनिरपेक्षा या मैत्री सा तृतीया। शनं भगवतः महावीरस्य तीर्थे । (त. भा. सिद्ध. व. षोडशक वृ. १३-६)।
९-१६)। कुटुम्बी जन से भिन्न इतर जनों में जिन्हें स्वयं १परमित काल तक जो आहार का त्याग किया स्वीकार किया गया है या जो पूर्व पुरुषों द्वारा स्वी- जाता है उसे इत्वर अनशन कहते हैं। वह महाकृत हैं-स्वजन सम्बन्ध की अपेक्षा न कर मैत्रीभाव वीर के तीर्थ में एक से लेकर छह मास तक के रखने को इतर मैत्री कहते हैं। यह मैत्रीभावना अभीष्ट है। के चार भेदों में तीसरा है।
इत्वर-परिगृहीतागमन - १. इत्वरपरिगृहीताइतरेतराभाव-स्वरूपान्तरात् स्वरूपव्यावृत्तिरित- गमनं स्तोककालपरिगृहीतागमनम्, भाटीप्रदानेन रेतराभावः। (प्र. न. त. ३-६३) ।
कियन्तमपि कालं स्ववशीकृतवेश्यामैथुनासेवनमिस्वरूपान्तर से स्वरूप की व्यावत्ति को इतरेतरा- त्यर्थः। (श्रा. प्र. टी. २७३)। २. तत्वरभाव कहते हैं।
कालपरिगृहीता काल-शब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, इत्थंभूत (एवम्भूत नय)-१.xxx इत्थं- भाटिप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवस-मासादिकं भूतः क्रियाश्रयः। (लघीय. ५-४४; प्रमाणसं. स्ववशीकृतेत्यर्थः, तस्या गमनम् अभिगमो मैथु८३)। २. इत्थंभूतनयः क्रियार्थवचनः स्यात्कार- नासेवना इत्वरपरिगृहीतागमनम् । (प्राव. वृ. ६, मुद्राङ्कितः । (सिद्धिवि. ११-३१, पृ. ७३६ पं.)। पृ. ८२५) । ३. इत्थंभूतः क्रियाशब्दभेदात् अर्थभेदकृत इति । १ द्रव्य देकर कुछ काल के लिए अपने अधीन करके xxx ननु च इत्थंभूतस्वरूपप्ररूपणे प्रस्तुते व्यभिचारिणी (वेश्या) स्त्री के साथ विषय सेवन
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इत्वरपरिगृहीतापरि.] . २३२, जैन-लक्षणावली
[इत्वरिकागमन करने को इत्वरपरिगृहीतागमन कहते हैं। यह ब्रह्म- इत्वरात्तागम-इत्वरी प्रतिपुरुषमयनशीला, वेश्या चर्याणुव्रत का एक प्रतीचार है।
इत्यर्थः, सा चासावात्ता च कञ्चित्कालं भाटीप्रदाइत्वर-परिगृहीतापरिगृहीतागमन-इत्वरी अय- नादिना संगृहीता, पुंवद्भावे इत्वरात्ता। अथवा नशीला, भाटीप्रदानेन स्तोककालं परिगृहीता इत्वर- इत्वरं स्तोकमप्युच्यते, इत्वरं स्तोकमल्पमात्ता इत्वरापरिगृहीता वेश्या, तथा अपरिगृहीता वेश्यैव अगृही- त्ता, विस्पष्टपटुवत् समासः । अथवा इत्वरकालमात्ता तान्यसत्कभाटिः, कलाङ्गना वा ऽनाथेति, तयोर्गम- इत्वरात्ता, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, काल-शब्दलोनम् प्रासेवनम् इत्वरपरिगृहीतापरिगृहीतागमनम्। पश्च । तस्या गम आसेवनम् । इय चात्र भावना(धर्मबि. मु. वृ. ३-२६)।
भाटीप्रदानादित्वरकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य व्यभिचारिणी वेश्या अथवा अनाथ कुलीन स्त्री को वेश्यां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतद्रव्य देकर और कुछ काल के लिए अपनी मानकर सापेक्षचित्तत्वान्न भङ्गः, अल्पकालपरिग्रहाच्च; उनके साथ विषय-सेवन करने को इत्वरपरिगहीता- वस्तुतोऽन्यकलत्रत्वाद् भङ्गः, इति भङ्गाभङ्गरूपपरिगृहीतागमन कहते हैं। यह ब्रह्मचर्याणवत का त्वादित्वरात्तागमोऽतिचारः । (योगशा. स्वो. विव. एक अतीचार है।
३-६४)।
इत्वरीका अर्थ परपुरुष से सम्बन्ध रखने वाली इत्वर-परिहारविशुद्धिक-१. इत्तरिय थेरकप्पे
वेश्या है और प्रात्त शब्द का अर्थ है गृहीत । अभिजिणकप्पे प्रावकहिया उ ॥ (पंचव. १५२४)। २. एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः। तद्यथा
प्राय यह है कि भाड़ा देकर कुछ काल के लिए
अपनी स्त्री समझते हुए वेश्या से समागम करना, इत्वरा यावत्कथिकाश्च । तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं
इसका नाम इत्वरात्तागम है। अथवा इत्वर का तमेव कल्पं गच्छं समुपयास्यन्ति ते इत्वराः । (प्राव.
अर्थ स्तोक भी होता है, तदनुसार ऐसी स्त्री को उपो. नि. मलय. व. ११४, पृ. १२२)। ३. ये कल्प.
कुछ काल के लिए ग्रहण करना, इसे इत्वरात्तागम समाप्त्यनन्तरभेव कल्पं गच्छं वा समुपास्यन्ति त . इत्वराः । (षडशी. दे. स्वो. वृ. १२, पृ. १३७) ।
समझना चाहिए। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का प्रथम
प्रतीचार है। जो कल्पसमाप्ति के अनन्तर अर्थात् परिहारविशुद्धि
इत्वरिकागमन-१. तत्रत्वरिकागमनम् अस्वासंयम की साधना के पश्चात् अपने पूर्व गच्छ (स्थ
मिका असती गणिकात्वेन पुंश्चलित्वेन वा पुरुषाविर कल्प) को चले जाते हैं उनको इत्वर-परिहार
नेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी। तथा प्रतिपुरुषविशुद्धिक कहते हैं।
मेतीत्येवंशीले ति व्युत्पत्त्या वेश्यापीत्वरी । ततः इत्वर-सामायिक-१. सावज्जजोगविरइ त्ति तत्थ
कुत्सायां के इत्वरिका, तस्यां गमनमासेवनम् । इयं सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं चिय पढमं पढ- चात्र भावना-भाटीप्रदानान्नियतकालस्वीकारेण मंतिमजिणाणं ।। तित्थेसु अणारोवियवयस्स सेहस्स स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां वेत्वरिकां सेवमानस्य स्वबुद्धिथोवकालीयं । (विशेषा. १२६८-६९); तत्र स्वल्प. कल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापेक्षचित्तत्वादल्पकालकालमित्वरम्, तदाद्य-चरमाहत्तीर्थयोरेवाऽनारोपित- परिग्रहाच्च न भंगो, वस्तूतोऽस्वदारत्वाच्च भङ्ग व्रतस्य शैक्षस्य । (विशषा. स्वो. वृ. १२६१)। इति भङ्गाभङ्गरूपत्वादित्वरिकाया वेश्यात्वेनान्य२.तत्रत्वरं भरतरावतेषु प्रथम-पश्चिमतीर्थकरतीथेषु स्यास्त्वनाथतयैव परदारत्वात् । (सा. ध. स्वो. टी. अनारोपितमहाव्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयम् XXX । ४-५८) । २. इत्वरिकागमनं पंश्चली-वेश्या-दासी(श्राव. उपो. नि. मलय. वृ. ११४) ।
नां गमनं जघन-स्तन-वदनादिनिरीक्षण-संभाषण१भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी प्रथम और हस्त-भ्रकटाक्षादिसंज्ञाविधानम् इत्येवमादिकं निखिलं अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में महावतों के प्रारोपण रागित्वेन दुश्चेष्टितं गमनमित्युच्यते । (कातिके. (स्थापन) से रहित शैक्ष (शिष्यभूत) साधु के टी. ३३८) । ३. इत्वरिका स्यात्पुंश्चली सा द्विधा जो इत्वर-कुछ काल की अवधि युक्त-सामायिक प्राग्यथोदिता। काचित् परिगृहीता स्यादपरिगृहीता चारित्र हुमा करता है उसे इत्वर सामायिक कहते हैं। परा ।। ताभ्यां सरागवागादि वस्पर्शोऽथवा रतम् ।
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इत्वरिकापरिगृहीता.] २३३, जैन-लक्षणावली
[इन्द्रिय दोषोऽतिचारसंज्ञोऽपि ब्रह्मचर्यस्य हानये ॥ (लाटी- इन्द्राः। (स. सि. ४-४; त. श्लो. ४.४) । २. परसं. ७५-७६) ।
मैश्वर्यादिन्द्रव्यपदेशः । अन्यदेवासाधारणाणिमादि१ भाड़ा देकर कुछ काल के लिए अपनी मान वेश्या योगादिन्दन्तीति इन्द्राः । (त. वा. ४,४,१)। या अन्य दुराचारिणी स्त्री का सेवन करना, यह ३. इन्द्रो जीव: सर्वद्रव्यश्वर्ययोगाद्विषयेषु वा परमैब्रह्मचर्याणुव्रत को दूषित करने वाला उसका एक श्वर्ययोगात् । (त. भा. २-१५); तन्द्रा भवइत्वरिकागमन नामका प्रतीचार है।
नवासि-व्यन्तर-ज्योतिष्क-विमानाधिपतयः । (त. इत्वरिकापरिगृहीताऽपरिग्रहीतागमन-१. पर- भा. ४-४)। ४. इन्द्रः स्वरूपतो ज्ञानाद्यश्वर्ययुक्तपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी, कुत्सिता इत्वरी, त्वादात्मा। (नन्दी. हरि. व. पृ. २८)। ५. इन्दकुत्सितायां कः, इत्वरिका । या एकपुरुषभर्तृका सा नाद्यणिमाद्यैश्च गुणैरिन्द्रो ह्यनन्यजैः। (म. पु. परिगृहीता, या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा पर- २२-२२)। ६. इन्दनादिन्द्रः सर्वभोगोपभोगाधिपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। ष्ठानः सर्वद्रव्यविषयैश्वर्योपभोगाज्जीवः। (त. भा. परिगृहीता चापरिगृहीता च परिगृहीतापरिगृहीते, सिद्ध. वृ. २-१५)। ७. तत्र 'इंदु परमैश्वर्ये' इन्दन्ति इत्वरिके च ते परिगृहीतापरिगृहीते च इत्वरिकापरि- परमाजैश्वर्यमनुभवन्तीति इन्द्रा अधिपतयः। (बृहत्सं. गृहीताऽपरिगृहीते, तयोर्गमनम् इत्वरिकापरिगृहीता- मलय. वृ. २)। ८. इन्द्राः परमैश्वर्यत: सर्वाधिपतऽपरिगृहीतागमनम्। (स. सि. ७-२८)। २. अयन- यः । (संग्रहणी दे. वृ. १)। ६. इन्दन्ति परमेश्वर्य शोलेत्वरी। ज्ञानावरणक्षयोपशमापादितकलागुणज्ञ- प्राप्नुवन्ति अपरामरासमानाः अणिमादिगुणयोगातया चारित्रमोह-स्त्रीवेदोदयप्रकर्षादंगोपांगनामो- दिति इन्द्राः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-४)। दयावष्टम्भाच्च परपुरुषानेति (अग्ने स. सि. वत्)। १ अन्य देवों में नहीं पाई जाने वाली असाधारण (त. वा. ७, २८, २; चा. सा. पृ. ६)। ३. एति अणिमा-महिमादि ऋद्धियों के धारक ऐसे देवाधिगच्छति परपूरुषानित्येवंशीला इत्वरी, कुत्सिता पति को इन्द्र कहते हैं। इत्वरी इत्वरिका। एकपुरुषभर्तृका या स्त्री भवति इन्द्रधनुष–इन्द्रधनुः धनुषाकारेण पञ्चवर्णपुद्गलसधवा विधवा वा सा परिगृहीता सम्बद्धा कथ्यते। निचयः । (मूला. वृ. ५-७७)। या वाराङ्गनात्वेन पुंश्चलीभावेन वा परपुरुषानुभवन- वर्षाकाल में प्राकाश में जो धनुषाकार पांच वर्ण शीला निःस्वामिका सा अपरिगृहीता असम्बद्धा वाला पुद्गलसमूह दिखता है वह इन्द्रधनुष कहकथ्यते । परिगृहीता च अपरिगृहीता च परिगृहीता- लाता है। ऽपरिगृहीते, इत्वरिके च ते परिगृहीताऽपरिगृहीते इन्द्रिय-१. इन्दतीति इन्द्र आत्मा, तस्य ज्ञस्व. इत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीते, इत्वरिकापरिगृहीता- भावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुऽपरिगृहीतयोगमने प्रवृत्ती द्वे इत्वरिकापरिगृहीता- मसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिनिमित्तं लिङ्गं तदिन्द्रस्य ऽपरिगृहीतागमने । गमने इति कोऽर्थः ? जघन स्तन- लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थं गमयतीवदनादिनिरीक्षणं सम्भाषणं पाणि-भ्रू-चक्षुरन्तादि- ति लिङ्गम् । प्रात्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गसंज्ञाविधानमित्येवमादिकं निखिलं रागित्वेन दुश्चे- मिन्द्रियम् । xxx अथवा इन्द्र इति नामकर्मोष्टितं गमनमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२८)। च्यते, तेन सृष्टमिन्द्रियमिति । (स. सि. १-१४)। १ एक पुरुष (स्वामी) से सम्बद्ध दुराचारिणी स्त्री २. इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिके साथ समागम करनेका नाम इत्वरिकापरिगहीता- न्द्रदत्तमिति वा [पा. अष्टा. ५।२।६३] । इन्द्रो गमन है। तथा स्वामी से विहीन वेश्या या अन्य। जीवः सर्वद्रव्येष्वैश्वर्ययोगाद् विषयेषु वा परमैश्वर्यदुराचारिणी स्त्री के साथ समागम करना, यह इत्व- योगात्, तस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । लिङ्गनात्सूचनात्प्ररिका-अपरिगृहीतागमन है। ये दो ब्रह्मचर्याणुव्रत के दर्शनादुपष्टम्भनाद् व्यञ्जनाच्च जीवस्य लिङ्गमिपृथक् पृथक अतिचार हैं।
न्द्रियम् । (त. भा. २-१५) । ३. इन्द्रस्यात्मनोऽर्थोइन्द्र-१. अन्यदेवासाधारणाणिमादियोगादिन्दन्तीति पलब्धिलिङ्गमिन्द्रियम् । इन्द्र पात्मा, तस्य कर्म
ल. ३०
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इन्द्रिय ]
मलीमसस्य स्वयमर्थान् गृहीतुसमर्थस्याऽर्थोपलम्भने यल्लिङ्गं तदिन्द्रयमुच्यते । (त. वा. १, १४, १ ) ; इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गमिन्द्रियम् । उपभोक्तुरात्मनोsaवृत्तबन्धस्यापि परमेश्वरत्वशक्तियोगात् इन्द्रव्यपदेशमर्हतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योपयोगोपकरणं लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते । (त. वा. २, १५, १ ) ; इन्द्रेण कर्मणा सृष्टमिति वा । अथवा स्वकृतकर्मवशादात्मा देवेन्द्रादिषु तिर्यगादिषु चेष्टानिष्ट - मनुभवतीति कर्मैव तत्रेन्द्रः तेन सृष्टमिन्द्रियमित्या ख्यायते । (त. वा. २, १५, २) । ४. तत्रेन्द्रियमिति कः शब्दार्थः ? 'इदि परमैश्वर्ये' इन्दनादिन्द्रःसर्वोपलब्धि भोग परमैश्वर्यसम्बन्धाज्जीवः, तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं चेत्यादि । (श्राव. नि. हरि. वृ. 8१८, पृ. ३६८ ) । ५. इन्द्रेण कर्मणा स्पृ[सृ]ष्टमिन्द्रियं स्पर्शनादीन्द्रियनामकर्मोदयनिमित्तत्वात् । इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गमिन्द्रियमिति वा कर्ममलीमसस्यात्मनः स्वयमर्थानुपलब्ध्य [ब्धुम ] समर्थस्य हि यदर्थोपलब्धौ लिङ्गं निमित्तं तमिन्द्रियमिति भाष्यते । (त. श्लो. २०१५ ) । ६. प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि । प्रक्षाणीन्द्रियाणि । अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं विषयोऽक्षजो बोधो वा तत्र निरतानि व्यापृतानि इन्द्रियाणि । शब्दस्पर्शरस-रूप-गन्धज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाद् द्रव्ये - न्द्रियनिबन्धनादिन्द्रियाणीति यावत् । XXX सङ्कर व्यतिकराभ्यां व्यापृतिनिराकरणाय स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणीति वा वक्तव्यम् । XXX अथवा स्ववृत्तिरतानीन्द्रियाणि । संशय विपर्यय-निर्णयादो वर्तनं वृत्तिः, तस्यां स्ववृत्तौ रतानीन्द्रियाणि । X X X अथवा स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि । XX X अथवा इन्दनादाधिपत्यादिन्द्रियाणि । ( धव. पु. १, पृ. १३५ आदि); इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रेण सृष्टमिति वा इन्द्रियशब्दार्थः XXX । ( धव. पु. १, पू. २३७ ) ; इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्त कर्म सम्बन्धस्य परमेश्वरशक्तियोगादिन्द्रव्यपदेशमर्हतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योपयोगोपकरणं लिङ्गमिति कथ्यते । ( धव. पु. १, पृ. २६०); स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणि, स्वार्थनिरतानी - न्द्रियाणीत्यर्थः । अथवा इन्द्र आत्मा, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । ( धव. पु. ७, पृ. ६ ) ; इंदस्स लिंगमिदियं । इंदो जीवो, तस्स लिंगं जाणावणं सूचयं जं तमिदयमिदि वृत्तं होदि । ( धव. पु. ७, पृ. ६१ ) ।
[ इन्द्रिय
७. तस्यैवंप्रकारस्यात्मन इन्द्रस्य लिङ्गं चिह्नमविनाभाव्यत्यन्तलीनपदार्थावगमकारीन्द्रियमुच्यते । (त. भा. सिद्ध. वृ. २- १५ ) । ८. इन्द्रियाणि मतिज्ञानावरणक्षयोपशमशक्तयः । ( मूला वृ. १-१६); स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि अथवा इन्द्र आत्मा तस्य लिङ्गमिन्द्रियम् इन्द्रेण दृष्टमिति चेन्द्रियम् । (मूला. वृ. १२ - १५६ ) । 8 इन्दनादिन्द्रो जीवः सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । ( ललितवि. मु. पं. पू. ३९ ) । १०. स्पर्शादिग्रहणं लक्षणं येषां तानि यथासंख्यं स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि X X X तत्रेन्द्रेण कर्मणा सृष्टानीन्द्रियाणि, नामकर्मोदयनिमित्तत्वात् । इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गानि वा, कर्ममलीमसस्य हि स्वयमर्थानुपलब्धुमसमर्थस्यात्मनोsaपलब्धt निमित्तानि इन्द्रियाणि । XX X यद्वा, इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गान्यात्मगमकानि इन्द्रियाणि । (प्रमाणमी. १, १, २१, पृ. १६) । ११. इन्द्रस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य सूक्ष्मस्य च लिङ्गमर्थोपलम्भे सहकारिकारणं ज्ञाय [प] कं वा यत्तदिन्द्रियम् । इन्द्रेण नामकर्मणा वा जन्यमिन्द्रियम् । (त. सुखबो. वृ० १-१४) । १२. 'इदुपरमैश्वर्ये', 'उदितो नम्' इति नम्, इन्दनात् इन्द्रः आत्मा सर्वद्रव्योलब्धिरूपपरमैश्वर्यंयोगात्, तस्य लिङ्गं चिह्नमविनाभावि इन्द्रियम् । ( नन्दी. मलय. वृ. ३, पृ. ७५; जीवाजी. मलय. वृ. १ - १३, पृ. १६; प्रव. सारो. वृ. १९०५) । १३. इन्दनादिन्द्रः आत्मा ज्ञानलक्षणपरमैश्र्ययोगात्, तस्येदं इन्द्रियम् इति निपातनादिन्द्रशब्दादियप्रत्ययः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १३-१८२, पृ. २८५ ) । १४. इन्द्रो जीवः सर्वपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । लिङ्गनात् सूचनात् प्रदर्शनादुपलम्भाद् व्यञ्जनाच्च जीवस्य लिङ्गमिन्द्रियम् । (ज्ञा. सा. दे. वृ. ७, पृ. २५) । १५. इन्दति परमैश्वर्यं प्राप्नोतीति इन्द्रः, आत्मतत्त्वस्य श्रात्मनः ज्ञायकैकस्वभावस्य मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्गं तत् इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमुच्यते । अथवा लीनमर्थं गमयति ज्ञापयतीति लिङ्गमिन्द्रियमुच्यते । आत्मनः सूक्ष्मस्य अस्तित्वाधिगमकारकं लिङ्गमिन्द्रियमित्यर्थः । XXX अथवा नामकर्मणः इन्द्र इति संज्ञा, इन्द्रेण नामकर्मणा स्पृष्टं [सृष्टं ] इन्द्रियमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २- १८ ) ; इन्द्रशब्देन श्रात्मा उच्यते, तस्य लिङ्गं इन्द्रियमुच्यते ।
२३४, जैन-लक्षणावली
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इन्द्रियजय] २३५, जैन-लक्षणावली
[इन्द्रियप्रणिधि (त. वृलि श्रुत. २-१८)। १६. इदुः स्यात् पर- निर्वतितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिः । (स्थाना. मैश्वर्ये धातोरस्य प्रयोगतः । इन्दनात् परमैश्वर्या- अभय. व. २, १, ७३, पृ. ५०)। ७. यया धातुदिन्द्र आत्माभिधीयते ॥ तस्य लिङ्गं तेन सृष्टमिती- रूपतया परिणमितमाहार मिन्द्रियरूपतया परिणमन्द्रियमुदीर्यते ॥ (लोकप्र. ३-४६४-६५)।
यति सा इन्द्रियपर्याप्तिः । (पंचसं. मलय. व. १-५%3 १ परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले प्रात्मा को इन्द्र नन्दी. मलय. वृ. १३, पृ. १०५; षष्ठ कर्म. मलय. और उस इन्द्र के लिङ्गः या चिह्न को इन्द्रिय कहते ७.६, पृ. १२६, कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४८, पृ.५५, हैं। अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में ५६; जीवाजी. मलय. वृ.१-१२, प्रज्ञाप, भलय. निमित्त होता है उसे इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जो व.१-१२, पृ. २५; सप्ततिका मलय. वृ. ५, पृ. सूक्ष्म प्रात्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है उसे १५३, षडशी. मलय. व. ३, पृ. १२४; षडशी. इन्द्रिय कहते हैं । अथवा इन्द्र नाम नामकर्म का है, दे. स्वो. बृ. २, पृ. ११७)। ८. यया तु धातुभूतउसके द्वारा निर्मित स्पर्शनादि को इन्द्रिय कहा माहारमिन्द्रियतया परिणमयति सेन्द्रियपर्याप्ति:। जाता है।
(कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. ८७; शतक. मल. हेम. इन्द्रियजय--१. अरिषडवर्गत्यागेनाविरुद्धार्थप्रति- व. ३७-३८, पृ. ५०)। ६. यया धातुरूपतया पत्त्येन्द्रियजयः । (धर्मबि. १-१५)। २. विषया- परिणमितादाहारादिन्द्रियप्रायोग्यद्रव्याण्युपादायक-द्विटवीषु स्वच्छन्दप्रधावमानेन्द्रियगजानां ज्ञान-वैराग्यो- त्र्यादीन्द्रियरूपतया परिणमय्य स्पर्शादिविषयपवासाद्यंकूशाकर्षणेन वशीकरणमिन्द्रि यजयः । (चा. परिज्ञानसमर्थो भवति सा इन्द्रियपर्याप्तिः। (वहत्क. सा. प. ४४)। ३. इन्द्रियाणां श्रोत्रादीन्द्रियाणां क्षेम. व. १११२)। १०. योग्यदेशस्थितस्पर्शाजयः अत्यन्तासक्तिपरिहारेण स्व-स्वविकारनिरोधः। दिविषयग्रहणव्यापारविशिष्टस्यात्मनः पर्याप्तनाम(धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-६, पृ. ६)।
कर्मोदयवशात् स्पर्शनादिद्रव्येन्द्रियरूपेण विवक्षित२ विषयरूप वन में स्वच्छन्द दौड़ने वाले इन्द्रियरूप पुद्गलस्कन्धान् परिणमयितुं शक्तिनिष्पत्तिरिन्द्रियमदोन्मत्त गजों के ज्ञान, वैराग्य एवं उपवासादिरूप पर्याप्तिः। (गो. जी. म. प्र. टी. ११६)। ११. इन्द्रिअंकश के प्रहारों द्वारा वश में करने को इन्द्रियजय यपर्याप्ति:- यया धातुरूपतया परिणमितादाहाराकहते हैं।
देकस्य द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णा पञ्चानां वा इन्द्रियाणां इन्द्रियपर्याप्ति-१. पंचण्हमिदियाणं जोग्गा पो- योग्यान् पुद्गलानादाय स्व-स्वेन्द्रियरूपतया परिग्गला विचिणि अणाभोगणिव्वत्तितवीरियकरणेण णमय्य च स्वं स्वं विषयं परिज्ञातुं प्रभुर्भवति । तब्भावापायणसत्ती इंदियपज्जत्ती। (नन्दी. चू. पृ. (संग्रहणी दे. वृ. २६८)। १२. आवरण-वीर्यान्त१५)। २. त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनक्रियापरिसमाप्ति- रायक्षयोपशमविभितात्मनो योग्यदेशावस्थितरूपारिन्द्रियपर्याप्तिः । (त. भा. ८-१२; नन्दी. हरि. दिविषयग्रहणव्यापारे शक्तिनिष्पत्तिर्जातिनामकर्मोव. प. ४४)। ३. योग्यदेशस्थितरूपादिविशिष्टार्थ- दयजनितेन्द्रियपर्याप्तिः। (गो. जी. जी. प्र. टी. ग्रहणशक्त्युत्पत्तेनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्या- ११६; कातिके. टी. १३४)। प्तिः। (धव. पु. १, पृ. २५५); सच्छेसु पोग्गलेसु ३ योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के मिलिदेसु तब्बलेण बज्झत्थगहणसत्तीए समुप्पत्ती ग्रहण करनेरूप शक्ति की उत्पत्ति के निमित्तइंदियपज्जत्ती णाम । (धव. पु. १४, पृ. ५२७)। भूत पुद्गलप्रचय की प्राप्ति को इन्द्रियपर्याप्ति कहते ४. इन्द्रियकरण निष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः (त. भा. हैं। ७ जिस शक्ति के द्वारा धातुरूप से परिसिद्ध. व. ८-१२, पृ. १६०); तत्र च स्वरूपनिर्व- णत आहार इन्द्रियों के प्राकार रूप से परिणत हो, निक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । (त. भा. उसे इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं। सिद्ध. वृ. ८-१२, पृ. १६१)। ५. योग्यदेशस्थित- इन्द्रियप्ररिणधि-सद्देसु अ रूवेसु अ गंधेसु रसेसू
शिष्टार्थग्रहणशक्तेनिष्पत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः। तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ एसा खलु (मला. व. १२-१६६)। ६. इन्द्रियपर्याप्तिः पञ्चा- इंदियप्पणिही ।। (दशवै. नि. २६५) । नामिन्द्रियाणां योग्यान् पुदगलान् गृहीत्वाऽनाभोग- पांचों इन्द्रियों के शब्दादिरूप मनोज्ञ और अमनोज्ञ
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इन्द्रियप्रत्यक्ष ]
विषयों में राम और दोष के नहीं करने को इन्द्रियप्रणिधि कहते हैं ।
इन्द्रियप्रत्यक्ष - १. तत्रेन्द्रियं श्रोत्रादि, तन्निमित्तं यदलैङ्गिकं शब्दादिज्ञानं तदिन्द्रिप्रत्यक्षं व्यावहारिकम् । (अनुयो. चू. पू. ७४; अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०० ) । २. इन्द्रियाणां प्रत्यक्षमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (नन्दी. हरि. वृ. १०, पृ. २०) । ३. इन्द्रियप्रत्यक्षं देशतो विशद मविसंवादकं प्रतिपत्तव्यम् । ( प्रमाणप. पू. ६८ ) | ४. हिताहिताप्तिनिर्मुक्तिक्षममिन्द्रियनिर्मितम् । यद्दे - शतोऽर्थज्ञानं तदन्द्रियाध्यक्षमुच्यते ।। ( न्यायवि. वि. १, ३, ३०८, पृ. १०५ ) । ५. तत्रेन्द्रियस्य चक्षुरादेः कार्यं यद्बहिर्नीलादिसंवेदनं तदिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (प्रमाणनि. २, पु. ३३) । ६. स्पर्शनादीन्द्रियव्यापारप्रभवमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (लघीय. अभय वृ. ६१, पृ. ८२ ) । ७. अत्रेन्द्रियं श्रोत्रादि, तन्निमित्तं सहकारिकारणं यस्योत्पत्सोस्तदलिङ्गकं शब्द रूपरसगन्धस्पर्शविषयज्ञानमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (अनुयो मल. हेम. वृ. पृ. २११) । ८. इन्द्रियप्राधान्यादनिन्द्रियबलाघानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (प्र. र. मा. २ - ५) ।
४. श्रोत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला जो अर्थज्ञान हित की प्राप्ति और श्रहित के परिहार में समर्थ होता हुआ देशतः विशद ( स्पष्ट ) होता है उसे इन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं । इन्द्रियवशार्तमररण- १. इन्द्रियवशार्तमरणं यत् तत्पंचविधमिन्द्रियविषयापेक्षया । सुरैर्नरैस्तिर्यग्भिरजीवैश्च कृतेषु तत-वितत घन-सुषिरेषु मनोज्ञेषु रक्तो मनोज्ञेषु द्विष्टो मृतिमेति । तथा चतुःप्रकारे ग्राहारे रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणम्, पूर्वोक्तानां सुर-नरादीनां गन्धे द्विष्टस्य रक्तस्य वा मरणम्, तेषामेव रूपे संस्थाने वा रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणम्, तेषामेव स्पर्श रागवतो द्वेषवतो वा मरणम् । (भ. श्री. विजयो. टी. २५) । २. इंदियत्रिसयवसगया मरंति जे तं वस तु । ( प्रव. सारो. १०१०) ।
१ पांच इन्द्रियों के इष्ट विषयों में अनुरक्त और अनिष्ट विषयों में द्वेष को प्राप्त हुए प्राणी के मरण को इन्द्रियवशार्तमरण कहा जाता है। इन्द्रियसंयम - १. शब्दादिष्वन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वंग: । (त. वा. ६, ६, १४) । २. इन्द्रियविषयराग-द्वेषाभ्यां निवृत्तिरिन्द्रियसंयमः । (भ. प्रा. विजयो. टी. ४६ ) । ३. इन्द्रियादिषु श्रर्थेषु [ इन्द्रिया
[ इषुगलि
र्थेषु ] रागानभिष्वंग इन्द्रियसंयमः । (चा. सा. पृ. ३२) । ४. पञ्चानामिन्द्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिन्द्रियनिरोधाख्यः संयमः प्रथमो मतः । (पंचाध्यायी २ - १११५) ।
१ पांचों इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष के अभाव को इन्द्रियसंयम कहते हैं । इन्द्रियसुख-जं णोकसाय - विग्घचउक्काण बलेण सादपदी | सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥ (क्ष. सा. ६११) ।
नोकषाय और श्रन्तराय की लाभादि चार प्रकृतियों के बल से व सातावेदनीय श्रादि पुण्य प्रकृतियों के उदय से जो इन्द्रियजनित सन्तोष उत्पन्न होता है उसे इन्द्रियसुख कहते हैं ।
इन्द्रियासंयम - १. तत्थ इंदियासंजमो छव्विहो परिस-रस-रूप-गंध-सद्द-गोइंदियासंजम भेएण । (घव. पु. ८, पृ. २१) । २. रसविषयानुरागात्मकः इन्द्रि - यासंयमः । (भ. श्री. विजयो. टी. २१३) । ३. यः स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः श्रोत्रलक्षणानां मनश्च स्पर्शरस- गन्ध-वर्ण- शब्दलक्षणेषु स्वेच्छाप्रचारः स इन्द्रियासंयमः । ( श्रारा. सा. टी. ६) ।
३ पांचों इन्द्रियों के विषयों में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने को इन्द्रियासंयम कहते हैं । इन्द्रियभेद से उस असंयम के भी छह भेद हो जाते हैं ।
२३६, जैन-लक्षणावली
इभ्य - १. इभ्य: प्रर्थवान्, स च किल यस्य पुञ्जीकृतरत्नराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येत्यावताऽर्थेनेति । ( अनुयो. हरि. वृ. सू. १६, पृ. १६) । २. इभमर्हतीतीभ्यो धनवान् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६- २०५, पृ. ३३० ) । ३. इभो हस्ती, तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हतीतीभ्यः यत्सत्कपुञ्जीकृत हिरण्य - रत्नादिद्रव्येणान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वाइभ्य इत्यर्थः । (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १४७) । ४. इभमर्हतीति इभ्यः, यस्य सत्कसुवर्णादिद्रव्यपुञ्जनान्तरितो हुस्त्यपि न दृश्यते सः अभ्यधिकद्रव्यो वेत्यर्थः । (बृहत्क. क्षे. वृ. १२०९ ) ।
१ जिसके पास संचित सुवर्ण - रत्नादि की राशि से अन्तरित हाथी भी दिखाई न दे उस प्रति धनवान् पुरुष को इभ्य कहते हैं । इषुगति - ऋज्वी गतिरिषुगतिरेकसमयिकी । (धव. पु.१, पृ. २εC)।
पूर्व शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर को प्राप्त करने
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इष्ट]
२३७, जैन-लक्षणावली [इहलोकाशंसाप्रयोग के लिए जो जीव की एक समय वाली सीधी- ३-७३, धर्मसं. मान. स्वो. ७.३-२७, पृ. ८०)। मोड़ा से रहित-गति होती है वह इषुगति कह- १२. मनोहरविषयवियोगे सति मनोहराः विषयाः लाती है।
इष्टपुत्र-मित्र-कलत्र-भ्रातृ-धन-धान्य-सुवर्ण-रत्न-गजइष्ट-१. तेन साधनविषयत्वेनेप्सितमिष्ट मुच्यते। तुरंग-वस्त्रादयः, तेषां वियोगे विप्रयोगे तं बियुवतं (प्र. र. मा. ३-२०)। २. इष्टम् प्रागमेन स्ववच- पदार्थ कथं प्रापयामि लभे, तत्संयोगाय वारंवार नैरेवाभ्युपगतम् । (षोडश. वृ. १-१०)।
स्मरणं विकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध इष्टवियोगाख्यं द्वितीय१ साधन का विषय होकर जो वक्ताको अभीष्ट मार्तम् । (कातिके. टी. ३७४)। है उसे इष्ट कहते हैं।
२ पुत्र, पत्नी एवं धन प्रादि इष्ट पदार्थों का वियोग इष्टवियोगज प्रार्तध्यान-१. विपरीतं मनोज्ञस्य होने पर उनके संयोग के लिये जो बार-बार चिन्ता (मनोज्ञस्य विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय स्मृतिसमन्वा- होती है। वह इष्टवियोगज प्रार्तध्यान कहलाता है। हार:) । (त. सू. ६-३१) । २. मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्र-दारा-धनादेविप्रयोगे तत्सम्प्रयोगाय सङ्कल्पश्चि- डादिविषयम् । (रत्नक. टी. ५-८)। २. मनुष्यादिम्ताप्रबन्धो द्वितीयमार्तम् । (स. सि. ६-३१)। कस्य सजातीयादेरन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद् ३. मनोज्ञानां विषयाणां मनोज्ञायाश्च वेदनाया भयम् तदिहलोकभयम् । (ललितवि. मु.पं.पृ. ३८)। विप्रयोगे तत्सम्प्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार पार्तम् । ३. तत्र यत्स्वभावात्प्राप्यते यथा मनुष्यस्य मनुष्यात्, (त. भा. ६-३३)। ४. मनोज्ञस्य विषयस्य विप्रयोगे तिरश्चः तिर्यग्भ्यः इत्यादि तदिहलोकभयम् । (प्राव. सम्प्रयुयुक्षां प्रति या परिध्यातिः स्मृतिसमन्वाहार- भा. मलय.व. १८४, पृ. ५७३) । ४. तत्रेहलोकतो शब्दचोदिता असावपि प्रार्तध्यानमिति निश्चीयते । भीतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो मा (त. वा. ६, ३१, १)। ५. मनोज्ञस्य विप्रयोगे मुन्माभून्मेऽनिष्टसंगमः।। (पंचाध्यायी २-५०६) । तत्सम्प्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो द्वितीयमार्तम् । ५. मनुष्यस्य मनुष्याद् भयं इहलोकभयम् । (कल्पसू. (त. श्लो. ६-३१)। ६. मणहरविसयवियोगे कह वि. व. १-१५, पु. ३०)। तं पावेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्रो सो १इस लोक सम्बन्धी भूख-प्यास आदि की पीड़ा के
अट हवे भाणं ।। (कातिके. ४७४) । ७. कथं भय को इहलोकभय कहते हैं। २ सजातीय मनुष्य नु नाम भूयोऽपि तैः सह मनोज्ञविषयः सम्प्रयोगः आदि को जो अन्य मनुष्य प्रादि से भय होता स्यान्ममेति एवं प्रणिधत्ते दृढं मनस्तदप्यार्तम् । (त. है उसे इहलोकभय कहते हैं। भा. सिद्ध. वृ. ६-३३)। ८. राज्यश्वर्य-कलत्र-बान्धव- इहलोकसंवेजनी-जहा सव्वमेयं माणुसत्तणं असासुहृत्सौभाग्य-भोगात्यये, चित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषय- रमधुवं कदलीथंभसमाणं, एरिसं कहं कहेमाणो घम्मप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रास-भ्रम-शोक-मोहविवशर्यत् कही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा इहलोकसंवेखिद्यतेऽहनिशम्, तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां यणी। (दशव. नि. हरि. व. ३-१९९)। ध्यानं कलङ्कास्पदम् ।। (ज्ञानार्णव २५-२६, प. यह मनुष्य पर्याय कदली-स्तम्भ के समान प्रसार व २५६)। ६. इष्टः सह सर्वदा यदि मम संयोगो अस्थिर है, इस प्रकार की कथा को कहने वाला भवति, वियोगो न कदाचिदपि स्याद्यद्येवं चिन्तन- उपदेशक चूंकि श्रोताओं के हृदय में इस लोक से मातध्यानं द्वितीयम् । (मला. व. ५-१९८)। वैराग्य को उत्पन्न करता है, अतः उसे इहलोक१०. जीवाजीव-कलत्र-पत्र-कनकाऽगारादिकादात्मनः, प्रेमप्रीतिवशात्मसात्कृतबहिःसंगाद्वियोगोद्गमे । क्ले- इहलोकाशंसाप्रयोग - इहलोको मनुष्यलोकः, शेनेष्टवियोगजार्तमचलं तच्चिन्तनं मे कथम, तस्मिन्नाशंसाभिलाषः, तस्याः प्रयोगः। (श्रा. प्र. टी. न स्यादिष्टवियोग इत्यपि सदा मन्दस्य दुःकर्मणः॥ ३८५) । (प्राचा. सा. १०-१४)। ११. इष्टानां च शब्दा- इस लोक (मनु क) के विषय में अभिलाषा के दीनां विषयाणां सातवेदनायाश्चावियोगाध्यवसानं प्रयोग को इहलोकाशंसाप्रयोग कहते हैं। यह एक सम्प्रयोगाभिलाषश्च तृतीयम । (योगशा. स्वो. विव. संलेखना का अतिचार है।
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र्याप कर्म ]
ईर्यापथकर्म- - १. जं तमीरियावहकम्मं णाम । तं दुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावकम्मं णाम । ( षट्खं. ५, ४, २३-२४, पु.१३, पृ. ४७)। २. ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः, तद्वारकं कर्म ईर्यापथम् । ( स. सि. ६-४ ) । ३. ईरणमीर्या योगगतिः । x x x ईरणमीर्या योगगतिरिति यावत् । तद्द्वारकमीर्यापथम् । सा ईर्या द्वारं पन्था यस्य तदीर्यापथं कर्म । x x x उपशान्तक्षीणकषाययोः योगिनश्च योगिवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बन्धाभावे शुष्ककुडघ पतितलोष्ठवद् अनन्तरसमये निर्वतमानमीर्या पथमित्युच्यते । (त. वा. ६, ४, ६–७)। ४. अकषायस्येयपथस्यैवैकसमय स्थिते: । ( त. भा. ६ - ५ ) । ५. ईर्या योग:, स पन्था मार्ग : हेतु: यस्य कर्मणः तदीयपथकर्म । जोगनिमित्तेणेव जं बज्झइ तमीरियावहकम्मं ति भणिदं होदि । X X X एत्थ ईरियावहकम्मस्स लक्खणं गाहाहि उच्चदे । तं जहा - अप्पं बादर मवुग्रं बहुअं लुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं पि य सादभहियं च तं कम्मं ॥ गहिदमगहिदं च तहा बद्धमवद्धं च च । उदिदादिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे || णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि णायव्वं । प्रणुदीरिदं ति य पुणो इरियावहलवखणं एदं ।। ( धव. पु, १३, पृ. ४७-४८ ) । ६. ईर्या योगगतिः, सैव यथा [ पन्था ] यस्य तदुच्यते । कर्मेर्यापथमस्यास्तु शुष्ककुडयेऽश्मवच्चिरं ॥ × × × कषायपरतंत्रस्यात्मनः साम्परायिकास्रवस्तदपरतंत्रस्येयपथासव इति सूक्तम् । (त. इलो. वा. ६, ४, ६) । ७. ईरणमीर्या गतिरागमानुसारिणी । विहितप्रयोजने सति पुरस्ताद् युगमात्रदृष्टिः स्थावर-जंगमाभिभूतानि परिवर्जयन्नप्रमत्तः शनैर्यायात् तपस्वीति सैवंविधा गतिः पन्थाः मार्गः प्रवेशो यस्य कर्मणस्तदीर्याथम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ५ ) । ८. ईरणमर्या गतिरिति यावत् सा ईर्या द्वारं पन्था यस्य तदीयपथं कर्म । (त. सुखबो वृ. ६-४ ) । ६. ईर्येति कोऽर्ध: ? योगो गतिः योगप्रवृत्तिः काय वाङ्-मनोव्यापारः कायवाङ्मनोवर्गणावलम्बी च आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो जीवप्रदेशचलनम् ईर्येति भण्यते, तद्द्वारकं कर्म ईर्यापथम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४) ।
२ ईर्ष्या का अर्थ योग है, एक मात्र उस योग के
[ ईर्यासमिति
द्वारा जो कर्म आता है उसे ईर्ष्यापथकर्म कहते हैं । ईर्याथक्रिया - १. ईर्यापथनिमित्तेर्यापक्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ७) । २. ईर्यापथनिमित्ता या सा प्रोक्तेयपथक्रिया । (ह. पु. ५८, ६५) । ३. ईथक्रिया तत्र प्रोक्ता तत्कर्महेतुका । (त. इलो. ६, ५, ७) । ४. ईर्यापथकर्मणो याति ( हि ? ) निमित्तभूता वध्यमान वेद्यमानस्य सेयपथक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ५. अर्जयन्त्युपशान्ताद्या ईर्यापथमथापरे । (त. सा. ४ - ५ ) । २ ईर्यापथ कर्म को कारणभूत क्रिया को ईर्यापथक्रिया कहते हैं ।
ईर्यापथशुद्धि - १. ईर्यापथशुद्धिर्नानाविधजीवस्थानयोन्याश्रयावबोधजनितप्रयत्न परिहृतजन्तुपीडा ज्ञानादित्य-स्वेन्द्रियप्रकाशनिरीक्षित देशगामिनी द्रुत-विलम्बित - सम्भ्रान्त विस्मित-लीलाविकार-दिगन्तरावलोकनादिदोषरहितगमना । तस्यां सत्यां संयमः प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ । (त. वा. ६, ६, १५; चा. स. पू. ३५; कार्तिके. टी. ३६६ ) । २. भयविस्मय- विभ्रान्ति लीलाविकृतिलङ्घन । प्रधावनाद्यपेतेर्याशुद्धियान्विता ।। (प्राचा. सा. ८-१२ ) । १ जीबस्थान व योनि आदि के परिज्ञानपूर्वक प्राणिपीडाके परिहारका प्रयत्न करते हुए ज्ञान व सूर्यप्रकाश से आलोकित मार्ग पर द्रुतविलम्बित, सम्भ्रान्त, विस्मय और दिगन्तरावलोकन आदि दोषों से रहित होकर चलने को ईर्यापथशुद्धि कहते हैं । ईर्याथिक क्रिया - देखो ईर्यापथक्रिया । ईर्ष्यापथिकी क्रिया केवलिनामेकसामयिकरूपा । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. १५, पृ. ४१) ।
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र्याप कर्म की कारणभूत जो केवलियों के एक समय रूप क्रिया हुया करती है वह ईर्यापथिकीक्रिया कहलाती है ।
२३८, जैन- लक्षणावली
ईर्यासमिति - १. फासूयमग्गेण दिवा जुगंत रप्पेहिणा सज्जेण । जंतूण परिहरतेणिरियासमिदी हवे गमणं ।। ( मूला १ - ११ ) ; मग्गुज्जोवुपग्रोगालंaणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचि मणिया इरियासमिदी पवयणम्मि । ( मूला ५-१०५; भ. श्रा. १९९१) । २. फासूयमग्गेण दिवा श्रवलोगंतो जुगप्पमाणं हि । गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स || (नि. सा. ६१ ) । ३. श्रावश्यकायैव संयमार्थं सर्वतो युगमात्रनिरीक्षणायुक्त स्य
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ईर्यासमिति] २३६, जैन-लक्षणावली
[ईर्यासमिति शनैय॑स्तपदा गतिरीर्यासमितिः । (त. भा. ६-५)। दंशुभिः । जन्तुरक्षार्थमालोक्य गतिरीर्या मता४. तत्र व्रज्यायां जीवधपरिहारः ईर्यासमितिः। विदित- सताम् ।। (योगशा. १-३६)। १४. स्यादीर्यासमिति: जीवस्थानादिविधेर्मनेर्धर्मार्थ प्रयतमानस्य सवितर्यदिते श्रुतार्थविदुषो देशान्तरं प्रेप्सतः, श्रेयःसाधनसिद्धये चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्य उपजाते मनुष्यादिचरण- नियमिनः कामं जनर्वाहिते। मार्गे कौकुटिकस्य पातोपहतावश्यायप्रायमार्गेऽनन्यमनसः शनैय॑स्त- भास्करकरस्पृष्टे दिवा गच्छतः, कारुण्येन शनैः पदानि पादस्य संकुचितावयवस्य युगमात्रपूर्वनिरीक्ष- ददतः पातुं प्रयत्याङ्गिनः ।। (अन. ध. ४-१६४) । णावहितदृष्टेः पृथिव्याद्यारम्भाभावात् ईर्या- १५. जुगमित्तंतरदिट्ठी पयं पयं चक्खुणा विसोहितो । समितिरित्याख्यायते । (त. वा. ६, ५, ३) । अव्वक्खित्ताउत्तो इरियासमिनो मुणी होइ॥ (गु. ५. ईर्यासमिति म रथ-शकट-यान -वाहनाक्लान्तेष गु. षट्. ३, पृ. १४; उप. मा. २६६)। १६. मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविवतेषु पथिषु ईर्यासमिति म कर्मोदयाऽऽपादित-विशेषक-द्वि-त्रियुगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनमिति । (प्राव. चतुः-पञ्चेन्द्रियभेदेन चतुर्विद्धिद्विचतुर्विवल्पचतुर्दशहरि. व. पु. ६१५)। ६. ईरणम् ईर्या गमनम्, तत्र जीवस्थानादिविधानवेदिनो मुनेधर्मार्थ प्रयतमानस्य समितिः सङ्गतिः श्रुतरूपेणात्मनः परिणामः, तदु- सवितर्युदिते चक्षुषोविषयग्रहणसामर्थ्यमुपजनयतः पयोगिता पुरस्ताद् युगमात्रया दृष्टया स्थावर- (कार्ति.-धर्मार्थं पर्यटतः गच्छतः सूर्योदये चक्षुषो जंगमानि भूतानि परिवर्जयन्नप्रमत्त इत्यादिको विषयग्रहणसामर्थ्यम् उपजायते ।) मनुष्य-हस्त्यश्वविधिरीर्यासमितिः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. शकट-गोकुलादिचरणपातोपहतावश्यायप्राये (चा.७-३); ईरणमीर्या गतिः परिणतिः सम्यग प्राग- प्रालय) मार्गेऽनन्यमनसः शनैय॑स्तपादस्य स मानुसारिणी गतिरीर्यासमितिः । (त. भा. हरि. व चितावयवस्य उत्सृष्टपार्श्वदष्टेर्यगमात्र पूर्व निरीक्षणासिद्ध. वृ. ६-५); सम्यग् आगमपूर्विका ईर्या वहितलोचनस्य स्थित्वा दिशो विलोकयतः पृथिगमनम् आत्म-परबाधापरिहारेण । (त. भा. हरि. व व्याद्यारम्भाभावादीर्यासमितिरित्याख्यायते। (चा. सिद्ध. वृ. ६-५)। ७. चक्षुर्गोचरजीवौघान् परि- सा. पु. ३१, कार्तिके. टी. ३९६)। १७. मार्तण्डहृत्य यतेर्यतः । ईर्यासमितिराद्या सा व्रतशुद्धिकरी किरणस्पृष्टे गच्छतो लोकवाहिते। मार्ग दृष्ट्वा मता ।। (ह. पु. २-१२२)। ८. चर्यायां जीवबाधा- ऽङ्गिसङ्घातमीर्यादिसमितिमंता ॥ (धर्म. श्रा. परिहारः ईर्यासमितिः। (त. श्लो. ६-५)। ६. १-४) १८. तीर्थयात्रा-धर्मकार्याद्यर्थं गच्छतो मुनेमार्गोद्योतोपयोगानामालम्ब्यस्य च शुद्धिभिः । श्चतुःकरमात्रमार्गनिरीक्षणपूर्वकं सावधानदृष्टेरप्यगच्छतः सूत्रमार्गेण स्मृतेर्यासमितिर्यतेः ।। (त. सा. ग्रचेतसः सम्यग्विज्ञातजीवस्थानस्वरूपस्य सम्यगीर्या६-७)। १०. सिद्धक्षेत्राणि सिद्धानि जिनबिम्बानि समितिर्भवति । (त. वत्ति श्रत. 8-५)। १६. वन्दितुम् । गुर्वाचार्य-तपोवृद्धान् सेवितुं व्रजतोऽथवा॥ ईर्यासमितिश्चतुर्हस्त वीक्षितमार्गगमनम् । (चा. प्रा. दिवा सूर्यकरैः स्पृष्टं मागं लोकातिवाहितम् । दया- टी. ३६)। २०. दृष्ट्वा दृष्ट्वा शनैः सम्यग्युगदघ्नां
स्यांगिरक्षार्थ शनैः संश्रयतो मुनेः ।। प्रागेवालोक्य धरां पुरः । निष्प्रमादो गृही गच्छेदीर्यासमितियत्नेन युगमात्राहितेऽक्षिणः । प्रमादरहितस्यास्य रुच्यते ।। (लाटीसं. ५-२१५)। २१. युगमात्रासमितीर्या प्रकीर्तिता ॥ (ज्ञानार्णव १८, ५-७, पृ. वलोकिन्या दृष्टया सूर्याशुभासितम् । विलोक्य मार्ग १८६)। ११. ईर्यायाः समितिः ईर्यासमितिः सम्यग- गन्तव्यमितीर्यासमितिर्भवेत् ।। (लोकप्र. ३०.७४४)। वलोकनं समाहितचित्तस्य प्रयत्नेन गमनागमनादि- २२. त्रस-स्थावरजन्तुजाताभयदानदीक्षितस्य मनेकम् । (मूला. व. १-११०)। १२. पुरो युगान्तरे- रावश्यके प्रयोजने गच्छतो जन्तुरक्षानिमित्तं च ऽक्षस्य दिने प्रासुकवत्मनि । सदयस्य सकार्यस्य पादानादारभ्य युगमात्रक्षेत्र यावन्निरीक्ष्य ईरणम् स्यादीर्यासमितिर्गतिः ॥ (प्राचा. सा. १-२२); ईर्या गतिस्तस्याः समितिरीर्यासमितिः । (धर्मसं. मन्द न्यस्तपदापास्तद्रुतातीवविलम्विनः। दिपेन्द्र- मान. स्वो. वृ. ३-४७ पृ. १३०)। मन्दयानस्य स्यादीर्यासमितिर्गतिः ॥ (प्राचा. सा. १ शास्त्रश्रवण व तीर्थयात्रादिरूप कार्य के बश दिन ५-७८)। १३. लोकातिवाहिते मार्ग चुम्बिते भास्व- में प्रासुक-जीव-जन्तुरहित-मार्ग से चार हाथ
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ईर्ष्या] २४०, जैन-लक्षणावली
[ईषत्प्राग्भार भूमिको देखते हुए जन्तुओं को पीड़ा न पहुंचा कर ईसरकयं होदि । (गो. क. ८८०)। २. जीवो गमन करना, इसका नाम ईर्यासमिति है।
अण्णाणी खलु असमत्थो तस्स जं सुहं दुक्खं । सग्गं ईर्ष्या-१. परसम्पदामसहनमीा । (जीतक. च. णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि । (अंगप. २, वि. व्या. पृ. ३८, ५-१६)। २. ईर्ष्या परगुण- २०)। विमवाद्यक्षमा। (त. भा. हरि व सिद्ध. व. ६-१)।
यह प्रज्ञ प्राणी अपने सुख और दुख को भोगने के ३. ईर्ष्या प्रतिपक्षाभ्युदयजनितो मत्सरविशेषः। लिए स्वयं असमर्थ होकर ईश्वर के प्राधीन है, (शास्त्रवा. टी. १-२)।
उसकी प्रेरणा से ही वह स्वर्ग को या नरक को १ दूसरों के उत्कर्ष को न सह सकना, इसका नाम जाता है। इस प्रकार की मान्यता को ईश्वरवाद ईर्ष्या है।
कहते हैं। ईशित्व-१. णिस्सेसाण पहुत्तं जगाण ईसत्तणाम
ईषत्प्राग्भार-देखो अष्टम पृथ्वी । १. सव्वट्ठरिद्धी सा। (ति. प. ४-१०३०)। २. त्रैलोक्यस्य सिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतूणं । बारसजोयणप्रभुतेशित्वम् । (त. वा. ३-३६; चा. सा. पृ. ९८; मेत्तं अट्ठमिया चिट्ठदे पुढवी ॥ पुव्वावरेण तीए प्रा. योगभ. टी. ६)। ३. सव्वेसि जीवाणं गाम उवरिम-हेट्ठिम-तलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का णयर-खेडादीणं च भुंजणसत्ती समुप्पण्णा ईसित्तं रज्जू रूवेण परिहीणा ।। उत्तर-दक्षिणभाए दीहा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७६)। ४. ईशित्वं त्रैलो- किंचूणसत्तरज्जूयो। वेत्तासणसंठाणा सा पुढवी क्यस्य प्रभुता तीर्थकर-त्रिदशेश्वर-ऋद्धिविकरणम । अट्ठजोयण बहला । जुत्ता घणोवहि-घणाणिल(योगशा. स्वो. विव. १-८; प्रव. सारो. वृ. तणुवादेहिं तिहि समीरेहिं । जोयणबीससहस्सं १४९५)।
पमाणबहलेहि पत्तेक्कं ॥ एदाए बहुमज्झे खेत्तं १ समस्त जगत् के ऊपर प्रभाव डालनेवाली शक्ति णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसुवण्णसरिसं णाणारयको ईशित्व ऋद्धि कहते हैं।
णेहिं परिपुण्णं ।। (ति. प. ८, ६५२-६५६) । २. ईश्वर-१. ईश्वरो युवराजा माण्डलिकोऽमा- अत्थीसिप्पन्भारोवल क्खियं मणयलोगपरिमाणं । त्यश्च । अन्ये तु व्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणखाद।। (विशेषा. ईश्वरः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १६) । ३८२०) । ३. अट्ठमपुढवी सत्तरज्जुअायदा एगरज्जु२. येनाप्तं परमैश्वर्यं परानन्दसुखास्पदम् । बोधरूपं रुंदा अट्टजोयणबाहल्ला सप्तमभागाहियएयजोयण कृतार्थोऽसावीश्वरः पटभिः स्मतः ॥ (आप्तस्व. बाहल्लं जगपदरं होदि । (धव. पु. ४, प. २३) । ३. केवलज्ञानादिगुणश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रा- ४. उपरिष्टात्पुनः सर्वकल्पविमानान्यतीत्यार्धतृतीयदयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः यस्याज्ञां कुर्वन्ति स द्वीपविष्कम्भायामोत्तानकछत्राकृतिरीषत्प्राग्भारा । ईश्वराभिधानो भवति । (बृ. द्रव्यसं. वृ. १४)। (त. भा. सिद्ध. वृ. ३-१) । ५. ईषत्-अल्पो ४. ईश्वरः अणिमाद्यैश्वर्ययुक्तः । (प्रज्ञाप. मलय. योजनाष्टकबाहल्य - पञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् वृ. १६-२०५, पृ. ३३०) । ५. ईश्वरो भोगिकादि, प्राग्भारः पुद्गलनिचयो यस्याः सेषत्प्राग्भाराऽष्टमअणिमाद्यष्टविधश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके । (जीवाजी. पृथिवी। (स्थाना. अभय. वृ. ३, १, १४८, पृ. मलय. वृ. ३, २, १४७, पृ. २८०)।
११९)। ६. तिहुबणसिहरेण मही वित्थारे अट्ठजोयणु१ यवराज, माण्डलिक और अमात्य को ईश्वर दयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ।। कहा जाता है । मतान्तर से जो अणिमादिरूप पाठ (क्ष. सा. ६४५) । प्रकार के ऐश्वर्य से सम्पन्न है उसे ईश्वर कहते हैं। १ सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक के ध्वजदण्ड से ऊपर बारह २ जिसने कृतकृत्य होकर निराकुल सुख के कारण- योजन जाकर पाठवीं पृथिवी अवस्थित है। वह भूत केवलज्ञान रूप उत्कृष्ट विभूति को प्राप्त कर पूर्व-पश्चिम में रूप से कम एक राजु चौड़ी, उत्तरलिया है, उस परमात्मा को ईश्वर कहते हैं। दक्षिण में कुछ कम सात राजु लम्बी और पाठ ईश्वरवाद-१. अण्णाणी हु अणीसो अप्पा तस्स योजन मोटी है। प्राकार उसका बेत के प्रासन य सुहं च दुक्खं च । सगं णिरयं गमणं सव्वं जैसा है। तीन वातवलयों से युक्त उस पृथिवी के
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हा ( मतिज्ञानभेद ) ]
मध्य में जो सिद्धक्षेत्र अवस्थित है उसे नाम से ईषत् प्राग्भार कहा जाता है । ४ समस्त कल्पविमानों के ऊपर जाकर ईषत्प्राग्भार पृथिवी श्रवस्थित है । उसका विस्तार व श्रायाम अढ़ाई द्वीप प्रमाण - पैंतालीस लाख योजन - तथा श्राकार खुले हुए छत्र के समान है ।
हा ( मतिज्ञानभेद) - १. ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवसणा मीमांसा । (षट्खं. ५, ५, ३८- पु. १३, पृ. २४२ ) । २. ईहापोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा । सन्ना सई मई पन्ना सव्वं ग्राभिणिबोहियं ॥ ( नन्दी. गा. ८७ ) । ३. प्रवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा । ( स. सि. १-१५) । ४. श्रवगृहीतम् । विषयार्थैकदेशाच्छेषानुगमनम् । निश्चयविशेषजिज्ञासा चेष्टा ईहा । ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. १-१५) । ५. ईहा तदर्थविशेषालोचनम् । (विशेषा. को. वृ. १७८)। ६. XXX विशेषकांक्षेहा X Xx। ( लघीय. १-५ ) ; पुनः श्रवग्रहीकृत बिशेषाकांक्षणमीहा । ( लघीय. स्वो वृ. १-५) । ७. तदर्थ - ( अवग्रहगृहीतार्थ - ) विशेषालोचनम् ईहा । (श्राव. नि. हरि. वृ. २, पृ.) ; ईहन मीहा X XX एतदुक्तं भवति - श्रवग्रहादुत्तीर्णः श्रवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषत्यागाभिमुखश्च प्रायो मधुरत्वादयः शंखशब्दधर्मा प्रत्र घटन्ते, न खरकर्कश - निष्ठुरतादयः शार्ङ्गशब्दधर्मा इति मतिविशेष ईति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ३, पृ. १०; नन्दी. हरि. वृ. २७, पू. ६३ ) ; ईहनमीहा सतामर्थानाम् अन्वयिनां व्यतिरेकिणां च पर्यालोचना इति यावत् । ( आव. नि. हरि. व मलय. वृ. १२ ) । ८. अव गृहीतविषयार्थकदेशात् शेषानुगमनेन निश्चयविशेषजिज्ञासा चेष्टा ईहा | ( श्रने. ज. प. पू. १८ ) । & ईहा शब्दाद्यवग्रहणोत्तरकालमन्वय-व्यतिरेकधर्मालोचनचेष्टेत्यर्थः । ( नन्दी. हरि. वृ. पू. ७८ ) । १०. अवग्रहीतस्यार्थस्य विशेषाकांक्षणमीहा । ( धव. पु. १, पृ. ३५४ ) ; जो अवग्गहेण गहिदो प्रत्थो तस्स विसेसाकांखणमीहा । जधा कंपि दट्ठूण किमेसो भव्वो अभव्वोत्ति विसेसपरिक्खा सा ईहा । ( धव. पु. ६, पृ. १७ ) ; पुरुष इत्यवग्रहीते भाषा-वयोरूपादिविशेष राकांक्षणमीहा । ( धव. पु. ६, पु. ल. ३१
२४१, जैम-लक्षणावली
[ ईहा ( मतिज्ञानभेद)
१४४ ) ; पुरुषमवगृह्य किमयं दाक्षिणात्य उत उदीच्य इत्येवमादिविशेषाप्रतिपत्तौ संशयानस्योत्तरकालं विशेषोपलिप्सां प्रति यतनमीहा । ( धव. पु. ६, पृ. १४६ ) ; अवगृहीते तद्विशेषाकांक्षणमीहा । XXX का ईहा नाम ? संशयादूर्ध्वमवायादधस्तात् मध्यावस्थायां वर्तमानः विमर्शात्मकः प्रत्ययः हेत्ववष्टम्भबलेन समुत्पद्यमानः इहेति भण्यते । (धव. पु. १३, पृ. २१७ ); उत्पन्नसंशयविनाशाय ईहते चेष्टते अनया बुद्धया इति ईहा । ( धव. पु. १३, पृ. २४२ ) । ११. का ईहा ? श्रोग्गहणाणग्गहिए अत्थे विण्णाणा उपमाण - देस भासादिवि से साकांखणमहा । श्रग्गहादो उवरि अवायादो हेट्ठा जं गाणं विचारप्पयं समुप्पण्ण संदेह छिदण सहावमीहात्ति भणिदं होदि । ( जयध. १, पृ. ३३६ ) । १२. यदा हि सामान्येन स्पर्शनेन्द्रियेण स्पर्श सामान्यमागृहीतमनिर्देश्यादिरूपं तत उत्तरं स्पर्शभेदविचारणा हाभिधीयते इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-१५); तस्यैव (सामान्यानिर्देश्यस्वरूपस्य नामादिकल्पनारहितस्य ) स्पर्शादे: किमयं स्पर्श उतास्पर्श इत्येवं परिच्छेदिका ईहा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १- १७ ) ; हा तत्त्वान्वेषिणी जिज्ञासा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-६, पृ. ५९ ) । १३. श्रवग्रहगृहीतस्य वस्तुनो भेदमीहते । व्यक्तमीहा XXX ॥ ( त. इलो. १, ६, ३२); तद्गृहीतार्थसामान्ये यद्विशेषस्य कांक्षणम् । निश्चयाभिमुखं सेहा संशीतेभिन्नलक्षणा । (त. श्लो. १, १५, ३) । १४. तद्गृहीतवस्तुविशेषाकांक्षणमीहा । ( प्रमाणप. पू. ६८ ) । १५. अवग्रहाद् विशेषाकाङ्क्षा विशेषेहा । ( सिद्धिवि. टी. २-६, पृ. १३७) । १६. तदवगृहीतविशेषस्य 'देव - दत्तेन भवितव्यम्' इति भवितव्यता मुल्लिखन्ती प्रतीतिरीहा । ( प्रमाणनि. २ - २८ ) । १७. विसयाणं विसईणं संजोगाणंतरं हवे णियमा । ग्रवगहणाणं गहिदे विसेसकखा हवे ईहा ।। ( गो . जी. ३०७) । १८. तदुत्तर - ( अवग्रहोत्तर - ) कालभाविनी ईहा, हनमीहा चेष्टा कायवाङ्मनोलक्षणा । ( कर्म बि. पू. व्या. १३, पृ. ८) । १६. अवगृहीतार्थविशेषाकांक्षणमीहा । (प्र. न. त. २-८ ) । २०. अवगृहीतस्यैव वस्तुनोऽपि किमयं भवेत् स्थाणुः पुरुषो वा, इत्यादि वस्तुधर्मावेषणात्मको वितर्क ईहा । (कवि.
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ईहा (मतिज्ञानभेद)] २४२, जैन-लक्षणावली
[उक्तावग्रह पर. व्या. पृ. ९)। २१. अपि किन्वयं भवेत् नाम्ना ॥' इत्याद्यन्वयधर्मघटन-व्यतिरेकधर्मनिरापुरुष एव उत स्थाणुः इत्यादिवस्तुधर्मान्वेषणात्मकं करणाभिमुखताऽऽलिङ्गितो ज्ञानविशेष ईहा । (प्रव. ज्ञानचेष्टनमीहा। (कर्मस्त. गो. वृ. ६, पृ. ८०)। सारो. वृ. १२५३, पृ.३६०; कर्मवि. दे.स्वो. वृ. ५)। २२. पुनः अवग्रहोत्तरकालम्, अवग्रहेण विषयीकृतः ३१. अवग्रहगृहीतार्थसमुद्भूतसंशयनिरासाय यत्नअवग्रहाकृतः, अवान्तरमनुष्यत्वादिजातिविशेषः, मीहा । (न्या.दी. २, प. ३२) । ३२.xxx तत्तो तस्य विशेषः कर्णाट-लाटादिभेदः, तस्य पाकाक्षणं विशेषकंखा हवे ईहा। (अंगप. ३-६१, पृ. भवितव्यताप्रत्ययरूपतया ग्रहणाभिमुख्यम्, ईहा २८८)। ३३. पुनरवगृहीतविषयसंशयानन्तरं तद्विभवति । (न्यायकु. १, पृ. १७२)। २३. अवगहि- शेषाकाङ्क्षणमीहा । (षड्द. स. टी. ४-५५, पृ. दत्थस्स पुणो सग-सगविसएहि जादसारस्स। जं २०८)। ३४. इन्द्रियान्तरविषयेषु मनोविषये चावच विसेसग्गहणं ईहाणाणं हवे तं तु ॥ (जं दी. प. ग्रहगृहीते यथावस्थितस्य विशेषस्याकांक्षारूपेहा । १३.५८)। २४. ईहा वितर्को मतिः । (समवा. (गो. जी. म. प्र. टी. ३०८)। ३५. इन्द्रियान्तरविषअभय. वृ. १४०)। २५. गृहीतस्यार्थस्य विशेषाकां- येषु मनोविषये चावग्रहगृहीते यथावस्थितस्य विशेषक्षणमीहा, योऽवग्रहेण गृहीतोऽर्थस्तस्य विशेषाकांक्ष- स्याकांक्षारूपेहा। (गो. जी. जी. प्र. टी. ३०८) । णं भवितव्यताप्रत्ययम् । (मूला. वृ. १२-१८७)। ३६. अवगृहीतार्थाभिमुखा मतिचेष्टा पर्यालोचनरूपा २६. अवगृहीतविशेषाकांक्षणमीहा । (प्रमाणमी. ईहा । (जम्बूद्वी.वृ. ३-७०)। ३७. अवगृहीतविशेषा१, १, २७); अवगृहीतस्य शब्दादेरर्थस्य 'किमयं कांक्षणमीहा, व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरोऽन्वयधर्मघटशब्दः शाखः शा? वा इति संशये सति माधुर्या- नप्रवृत्तो बोध इति यावत् । (जैनत. पृ. ११६) । दयः शाङ्खधर्मा एवोपलभ्यन्ते, न कार्कश्यादयः १ ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा शार्ङ्गधर्माः इत्यन्वय-व्यतिरेकरूपविशेषपर्यालोचन- ये ईहा के नामान्तर हैं। ३ अवग्रह से जाने गये रूपा मतेश्चेष्टेहा । (प्रमाणमी. स्वो. वृ. १, १, २७)। पदार्थ के विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं। २७. ईहनमीहा-सद्भतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा ईहावरणीय कर्म-एतस्या (ईहायाः) आवारक इत्यर्थः। किमुक्तं भवति ? अवग्रहादुत्तरकालम- कर्म ईहावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २१८) । पायात् पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्- इस (ईहामतिज्ञान) को प्राच्छादित करने वाले कर्म भतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखः प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः का इहावरणाय कहत है। शङ्खादिधर्मा दृश्यन्ते, न कर्कश-निष्ठुरतादयः शाङ्गा- उक्त-१. उक्तं प्रतीतम् (शब्दे उच्चारिते सति दिधर्मा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा। (प्रज्ञाप. यदवग्रहादिज्ञानं जायते तदुक्तम्)। (त. वा. १, मलय. वृ. १५-२००, पृ. ३१०, प्राव. नि. मलय. १६, १६) । २. एतत्प्रतिपक्षः (इन्द्रियप्रतिनियतवृ. २, पृ. २२; नन्दी. मलय. व. सू. २६, प. गुणविशिष्टवस्तूपलम्भकाले एव तदिन्द्रियानियतगुण१६८)। २८. ईहनमीहा अवगृहीतस्यार्थस्यासद्भूत- विशिष्टस्यार्थस्योपलम्भकादनुक्तप्रत्ययाद् विपरीतः) विशेषपरित्यागेन सद्भूतविशेषादानाभिमुखो बोध- उक्तप्रत्ययः । (धव. पु. ६, पृ. १५४; पु. १३, पृ. विशषः । (व्यव.भा.मलय. बू. १०-२७६, प. ४०)। २३६) । ३.XXX उक्तार्थः प्ररूप्यते । स्पर्शनं २६. अवगृहीतशब्दाद्यर्थगत (तासदभूत-) सदभुत- रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनश्च खम् । अर्थः स्पों परित्यागा-(दाना-)भिमुखं प्रायो मधुरत्वादयः शाङ्ख- रसो गन्धो रूपं शब्दः श्रुतादयः । (प्राचा. सा. ४, शब्दधर्मा अत्र घटन्ते, न खर-कर्कश-निष्ठरतादयः २४-२५) । शार्ङ्गशब्दधर्माः इति ज्ञानमीहा । (धर्मसं. मलय. २ विवक्षित इन्द्रिय के प्रतिनियत गुण से युक्त वस्तु वृ. ८२३, पृ. २६४)। ३०. अवगहीतस्यैव बस्तनो- का ग्रहण होने पर उसके प्रतिनियत गण का ही ऽपि किमयं भवेत् स्थाणुरेव, न तु पुरुष इत्यादि वस्तू- ज्ञान होना, इतर गुण का ज्ञान न होना; इसका नाम धर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा । 'अरण्यमेतत उक्त प्रत्यय है। सबिताऽस्तमागतो न चाधुना सम्भवतीह मानवः । उक्तावग्रह-१.णियमियगुणविसिट्टप्रत्थग्गहणं उत्ताप्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं स्मरारातिसमान- वग्गहो। जहा चक्खिदिएण धवलत्थगहणं, घाणिदि
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उग्रतप] २४३, जैन-लक्षणावली
[उच्चगोत्र एण सुअंघदव्वग्गहणमिच्चादि । (धव. पु. ६, पृ. रवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि । एवमेगुत्तर२०) । २. उक्तमवगृह्णातीत्ययं तु विकल्पः श्रोत्रा- वड्ढीए जाव जीविदंतं तिगुत्तीगुत्तो होदूण उववासे दिविषय एव, न सर्वव्यापीति । यत उक्तमुच्यते करेंतो उग्गुग्गतवो णाम । (धव. पु.६, पृ.८७)। शब्दः, स चाप्यक्षरात्मकः, तमवगृह्णातीति । (त. ३. तत्रोग्रतपसा द्विविधा उग्रोग्रतपसः अवस्थितोग्रभा. सिद्ध. व. १-१६)। ३. इतरस्य (उक्तस्य) तपसश्चेति । तत्रैकमुपवासं कृत्वा पारणं विधाय सर्वात्मना प्रकाशितस्य Xxx अवग्रहः । (त. द्विदिनमुपोष्य तत्पारणानन्तरं पुनरप्युपवासत्रयं कुर्वश्लो. १, १६, ४)। ४. नियमितगुणविशिष्टार्थ- न्ति । एवमेकोत्तरवृद्धया यावज्जीवं त्रिगुप्तिगुप्ताः ग्रहणमुक्तावग्रहः, यथा चक्षुरिन्द्रियेण धवलग्रह- सन्तो ये केचिदुपवसन्ति ते उग्नोग्नतपसः । (चा. णम् । (मूला. वृ. १२-१८७) । ५. तस्यैव परेणो- सा. पृ. ६८) । क्तस्य कर्परादे देरग्रहणम् उक्तावग्रहः । (त. सुख- १दीक्षा के उपवास को आदि करके बीच में पारणा बो. वृ.१-१६)। ६. अनुक्तं च अभिप्राये स्थितम्। करते हुए एक-एक अधिक उपवास को मरण-पर्यन्त xxxअनुक्तस्य अवग्रहः, तदितरस्योक्तस्याव- बढ़ाते हुए जीवन यापन करने को उग्रोग्रतप ऋद्धि ग्रहः । (त. वृत्ति श्रुत. १-१६)।
कहते हैं। १ नियमित गुणविशिष्ट द्रव्य के अथवा उसके एक उच्चगोत्र-१. यस्योदयात् लोकपूजितेषु कुलेषु वेश के ग्रहण करने को उक्तावग्रह कहते हैं। जैसे जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । (स. सि. ८-१२; त. वा. ८, चक्षु इन्द्रिय के द्वारा धवल अर्थ का ग्रहण अथवा १२, २, मूला. १२-१९७; त. सुखबो. ८-१२; त. घ्राण इन्द्रिय के द्वारा सुगन्ध द्रव्य का ग्रहण । वृत्ति श्रुत. ८-१२; भ. पा. मला. टी. २१२१)। उग्रतप-१. चतुर्थ-षष्ठाष्टम-दशम-द्वादश-पक्ष- २. उच्चर्गोत्रं देश-जाति-कुल-स्थान-मान-सत्कारैश्व
यद्युित्कर्षनिर्वतकम् । (त. भा. ८-१२) । ३. अस्स निवर्तका उग्रतपसः । (त. वा. ३-३६, पृ. २०३)। कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तं उच्चागोदं । २. पञ्चम्यां अष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रतिज्ञातोवासा गोत्रं कूलं वंशः सन्तानमित्येकोऽर्थः। (धव. पु. ६. अलाभद्वये त्रये वा तथैव निर्वाहयन्ति, एवंप्रकारा पृ. ७७); दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः उग्रतपसः। (प्रा. योगिभक्ति टी. १५, पृ. २०३)। कृतसम्बन्धानाम् आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहारनिबन्ध३. पञ्चम्यां अष्टम्यां चतुर्दश्यां च गृहीतोपवास- नानां पुरुषाणां सन्तान उच्चैर्गोत्रम, तत्रोत्पत्तिहेतुव्रता अलाभद्वये अलाभत्रये वा त्रिभिरुपवासश्चतुर्भि- कर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । (धव. पु. १३, पृ. ३८६)। रुपवासः पञ्चभिरूपवासः कालं निर्गमयन्ति इत्येवं. ४. उत्तमजातित्वम्, प्रशस्यता, पूज्यत्वं चोच्चगोंप्रकाराः उग्रतपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। त्रम् । (पंचसं. स्वो. बृ. ३-५, पृ. ११२) । ५. १ एक, दो, तीन, चार, पांच व पन्द्रह दिन तथा अधणी बुद्धिविउत्तो रूवविहीणो वि जस्स उदएणं । एक मास प्रादि का; इस प्रकार इन उपवासयोगों लोयम्मि लहइ पूयं उच्चागोयं तयं होइ।। (कर्मवि. में से किसी भी एक उपवास योग को प्रारम्भ कर ग. १५४)। ६. उच्चैर्गोत्रं पूज्यत्वनिबन्धनम् । मरण पर्यन्त उससे च्युत न होना, उसका बराबर (स्थाना. अभय. व. २, ४, १०५, पृ. ६२)। ७. उच्चनिर्वाह करना; इसका नाम उग्रतप ऋद्धि है। इस र्गोत्रं यदुदयादज्ञानी विरूपोऽपि सत्कुलमात्रादेव ऋद्धि के धारक साधु भी उग्रतप-उग्रतपस्वी- पूज्यते । (श्रा. प्र. टी. २५; धर्मसं. मलय. व. कहे जाते हैं।
६३२)। ८. उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे उग्रोग्रतप-१. उग्गतवा दोभेदा उग्गोग्ग-प्रवट्रि- गोदं । (गो. क. १३)। ६. उत्तमजाति-कुलदुग्गतवणामा ॥ दिक्खोववासमादि कादणं एक्काहि- बल-रूप-तपऐश्वर्य-श्रुतलाभाख्यरष्टभिः प्रकारैर्वेद्यते एक्कपचएण। आमरणंतं जवणं होदि उग्गोग्गतव- इत्युच्चैर्गोत्रम् । (शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, रिद्धी ॥ (ति. प. १०५०-५१)। २. उग्गतवा पृ. ५१)। १०. उच्चैर्नीचर्भवेद् गोत्रं कर्मोच्चैर्नीचदुविहा उग्गुग्गतवा अवट्ठिदुग्गतवा चेदि । तत्थ जो गोत्रकृत् । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४७४)। ११. एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासे करेदि, पुण- यदुदयवशात् उत्तम जाति-कुल-बल-तपोरूपैश्वर्य
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उच्चताभृतक ]
श्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुच्चैर्गोत्रम् | ( पंचसं मलय वृ. ३-५, पृ. ११३; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३, २, २६३, पृ. ४७५; कर्मप्र. यशो. वृ. १, पृ. ७) । १२. यदुदयादुत्तमकुलजातिप्राप्तिः सत्काराभ्युत्थानाञ्जलिप्रग्रहादिरूप - पूजालाभसम्भवश्च तदुच्चैर्गोत्रम् । (षष्ठ क. मलय. वृ. ६, पृ. १२७) । १३. अधनी धनहीनः, बुद्धिवि - युक्त: मतिनिर्मुक्तः, रूपविहीनः रूपरहितोऽपि । यस्य कर्मण उदयेन लोके जातिमात्रादेव पूजां लभते तदुच्चैर्गोत्रं पूर्णकलशकारिकुम्भकारतुल्यम् । ( कर्मवि. पा. व्या. १५४, पृ. ६३ ) । १४. यथा हि कुलाल: पुथिव्यास्तादृशं पूर्णकलशादिरूपं करोति, यादृशं लोकात् कुसुम-चन्दनादिभिः पूजां लभते X X X तथा यदुदयाद् निर्धनः कुरूपो बुद्ध्यादिपरि हीनोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोकात् पूजां लभते तत् उच्चैर्गोत्रम् | ( कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ५१) ।
१ जिसके उदय से लोकपूजित कुल में जन्म हो उसे उच्चगोत्र कहते हैं । ११ जिसके उदय से जीव उत्तम जाति, कुल, बल, रूप, तप, ऐश्वर्य और श्रुत आदि द्वारा जगत् में पूजा व प्रादर-सत्कारादि को प्राप्त हो उसे उच्चगोत्र जानना चाहिये । उच्चताभूतक- म्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः कर्मकरः इत्यर्थः । × × × मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १,२७१, पृ. १६१-६२ ) ।
काल के अनुसार किसी कार्य का मूल्य निश्चित करके यथावसर कार्य जिससे कराया जाता है उसे उच्चताभृतक कहते हैं । उच्च्चयबन्ध-से किं तं उच्चयबंधे ? उच्चयबंधे जंणं तरासीण वा कट्टरासीण वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा भुसरासीण वा गोमयरासीण वा अवगररासीण वा उच्चत्तेणं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं तोमुत्तं उक्कोस्सेण संखेज्जं कालं से त्तं उच्चयबंधे । ( भगवती ८, ६, १४ - खण्ड ३, पृ. १०३) । तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, तुषराशि, भुसराशि, गोबरराशि और अवकर ( कचड़ा ) राशि, इनका ऊंचा ढेर करने को उच्चयबन्ध कहा जाता है । उच्चस्थान – उच्चस्थानं स्वगुहान्तः स्वीकृतयत
[उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णका
निरवद्यानुपहतस्थाने उच्चासने निवेशनम् ।
(सा. ध. स्वो. टी. ५-४५)। पडिगाहे गये साधु को घर के भीतर ले जाकर निर्दोष व निर्बाध स्थान में उच्च श्रासन पर बैठाने को उच्चस्थान भक्ति कहते हैं । उच्चारप्रत्रवरण समिति - वणदाह - किसि-मसिकदे थंडिल्लेणुप्परोध वित्थिष्णे । अवगदजंतुविवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो ।। (मूला. ५ - १२४ ) । जो स्थान दावाग्नि से जल गया है, जहां खेती की गई है, जहां शवदाह आदि हुआ है, जो ऊषर --5 - अंकुरोत्पादन से रहित है, तथा द्वीन्द्रियादि जीवों से भी रहित है, ऐसे विस्तीर्ण निर्जन स्थान में मल-मूत्रादि के विसर्जन को उच्चारप्रस्रवणसमिति कहते हैं । उच्छादन -- प्रतिबन्धक हेतुसन्निधाने सति श्रनुद्भूतवृत्तिता श्रनाविर्भाव उच्छादनम् । ( स. सि. ६, २५) ।
विरोधी कारणों के मिलने पर गुणों के नहीं प्रगट करने को उच्छादन कहते हैं ।
२४४, जैन-लक्षणावली
उच्छेद - देखो अन्तर । अंतरमुच्छेदो विरहो परिनामंतरगमणं णत्थित्तगमणं प्रष्णभावव्यवहाणमिदि एयट्ठो (धव. पु. ५, पू. ३ ) ।
अन्तर, उच्छेद, विरह, अन्य परिणाम की प्राप्ति, नास्तित्व की प्राप्ति और अन्य भाव का व्यवधान; इन सबका एक ही अर्थ है । तात्पर्य यह कि एक अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्था को प्राप्त होते हुए पुनः उक्त (पूर्व) अवस्था के प्राप्त होने में जो काल लगता है उसका नाम उच्छेद ( श्रन्तर ) है । उच्छ्लक्ष्णलक्ष्णिका ( उत्सहसहिया) देखो उत्संज्ञासंज्ञा । १. परमाणु य अनंता सहिया उस सहिया एक्का । ( जीवस. ६६ ) । २. प्रणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसहिया । ( भगवती श. ६, ७, पू. ८२७) । ३. एते चानन्ताः परमाणवः एका अतिशयेन श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा, सैव श्लक्ष्णश्लणिका, उत्तरप्रमाणापेक्षया उत् प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका । ( संग्रहणी दे. वू. २४५ ) । ४. प्रणंताणंति - अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणूनाम्, समुदायाः द्वयादिरूपास्तेषां समितयो मीलनानि, तासां समागमः परिणामवशादेकीभवनम्, ते येन समुदयसमितिसमागमेनैका उत् प्राबल्येन
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उच्छ्वास] २४५, जैन-लक्षणावली
[उच्छ्वासपर्याप्ति श्लक्षिणका उच्छ्लक्ष्णश्लक्षिणका। (भगवती दान. निःश्वासौ भवतः तदुच्छ्वासनाम । (श्रा. प्र. टी. वृ. ६, ७, २४७, पृ. ६५-६६)।
२१; त. भा. हरि. व सिद्ध. व. ८-१२; धर्मसं. १ अनन्तानन्त व्यावहारिक परमाणनों के समदाय मलय. व. ६१८; कर्मवि. पू. व्या. ७५)। ४. जस्स के मिलने से जो एकरूपता होती है उसका नाम कम्मस्स उदएण उस्सासणिस्सासाणं णिप्फत्ती होदि एक उच्छ्ल क्ष्ण-श्लक्षिणका (एक माप-विशेष) है। तं उस्सासणाम। (धव. पु. १३, पृ. ३६४)। उच्छवास-१.xxx तहेव उस्सासो। संखे- ५. जस्सुदएणं जीवे णिप्फत्ती होइ प्राणपाणणं । तं ज्जावलिणिवहो सो चिय पाणो त्ति विक्खादो। ऊसासं नामं तस्स विवागो सरीरम्मि ।। (कर्मवि. (ति. प. ४-२८६)। २.xxxता (प्रावलिया) ग. १२४)। ६. यस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छवाससंखेज्जा य ऊसासो । (जीवस. १-८)। ३. संखे- निःश्वासकार्योत्पादनसमर्थः स्यात् तदुच्छ्वास-नि:ज्जायो प्रावलिपायो ऊसासो । (अनुयो. सू. १३७, वासनाम । (मूला. वृ. १२-१९४)। ७. उच्छवप. १७८; भगवती ६, ७, २४६-सुत्तागमे पृ. सनमुच्छ्वासः प्राणापानकर्म । तद्यद्धेतुकं भवति तदू५०३; जम्बूद्वी. शा. वृ. १८, पृ.८६)। ४. समया य च्छ्वासनाम । .. शीतोष्णसम्बन्धजनितदुःखस्य पंचेअसंखेज्जा हवइ ह उस्सास-णिस्सासो। (ज्योतिष्क. न्द्रियस्य यावदुच्छ्वास-निःश्वासौ दीर्घनादौ श्रोत्र१-८)। ५. ताः (आवलिकाः) संख्येया उच्छ्वासः। स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षौ तावदुच्छ्वासनामोदयजौ बोद्ध(त. भा. ४-१५)। ६. संखेयावलिका एक उच्छ्- व्यौ । (त. सुखबो. बृ. ८-११, पृ. १६८ व १६६)। वासः। (त. वा. ३, ३८, ७) । ७. तप्पाअोग्गासंखे- ८. उच्छ्वसनमुच्छ्वासस्तस्य नाम उच्छ्वासनाम, ज्जावलिकाप्रो घेत्तण एगो उस्सासो हवदि । (धव. यदुदयाज्जीवस्योच्छवास-निःश्वासौ भवतस्तच्च ज्ञातपु. ३, पृ. ६५); तप्पाग्रोग्गसंखेज्जावलिकाहिं एगो व्यम् । (कर्मवि. पू. व्या. ७२, पृ. ३३)। ६. यदुदयाउस्सास-णिस्सासो होदि । (धव. पु. ४, पृ. ३१८)। दुच्छ्वास-निःश्वासनिष्पत्तिर्भवति तदुच्छ्वासनाम । ८. XXX संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो। (जं. (समवा. अभय. वृ. ४२, पृ. ६४)। १०. यदुदयदी. प. १३-१३२; गो. जी. ५७३)। ६. ता: वशादात्मन उच्छ्वासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुसंख्येयाः ४४४६३४४७ सत्यः पावलिकाः एक च्छवासनाम । (पंचसं. मलय. वृ. ३-७, पृ. ११६ उच्छ्वासो निःश्वासो वा ऊर्ध्वाधोगमनभेदात् । (त. पष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३, भा. सिद्ध. वृ. ४-१५)। १०. संख्याताभिरावलिका- २६३, पृ. ४७; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४३; कर्मप्र. भिरेक उच्छ्वासनिःश्वासकालः । (प्रज्ञाप. मलय. यशो. टी. १, पृ.६)।। वृ. ५-१०४) । ११. संख्येया पावलिका एक १ जिस कर्म के उदय से जीव उच्छ्वास लेने में उच्छ्वासः । (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८; समर्थ हो उसे उच्छ्वास नामकर्म कहते हैं । ज्योतिष्क. मलय. व. १-८)। १२. ऊर्ध्व वातोद्- उच्छ्वासपर्याप्ति- देखो पानप्राणपर्याप्ति । १. गमो यः स उच्छ्वासः । (पंचसं. व. ३-६, गा. यया तुच्छ्वासप्रायोग्यं वर्गणाद्रव्यमादायोच्छवास१२७)। १३. संखेज्जावलिगुणियो उस्सासो होइ तयाऽऽलम्ब्य मुञ्चति सोच्छवासपर्याप्तिः। (कर्मस्त. जिणदिहो। (भावसं. दे. ३१२)। १४. उच्छवास गो. वृ. ६-१०, पृ. ८७)। २. यया पुनरुच्छ्वासऊर्ध्वगमनस्वभावः परिकीर्तितः । (लोकप्र. २८, प्रायोग्यवर्गणादलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिण२१५)।
मय्य पालम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छवासपर्याप्तिः । १ संख्यात प्रावली प्रमाण काल को उच्छवास (नन्दी. मलय. व. सू. १३, पृ. १०५, प्रज्ञाप. कहते हैं।
मलय. व. १-१२, पृ. २५पंचसं. मलय. व. १-५, उच्छ्वास नामकर्म-१. यद्धेतुरुछ्वासस्तदुच्छ्- पृ.८, षष्ठ क. मलय. वृ. ६; षडशीति मलय. वृ. ३; वासनाम । (स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १७; शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ५०; जीवाजी. त. श्लो, ८-११; त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। वृ. १-१२; षडशीति दे. स्वो. वृ. २, पृ. ११७; २. प्राणापानपुद्गलग्रहणसामर्थ्यजनकं उच्छ्वास- कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४८, पृ. ५६)। ३. ययोच्छ्वासानाम । (त. भा. ८-१२) । ३. यस्योदयादुच्छ्वास- हमादाय दलं परिणमय्य च । तत्तयाऽऽलम्ब्य मुञ्चे
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उच्छ्वास-निःश्वास.] २४६, जैन-लक्षणावली
[उत्कृष्ट ज्ञान सोच्छवासपर्याप्तिरुच्यते ॥ (लोकप्र. ३-२२)। १ करोंत प्रादि से काष्ठ प्रादि के चीरने को उत्कर १ जिस शक्ति से उच्छ्वास के योग्य वर्गणाद्रव्य को कहते हैं । ग्रहण कर और उसे उच्छ्वास रूप से परिणमाकर उत्कर्षण-१. कम्मपदेसट्ठिदिवड्ढावणमुक्कड्डणा। छोड़ता है उसे उच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं। (धव. पु. १०, पृ. २२) । २. उक्कड्डणं हवे वड्ढी । उच्छ्वास-निःश्वासपर्याप्ति -विवक्षितपुद्गल- (गो. क. ४३८) । ३. स्थित्यनुभागयोवृद्धिरुत्कर्षस्कन्धान् उच्छ्वास-नि:श्वासरूपेण परिणमयितुं पर्या- णम् । (गो. क. जी. प्र. टी. ४३८) । प्तनामकर्मोदयजनितात्मनः शक्तिनिष्पत्तिरुच्छ्वास
१कर्मप्रदेशों की स्थिति के बढ़ाने को उत्कर्षण निःश्वासपर्याप्तिः । (गो. जी. म. प्र. टी. ११९ कहते हैं। कातिके. टी. १३४)।
उत्कालिक स्वाध्यायकाले अनियतकालमुत्कालिपर्याप्त नामकर्म के उदय से विवक्षित पुद्गलस्कन्धों कम् । (त. वा. १, २०, १४) । को उच्छ्वास-निःश्वासरूप से परिणमाने के लिए जिस अंगवाह्य श्रुत के स्वाध्याय का काल नियत जो जीव के शक्ति उत्पन्न होती है उसका नाम नहीं है वह उत्कालिक कहलाता है। उच्छ्वास-निःश्वासपर्याप्ति है।
उत्कीर्तना-उत्कीर्तना नाम संशब्दना, यथा कल्पाउज्झित दोष-१. स्यादुज्झितं बहु त्यक्त्वा यच्चू- ध्ययनं व्यवहाराध्ययनमिति । (व्यव. भा. मलय. ताद्यल्पसेवनम् । पानादि दीयमानं वा उनल्पेन गल- व. १, पृ. २)। नेन तत् ॥ (प्राचा. सा. ८-४८)। २. यच्चूत- किसी ग्रन्थ प्रादि के स्पष्ट उच्चारण का नाम फलादिकं बह त्यक्त्वाल्पसेवनं तदुज्झितम्, अथवा उत्कीर्तना है। जैसे कल्पाध्ययन व व्यवहाराध्ययन । यत्पानादिकं दीयमानं बहतरेण गलनेनाल्पसेवनं तद्
सन-देखो उत्कटिकासन । उक्कुडिया ज्झितम् । (भा. प्रा. टी. ६६, पृ. २५१)। ऊर्ध्व संकुचितासनम् । (भ.प्रा. विजयो. टी. २२४)। १दिये गये बहत आम्रफलादिक को छोड़कर थोड़े देखो उत्कटिकासन । का सेवन करना, अथवा पीने योग्य द्रव्य में से बहत
। उत्कुटुकासनिक-उत्कुटुकासनं पीठादौ पुतालगनेअधिक गलने से थोड़े का सेवन करना, यह उज्झित
नोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटकासनिनाम का एषणादोष है।
कः । (स्थाना. अभय. वृ. ५, १, ३६६, पृ. २८४)। उत्कञ्चन-उत्कञ्चनम् उपरि कम्बिकानां बन्ध
चतड़ों का स्पर्श न कराकर पाटे प्रादि पर बैठना, नम् । (बृहत्क. मलय. वृ. ५८३) ।
यह उत्कुटुक प्रासन कहलाता है, इस प्रासनविशेष ऊपर कम्बिकानों-काष्ठविशेषों-का वांधना,
को जिसने नियमपूर्वक ग्रहण किया है उसे उत्कुटयह उत्कञ्चन नाम का वसति-उत्तरकरण है। कासनिक कहा जाता है। उत्कटिकासन-देखो उत्कुटिकासन और उत्कुटु- उत्कृष्ट अन्तरात्मा - पंचमहव्वयजुत्ता धम्मे कासनिक । १. पूत-पाष्णिसमायोगे प्राहुरुत्कटिकास- सक्के वि संठिया णिच्चं । णिज्जियसयलपमाया नम् । (योगशा. ४-१३२)। २. उक्कडिया यु-[पु.] उक्किट्ठा अंतरा होति ।। (कार्तिके. १६५) । ताभ्यां भूमिमस्पृशतः समपादाभ्यामासनम् । (भ.
पञ्च महावतों के धारक, सकल प्रमादों के विजेता प्रा. मूला. टी. २२४)।
और धर्म अथवा शुक्ल ध्यान में स्थित साधुनों को २ चतड़ और पाणियों (एड़ियों) के मिलने पर उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं। उत्कटिकासन होता है।
उत्कृष्ट ज्ञान-निर्वाणपदमेप्येकं भाव्यते यन्मुहुउत्कर-१. तत्रोत्करः काष्ठादीनां करपत्रादि- र्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥ भिरुत्करणम् । (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, (ज्ञानसू. ५-२)। १४; कातिके. टी. २०६)। २. दादीनां क्रकच- जिस ज्ञान के द्वारा एक मात्र निर्वाण पद की कुठारादिभिः उत्करणं भेदनमुत्करः। (त. वृत्ति निरन्तर भावना की जाती है वही उत्कृष्ट ज्ञान श्रुत. ५-२४)।
कहलाता है।
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उत्कृष्ट दाह ]
उत्कृष्ट दाह - उक्कसदाहो णाम उक्कस्स ठिदिबंधकारणउक्कस्ससंकिलेसो । (धव. पु. ११, पृ. ३३६) । उत्कृष्ट कर्मस्थिति के बन्ध के कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश का नाम उत्कृष्ट दाह है । उत्कृष्ट निक्षेप - १. उक्कस्श्रो पुण णिक्खेवो केत्तियो ? जत्तिया उक्कस्सिया कम्मठिदी उक्कस्सियाए बाहाए समउत्तरावलियाए च ऊणा तत्तिश्रो उक्कस्सो निक्खेवो । (घव. पु. ६, पू. २२६ का टि. १) । २. उक्कस्सद्विदिबंधो समयजुदावलिदुगेण परिहीणो । उक्कट्ठिदिम्मि चरिमे दिम्मि उक्करणिक्खेवो । ( लब्धि. ५८ ) । उत्कृष्ट श्रावाधा और एक समय अधिक श्रावलि से हीन जितनी उत्कृष्ट कर्मस्थिति हो, उतना उत्कृष्ट निक्षेप होता है ।
२४७, जैन - लक्षणावली
उत्कृष्ट पद — उक्कस्सदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तमुक्कस्सपदं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३६२ ) । उत्कृष्ट द्रव्य का श्राश्रय लेकर जो गुणकार होता है उसे उत्कृष्ट पद कहा जाता है । उत्कृष्ट पदमीमांसा - जत्थ पचण्हं सरीराणं उक्कसदव्वपरिक्खा कीरदि सा उक्कस्सपदमीमांसा | (घव. पु. १४, पृ. ३ε७ ) ।
जिस अधिकार में पांचों शरीरों के उत्कृष्ट द्रव्य की परीक्षा की जाती है उसे उत्कृष्ट पदमीमांसा कहते हैं। उत्कृष्टपदात्पबहुत्व -- उक्कस्सदव्व विसय मुक्कस्स - दप्पाबहुगं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३८५) । उत्कृष्ट द्रव्य सम्बन्धी अल्पबहुत्व को उत्कृष्टपदात्पवहुत्व कहते हैं ।
उत्कृष्ट परीतानन्त - १. जं तं जहण्णपरित्ताणंतयं तं विरलेदूण एक्केक्कस्स रूवस्स जहण्णपरित्ताणंतयं दादूण प्रणोष्ण भत्थे कदे उक्कस्सपरित्ताणतयं श्रदिच्छिण जहण्णजुत्ताणंतयं गंतूण पडिदं । एवदिश्रो अभवसिद्धियरासी । तदो एगरूवे अवणीदे जादं उक्कस्सपरित्ताणंतयं । ( ति प ४, पू. १८३ ) । २. यज्जघन्यपरीतानान्तं तत्पूर्ववद् वर्गित संवर्गितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टं परीतानन्तं तद् भवति । (त. वा. ३, ३८, ५, पृ. २०७ ) । २ जघन्य परीतानन्त को पूर्व के समान उत्कृष्ट परीता संख्यात के समान वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट परीतानन्त को लांघ कर जघन्य युक्तानन्त
[ उत्कृष्ट श्रावक
जाकर प्राप्त होता है । उसमें से एक अंक के कम करने पर उत्कृष्ट परीतानन्त होता है । उत्कृष्ट मंगल - धम्मो मंगलमुविकट्ठ अहिंसा संजमो तवो । ( दशवे. सू. १-१ ) ।
श्रहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहते हैं ।
उत्कृष्ट श्रावक - १. गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिग्र । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ ( रत्नक. १४७ ) । २. एयारसम्मि ठाणे उविकट्ठो सावो हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कवी परिग्गहो बिदिश्रो || धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढो । ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा || भुंजेइ पाणि-पत्तम्मि भायणे वा सई समुवि । उपवासं पुण णियमा चउब्विहं कुणइ पव्वेसु ॥ पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा | भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव । सिग्घं लाहाला हे प्रदीणवयणो नियत्तिऊण तो । प्रणम्मि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य वा ।। जइ श्रद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणइ । भोत्तूण णिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। अह ण भणइ तो भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ॥ जं कि पि पढियभिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि । जइ एयं ण रएज्जो काउंरिसगिम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा | गंतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा । गहिऊण तम्रो सव्वं आलोचेज्जा पयते ।। एमेव होइ विश्र णवरि विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्त || उद्दिट्ठपिंडविरो दुवियप्पो सावग्रो समासेण । एयारसम्म ठाणे भणिश्रो सुत्ताणुसारेण ॥ ( वसु. श्रा. ३०१ - ११ व ३१३) । ३. तत्तद्व्रतास्त्रनिभिन्नश्वसन् मोहमहाभटः । उद्दिष्टं पिण्डमप्युज्दुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः । स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्द्धजानपनाययेत् । सितकौपीनसंव्यानः कर्तर्या वा क्षुरेण वा ।। स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः ! कुर्यादेव चतुपर्व्यामुपवासं चतुर्विधम् । स्वयं समुपविष्टोऽद्यात् पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ।। स्थित्वा भिक्षां धर्म
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उत्कृष्ट श्रावक ]
लाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा । मौनेन दर्शयित्वाङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ।। निर्गत्यान्यद् गृहं गच्छेद् भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात् तद् भुक्त्वा यद् भक्षितं मनाक् ॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत् स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ श्राकांक्षन् संयमं भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् । ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधं । गृह्णीयाद् विधिवत् सर्वं गुरोश्चालोचयेत् पुरः ।। यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमुन्यसौ । भुक्त्य भावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ।। वसेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषेत गुरूंश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा वैयावृत्यं विशेषतः ॥ तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग् धत्ते यतिवत् प्रतिलेखनम् || स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥ (सा. घ. ७, ३७ - ४६) ।
१ उत्कृष्ट - ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक - श्रावक वह कहलाला है जो घर से मुनियों के श्राश्रम में जाकर गरु के समीप में व्रत को ग्रहण करता हुआ भिक्षाभोजन को करता है और वस्त्रखण्ड — लंगोटी मात्र को धारण करता है । २ उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार के होते हैं। उनमें प्रथम उत्कृष्ट श्रावक ( क्षुल्लक) एक वस्त्र को धारण करता है, पर दूसरा लंगोटी मात्र का धारक होता है। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक बालों का परित्याग केंची या उस्तरे से करता है - उन्हें निकलवाता है तथा बैठने-उठने प्रादि क्रियाओं में प्रयत्नपूर्वक प्रतिलेखन करता है - प्राणिरक्षा के लिए कोमल वस्त्र श्रादि से भूमि श्रादि को झाड़ता है । भोजन वह बैठकर हाथरूप
पात्र में करता है श्रथवा थाली आदि में भी करता है । परन्तु पर्वदिनों में - प्रष्टमी - चतुर्दशी श्रादि को - उपवास नियम से करता है । पात्र को धोकर व भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर पर जाकर प्रांगन में स्थित होता हुआ 'धर्मलाभ' कहकर भिक्षा की स्वयं याचना करता है, तत्पश्चात् भोजन चाहे प्राप्त हो अथवा न भी प्राप्त हो, वह दैन्य भाव से रहित होता हुआ वहां से शीघ्र ही वापिस लौटकर दूसरे घर पर जाता है और मौन के साथ शरीर को दिखलाता है। बीच में यदि कोई श्रावक वचन
२४८, जैन - लक्षणावली
[ उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश
द्वारा भोजन करने के लिए प्रार्थना करता है तो जो कुछ भिक्षा प्राप्त कर ली है, पहिले उसे खाकर तत्पश्चात् उसके अन्न को खाता है । परन्तु यदि मार्ग में कोई नहीं बुलाता है तो अपने उदर की पूर्ति के योग्य भिक्षा प्राप्त होने तक श्रन्यान्य ग्रहों में जाता है । तत्पश्चात् एक किसी गृह पर प्राक पानी को मांगकर व याचित भोजन को प्रयत्नपूर्वक शोधकर खाता है । फिर पात्र धोकर गुरु के पास में जाता है । यह भोजनविधि यदि किसी को नहीं रुचती है तो वह मुनि के प्रहार के पश्चात् किसी घर में चर्या के लिए प्रविष्ट होता है और एक भिक्षा के नियमपूर्वक भोजन करता है-यदि विधिपूर्वक वहां भोजन नहीं प्राप्त होता है तो फिर उपवास ही करता है । गुरु के पास विधिपूर्वक चार प्रकार के प्रत्याख्यान को— उपवास को ग्रहण करता है। व आलोचना करता है। दूसरे उत्कृष्ट श्रावक की भी यही विधि है । विशेषता इतनी है कि वह बालों का नियम से लोच ही करता है, पिच्छी को धारण करता है और हाथरूप पात्र में ही भोजन करता है । उत्कृष्ट सान्तरनवक्र मरणकाल - विदियादिवक्कमणकंदयाणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं उक्कस्सकालकलाओ उक्कसगो सांतरवक्कमणकालो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४७६ ) ।
श्रावलि के श्रसंख्यातवें भाग मात्र द्वितीय आदि श्रवक्रमणकाण्डकों के उत्कृष्ट कालसमूह का नाम उत्कृष्ट सान्तरश्रवक्रमणकाल है ।
उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक - जं कम्मं बंधसमयादो कम्मदी उदए दीसदि तम्मुक्कस्सद्विदिपत्तयं । ( कसायपा. चू. पू. २३५ ) ।
जो कर्म बन्धसमय से कर्मस्थिति के अनुसार उदय में दिखता है उसका नाम उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक है । उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश- अधवा उक्कस्सट्ठिदिबंध - पात्रोग्गप्रसंखेज्जलोगमेत्तसंकिलेसट्ठाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखंडाणि काढूण तत्थ चरिमखंडस्स उक्कस्सट्ठिदिसंकिलेसो णाम । धव. पु. ११, पृ. ६१) ।
श्रथवा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के योग्य असंख्यात लोक मात्र संक्लेशस्थानों के पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग मात्र खण्ड करने पर उनमें अन्तिम खण्ड का नाम उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश है ।
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उत्कृष्ट संख्येया संख्येय ]
उत्कृष्ट संख्ये या संख्येय - १. जहण्णमसंखेज्जासंखेज्जयं दोप्पडिरासियं काढूण एगरासि सलायपमा ठविय एगरासि विरलेदूण एक्केक्कस्स वस्स एगपुंजपमाणं दादूण अण्णोष्णभत्थं करिय सलायरासिदो एगरूवं श्रवणेदव्वं । पुणो वि उप्पण्णरासि विरले एक्केक्स्स रूवस्सुप्पण्णरासिपमाणं दादूण प्रणोष्णभत्थं काढूण सलायरासिदो एगरूवं श्रवणे - दव्वं । एदेण कमेण सलायरासी णिट्टिदा । णिट्टियतदणंतररासि दुप्परासि कावण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंजं विरलिदूण एक्केक्कस्स रूवस्स उप्पण्णरासि दादूण प्रणोष्णभत्थं ing सायरासिदो एयं रूवं प्रवणेदव्वं । एदेण सरूण विदियसलायपुंजं समत्तं । सम्मत्तकाले उप्पण्णरासि दुप्पडिरासि काढूण एयपुंजं सलायं ठविय एयपुंज विरलिदूण एक्केक्कस्स रूवस्स उप
सिपमाणं दादूण प्रण्णोष्णभत्थं काढूण सलायरासीदो एयरूवं प्रवणेदव्वं । एदेण कमेण तदियपुंजं गिट्टिदं । एवं कदे उक्कस्स - असंखेज्जासंखेज्जयं ण पावदि । धमाधम्म - लोगागास एगजीवपदेसा चतारि वि लोगागासमेत्ता, पत्तेगसरीर बादरपदिट्टिया एदे दो वि (कमसो असंखेज्जलोग मेत्ता ), छप्पि एदे प्रसंखेज्जरासीओ पुव्विल्ल रासिस्स उवरि पक्खिविदूण पुव्वं व तिण्णिवारवग्गिदे कदे उक्कस्सन संखेज्जासंखेज्जयं ण उप्पज्जदि । तदा ठिदिबंधज्भवसायठाणाणि अणुभागबंध ज्भवसायठाणाणि योगपलिच्छेदाणि उस्सप्पिणी - श्रोसप्पिणीसमयाणि च एदाणि पक्खिविण पुव्वं व वग्गिद-संविग्गदं कदे (उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जयं प्रदिच्छिदूण जहण्णपरित्ताणंतयं गंतूण पडिदं । ) तदो (एग्गरूवं प्रवणीदे जादं) उक्कस्सग्रसंखेज्जासंखेज्जयं । (ति. प. १, पृ. १८१, १८२ ) । २. यज्जघन्यासंख्येयासंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रीन् वारान् वर्गित-संवर्गितं उत्कृष्टासंखेयासंख्येयं [न] प्राप्नोति । ततो धर्माधर्मेकजीवलोकाकाश- प्रत्येक शरीरजीव - बादरनिगोतशरीराणि
प्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेद
२४६, जैन - लक्षणावली
[ उत्क्षिप्तचर्या
जघन्यपरीतानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं भवति । (त. वा. ३, ३८, ५, पृ. २३८, पं. ७-१२ ) ।
२ जघन्य संख्येया संख्येय का विरलन करके पूर्वोक्त विधि से उत्कृष्ट युक्तासंख्येय के समान—तीन बार वर्गित संवगत करने पर उत्कृष्ट असंख्येया संख्येय प्राप्त नहीं होता । तब धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येकशरीर जीव और बादर निगोद जीवशरीर; इन छह असंख्यात राशियों तथा श्रसंख्यात लोकप्रदेश प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, योगाविभागप्रतिच्छेद और उत्सर्पिणी- श्रवसर्पिणी के समयों को मिलाकर पूर्वोक्त राशि के तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट श्रसंख्येया संख्येय का प्रतिक्रमण करके जघन्यपरीतानन्त जाकर प्राप्त होता है । उसमें से एक अंक के कम कर देने पर उत्कृष्ट असंख्येया संख्येय का प्रमाण होता है ।
उत्कृष्टि -- उत्कृष्टिः हर्षविशेषप्रेरितो ध्वनि विशेषः । (श्राव. नि. हरि. वृ. ५५२, पृ. २३१ ) । हर्ष - विशेष से प्रेरित होकर की गई ध्वनिविशेष को उत्कृष्टि कहते हैं ।
उत्क्रम व्यवच्छिद्यमान - बन्धोदय - उत्क्रमेण, पूर्वमुदयः पश्चात् बन्ध इत्येवंलक्षणेन, व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदय यासां ता उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः । ( पंचसं. मलय. वृ. ३ - ५५, पृ. १४८ ) । जिन कर्मप्रकृतियों की उत्क्रम से बन्धोदय- व्युच्छित्ति होती है, अर्थात् पहले उदयव्युच्छित्ति और पीछे बन्धव्युच्छित्ति होती है, वे उत्क्रमव्यवच्द्यिमान बन्धोदयप्रकृतियां कहलाती हैं । उत्क्षिप्तचरक - उत्क्षिप्तं पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतम्, तद् ये चरन्ति गवेषयन्ति ते उत्क्षिप्तचरकाः । (बृहत्क. वृ. १६५२ ) । दातार गृहस्थ के द्वारा साधु के थाने के पूर्व ही पात्र में से निकाले गये श्राहार को खोजने वालेउसे गोचरी में ग्रहण करने वाले - साधुग्रों को उत्क्षिप्तचरक कहते हैं । श्रभिग्रह और श्रभिग्रह वान् में कथंचित् प्रभेद होने से उसे भावाभिग्रह का
रूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रीन् वारान् लक्षण समझना चाहिये ।
वर्गित संवर्गितं कृत्वा उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयमतीत्य
ल. ३२
उत्क्षिप्तचर्या - १. उत्क्षिप्तं पटलोदंकिका-कडुच्छ
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उत्तरकरण] २५०, जैन-लक्षणावली
[उत्तरचूलिका दोष कादिनोपकरणेन दानयोग्यतया दायकेनोद्यातं तादृशं उत्तरगुरण-शेषाः पिण्डविशुद्धयाद्याः स्युरुत्तरगुणाः यदि लप्स्येत ततो गृहीष्यामः नावशिष्टमित्युत्क्षिप्त- स्फुटम् । एषां चानतिचाराणां पालनं ते त्वमी चर्या उत्क्षिप्ताभ्यवहरणमिति । (त. भा. हरि. वृ. मताः ।।४७।। (अभिधा. २, पृ. ७६३) । ९-१९) । २. उत्क्षिप्तं पटलकादिकं कुडुच्छुकादि- मूलगुणों से भिन्न पिण्डशुद्धि प्रादि उत्तरगुण माने नोपकरणेन दानयोग्यतया दायकेनोद्यतं तादृशं यदि जाते हैं। लप्स्ये ततो गृहीष्यामि, नावशिष्टमित्युत्क्षिप्तचर्या उत्तरगुरणकल्पिक-आहार-उवहि-सज्जा उग्गमउत्क्षिप्ताऽभ्यवहरणमिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. उप्पादणेसणासुद्धा। जो परिगिण्हति निययं उत्तर६-१६)।
गुणकप्पियो स खलु ।। (बृहत्क. ६४४४); यः प्राहादाता कलछी प्रादि से दान के योग्य जिस भोज्य रोपधि-शय्या उदगमोत्पादनैषणाशद्धा नियतं निश्चितं वस्तु को पात्र में से निकाल लेता है, ऐसा यदि प्राप्त परिगृह्णाति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः । होगा तो उसे ही ग्रहण करूंगा, अन्य को नहीं; इस (बृहत्क. वृ. ६४४४) । प्रकार से अभिग्रहपूर्वक की जाने वाली चर्या को जो साधु नियम से उद्गम, उत्पादन और एषणा उत्क्षिप्तचर्या कहते हैं।
दोषों से रहित आहार, उपधि और शय्या को ग्रहण उत्तरकरण-१. खंडिअ-विराहियाणं मूलगुणाणं किया करता है उसे उत्तरगणकल्पिक कहा जाता है। स-उत्तरगुणाणं । उत्तरकरणं कीरइ जह सगड-रहंग- उत्तरगुरणनिर्वर्तनाधिकरण-१. उत्तरगुणनिर्वगोहाणं ॥६६॥ (प्राव. ५ अ.-अभिधा. २, पृ. र्तना काष्ठ-पुस्त-चित्र-कर्मादीनि । (त. भा. ६-१०)। ७५७) । २. मूलतः स्वहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तर- २. उत्तरं काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्माणि । (त. वा. ६, ६, कालं विशेषाधानात्मकं करणमुत्तरकरणम् । (उत्तरा. १२)। ३. तथाङ्गोपाङ्ग-संस्थान-मृद्वादि-तक्ष्ण्यादिनि. शा. व. ४-१८२, पृ. १६४) ।
रुत्तरगुणः, सोऽपि निवृत्तः सन्निधिकरणीभवति १ मूलगुण और उत्तरगणों के सर्वथा खण्डित होने कर्मबन्धस्योत्तरगुण एव निर्वर्तनाधिकरणम् । (त. पर अथवा देशतः खण्डित होने पर पुन: उनका जो भा. सिद्ध. वृ. ६-१०) । ४. उत्तरगुणनिर्वर्तना उत्तरकरण किया जाता है–पालोचमा प्रादि के काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्मभेदा। (त. सुखबो. वृ. ६-६)। द्वारा उन्हें शुद्ध किया जाता है, इसका नाम उत्तर- ५. उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं काष्ठ-पाषाण-पुस्तककरण है । जैसे लोक में गाड़ी आदि के विकृत हो चित्र-कर्मादिनिष्पादनं जीवरूपादिनिष्पादनं लेखनं जाने पर उनका सुधार करके फिर से उन्हें व्यवहार के चेत्यनेकविधम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। योग्य बनाया जाता है। २ अपने कारणों से उत्पन्न १ काष्ठ, पुस्तक व चित्रकर्म आदि को उत्तरगुणघटादि को जो पश्चात् विशेषाधान रूप किया जाता निर्वर्तना कहा जाता है। है उसे उत्तरकरण कहते हैं।
उत्तरचूलिका दोष-१. वन्दनां स्तोकेन कालेन उत्तरकरणकृति-जा सा उत्तरकरणकदी णाम निर्वर्त्य वन्दनायाश्चूलिकाभूतस्यालोचनादिकस्य सा अणेयविहा । तं जहा-असि-वासि-परसु-कुडारि- महता कालेन निर्वर्तकं [नं] कृत्वा यो वन्दनां विधचक्क-दंड-बेम-णालिया-सलागमट्टियसुत्तोदयादीणसुव- घाति तस्योत्तरचूलिकादोषः। (मूला. वृ. ७-१०६)। संपदसण्णिज्झे । (षट्खं. ४, १, ७२-पु. ६, पृ. २. उत्तरचूलं वन्दनं दत्त्वा महता शब्देन 'मस्तकेन ४५०)।
___ वन्दे' इत्यभिधानम् । (योगशा. स्वो. विव. १३०, तलवार, वसूला, फरसा और कुदारी आदि उप- पृ. २३७)। ३.xxxचूला चिरेणोत्तरचूलिका ।। करणों का कार्योत्पत्ति में सांनिध्य रहने से उन (अन.प. ८-१०९); उत्तरचूलिका नाम दोषः सबको उत्तरकरणकृति कहा जाता है। जीव से स्यात् । या किम् ? या चूला। केन ? चिरेण । अपृथग्भूत होकर समस्त करणों के कारण होने वन्दनां स्तोककालेन कृत्वा तच्चूलिकाभूतस्यालोचनासे प्रौदारिकादि पांच शरीरों को मूलकरण कहा देमंहता कालेन करणमित्यर्थः। (अन. घ. स्वो. टी. जाता है। इन मूलकरणों के करण होने के कारण ८-१०९)। उक्त तलवार प्रादि को उत्तरकरण माना गया है। १ वन्दना को शीघ्रता से करके उसकी चूलिका
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उत्तरप्रकृति]
२५१, जैन-लक्षणावली
[उत्तराध्यायानुयोग
दोष है।
स्वरूप आलोचना प्रादि को दीर्घ काल तक करने के उत्तराध्ययन-१. कमउत्तरेण पगयं पायारस्सेव पश्चात् जो वन्दना करता है उसके उत्तरचूलिका उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा नामक वन्दनादोष होता है। २ वन्दना देकर 'मस्तक होति णायव्वा ॥ (उत्तरा. नि. ३, पृ. ५)। २. से मैं वन्दना करता हूँ, इस प्रकार उच्च स्वर से उत्तरज्झयणाणि आयारस्स उरि प्रासित्ति तम्हा कहना, यह वन्दनाविषयक उत्तरचल नाम का उत्तराणि भवंति। (उत्तरा.च. पृ. ६)। ३. उत्तर
ज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ। (धव. पु. १, प, ७७); उत्तरप्रकृति-पूध-पुधावयवा पज्जवट्टियणयणिबंध- उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविणा उत्तरपयडी जाम । (धव. पु. ६, पृ.५-६)। हाणं कालादिविसे सिदं परूवेदि। (धव. पु. ६, पृ. पर्यायाथिक नय के प्राश्रय से किये जाने वाले पृथक् १९०)। ४. चउव्विहोवसग्गाणं बाबीसपरिस्सहाणं पथक कर्मप्रकृतिभेदों का नाम उत्तरप्रकृति है। च सहण विहाणं सहणफलमेदम्हादो एदमत्तरमिदि च उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रम-उत्तरपयडीणं च उत्तरज्झेणं वण्णेदि। (जयघ. १, पृ. १२०) । मिच्छत्तादीणमणुभागस्स प्रोकड्डुकड्डण-परपयडिसं- ५. प्राचारात् परतः पूर्वकाले यस्मादेतानि पठितकमेहि जो सत्तिविपरिणामो सो उत्तरपयडि-अणु- वन्तो यतयस्तेनोत्तराध्ययनानि । (त. भा. सिद्ध. व. भागसंकमो त्ति । (जयध. ६, पृ. २)।
१-२०)। ६. उत्तराण्यधीयन्ते पठ्यन्तेऽस्मिन्नित्यूमिथ्यात्व प्रादि उत्तर प्रकृतियों के अनुभाग की राध्ययनम्, तच्च चतुर्विधोपसर्गाणां द्वाविंशतिपरीषशक्ति का जो अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृति- हाणां च सहनविधानं तत्फलम्, एवं प्रश्ने एवमित्यु. संकमण के द्वारा विरुद्ध परिणमन होता है उसे तरविधानं च वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. उत्तरप्रकृति-अनुभागसंक्रम कहते हैं।
प्र. टी. ३६७) । ७. भिक्षूणामुपसर्गसहनफलनिरूउत्तरप्रकृति-विपरिणामना-णिज्जिण्णा पयडी पकमुत्तराध्ययनम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। देसेण सव्वणिज्जराए वा, अण्णपयडीए देससंकमेण ८. उत्तराणि अहिज्जति उत्तरऽज्झयणं मदं जिणिवा सव्वसंकमेण वा जा संकामिज्जदि, एसा उत्तर- देहिं । बाबीसपरीसहाणं उदसग्गाणं च सहणबिहिं । पयडिविपरिणामणा णाम । (धव. पु. १५, पृ. वण्णेदि तप्फलमदि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कहदि २८३) ।
गुरुसीसयाणं पइण्णियं अट्टमं तं खु ॥ (अंगप. २५, देशनिर्जरा अथवा सर्वनिर्जरा से निर्जीर्ण प्रकति २६, पृ. ३०६)। का तथा देशसंक्रमण अथवा सर्वसंक्रमण के द्वारा १ क्रम की अपेक्षा जो प्राचारांग के उत्तर-पश्चात् अन्य प्रकृति में संक्रान्त की जाने वाली प्रकृति का -मुनियों के द्वारा पढ़े जाते थे वे विनय व परीषह नाम उत्तरप्रकृति-विपरिणामना है।
आदि ३६ उत्तराध्ययन कहे जाते हैं। ३ जिसमें उत्तरप्रयोगकरण-१.xxx इअरं पोगो उद्गम, उत्पादन और एषण दोषों सम्बन्धी प्रायजमिह। निप्फन्ना निप्फज्जइ पाइल्लाणं च तं तिण्हं । श्चित्त का विधान कालादि की विशेषतापूर्वक (प्राव. भा. १५६, पृ. ५५६) । २. प्रयोगेण यदिह किया गया हो वह उत्तराध्ययन कहलाता है। लोके मूलप्रयोगेण, निष्पन्नात् तन्निष्पन्नात् निष्पद्यते ६ जिस शास्त्र में देव, मनुष्य, तिथंच और अचेतन तदुत्तरप्रयोगकरणम्, तच्च त्रयाणामाद्यानां शरीरा- कृत चतुर्विध उपसर्ग व बाईस परीषहों के सहन णाम् । इयमत्र भावना xxx अङ्गोपाङ्गादि- करने की विधि का एवं उनके फल का विधान करणं तत्तरप्रयोगकरणं, तच्चौदारिक-वैक्रियिकाहा- किया गया हो तथा प्रश्नों के उत्तर का विधान रकरूपाणां त्रयाणां शरीराणाम्, न तु तैजस-कार्म- किया गया हो उसे उत्तराध्ययन कहते हैं । णयोः, तयोरङ्गोपाङ्गाद्यसम्भवात् । (प्राव. भा. उत्तराध्यायानुयोग–अनुयोजनमनुयोगः, अर्थव्यामलय. वृ. १५६, पृ. ५५६)।
ख्यानमित्यर्थः, उत्तराध्यायानामनुयोगः उत्तराध्याप्रौदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों यानुयोगः xxx । (उत्तरा. चू. पृ. १)। के अङ्गोपाङ्ग प्रादि करण को उत्तरप्रयोगकरण उत्तराध्ययन के अध्ययनों के अर्थ के व्याख्यान को कहते हैं।
उत्तराध्यायानुयोग कहते हैं।
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उत्तरितदोष] २५२, जैन-लक्षणावली
[उत्पाद उत्तरितदोष-xxx तस्योत्तरितमुन्नमः । लोकं जानाति । (धव. पु. १३, पृ. ३४६) । (अन. ध. ८-११५); उत्तरितं नाम दोषोऽस्ति। उत्पन्न हुए ज्ञान के द्वारा देखना जिसका स्वभाव है कोऽसौ ? उन्नमः । कस्य ? तस्य मूर्ध्नः । (अन. उसे उत्पन्नज्ञानदर्शी कहते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए ध. स्वो. टी. ८-११५)।
ज्ञान से देखने वाले भगवान सब लोक को जानते हैं। शिर को ऊपर उठाकर कायोत्सर्ग करना, यह उस उत्पन्न मिश्रिता-उप्पण्णमीसिया सा उप्पन्ना कायोत्सर्ग के ३२ दोषों में से एक (१०वां) उत्त- जत्थ मीसिया हंति । संखाइ पूरणत्थं सद्धिमणुप्पन्नरित नाम का दोष है।
भावेहि ।। (भाषार. ५८); सा उत्पन्नमिश्रिता उत्थितोत्थितकायोत्सर्ग-देखो उत्सतोत्सतका- इति विधेयनिर्देशः, यत्रानुत्पन्नभावः सार्द्ध संख्यायाः योत्सर्ग। धर्म शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य पूरणार्थ उत्पन्ना मिश्रिता भवन्ति । (भाषार. टी. कायोत्सर्ग उत्थितोत्थितो नाम । द्रव्य-भावोत्थान- ५८)। समन्वितत्वादूत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते।। जिस भाषा में अनुत्पन्न भावों के साथ संख्या की (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६) ।
पूर्ति के लिए उत्पन्न भी पदार्थों को सम्मिलित धर्मध्यान और शक्लध्यान में परिणत जीव के करके कहा जावे उसे उत्पन्न मिश्रिता भाषा कहते कायोत्सर्ग को उत्थितोत्थित या उत्सतोत्सृत कायो- हैं। जैसे किसी ग्राम में पांच अथवा दस से अधिक त्सर्ग कहते हैं। उत्थितोत्थित शब्द से यहां द्रव्य व बच्चों के उत्पन्न होने पर 'प्राज दस बच्चे उत्पन्न भावरूप उत्थान से युक्त उत्थान का प्रकर्ष ग्रहण हुए हैं। ऐसा कहना। किया गया है।
उत्पन्न विगतमिश्रिता-उप्पन्नविगयमीसियमेयं उत्पत्ति-१. पूर्वावधिपरिच्छिन्नवस्तुसत्तासम्बन्ध- पभणंति जत्थ खलु जुगवं । उप्पन्ना विगमा वि य ऊणलक्षणादुत्पत्तेः । (सिद्धिवि. वृ. ४-६, पृ. २४६); ब्भहिया भणिज्जति ।। (भाषार.६०); एतां भाषाआत्मलाभलक्षणा उत्पत्तिः । (सिद्धिवि. टी. ४-६, मुत्पन्नविगतमिश्रितां प्रभणन्ति श्रुतधराः, यत्र यस्यां प. २५०) । २. अपूर्वाकारसंप्राप्तिरुत्पत्तिरिति भाषायां खनु निश्चयेन उत्पन्ना विगता अपि च भावा कीर्त्यते । (भावसं. वाम. ३८०)।
ऊना अधिका युगपद् भण्यन्ते । (भाषार. टी. ६०)। १ पूर्व अवधि से निश्चित वस्तु की सत्ता के सम्बन्ध जिस भाषा में उत्पन्न और विगत दोनों ही भाव का नाम उत्पत्ति है। अभिप्राय यह कि वस्तु के हीनता या अधिकता के साथ युगपत् कहे जावें उसे स्वरूप का जो लाभ है यही उसकी उत्पत्ति कही उत्पन्न विगतमिश्रिता भाषा कहते हैं। जैसे-'इस जाती है।
ग्राम में बस उत्पन्न हुए हैं और दस ही मरे हैं' उत्पत्तिकषाय-उत्पत्तिकषायो यस्माद् द्रव्यादेबर्बा- ऐसा कहना। ह्यात् कषायप्रभवस्तदेव कषायनिमित्तत्वाद् उत्पत्ति- उत्पात-उत्पातं सहजरुधिरवृष्टयादिलक्षणोत्पातकषायः इति । उक्तं च-किं एत्तो कट्टयरं जं मूढो फलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम् । (समवा. अभय. वृ. खाणुगंमि अप्फिडियो। खाणुस्स तस्स रूसइण २६, पृ. ४७)। अप्पणो दुप्पप्रोगस्स ।। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. जिस शास्त्र में स्वभाव से होने वाली रुधिर की ३६०)।
वर्षा प्रादिरूप उपद्रवों के फल का वर्णन किया गया जिस बाह्य द्रव्य के निमित्त से कषाय की उत्पत्ति हो उसे उत्पात निमित्त कहते हैं। हो उसे कषायोत्पत्ति का निमित्त होने से उत्पत्ति- उत्पाद-१. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां कषाय कहा जाता है। उदाहरणार्थ यदि कोई मूर्ख जातिमजहत उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिव्यक्ति स्थाणु (ठूठ) से पाहत होता है तो वह उस रुत्पादनमुत्पाद: । (स. सि. ५-३०; त. वृत्ति श्रुत. स्थाणुपर तो क्रोधित होता है, किन्तु अपनी दूषित ५-३०)। २. स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिप्रवृत्ति पर क्रोधित नहीं होता।
रुत्पादः । चेतनस्य अचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वजातिमउत्पन्नज्ञानदर्शी-उत्पन्नज्ञानेन दृष्टं शीलमस्ये- जहतः भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद इत्युच्यते त्युत्पन्नज्ञानदर्शी, स्वयमुत्पन्नज्ञानदर्शी भगवान् सर्व- मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । (त. वा. ५, ३०, १)।
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उत्पादपूर्व]
२५३, जैन-लक्षणावली [उत्ष्वष्कणाभिष्वष्कण ३. प्राविब्भावो उप्पादो। (धव. पु. १५, पृ. १६)। तं जहा-दव्वाणं णाणाणयुवण्णयगोयरकमजोग४. अभूत्वा भाव उत्पादः । (म. पु. २४-११०)। वज्जसंभाविदुप्पाद-वय-धुव्वाणि तियालगोयरा णव ५. स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पाद:। धम्मा हवंति । तप्परिणदं दव्वमवि णवहा । उप्पण्ण(त. श्लो. ५-३०)। ६. प्रागसत आत्मलाभ। मुप्पज्जमाणमुप्पस्समाणं ण? णस्समाणं णंखमाणं उत्पादः। (सिद्धिवि. टी. ३-१५, पृ. २०२)। ठिदं तिट्ठमाणं विस्संतमिदि णवाणं तं धम्माण मुव्व७. द्रव्यनयाभिप्रायेणाकारान्तराविर्भावमात्रमूत्पाद ण्णादीणं पत्तेयं णवविहत्तणसंभवादो एयासीदिवियप्रौपचारिकः, परमार्थतो न किञ्चिदुत्पद्यते सतत- पधम्मपरिणददव्ववण्णणं यं करेदि तमुप्पादपुव्वं । मवस्थितद्रव्यांशमात्रत्वात् । (त. भा. सिद्ध. व. ५, (अंगप. प. २८३-८४)। २६)। ८. द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य १ जिस पूर्वश्रुत में काल, पुदगल और जीव आदि च। भावान्तरपरिप्राप्तिनिजां जातिमनुज्झतः।। (त. की पर्यायाथिक नय की अपेक्षा होने वाली उत्पत्ति सा. ३-६)। ६. तत्रोत्पादोऽवस्थाप्रत्यग्रं परिणतस्य का वर्णन किया जाता है वह उत्पादपूर्व कहलाता है। तस्य सतः । सदसद्भावनिबद्धं तदतभावत्ववन्नया
उत्पाद-व्ययसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिक-१. उप्पाददेशात् ।। (पंचाध्यायी १-२०१)।
वयविमिस्सा सत्ता गहिऊण भणइ ति दयत्तं । दव्व१ बाह्य और अभ्यन्तर निमित्त के वश जो चेतन
स्स एयसमये जो ह असुद्धो हवे विदियो ।। (ल. न. व अचेतन द्रव्य अपनी जाति को न छोड़ता हुआ
च. २२; बृ. न. च. १६५) । २. उत्पाद व्ययअवस्थान्तर को-पूर्व अवस्था को छोड़कर नवीन
सापेक्षोऽशद्धद्रव्याथिको यथा एकस्मिन् समये द्रव्यअवस्था को-प्राप्त होता है, इसका नाम उत्पाद है।
मुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकम् । (पालाप. पृ. १३७) । उत्पादपूर्व-१. काल-पुद्गल-जीवादीनां यदा यत्र
जो नय उत्पाद और व्यय से मिश्रित सत्ता (ध्रौव्य) यथा च पर्यायेणोत्पादो वर्ण्यते तदुत्पादपूर्वम् । (त.
को लेकर द्रव्य को एक ही समय में उत्पाद, व्यय वा. १, २०, १२; धव. पु. ६, पृ. ११२) । २.
और ध्रौव्य स्वरूप बतलाता है वह उत्पाद-व्ययसापेक्ष उप्पादपुव्वं दसण्हं वत्थूणं १० वे-सदपाहुडाणं २०० कोडिपदेहि १००००००० जीव-काल-पोग्गलाण
प्रशुद्ध द्रव्याथिक नय कहलाता है। मुत्पाद-वय-धुवत्वं वण्णेइ । (धव. पु. १, पृ. ११४)।
द - उत्पादः सत्त्वम्, अनुच्छेदो ३. जमुप्पायपुव्वं तमुप्पाय-वय-धुवभावाणं कमाकम- विनाशः अभाव: नीरूपिता इति यावत् । उत्पाद सरूवाणं णाणाणयविसयाणं वण्णणं कुणइ। (जयघ. एव अनुच्छेदः उत्पादानुच्छेदः, भाव एव अभाव १, पृ. १३६-४०)। ४. उत्पादपूर्व प्रथमम, तत्र च इति यावत् । एसो दवट्ठियणयववहारो। (धव. पु. सर्वद्रव्याणं पर्यवाणां चोत्पादभावमङ्गीकृत्य प्रज्ञापना ८, पृ. ५); उप्पादाणुच्छेदो णाम दव्वट्ठियो। तेण कृता । तस्य च पदपरिमाणमेका कोटी। (समवा. संतावत्थाए चेव विणासमिच्छदि, असते बुद्धिविसयं अभय. व. १४७, पृ. १२१)। ५. जीवादेरुत्पाद- चाइक्कंतभावेण वयणगोयराइक्कते अभावववहाराव्यय-ध्रौव्यप्रतिपादक कोटिपदमुत्पादपूर्वम् । (श्रुतभ. णुववत्तीदो। (धव. पु. १२, पृ. ४५७) । टी. १०, पृ. १७५) । ६. एतेषु पूर्वोक्तवस्तुश्रुतज्ञा- उत्पाद का अर्थ सत्ता और अनुच्छेद का अर्थ है नस्योपरि अग्रे प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादि- विनाश या प्रभाव । अतः उत्पादानुच्छेद से अभिप्राय वृद्धया दशवस्तुप्रमितवस्तुसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु द्रव्याथिकनय की अपेक्षा भावात्मक प्रभाव से है,
वन्मात्रवस्तुश्रुतसमासज्ञानविकल्पेषु चरमवस्तू. क्योंकि तुच्छ प्रभाव वस्तुभूत नहीं है। यह द्रव्यासमासोत्कृष्टविकल्पस्योपर्येकाक्षरवृद्धौ सत्यामुत्पाद
थिक नय का विषय है। पूर्वश्रुतज्ञानं भवति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३४५)। उत्ष्वष्करणाभिष्वष्कण-१. टोलव्व उप्फिडतो ७. तत्र वस्तूनामुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यादिकथक कोटि- प्रोसक्कऽहिसक्कणे कुणइ ॥५६॥ (प्राव. ह. व. पदप्रमाणमुत्पादपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ८. मल. हे. टि. पृ. ८६ उद्.)। २. उत्ष्वष्कणम् अग्रतः कोडिपयं उप्पादं पुव्वं जीवादिदव्वणिरयस्स । उप्पाद- सरणम्, अभिष्वष्कणं पश्चादपसरणम् ते उत्ष्वष्कव्वय-धुव्वादणेयधम्माण पूरणयं । १०००००००। णाभिष्वष्कणे, टोलवत्-तिड्डुवत्, उपप्लुत्य उप
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उत्सन्न क्रिय-अप्रतिपाति] २५४, जैन-लक्षणावली
[उत्सर्पिणी प्लुत्य करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकमिति गाथार्थः। दीनाम् अविरोधेन अङ्गमलनिर्हरणं शरीरस्य च (प्राव. व. टि. मल. हेम. पृ. ८७)।
स्थापनम् उत्सर्गसमितिरवगन्तव्या। (त. वा. ६, ५, पतंगा अथवा टिड्डी के समान आगे-पीछे उछलकर ८)। ३. जीवाविरोधेनाङ्गमलनिहरणं समुत्सर्गसवन्दना करना, यह उत्ष्वष्कण-अभिष्वष्कण नामक मितिः। (त. इलो. ९-५) । ४. तदवजितं वन्दना का दोष है। इसका दूसरा नाम टोलगति (स्थावर-जङ्गमजीवजितं ) निरीक्ष्य चक्षुषा भी है। (मूलाचार ७-१०६ और अनगारधर्मामृत प्रमृज्य च रजोहृत्या वस्त्र-पात्र-खेल-मल-भक्तपान८-६९ में सम्भवतः ऐसे ही दोष को दोलायित मूत्र-पुरीषादीनामुत्सर्गः उज्झनं उत्सर्गसमितिः । नाम से कहा गया है)।
(त. भा. हरि. वृ. ६-५)। ५. स्थावराणां जङ्गउत्सन्तक्रिय-अप्रतिपाति--देखो व्यूपरतक्रियानि- मानां च जीवानामविरोधेनांगमलनिहरणं शरीरस्य वति शक्लध्यान । केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवद- च स्थापनमुत्सर्गसमितिः। (चा. सा. पृ. ३२) । कम्पनीयस्य । उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परम- ६. कफ-मूत्र-मलप्रायं निर्जन्तु जगतीतले । यत्नाद्यशक्लम् ।। (योगशा. ११-६)।
दुत्सृजेत् साधुः सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥ (योगशा. मे के समान स्थिरतारूप शैलेशी अवस्था को १-४०)। ७. दूरगृढविशालानिरुद्धशद्धमहीतले । प्राप्त अयोगिकेवली के ध्यान को उत्सन्नक्रिय- उत्सर्गसमितिविण्मूत्रादीनां स्याद्विसर्जनम् ॥ (आचा. अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान कहते हैं । यह शुक्ल ध्यान सा. १-३६)। ८. निर्जन्तौ कुशले विविक्तविपले का अन्तिम (चतुर्थ) भेद है।
लोकोपरोघोज्झिते प्लुष्टे कृष्ट उतोषरे क्षितितले उत्सर्ग-देखो अप्रत्यवेक्षिताप्रमाणितोत्सर्ग । १. विष्ठादिकानुत्सृजन् । धुः प्रज्ञाश्रमणेन नक्तमभितो उत्सर्गः त्यागो निष्ठ्यूत-स्वेद-मल-मूत्र-पुरीषादीनाम्। दृष्टे: विभज्य विधा । सुस्पृष्टेऽप्यपहस्तकेन समिताxxx अथवा अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजित उत्सर्ग वुत्सर्ग उत्तिष्ठते ।। (अन. ध. ४-१६६) । करोति, ततः पौषधोपवासव्रतमतिचरति । (त. भा. ६. निर्जीवे शुषिरे देशे प्रत्यूपेक्ष्य प्रमाणं च । यत्त्या. सिद्ध. व. ७-२६)। २. बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानेनापि गो मल-मूत्रादेः सोत्सर्गसमितिः स्मता ।। (लोकप्र. संयमस्य शद्वात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न ३०-७४८) । १०. विमुत्र-श्लेष्म-खिल्यादिमलयथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमेवाच- मुज्झति यः शुचौ। दृष्ट्वा विशोध्य तस्य स्यादरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः । (प्रव. सा. अमृत. वृ. त्सर्गसमितिहिता ।। (धर्मसं. था. ६-८)। ११. ३-३०)। ३. यदुचितं परिपूर्णद्रव्यादि योग्यमनुष्ठानं प्राणिनामविरोधेन अङ्गमलत्यजनं शरीरस्य च स्थाशद्धान्न-पानगवेषणारूपं परिपूर्णमेव यत्तदौचित्येना- पनं दिगम्बरस्य उत्सर्गसमितिः भवति । (त. वन्ति नुष्ठान्नं स उत्सर्गः । (उप. प. वृ. ७८४)। श्रुत. ६-५)। १ भूमि के बिना देखे शोधे थूक, पसीना, मल, १ स्थावर और जङ्गम जीवों से रहित शद्ध भमि मत्र और विष्ठा प्रादि के त्याग करने का नाम में देखकर एवं रजोहरण से झाड़कर मल-मत्र प्रादि उत्सर्ग है। यह पौषधोपवास का एक अतिचार है। का त्याग करना, इसका नाम उत्सर्गसमिति है। २ बाल, वृद्ध, धान्त और रुग्ण साधु भी मूलभूत २ त्रस-स्थावर जीवों के विरोध (विराधना) से संयम का विनाश न हो, इस दृष्टि से जो शुद्ध रहित शुद्ध भूमि में शरीरगत मल के छोड़ने और प्रात्मतत्त्व के साधनभूत अपने योग्य प्रति कठोर शरीर के स्थापित करने को उत्सर्गसमिति कहते हैं। संयम का प्राचरण करता है। यह संयम परिपालन उत्सपिरणी-१. णर-तिरियाणं पाऊ-उच्छेह-विभुका उत्सर्गमार्ग-सामान्य विधान है।
दिपहुदियं सवं । xxx उस्सप्पिणियासू वड़ उत्सर्गसमिति- देखो उच्चारप्रस्रवणसमिति । ढेदि । (ति.प. ४-३१४)। २. अनभवाटिभि १. स्थण्डिले स्थावर-जङ्गमजन्तुजिते निरीक्ष्य त्सर्पणशीला उत्सपिणी। (स. सि. ३-२७) । प्रमृज्य च मूत्र-पूरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिः। ३. तद्विपरीतोत्सपिणी। तद्विपरीतैरेवोत्सर्पणशीला (त. भा. ६-५) । २. जीवाविरोधेनाङ्गमलनिर्हरण- वृद्धिस्वाभाविकोत्सर्पिणीत्युच्यते । (त. वा. ३, २७, मत्सर्गसमितिः। स्थावराणां जङ्गमानां च जीवा- ५)। ४. दससागरोवमाणं पुण्णाओ होंति कोडिको
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उत्संज्ञासंज्ञा]
२५५, जैन-लक्षणावली
[उत्स्वेदिम
डीओ। प्रोसप्पिणीपमाणं तं चेवसप्पिणीए वि ॥ त्सर्ग उत्सृतोत्सृतो भवति ज्ञातव्यः, यस्मादिह शरीर(ज्योतिष्क. २-८३)। ५. जत्थं बलाउ-उस्सेहाणं मुत्सृतं भावोऽपि धर्म-शुक्लध्यायित्वादुत्सृत एव । उस्सप्पणं उड्डी होदि सो कालो उस्सप्पिणी। (धव. (प्राव. नि. हरि. व. १४७६, पृ. ७७६)। पु. ६, पृ. ११६)। ६. उत्सर्पति वर्द्धतेऽरकापेक्षया देखो उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग। उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्स- उत्सेक-देखो अनुत्सेक । १. विज्ञानादिभिरनुत्कृष्टपिणी। (स्थाना. अभय. व. १-५०, पृ. २५)। स्यापि सतस्तत्कृतमदोऽहंकारतोत्सेकः । (स. सि. ७. उत्सर्पयति प्रथमसमयादारभ्य निरन्तरवृद्धि ६-२६; त. वा. ६, २६, ५) । २. उत्सेको ज्ञानानयति तैस्तैः पर्यायैर्भावानित्युत्सपिणी । (उप. प. मु. दिभिराधिक्येऽभिमान प्रात्मनः । (त. भा. सिद्ध. व. वृ. १-१७)। ८. ताभ्यां षट्समयाभ्यामुपभोगादि- ८-१०, पृ. १४५) ।
सर्पणशीला उत्सपिणी। (त. सुखबो. व. ३, ज्ञानादिकी अधिकता के होने पर तद्विषयक अभि२७) । ६. उत्सर्पन्ति क्रमेण परिवर्द्धन्ते शुभा भावा मान करने को उत्सेक कहते हैं। यह मान कषाय अस्यामित्युत्सर्पिणी। (ज्योतिष्क. मलय. व. २-८३)। का नामान्तर है। १०. सागरोपमाणां दश कोटीकोटय एव दुष्षमदु- उत्सेधाङगुल-१. परिभासाणिप्पणं (१, १०२-६) षमाद्यरक क्रमेणेकोत्सपिणी। (जीवाजी. मलय. वृ. होदि हु उदिसेहसूचिअंगुलयं ॥ (ति. प.१-१०७)। ३, २, १७६, पृ. ३४५)। ११. शुभा भावा विव- २. अठेव य जवमझाणि अंगुलं xxx। द्धन्ते क्रमादस्यां प्रतिक्षणम् । हीयन्ते चाशुभा भावा (जीवस. ६६)। ३. अष्टौ यवमध्यानि एकभवत्युत्सर्पिणीति सा ॥ (लोकप्र. २६-४५) । मंगुलमुत्सेधाख्यम् । (त. वा. ३,३८, ५) । ४.x १२. उत्सर्पयति वृद्धि नयति भोगादीन् इत्येवंशीला XXयवरष्टभिरङ्गुलम् ।। उत्सेधाङ्गुलमेतत् स्याउत्सर्पिणी । (त. वृत्ति श्रुत. ३-२७)।
दुत्सेधोऽनेन देहिनाम् । अल्पावस्थितवस्तूनां प्रमाणं १ जिस काल में जीवों की प्रायु, शरीर की ऊंचाई च प्रगृह्यते ॥ (ह. पु. ७, ४०-४१)। ५. परमाणू और विभूति प्रादि की उत्तरोत्तर वृद्धि हो उसे तसरेणू रहरेणू बालअग्ग-लिक्खा य। जून जवो उत्सर्पिणी कहते हैं।
अट्ठगुणो कमेण उस्सेहअंगुलयं । (संग्रहणी २४४) । उत्संज्ञासंज्ञा-देखो उवसन्नासन्न। अनन्तानन्त- ६. उत्सेधो देवादिशरीराणांमुच्चत्वम्, तन्निर्णयापरमाणसंघातपरिमाणादाविर्भता उत्संज्ञासंज्ञकः । र्थमगुलमुत्सेधाङ्गुलम् । उत्सेधः 'अणताणं सहम(त. वा. ३, ३८, ६, पृ. २०७, पं. २६-२७)। परमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे ववहारअनन्तानन्त परमाणुओं के समुदाय से एक उत्संज्ञा- परमाणू' इत्यादिक्रमेणोच्छ्यो वृद्धिस्तस्माज्जातसंज्ञा नामक माप होता है।
मङ्गुलमुत्सेधागुलम् । (संग्रहणी दे. वृ. २४४); उत्सूत्र-उत्सूत्रं किमित्याह-यदनुपदिष्टं तीर्थकर- यवमध्यान्यप्यष्टावेकमुत्सेघाङ्गुलम् । (संग्रहणी दे. वृ. गणधरैः, स्वच्छन्देन स्वाभिप्रायेण विकल्पितम् उत्प्रे- २४५) । ७. लिक्षाष्टकमिता यूका भवेयूकाभिरष्टक्षितम्, अतएव सिद्धान्ताननुपाति, सिद्धान्तबहिर्भूतम् भिः । यवमध्यं ततोऽष्टाभिस्त: स्यादौत्सेधमङ्गुलम् । इत्यर्थः । (प्राव. ह. वृ. मल. हे. टि. पु. ८४)। (लोकप्र. १-३३)। तीर्थङ्कर या गणधरों ने जिसका उपदेश नहीं दिया २ पाठ यवमध्यों का एक उत्सेधाङ्गुल होता है। है ऐसे तत्त्व का अपने अभिप्राय से कल्पना करके उत्स्वेदिम-१. उस्सेइम पिट्टाइ xxx ॥ कथन करने को उत्सूत्र कहते हैं, क्योंकि, इस प्रकार (बृहत्क. ८४०)। २. उत् ऊर्ध्वं निर्गच्छता वाष्पेण का व्याख्यान सिद्धान्त के
यः स्वेदः स उत्स्वेदः, उत्स्वेदेन निवृत्त मुत्स्वेदिमम् । उत्सतोत्सत कायोत्सर्ग-१. धम्म सुक्कं च दुवे (बृहत्क. क्षे. वृ. ८३६); उत्स्वेदिमं पिष्टा झायइ झाणाई जो ठिो संतो। एसो काउस्सग्गो सूक्ष्मतन्दुलादिचूर्णनिष्पन्नम्, तद्धि वस्त्रान्तरितउसिउसिनो होइ नायव्वो ॥ (प्राव. नि. १४७६)। मधःस्थितस्योष्णोदकस्य वाष्पेणोत्स्विद्यमानं पच्यते । २. धर्म च शुक्लं च प्राक् प्रतिपादितस्वरूपे, ते एव तत्र यदामं तत् उत्स्वेदिमामम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. द्व ध्यायति ध्याने यः कश्चित् स्थितः सन् एष कायो- ८४०)।
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उदकराजिसदृश क्रोध ]
सूक्ष्म चावल आदि के चूर्ण से उत्पन्न पिष्ट श्रादि को उत्स्वेदिम कहते हैं। कारण कि वह वस्त्र से श्राच्छादित होकर नीचे स्थित उष्ण जल के भाप से पकता है । उदकराजिसदृश क्रोध - उदकराजिसदृशो नाम - यथोदके दण्डशलाकाङ्गुल्यादीनामन्यतमेन हेतुना राजरुत्पन्ना द्रवत्वादपामुत्पत्त्यनन्तरमेव संरोहति, एवं यथोक्तनिमित्तोत्पन्नो यस्य क्रोधो विदुषोऽप्रम त्तस्य प्रत्यवमर्शनोत्पत्त्यनन्तरमेव व्यपगच्छति स उदकराजिसदृशः । ( त. भा. ८-१० ) । जिस प्रकार जल में लकड़ी या अंगुली आदि किसी भी निमित्त से उत्पन्न हुई रेखा उत्पन्न होने के अनन्तर हो विलीन हो जाती है, उसी प्रकार किसी भी निमित्त से उत्पन्न हुआ प्रमादहीन विद्वान् का क्रोध भी चूंकि उत्पन्न होने के अनन्तर ही शान्त हो जाता है, अत एव उसे उदकराजि सदृश ( संज्वलन) क्रोध कहा जाता है । उदधिकुमार - १. ऊरु - कटिष्वधिक प्रतिरूपा कृष्णश्यामा मकरचिह्नाः उदधिकुमाराः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४- ११ ) । २. उदधिकुमारा भूषणनियुक्त ह्यवर रूपचिह्नधारिणः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, १, ११७) । ३. उदधिकुमारा ऊरु-कटिष्वधिकरूपा अवदातश्वेतवर्णाः । ( संग्रहणी दे. वृ. १७, पृ. १३) । ४. उदानि उदकानि धीयन्ते येषु ते उदधयः, उदधिक्रीडायोगात् त्रिदशा अपि उदधयः, उदधयश्च ते कुमाराश्च उदधिकुमाराः (त. वृत्ति श्रुत. ४-११) । १ ऊरु और कटिभाग में अतिशय रूपवान्, वर्ण से श्याम और मकर के चिह्न युक्त देव उदधिकुमार कहे जाते हैं ।
उदय - १. द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः । ( स. सि. २ -१; त. वा. २, १, ४) । २. द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणः फलप्राप्तिरुदयः । द्रव्यादिनिमित्तं प्रतीत्य कर्मणो विपच्यमानस्य फलोपनिपात उदय इतीमामाख्यां लभते । (त. वा. २, १, ४ ) ; द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मपरिपाक उदयः । प्रागुपात्तस्य कर्मणः द्रव्यादिनिमित्तवशात् फलप्राप्तिः परिपाक उदय इति निश्चीयते । (त. वा. ६, १४, १) । ३. उदयः उदीरणावलिकागततत्पुद्गलोद्भूत सामर्थ्यता । (श्राव. नि. हरि. वृ. १०८, पृ. ७७ ) । ४. कर्मविपाकाविर्भाव उदयः । ( त. भा. हरि व
२५६, जैन-लक्षणावली
[ उदयनिष्पन्न
सिद्ध. वृ. २- १) । ५. जे कम्मक्खंधा प्रोकड्डुक्कड्डुणादिपयोगेण विणा द्विदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणी फलं देति, तेसि कम्मक्खंधाणमुदयो त्ति सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. २१३) । ६. उदयः फलकारित्वं द्रव्यादिप्रत्ययद्वयात् । ( त श्लो. २ १, ४ ) ; द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मपरिपाक उदयः । (त. इलो. ६, १४) । ७. कडुणाए विणा पत्तोदयकम् मक्खंधो कम्मोदो णाम । XX X एत्थ कम्मोदयो उदग्रो त्ति गहिदो । ( जयध. १, पृ. १८५८) ८. कर्मणो यथाकालं फलोपजननसामर्थ्यपरिपाक उदयः । ( सिद्धिवि. टी. ४-१०, पृ. २६८ ) । ६. तेषां च यथास्वस्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानां करणविशेषकृते स्वाभाविके वा स्थित्यपचये सत्युदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदय: । ( षडशीति हरि वृ. ११, पृ. १३१; कर्मस्त. गो. वू. १, पृ. ६९ ) । १०. कर्मणां फलदातृत्वं द्रव्य क्षेत्रादियोगतः । उदयः पाकजं ज्ञेयं XXX ॥ ( पंचसं श्रमित. ३ - ४ ) । ११. तेषामेव यथास्वस्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानामपवर्तनाकरण विशेषतः स्वभावतो वोदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः । ( शतक. मल. हेम. ३, पृ. ६) । १२. अष्टानां कर्मणां यथास्वमुदयप्राप्तानामात्मीयात्मीयस्वरूपेणानुभवनमुदय: । ( पंचसं. मलय. व. २ - ३, पृ. ४४ ) । १३. उदय: उदयावलिकाप्रविष्टानां तत्पुद्गलानामुद्भूतसामर्थ्यता । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १०८, पृ. ११६) । १४. कर्मपुद्गलानां यथास्थितिवद्धानामवाधाकालक्षयेणापवर्तनादिकरणविशेषतो वा उदयसमयप्राप्तानामनुभवनमुदयः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. १, पृ. २ ) । १५. इह कर्मपुद्गलानां यथास्वस्थितिबद्धानामुदयप्राप्तानां यद् विपाकेन अनुभवनेन वेदनं स उदय: । ( कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. १३, पृ. ८४) ।
१ द्रव्यादि का निमित्त पाकर जो कर्म का फल प्राप्त होता है उसे उदय कहा जाता है । उदयनिष्पन्न - उदयणिष्फण्णो णाम उदिष्णेण जेण अण्णो निष्कादितो सो उदयणिप्फण्णो । ( अनुयो. चू. पृ. ४२ ) ।
कर्मके उदयसे जीव व प्रजीव में जो अवस्था प्रादूर्भूत होती है वह उदयनिष्पन्न कही जाती है । जैसेनरकगति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की नारक अवस्था और श्रदारिकशरीर नामकर्म के
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उदयबन्धोत्कृष्ट ]
उदय से उत्पन्न होने वाली श्रदारिक वर्गणाओं की श्रदारिकशरीररूप श्रवस्था । उदयबन्धोत्कृष्ट - १. उदयकालेऽनुभूयमानानां स्वबन्धादुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म यासां ता उदयबन्धोत्कृष्टाभिधानाः । (पंचसं. स्वो वृ. ३-६२, पृ. १५१ ) । २. यासां प्रकृतीनां विपाकोदये सति बन्धादुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्मावाप्यते ता उदयबन्धोत्कृष्टसंज्ञाः । (पंचसं. मलय. वृ. ३-६२, पू. १५२; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) ।
१ उदयकाल में अनुभूयमान जिन कर्मप्रकृतियों का स्थितिसत्त्व बन्ध से उत्कृष्ट पाया जाता है उन्हें उदयबन्धोत्कृष्ट कहते हैं ।
उदयभाव
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अहिकम्पोग्गला संतावत्थातो उदीरणावलियमतिक्रान्ता अप्पणो विपागेण उदयावलियाए वट्टमाणा उदिन्नाओ त्ति उदयभावो भन्नति । ( अनुयो. चू. पू. ४२) ।
आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों का सत्त्व अवस्था से उदीरणावली का श्रतिक्रमण कर अपने परिपाक से उदयावली में वर्तमान होते हुए उदय को प्राप्त होना, इसका नाम उदयभाव है । उदयवती - १. चरिमसमयंमि दलियं जासि अण्णत्थ संकमे ताओ । अणुदयवइ इयराम्रो उदयवई होंति पगई । ( पंचसं. ३-६६ ) । २. इतरा: या स्वोदयेन चरमसमये जीवोऽनुभवति ता उदयवत्यः । (पंचसं स्वो वृ. ३-६६, पृ. १५३ ) । ३. इतरास्तु प्रकृतय उदयवत्यो भवन्ति, यासां दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते । (पंचसं मलय. वृ. ३-६६, पृ. १५३) । ४. यासां च दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते ता उदयवत्यः । ( कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) । २ जिन कर्म- प्रकृतियों के दलिक का स्थिति के अन्तिम समय में अपना फल देते हुए वेदन किया जाता है उन कर्मप्रकृतियों को उदयवती कहते हैं । उदयसंक्रमोत्कृष्ट - १. उदयेऽन्याभ्यः संक्रमेण उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म यासां ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाः । (पंचसं. स्व. वू. ३-६२, पृ. १५१ ) । २. यासां पुनविपाकोदये प्रवर्तमाने सति संक्रमत उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म लभ्यते, न बन्वतस्ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाभिधानाः । (पंचसं. मलय. वू. ३-६२, पृ. १५२; ल. ३३
२५७, जैन - लक्षणावली
[ उदराग्निप्रशमन
कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. १५) । ३. उदये सति संक्रमत उत्कृष्टा स्थितिर्यासां ता उदयसंक्रमोत्कृष्टाः । (पंचसं. मलय. वृ. ५- १४५, पृ. २८४) । २ विपाकोदय के होने पर जिन कर्मप्रकृतियों का संक्रम की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है, बन्ध की अपेक्षा नहीं; उन्हें उदय संक्रमोत्कृष्ट कहते हैं । उदयस्थितिप्राप्तक - जं कम्मं उदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सर तमुदयट्ठिदिपत्तयं णाम । ( कसायपा. चू. पृ. २३६; धव. पु. १०, पृ. ११४) ।
जो कर्मप्रदेशाग्र बंधने के अनन्तर जहां कहीं भीजिस किसी भी स्थिति में होकर उदय को प्राप्त होता है, उसे उदयस्थितिप्राप्तक कहते हैं। उदरक्रिमिनिर्गम अन्तराय - XX X स्यादुदरक्रिमिनिर्गमः ॥ उभयद्वारतः कुक्षिक्रिमिनिर्गमने सति । ( न. ध. ५, ५५-५६) ।
भोजन के समय ऊर्ध्व या श्रधोद्वार से पेट में से कृमि के निकलने पर उदरक्रिमिनिर्गम नाम का अन्तराय होता है ।
उदराग्निप्रशमन - १. यथा भाण्डागारे समुत्थितमनलमशुचिना शुचिना वा वारिणा शमयति गृही, तथा यतिरपि उदराग्नि प्रशमयतीति उदराग्निशमनमिति च निरुच्यते । (त. वा. ६, ६, १६, पू. ५६७; त. श्लो. ६-६ ) । २. यथा भाण्डागारे समुत्थितमनलं शुचिनाऽशुचिना वा वारिणा प्रशमयति गृही तथा यथालब्धेन यतिरप्युदराग्नि सरसेन विरसेन वाऽऽहारेण प्रशमयतीत्युदराग्निप्रशमनमिति च निरुच्यते । (चा. सा. पृ. ३६) । ३. भाण्डागार - वदुदरे प्रज्वलितोऽग्निः प्रश [ शा]म्यते येन शुचिना
शुचिना वा जलेनेव सरसेन विरसेन वाशनेन तदुदराग्निप्रशमनमिति प्रसिद्धम् । (अन. ध. स्वो टी. ६-४ε) ।
१ जैसे भण्डार में लगी हुई अग्नि को गृहस्वामी पवित्र या अपवित्र किसी भी जल से बुझाने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से उठी हुई उदराग्नि को साधु भी सरस - नीरस आदि किसी भी प्रकार के श्राहार से शान्त करता है, इसलिए उदराग्निप्रशमन यह उसका सार्थक नाम जानना चाहिये ।
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उदात्तत्व] २५८, जैन-लक्षणावली
[उदीरणा उदात्तत्व-उदात्तत्वं उच्चवत्तिता । (समवा. गपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिअभय. वृ. ३५, पृ. ६०, रायप. व. पृ. २७)। भागेण वा प्रोकड्डिदूण उदयावलियाए देदि सा उन्नत व्यवहार के साथ जो यथार्थ वचन का प्रयोग उदीरणा। (धव. पु. १५, पृ. ४३)। २. पोकरणकिया जाता है उसे उदात्तत्व कहा जाता है। यह वसेण पत्तोदयकम्मक्खंधो अकम्मोदनो णाम । x सत्य वचन के ३५ अतिशयों में दूसरा है।
XX अकम्मोदनो उदीरणा णाम । (जयध. १, उदान वायु-रक्तो हृत्कण्ठ-तालु-भ्रूमध्य-मूनि च पृ. १८८) । ३. जं करणेणोकड्ढिय उदए दिज्जइ संस्थितः। उदानो वश्यतां नेयो गत्यागतिनियोगतः॥ उदीरणा एसा । (कर्मप्र. उदी. क. १; पंचसं. उदी. (योगशा. ५-१८); रसादीनूवं नयतीत्युदानः। क. १, पृ. १०६)। ४. अनुभूयमाने कर्मणि प्रक्षिप्यायोगशा. स्वो. विव. ५-१३) ।
ऽनुदयप्राप्तं प्रयोगेणानुभूयते यत्सा उदीरणा। (पंचरस आदि को ऊपर ले जाने वाली व को उदान सं. स्वो. वृ. ५-१, पृ. १६१); यत्करणेनापकृष्य वायु कहते हैं। वह वर्ण से लाल होती हुई हृदय, दीयते उदये उदीरणा। xxx यद्दल परमाण्वाकण्ठ, ताल, भ्रकुटिमध्य और शिर में स्थित त्मकं करणेन स्ववीर्यात्मकेनापकृष्य, अनुदितस्थितिरहती है।
भ्यः इत्यवगम्यते, दीयते प्रक्षिप्यते उदये उदयप्राप्तउदारत्व-१. अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुण- स्थितो एषा उदीरणोच्यते । (पंचसं. स्वो. वृ. उदी. विशेषो वा । (समवा. अभय. वृ. ३५, पृ. ६०)। १, पृ. १७५); उदयस्थितौ यत्प्रथमस्थितेः सका२. उदारत्वमतिशिष्टगुम्फगुणयुक्तता अतुच्छार्थप्रति- शात् पतति सोदीरणा । (पंचसं. स्वो. व. उपश. पादकता वा । (रायप. वृ. पृ. २८)।
२०, पृ. १६२)। ५. अण्णत्थ ठियस्सुदये संथु[छु]शब्द के वाच्यभूत अर्थ की महानता अथवा शब्दसंघ- हणमुदीरणा हु अत्थित्तं । (गो. क. ४३९)। ६. टनारूप विशिष्ट गुण युक्तता का नाम उदारत्व है। समुदीर्यानुदीर्णानां स्वल्पीकृत्य स्थिति बलात् । यह ३५ सत्यवचनातिशयों में २२वां है। कर्मणामुदयावल्यां प्रक्षेपणमुदीरणा । (पंचसं. अमित. उदाहरण-१. उदाह्रियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन- ३-३) । ७. सा (उदीरणा) पुनः कर्मपुद्गलानां दार्टान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम । (दशव. नि. करणविशेषजनिते स्थित्यपचये सत्यूदयावलिकायां हरि. ब. १-५२) । २. दष्टान्तवचनमदाहरणम। प्रवेशनमुदीरणा । (कर्मस्त. गो. व. १, प. ६६)। (प्रमाणमी. २, १, १३)। ३. व्याप्तिपूर्वकदृष्टा- ८. उदीरणम् अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेन्तवचनमुदाहरणम् । (न्या. दी. ३, पृ. ७८)। पणमिति । (स्थाना. अभय. वृ. ४, १, २५१, पृ. ३ व्याप्तिपूर्वक दृष्टान्त के कहने को उदाहरण १८४); अप्राप्तकालफलानां कर्मणामुदए प्रवेशनकहते हैं।
मुदीरणा। (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २६६, पृ. उदीचीन-एवमुदीच्यां दिश्येतावन्मयाद्य पञ्चयो- २१०)। ६. तेषामेव च कर्मपुद्गलानामकालप्राप्ताजनमात्रं तदधिकमूनतरं वा गन्तव्यमित्येवम्भूतम् । नां जीवसामर्थ्यविशेषादुदयावलिकायां प्रवेशनमुदी(सूत्रकृ. शी. वृ. २, ७, ७६, पृ. १८२)।। आज मैं उत्तर दिशा में पांच योजन अथवा उससे वृ. १-२, पृ. १२२; कर्मस्त. दे. स्वो. वृ. १, पृ. ६७; अधिक या कम इतनी दूर जाऊँगा, इस प्रकार उत्तर षडशीति दे. स्वो. पृ. ११५)। १०. उदीरणाप्राप्तदिशा में गमन का नियम करने को उदीचीन देशा- कालस्य कर्मदलिकस्योदये प्रवेशनम् । (षडशीति वकाशिकव्रत कहते हैं।
हरि. वृ. ११, पृ. १३१)। ११. उदयावलिकातो उदीरणा-१. जे कम्मक्खंधा महंतेसु द्विदि-अणु- बहिर्वतिनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैः सहितेनाभागेसु अवट्टिदा प्रोकड्डिदूण फलदाइणो कीरति तेसि- सहितेन वा योगसंज्ञिकेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदमुदीरणा त्ति सण्णा, अपक्वपाचनस्य उदीरणाव्यपदे- यावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा। तथा चोक्तम्शात् । (धव. पु. ६, पृ. २१४); अपक्वपाचनमुदी- उदयावलियाबाहिरल्लठिईहिंतो कसायसहियासहिरणा । प्रावलियाए बाहिरट्ठिदिमादि कादूर्ण उवरि- एणं जोगसन्नेणं दलियमोकड्ढिय उदयावलीयाए माणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कतपदेसग्गमसंखेज्जलो. पवेसण मुदीरणा इति । (पंचसं. मलय. वृ. ५-६,
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उदीरणाकरण]
२५९, जैन-लक्षणावली [उद्दिष्टाहारविरत पृ. १९४); यत्परमाण्वात्मकं दलिकं करणेन योग- भण्यते । (पंचसं. स्वो. वृ. ५-१०२, पृ. २६३) । संज्ञिकेन वीर्यविशेषेण कषायसहितेन असहितेन वा ४. यः पुनस्तस्मिन्नुदये प्रवर्तमाने सति प्रयोगतः उदयावलिकाबहिर्वतिनीभ्यः स्थितिभ्योऽपकृष्य उदये उदीरणाकरणरूपेण प्रयोगेण दलिकमाकृष्यानुभवति दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषा उदीरणा। स द्वितीय उदीरणोदयाभिधान उच्यते । (पंचसं. (पंचसं. मलय. वृ. उदी. क. १, पृ. १०६); इह मलय वृ. ५-१०२, पृ. २६३)। प्रथमस्थितौ वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथम- २ जिन कर्मपरमाणुओं का उदयावली के भीतर स्थितेरेव दलिकं समाकृष्योदयसमये प्रक्षिपति सा सर्वथा असत्त्व है उनको अन्तरकरणरूप परिणामउदीरणा। (पंचसं. मलय. वृ. उपश. २०, पृ. विशेष के द्वारा असंख्यात लोकप्रतिभाग से उदीरणा १६३)। १२. कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानामुदया- को प्राप्त कराकर वेदन करना, यह उनका उदोवलिकायां प्रवेशनमुदीरणा।XXX अनुदयप्राप्तं रणोदय है। सत्कर्मदलिकमुदीर्यत उदयावलिकायां प्रवेश्यते यया उदीर्ण-१. फलदातृत्वेन परिणतः कर्मपुदगलस्कसोदीरणा। (कर्मप्र. मलय. वृ. १-२, पृ. १७, धः उदीर्णः। (धव. पु. १२, पृ. ३०३) । २. उदी१८)। १३. अन्तरकरणसत्कं च दलिकमुत्कीर्य णम् उद्भूतशक्तिक मुदयावलिकाप्रविष्टमिति यावत् । प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । प्रथम- (धर्मसं. मलय. वृ. ७९७)। स्थितौ च वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथमस्थिति- १ फल देने रूप अवस्था में परिणत कर्म-पुद्गलगतं दलिक समाकृष्योदये प्रक्षिपति सा उदी- स्कन्ध को उदीर्ण कहते हैं। रणा। (शतक. दे. स्वो. वृ. ६८, पृ. १२८)। उद्गमशुद्ध उपधिसंभोग-तत्र यत्साम्भोगिकस्सा१४. उदयावलिबाह्यस्थितिस्थितद्रव्यस्यापकर्षणवशा- [सांम्भोगिकेण सममाधाकर्मादिभिः षोडषभिदुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा। (गो. क. जी. प्र. रुद्गमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्गमशुद्ध४३६)।
उपधिसंभोगः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ५-५१, पृ. १ अधिक स्थिति व अनभाग को लिये हुए जो कर्म १२)। स्थित हैं उनकी उस स्थिति व अनुभाग को हीन साम्भोगिकका-समान सामाचारी होने के कारण करके फल देने के उन्मुख करना, इसका नाम उदी- सहभोजन-पानादि व्यवहार के योग्य साधु का-प्रसारणा है।
म्भोगिक के साथ प्राधाकर्म प्रादि सोलह दोषों से उदीरणाकरण-देखो उदीरणा। अप्राप्तकाल- रहित उपधि को जो उत्पन्न करना है, यह उदगमकर्मपुद्गलानामुदयव्यवस्थापनमुदीरणाकरणकम्, सा शुद्ध-उपधिसंभोग कहलाता है। चोदयविशेष एव । (पंचसं. स्वो. वृ. ब. क. १, उद्दिष्टत्यागप्रतिमा-उद्दिट्टाहाराईण वज्जण इत्थ पृ. १०६)।
होइ तप्पडिता । दसमासावहिसज्झाय-झाणजोगजिन कर्म पुद्गलों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है पहाणस्स ॥ (श्रा. प्र. वि. १०-१६)। उनको उदय में स्थापित करना, इसका नाम उदी. प्रमुखता से स्वाध्याय व ध्यान में उद्यत श्रावक जो रणाकरण है। यह एक उदय की ही विशेष उद्दिष्ट आहार आदि का परित्याग करता है, इसका अवस्था है।
नाम उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। इसकी कालमर्यादा उदीरणोदय-१. अयथाकालविपाक उदीरणोद- दस मास है। यः। (त. वा. ६, ३६, ६)। २. जेसिं कम्मंसाण- उद्दिष्टाहारविरत-देखो उत्कृष्ट श्रावक । १. जो मुदयाबलियभंतरे अंतरकरणेण अच्चंतमसंताणं णवकोडिविसुद्ध भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं । कम्मपरमाणणं परिणामविसेसेणासंखेज्जलोगपडिभा- जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहारविरो सो॥ (कातिगेणोदीरिदाणमणुहवो तेसिमुदीरणोदनो त्ति एसो के. ३६०)। २. उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोद्दिष्टपिण्डोएत्थ भावत्थो। (जयध. ७, पृ ३५६)। ३. अध्य- पधि-शयन-वसनादेविरतः सन्नेकशाटकघरो भिक्षावसायप्रयोगेणोदयावलिकारहितानां स्थितीनां यद्द- शनः पाणि-पात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रिप्रतिमादितप:लमूदयस्थितौ प्रक्षिप्यानुभवति स उदीरणोदयो समुद्यत आतापनादियोगरहितो भवति । (चा. सा.
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उद्दशकाचार्य ]
पू. १६) । ३. स्वनिमित्तं त्रिधा येन कारितोऽनुमतः कृतः । नाहारो गृह्यते पुंसां त्यक्तोद्दिष्टः स भण्यते । (सुभा. सं. ८४३) । ४ न वल्भ्यते यो विजितेन्द्रियोऽशनं मनोवचः कायनियोगकल्पितम् । महान्तमुद्दिष्टनिवृत्तचेतसं वदन्ति तं प्रासुकभोजनोद्यतम् ॥ (धर्मप. श्रमित. २० - ६३ ) । ५. यो बन्धुबन्धुरतुल्यचित्तो गृह्णाति भोज्यं नवकोटिशुद्धम् । उद्दिष्ट बर्जी गुणिभिः स गीतो विभीलुकः संसृति-यातुधान्याः ॥ ( श्रमित. श्रा. ७-७७ ) ।
१ जो श्रावक भिक्षाचरण से भिक्षा के लिए श्रावक के घर जाता हुआ - नवकोटिविशुद्ध अर्थात् मन, वचन व काय की शुद्धिपूर्वक कृत, कारित एवं अनुमोदना से रहित आहार को याचना के बिना ग्रहण करता है वह उद्दिष्टाहारविरत कहलाता है । उद्देशकाचार्य - प्रथमतः एव श्रुतमुद्दिशति यः स उद्देशकाचार्य: । (योगशा. स्वो विव. ४–६०, पृ. ३१४) ।
जो शास्त्रव्याख्यानादि के समय सर्वप्रथम श्रुत का निर्देश करे - भूमिका रूप में श्रुत का उद्देश प्रकट करे – उसे उद्देशकाचार्य कहते हैं । उद्धारपल्य - १. तैरेव लोमच्छेदैः प्रत्येकम संख्येयवर्षकोटीसमयमात्रच्छिन्नस्तत्पूर्ण मुद्धारपत्यम् । ( स. सि. ३ - ३८;त. वा. ३, ३८, ७) । २. असंख्येयाब्दकोटीनां समय रोमखण्डितम् । प्रत्येकं पूर्वकं तत्स्या - त्पल्यमुद्धारसंज्ञकम् ।। ( ह. पु. ७-५० ) । ३. तान्येव रोमखण्डानि प्रत्येकं असंख्येयकोटिवर्षसमयमात्रगुणितानि गृहीत्वा द्वितीया महाखनिस्तैः पूर्यते । सा खनिः उद्धारपत्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८) । व्यवहारपल्य के जितने रोमच्छेद हैं उनमें से प्रत्येक रोमच्छेद को असंख्यात कोटि वर्षों के समयों से छिन्न करके उनसे भरे गये गड्ढे को उद्धारपल्य कहते हैं ।
उद्धारपल्यकाल - १. ववहाररोमराशि पत्तेक्कमसंखकोडिवस्साणं । समयसमं घेत्तूणं विदिए पल्लम्हि भरिदम्हि | समयं पडि एक्केक्कं बालग्गं पेल्लिदम्हि सो पल्लो | रित्तो होदि स कालो उद्धारं नाम पल्लं तु ॥ ( ति प १, १२६ - २७ ) । २. ततश्च तस्माद् व्यवहारपल्याद् बालाग्रमेकं परिगृह्य सूक्ष्मम् । अनेककोट्यब्दविखण्डितं तत्तस्यातिपूर्णं निचितं समन्तात् । पूर्णे समासान्तशते ततस्तु एकैकशो रोम
२६०, जैन- लक्षणावली
[ उद्धारपल्योपम
समुद्धरेच्च । क्षयं च जाते खलु रोमपुञ्ज उद्धारपत्यस्य हि कालमाहुः ।। ( वरांग. २७, २०-२१) । १. व्यवहारपल्य की रोमराशि में से प्रत्येक को श्रसंख्यात करोड़ वर्षों की समयसंख्या से खण्डित करके व उनसे दूसरे गड्ढे को भरकर उसमें से एक एक समय में एक एक रोमच्छेद के निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली होता है उतने काल को उद्धारपत्यकाल कहते हैं । उद्धारपत्योपम - १. तत्थ णं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिश्रा जोयणं श्रायामविक्खंभेणं, जोणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेण से णं पल्ले एगाहिम-वेग्राहि-तेग्राहिश्र जाव उक्को सेणं सत्तरत्तरूढाणं संसट्ठे संनिचिते भरिए बालग्गकोडीणं ते णं बालग्गा नो अग्गी डहेज्जा नो वाऊ हरेज्जा नो कुहेज्जा नोपलिविद्धं सज्जा णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, तो णं समए समए एगमेगं बालग्गं श्रवहाय जावइएणं कालेण से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे गिट्टिए भवइ, से तं बवहारिए उद्धारषलिवमे । (अनुयो. १३८, पृ. १८० ) । २. ततः समये समये एकैकस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान् काल उद्धारपत्योपमाख्यः । ( स. सि. ३-३८; त. वा. ३, ३८, ७) । ३. व्यवहारपत्योपमे चैकैकं रोम असंख्यातवर्षकोटीसमयमात्रान् भागान् कृत्वा वर्षशतसमयैश्चैकैकं खण्डं प्रगुण्य तत्र मावन्मात्राः समयाः तावन्मात्रमुद्धारपल्योपमं भवति । (मूला. वृ. १२ - ३६) । ४. तदनन्तरं समये समये एकैकरोमखंड उद्धारपल्यगतं निष्काष्यते, यावत्कालेन सा महाखनिः रिक्ता जायते तावत्काल उद्धारपल्योपमाह्वयः संसूच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) । ५. तत्र उद्धारो वालाग्राणां तत्खण्डानां वा अपोद्धरणमुच्यते, तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपमम् उद्धारपल्योपमम् । ( श्रनुयो. हरि. वृ. पृ. ८४; शतक. दे. स्वो वृ. ८५; संग्रहणी दे. वृ ४) ।
१ पल्य नाम कुशल ( धान्य रखने के लिए मिट्टी से निर्मित पात्र) का है । एक उत्सेध योजन प्रमाण विस्तृत व ऊंचे गोल गड्ढे में मुण्डित शिर पर एक दिन, दो दिन, तीन दिन अथवा अधिक से अधिक सात दिन में उगने वाले बालानों को इस प्रकार से ठसाठस भरे कि जिन्हें न श्रग्नि जला सके, न वायु
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उद्धारसागरोपम] २६१, जैन-लक्षणावली
[उद्योत विचलित कर सके तथा वायु का प्रवेश न होने से द्भिद्य ददाति । (व्यव. भा. मलय. वृ. ३, पृ. ३५)। जो न सड़-गल सके, न विनष्ट हो सकें और न ८. यन्मुद्रितकुतुपादिमुखं यतिहेतोरुन्मुद्रच घृतादि दुर्गन्धित हो सकें; इस प्रकार भरे गये उन बालानों दत्ते तदुद्भिन्नम् । (गु. गु. षट. स्वो. वृ. २०, पृ. में से एक-एक समय में एक-एक बालान के निका- ४६)। ६. विमुद्रादिकं यदन्नादिकं भवति तदुद्भिलने पर जितने काल में उक्त गड्ढा उनसे रिक्त हो नम्, उद्घाटितं न भुज्यत इत्यर्थः । (भा. प्रा. जाता है उतने काल को व्यावहारिक (उद्धारपल्य टी. ६६)। का दूसरा भेद) उद्धारपल्योपम कहा जाता है। १ ढकी हुई अथवा चिह्नित (नाम-बिम्बादिसे मुद्रित) उद्धारसागरोपम-१. एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी अौषध, घी और शक्कर आदि को उघाड़ कर देना, हवेज्ज दसगुणिया । तं ववहारियस्स उद्धारसागरोव- यह उद्भिन्न नाम का उद्गम दोष है। ५ कुतुप मस्स एगस्स भवे परिमाणं ।। (अनुयो. गा. १०७, (चमड़े का पात्रविशेष) में स्थित घी प्रादि को देने पृ. १८०)। २. तेषामुद्धारपल्यानां दशकोटीकोटय के लिए मिट्टी आदि को जो दूर किया जाता है, इसे एकमुद्धारसागरोपमम् । (स. सि. ३-३८; त. वा. उद्भिन्न दोष कहा जाता है। ३, ३८, ७)। ३. उद्धारपल्योपमानि च दशकोटी- उदभेदिम -ममि-काष्ठ-पाषाणादिकं भित्वा ऊर्ध्वकोटीमात्राणि गृहीत्वक उद्धारसागरोपमम् भवति । निःसरणम् उद्भेदः, उद्भेदो विद्यते येषां ते उद्(मूला. वृ. १२-३६) । ४. उद्धारपल्यानां दशकोटी- भेदिमाः । (त. वृत्ति श्रुत. २-१४) । कोट्यः एकमुद्धारसागरोपमम् । (त. वृत्ति श्रुत. पृथिवी, काष्ठ और पत्थर आदि को भेदकर उत्पन्न ३-३८)।
होने वाले जीवों को उभेदिम कहते हैं। २ दश कोडाकोड़ी उद्धारपल्यों का एक उद्धारसाग- उद्यवन-१. उत्कृष्ट यवनमुद्यवनम् । असकृदरोपम होता है।
दर्शनादिपरिणतिरुद्यवनम् । भ. प्रा. विजयो. टी. उद्भावन- १. प्रतिबन्धकाभावे प्रकाशवृत्तिता २) । २. उज्जवणं उत्कृष्टं यवनं मिश्रणमसकृत्परिउद्भावनम् । (स. सि. ६-२५; त. श्लो. ६-२५)। णतिः। (भ. प्रा. मूला. टी. २)। २. प्रतिबन्धकाभावे प्रकाशितवत्तितोदभावनम् । निरन्तर दर्शन, ज्ञान व चारित्रादि रूप परिणति प्रतिबन्धकस्य हेतोरभावे प्रकाशितवृत्तिता उद्भावन- करने को उद्यवन या उद्यमन कहते हैं । मिति व्यपदेशमर्हति । (त. वा. ६, २५, ४)। उद्यान-१. चम्पकवनाद्युपशोभितमुद्यानम् । (अनुप्रतिबन्धक कारण का प्रभाव होने पर प्रकाश में यो. हरि. वृ. पृ. १७) । २. पुष्पादिसवृक्षसंकुलअाना, इसका नाम उद्भावन है।
मुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानम् । (जीवाजी. मलय. उद्धिन्न-१. पिहिदं लंछिदयं वा प्रोसह-घिद- वृ. ३, २, १४२, पृ. २५८) । सक्करादि जं दव्वं । उब्भिण्णिऊण देयं उब्भिण्णं २ पुष्प वाले वृक्षों से व्याप्त एवं उत्सवादि के समय होदि णादव्वं । (मला. ६-२२)। २. इष्टकादिभिः सर्वसाधारण जनों के द्वारा उपभोग्य उपवन को मृत्पिण्डेन वृत्त्या कपाटेनोपलेन वा स्थगितमपनीय उद्यान कहते हैं। दीयते यत्तदुद्भिन्नम्। (भ. प्रा. विजयो. व मूला. उद्योत- १. उद्योतश्चन्द्र-मणि-खद्योतादिप्रभवः वृ. २३)। ३. गोमयाद्युपलिप्तं भाजनमुद्भिद्य ददाति प्रकाशः । (स. सि. ५-२४; त. सूखबो. वृ. ५, तदुद्भिन्नम् । (प्राचारा. शी. व. २, १, २६६, पृ. २४)। २. उद्योतश्चन्द्र-मणि-खद्योतादिविषयः। चन्द्र३१७)। ४. विमुद्रादिकमुद्धिन्नम् xxx। मणि-खद्योतादीनां प्रकाशः उद्योत उद्यते । (त. वा. (प्राचा. सा. ८.३३) । ५. कुतुपादिस्थस्य घृतादेर्दा- ५, २४, १९)। ३. उद्योतोऽपि आह्लादादिहेतुत्वात् नार्थं यत् मृत्तिकाद्यपनयनं तदुद्भिन्नम्। (योगशा. वृष्टिवत्, च-शब्दात् वृष्टिदीपोद्योताविरोधादिपरिस्वो. विव. १-३८; धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३.२२, णामपरिग्रहः। (त. भा. हरि. वृ. ५-२४) । ४. पृ. ४०)। ६. पिहितं लाञ्छितं वाज्य-गुडाद्यदघाटय उद्योतश्च पुद्गलात्मक: चन्द्रिकादिराह्लादकत्वाज्जदीयते । यत्तदुद्भिन्नम् xxx। (अन. ध. ५, लवत्, प्रकाशकत्वादग्निवत्, तथाऽनुष्णाशीतत्वात् १७)। ७. उद्भिनं यत्कुतुपादिमुखं स्थगितमप्यू- उद्योतः पद्मरागोपलादीनाम् । (त. भा. सिद्ध.व.
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उद्योतनाम] २६५, जैन-लक्षणावली
[उद्वेग ५-२४) । ५. ज्योतिरिङ्गण-रत्न-विद्युज्जातः प्रकाशः ग्रहादिज्योतिष्काः खद्योता रत्नौषधिप्रभृतयश्चानुष्णउद्योत उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। प्रकाशात्मकमुद्योतमातन्वन्ति तत् उद्योतनामेत्यर्थः । १ चन्द्र, मणि व खद्योत (जुगनू ) आदि से होने (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४५) । १४. उद्योतकर्मोदयावाले प्रकाश को उद्योत कहते हैं।
च्चन्द्र मण्डलानाम् अनुष्णप्रकाशो हि जने उद्योत इति उद्योतनाम-१. यन्निमित्तमुद्योतनं तदुद्योतनाम। व्यवह्रियते । (जम्बूद्वी. शा. वृ. ७-१२६) । १५. (स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १६; त. श्लो. यदुदयेन चन्द्र-ज्योतिरिङ्गणादिवत् उद्योतो भवति ८-११)। २. प्रकाशसामर्थ्यजनक मुद्योतनाम । (त. तदुद्योतनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। भा. ८-१२)। ३. उद्योतनाम यदुद यादुद्योतवान् १ जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर से उद्योत भवति । (श्रा. प्र. टी. २२; प्राव. नि. हरि. वृ. (प्रकाश) होता है उसे उद्योतनामकर्म कहते हैं। १२२, पृ. ८४) । ४. उद्योतनसुद्योतः । जस्स कम्म- उद्वर्तन-१. उद्वर्तनं वा स्वप्रकृतावेव स्थितेः दीर्धीस्स उदएण जीवसरीरे उज्जोमो उप्पज्जदि तं कम्मं करणम् । (पंचसं. स्वो. वृ. संकम. ३५, पृ. १५४) । उज्जोवणाम । (धव. पु. ६, पृ. ६०; पु. १३, प. २. उद्वर्तनं स्थिति-रस-वृद्धयापादनम् । (विशेषा. ३६५) । ५. शशि-तारक-मणि-जल-काष्ठादिविमल- को. वृ. ३०१५, पृ. ७२५)। ३. उद्वर्तनं अस्मात्वप्रकर्षो यस्तदुद्योतनाम । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-६, दन्यत्रोत्पत्तिः । (मूला. वृ. १२-३)। ४. उव्वट्टणं पृ. ११८) । ६. उद्योतननिमित्तमुद्योतनाम, तच्चन्द्र- जलादिप्लुतमसूरादिपिष्टादिना देहस्येतस्ततो मर्दखद्योतादिषु स्वफलाभिव्यक्तं वर्तते। (भ. प्रा. नम् । (भ. पा. मूला. टी. ६३)। विजयो. टी. २०६५) । ७. जस्सुदएणं जीवो अणु- १ स्थिति व अनुभाग की वृद्धि करने को उद्वर्तन या सिणदेहेण कुणइ उज्जोयं । तं उज्जोयं णामं जाणसु उद्वर्तना कहते हैं । ३ एक गति से निकल कर दूसरी खज्जोयमाईणं ॥ (कर्म वि. ग. १२७, पृ. ५२)। गति में जीव के जाने को उद्वर्तन कहा जाता है । ८. यदुदयाज्जन्तुशरीरमनुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं प्रक- ४ तेल और जलादि से मिश्रित मसूर आदि के चूर्ण रोति । यथा-यति-देवोत्तरवैक्रिय-चन्द्रर्भ-ग्रह-तारा- से शरीर के मर्दन करने को उद्वर्तन कहते हैं। रत्नौषधि-मणि-प्रभृतयस्तदुद्योतनाम। (कर्मस्त. गो. उद्वर्तनाकरण-देखो उद्वर्तन। १. उव्वट्टणा ठिईए वृ. १०, पृ. ८८)। ६. यतोऽनुष्णोद्योतवच्छरीरो उदयावलियाइवाहिरठिईणं । (कर्मप्र. उद्व. १, पृ. भवति तदुद्योतनाम । (समवा. अभय. वृ. ४२, पृ. १४०) । २. तव्विसेसा एव उव्वट्टणोवट्टणातो ठिति६४)। १०. उद्योतनमुद्योतः, यस्य कर्मस्कन्धस्यो- अणुभागाणं वड्ढावणं उव्वट्टणा, हस्सीकरणमोवट्टणादयाज्जीवशरीर उद्योत उत्पद्यते तदुपद्योतनाम। करणं । (कर्मप्र. चू. १-२)। ३. स्थित्यनुभागयो(मूला. वृ. १२-१९६)। ११. यदुदयाज्जन्तुशरी- बृहत्करणमुद्वर्तना xxx उद्वर्त्यते प्राबल्येन राण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्ति । यथा-यति- प्रभूतीक्रियते स्थित्यादि यया जीववीर्यविशेषपरिणत्या देवोत्तरवैक्रिय-चन्द्र-नक्षत्र-ताराविमान-रन्नौषधयस्त- सोद्वर्तना । (कर्मप्र. मलय. वृ. १-२, पृ. १६)। दुद्योतनाम । (शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ४. उदयावलिबझाणं ठिईण उबट्टणा उ ठितिवि. ५१, प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३, पृ. ४७४; सया। (पंचसं. उद. १, पृ. १७१) । पंचसं. मलय. व. ३-७, पृ. ११५; षष्ठ कर्म. मलय. १ उदयावलि से बाह्य स्थिति और अनुभाग के व. ६, पृ. १३६; प्रव. सारो. व. १२६४) । वृद्धिंगत करने को उद्वर्तनाकरण कहते हैं। १२. उद्योतनाम यदुदये जन्तुशरीरमनुष्णप्रकाशा- उद्वर्तनासंक्रम-स्तोकस्य रसस्य प्रभूतीकरणमुद्धत्मकमद्योतं करोति । यथा-यति-देवोत्तर-वैक्रिय- तनासंक्रमः । (पंचसं.व. संक्रम. ५२, प. ५७) । चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-ताराविमान-मणि-रत्नौषधिप्रभृतयः। कर्म के थोड़े अनुभाग के अधिक करने को उद्वर्तना(धर्मसं. मलय. वृ. ६१६)। १३. अणुसिणपयासरू- संक्रम कहते हैं। वं जियंगमुज्जोयए इहुज्जोया । जइ-देवुत्तरविक्किय- द्वेग-१. इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । जोइस-खज्जोवमाइव्व ।। (कर्मवि. दे. ४५); X (नि. सा. वृ. १-६)। २. उद्वेगः स्थानस्थित्यैव xx अयमर्थः-यथा यति-देवोत्तरवैक्रिय-चन्द्र- उर्द्विग्नता । (षोडशक वृ. १४-३) ।
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उद्वेलनसंक्रम] २६३, जैन-लक्षणावलो
[उपकरण १ इष्टवियोग होने पर विकलता के होने को उद्वेग नम् । (त. वा. ३, ३८, ३) । ३. उन्मीयतेऽनेनोकहते हैं।
न्मीयत इति वोन्मानं तुला-कर्षादिसूत्रसिद्धम् । (अनुउद्वेलनसंक्रम-१. उव्वेलणसंकमो णाम करण- यो. हरि. वृ. पृ. ७६)। ४. उन्मीयते तदित्युन्मापरिणामेहि विणा रज्जुव्वेलणकमेण कम्मपदेसाणं नम्, उन्मीयतेऽनेनेति वा उन्मानमित्यादि। (अनुयो. परपयडिसरूवेण संछोहणा । (जयध.-कसायपा. पृ. मल. हेम. वृ. १३२, पृ. १५४) । ३६७, टि. ६) । २. करणपरिणामेन विना कर्मपर- २ जिसके द्वारा ऊपर उठाकर कुष्ठ (प्रोषधिविशेष) माणूनां परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेलनसंक्रमणम् । व तगर प्रादि तौले जाते हैं, ऐसी तराजू आदि को (गो. क. जी. प्र. टी. ४१३)।
उन्मान कहा जाता है। अधःकरणादि परिणामों के बिना रस्सी के उकेलने उन्मार्गदेशक (उम्मग्गदेसप्र)-नाणाइ अस्तिो के समान कर्मपरमाणों के परप्रकृतिरूप से निक्षेपण तविवरीयं तु उवदिसइ मग्गं । उम्मग्गदेसमो एस को उद्वेलनसंक्रम कहते हैं।
प्रायअहिनो परेसिं च ॥ (बृहत्क. १३२२)। उद्वेल्लिम- गंथिम-वाइमादिददाणमवेल्लणेण जो परमार्थभूत ज्ञानादि को दूषित न करता हुआ जाददव्वमवेल्लिमं णाम । (धव. पु.६, पृ. २७३)। उन (ज्ञानादि) से विपरीत मार्ग का उपदेश करता गूंथी गई (जैसे माला प्रादि) और बुनी गई वस्तुओं है उसे उन्मार्गदेशक कहते हैं। के अलग करने (उकेलने) से जो उनकी अवस्था उन्मिश्रदोष-~१. पुढवी आऊ य तहा हरिदा प्रादूर्भूत होती है उसका नाम उद्वेल्लिम है। बीया तसा य सज्जीवा । पंचेहिं तेहिं मिस्सं आहारं उन्मग्ना नदी-णियजलपवाहपडिदं दव्वं गरुवं पि होदि उम्मिस्सं ॥ (मला. ६-५३)। २. स्थावरैः णेदि उवरिस्मि । जम्हा तम्हा भण्णइ उम्मग्गा पृथिव्यादिभिः, त्रसैः पिपीलिका-मत्कुणादिभिः सहिवाहिणी एसा ॥ (ति. प. ४-२३८; त्रि. सा. तोन्मिश्राः । (भ. प्रा. विजयो. टी. २३०, पृ. ४४४)। ५६४)।
३. उन्मिश्रोऽप्रासुकेन द्रव्येण पृथिव्यादिसच्चित्तेन जो नदी अपने जलप्रवाह में गिरे हुए भारी से भारी मिश्र उन्मिश्र इत्युच्यते, तं यद्यादत्ते उन्मिश्र द्रव्य को भी ऊपर ले पाती है उसका नाम शनदोषः। (मला. व. ६-४३)। ४. देयद्रव्यं उन्मग्ना है।
खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उन्मत्त-१. उन्मत्तो भूतादिगृहीतः। (गु.गु. षट्. उन्मिश्रम् । (योगशा. स्वो. विव. १-३८; धर्मसं. स्वो. व. २२, पृ. ५२)। २. उन्मत्तो भूत-वातादि- मान. स्वो. व. ३-२२, पृ. ४२) । दोषेण वैकल्यमाप्तः । (प्रा. दि. १६, पृ.७४) । १ सजीव पृथिवी, जल, हरितकाय, बीज और त्रस भूत-प्रेतादि से गृहीत (पीड़ित) पुरुष को उन्मत्त इन पांच से मिले हुए आहार को उन्मिश्र दोष कहते हैं । वह दीक्षा के योग्य नहीं होता। (प्रशनदोष) से दूषित कहा जाता है। उन्मत्त दोष-XXX घुर्णनं मदिरातवत् । उपकरण-१. येन निवृत्तरुपकारः क्रियते तदुप(अन. ध.८-११६)।
करणम् । (स. सि. २-१७; त. श्लो. २-१७)। मद्य पीकर भ्रान्तचित्त हए मनुष्य के समान भ्रान्ति २. विषयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तं पि । को प्राप्त होना, यह कायोत्सर्ग सम्बन्धी उन्मत्त जं नेह तवघाए गिण्हइ निवित्तिभावे वि।। नाम का दोष है।
(विशेषा. ३५६३) । ३. उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं उन्मान-१. से कि तं उम्माणे? जंणं उम्मिणि- च निर्वतितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति । (त. ज्जइ। तं जहा-अद्धकरिसो करिसो पलं अद्धपलं भा. २-१७) । ४. उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् । येन अद्धतुला तुला अद्धभारो भारो। दो अद्धकरिसा निर्वत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । (त. वा. २, करिसो, दो करिसा अद्धपलं, दो अद्धपलाइं पलं, १७, ५, धव. पु. १, पृ. २३६; मूला. वृ. १२, पंचपलसइया तुला, दस तुलाओ अद्धभारो, बीसं १५६)। ५. निर्वतितस्य निष्पादितस्य स्वावयववितुलाप्रो भारो। (अनुयो. सू. १३२, पृ. १५३)। भागेन, निर्वृत्तीन्द्रियस्येति गम्यते, अनुपघातानुग्रहा२. कुष्ठ तगरादिभाण्डं येनोरिक्षप्य मीयते तदुन्मा- भ्याम्पकारीति यदनुपहत्या उपग्रहेण चोपकरोति
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उपकरणबकुश]
२६४, जैन-लक्षणावलो [उपकरणसंयोजन (ना) तदुपकरणेन्द्रियमिति । (त. भा. हरि. वृ. २-१७)। तच्च यशः कामयन्त इति ऋद्धि-यशस्कामाः । (त. ६. निवृत्तौ सत्यां कृपाणस्थानीयायामुपकरणेन्द्रिय- भा. सिद्ध. वृ. ६-४८)। ५. अकाल एव प्रक्षालितमवश्यमपेक्षितव्यम् । तच्च स्वविषयग्रहणशक्तियुक्तं चोलपट्टकान्तरकल्पादिश्चोक्षवास:प्रियः । खड्गस्येव धारा छेदनसमर्था तच्छक्तिरूपमिन्द्रिया- काद्यपि विभूषार्थं तैलमात्रयोज्ज्वलीकृत्य धारयन्नुन्तरं निवृत्तौ सत्यपि शक्त्युपघातविषयं न गृह्णाति पकरणबकुशः। (प्रव. सारो. वृ. ७२४; धर्मसं. तस्मान्निर्वृत्तेः श्रवणादिसंज्ञिके द्रव्येन्द्रिये तद्भावा- मान. स्वो. वृ. ३-५६, पृ. १५२)। ६. नानाविदात्मनोऽनुपधातानुग्रहाभ्यां यदुपकारि तदुपकरणे- घोपकरणसंस्कार-प्रतीकाराकांक्षी उपकरणबकुश न्द्रियं भवति ।xxx एतदेव स्फुटयति-निर्वति- उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४७)। तस्य निष्पादितस्य स्वावयवविभागेन यदनुपहत्या ३ जो भिक्षु उपकरणों में मुग्ध होता हुआ अनेक अनुग्रहेण चोपकरोति ग्रहणमात्मनः स्वच्छतरपुद्गल- प्रकार के विचित्र परिग्रह से युक्त होता है तथा बहुत जालनिर्मापितं तदुपकरणेन्द्रियमध्यवस्यन्ति विद्वांसः। विशेष योग्य उपकरणों का अभिलाषी होकर उनके (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१७)। ७. उपक्रियतेऽनु- संस्कार की अपेक्षा करता है उसे उपकरणबकुश गृह्यते ज्ञानसाधनमिन्द्रियमनेनेत्युपकरणमक्षिपत्र- कहते हैं। ४ उपकरण बकुश वे साधु कहे जाते हैं शुक्ल-कृष्णतारकादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. जो असमय में चोलपट्ट (कटिवस्त्र) आदि को धोते ११५)। ८. तस्या एव निर्वृत्तद्विरूपायाः येनोप- हैं, उक्षवस्त्र (साध्वी का वस्त्रविशेष) में अनुराग कारः क्रियते तदुपकरणम् । (प्राचारा. शी. वृ. १, रखते हैं । दण्ड व पात्र आदि स्वच्छ रख कर सजा१, ६४, पृ. १४)। ९. उपकरणं नाम खड्ग- वट की अपेक्षा करते हैं, तथा प्रचुर वस्त्र-पात्रादि स्थानीयाया बाह्यनिर्वत्तेर्या खडगधारास्थानीया की इच्छा करते हुए कीति व प्रसिद्धि को चाहते हैं। स्वच्छतरपुदगलसमूहात्मिकाऽभ्यन्तरा निर्वृत्ति- उपकरणसंयम - उपकरणसंयम इत्यजीवकायस्तस्याः शक्तिविशेषः । (जीवाजी. मलय. वृ. १, संयमः। अजीवकायश्च पुस्तकादिः, तत्र यदा ग्रहण१३, पृ. १६)। १०. उपकरणं बाह्यमाभ्यन्तरं च धारणशक्तिसम्पद्भाजो ऽभूवन् पुरुषाः दीर्घायुषश्च निर्वृत्तिः, तस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकरोति । (ज्ञान- तदा नासीत् प्रयोजनं पुस्तकः, दुःषमानुभावात् तु सार यशो. वृ.७, पृ. २५)।
परिहीनग्रहण-धारणादिभिरस्ति निर्यक्त्यादिपुस्तक१ जिसके द्वारा निर्वृत्ति इन्द्रिय का उपकार किया ग्रहणानुज्ञेत्येवं यथाकालमपेक्ष्यासंयमः संयमो वा जाता है उसे उपकरण इन्द्रिय कहते हैं।
भवति । (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। उपकरणबकश-१. उपकरणबकुशो बहुविशेष- उपकरणसंयम से अभिप्राय अजीवकाय पुस्तक प्रादियुक्तोपकरणाकांक्षी । (स. सि. ६-४७; त. सुखबो. विषयक संयम का है। जब संयत पुरुष दीर्घायु वृ. ९-४७) । २. उपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविध- होकर ग्रहण-धारण शक्ति से सम्पन्न होते थे तब विचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषोपकर- पुस्तक आदि से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं रहता था। णाकांक्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतिसंस्कारसेवी भिक्षुरुप- किन्तु दुःषमा काल के प्रभाव से यदि वे ग्रहणकरणबकुशो भवति । (त. भा. ६-४६) । ३. उप- धारण शक्ति से हीन होते हैं तो ऐसे संयतों को करणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रपरिग्रहयुक्तः बहु- पुस्तक आदि के ग्रहण की अनुमति है। इस प्रकार विशेषयुक्तोपकरणकांक्षी तत्संस्कार-प्रतीकारसेवी समयानुसार अपेक्षाकृत संयम-असंयम होता है। भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति । (त. वा. ६, ४७, ४; उपकरणसंयोजन (ना)-१. उपकरणानां पिच्छाचा. सा. प. ४६)। ४. उपकरणबकुशस्तु अकाल एव दीनां अन्योऽन्येन संयोजना शीतस्पर्शस्य पुस्तकस्य प्रक्षालितचोलपट्रकान्तरकल्पादिश्चोक्षकवास:प्रिय: पा- कमण्डलादेर्वा अातपादितप्तेन पिच्छेन प्रमार्जनम त्र-दण्डकाद्यपि तैलपातया (त्र्या) उज्ज्वलीकृत्य इत्यादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ८१५) । विभूषार्थमनुवर्तमानो बिभर्ति ऋद्धीः प्रभूतवस्त्र- २. शीतस्य पुस्तकादेरातपातितप्तेन पिच्छादिना पात्रादिकास्ताः इच्छन्ति कामयन्ते तत्कामाः, यशः प्रमार्जनं प्रच्छादनादिकरणमुपकरणसंयोजनम् । (अन. ख्यातिगुणवन्तो विशिष्टाः साधवः इत्येवंविधःप्रवादः, घ. स्वो. टी. ४-२८)।
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उपकरणेन्द्रिय] २६५, जैन-लक्षणावली
[उपक्रम १ शीतल पुस्तकादि का सूर्य-सन्तप्त पिच्छी आदि दिति वा विनीतविनयविनयादित्युपक्रमः इत्यपादासे प्रमार्जन करने को उपकरणसंयोजन कहते हैं। नसाधनः । (अनुयो. हरि. व. पृ. २७)। ५. उपकरणेन्द्रिय-देखो उपकरण। १. उपकरणेन्द्रियं Xxx सोपक्रमा निरुपक्रमाश्च-बाहुल्येन अपविषयग्रहणे समर्थम, छेद्यच्छेदने खड्गस्येव धारा, वायुषः अनपवायुषश्च भवन्ति । (त. भा. हरि. यस्मिन्नुपहते निवृत्तिसद्भाऽपि विषयं न गृह्णा- वृ. २-५२)। ६. अर्थमात्मन उप समीपं क्राम्यति तीति । (ललितवि. पं. प. ३६)। २. तच्चोपकर- करोतीत्युपक्रमः । (धव. पु. १, प. ७२) उपजेन्द्रियं कदम्बपुष्पातिमुक्तकपुष्पक्षुरप्रनानाकृतिसंस्थि- क्रम्यतेऽनेन इत्युपक्रमः जेण करणभूदेण णाम-पमाणातं श्रोत्र-घ्राण-रसन-स्पर्शनलक्षणं शब्द-गन्ध- दीहि गंथो अवगम्यते सो उवक्कमो णाम । (धव. रस-स्पर्शपरिणतद्रव्यसंघातो वा । (कर्मवि. दे. पु. ६, पृ. १३४)। ७. उपक्रम्यते समीपीक्रियते स्वो. वृ. गा. ४, पृ. ११)।
श्रोत्रा अनेन प्राभतमित्युपक्रमः । (जयध. १, पृ. १ निवृत्ति का सद्भाव होने पर भी जिसके १३)। ८. प्रकृतस्यार्थतत्त्वस्य श्रोतृबुद्धौ समर्पणम् । कुण्ठित या दूषित होने पर इन्द्रिय अपने विषय को उपक्रमोऽसौ विज्ञेयस्तथोपघात इत्यपि ।। (म.पु. ग्रहण न कर सके उसे उपकरणेन्द्रिय कहते हैं। २-१०३) । ६. उपक्रमणमुपक्रमः प्रत्यासन्नीकरणजिस प्रकार तलवार या फरसा प्रादि की धार यदि कारणमुपक्रमशब्दाभिधेयम् । अतिदीर्घकालस्थिमोथरी नहीं है, तो वह काष्ठादि के विदारण में त्यप्यायुर्येन कारणविशेषेणाध्यवसानादिनाऽल्पकालसमर्थ रहती है, इसी प्रकार यदि उपकरण इन्द्रिय स्थितिकमापद्यते स कारणकलाप उपक्रमः । (त. कुण्ठित नहीं है तो वह नियत विषय के ग्रहण में भा. सिद्ध. व. २-५१, पृ. २२०); उपक्रमो विषासमर्थ रहती है।
ग्नि-शस्त्रादिः। xxx न ह्यषां प्राणापानाउपकारी (मैत्री)-उपकर्तुं शीलमस्येत्युपकारी, हारनिरोधाध्यवसाननिमित्तवेदनापराघातस्पख्यिाः उपकारं विवक्षितपुरुषसम्बन्धिनमाश्रित्य या मैत्री सप्त वेदनाविशेषाः सन्त्यायुषो भेदकाः उपक्रमा इति, लोके प्रसिद्धा सा प्रथमा। (षोडशक वृ. १३-६, अतो निरुपक्रमा एव । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-५२, पृ. ८८)।
प. २२३)। १०. उपक्रम्यते क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः किसी पुरुषविशेष से सम्बद्ध उपकारविशेष की कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमन हेतुर्जीवस्य अपेक्षा जो मित्रता का सम्बन्ध स्थापित होता है शक्तिविशेषो योऽन्यत्र करणमिति रूढः, उपक्रमणं उसे उपकारी मंत्री कहते हैं।
वोपक्रमो बन्धनादीनामारम्भः । प्रकृत्यादिबन्धनाउपक्रम-१. उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम् । (त. भा. २, रम्भा वा उपक्रमा इति । उपक्रमस्तु प्रकृत्या५२)। २. सत्थस्सोवक्कमणं उवक्कमो तेण तम्मि व दित्वेन पूदगलानां परिणमनसमर्थं जीववीर्यम् । तो वा । सत्थसमीवीकरणं प्राणयणं नासदेसम्मि॥ (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २९६, पृ. २१०)। (विशेषा. ६१४)। ३. तत्र शास्त्रस्य उपकरणम्, ११. जेणाउमूवकमिज्जइ अप्पसमुत्थेण इअरगेणावि। उपक्रमम्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा उपक्रमः, सो अज्झवसाणाई उवक्कमोxxx ॥ (संग्रहणी शास्त्रस्य न्यासः, देशानयनमित्यर्थः। (प्राव. नि. २६६) । १२. शास्त्रमुपक्रम्यते समीपमानीयते हरि. वृ. ७६, पृ. ५४); उपक्रमः प्रायः शास्त्र- निक्षेपस्थानेनेति उपक्रमः, निक्षेपयोग्यतापादन मिति समुत्थानार्थः उक्तः; XXX उपक्रमो ह्य देश- भावः, उपक्रमान्तर्गतभेदैहि विचारितं निक्षिप्यते, मात्रनियतः। (प्राव. नि. हरि. वृ. १४१, पृ. नान्यथा । (प्राव. मलय. वृ. ७६, पृ. ६०)। १०५; उवरिमथुतादिहानयनमुपक्रमः । (प्राव. १३. उपक्रमणमुप क्रमः, उपशब्द: सामीप्ये, 'क्रम नि. हरि. व मलय. व. ६६५)। ४. तत्रोप- पादविक्षेपे', उपेति सामीप्येन क्रमणमुपक्रमः, दूरक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः शास्त्रस्य स्थस्य समीपापादनमित्यर्थः । (ोधनि. व. पु. न्यासदेशं समीपीकरणलक्षण:, उपक्रम्यते वाऽनेन १) । १४. उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः गुरुवाग्योगे नेत्युपक्रमः करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मा- व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपानयनेन निक्षेपावसर.
ल. ३४
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उपक्रम काल ]
प्रापणम्, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः । उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रमणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उप क्रम्यतेऽस्मादिति वा विनेयविनयादित्युपक्रमः इत्यपादानसाधन इति । ( जम्बूद्वी. वृ. ५) ।
१ आयु के अपवर्तन (विघात) का जो कारण है उसे उपक्रम कहते हैं । ६ जिसके द्वारा नाम व प्रमाणादि से ग्रन्थ का बोध होता है उसे उपक्रम कहा जाता है । १० जीव को जो विशिष्ट शक्ति कर्म की बद्धता और उदीरता आदि रूप से परिणमन में कारण होती है उसे उपक्रम कहते हैं । अन्यत्र इसे करण भी कहा गया है ।
२६६, जैन-लक्षणावली
[ उपघात
जो परदोसं गोवदि णियसुकयं जो ण पडदे लोए । भवियव्वभावणरत्रो उवग्रहणकारगो सो हु ॥ ( कार्तिके. ४१९ ) । ७. यद्वत्पुत्रकृतं दोषं यत्नान्माता निगूहति । तद्वत्सद्धर्मदोषोपगृहः स्यादुपगृहनम् ॥ ( श्राचा. सा. ३-६१ ) । ८. यो निरीक्ष्य यतिलोकदूषणं कर्मपाकजनितं विशुद्धधीः । सर्वथाऽप्यवति धर्मबुद्धित: कोविदास्तमुपगूहकं विदुः ।। ( प्रमित. श्रा. ३ - ३७ ) । ६. भेदाभेदरत्नत्रयभावनारूपो मोक्षमार्गः स्वभावेन शुद्ध एव तावत् । तत्राज्ञानिजननिमित्तेन तथैवाशक्तजननिमित्तेन च धर्मस्य
पैशून्यं दूषणमपवादो दुष्प्रभावना यदा भवति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्यार्थेन धर्मोपदेशेन वा यद्धर्मार्थं दोषस्य झम्पनं निवारणं क्रियते तद् व्यवहारनयेनोपगूहनं भण्यते । तथैव निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगूहन गुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिध्यात्व- रागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यक् श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूपं यद् ध्यानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पनं तदेत्रोपगूहनम् । (बृ. द्रव्यसं. वृ. ४१) । १०. स्वयमकलंकस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयवाच्य तानिरास उपग्रह्नम् । (भ. प्रा. मूला. टी. ४५) । ११. रत्नत्रयोपयुक्तस्य जनस्य कस्यचित् क्वचित् । गोपनं प्राप्तदोषस्य तद् भवत्युपगूहनम् ॥ ( भावसं. वाम. ४१४) । १२. उत्तमक्षमादिरात्मनो धर्मवृद्धि - करणं संघदोषाच्छादनं चोपबृंहणमुपगूहनम् । (भा. प्रा. टी. ७७; त. वृति श्रुत. ६-२४) । १३. उत्तम क्षमादिभावनया श्रात्मनः चतुर्विधसंघस्य दोषझम्पनं सम्यक्त्वस्य उपबृंहणम् उपगृहननामा गुणः । (कार्तिके. टी. ३२६ ) |
३ बाल (अज्ञानी) एवं अशक्त जनों के द्वारा विशुद्ध मोक्षमार्ग की होनेवाली निन्दा के दूर करने को उपगूहन अंग कहते हैं ।
उपग्रह – १. उपग्रहो निमित्तमपेक्षा कारणं हेतुरित्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. ५-१७) । २. उपग्रहोअनुग्रहः । द्रव्याणं शक्त्यन्तराविर्भावे कारणभावोSनुग्रह उपग्रह इत्याख्यायते । (त. वा. ५, १७, ३) । २. द्रव्यों की अन्य शक्ति के श्राविर्भाव में निमित्तता रूप अनुग्रह का नाम उपग्रह है । उपघात - १. प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघातः । ( स. सि. ६-१० ) । २. प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघातः । स्वमतेः
उपक्रमकाल - १. उपक्रमणमुपक्रमः अभिप्रेतस्यार्थस्य सामीप्यापादनम्, उपक्रमस्य कालः भूयिष्ठक्रियापरिणामः प्रभूतकालप्राप्यं स्वल्पकालप्राप्यं भवति स उपक्रमकाल: । (विशेषा. को. वृ. २५४०, पृ. ६०८ ) । २. उपक्रमकाल : अभिप्रेतार्थ सामीप्यानयनलक्षणः सामाचारीयथायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः । (प्राव. नि. मलय. व. ६६० ) ।
१ प्रभीष्ट अर्थ को समीप में लाने रूप उपक्रम का जो काल है उसे उपक्रम काल कहते हैं । उपगतश्लाघत्व - उपगतश्लाघत्वं उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघता । ( समवा. श्रभय. वृ. ३५; रायप बृ. पू. १७ ) ।
परनिन्दा व आत्मोत्कर्ष से रहित होने के कारण जो वचन को श्लाघता - प्रशस्तता - प्राप्त होती है। उसका नाम उपगतश्लाघत्व है। यह सत्य वचन के ३५ अतिशयों में से २४वाँ है । उपगूहन - देखो उपबृंहण । १. दंसण चरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए । उवगृहणं करितो दंसणसुद्धा हवदि एसो ।। ( मूला. ५ - ६४) । २. जो सिद्धभत्तित्तो उपग्रहणगो दु सव्वधम्माणं । सो उवग्रहणगारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो । ( समयप्रा. २५१) । ३. स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥ ( रत्नक. १५ ) । ४. हिताहितविवेकविकलं व्रताद्यनुष्ठानेऽसमर्थ जनमाश्रित्य रत्नत्रये तद्वति वा दोषस्य यत्प्रच्छादनं तदुपगूहनम् । ( रत्नक. टी. १--१५ ) T ५. उपगूहनं चातुर्वर्ण्यश्रमण संघदोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणम् । ( मूला. बु. ४-४ )। ६.
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उपघातजनक] २६७, जैन-लक्षणावली
[उपवातनाम कलुषभावात् युक्तस्याप्ययुक्तवत्प्रतीतेः दोषोद्भावनं (कर्मस्त. गो. वृ. ६-१०, पृ. ८८)। १०. उपेत्य दूषणमुपघात इति विज्ञायते । (त. वा. ६, १०, घात उपघातः यस्योदयात् स्वयंकृतोद्वन्धनमरु६)। ३. प्रशस्तस्यापि ज्ञानस्य दर्शनस्य वा दूषण- त्पतनादिनिमित्त उपधातो भवति तदुपघातनाम । मुपधातः । (त. श्लो. ६-१०)। ४. युक्तमपि अथवा यत्कर्म जीवस्य स्वपीडाहेतूनवयवान् महाशृं. ज्ञानं वर्तते, तस्य युक्तस्य ज्ञानस्य अयुक्तमिदं ज्ञान- गलाध्वस्तानुदरादीन् करोति तदुपघातनाम। (मूला. मिति दूषणप्रदानम् उपघात उच्यते, सम्यग्ज्ञानवि- वृ. १२-१९४)। ११. यतोऽङ्गावयवः प्रतिजिह्विनाशाभिप्राय इत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१०)। कादिरात्मोपघातको जायते तदुपघातनाम । (समवा. ५. मनसा वाचा वा प्रशस्तज्ञानदूषणमध्येतृषु क्षुद्र- अभय. वृ. ४२, पृ. ६४)। १२. यस्योदयात् स्वयंबाधाकरणं वा उपघातः। (गो. क. जी. प्र. टी. कृतोद्वन्धन-प्राणापाननिरोधादिनिमित्त उपघातो ८००)।
भवति तदुपघातनाम । (भ.प्रा. मूला. टी. २१२४) १ किसी व्याख्याता के प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाने १३. यदुदयवशात् स्वशरीरावयवैरेव शरीरान्त:को उपघात कहते हैं।
परिवर्द्धमानः प्रतिजिह्वा-गल वृन्दलंक (प्रज्ञा.—गलउपघातजनक-उपघातजनकं सत्त्वोपघातजनकम्। वृन्दलम्बक, षष्ठ क.-गल वृन्दलचक) चोरदन्तादियथा वेदविहिता हिंसा धर्माय इत्यादि । (प्राव. भिरुपहन्यते, यद्वा स्वयंकृतोद्बन्धन-भैरवप्रपातादिनि. हरि. व मलय. वृ. ८८१)।
भिस्तदुपघातनाम । (पंचसं. मलय. वृ. ३-७; प्राणियों का घात करते वाले वचनों को उपघात- पृ. ११५, प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६१, पृ. ४७३, जनक वचन कहते हैं । जैसे-वेदविहित हिंसा धर्म षष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६, पृ. १२६) । १४. उपका कारण होती है।
घातनाम यदुदयात् स्वशरीरावयवरेव प्रतिजिह्वाउपघातनाम-१. यस्योदयात्स्वयंकृतोदबन्धन-मरु- लम्बक-गलवृन्द-चोरदन्ताभिः प्रवर्तमानर्जन्तुरुपप्रपतनादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपघातनाम । हन्यते । (धर्मसं. मलय. व. ६१८)। १५. स्वशरी(स. सि. ८-११)। २. शरीराङ्गोपाङ्गोपघातकमुप- रावयवरेव प्रतिजिह्वा-वृन्दलम्बक-चौरदन्तादिभिः
शरीरान्तर्वर्धमानैः यदुदयादुपहन्यते पीड्यते तदुपभा. ५-१२, पृ. १५७) । ३. यदुदयात् स्वयंकृतो. घातनाम । (शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ५१; बन्धनाद्युपधातस्तदुपघातनाम । थस्योदयात् स्वयं- प्रव. सारो. व. १२६३)। १६. उपेत्य पात उपघात कृतोद्बन्धन-मरुत्प्रपतनादिनिमित्त उपघातो भवति आत्मघात इत्यर्थः, यस्योदयादात्मघातावयवाः महातदुपघातनाम । (त. वा. ८, ११, १३) । ४. उप- शृंगलम्बस्तनतुन्दोदरादयो भवन्ति तदुपघातनाम । घातनाम यदुदयात् उपहन्यते । (श्रा. प्र. टी. २१)। (गो.क. जी. प्र. टी. ३२)। १७. उवधाया उवहम्मद ५. उपेत्य घात: उपघात प्रात्मघात इत्यर्थः। जं सतणुवयलंबिगाईहिं । (कर्मवि. दे. ४७); यदुदयवकम्म जीवपीडाहेदुअवयवे कुणदि जीवपीडाहेदुदव्वा- शात् स्वशरीरान्तःप्रवर्द्धमानैर्लम्बिकाप्रतिजिह्वाणि वा विसासि-पासादीणि जीवस्स ढोएदि तं उव- चौरदन्तादिभिर्जन्तुरुपहन्यते तदुपघातनाम । (कर्मघादणाम । (धव. पु. ६, पृ. ५६); जस्स कम्मस्स वि. दे. स्वो. वृ. ७४, पृ. १५) । १८. यदुदयेन स्वउदएण सरीरमप्पणो चेव पीडं करेदि तं कम्ममुव- यमेव गले पाशं बदध्वा वृक्षादौ अवलम्ब्य उद्वेगान्मघादं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । ६. यदु- रणं करोति तदुपघातनाम् । (त. वृत्ति श्रुत.. दयात् स्वयंकृतो बन्धनाद्युपघातस्तदुपघात नाम। ८-११)। (त. इलो. ८-११)। ७. स्वशरीरोपहननमित्युप- १जिस कर्म के उदय से स्वयंकृत बन्धन और पर्वत-- घातः । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-६)। ८. अंगावयवो पात प्रादि के द्वारा अपना ही उपघात (मरण) हो पडिजिभियाइ अप्पणो उवग्घायं । कुणइ ह देहम्मि उसे उपघात नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से ठिो सो उवघायस्स उ विवागो। (कर्मवि. ग. शरीर के भीतर बढ़ने वाले प्रतिजिह्वा मादि प्रव११६) । ६. स्वशरीरावयवरेव नखादिभिः शरीरा- यवों के द्वारा जीव का अपना ही घात होता है वह न्तःवर्द्धमानर्यदुदयादुपहन्यते पीड्यते तदुपघातनाम। उपघात नामकर्म कहलाता है। .
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उपघातनिःसृता ]
उपघातनिःसृता - १. जं उवधायपरिणम्रो भासइ वयणं अलीग्रमिह जीवो । उवधायणिस्सिया सा XXX ।। (भाषार. ५१ ) ; उपघातपरिणतः पराशुभचिन्तन परिणत इह जगति जीवो यदलीकं वचनं भाषते सा उपघातनिःसृता । ( भाषार. टी. ५१ ) । मनुष्य जो दूसरे के प्रशुभचिन्तन में रत होकर प्रसत्य वचन बोलता है उसे उपघातनिःसृता भाषा कहते हैं ।
उपचय - १. उपचयनं चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः । स च एवम् – प्रथमस्थितो बहुतरं कर्म दलिकं निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनम्, एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २५०, पृ. १८३ ) । २. उपचयो नाम स्वस्याबाधाकालस्योपरि ज्ञानावरणीयादिकर्म पुद्गलानां वेदनार्थ निषेकः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४ - १६० ) । गृहीत कर्मपुद्गलों के प्रबाधाकाल को छोड़कर श्रागे ज्ञानावरणादि स्वरूप से निसिञ्चन करना - क्षेपण करना, इसका नाम उपचय है । उपचयद्रव्यमन्द —— उपचयद्रव्यमन्दो नाम यः परिस्थूरतरशरीरतया गमनादिव्यापारं कर्तुं न शक्नोति । ( बृहत्क. वृ. ६६७ ) 1
जो शरीर के अधिक स्थूल होने से गमनागमन श्रादि कार्यों के करने में असमर्थ हो उसे उपचयद्रव्यमन्द कहते हैं ।
उपचयपद - १. तत्रोपचितावयवनिबन्धनानि ( प्रव - यवपदानि ) । यथा - गलगण्डः, शिलीपदः, लम्ब - कर्ण इत्यादीनि नामानि । ( धव. पु. १, पृ. ७७ ) । २. सिलीवादी गलगंडो दीहनासो लंबकण्णो इच्चेव - मादीणि णामाणि उवचयपदाणि, सरीरे उवचिदमवयवमवेक्खिय एदेसि णामाणं पउत्तिदंसणादो । ( जयध. पु. १, पृ. ३२-३३) ।
२ शरीर के श्रवयवों में वृद्धि होने से जो विशिष्ट प्रवयव होते हैं उन्हें उपचयपद कहते हैं । जैसे-शिलीपदी, गलगण्ड, दीर्घनास और लम्बे कान वाला आदि । उपचयभावमन्द - उपचयभावमन्दः पुनर्यो बुद्धेरुपचयेन यतस्ततः कार्यं कर्तुं नोत्सहते । × × × अथवा तलिना' सूक्ष्मा कुशाग्रीया बुद्धिः श्रेष्ठा, ततः सा सूक्ष्मतन्तुव्यूतपटीवत् अन्तः सारवत्त्वेन
[ उपचरितासद्भूतव्यवहारनय
उपचितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमतिः स उपचयभावमन्दः । (बृहत्क. वृ. ६६७ ) ।
जो बुद्धि के उपचय से इधर-उधर के कार्य करने में उत्साहित नहीं होता उसे उपचयभावमन्द कहते हैं । अथवा सारयुक्त होने से सूक्ष्म कुशाग्रबुद्धि उपचित कही जाती है, उस कुशाग्रबुद्धि से जो संयुक्त हो उसे उपचयभावमन्द कहते हैं । उपचरित भाव - एकत्र निश्चितो भावः परत्र चोपचर्यते । उपचरितभावः सः XXX ॥ ( द्रव्यान. त. १२-१०) ।
I
एकत्र निश्चित भाव का अन्यत्र जो उपचार किया जाता है उसे उपचरितभाव कहते हैं । उपचरितसद्भूत व्यवहारनय - १. उपचरितः सद्भूतो व्यवहारः स्यान्नयो यथानाम | अबिरुद्धे हेतुवशात् परतोऽप्युपचर्यते यथा स्वगुणः ॥ श्रर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा । अर्थ: स्व-परनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।। (पंचाध्यायी १, ५४०-४१) । २. सोपाधिगुण-गुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारः । यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । ( नयप्र. पृ. १०२) ।
२ उपाधिसहित गुण और गुणी में भेद को जो विषय करता है उसे उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । जैसे— जीव के मतिज्ञान प्रादि गुण । उपचरिता सद्भूतव्यवहारनय- १. उपचरितो ऽसद्भूतोव्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा ।
२६८, जैन - लक्षणावली
द्य प्रौदयकाश्चितश्चेद् बुद्धिजा विवक्ष्याः स्युः ॥ ( पंचाध्यायी १ - ५४९ ) । २. यश्चकेनोपचारेणोपचारो हि विधीयते । स स्यादुपचरिताद्यसद्भूतव्यवहारकः ॥ ( द्रव्यानु त ७-१३ ) । ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यव हारः ।।१२।। असद्भूनव्यवहार एवोपचारः यः उपचारादप्युपचारं करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः । यथा देवदत्तस्य धनमिति, श्रत्र संश्लेषरहितं वस्तु सम्बन्धसहित वस्तुसम्बन्धविषयः || १३ || ( नयप्र. पृ. १०३) ।
१ जीव के क्रोधादि भाव यदि बुद्धिपूर्वक संजात विवक्षित हैं तो उन्हें जीव के श्रदयिक भाव मानना यह उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय है । ३ श्रन्य वस्तु के प्रसिद्ध धर्म का अन्य में श्रारोप करना,
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उपचारछल] २६६, जैन-लक्षणावली
[उपदेशरुचि इसका नाम प्रसद्भूतव्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त कादिचतुष्टये ॥ प्राचार्यादिष्वसत्स्वेवं स्थविरस्य का धन । सम्बन्ध रहित धनरूप वस्तु यहां सम्बन्ध- मुनेर्गणे । प्रतिरूपकालयोग्या क्रिया चान्येषु साधुषु ।। सहित देवदत्त के सम्बन्ध का विषय बन गई है। पार्या-देशयमाऽसंयतांदिषूचितसत्क्रिया । कर्तव्या उपचारछल-१. धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यार्थप्रति- चेत्यदः प्रत्यक्षोपचारोपलक्षणम् ॥ ज्ञान-विज्ञानषेधनम् । उपचारछलं मंचा: क्रोशन्तीत्यादिगोचरम् ॥ सत्कीतिर्नतिराज्ञाऽनुवर्तनम् । परोक्षे गणनाथानां अत्राभिधानस्य धर्मो यथार्थे प्रयोगस्तस्याध्यारोप्यो परोक्षप्रश्रयः परः ।। (प्राचा. सा. ६, ७७-८२)। विकल्पः अन्यत्र दृष्टस्य अन्यत्र प्रयोगः, मंचाः ६. अभ्युत्थानोचितवितरणोच्चासनाधुज्झनानुव्रज्याक्रोशन्ति गायन्तीत्यादौ शब्दप्रयोगवत् । स्थानेषु हि । पीठाद्युपनयविधिः कालभावाङ्गयोग्यः । कृत्याचार: मंचेषु स्थानिनां पुरुषाणां धर्ममाक्रोष्टित्वादिकं समा- प्रणतिरिति चाङ्गेन सप्तप्रकारः कार्यः साक्षाद् गुरुषु रोप्य जनस्तथा प्रयोगः क्रियते गौणशब्दार्थश्रयणात् विनयः सिद्धिकामैस्तुरीयः ॥ हितं मितं परिमितं सामान्यादिष्वस्तीति शब्दप्रयोगवत् । तस्य धर्माध्या- वचः सूत्रानुवीचि च । वुवन् पूज्यांश्चतुर्भेदं वाचिकं रोपनिर्देशे सत्यस्य प्रतिषेधनम्, न मंचा: क्रोशन्ति, विनयं भजेत् ॥ निरुधन्नशुभं भावं कुर्वन् प्रियहिते मचस्थाः पुरुषाः क्रोशन्तीति । तदिदमुपचारलं मतिम् । प्राचार्यादेरवाप्नोति मानसं विनयं द्विधा ।। प्रत्येयम् । (त. श्लो. १-२६६, पृ. २६६; सिद्धिवि. वाङ्मनस्तनुभिः स्तोत्रस्मृत्यञ्जलिपुटादिकम् । परोटी. ५-२, पृ: ३१७) । २. धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थ- क्षेष्वपि पूज्येषु विदध्याद्विनयं त्रिधा ।। (अन. ध. सद्भावप्रतिषेध उपचारछलम् । (प्र. क. मा. ६, ७,७१-७४)। ७. प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थान७३, पृ. ६५१)।
बन्दनानुगमनादिरात्मानुरूपः, परोक्षेष्वपि तेष्वज१ धर्म के अध्यारोप का (उपचार का) निर्देश करने लिक्रिया - गुणकीर्तनं - स्मरणानुज्ञानुष्ठायित्वादिश्च पर सत्य अर्थ के सद्भाव का निषेध करने को उप- काय-वा-मनोभिरुपचारविनयः । (भा. प्रा. टी. चार छल कहते हैं । जैसे-'मंचा: क्रीशन्ति' (मंच ७८; त. वृत्ति श्रुत. ६-२३)। चिल्लाते हैं) ऐसा कहने पर उसका निषेध करते १प्राचार्य आदि के सन्मख आने पर उठ कर खड़ा हुए कहना कि 'न मंचाः क्रोशन्ति, किन्तु मंचस्थाः होना, सन्मुख जाना और हाथ जोड़ कर प्रणाम पुरुषाः क्रोशन्ति' (मंच नहीं चिल्लाते हैं, किन्तु मंच करना; इत्यादि सब उपचार विनय कहलाता है। पर बैठे पुरुष चिल्ला रहे हैं।) यह उपचारछल है। उपचारोपेतत्व-बपचारोपेतत्वम् अग्राभ्यता । उपचारविनय-१. प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष अभ्युत्था- (समवा. अभय. वृ. ३५, रायप. टी. पृ. १६)। नाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः । (स. सि. वचनप्रयोग में ग्रामीणता का न होना, इसका नाम ६-२३; त. वा. ६, २३, ५, त. श्लो. ९-२३)। उपचारोपेतत्व है। यह ३५ सत्यवचनातिशयों में २. उपचारविनयोऽभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादि- तीसरा है । भेदः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. ६-२३)। ३. उपदेश-उपदेशो मौनीन्द्र प्रवचनप्रतिपादनरूपः । अभ्युत्थानानुगमनं वन्दनादीनि कुर्वतः । आचार्या- भव-जलधियानपात्रप्रायः खल्वयम्, अस्य श्रवणमादिषु पूज्येषु विनयो ह्यौपचारिकः । (त. सा. त्रादेव समीहितसिद्धेः, सुतरां च तदर्थज्ञानात् । ७-३४) । ४. प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभि- (शास्त्रवा. टी. १-७)। गमनाञ्जलिकरणादिः उपचारविनयः, परोक्षेष्वपि जिनेन्द्रदेव के वचनों के प्रतिपादन करने को उपदेश काय - वाङ्-मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मर- कहते हैं । णादिरूपचारविनयः । (योगशा. स्वो. विव. ४-९०)। उपदेशरुचि-१. तीथंकर-बलदेवादिशुभचरितोप५. उपोपसृत्यश्चारैः [चारः] उपचारो यथोचितः। देश हेतु कश्रद्धाना उपदेशरुचयः। (त. वा. ३-३६)। स प्रत्मक्ष परोक्षात्मा तत्राद्यः प्रतिपाद्यते ।। अभ्य- २. एए चेव उ भावे उवइ? जो परेण सद्दहइ । छदस्थानं नतिः सूरावागच्छति सति स्थिते । स्थानं नीच- मत्थेण जिणेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो।। (उत्तरा. निविष्टेऽपि शयनोच्चासनोज्झनम् ।। गच्छत्यनुगमो २८-१९; प्रव. सारो. ९५२)। ३. भावान् उपदिवक्तर्यनुकूले वचो मनः। प्रमोदीत्यादिकं चैवं पाठ- ष्टान यः परेण श्रद्दधाति छद्मस्थेन - जिनेन वा स
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उपदेशसम्यक्त्व] २७०, जैन-लक्षणावली
[उपधि उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः । (उत्तरा. वृ. २८, शनं चतुर्थ-षष्ठादिकं करिष्यामीति संकल्पः। (भ. १६) । ४. उपदेशो गुर्वादिभिर्वस्तुतत्त्वकथनम्, तेन प्रा. विजयो. टी. ११३; मूला. ११३)। २. उपरुचिः उक्तरूपा यस्य स उपदेशरुचिः। (प्रव. सारो. धानमवग्रहविशेषेण पठनादिकं साहचर्यादुपधानावृ. ६५४)। ५. परोपदेशप्रयुक्तं जीवाजीवादिपदार्थ- चारः । (मूला. वृ. ५-७२) । विषयि श्रद्धानम् उपदेशरुचिः । (धर्मसं. मान. स्वो. १ जब तक अमुक अनुयोगद्वार समाप्त नहीं होता व. २-२२, पृ. ३७)। ६. Xxx तविवरीप्रो- है तब तक मैं अमुक वस्तु का उपभोग नहीं करूंग वएसरुई ।। (ग. गु. षट. स्वो. व. पृ. ३६)। तथा एक या दो प्रादि उपवासों को करूंगा, इस १ तीर्थकर एवं बलदेव प्रादि के उत्तम चरित्र के प्रकार के संकल्प का नाम उपधान ज्ञानाचार है। सुनने से जिसे तत्व-श्रद्धा उत्पन्न हुई हो उसे उपदेश- उपधि-१. उपदधाति तीर्थम उपधिः (उत्तर, रुचि-उपदेशसम्यक्त्व से सम्पन्न-कहा जाता है। . पृ. २०४)। २. उपधीयते बलाधानार्थमित्युसउपदेशसम्यक्त्व-देखो उपदेशरुचि । १. त्रिष- धिः । योऽर्थोऽन्यस्य बलाघानार्थ उपधीयते स उपष्टिपुरुषादीनां या पुराणप्ररूपणात्। श्रद्धा सद्य: धिः । (त. वा. ६, २६, २)। ३. तत्रोपकरणं समुत्पन्ना सोपदेशसमुद्भवा ।। (म. पु. ७४-४४२, बाह्य रजोहरण-पात्रादि स्थविर-जिनकल्पयोग्यो४४३)। २. XXX पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता पधिः, दुष्टवाङ्मनसोऽभ्यन्तरं क्रोधादिश्चातिदुस्त्यज या संज्ञानागमाब्धिप्रसूतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः। उपधिः, शरीरं वा ऽभ्यन्तरोपधिरन्न-पानं च (आत्मान. १२) । ३. पुराणपुरुषचरितश्रवणाभि- बाह्यम् । (त. भा. हरि. वृ. ६-६)। ४. उपेत्य निवेश उपदेशः। (उपासका. पृ. ११४; अन. प. क्रोधादयो धीयन्तेऽस्मिन्नित्युपषिः, क्रोधाद्युत्पत्तिस्वो. टी. २-६२)। ४. त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराण- निबन्धनो बाह्यार्थ उपधिः । (धव. पु. १२, पृ. समाकर्णनेन बोधि-समाधिप्रदानकारणेन यदुत्पन्नं २८५)। ५. सदभावं प्रच्छाद्य धर्मव्याजेन स्तन्याश्रद्धानं तदुपदेशनामकं सम्यग्दर्शनम् । (द. प्रा. टी. दिदोषे प्रवृत्तिरुपधिसंज्ञिता माया। (भ. प्रा. विजयो. १२)।
टी. २५)। ६. बाह्यचेष्टयोपधीयते बाह्यत इत्युपतिरेसठ शलाका पुरुषों आदि के पुराण के सुनने से घिरन्यथापरिणामश्चित्तस्य । (त. भा. सिद्ध. व. जो तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है उसे उपदेशसमदभव- ८-१०)। ७. उपधीयते पोष्यते जीवोऽनेनेत्युपधिः । श्रद्धा-उपवेशसम्यक्त्व कहते हैं।
(स्थानां. अभय. वृ. ३, १, १३८, पृ. ११४)। उपद्रावण (प्रोद्दावरण)-जीवस्य उपद्रवणं प्रोद्दा- ८. प्रोधिकोपग्रहिकभेदादुपधिविविधः । xxx वणं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ४६) ।
तत्रौधोपधिनित्यमेव यो गृह्यते, भज्यते पुनः कारणे प्राणी को कष्ट पहुंचाना, इसे उपद्रावण नामक न सः । औपग्रहिक स्तु स यस्य [कारणे न] ग्रहणं प्राधाकर्म कहा गया है।
भोगश्चेत्युभयमपि कारणे न भवति । तदुक्तं पञ्चउपधा-परवञ्चनेच्छा उपधा । (स्या. र. ५.८)। वस्तुके--पोहेण जस्स गहणं भोगो पुण कारणासमो दूसरे को धोखा देने की इच्छा का नाम उपधा है। होही । जस्स उभयं पि णियमा कारणो सो उवउपधान-उपदधातीत्युपधानं तपः, तद्धि यद्यत्राध्य- गहिरो ।। (धर्मसंग्रह. मान. स्वो. टी. २ पृ. ६२)। यने प्रागाढादियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्यम, तत्पू- ६. उप सामीप्येन संयमं दधाति पोषयति चेत्युपधिः। र्वकश्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात् । (दशवं. नि. हरि. (प. ३ प्र.-अभिधा. २, पृ. १०५६)। वृ. ३-१८४, पृ.१०४) ।
- ४ क्रोधादि की उत्पत्ति के कारणभूत बाह्य पदार्थ को प्रागाढादिरूप योगविशेष का नाम उपधान (तप) उपधि कहते हैं। ६ चित्त का जो अन्यथा-कपटहै। जिसके अध्ययन में जो भी उपधान तप कहा रूप-परिणाम है, उसे उपधिरूप परिणाम कहा गया है उसे वहाँ श्रुतग्रहण की सफलता के लिए जाता है। यह माया कषाय का नामान्तर है। करना ही चाहिए।
जिसकी समीपता से संयम का धारण एवं पोषण उपधान ज्ञानाचार-१. यावदिदमनयोगद्वारं हो, ऐसे ज्ञान-संयम के उपकरणों को भी उपधि निष्ठामुपैति तावदिदं मया न भोक्तव्यम्, इदम् अन- कहते हैं।
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उपधिवाक्] २७१, जैन-लक्षणावली
[उपपात उपधिवाक्-यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जन-रक्षणा- मनुष्यों को उनके वर्षों के अनुसार गुरूपविष्ट अपने दिष्वासज्यते सोपधिवाक् । (त. वा. १, २०, १२, अपने धर्ममार्ग में एक निश्चित वेष-भूषा के साथ पृ. ७५; धव. पु. १, पृ. ११७) ।।
निविष्ट करने को उपनयन संस्कार कहते हैं। परिग्रह के अर्जन एवं रक्षण प्रादि में प्रासक्ति उपनयब्रह्मचारिन्-१. उपनयनब्रह्मचारिणो गणउत्पन्न करने वाले वचनों को उपधिवाक कहते हैं। घरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा गृहिधर्मानुष्ठायिनो उपधिविवेक-कायेनोपकरणानामनादानम, अस्था- भवन्ति । (चा. सा. पु. २०, सा. प. स्वो. टी. पनं क्वचिदरक्षा चोपधिविवेकः । परित्यक्तानीमानि ७-१६) । २. समभ्यस्तागमा नित्यं गणभत्सूत्रज्ञानोपकरणादीनीति वचनं वाचा उपधिविवेकः। धारिणः । गृहधर्मरतास्ते चोपनयब्रह्मचारिणः । (भ. प्रा. विजयो. टी. १६८, मूला. वृ. ३-१६८- (धर्मसं. श्रा. ९-१८)। अत्र 'ज्ञानोपकरणादीनि' पदं नास्ति ।)
१ जो गणघरसूत्र-यज्ञोपवीत-के धारक होकर ज्ञान-संयमादि के परित्यक्त उपकरणों के काय से आगमों का अभ्यास करते हैं और तत्पश्चात् गहिनहीं ग्रहण करने को उपषिविवेक कहते हैं। 'इन धर्म का अनुष्ठान करने वाले होते हैं उन्हें उपनयउपकरणों को मैंने छोड़ दिया है। इस प्रकार का ब्रह्मचारी कहते हैं। जो वचन है वह वचन से उपधिविवेक है। उपनयाभास-इह साध्यधर्म साध्यमिणि साधनउपनय-१. तत्-(नय-) शाखा-प्रशाखात्मोपनयः। धर्म वा दृष्टान्तर्मिणि उपसंहरत उपनयाभासः । (अष्टश. १०७)। २. एतेषां नयानां विषय उपनयः। (रत्नाकराव. ६-८१)। (धव. पु. ६, पृ. १८२)। ३. हेतोरुपसंहार उपनयः। साध्यधर्म का साध्यधर्मी में अथवा साधनधर्म का (परीक्षा. ३-४५)। ४. हेतोः साध्यमिण्यपसंहरण- दृष्टान्तधर्मी में उपसंहार करने को उपनयाभास मुपनयः। (प्र. न. त. ३-४६) । ५. हेतोः पक्षधर्म- कहते हैं। तयोपसंहार उपनयः। (प्र. र. मा. ३-४५) । ६. उप- उपनीत–उपनीतमुपनयोपसंहृतम् । (व्यव. भा. नीयते साध्याविनाभावित्वेन विशिष्टो हेतुः साध्व- मलय. वृ.७-१९०)। धर्मिण्युपदृश्यते येन स उपनयः । (स्या. र. ३-४७)। उपनय (अनुमानावयव) के उपसंहार से युक्त वाक्य ७. धर्मिणि साधनस्योपसहार उपनयः। (प्रमाणमी. को उपनीत वचन कहा जाता है। २,१,१४) । ८. दृष्टान्तमिणि विसतस्य साधन- उपनीतरागत्व-१. उपनीतरागत्वं मालकोशादिधर्मस्य साध्यमिणि य उपसंहारः स उपनयः, उप. ग्रामरागयुक्तता । (समवा. अभय. व. ३५, पृ. ६०)। संह्रियतेऽनेनोपनीयतेऽनेनेति वचनरूपः । यथा धूम- २. उपनीतरागत्वं उत्पादितश्रोतृजनस्वविषयबहु वांश्चायमिति । (प्रमाणमी. स्वो. वृ. २, १, १४)। मानता । (रायप. व. पृ. १६) । ९. कृतोपनयः कृतो यथाविध्युपकल्पित उपनयो जिस सम्भाषण को सुनकर भोता जनों में अपने प्रति मौजीबन्धादिलक्षणोपनीतिक्रिया यस्य स तथोक्तः। बहुत आदरभाव उत्पन्न हो उसका नाम उपनीत(सा. प. स्वो. टी. २-१९)। १०. हेतोरुपसंहार- रागत्व है। यह ३५ सत्यवचनातिशयों में सातवां है। मुपनयः । (प. द. स. टी. पृ. २१०)। ११. दृष्टा- उपपात - १. उपपातस्तुपपातक्षेत्रमात्रनिमित्तः तापेक्षया पक्षे हेतोरुपसंहारवचनमुपनयः तथा चायं । प्रच्छदपटादेरुपरि देवदूष्याद्यधो वैक्रियिकशरीरधूमवानिति । (न्या. दी. पु. ७८)।
प्रायोग्यद्रव्यादानादिति । (त. भा. हरि.व. २-३२)। १नय की शाखा-प्रशाखामों-भेद-प्रभेदों को- २. उपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रनिमित्तं यज्जन्म तदुपपातउपनय कहते हैं। ३ हेतु के उपसंहार को उपनय जन्म । (त. भा. सिद्ध. व. २-३२) । ३. उपपातः कहते हैं। ६ मौजीबन्धनादिरूप उपनीति क्रिया प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः। (प्राचारा. शी. व. को भी उपनय कहा जाता है।
१, १, १३)। ४. उपपतनमुपपातो देव-नारकाणां उपनयन-तत्रोपनयनं नाम मनुष्याणां वर्णक्रमप्रवे- जन्म । (स्थाना. अभय. व. १-२८, पृ. १६)। शाय संस्कारो हि वेषमुद्रोद्वहनेन स्व-स्वगुरूपदिष्टे ५. उपपतनमुपपातः, उत्पत्तिर्जन्मेति यावत् । (संप्रधर्ममार्गे निवेशयति । (मा. दि. १२, पृ. १८)। हणी दे. वृ. १, पृ. ३)।
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उपपाद] २७२, जैन-लक्षणावली
[उपबृहण १जिस जन्म का कारण उपपात क्षेत्र मात्र होता यत्स्थानं निवासभूमिलक्षणं ग्रामनगरादि । (धर्मबि. है उसे उपपात जन्म कहते हैं। यह जन्म प्रच्छद पट मु.व. १-१६)। (वस्त्रविशेष) के ऊपर और देवदूष्य के नीचे वैक्रि- स्वचक्र या परचक्र के प्राक्रमण से या दुर्भिक्ष, मारी यिक शरीर के योग्य द्रव्य के ग्रहण से होता है। ईति और जनविरोध प्रादि से प्रशान्त स्थान को
उपप्लुत स्थान कहते हैं। उपपाद-१. उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपादः ।
उपबहरा--देखो उपगृहन । १. उत्तमक्षमादिभाव(स. सि. २-३१, त. श्लो. २-३१)। २. उपेत्य
नयाऽत्मनो धर्मपरिवृद्धिकरणमुपबृहणम् । (त. वा. पद्यतेऽस्मिन्नित्यपपादः ॥ देव-नारकोत्पत्तिस्थानविशेषसंज्ञा। (त. वा. २, ३१, ४)। ३. अप्पिद
६, २४, १) । २. उपबृहणं नाम समानधार्मिकाणां गदीदो अण्णगदीए समुप्पत्ती उववादो णाम | X
सद्गुणप्रशंसनेन तवृद्धिकारणम् । (दशवै. हरि. वृ. xx पोग्गलेषु अण्णपज्जाएण परिणामो उववादो
३-१८२) । ३. उपबृहणं नाम वर्धनम् ।XXX
स्पष्टेनाऽग्राम्येण श्रोत्र-मन:प्रीतिदायिना वस्तुयाथाणाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४७)। ४. उपपादः
त्म्यप्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धानअन्यस्मादागत्योत्पत्तिः । (मला. व. १२-१) ।
वर्द्धनमुपबृहणम् । सर्वजन विस्मयकारणीं शतमख५. उपेत्य संपूटशय्याम् उष्ट्रादिकं वा प्राश्रित्य पदनं
प्रमुखगीर्वाणसमिति विरचितोपचितिसदशी पूजा शरीरपरिणामयोग्यपुद्गलस्कन्धस्य गमनं प्राप्तिः उपपादः। रूढिशब्दोऽयं देव-नारकाणामेव जन्मवाची
संपाद्य दुर्धरतपोयोगानुष्ठाननेन वा आत्मनि श्रद्धा
स्थिरीकरणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ४५) । (गो. जी. म. प्र. टी. ८३)। ६. उपपदनं संपुट
४. उत्तमक्षमादिभावनयात्मन: प्रात्मीयस्य च धर्मशय्योष्ट्रमुखाकारादिषु लघुनान्तर्मुहूर्तेनैव जीवस्य
परिवृद्धिकरणमुपबृहणम् । (चा. सा. पृ. ३)। जननमुपपादः । (गो. जी. जी. प्र. टी. ८३); परि
५. धर्मोऽभिवर्धनीय: सदात्मनो मार्दवादिभावनया । त्यक्तपूर्व भवस्य उत्तरभवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपादः ।
परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपवृहणगुणार्थम् । (पु. (गो. जी. जी. प्र. ५४३)। ७. उपेत्य गत्वा पद्यते
सि. २७)। ६. टंकोत्कीर्ण भावमयत्वेन समस्तात्मयस्मिन्निति उपपादः, देव-नारकाणां जन्मस्थानम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-१४); उपेत्य पद्यते सम्पूर्णांग:
शक्तीनामुपबृहणादुपबृहणम् । (समयप्रा. ज. वृ. उत्पद्यते यस्मिन् स उपपाद: देवनारकोत्पत्तिस्थान
२५१)। ७. तच्च (उपबृहण च) परस्य स्पष्टा
ग्राम्यश्रवण-मन:प्रीतिकरतत्त्वप्रकाशन-परधर्मोपदेशेन विशेष इत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३१)। ३ विवक्षित गति से निकल कर अन्य गति में जन्म
तत्त्वश्रद्धानस्फारीकरणम्, स्वस्य च शक्रनिमि
तसपर्यासोदर्यपूजाविशेषेण दुर्द्धरतपोयोगानुष्ठानेन लेने को उपपाद कहा जाता है। ६ सम्पुटशय्या व
जिनेन्द्रोपजश्रुतज्ञानातिशयभावनया वा श्रद्धानवर्द्धउष्ट्रमुख प्रादि के आकारवाली नारक जन्मभूमियों में जीव के उत्पन्न होने का नाम उपपाद है।
नम् । (भ. प्रा. मूला. ४५)। ८. धर्म स्वबन्धुमभि
भूष्णुकषायरक्षः, क्षेप्तुं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा उपपादयोगस्थान- उववादजोगठाणा भवादि
स्यात् । धर्मोपबृहणधियाऽबल-बालिशात्म यूथ्यात्ययं समयट्ठियस्स अवर-वरा । विग्गह-इजुगइगमणे जीव
स्थगयितुं च जिनेन्द्र भक्तः ।। (अन. ध. २-१०५) । समासे मुणेयव्वा ॥ (गो. क. २१६) ।
६. उपवृहण नाम समानधार्मिकाणां क्षपण-वैयाजो योगस्थान जीव के नवीन भव प्राप्त करने के
वृत्त्यादिसद्गुणप्रशंसनेन तद्वृत्ति । (व्यव. भा. मलय. प्रथम समय में होते हैं उन्हें उपपादयोगस्थान
वृ. १-६४) । १०. उपबृहा दर्शन गुणवतां प्रशंसया कहते हैं।
तत्तद्गुणपरिवर्द्धनम् । (उत्तरा. ने. व. २८, ३१) । उपप्रदान-उपप्रदानं अभिमतार्थदानम् । (विपाक. ११. उपबृहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंशनेन अभय. वृ. ४-४२, पृ. ४२)।
तवृद्धिकरणम् । (ध. बि. मु. वृ. २-११; धर्मसं. मान, अभीष्ट अर्थ के दान को उपप्रदान कहा जाता है। स्वो. व. १.२०)। १२. उपबृहणमत्रास्ति गुणः सम्यउपप्लुत स्थान-उपप्लुतं स्वचक्र-परचक्रविक्षो- रदृगात्मनः । लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं ब्रहणादिह ।। भात् दुभिक्षमारीति-जनविरोधादेश्चाश्वस्थीभूतं प्रात्मशुद्धे रदौर्बल्यकरणं चोपबृहणं । अर्थादृग्ज्ञप्ति
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उपभोग]
२७३, जैन-लक्षणावली [उपभोग-परिभोग. चारित्र वादस्खलनं हि तत् ।। (लाटीसं. ४, पृ. ५१) । १५. उपेति पुन: पुनर्भुज्यते इति उप२७६-८०%; पञ्चाध्यायी २, २७५-७६)। भोगो भबनाऽऽसनाङ्गनादि। उक्तं च-xxx १ उत्तम क्षमा प्रादि की भावना से अपने धर्म के उवभोगो उ पुणो पूण उवभज्जइ भवण-वणियाई ।। बढ़ाने को उहबृहण (उपगृहन) कहते हैं । २ सा- (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ५१, पृ. ५८)। १६. भुज्यतेधर्मो बन्धुओं के समीचीन गुणों की प्रशंशा के द्वारा उसकृदेवात्र स्यादुपभोगसंज्ञकः। (लाटीसं. ६, उनके बढ़ाने को उपबृहण कहते हैं।
१४६) । १७. इन्द्रियद्वारेण शब्दादिविषयाणामुपउपभोग-१.xxx भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। लब्धिः उपभोगः । (त. वृत्ति श्रुत. २-४४) । उपभोगःXxx॥ (रत्नक. ८३)। २. इन्द्रिय- १ जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके उसे उपभोग प्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोगः । (स. सि. कहते हैं । २. श्रोत्र प्रादि इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि २-४४); उपभोगोऽशन-पान-गन्ध-माल्यादिः। (स. विषयों की प्राप्ति को उपभोग कहा जाता है। सि. ७-२१)। ३. इन्द्रियनिमित्तशब्दाद्युपलब्धि- ३ जो प्रशन-पान प्रादि एक ही बार भोगे जा सकते रुपभोगः। इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धि हैं उन्हें उपभोग कहा जाता है। रुपभोग इत्युच्यते । (त. वा. २, ४४, २); उपेत्य उपभोग-परिभोगपरिमारणवत-१. उपभोगोsभुज्यत इत्युपभोगः। उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते शन-पान-गन्ध-माल्यादिः, परिभोग पाच्छादन-प्रावअनुभूयत इत्युपभोगः, अशन-पान-गन्ध-माल्यादिः । रणालङ्कार-शयनासन-गृह-वाहनादिः, तयोः परि(त. वा, ७, २१, ६)। ४. उपेत्य भुज्यत इत्युप- माणमुपभोग-परिभोगपरिमाणम् । (स. सि. ७, भोगः अशनादिः । (त. श्लो.७-२१)। ५. उचित- २१) । २. उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः । उपेत्यात्मभोगसाधनावाप्त्यबन्ध्यहेतुः उपभोगः क्षायिकः ।। सात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः प्रशन-पान
< पुनः पूनरुपभज्यत इत्युपभोगः । (त. भा. गन्ध-माल्यादिः । परित्यज्य भज्यत इति परिभोगः। .व. २-४)। ६. उपभज्यत इत्यपभोगः प्रश- सकृद भक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग नादिः, उपशब्दस्य सकृदर्थत्वात्, सकृद् भुज्यत इत्युच्यते, प्राच्छादन-प्रावरणालंकार-शयनाशन-गृहइत्यर्थः । (श्रा. प्र. टी. २६) । ७. उपभोगोऽन्न- यान-वाहनादिः । उपभोगश्च परिभोगश्च उपभोगपान-वसनाद्यासेवनम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. परिभोगौ, उपभोग-परिभोगयोः परिमाणम् उपभोग६-२६) । ८. विषयसम्पदि सत्यां तथोत्तग्गुणप्रक- परिभोगपरिमाणम् । (त. वा. ७, २१, ६-१०)। र्षात् तदनुभव उपभोगः, पुनः पुनरुपभोगाद् वा ३. गन्ध-माल्यान्न-पानादिरुपभोग उपेत्य यः। भोगोवस्त्र-पात्रादिरुपभोगः । (त. भा. सिद्ध. व. २-४)। ऽन्यः परिभोगो यः परित्यज्यासनादिकः ॥ परिमाणं ६. उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यत इत्युपभोगः। (चा. तयोर्यत्र यथाशक्ति यथायथम् । उपभोग-परीभोगसा. पृ. १२) । १०. वाहनाशन-पल्यङ्क-स्त्री-वस्त्रा- परिमाणवतं हि तत् ॥ (ह. पु. ५८, १५५-५६)। भरणादयः । भुज्यन्तेऽनेकथा यस्मादुपभोगाय ते ४. उपेत्य भुज्यत इत्युपभोगः अशनादिः । परित्यज्य मताः ॥ (सुभा. सं. ८१४) । ११. उपभोगो य भुज्यत इति परिभोगः, पुनः पुनर्भुज्यते इत्यर्थः, स पुणो पुण उवभुज्जइ भवण-विलयाई । (कर्मवि. ग. वस्त्रादिः । परिमाणशब्दः प्रत्येकमुभाम्यां सम्बन्ध१६५, पृ. ६७)। १२. स उपभोगो भण्यते xxx नीयः । (त. श्लो.७-२१)। ५. उपेत्यात्मसात्कृत्य यः पुनः पुनः सेव्यो भूयोभूयः सेव्यते, सेवित्यापि भुज्यत इत्युपभोगः, अशन-पान-गन्ध-माल्यादिः । पूनः सेव्यते इत्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. ५-१४)। सकृद भुक्त्वा पुनरपि भुज्यत इति परिभोगः, १३. उवभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ वत्थ-निलया आच्छादन-प्रावरणालङ्कार-शयनाशन-गृह-यान- वाहइति । (प्रश्नव्या. वृ. पृ. २२०)। १४. पुनः पुनर्भु- नादिः। तयोः परिमाणमुपभोग-परिभोगपरिमाज्यते इत्युपभोगः। (पंचसं. मलय. वृ. ३-३, पृ. णम् । (चा. सा. पृ. १२) । ६. प्रशन१०६; षष्ठ क. मलय. वृ. ६, पृ. १२७; धर्मसं. पान - गन्धमाल्य - ताम्बूलादिकमुपभोगः कथ्यते । मलय. वृ. ६२३, शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, प्राच्छादन-प्रावरण-भूषण-शय्यासन-गृह-यान-वाहन
ल. ३५
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उपभोग - परिभोगव्रत ]
वनितादिकः परिभोग उच्यते । उपभोगश्च परिभोगश्च उपभोग- परिभोगो, तयोः परिमाणम् उपभोगपरिभोगपरिमाणम् । भोगोपभोग- परिमाणमिति च क्वचित् पाठो वर्तते । तत्र अशनादिकं यत्सकृद् भुज्यते स भोगः, वस्त्र वनितादिकं यत्पुनः पुनर्भुज्यते स उपभोगः तयोः परिमाणं भोगो
भोगपरिमाणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२१) । १ अन्न पानादि उपभोग और वस्त्र अलंकारादि परिभोग, इन दोनों का परिमाण करने को उपभोगपरिभोगपरिमाण कहते हैं । उपभोग- परिभोगव्रत - उपभोग-परिभोगव्रतं नाम प्रशन-पान खाद्य-स्वाद्य गन्ध-माल्यादीनां लंकार-शयनाशन-गृह-यान वाह्नादीनां बहुसावद्यानां चवर्जनम्, अल्पसावद्यानामपि परिमाणकरणमिति । ( त. भा. ७-१६) ।
प्रावरणा
अन्न, पान, खाद्य, स्वाद्य व गन्ध-माला श्रादि ( उपभोग ) तथा वस्त्र, अलङ्कार, शयन, श्रासन, गृह, यान और वाहन आदि (परिभोग); इनमें बहुत पापजनक वस्तुनों का सर्वथा परित्याग करना तथा अल्प सावद्य वाली वस्तुनों का प्रमाण करना, इसका नाम उपभोग- परिभोगव्रत है । उपभोग- परिभोगानर्थक्य - १. यावताऽर्थेनोपभोग- परिभोगौ सोऽर्थस्ततोपन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् । ( स. सि. ७-३२; त. वा. ७, ३२, ६) । २. यावतार्थेनोपभोग - परिभोगस्यार्थस्ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् । (त. इलो. ७-३२ ) । ३. न विद्यतेऽर्थः प्रयोजनं ययोस्तौ अनर्थको अनर्थ कयोर्भावः कर्म वा श्रानर्थक्यम्, उपभोग- परिभोगयोरानर्थक्यम् उपभोग - परिभोगानर्थक्यम् अधिकमूल्यं दत्त्वा उपभोगपरिभोगग्रहणमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - ३२ ) । ४. श्रानर्थक्यं तयोरेव ( उपभोग - परिभोगयोः) स्यादसंभविनोर्द्वयोः । अनात्मोचितसंख्याया: करणादपि दूषकम् ।। (लाटीसं. ६-१४८ ) ।
१ जितनी उपभोग - परिभोग वस्तुनों से प्रयोजन की सिद्धि होती है उतने का नाम अर्थ है, उससे अधिक उपभोग - परिभोग के संग्रह को उपभोगपरिभोगानर्थक्य कहा जाता है । यह अनर्थदण्डव्रत का एक प्रतिचार है । उपभोगाधिकत्व - देखो उपभोग- परिभोगानर्थक्य । उपभोगस्य, उपलक्षणत्वाद् भोगस्य च उक्तनिर्वच
[ उपमान नस्याधिकत्वम् प्रतिरिक्तता उपभोगाधिकत्वम् । (ध. बि. मु. वृ. ३-३० ) ।
भोग और उपभोग सामग्री का श्रावश्यकता से अधिक रखना, इसका नाम उपभोगाधिक्य है । यहां उपभोग शब्द भोग का उपलक्षण रहा है । उपभोगान्तराय - १. स्त्री-वस्त्र- शयनासन भाजनादिक उपभोग:, पुनः पुनरुपभुज्यते हि सः, पौनःपुन्यं चोपशब्दार्थः । स सम्भवन्नपि यस्य कर्मण उदयान्न परिभुज्यते तत्कर्मोपभोगान्तरायाख्यम् । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - १४) । २. उपभोगविग्घयरं उवभोगंतराइयं । ( धव. पु. १५, पृ. १४ ) । ३. मणुयत्ते विहु पत्ते लद्धे विहु भोगसाहणे विभवे । भुत्तुं नवरि न सक्कइ विरइविहूणो वि जस्सुदये । ( कर्मवि. ग. १६३, पृ. ६६ ) । ४. पुनः पुनर्भुज्यत इत्युपभोगः, शयन- वसन- वनिता भूषणादिस्तमुपभोगं विद्यमानमनुपहत ङ्गेऽपि यदुदयादुप भोक्तुं न शक्नोति तदुपभोगान्तरायम् । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ५१ ) । ५. यदुदयाद् विद्यमानमपि वस्त्रालङ्कारादि नोपभुंक्ते तत् उपभोगान्तरायम् । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ५१) । १ जिस कर्म के उदय से जीव विद्यमान भी उपभोगसामग्री-स्त्री, वस्त्र व शय्या श्रादि--का उपभोग न कर सके उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं ।
२७४, जैन- लक्षणावली
उपमान - १. उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात्साध्यसाधनम् । ( लघीय. ३- १६, पृ. ४८८ न्यायवि. ३ - ८५ ) । २. यथा गौस्तथा गवयः केवलं सास्नारहितः इत्युपमानम् XXX। (त. वा. १,२०, १५ ) । ३. उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । ( दशवं. हरि वृ. १-५२ ) । ४. प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम् । (सिद्धिवि. वृ. ३, ७, पृ. १८४, पं. २० ) । ५. प्रसिद्धेन गवादिना, प्रसिद्धं वा यत्साधर्म्य तस्मात् साध्यस्य संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानस्य साधनं प्रमातृ- प्रमेयाभ्यामन्यः कारणकलापः उपमानं प्रमाणम् । (सिद्धिवि. टी. ३-७ पृ. १८५, पं. २१-२३) ।
१ प्रसिद्ध अर्थ की समानता से साध्य के सिद्ध करने को उमान कहते हैं । ३ जिसके द्वारा दाष्टन्तिरूप पदार्थ से समानता जानी जाती है उसे उपमान
कहते हैं ।
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उपमालोक ]
उपमालोक - तिष्णिसदतेयालघणरज्जुपमाणो उबमालोत्रो णाम । ( धव. पु. ४, पृ. १८५ ) । तीन सौ तेतालीस (३४३) घनराज प्रमाण उपमालोक माना जाता है ।
उपमासत्य - १. ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोमादीया ।। (मूला. ५ - ११६ ) । २. पल्योपमसागरोपमादिकमुपमासत्यम् । (भ. श्री. विजयो. टी. ११९३) । ३. प्रसिद्धार्थं सादृश्यमुपमा, तदाश्रितं वचः उपमासत्यम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. २२४) । ३ प्रसिद्ध अर्थ की समानता के श्राश्रय से जो वचन कहा जाता है, उसे उपमासत्य कहते हैं । जैसेपल्योपम - सागरोपम इत्यादि ।
२७५, जैन-लक्षणावली
उपमासत्या भाषा — उवमासच्चा सा खलु, एएसु सदुवमाण घडिया जा । णासंभविधम्मग्गहदुट्ठा देसाइगहणा || ( भाषार. ३५ ) ।
जो भाषा समीचीन उपमा से घटित होकर असम्भव धर्मों के ग्रहण से - जैसे चन्द्रमुखी कहने पर मुख में असम्भव कलंकितत्व प्रादि- दूषित न हो, वह उपमासत्या भाषा कही जाती है । उपमित- उमा [विणा ] जं ears घेत्तुं तं उवमियं भवति । ( अनुयो. चू. पृ. ५७) ।
कालप्पमाणं
ण
जिस कालप्रमाण को उपमा के बिना ग्रहण न कर सके उसे उपमित कहते हैं । उपयुक्त नोश्रागमभावमंगल - श्रागममन्तरेणार्थीपयुक्त उपयुक्तः । (धव. पु. १, पृ. २६) । श्रागम के बिना जो मंगलविषयक उपयोग से सहित हो, उसे उपयुक्त नोश्रागमभावमंगल कहते हैं । उपयोग १. XX X उवप्रोगो णाण दंसणं भणिदो | ( प्रव. सा. २ - ६२ ) । २. XXX उवलोगो णाण-दंसणं होई । (नि. सा. १०) । ३. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग: । ( स. सि. २ - ८ ) ; यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्तिप्रति व्याप्रियते तन्निमित्त श्रात्मनः परिणाम: (प्र. मी. परिणामविशेषः) उपयोगः । ( स. सि. २- १८; प्रमाणमी. १, १, २३) । ४. उपयोगः प्रणिधानमा योगस्तद्भावः परिणाम इत्यर्थः । ( त. भा. २ - १६) । ५. जो सविसयवावारो सो उवजोगो स चेगकालम्मि । एगेण चेव तम्हा उवगिदि सव्वो । (विशेषा. ३५६५ ) । ६. बा
उपयोग
ह्याभ्यन्तरतुद्वयसन्निधाने यथासम्भवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । (त. वा. २, ८, २१ ) ; तन्निमित्त: ( लब्धिनिमित्तः) परिणामविशेष उपयोग: । तदुक्तं निमित्तं प्रतीत्य उत्पद्यमानः आत्मनः परिणाम उपयोग इत्युपदिश्यते । (त. वा. २, १८, २) । ७. उपयोगी ज्ञानादिव्यापारः स्पर्शादिविषयः । ( त. भा. हरि. वृ. २- १० ) । ८. उपयोजनमुपयोगो विवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः । ( नन्दी. हरि. वृ. ६२ ) । ६. ज्ञेय दृश्यस्वभावेषु परिणामः स्वशक्तितः । उपयोगश्च तद्रूपं XXX ( पद्मच. १०५ - १४६ ) । १०. तदुक्तनिमित्तं ( ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषरूपां लब्धि ) प्रतीत्योत्पद्यमानः श्रात्मन: परिणाम उपयोगः । ( धव. पु. १, पृ. २३६); स्व-परग्रहणपरिणामः उपयोगः । ( धव. पु. २, पृ. ४१३) । ११. तत्र क्षयोद्भवो भावः क्षयोपशमजश्च यः । तद्व्यक्तिव्यापिसामान्यमुपयोगस्य लक्षणम् । (त. श्लो. २ - ८ ) । १२. श्रर्थग्रहणव्यापार उपयोग: । ( प्रमाणप. पू. ६१; लघीय. श्रभय. बृ. १-५, पृ. १५)। १३. युज्यन्त इति योगाः, योजनानि वा जीवव्यापाररूपाणि योगा अभिधीयन्ते । उपयुज्यन्त इति उपयोगाः जीवविज्ञानरूपाः । (पंचसं. स्व. वृ. १-३ ) । १४. उपयोगः उपलम्भः ज्ञानदर्शन समाधि ज्ञान-दर्शनयोः सम्यक् स्वविषयसीमानुल्लंघनेन धारणं समाधिरुच्यते, अथवा युज्जनं योगः ज्ञान-दर्शनयोः प्रवर्तनं विषयावधानाभिमुखता, सामीप्यवर्ती योगः उपयोगो नित्यसम्बन्ध इत्यर्थः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २-८ ) । १५. उपयोगो हि तावदात्मनः स्वभावश्चैतन्यानुविधायिपरिणामत्वात् । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २-६३) । १६. श्रात्मनः परिणामो यः उपयोगः स कथ्यते । (त. सा. २ - ४६ ) । १७. आत्मनश्चैतन्यानुविधायिपरिणाम उपयोगः । ( पंचा. का. अमृत व जय. वृ. ४० ) । १८. तन्निमित्त: आत्मन: परिणाम उपयोगः, कारणधर्मस्य कार्ये दर्शनात् । (मूला. वृ. १ - १६ ) । १६. उपयोगस्तु रूपादिविषयग्रहणव्यापार: । ( प्र. क. मा. २- ५, पृ. २३१ ) । २० वत्थुणिमित्तं भावो जादो जीवस्स जो दु उवजोगो । (गो. जी. ६७२) । २१. आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । (नि. सा. वृ. १-१०) । २२. उपयोजनं उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यतेऽसाविति श्रनेनेति वा उप
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वस्तु
उपयोगवर्गणा] २७६, जैम-लक्षणावली
[उपशम योगो जीवस्वतत्त्वभूतो बोधः । (संग्रहणी दे. व. उपयोगशुद्धि-१. पादोद्धार निक्षेपदेशजीवपरिह२७३)। २३. जन्तो वो हि वस्त्वर्थ उपयोगःX रणावहितचेतस्ता उपयोगशुद्धिः। (भ. प्रा. विजयो. xx। (भावसं. वाम. ४०)। २४. उपयोगः टी. ११६१)। २. उपयोगशुद्धिः पादोद्धारनिक्षेपविवक्षितकर्मणि मनसोऽभिनिवेशः। (प्राव. नि. मलय. देशतिप्राणिपरिहरणप्रणिधानपरायणत्वम् । (भ. ५. ६४६, पृ. ५२६) । २५. उपयोजनमुपयोगः, प्रा. मूला. टी. ११६१) । यद्वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवो- चलते समय पैरों को उठाते और रखते हए तशऽनेनेत्यपयोगः,xxxबोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो वर्ती जीवों की रक्षा में चित्त की सावधानता को व्यापारः प्रज्ञप्तः। (प्रज्ञाप. मलय. व. २६-३१२, पृ. उपयोगशुद्धि कहते हैं। ५२६, पंचसं. मलय. वृ. १-३; शतक. मल. हेम. उपयोगेन्द्रिय-देखो उपयोग। उपयोगेन्द्रियं यः व. २, पृ. ३)। २६. उपयोगः स्व-स्वविषये लब्ध्य- स्वविषये ज्ञानव्यापारः। (ललितवि. मु. पं. पृ. नुसारेणात्मनः परिच्छेदव्यापारः । (जीवाजी. मलय. ३६)। वृ. १-१३, पृ. १६) । २७. उपयोजनमुपयोगः अपने विषयभूत पदार्थ को जानने के लिए जो ज्ञान बोधरूपो जीवव्यापारः। XXX उपयुज्र
का व्यापार होता है उसे उपयोग-इन्द्रिय कहते हैं। परिच्छेदं प्रति व्यापर्यते इत्युपयोगः, Xxx उप- उपवास-xxx उपवास: उपवसनम् XXX युज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति जीवोऽनेनेत्युपयोगः,X किं तत् ? चतुर्भक्त्युज्झनं चतसृणां भुक्तीनां भोज्याxxसर्वत्र जीवस्वतत्त्वभूतोऽवबोध एवोपयोगो नामशन-स्वाद्य-खाद्य पेयद्रव्याणां भुक्तिक्रियाणां च मन्तव्यः । (षडशीति मलय. वृ. १-२, पृ. १२२)। त्यागः । (सा. ध. स्वो. टी. ५-३४)। २८. उपयुज्यते वस्तु प्रति प्रर्यते यः वस्तुस्वरूपपरि- प्रशन; स्वाद्य, खाद्य और पेय रूप चार प्रकार के ज्ञानार्थमित्युपयोगःXxx, अथवा आत्मनः उप आहार के साथ भोजन क्रिया का भी परित्याग समीपे योजनमुपयोगxxxकर्मक्षयनिमित्तबशादु- करना, इसका नाम उपवास है। त्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम इत्यर्थः । (त. उपशम-१. अात्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशावृत्ति श्रुत. २-८)।
दनुभूतिरुपशमः । (स. सि. २-१; पारा. सा. ३ बाह्य और अभ्यन्तर कारण के वश जो चेतनता टी. ४, पृ. १२)। २. कर्मणोऽनुभूतस्ववीर्यवृत्तिका अनसरण करने वाला परिणाम (ज्ञान-दर्शन) तोपशमोऽधःप्रापितपवत । यथा सकलुषस्याम्भस: उत्पन्न होता है उसे उपयोग कहा जाता है।xx कतकादिद्रव्यसम्पत् िअधःप्रापितमलद्रव्यस्य तत्कृX जिसकी समीपता में प्रात्मा द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति तकालुष्याभावात् प्रसाद उपलभ्यते तथा कर्मणः के प्रति व्याप्त होता है उसके निमित्त से होने वाले कारणवशाददभूतस्ववीर्य वृत्तिता पात्मनो विशुद्धिमात्मा के परिणाम को उपयोग (भावेन्द्रिय) रुपशमः । (त. वा. २, १, १)। ३. उदय प्रभावो कहते हैं।
उवसमो । (अनुयो. चू. पृ. ४३)। ४. उपशान्तिउपयोगवर्गरणा-उवजोगो णाम कोहादिकसाएहिं रुपशमः । (श्रा. प्र. टी. ५३)। ५. उपशमनमुपसह जीवस्स संपजोगो, तस्स वग्गणाप्रो वियप्पा शमः। कर्मणोऽनुदयलक्षणावस्था भस्मपटलावच्छभेदा त्ति एयट्ठो। जहण्णोवजोगट्टाणप्पहुडि जाव न्नाग्निवत् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. २-१)। उक्कस्सोवजोगट्ठाणे ति णिरंतरमवट्ठिदाणं तब्विय- ६. अनुभूतस्वसामर्थ्य वृत्तितोपशमो मतः । कर्मणां प्पाणमुवजोगवग्गणाववएसो त्ति वुत्तं होइ । (जयष. पुंसि तोयादावधःप्रापितपङ्कवत् ।। (त. श्लो. २, -कसा. पा. पृ. ५७६, टि. १)।
१, २) । ७. (कर्मणां फलदानसमर्थतया) अनुद्भूक्रोधादि कषायों के साथ जीव का सम्प्रयोग होने तिरुपशमः । (पंचा. का. अमृत. व. ५६) । ८. उपको उपयोग कहते है। इस उपयोग के जघन्य शमः स्वफलदानसामर्थ्यानुदभवः । (अन. घ. स्वो. स्थान से लेकर उत्कृष्ट स्थान तक निरन्तर जितने टी. २-४७) । ६. तत्रोपशमो भस्मच्छन्नाग्नेरिवाभी विकल्प या भेद हैं उन्हें उपयोग वर्गणा नुद्रेकावस्था, प्रवेशतोऽपि उदयाभाव इति यावत् । कहते हैं।
स चेत्थंभूत उपशमः सर्वोपशमः उच्यते । सब
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उपशमक]
२७७, जैन-लक्षणावली [उपशमनिष्पन्नभाव मोहनीयस्यैव कर्मणो न शेषस्य, 'सव्ववसमणा मोह- बादर-सूक्ष्मसाम्परायलक्षणगुणस्थानकद्वयवर्ती जन्तुस्सेव उ' इति वचनप्रामाण्यात् । (पंचसं. मलय. व. रुपशमक उच्यते । (षडशीति दे. स्वो. व. ७०, पृ. २-३, पृ. ४५)। १०. यश्च गुणवत्पुरुषप्रज्ञापनाह- १९६-९७)। त्वेन जिज्ञासादिगुणयोगान् मोहापकर्षप्रयुक्तरागद्वेष- १ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय शक्तिप्रतिघातलक्षण उपशमः । (धर्मसं. मान. स्वो. ये तीन गुणस्थानवी जीव उपशमक कहलाते हैं। वृ. १, १८, १५) । ११. उपशमश्च अनुदीर्णस्य २ अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसाम्परायविष्कम्भितोदयत्वम् । (षडशी. दे. स्वो. व. ६४)। नौवें व दसवें गुणस्थानवर्ती जीव-उपशमक कहे १२. कर्मणोऽनुदयस्वरूपः उपशमः कथ्यते । (त. जाते है। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपचार से वृत्ति श्रुत. २-१)।
उपशमक हैं। १ प्रात्मा में कारणवश कर्म के फल देने की शक्ति उपशमकश्रेणी-यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नाके प्रगट न होने को उपशम कहते हैं।
त्माऽऽरोहति सोपशमकश्रेणी। (त. वा. ६, १, उपशमक- १. अपूव्वकरणपविट्ठमुद्धिसंजदेसु उव- १८)। समा खवा ।। अणियट्टिबादरसापराइयपविट्ठसुद्धिसंज- जहां (अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय देसु अत्थि उवसमा खवा ।। सुहुमसांपराइयपविट्ठ- और उपशान्तमोह गुणस्थान) जीव मोहनीयसुद्धिसंजदेसु अत्थि उवसमा खवा । (षट्खं. १, १, चारित्रमोहनीय-को उपशान्त करता हुमा प्रारो१६-१८) । २. अपूर्वकरणपरिणाम उपशमकः क्षप- हण करता है उसे उपशमकश्रेणी कहते हैं । कश्चोपचारात् ॥xxxतत्र कर्मप्रकृतीनां नोप
उपशमचरण-चारित्तमोहणीए उवसमदो होदि शमो नापि क्षयः, किन्तु पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं
उवसमं चरणं । (भावत्रि. १०)। वाऽपेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते ।
चारित्रमोहनीय के उपशम से जो चारित्र उत्पन्न अनिवृत्तिपरिणामवशात् स्थूलभावेनोपशमकः क्षप
होता है, उसे उपशमचरण कहते हैं। कश्चानिवृत्तिवादरसाम्परायौ ॥ पूर्वोक्तोऽनिवृत्ति
उपशमनाकरण-१. उदयोदीरण-निधत्ति-निकापरिणामः, तद्वशात् कर्मप्रकृतीनां स्थूलभावेनोपशम
चनाकरणानां यदयोग्यत्वे व्यवस्थानं तदुपशमकः क्षपकश्चानिवृत्तिबादरसाम्परायाविति भाष्येते ।
नाकरणम् । (पंचसं. स्वो. वृ. १, पृ. १०६)। सूक्ष्मभावेनोपशमात् क्षपणाच्च सूक्ष्मसाम्परायो ।
२. उपशमना सर्वकरणायोग्यत्वसम्पादनम् । (षडसाम्परायः कषायः, स यत्र सूक्ष्मभावेनोपशान्ति क्षयं
शोति हरि. व. ११, पृ. १३१) । ३. कर्मपुद्गलाच प्रापद्यते तो सूक्ष्मसाम्परायो वेदितव्यौ। (त.
नामुदयोदीरणा- नित्ति - निकाचनाकरणायोग्यत्वेन वा. ६, १, १९-२१)। ३. अपूर्वकरणानामन्तः
व्यवस्थापनमुपशमना Ixxx उपशम्यते उदयोप्रविष्टशुद्धयः क्षपकोपशमसंयताः, सर्वे संभूय एको
दीरणा-निधत्ति-निकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थागुणः । (धव. पु. १, पृ. १८१); साम्परायाः
प्यते कम यया सोपशमना। (कर्मप्र. मलय व. २, कषायाः बादराः स्थूलाः, बादराश्च ते साम्परायाश्च
पृ. १७-१८)। बादरसाम्परायाः, अनिवृत्तयश्च ते बादरसाम्परायाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्पायाः, तेषु प्रविष्टाः शुद्धि
१ कर्मों के उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचित
करण के अयोग्य करने को उपशमनाकरण कहते हैं। र्येषां संयतानां तेऽनिवृत्तिबादरसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयताः, तेष सन्ति उपशमका: क्षपकाश्च । सर्वे ते उपशमनिष्पन्नभाव-उपशमनिष्पन्नस्तु क्रोधाएको गुणः अनिवृत्तिरिति । (धव. पु. १, पृ. धुदयाभावफलरूपो जीवस्य परमशान्तावस्थालक्षणः १८४); सूक्ष्मश्चासो साम्परायश्च सूक्ष्मसाम्परायः। परिणामविशेषः । (पंचसं. मलय. व. २-३, पृ. तं प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां ते सूक्ष्मसाम्पराय- ४५) । प्रविष्टशुद्धिसयताः। तेषु सन्ति उपशमकाः क्षप- क्रोधादि कषायों के उदय का प्रभाव होने से जीव काश्च । सर्व त एको गुणः, सूक्ष्मसाम्परायत्वं प्रत्य- के जो परम शान्त अवस्थारूप परिणामविशेष होता भदात् । (धव. पु. १, पृ. १८७)। ४. अनिवृत्ति- है, उसे उपचमनिष्पन्नभाव कहते हैं।
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उपशमसम्यक्त्व]
२७८, जैन-लक्षणावली
[उपशान्तकषायप्रतिपात
उपशमसम्यक्त्व-१. दसणमोहणीयस्स उव- वि दादं कमेण णो सक्कं । उवसंतं च णिधत्तं णिसमेण उवसमसम्मत्तं होदि। (धव. पु. ७, पृ. काचिदं चावि जं कम्मं ।। (जं कम्म उदए दादं णो १०७)। २. सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उव- सक्कं तमुवसंतं ।) (धव. पु. १५, पृ. २७६ उ.; समं सम्म । (कातिके. ३०८)। ३. सत्तण्हं उवसमदो गो. क. ४४०)। २. यत्कर्मोदयावल्यां निक्षेप्तुमशउवसमसम्मोxxx1(गो. जी. २६); दंसणमोह- क्यं तदुपशान्तम् । (गो. क. जी. प्र. टी. ४४०)। वसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसहहणं। उवसमसम्मत्त- २ जो कर्म उदयावली में न दिया जा सके उसे उपमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं । (गो. जी. ६५०; शान्त कहते हैं। भावत्रि. )। ४. कोहच उक्कं पढम अणंतबंधीणि उपशान्त कषाय-१. सर्वस्य (मोहस्य) उपशणामयं भणियं । सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तयं मात् क्षपणाच्च उपशान्त कषायः क्षीणकषायश्च । तिण्णि ॥ एएसि सत्तण्ह उवसमकरणेण उवसमं (त. वा. ६, १, २२)। २. उपशान्तः कषायो येषां भणियं । (भावसं. दे. २६६-६७)। ५. प्रशमय्य ते उपशान्तकषाया.।xxx उक्तं च-सकयाततो भव्यः कर्मप्रकृतिसप्तकम् । प्रान्तर्मुहुर्तकं पूर्व हलं जलं वा सरए सरवाणियं व णिम्मलयं । सयसम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ (अमित. श्रा. २-५१)। लोवसंतमोहो उवसंतकसायनो होदि ॥ (प्रा. पंचसं. ६. अनन्तानुवन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य चोद- १-२४; धव. पु. १, पृ. १८९ उद्.; गो. जी. ६१)। याभावलक्षणप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपंकतोयसमानं ३. अधो मले यथा नीते कतकेनाम्भोऽस्ति निर्मलम् । यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वम् । उपरिष्टात्तथा शान्तमोहो ध्यानेन मोहने ॥ (पंचसं. (गो. जी. जी. प्र. टी. ६५०)। ७. मिथ्यात्वमिश्र- अमित. १-४७) । ४. उपशान्ता उपशमिता विद्यसम्यक्त्वानन्तानुबन्धिक्रोध-मान-माया-लोभानां सप्ता- माना एव सन्त: संक्रमणोद्वर्तनादिकरणविपाकप्रदेशोनां प्रकृतीनामुपशमात् कतकफलयोगात् जलकर्दमो- दयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषायाः प्राग्निरूपितपशमवत् उपशमसम्यक्त्वम् । (कातिके. टी. ३०८)। शब्दार्था येन स उपशान्तकषायः। (पंचसं. मलय. ८. अस्त्युपशमसम्यक्त्वं दृङ्मोहोपशमाद्यथा। पुंसो- वृ. गा. १-१५; कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ७३)। ऽवस्थान्तराकारं नाकारं चिद्विकल्पके ॥ (पंचाध्यायी ५. परमोपशममूर्ति निजात्मस्वभावसंवित्तिबलेनोप२-३८०)।
शान्तमोहा एकादशगुणस्थानवतिनो भवन्ति । (बृ. १ दर्शनमोहनीय के उपशम से उत्पन्न होने वाले द्रव्यसं. टी. १३)। ६. जो उवसमइ कसाए मोहस्संसम्यक्त्व को-तत्त्वार्थश्रद्धान की-उपशमसम्यक्त्व बंधिपयडिबुहं च । उवसामग्रो त्ति भणियो खवयो कहते हैं।
णामं ण सो लहइ ।। (भावसं. दे. ६५५)। ७. उपशमसम्यग्दृष्टि-१. उवसमसम्माइट्ठी णाम xxx सूक्ष्मसाम्परायचरमसमयानन्तरोत्तरसमये कधं भवदि ।। उवसमियाए लद्धीए ।। (षट्खं. २, १, वीतरागविश द्धिपरिणामविज भितयथाख्यातचारित्रो७४-७५) । २. समीची दृष्टिः श्रद्धा यस्यासो सम्य- पयुक्तो यो जीव: स सकलोपशान्तमोहः सन्नुपशान्तग्दष्ट: ।xxxएदासि (अणताणुबधिच उक्कस्स कषायनामा भवति । सकल:-प्रकृतिस्थित्यनुभागदंसणमोहत्तयस्स च) सत्तण्हं पयडीणमुवसमेण उव- प्रदेशसंक्रमणोदीरणादिसमस्तक रणगोचरः, उपशान्तः समसम्माइट्ठी होइ । (धव. पु. १, पृ. १७१); दंस- -उदयायोग्यो मोहो यस्य स उपशान्तमोहः । (गो. णमोहणीयस्स उवसमेणेदस्स (उवसमसम्माइट्ठिस्स) जी. म. प्र. टी. ६१)। ८. साकल्येनोदयायोग्याः उप्पत्तिदसणादो। (धव. पु. ७, पृ. १०६)। कृताः कषाय-नोकषाया येनासाबुपशान्तकषायः। (गो. २ प्रौपशमिक लब्धि से-अनन्तानुबन्धी चार और जी. जी. प्र. टी. ६१) । दर्शनमोहनीय तीन, इन सात प्रकृतियों के उपशम १ सम्पूर्ण मोह कर्म का उपशम करने वाले ग्यारहवें से-जीव उपशमसम्यग्दृष्टी होता है।
गणस्थानवर्ती जीव को उपशान्तकषाय कहते हैं। उपशान्त-१. द्वाभ्यामाभ्यां (उदीर्ण बध्यमाना- उपशान्तकषायप्रतिपात-सो च उवसंतकसायभ्यां) व्यतिरिक्तः कर्मपुद्गलस्कन्धः उपशान्तः। स्स पडिवादो विहो भवक्खयणिबंधणो उवसामण(धव. पु. १२, पृ. ३०३); उदए संकम उदए चदुसु द्धाखयणिबंधणो चेदि ।xxxउवसंतद्धाए खएण
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उपशान्तमोह ]
पडवणं वत्तइस्सामो । तं जहा - उवसंत श्रद्धाखएण पदतो लोभे चैव पडिवददि, सुहुमसांपराइयगुणमगंतूण गुणंतरगमणाभावा । ( धव. पु. ६, पृ. ३१७-१८) ।
श्रायुकर्म के शेष रहने पर भी उपशामनाकाल के क्षय होने से जो उपशान्तकषाय गुणस्थान से नीचे सकषाय गुणस्थानों में गिरता है, उसके इस अधःपात को उपशान्तकषायप्रतिपात कहते हैं। यह उपशान्तकषाय का प्रतिपात उपशामनाद्धाक्षयनिबन्धन है । उपशान्तमोह- - XXX उवसंतेहि तु उवसंतो । ( शतक. भा. ६०, पृ. २१) । २. XXX उवसतेणं तु उवसंतो ॥१०॥ ( गु. गु. षट्, स्वो. वू. १७, पृ. ४५) । ३. ग्रथोपशान्तमोहः स्यान्मोहस्योपशमे सति । (योगशा. स्वो विव. १ - १६) । देखो उपशान्तकषाय ।
२७६, जैन- लक्षणावली
1
उपशान्ताद्धा - जम्हि काले मिच्छत्तमुवसंतभावेगच्छदि सो उवसमसम्मत्तकालो उवसंतद्धा त्ति भण्णदे | ( जयध. - क. पा. पृ. ६३०, टि. १) । जिस काल में मिथ्यात्व उपशान्त रूप में रहता है उस काल को उपशान्ताद्धा कहते हैं । उपशामना - ताओ चैव संजमासंजमलडीओ पडिवज्ज माणस्स पुव्वबद्धाणं कम्माणं चारितपडिबंधीण णुदयलवखणा उवसामणा । ( जयध. पत्र ८१५); उवसामणा नाम कम्माणमुदयादिपरिणामेहिं विणा उवसंतभावेणावठाणं । ( जयध. पत्र ८५६ ) । उदयादि श्रवस्थानों के बिना कर्मों का उपशान्त स्वरूप से अवस्थित रहना, इसका नाम उपशामना है। उपसम्पदा - १. उपसंपया आचार्यस्य ढौकनम् । (भ. श्री. विजयो. टी. २-६८ ) । २. उपसंपया श्राचार्यस्यात्मसमर्पणम् । (भ. प्रा. मूला. टी. २-६८) ।
२ आचार्य के पास जाकर उन्हें श्रात्मसमर्पण करने को उपसम्पदा कहते हैं।
उपस्थापना - देखो अनुपस्थान । १. पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । ( स. सि. 8-२२; त. इलो. 8, २२; त. सुखबो. वृ. ६- २२ ) । २. पुनर्दीक्षा प्रापण - मुपस्थापना | महाव्रतानां मूलोच्छेदं कृत्वा पुनर्दीक्षा प्रापणमुपस्थापनेत्याख्यायते । (त. वा. ६, २२, १०)। ३. उपस्थापनं पुनर्दीक्षणं पुनश्चरणं पुनर्व्रता
[ उपाध्याय
रोपणमित्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. ε- २२) । ४. अनवस्थाप्य पारञ्चिकप्रायश्चित्ते लिङ्ग क्षेत्र-कालतपः साधर्म्यादेकस्थीकृत्योक्ते, तत्र यथोक्तं तपो यावन्न कृतं तावन्न व्रतेषु लिङ्गे वा स्थाप्यते इत्यनवस्थाप्य तेनैव तपसाऽतिचारपारमञ्चति गच्छतीति पारञ्चिकः (सि. वृ. प्रतिचारपारमञ्चतीति पारञ्चिकः) पृषोदरादिपाठाच्च संस्कारः । तयोः पर्यन्ते व्रतेषूपस्थापनम्, पुनर्दीक्षणं पुनः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः, पुनश्चरणं चारित्रम्, पुनव्रं तारोपणमित्यनर्थान्तरम् । तत्रानवस्थाप्यस्य विषयः साधमिकान्यधार्मिकास्तेय हस्तताडनादिः, दुष्टगूढान्योन्यकरणादिः पाञ्चिकमिति । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. 8-२२) ।
महान् अपराध के होने पर व्रतों का मूलोच्छेद करके पुन: दीक्षा देने को उपस्थापना कहते हैं । उपादानकारणत्व - १. उपादानम् उत्तरस्य कार्यस्य सजातीयं कारणम् । ( न्यायवि. वि. १ - १३२ ) । २. तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न कार्यतानिरूपित स्वध्वंसत्वसम्बन्धावच्छिन्न कारणनाशालित्वं तदिति उपादानकारणत्वम् । ( प्रष्टस. वृ. १५, पृ. १६५) । २ जिसके विनष्ट होने पर विवक्षित कार्य उत्पन्न होता है तथा जो उस कार्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखता है वह उपादान कारण कहलाता है । उपादानत्व-कार्ये सकल स्वगतविशेषाधायकत्वं ह्युपादानत्वम् । (शास्त्रवा. टी. ४-८० ) । कार्य में अपनी समस्त विशेषता को समर्पित कर देना, यही उपादान कारण की उपादानता है उपाधिवचन-परिग्गहाज्जण संरक्खणाइनासत्ति
दुवणवाहिवयणं । ( अंगप. पू. २६२ ) । परिग्रह के अर्जन और सरक्षण प्रादि में प्रासक्ति के कारणभूत वचन का नाम उपाधिवचन है । उपाध्याय ( उवज्झाय)- -- १. रयणत्तयसंजुत्ता जिण कहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति । ( नि. सा. ७४) । २. बारसंगे [ गं] जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे । उवदेसइ सज्झायं तेणुवज्झाउ उच्चदि । (मूला. ७-१० ) । ३. घोरसंसार-भीमाडवीकाणणे तिक्खवियराल - णह पाव-पंचाणणे । णट्टमग्गाण जीवाण पहदेसया वंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया || (प्रा. पंच. गु. भ. ४, पू. २६५ ) । ४. अण्णाणघोरति
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उपाध्याय ] २८०, जैन-लक्षणावली
[उपायविचय मिरे दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोयरा द्रव्य-पञ्चास्तिकाय-सप्ततत्त्व-नवपदार्थेषु मध्ये स्वउवज्झया वरमदि देति । (ति. प. १-४)। ५. शुद्धात्मद्रव्यं स्वशुद्धजीवास्तिकायं स्वशुद्धात्मतत्त्वं मोक्षार्थ शास्त्रमुपेत्य तस्मादधीयत इत्युपाध्यायः । स्वशुद्धात्मपदार्थमेवोपादेयं शेष हेयम्, तथैवोत्तम(स. सि. ९-२४)। ६. बारसंगो जिणक्खाग्रो क्षमादिधर्म च नित्यमुपदिशति योऽसौ xxx स सज्झायो कहियो बुहेहिं । तं उवइसंति जम्हा उव- चेत्थंभूतो(?) प्रात्मा उपाध्यायः । (बृ. द्रव्यसं. टी. झाया तेण वुच्चंति । (प्राव. नि. ९९७, . ४४६)। ५३)। १६. परसमय-तिमिरदलणे परमागमदेसए ७. प्राचारगोचरविनयं स्वाध्यायं वा प्राचार्यादनु उवज्झाए। परमगुणरयणणिवहे परमागमभाविदे तस्मादुपाधीयत इत्युपाध्यायः संग्रहोपग्रहानुग्रहार्थं वीरे ।। (जं. दी. प. १-४) । २०. प्राचार्यलब्धानुचोपाधीयते संग्रहादीन् वास्योपाध्येतीत्यूपाध्यायः । ज्ञाः साधवः उप समीपेऽधीयतेऽस्मादित्यूपाध्यायः । (त. भा. ६-२४)। ८. उपेत्याधीयतेऽस्मात् साधवः (योगशा. स्वो. विव. ४-९०)। २१. अनेकनयसंसूत्रमित्युपाध्यायः । (प्राव. नि. हरि. व. ९६५, पृ. कीर्णशास्त्रार्थव्या कृतिक्षमः । पंचाचाररतो ज्ञेय ४४६); तं (अर्हत्प्रणीतं द्वादशागरूपं) स्वाध्याय- उपाध्यायः समाहितः ।। (नी. सा. १६) । २२. उपमुपदिशन्ति वाचनारूपेण यस्मात् कारणादुपाध्याया- देष्टार उत्कृष्टा उदात्ता उन्नतिप्रदाः। उपाधिस्तेनोच्यन्ते, उपेत्याधीयतेऽस्मादित्यन्वर्थोपपत्तेः । रहिता ध्येया उपाध्याया उकारतः ॥ (प्रात्मप्र. (प्राव. नि. हरि. व. ९९७, पृ. ४४६)। ६. उपेत्य १११) । २३. प्राचारगोचरविषयं स्वाध्यायमाचार्ययस्मादधीयते इत्युपाध्यायः। विनयेनोपेत्य यस्माद् . लब्धानुज्ञाः साघव उप समीपेऽधीयन्तेऽस्मात्स उपाव्रत-शील-भावनाधिष्ठानादागमं श्रुताख्यमधीयते स घ्यायः । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-४६, पृ. १२९)। उपाध्यायः । (त. वा. ६ २४, ४) । १०. ससमय- २४. एकादशाङ्गसत्पूर्वचतुर्दशश्रुतं पठन् । व्याकुर्वन् परसमयविऊ अणेगसत्थत्थधारणसमत्था। ते तुझ पाठयन्नन्यानुपाध्यायो गुणाग्रणीः। (धर्मसं. श्रा. उवज्झाया पुत्त सया मंगलं देंतु। (पउमच. ८६, १०-११७)। २५. मोक्षार्थम् उपेत्याधीयते शास्त्रं २१)। ११. चतुर्दशविद्यास्थान व्याख्यातार उपाध्या- तस्मादित्युपाध्यायः । (त. वृ. श्रुत. ६-२४; कातियास्तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा प्राचार्यस्यो- के. टी. ४५७)। २६. उपाध्यायः समाधीयान् वादी क्ताशेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानग्रहादिगुणहीनाः। स्याद्वादकोविदः । वाग्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्ता"चोद्दसपुश्वमहोयहिमहिगम्म सिवत्थियो सिवत्थी- गमपारगः ॥ कवि: प्रत्यग्रसूत्राणां शब्दार्थः सिद्धणं। सीलंघराण वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो॥" साधनात् । गमकोऽर्थस्य माघुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्म(धव. पु. १, पृ. ५०)। १२. उपेत्य तस्मादधीयते नाम् । उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारइत्युपाध्यायः । (त. श्लो. ६-२४)। १३. उपाध्या- णम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद् गुरुः ।। यः अध्यापकः । (प्राचारा. शी. वृ. सू. २७६, पृ. (पंचाध्यायी २, ६५६-६१; लाटीसं. ४, १८१८-३)। ३२२)। १४. रत्नत्रयेषुद्यता जिनागमाथं सम्यगूप- १जो महर्षि रत्नत्रय से सम्पन्न होकर जिनप्ररूपित दिशन्ति ये ते उपाध्यायाः उपेत्य विनयेन ढोकित्वा- पदार्थों का निरीहवृत्ति से उपदेश किया करते हैं ऽधीयते श्रुतमस्मादित्युपाध्यायः । (भ. प्रा. विजयो. उन्हें उपाध्याय कहते हैं। टी. ४६)। १५. विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रत-शील- उपायश्चिय-देखो अपाय विचय। १. उपायभावनाधिष्ठानादागमं श्रुताभिधानमधीयते स उपा- विचयं तासां पुण्यानामात्मसाक्रिया। उपायः स ध्यायः । (चा. सा.प.६६)। १६. येषां तप:श्री. कथं मे स्यादिति संकल्पसन्ततिः ॥ (ह. पु. ५६, रनघा शरीरे विवेचका चेतसि तत्त्वबुद्धिः । सरस्वती ४१)। २. उपायविचयं प्रशस्तमनोवाक्कायप्रवृत्तितिष्ठति वक्त्रपझै पुनन्तु तेऽध्यापकपुङ्गवा वः ॥ विशेषोऽवश्यः कथं मे स्यादिति संकल्पो द्वितीयं (अमित. श्रा. १-४) । १७. जो रयणत्तयजुत्तो धर्म्यम् । (चा. सा. पृ. ७७)। ३. उपायविचयं णिच्च धम्मोवदेसणे हिरदो। सो उवज्झायो अप्पा प्रशस्तमनोवाक्कायप्रवृत्तिविशेषोऽवश्यः कथं मे स्याजदिवरवसहो णमो तस्स ॥ (द्रव्यसं. ५३)। १५. दिति सकल्पोऽध्यवसानं वा, दर्शनमोहोदयाच्चिन्तायोऽसौ बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानेन युक्तः षड्- दिकारणवशाज्जावाः सम्यग्द
दिकारणवशाज्जीवा: सम्यग्दर्शनादिभ्यः पराङमुखा.
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उपार्घपुद्गलपरावर्त] २८१, जैन-लक्षणावली
[उपासकदशा इति चिन्तनमुपायविचयं द्वितीयं धर्म्यम् । (कार्तिके. शेष साधुओं को अपने दुश्चरित्र से कलंकित मत टी. ४८२)।
करो तथा अपने निर्मल अनुष्ठान में मोह को प्राप्त १ पुण्यक्रियाओं का-मन, वचन व काय की शुभ न होओ, इत्यादि प्रकार से शिक्षा देने का नाम प्रवृत्तियों का-प्रात्मसात् करना, इसका नाम उपाय उपालम्भ है। है । वह उपाय मुझे किस प्रकार से प्राप्त हो, इस उपासकदशा-१. से कि तं उवासगदसायो ? प्रकार के चिन्तन को उपायविचय (धर्म्यध्यान का उवासगदसासू णं समणोवासयाणं नगराई उज्जाणाई एक भेद) कहते हैं। ३ जो लोग दर्शनमोह के उदय चेइयाई वणसंडाइं समोस रणाइं रायाणो अम्मासे सन्मार्ग से पराङ्मुख हो रहे हैं उन्हें सन्मार्ग की पियरो धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइन-परप्राप्ति कैसे हो, इस प्रकार के चिन्तन को उपाय- लोइया इढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ विचय कहा जाता है।
परिपागा सूअपरिग्गहा तवोवहाणाई सीलउपार्धपुद्गलपरावर्त -१. उपार्धपूद्गलपरावर्तस्तु व्वय-गुण-वेरमण पच्चक्खाण-पोसहोववासपडिवज्जणकिंचिन्यूनोऽर्धपुद्गलपरावर्त इति। (श्रा. प्र. टी. या पडिमानो उवसग्गा संलेहणायो भत्तपच्चक्खा७२) । २. ऊणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स उवड्ढ- णाई पायोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चापोग्गल मिदि सण्णा। उपशब्दस्य हीनार्थवाचिनो याईयो पूणबोहिलाभा अंतकिरियानो अ प्राविगृहणात् । (जयध. २, ३६१)।
ज्जति । उवासगदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा १ कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनकाल को उपाध- अणुप्रोगदारा संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेपुद्गलपरावर्त कहते हैं।
ज्जाम्रो निज्जुत्तीनो संखेज्जाबो संगहणीमो संखेउपार्धावमौदर्य-उपार्धावमौदर्य द्वादश कवलाः, ज्जारो पडिवत्तीयो । से णं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे एगे अर्धसमीपमुपाध, द्वादश कवलाः, यतः कवलचतुष्टय- सुअक्खंधे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समुप्रक्षेपात संपूर्णमधं भवति । (त. भा. हरि. व सिद्ध. हे सणकाला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेण संखेज्जा वृ.८-१९)।
अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा बारह ग्रास प्रमाण आहार के लेने को उपार्धावमौ- अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइमा जिणपन्नदर्य कहते हैं। कारण कि वह प्राधे के समीप है- त्ता भावा प्राविज्जति पन्नविज्जति परूविज्जति (३२-४=१२)।
दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं पाया उपाधौनोदर्य-देखो उपाविमौदर्य । अर्धस्य एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरण-करणपरूवणा समीपमुपार्घ द्वादशकवलाः, यतः कवलचतुष्टयप्रक्षे- आपविज्जइ । से तं उवासगदसायो। (नन्दी. सू. पात् सम्पूर्णमधं भवति, ततो द्वादशकवला उपाधौं- ५१, पृ. २३२) । २. उपासकाः श्रावकाः, तद्गतनोदर्यम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-८६)। क्रियाकलापनिबद्धा दशा: दशाध्ययनोपलक्षिताः उपादेखो उपार्धावमौदर्य।
सकदशाः । (नन्दी . हरि. व. पृ. १०४) । ३. उपाउपालम्भ...--१. प्रामफलाणि न कप्पति तुम्ह मा सकैः श्रावकैरेवं स्थातव्यमिति येष्वध्ययनेषु दशसु सेसए वि दूसेहिं । मा य सकज्जे मुज्झसु एमाई होउ- वर्ण्यते ता उपासकदशाः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. वालंभो।। (बृहत्क. ८६६)। २. प्रामफलानि युष्माकं १-२०)। ४. उपासका: श्रावका:, तद्गताणुव्रतादिगृहीतुंन कल्पन्ते, अतः शेषानपि साधून मा दूषय- क्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा अध्ययनानि उपासकनिजदुश्चरितेन मा कलङ्कितान् कूरु, मा च स्वकार्ये __ दशाः। (नन्दी. मलय. व. ५१, पृ. २३२)। निरवद्यप्रवृत्त्यात्मके चारित्रे मुहः, इत्येवमादिकः स- १ जिस अंग में श्रमणों के उपासक श्रावकों के नगर पिपासशिक्षारूषः उपालम्भो भवति । (बृहत्क. क्षेम. व उद्यान आदि के साथ शीलवत, गुणवत, प्रत्याकृ. ८६९); उपालम्भः सपिपासवचनैः शिक्षा। ख्यान और पौषधोपवास के ग्रहण की विधि का (बृहत्क. क्षे. वृ. ८९६)।
विवेचन हो तथा प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तकच्चे फलों का लेना तुम्हें योग्य नहीं है, इससे तुम प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन और देवलोकगमन प्रादि की
ल. ३६
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उपासकाध्ययनांग] २८२, जैन-लक्षणावली
[उपेक्ष्यसंयम भी चर्चा की गई हो, उसे उपासकदशा कहते हैं। अद्वेष्टवृत्तिना । (त. भा. हरि. वृ. ७-६)। ४. परउपासकाध्ययनांग-१. उपासकाध्ययने श्रावक- दोषोपेक्षणमुपेक्षा । (षोडशक ४-१५) । ५. मोहाधर्मलक्षणम् । (त. वा. १, २०, १२) । २. उवा- भावाद् राग-द्वेषयोरप्रणिधानादुपेक्षा । (प्रष्टस. सयज्झयणं णाम अंगं एक्कारसलक्खसत्तरिसहस्स- १०२)। ६. द्वेषो हानमुपादानं रागस्तद्वयवर्जनम् । पदेहिं ११७०००० सण वद-सामा इय-पोसह- ख्यातोपेक्षेति xxx(त. श्लो. १, २६, १४)। सच्चित्त-राइभत्ते य । बह्मारंभ परिग्गह-अणुमण- ७. सुखेऽरागा दु:खे बा अद्वेषा उपेक्षेत्युच्यते । (भ. मुद्दिवदेसविरदी य॥ इदि एक्कारसविह-उवामगाणं प्रा. विजयो. टी. १६९६) । ८. उपेक्षा राग-मोहालक्खणं तेसिं चेव वदारोहणविहाणं तेसिमाचरणं च भावः । (प्रा. मी. व. १०२)। ६. सुह-दुक्खधिवण्णेदि । (धव. पु. १, पृ. १०२); उपासकाध्ययने आसणा-सुख-दु:खयो: साम्येन भावनम् । उक्तं च सैकादशलक्ष-सप्ततिपदसहस्र ११७०००० एकादश -XXX उपेक्षा समचित्तता। (भ.पा. मूला. विधश्रावकधर्मो निरूप्यते । (धव. पु. ६, पृ. २००)। १६६६)। ३. उवासयज्झयणं णाम अंग दंसण-वय-सामाइय- २ इष्ट-अनिष्ट में राग-द्वेष न करने का नाम पोसहोववास-सचित्त-रायिभत्त-बंभारंभ-परिम्गहाणु- उपेक्षा है। मणुद्दिट्टणामाणमेकारसण्हमुवासयाण धम्ममेक्कार- उपेक्षा-असंयम-उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यासविहं वण्णेदि । (जयध. १, पृ. १२६-३०)। ४. सप्त- पारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा। (समवा. अभय. तिसहस्र कादशलक्षपदसंख्यं श्रावकानुष्ठानप्ररूपक- वृ. सू. १७, पृ. ३३)। मुपासकाध्ययनम् ११७०००० । (श्रुतभ. टी. ७)। असंयमयोग वाले कार्यों में लगने अथवा संयमयोग ५ श्रावकाचार प्रकाशक सप्ततिसहस्राधिकैकादशल- वाले कार्यों में प्रवृत्त न होना, इसे उपेक्षा-असंयम क्षपदप्रमाण मुपासकाध्ययनम् । (त. वृत्ति श्रु. १-२०)। कहते हैं। ६. उपासत अाहारादिदानैनित्यमहादिपूजाविधानश्च उपेक्षा-संयम-१. देश-कालविघानज्ञस्य परानपरोसंघमाराधयन्तीत्यूपासकास्तेऽधीयन्ते पठचन्ते दर्श- धेन उत्सृष्टकायस्य (त. श्लो.-परानुरोधनोत्सष्टनिक-वतिक-सामायिक-प्रोषधोपवास-सचित्तविरत-रा- कायस्य) त्रिधा गुप्तस्य राग-द्वेषानभिष्वंगलक्षण त्रिभक्तव्रत-ब्रह्मचर्यारम्भ-परिग्रहनिवृत्तानुमतोद्दिष्ट- उपेक्षासयमः । (त. वा. ६, ६, १५; त. श्लो. ६, विरतभेदैकादश निलयसम्बन्धिव्रत गूण-शीलाचारक्रिया- ६)। २. देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेनोत्सष्टमंत्रादिविस्तरैर्वर्ण्यन्तेऽस्मिन्नित्युपासकाध्ययनं नाम कायस्य काय-वाङ्मनःकर्मयोगानां कृतनिग्रहस्य त्रिगुसप्तममंगम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३५७) । प्तिगुप्तस्य राग-द्वेषानभिष्वंगलक्षण उपेक्षासंयमः । २ जिस अंगश्रत में दर्शनिक आदि ग्यारह प्रकार के चा. सा. पू. ३०)। ३. उपेक्षा उपेक्षणम्, उपकरणाश्रावकों के लक्षण, उनके व्रत-ग्रहण की विधि एवं दिक व्यवस्थाप्य पुनः कालान्तरेणाप्यदर्शनं जीवप्राचरण का विधान किया गया हो उसे उपासकाध्य- सम्मुर्छनादिकं दृष्टवा उपेक्षणम्, तस्या उपेक्षायाः यन कहते हैं।
सयमनं दिनं प्रति निरीक्षणमुपेक्षासंयमः। (मला. उपांशुजप-उपांशुस्तु पररश्रूयमाणोऽन्तःसंजल्प- वृ. ५-२२०)। ४. गृहस्थान् सावधव्यापारप्रसक्तारूपः । (निर्वाणक. पृ. ४)।
नव्यापारणेनोपेक्ष्यमाणस्योपेक्षासंयमः । (योगशा. जिसकी ध्वनि दूसरे को न सुनाई दे, ऐसे अन्तर्जल्प- स्वो. विव. ४-६३)। ५. अथोपेक्षासंयम उच्यते रूप मंत्रोच्चारण करने को उपांशु जप कहते हैं। -देश-कालविधानज्ञस्य परेषामुपरोधेन व्युत्सृष्टउपेक्षा-१. सुह-दुक्खधियासणमुवेक्खा । (भ. कायस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य मुने: राग-द्वेषयोरनभिष्वंगः। प्रा. १६६६)। २. राग-द्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा। (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। (स. सि. १-१०; त. वा. १, १०,७; त. वृत्ति १ देश काल के ज्ञाता एवं मन, वचन, काय का निग्रह श्रुत. १-१०)। ३. अरक्त-द्विष्ट उदासीनस्तद्भाव करने वाले (त्रिगुप्तिगुप्त) साधु के राग-द्वेष के प्रौदासीन्यम्, तत् उपेक्षेति, ईक्षणम् अालो- प्रभाव को उपेक्षासंयम कहते हैं । चनं सामीप्येन अस्त-द्विष्टतया अरागवृत्तिना उपेक्ष्यसंयम-उपेक्ष्यसंयम: व्यापर्याऽव्यापार्य चेत्यर्थः।
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उपोद्घात] २८३, जैन-लक्षणावलो
[उभयविषय नाममंगल एवं च संयमो भवति, साधून व्यापारयत: प्रवचनवि- (प्रव. सा. अमृत. वृ. २-८५)। २. इतरेतरहितासु क्रियासु संयम इति व्यापारणमेव, अव्यापार- (उभय-) बन्धश्च देशानां तदद्वयोमिथः । बन्ध्य-बन्धणम् उपेक्षणम् गृहस्थान् स्वक्रियासु अव्यापारयत कभावः स्याद् भावबन्धनिमित्ततः ॥ (पञ्चाध्यायी उपेक्ष्यमाणस्य-प्रौदासीन्यं भजत:-संयमो भवति। २-४८)। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-६)।
१ परस्पर के परिणामरूप निमित्त के वश होने अपनी व्रत-क्रियाओं के पालन करने वाले साधुजनों वाले जीव और कर्म के परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप को उनकी शास्त्र-विहित क्रियानों में लगाने, तथा विशिष्टतर बन्ध को उभयबन्ध कहते हैं। अपनी व्रत क्रियानों का न पालन करने वाले उभयबन्धिनी-उभयस्मिन्नुदयेऽनुदये वा बन्धोधावकों में उपेक्षाभाव धारण करते हुए संयम के
ऽस्ति यासां ता उभयबन्धिन्यः । (पंचसं. मलय. वृ. परिपालन को उपेक्ष्यसंयम कहते हैं।
३-५५, पृ. १४७)। उपोद्घात-उपोद्घातस्तु प्रायेण तदुद्दिष्ट (उप- जिन प्रकृतियों का बन्ध उनके उदय में भी हो और क्रमेणोद्दिष्ट) वस्तुप्रबोधनफलः अर्थानुगमत्वात् । अनुदय में भी हो उन्हें उभयबन्धिनी कहते हैं । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२८, पृ. १४८)।
उभयमनोयोग-१.xxx जाणुभयं सच्चमोसो जिसका प्रयोजन उपक्रम से उद्दिष्ट वस्तु का प्रबाष ति॥ (गो. जी. २१८)। २. उभयः-सत्य-मृषार्थज्ञानकराना होता है उसे उपोद्घात कहा जाता है।
जननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्नविशेष उभयमनोउभयक्षेत्र-उभयमुभय-(सेतु-केतु.) जलनिष्पाद्य
भयमुभय-(सतु-केतु) जलानपाय योगः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. २१८)। सस्यम् । (योगशास्त्र स्वो. विव. ३-६५)।
सत्य और असत्यरूप पदार्थ-ज्ञान के उत्पन्न करने जिस क्षेत्र-धान्योत्पत्ति की भूमिका सिंचन
की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्न विशेष को उभय से-अरहट प्रादि के तथा बारिश के दोनों
उभय (सत्यासत्य) मनोयोग कहते हैं । ही प्रकार के जल से-तुमा करता है उसे उभयक्षेत्र कहते हैं।
उभयवचनयोग-१.XXX जाणुभयं सच्चउभयपदानुसारिबुद्धि-देखो उभयसारी। मध्यम
मोसो त्ति । (धव. पु. १, पृ. २८६ उद्.; गो. जी. पदस्यार्थं ग्रन्थं च परकीयोपदेशादधिगम्याद्यन्तावधि
२२०) । २. धमविवक्षितः सत्येऽसत्ये चार्थविवक्षिपरिच्छिन्नपदसमूहप्रतिनियतार्थग्रन्थोदधिसमुत्तरणस
तैः। वाक प्रवृत्तोभयाख्या सा भाषेतीहेष्यते यथा ॥ मर्थासाधारणातिशयपटुविज्ञाननियता उभयपदानु
घटा कृतिव्यपेताया धारणाद् भूरिवारिणः । कुण्डिसारिबुद्धयः । (योगशास्त्र स्वो. विव. १-८)।
काया घटाख्यैवं बहुभेदमिदं वचः ।। (प्राचा. सा. ५, मध्यम पद के अर्थ और ग्रन्थ को दूसरे के उपदेश से ८१-८२) । ३. कमण्डलुनि घटोऽयमित्यादिसत्यजानकर प्रादि और अन्त के सब पद समूह के प्रति
. मृषार्थवाग्व्यापारप्रयत्न उभयवचोयोगः । (गो. जी. नियत प्रर्थ एवं ग्रन्थरूप समुद्र के पार पहुँचने वाली
जी. प्र. टी. २२०)। प्रतिशयित बुद्धि के धारक-उक्त ऋद्धि के धारक
३ कमण्डलु में 'यह घट है' इस प्रकार सत्य और
असत्य अर्थ को विषय करने वाले वचनव्यापार -उभयपदानुसारिबुद्धि कहे जाते हैं । उभयप्रायश्चित्त-सगावराहं गुरूणमालोचिय गुरु
का जो प्रयत्न है, उसे उभयवचनयोग कहते हैं । सक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पाय
उभयवध-संकल्पितस्य जीवस्य वध उभयवध च्छित्तं । (धव. पु. १३, प. ६०)।
इति । (पंचसं. स्वो. व. ४-१६, पृ. ६४) । अपने अपराध को गुरु के समीप पालोचना करके संकल्पित जोव के घात करनेको उभयवध कहते हैं। गुरुसाक्षीपूर्वक अपराध से प्रात्म-निवृत्ति करने को उभयविषय नाममंगल-उभयविषयं यथा वन्दनउभय (मालोचन-प्रतिक्रिमण) प्रायश्चित्त कहते हैं। मालाया मंगलमिति नाम । (श्राव. मलय. प. ६)। उभयबन्ध-१. यः पुनः जीव-कर्मपुद्गलयोः पर- जीव और अजीव इन दोनों के प्राश्रित वन्दनमाला स्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्पर- आदि वस्तुओं का 'मंगल' ऐसा नाम रखने को मवगाहः स तदुभय (जीव-पुद्गलोभय) बन्धः । उभयविषय नाममंगल कहते हैं।
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उभयश्रुत]
२८४, जैन-लक्षणावली
[उष्ण
उभयश्रुत-जे सुयबुद्धिद्दि? सुयमइसहिरो पभा- ननुगामि अवधिज्ञान कहते हैं। सई भावे। तं उभयसुयं भन्नइ दव्वसुयं जे अणुव- उभयानन्त-जंतं उभयाणंतं तं तधा चेव उभयउत्तो ॥ (विशेषा. गा. १२९)।
दिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयदेसाश्रतबद्धि से दृष्ट-पर्यालोचित पदार्थों को जो श्रत- उभया-णंतं । (धव. पु.३, पृ. १६)। मति सहित कहता है वह उभयश्रुत कहलाता है। मध्य से दोनों ओर देखने पर प्राकाशप्रदेशों की उभयसारी (पदानुसारी)-देखो उभयपदानु- पंक्ति का अन्त चूंकि देखने में नहीं आता है, इसीसारी। १.णियमेण अणियमेण य जगवं एगस्स बीज- लिए उसे उभयानन्त कहा जाता है। सद्दस्स । उवरिमहेट्ठिमगंयं जा बुज्झइ उभयसारी उभयानुगामी- यत्स्वोत्पन्नक्षेत्र-भवाभ्यामन्यस्मिन् सा ॥ (ति. प. ४-९८३)। २. दोपासट्ठियपदाइं भरतरावत-विदेहादिक्षेत्रे देव-मनुष्यादिभवे च वर्तणियमेण, विणा णियमेण वा जाणती उभयसारी मानं जीवमनुगच्छति तदुभयानुगामि । (गो. जी. णाम । (धव. पु. ६, पृ.६०)।
म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२)। २ मध्य में स्थित किसी एक पद को सुन कर दोनों जो अवधिज्ञान अपने उत्पन्न होने के क्षेत्र से भरपावों में स्थित पदों के नियम या अनियम से तादि क्षेत्रान्तर में, तथा भव से देवादि भवान्तर में जानने को उभयसारी ऋद्धि कहते हैं।
साथ जाता है, उसे उभयानुगामी अवधिज्ञान उभयस्थित-उभयस्थितं कुम्भी-कोष्ठिकादिस्थं कहते हैं। पाष्र्युत्पाटनाद् बाहप्रसारणाच्च । (धर्मसं. मान. उभयासंख्यात-जं तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायास्वो. वृ. ३-२२, पृ. ४०)।
सस्स उभयदिसाओ, ताओ पेक्खमाणे पदेसगणणं कुम्भी (घटिका) अथवा कोष्ठिका (मिट्टी से बना पडुच्च संखाभावादो। (धव. पु. ३, पृ. १२५)। बड़ा पात्र--कुठिया) में से भोज्य वस्तु को निकाल लोकाकाश की दोनों दिशामों की प्रोर देखने पर कर देना, यह उभयस्थित-ऊधिःस्थित-माला- चंकि अाकाशप्रदेशों की गणना करना सम्भब नहीं पहृत नामक उद्गमदोष है।
है, अतएव इसे संख्या का प्रभाव होने से उभयाउभयाक्षरलब्धि-एगत्थे उवलद्धे कम्मि वि उभ- संख्यात कहा जाता है। यत्थ पच्चो होइ। अस्सतरि खरऽस्साणं गुल-दहि- उल्का (उक्का)-जलंतग्गिपिंडो व्व अणेगसंठाणेहि याणं सिहरिणीए ।। (बृहत्क. ५१)। ..
आगासादो णिवदंता उक्का णाम । (धव. पु. १४, उभयगत धर्म से संयुक्त अथवा उभय के अवयव- पृ. ३५) । युक्त किसी एक पदार्थ के उपलब्ध (प्रत्यक्ष) होने जलते हुए अग्नि-पिण्ड के समान जो आकाश से पर जो परोक्षभूत उभय पदार्थों से सम्बद्ध अक्षरों का अनेक प्राकारों वाला पुद्गलपिण्ड भूमि को पोर बोध होता है, वह उभयाक्षरलब्धिश्रुत कहलाता है। गिरता है, उसे उल्का कहते हैं । जैसे-खच्चर के देखने पर उभयगत सदृश धर्म के उवसन्नासन्न-तेखो अवसन्नासन्निका, अवसंज्ञावश परोक्षभूत गधा और घोड़ा से सम्बद्ध अक्षरों संज्ञा और उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका। परमाणूहिं अणंका बोध, अथवा शिखरिणी (श्रीखण्ड) के उपलब्ध ताणतेहिं बहविहेहि दवे हि । उवसण्णासण्णी त्ति होने पर उभयगत अवयवों के योग से दही और य सो खंधो होदि णामेण ॥ (ति. प.१-१०२)। गुड़ का बोध ।
अनन्तानन्त बहुत प्रकार के परमाणुओं के पिण्ड का उभयाननुगामी-यत्क्षेत्रान्तरं भवान्तरं च न नाम उवसन्नासन्न है। गच्छति, स्वोत्पन्नक्षेत्र-भवयोरेव विनश्यति तदुभया- उष्ण-१. मार्दवपाककृदुष्णः। (अनुयो. हरि. वृ. ननुगामि । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३७२)। प. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३) । २. प्राहारजो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र और भव में उत्पन्न होता पाकादिकारणं ज्वलनाद्यनुगत उष्णः । (कर्मवि. दे. है उस क्षेत्र से क्षेत्रान्तर को, तथा भव से भवान्तर स्वो. बु. ४०, पृ. ५१)। ३. उषति दहति जन्तुमिति को साथ नहीं जाता है, किन्तु अपने उत्पन्न होने के उष्णम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४-५७, पृ. १८)। क्षेत्र और भव में ही नष्ट हो जाता है, उसे उभया- २ जो अग्नि प्रावि से अनुगत स्पर्श आहार आदि के
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उष्णनाम]
२८५, जैन-लक्षणावली
उष्ण योनि
परिपाक का कारण होता है, उसे उष्णस्पर्श तरुणतरविकिरणपरितापशुष्कपर्णव्यपेतच्छायतरुण्यकहते हैं।
टव्यन्तरे अन्यत्र वा क्वापि गच्छतो निवसतो वानउष्णनाम (उसुरणरणाम)-जस्स कम्मस्स उद- शनादितपोविशेषसमुत्पादितान्तःप्रचुरदाहस्य महोष्णएण सरीरपोग्गलाणं उसुणभावो होदि तं उसुण- खर-परुषवातसम्पर्कजनितगलतालुशोषस्यापि यत्प्राणामं । (धव. पु. ६, पृ. ७५) ।।
णिपीडापरिहारबुद्धितो जलावगाह-स्नानपानाद्यनाजिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलस्कन्धों में सेवनं तदुष्णपरीषहसहनम् । (पंचसं. मलय. वृ. ४, उष्णता होती है उसे उष्णनामकर्म कहते हैं। २१, पृ. १८८)। ६. ग्रीष्मे शुष्यदशेषदेहिनिकरे उष्णपरिषहसहन-१. निर्वाते निर्जले ग्रीष्मरवि- मार्तण्डचण्डांशुभिः, संतप्तात्मतनुस्तृषानशन-रुक्क्लेकिरणपतितपर्णव्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदच्छ- शादिजातोष्णजम् । शोष-स्वेद-विदाहखेदमवशेनायोपपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तर - साधनोत्पादितदाहस्य प्तं पुरापि स्मरन, तन्मुक्त्यै निजभावभावनरतिः दवाग्निदाहपरुषवातातपजनितगल-तालुशोषस्य तत्प्र- स्यादुष्णजिष्णुर्वती ।। (प्राचा. सा. ७-७)। १०. तीका रहेतून् वहूननुभूतान् चिन्तयतः प्राणिपीडापरि- अनियतविहृतिर्वनं तदात्वज्वलदनलान्तमितः प्रवृद्धहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमूष्णसहनमित्यूपवर्ण्यते । शोषः। तपतपनकरालिताध्वखिन्नः स्मृतनरकोष्ण(स. सि. 8-)। २. उसिणप्परियावेण परिदाहेण महातिरुष्णसाट् स्यात् ।। (अन. घ. ६-६२) । तज्जिए। धिंसु वा परितावेणं सायं नो परिदेवए॥ ११. दाहप्रतीकाराकांक्षारहितस्य शीतद्रव्यप्रार्थनानुउण्हादितत्तो मेहाबी सिणाणं नो वि पत्थए । गायं स्मरणोपेतस्य चारित्ररक्षणमुष्णसहनम् । (प्रारा. नो परिसिंचिज्जा ण वीएज्जा य प्रापयं ।। (उत्तरा. सा. टी. ४०)। १२. यो मुनिनिर्मरुति निरम्भसि २, ८-९) । ३. वाहप्रतीकारकाङ्क्षाभावाच्चारित्र- तपतपनरश्मिपरिशुष्कनिपतितच्छदरहितच्छायवृक्षे. रक्षणमुष्णसहनम् । गृष्मेण पटीयसा भास्करकिरण- विपिनान्तरे स्वेच्छया स्थितो भवति, असाध्यपित्तोसमूहेन सन्तापितशरीरस्य तृष्णानशनपित्तरोगधर्म- त्पादितान्तर्दाहश्च भवति, दावानलदाहपरुषमारुता
ष्णस्य स्वेदशोषदाहाभ्यदितस्य जल- गमनसंजनितकण्ठकाकुदसंशोषश्च भवति, उष्णप्रतीभवन-जलावगाहनानुलेपन-परिषेकावनीतल-नीलो- कारहेतुभूतब ह्वनुभूतचूतपानकादिकस्य न स्मरति, त्पल-कदलीपत्रोत्क्षेप-मारुतजलतलिकाचन्दन-चन्द्रपा- जन्तुपीडापरिहृतिसावधानमनाश्च यो भवति, तस्योद-कमल-कल्हार-मुक्ताहारादिपूर्वानुभतशीतलद्रव्यप्रा- ष्णपरीषहजयो भवति पवित्रचारित्ररक्षणं च भवति । र्थनापेतचेतसः उष्णवेदना अतितीव्रा बहुकृत्वाः पर- (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। १३. उष्णं निदाघादितावशादाप्ता इदं पुनस्तपो मम कर्मक्षयकारणमिति पात्मकम् । (उत्तरा. ने. वृ. २, पृ. १७)। तद्विरोधिनी क्रियां प्रत्यनादराच्चारित्ररक्षणमुष्ण- १ निर्वात, निर्जल और ग्रीष्मकालीन सूर्य की सहनमिति समाम्नायते । (त. वा. ६, ६, ७)। किरणों से सूख कर पत्तों के गिर जाने से छाया४. उष्णषरितप्तोऽपि न जलावगाहन-स्नान-व्यजन- हीन हुए वृक्षों से संयुक्त वन के मध्य में स्वेच्छा से वातादि वाञ्छयेत्, नैवातपत्राद्यष्णत्राणायाऽऽददी- स्थित; अनशन आदि के कारण उत्पन्न दाह से तेति, उष्णमापतितं सम्यक् सहेत, एवमनुष्ठितोष्ण- पीड़ित; दावाग्नि और तीक्ष्ण वायु (लू) के द्वारा परीषहजयः कृतो भवति । (प्राव. हरि. व. प. जिसका गला व ताल सूख गया है, ऐसा साध पूर्वा६५७) । ५. दाहप्रतीकारकांक्षाभावाच्चारित्ररक्षण- नुभूत प्रतीकार के कारणों का स्मरण करके भी मुष्णसहनम् । (त. श्लो. ६-६)। ६. उष्णं निदा- प्राणीपीडा के परिहार में दत्तचित्त होता हमा घादितापात्मकम्, तदेव परीषहः उष्णपरीषहः। उसके प्रतीकार का विचार न करके अपने चारित्र (उत्तरा. शा. व. पु. ८२) । ७. उष्णं पूर्वोक्तप्रका- का रक्षण करता है। इस प्रकार के कष्ट के सहन रेण सन्निधानात् [चारित्रमोहनीय-वीर्यान्तरायापे- करने को उष्णपरीषहजय कहते हैं। क्षासातावेदनीयोदयात्] शीताभिलाषकारणादित्य- उष्ण योनि-उष्णः संतापपुदगलप्रचयप्रदेशो वा। ज्वरादिसन्तापः, xxx क्षमणम् (तत्सहनमुष्ण- (मूला. वृ. १२-५८) । परीषहजयो भवति)। (मूला. वृ. ५-५७) । ८. जीवों की उत्पत्ति के अाधारभूत उष्ण स्पर्श बाले
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उष्णस्पर्शनाम] २८६, जैन-लक्षणावली
[ऊर्ध्व लोक पुद्गलों के समुदाय को उष्ण योनि कहते हैं। तस्यां वा व्रतं ऊर्ध्वदिग्वतम्, एतावती दिगूर्व पर्वउष्णस्पर्शनाम-यदुदयाज्जन्तुशरीरं हुतभुजादि- ताद्यारोहणादवगाहनीया, न परतः । (प्राव. वृ.प्र. वदुष्णं भवति तदुण्णस्पर्शनाम । (कर्म वि. दे. स्वो. ६, पृ. ८२७; श्रा. प्र. टी. गा. २८०)। वृ. ४, पृ. ५१)।
१ऊध्वं (पर्वत प्रादि) दिशा सम्बन्धी प्रमाण का जिसके उदय से प्राणी का शरीर अग्नि के समान जो नियम किया जाता है, उसे ऊर्ध्वदिग्वत कहते हैं। उष्ण होता है उसे उष्णस्पर्श नामकर्म कहते हैं। ऊर्ध्वप्रचय-१. समयविशिष्ट वृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचऊर्ध्वकपाट (उड्ढकवाड)-ऊवं च तत् कपाटं यः । xxx ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन च ऊर्ध्वकपाटम् । ऊर्ध्व कपाटमिव लोक: ऊर्ध्व- सांशत्वाद् द्रव्यवृत्तेः सर्वद्रव्याणामनिवारित एव । कपाटलोकः। जेण लोगो चोइसरज्जुउस्सेहो, सत्त- अयं तु विशेष:-समयविशिष्टवत्तिप्रचयः शेषद्रव्यारज्जुरुंदो, मज्झे उवरिमपेरंते च एगरज्जुबाहल्लो, णामूर्ध्वप्रचय: समयप्रचय एव कालस्योर्ध्वप्रचयः । उवरि बम्हलोगुद्दे से पंचरज्जुबाहल्लो, मूले सत्तर- (प्रव. सा. अमृत. वृ. २-४६)। २. प्रतिसमयवार्तिनां ज्जुबाहल्लो, अण्णत्थ जहाणुबढिबाहल्लो; तेण पूर्वोत्तरपर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान: ऊर्ध्वप्रउड्ढट्ठियकवाडोवमो। (धव. पु. १३, पृ. ३७६)। चय इत्यूर्ध्वसामान्य मित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकालोक चूंकि चौदह राजु ऊँचा, सात राजु विस्तार- न्त इति च भण्यते । (प्रव. सा. ज. वृ. २-४६)। वाला तथा मध्य व उपरिम भाग में एक राजु, १ समयसमूह का नाम ऊर्ध्वप्रचय है। चूंकि प्रत्येक ऊपर ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और नीचे सात द्रव्य परिणमनशील होने से प्रत्येक समय में पूर्व राज बाहल्य वाला है, अतएव उसे ऊर्ध्वस्थित कपाट
पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय से परिणत हुआ के समान होने से ऊर्ध्वकपाट कहा जाता है। करता है, अतएव यह ऊर्ध्वप्रचय छहों द्रव्यों के ऊर्ध्वतासामान्य-१. परापरविवर्तव्यापि द्रव्य- पाया जाता है। इतना विशेष है, काल को छोड़. मूवता मृदिव स्थासादिषु । (परीक्षामुख ४-५)। कर अन्य पांच द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय जहां समयवि२. ऊर्ध्वतासामान्यं क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वय- शिष्ट है, वहां कालद्रव्य का वह मात्र समयरूप ही प्रत्ययग्राह्य द्रव्यम् । (युक्त्यनु. टी. १-३६, पृ. है, कारण कि काल के परिणमन में अन्य कोई १०)। ३. पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्खता- कारण नहीं है, जबकि अन्य द्रव्यों के परिणमन में सामान्यं कटक-कंकणाद्यनुगामिकांचनवत् । (प्र. न. काल कारण है। त. ५-५)। ४. यत्परापरपर्यायव्यापि द्रव्यं तदू- ऊर्ध्वरेण-१. अट्टसण्हसण्हियानो सा एगा उडढख़ता। मद्यथा स्थास-कोशादिविवर्तपरिवर्तिनी ॥ रेण । (भगवती ६-७, प. ८२) । २. ऊद्धमहस्ति(प्राचा. सा. ४-४)। ५. ऊर्ध्वतासामान्यं च परा- र्यक् स्वत: परतो वा प्रवर्तते इति ऊर्ध्वरेणुः । (अनुपरविवर्तव्यापि मृत्स्नादिद्रव्यम् । (रत्नाकराव. ३-५; यो. चू. ६६-१६०, पृ. ५४) । ३. अष्टौ श्लक्ष्णनयप्र. पृ. १००)। ६. ऊर्ध्वमुल्लेखिनाऽनुगताकार- श्लक्षिणका ऊर्ध्वमस्तिर्यग् वा कथमपि चलन् यो प्रत्ययेन परिच्छिद्यमानमूर्खतासामान्यम् । (रत्ना- लभ्यते, न शेषकालं स ऊर्ध्वरेणुः। (ज्योतिष्क. कराव. ५-३) । ७. ऊर्ध्वतादिसामान्यम् पूर्वापर- मलय.व. २-७८)। ४. तत्र जालप्रविष्टसूर्यप्रभागुणोदयम् । (द्रव्या. त. २-४)। ८. ऊर्ध्वतासामा- भिव्यङ्गयः स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक् चलनन्यं च पूर्वापरपरिणामे साधारणद्रव्यम् । (स्या. र. धर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः । (संग्रहणी दे. व. २४६)। कृ. ११)।
१ पाठ श्लक्ष्णश्लक्षिणकाओं के समुदाय को ऊर्ध्व१ पूर्वापरकालभावी पर्यायों में व्याप्त रहने वाले द्रव्य रेणु कहते हैं। को कुर्वतासामान्य कहते हैं। जैसे-उत्तरोत्तर ऊर्ध्व लोक-१. उवरिमलोयायारो उब्भियमरवेण होने वाली स्थास, कोश व कुशूल आदि पर्यायों में होइ सरिसत्तो। (ति. प. १-१३८) । २. उरि सामान्यरूप से अवस्थित रहने वाला मृद् (मिट्टी) पुण मुरयसंठाणो। (पउमच. ३-१६, पृ. ६)। द्रव्य।
३. ऊर्ध्वलोकस्तु मृदङ्गाकारः। (प्राव. ह. व. मल. ऊर्ध्वदिग्वत-ऊर्ध्वा दिग् ऊर्ध्वदिग्, तत्सम्बन्धि हेम. टि. ६४) ।
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ऊर्ध्वव्यतिक्रम] २८७, जैन-लक्षणावली
[ऋजुमति १ मध्य लोक के ऊपर जो खड़े किये हुए मृदंग के वेति च' । (परीक्षामुख ३-७)। ३. विज्ञातमर्थमसमान लोक है उसे ऊर्ध्वलोक कहते हैं।
वलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविधवितर्कणमूहः । ऊर्ध्वव्यतिक्रम-१. तथा ऊर्ध्व पर्वत-तरु-शिख- (नीतिवा. ५-५०)। ४. उपलम्भानुपलम्भसम्भवं रादेःXxx योऽसौ भागो नियमितः प्रदेशः, तस्य त्रिकालीकलितसाध्य- साधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमव्यतिक्रमः। (योगशा. स्वो. विव. ३-६७) । २. स्मिन् सत्येव भवतीत्याधाकारं संवेदनमूहाऽपरनामा ऊवं गिरि-तरुशिखरादेर्व्यतिक्रमः। सा. घ. ५, तर्कः। (प्र.न. त.३-५) । ५. ऊहो विज्ञातमर्थम५)। ३. शैलाधारोहणमूर्ध्वव्यतिक्रमः । (त. वृत्ति वलम्ब्यान्येषु तथाविधेषु व्याप्त्या वितर्कणम् ।xx श्रुत. ७-३०) । ४. वृक्ष-पर्वताद्यारोहणमूवंव्यति- Xअथवा ऊहः सामान्यज्ञानम् । (योगशा. स्वो. विव
(कातिके. टी. ३४१-४२)। ५. उच्चर्धात्री- १-५१, पृ. १५२, ललितवि. पंजि. म. पु. ४३%3B धरारोहे भवेदूर्ध्वव्यतिक्रमः । (लाटीसं. ६-११८)। धर्मसं. मान. १-११, पृ. ६) । ६. उपलम्मानुप१ ऊंचे पर्वत और वृक्ष के शिखर आदि क्षेत्र में लम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः । (प्रमाणमी. १, जो जाने का नियम किया गया है उसके उल्लंघन २,५)। करने को ऊर्ध्वव्यतिक्रम कहा जाता है। यह एक १ अवग्रह से गहीत पदार्थ का जो विशेष ग्रंश दिग्वत का अतिचार है।
नहीं जाना गया है, उसका विचार करने को कहा ऊर्ध्वशायी-१. स्थित्वा शयनं चोर्ध्वशायी। (भ. जाता है। यह ईहा मतिज्ञान का नामान्तर है। प्रा. विजयो. ३-२२५) । २. उद्भीभूय शयनमूर्ध्व- २ उपलम्भ (अन्वय) और अनुपलम्भ (व्यतिरेक) शायी । (भ. प्रा. मूला. टी. ३-२२५)। के निमित्त से होने वाले 'यह (धूम) इसके (अग्नि खड़े होकर शयन करने को ऊर्ध्वशायी कहते हैं। के) होने पर ही होता है और उसके न होने पर ऊर्ध्वसूर्यगमन-उड्ढसूरी य ऊवं गते सूर्ये गम नहीं होता' इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान को ऊह या नम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २२२)।
ऊहा कहते हैं। सूर्य के ऊपर स्थित होने पर- दो पहर में-गमन ऋजुक मन(उज्जुग-मरण)-जो जधा प्रत्थो द्विदो करने को ऊर्ध्वसूर्यगमन कहते हैं।
तं तधा चिंतयंतो मणो उज्जुगो णाम । (धव. पु. ऊर्वातिक्रम-१. पर्वताद्यारोहणा तिक्रमः । १३, पृ. ३३०)। (स. सि. ७-३०; श्लो. वा. ७-३०)। २. तत्र जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप पर्वताद्यारोहणा तिक्रमः । पर्वत-मरुभूम्यादी- से चिन्तन करने वाला मन ऋजक मन कहलाता है। नामारोहणादूर्वातिक्रमो भवति । (त. वा. ७, ३०, ऋजुता-अथ ऋजुता-ऋजुरवक्रमनोवाक्काय२)। ३. पर्वत-मरुभूम्यादीनामारोहणादू तिक्रमः। कर्म, तस्य भावः कर्म वा ऋजुता, मनोवाक्काय(चा. सा. पृ. ८)। ४. पर्वत-तरुभूम्यादीनामारोह- विक्रियाविरह इत्यर्थः, मायारहितत्वमिति यावत् । णादूर्ध्वातिक्रमो भवति । (त. सुखबो. व.७-३०)। (योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। १ पर्वत प्रादि ऊंचे स्थानों पर जाने-माने की ग्रहण मायाचार से रहित मन-वचन-काय की सरल प्रवृत्ति की हुई मर्यादा के उल्लंघन करने को ऊर्ध्वातिक्रम को ऋजुता कहते हैं । कहते हैं।
ऋजुमति-१. ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । ऊपर-ऊषरं नाम यत्र तृणादेरसम्भवः । (श्रा. प्र. कस्मान्निर्वतिता ? (त. बा.-कस्मात् ? निर्वतिटी. ४७)।
त.) वाक-काय-मनस्कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य जिस भूमि पर घास प्रादि कुछ भी उत्पन्न न विज्ञानात् । ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजु मतिः । हो, उसे ऊपर भूमि कहते हैं।
(स. सि. १-२३; त. वा. १-२३)। २. उजु मती ऊह, ऊहा- १. अवगृहीतार्थस्यानधिगतविशेषः -उज्जुमती, सामण्णगाहिणि त्ति भणितं होति । एस उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा।। (धव. पु. १३, मणोपज्जयविसेसो त्ति प्रोसण्णं उवलभति, णातीव पृ. २४२)। २. उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्ति- बहुविसेसविसिटु अत्थं उवलब्भइ त्ति भणितं होति । ज्ञानमूहः 'इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति न भवत्ये. घटोऽणेण चितिमो त्ति जाणइ। (नन्दी. चणि प्र.
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ऋजुमति] २८८, जैन-लक्षणावली
[ऋजुसूत्र १५)। ३. रिउ सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिउमई (मूला. वृ. १२-१८७) । १५. ऋज्वी सामान्यतो मणो नाणं । पायं विसेसविमुहं घउमेत्तं चितियं मनोमात्रग्राहिणी मतिः मनःपर्यायज्ञानं येषां ते मुणइ ॥ (विशेषा. ७८४; प्रव. सारो. १४६६)। तथा (ऋजुमतयः)। (औप. सू. अभय. वृ. १५, पृ. ४. ऋज्वी मतिः ऋजुमतिः, सामान्यग्राहिका इत्यर्थः, २८; प्रश्नव्या. वृ. पृ. ३४३) । १६. प्रगुणनिर्वतितमनःपर्ययज्ञानविशेष: । (प्राव. नि. हरि. वृ. ६६, पृ. मनोवाक्-कायगतसूक्ष्मद्रव्यालम्बनः ऋजुमतिमन:४७; स्थानांग अभय. वृ. २-१, पृ. ४७)। ५. पर्ययः । (लघीय. अभय. वृ. ६१, पृ. ८२)। मननं मतिः, संवेदनम् इत्यर्थः, ऋज्वी सामान्यग्रा. १७. मननं मतिविषयपरिच्छित्तिरित्यर्थः। ऋज्वी हिणी मतिः, घटोऽनेन चिन्तितः इत्यध्यवसायनिब- अल्पतरविशेषविषयतया मुग्धा मतिर्यस्य तदजुमतिः। न्धनमनोद्रव्यप्रतिपत्तिरित्यर्थः, xxx अथवा (शतक मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ४४)। १८. ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिरस्य सोऽयम् ऋजुमतिः, ऋज्वी प्रायो घटादिमात्रग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, तद्वानेव गृह्यते । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ४५)। ६. विपुलमतिमनः-पर्यायज्ञानापेक्षया किञ्चिदशुद्धतरं ऋजुमतिः घटादिमात्रचिन्तनद्रव्यज्ञानाद् ऋजुमतिः, मनःपर्यायज्ञानामेव । (प्राव. नि. मलय. वृ. सव मन:पर्यायज्ञानम् । (त. भा. हरि. व. १-२४)। ७०, पृ. ७८)। १६. वाक्काय-मनःकृतार्थस्य पर७. परकीयमतिगतोऽर्थः उपचारेण मतिः। ऋज्वी मनोगतस्य विज्ञानात् निर्वतिता पश्चाद्वालिता व्याअवका, xxx ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमतिः। घोटिता ऋज्वी मतिरुच्यते, सरला च मतिः ऋज्वी उज्जुवेण मणोगदं उज्जुवेण वचि-कायगदमत्थमुज्जुवं कथ्यते ।xxx ऋज्वी मतिविज्ञानं यस्य मनःजाणतो, तविवरीदमणुज्जुवं अत्थमजाणतो मण- पर्ययस्य स ऋजुमतिः । (त. वृत्ति श्रुत. १-२३) । पज्जवणाणी उज्जुमदि त्ति भण्णदे। (धव. पु. ६, २०. अनेन चिन्तितः कुम्भ इति सामान्यग्राहिणी। पृ. ६२-६३)। ८. निर्वतितशरीरादिकृतस्यार्थस्य मनोद्रव्यपरिच्छित्तिर्यस्याशावृजुधीः श्रुतः ।। (लोकप्र. वेदनात् । ऋज्वी निर्वतिता त्रेधा प्रगुणा च प्रकीति- ३-८५२)। २१. ऋजुमतयस्तु सर्व पूर्णमनुष्यता॥ (श्लो. वा. १,२३, २)। ६. ऋजुमतिमन:- क्षेत्रस्थितानां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतं सामान्यतो पर्ययज्ञानं निर्वतित-प्रगुणवाक्काय-मनस्कृतार्थस्य पर- घट-पटादिपदार्थमात्रम् एव जानन्ति । (कल्पसूत्र वृ. मनोगतस्य परिच्छेदकत्वात् त्रिविधम् । (प्रमाणप. ६-१४२)। पृ. ६६)। १०. या मतिः सामान्यं गृह्णाति सा १पर के मन में स्थित व मन, वचन और काय से ऋज्वीत्यूपदिश्यते । xxx येन सामान्यं घटमात्रं किये गये अर्थ के ज्ञान से नितित सरल बद्धि को चिन्तितमवगच्छति तच्च ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञा- ऋजुमतिमनःपर्यय या मनःपर्यायज्ञान कहते हैं । नम्। Xxx ऋजुमतिरेव मनःपर्यायज्ञानम्, ऋजुसूत्र-१. ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति घटादिमात्रचिन्तितपरिज्ञानमिति । (त. भा. सिद्ध. ऋजुसूत्रः, पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानवृ. १-२४)। ११. ऋज्वी साक्षात्कृतेष्वनु- काल विषयानादत्ते, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नमितेष वा ऽर्थेष्वल्पतरविशेषविषयतया मुग्धा मति- त्वेन व्यवहाराभावात् । तच्च वर्तमान समयमात्रम् । विषयपरिच्छित्तिर्यस्य तदृजुमतिः। (कर्मस्तव गो. तद्विषयपर्यायमात्रग्राह्ययमृजुसूत्रः। (स. सि. १-३३)। व. ९-१०)। १२. xxx उजुमदी तिविहा । २. ततो साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्रः । उजमण-वयणे काये गदत्थविसया त्ति णियमेण ॥ (त. भा. १-३५)। ३. पच्चुप्पण्णग्गाही उज्जसुग्रो (गो. जी. ४३८)। १३. ऋज्वी सामान्यग्राहिणी नयविही मुणेयव्वो। (प्राव. नि. ७५७; अनयो. मतिः ऋजुमतिः ‘घटोऽनेन चिन्तितः' इत्यादि सामा- गा. १३८, पृ. २६४)। ४. सूत्रपातवदृजुत्वात् न्याकाराध्यवसायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशि- ऋजुसूत्रः । यथा ऋजुः सूत्रपातस्तथा ऋजु प्रगुणं ष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरिति । (नन्दी. मलय. वृ. सूत्रयति ऋजुसूत्रः । पूर्वास्त्रिकालविषयानतिशय्य पृ. १०७)। १४. ऋज्वी प्रगुणा निर्वतिता वाक्काय- वर्तमानकालविषयमादत्त, अतीतानागतयोविनष्टानमनस्कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानम, xxx त्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् समयमात्रमस्य निर्दिधिअथवा ऋज्वी मतिर्यस्य ज्ञानविशेषस्यासौ ऋजुमतिः। क्षितम् । (त. वा. १, ३३, ७)। ५. ऋजुसूत्रस्य
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ऋजुसूत्र २८६, जैन-लक्षणावली
[ऋजुसूत्र पर्यायः प्रधानंxxx। (लघीय. ४३); भेदं प्रा- ऋजु सममकुटिलं सूत्रयति, ऋजु वा श्रुतम् पागमो. धान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसूत्रनयो मतः । (लघीय. ऽस्येति सूत्रपातनवद्वा ऋजुसूत्रः, यस्मादतीतानागत७१)। ६. अक्रमं स च भेदानां ऋजुसूत्रो विधार- वपरित्यागेन वर्तमानपदवीमनुधावति, अतः साम्प्रयन् । कार्यकारणसन्तानसमुदायविकल्पतः । (प्रमा- तकालावरुद्धपदार्थत्वात् ऋजुसूत्रः । (त. भा. सिद्ध. णसं. ८, ८१-८२)। ७. तत्र ऋजु-वर्तमानम- वृ.१-३४; ज्ञानसार दे. वृ. १६ ३); सतां विद्यमानानां तीतानागत-बक्रपरित्यागात् वस्त्वखिलम् ऋज, तत्सू- न खपुष्पादीनामसताम, तेषामपि साम्प्रतानाम् वर्तत्रयति गमयतीति ऋजुसूत्रः । यद्वा ऋजु वनविपर्या- मानानामिति यावत्,अर्थानां घट-पटादीनाम् अभिधानं दभिमुखम्, श्रुतं तु ज्ञानम्, ततश्चाभिमुखं ज्ञानमस्येति शब्दः परिज्ञानं अवबोधो विज्ञानमिति यावत्, अभिऋजश्रतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात् । अयं हि नयः वर्त- धानं च परिज्ञानं चाभिधानपरिज्ञानं यत् स भवति मानं स्वलिंग-वचन-नामादिभिन्नमप्येक वस्तु प्रति- ऋजुसूत्रः । एतदुक्तं भवति–तानेव व्यवहारनयाभिपद्यते, शेषमवस्त्विति । (प्राव. नि. हरि. वृ. ७५७, मतान् विशेषानाश्रयन् विद्यमानान् वर्तमानक्षण प. २८४; प्रनयो. हरि. व.प. १२४.२५)। ८. ऋज वर्तिनोऽभ्युपगच्छन्नभिधानमपि वर्तमानमेवाभ्युपैति वर्तमानसमयाभ्युपगमादतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्न- -नातीतानागते, तेनानभिधीयमानत्वात् कस्यचिदत्वेनाकुटिलं सूत्रयति ऋजुसूत्रः । (अनुयी. हरि. वृ. र्थस्य, तथा परिज्ञानमपि वर्तमान (ज्ञा. सा. वृत्तिपृ. १०५)। ६. ऋजु सममकुटिलं सूत्रयतीति ऋजु- परिज्ञानं न्यपवर्तमान-)मेवाश्रयति-नातीतमागामि सूत्रः । (त. भा. हरि. वृ. १-३४); साम्प्रतविषय- वा, तत्स्वभावानवधारणात् । अतो वस्त्वभिधानं ग्राहक वर्तमानज्ञेयपरिच्छेदकम् ऋजसुत्रनयं प्रक्रा- विज्ञानं चात्मीयं वर्तमान मेवान्विच्छन्नध्यवसायः स न्तमेव समासतः संक्षेपेण जानीयात् । (त. भा. हरि. ऋजुसूत्र इति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३५; व. १-३५)। १०. अपूर्वास्त्रिकालविषयानतिशष्य ज्ञानसार. व. १६-३, पृ.६०)। १७. ऋजसूत्रः वर्तमानकालविषयमादत्ते यः स ऋजुसूत्रः। कोऽत्र- कुटिलातीतानागतपरिहारेण वर्तमानक्षणावछिन्नवर्तमानकालः ? प्रारम्भात् प्रभृत्या उपरमादेष वस्तुसत्तामात्रमृजें सूत्रयति, अन्यतो व्यवच्छिनत्ति । वर्तमानकालः । (धव. पु. ६, पृ. १७२); उजुसुदो (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-३१,पृ.४०२)। १८. ऋजुसूत्रः दुविहो सुद्धो असुद्धो चेति । तत्थ सुद्धो विसईकय- स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम् । वर्तमानकसमयप्रत्थपज्जागो पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विषयं परिगृह्यते ।। (त. सा. १-७)। १६. ऋजु विषयादो प्रोसारिदसारिच्छ-तब्भावलक्खणसामण्णो। प्राञ्जलं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः। (मालाप. पृ. Xxx तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणमो सो १४६) । २०. जो एयसमयवट्टी गेण्हइ दव्वे धुवत्तचक्खुपासियवेंजणपज्जयविसओ। (धव. पु. ६, पृ पज्जानो। सो रिउसुत्तो सुहुमो सव्वं पि सदं जहा २४४)। ११. ऋजु प्रगुणं सूत्रयति सूचयतीति ऋजु- (बृ. न.-सुहुँमो सव्वं सद्द जहा) खणियं ।। मणुसूत्रः । (जयप. पु. १, पृ. २२३)। १२. वक्र भूतं वाइयपज्जारो मणुसुत्ति सगढ़िदीसु वट्टतो। जो भविष्यन्तं त्यक्त्वर्जुसूत्रपातवत् । वर्तमानार्थपर्यायं भणइ तावकालं सो थूलो होइ रिउसुत्तो॥ (ल. न. सूत्रयन्नृजुसूत्रकः ॥ (ह. पु. ५८-४६)। १३. ऋजु- च. ३८-३९; बृ. न. च. २११-१२) । २१. सर्वस्य सूत्रं क्षणध्वंसि वस्तु तत्सूत्रयेदृजु । प्राधान्येन गुणी- सर्वतो भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजु प्राञ्जलं भावाद् द्रव्यस्यानर्पणात्सतः । (त. श्लो. १, ३३, वर्तमानसमयमात्रं सूत्रयति प्ररूपयतीति ऋजुसूत्रो ६१)। १४. ऋजु प्रगुणम्, तच्च विनष्टानुत्पन्नतया- नयो मतः । (न्यायकु. ६-७१) । २२. देश-काला. ऽतीतानागतवपरित्यागेन वर्तमानकालक्षण भावि न्तरसम्बद्धस्वभावरहितं वस्तुतत्त्वं साम्प्रतिकम् एकयद्वस्तु, तत्सूत्रयति प्रतिपादवल्याश्रयतीति ऋजुसूत्रः। स्वभावं अकुटिलं ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः। (सूत्रकृ. वृ. २,७, ८१,पृ.१८८)। १५. जो वट्टमाण- (सन्मति. अभय. वृ. ३, पृ. ३११); क्षणिकविज्ञकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं । संत साहदि सव्वं तं प्तिमात्रावलम्बी शुद्धपर्यायास्ति (स्तिक) भेद: ऋजुपि णयं रिजुणयं जाण ॥ (कातिके. २७४) । १६. सूत्रः। (सन्मति. अभय. व. ५, पृ. ३६६) ।
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ऋजुसूत्र] २६०, जैन-लक्षणावली
[ऋज्वी २३. अतीतानागतकोटिविनिर्मुक्तं वस्तु समयमात्रं द्रव्याभावाद्यथोच्यते ॥ (नयोपदेश २६-३०)। ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । (मूला. वृ. ६-६७)। ३४. अनेन ऋजुसूत्रनयेन एकत्र धर्मिणि अवस्थान्तर२४. ऋजु प्राञ्जलं वर्तमानक्षणमात्रं सूत्रयतीत्यजु- समागमो भिन्नावस्थावाचकपदार्थान्वयो नेष्यते न सूत्रः, 'सुखक्षणः संप्रत्यस्ति' इत्यादि । द्रव्यस्य सतो- स्वीक्रियते । कुतः ? क्रिया साध्यावस्था, अन्या च ऽप्यनर्पणात्, अतीतानागतक्षणयोश्च विनष्टानुत्पन्न- निष्ठा सिद्धावस्था, तयोर्या भिदा भिन्न कालसम्बन्धत्वेनासम्भवात् । (प्र. क. मा. ६-७४, प. ६७८)। स्तदाधारस्यैकद्रव्यस्याभावात् । (नयोपदेश यशो. २५. शुद्धपर्यायग्राही प्रतिपक्षसापेक्षः ऋज सूत्रः । (प्र. टी. ३०)। ३५. अतीतानागतपरकीयभेदपृथक्त्वर. मा. ६-७४)। २६. ऋजु अवक्रमभिमुखं श्रुतं परित्यागादृजुसूत्रेण स्वकार्यसाधकत्वेन स्वकीयवर्तमाश्रुतज्ञानं यस्येति ऋजश्रुतः ऋजु वा अतीतानागत- नवस्तुन एवोपयोगमात्रस्य तुल्यांशध्रुवांशलक्षणद्रव्यावपरित्यागात् वर्तमानं वस्तु, सूत्रयति गमयतीति भ्युपगमः। (नयरहस्य., पु. ८१)। ऋजसूत्रः, स्वकीयं साम्प्रतं च वस्तू, नान्यदित्यभ्यूप- १ तीनों कालों के पूर्वापर विषयों को छोड़ कर गमपरः । (स्थानांग अभय. व. सू. १८६, पृ. १४२)। जो केवल वर्तमान कालभावी विषय को ग्रहण २७. ऋज-तोतानागतपरकीयपरिहारेण प्राञ्जलं करता है उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। अतीत पदार्थों वस्तु--सूत्र यति अभ्युपगच्छतीति ऋजसूत्रः । अयं के नष्ट हो जाने से, तथा अनागत पदार्थों के हि वर्तमानकाल भाव्येव वस्तु अभ्युपगच्छति नाती- उत्पन्न न होने से ये दोनों ही व्यवहार के योग्य तम्, विनष्टत्वान्नाप्यनागतमनुत्पन्नत्वात् । वर्तमान नहीं है। इसीलिए यह नय वर्तमान एक समय कालभाव्यपि स्वकीयमेव मन्यते, स्वकीयसाधकत्वात् मात्र को विषय करता है। स्वधनवत । परकीयं तु नेच्छति, स्वकार्याप्रसाध- ऋजुसूत्रनयाभास-१. सर्वथैकत्वविक्षेपी तदाकत्वात् परधनवत् । (अनुयोग. मल. हेम. व. सू. भासस्त्वलौकिकः। (लघीय. ६-७१) । २. क्षणिक१४, पृ. १८)।२८. ऋज प्रगुणम् अकुटिलमतीता- कान्तनयस्तदाभासः । (प्र. र. मा. ६-७४) । नागतपरकीयवपरित्यागात वर्तमानक्षणविवति स्व. ३. सर्वथा गुण-प्रधान भावाभावप्रकारेण एकत्वविक्षेपी कीयं च सूत्रयति निष्टं कितं दर्शयतीति ऋजुसूत्रः। एकत्वनिराकारकः ऋजुसूत्राभासः। (न्यायकु. ६, (प्राव. मलय.व. ७५१, पृ. ३७५; प्र. सारो. व. ७१)। ४. सर्वथा द्रव्यापलापी तदाभासः। (प्र. न. ८४७) । २६. पूर्वान् व्यवहारनयगृहीतान अपरांश्च त. ७-३०)। विषयान् त्रिकालगोचरानतिक्रम्य वर्तमानकालगोचरं ३ गौणता और प्रधानता का अपलाप करके-- गृह्णाति ऋजुसूत्रः । अतीतस्य विनष्टत्वे अनागत- एकान्त रूप से एकत्व (प्रभेद) का निराकरण स्यासंजातत्वे व्यवहारस्याभावात वर्तमानसमयमात्र- करने वाले नय को ऋजसूत्रनयाभास कहते हैं। विषयपर्यायमात्र ग्राही ऋजुसूत्रः । (त. वृत्ति श्रुत. ऋज्वी (गोचरभूमि)-तत्र तस्यामेकां दिशम१-३३) । ३०. वर्तमानसमयमात्रविषयपर्यायमात्र- भिगृह्योपाश्रयाद निर्गतः प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणि. ग्राही ऋजुसूत्रनयः । (कार्तिके. टी. २७४)। व्यवस्थितगृहपंक्ती मिक्षां परिभ्रमन् तावद् याति ३१. ऋज वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्र प्राधान्यतः यावत् पंक्तो चरमगृहम् । ततो भिक्षामगृह्णन्नेवासूचयन्नभिप्रायः ऋजुसूत्रः। (जैनतर्कप. पृ. १२७; पर्याप्तेऽपि प्राञ्जलयव गत्या प्रतिनिवर्तते सा नयप्र. पृ. १०३, स्या. मं. टी. पृ. २८; प्र. न. त. ऋज्वी । (बृहत्क. व. १६४९)।। ७-२८)। ३२. एतस्यार्थः-भूत-भविष्यद्वर्तमानक्षण- सम श्रेणी में अवस्थित किसी एक दिशा सम्बन्धी लवविशिष्टलक्षणकौटिल्यविमुक्तत्वादज सरलमेव गृहपंक्ति में भिक्षा लेने का अभिग्रह करके निकला द्रव्यस्याप्राधान्यतया पर्यायाणां क्षणक्षयिणां प्राधान्य- हुमा साधु उस पंक्ति के अन्तिम गृह तक जावे तया दर्शयतीति ऋजुसूत्रः । (नयप्रदीप पृ. १०३)। और भिक्षा के पर्याप्त न मिलने पर भी पुनः उसी ३३. भावित्वे वर्तमानत्वव्याप्तिधीरविशेषता। ऋज- मार्ग से सीधे अपने स्थान को लौट पावे । यह सूत्रः श्रुतः सूत्रे शब्दार्थस्तु विशेषतः ॥ इष्यतेऽनेन क्षेत्र-अभिग्रहमें निर्दिष्ट पाठ गोचरभूमियों में प्रथम नैकत्रावस्थान्तरसमागमः । क्रिय-निष्ठाभिदाधार- गोचरभूमि है ।
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ऋत ]
ऋत - XXX ऋतं प्राणिहितं वचः । (ह. पु. ५८-१३०) ।
जो वचन प्राणियों के लिये हितकर हो उसे ऋत (सत्य) कहते हैं ।
ऋतु (रिउ, उडु) – १. द्वौ मासावृतुः । ( त. भा. ४-१५; त. वा. ३ - ३८; जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८) । २. × × X मासदुगेणं उडू XX X ( ति प ४ - २८ ) । ३. दो मासा उऊ । ( भगवती पू. ८२५; अनुयो. सू. १३७; जम्बूद्वी. १८ ) । ४. दो मासा उउसन्ना । ( जीवस. ११० ) । ५. ऋतुस्तु मासद्वय एक उक्तः XXX 1 ( वरांग. २७-६) । ६. बे मासे उडू । ( धव. पु. १३, पू. ३०० ) । ७. मासद्वयमृतुः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५) । ८. बिहि मासहि उडुमाणु णिबद्धउ । ( म. पु. पुष्प. २ - २३) । ६ मासद्वयमृतुः । (पंचा. का. जय. वृ. २५) । १०. रिउ एक्का वेहि भासेहि ॥ ( भावसं. ३१४ ) । ११. द्वाभ्यां मासाभ्यामृतुः । (नि. सा. वू. ३ - ३१) | १ दो मासों की एक ऋतु होती है । ऋतुमास - १. सावनमासस्त्रिशदहोरात्र एव, एष च कर्ममास ऋतुमासश्चोच्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५) । २. स ( ऋतुः ) च किल लोकरूढ्या षष्ट्यहोरात्रप्रमाणो द्विमासात्मकस्तस्यार्धमपि मासोsara समुदायोपचारात् ऋतुरेवार्थात् परिपूर्णत्रिशदहोरात्रप्रमाणः, एष एव ऋतुमासः कर्ममास इति वा सावनमास इति वा व्यवह्रियते । ( व्यव. सू. भा. २ - १५, पृ. ७) । ३. ऋतुमासः पुनस्त्रिशद होरात्रात्मकः स्कुटः । ( लोकप्र. २८-३११, व २८, ३३८) ।
२६१, जैन- लक्षणावली
१ तीस दिन-रात को ऋतुमास कहते हैं। सावनमास तीस दिन-रात का ही होता है, इसे कर्ममास व ऋतुमास भी कहा जाता है । ऋतुसंवत्सर - यस्मिश्च संवत्सरे श्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति, एष ऋतुसंवत्सरः । ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः, तत्प्रधानः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः । ( सूर्यप्र. वृ. १०, २०, ५६) ।
पूरे तीन सौ साठ दिन वाले वर्ष को ऋतुसंवत्सर कहते हैं ।
ऋद्धि-भोगोव भोग- हय-हत्थि मणि रयणसंपया संप
[ ऋषभनाराच
यकारणं च इद्धी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४८); अणिमा महिमा लहिमा पत्ति पागम्मं ईसित्तं वसितं कामरूवित्तमिच्चेवमादियाओ प्रणेयविहान इद्धीप्रो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३२५ ) ।
भोग और उपभोग की साधक घोड़ा, हाथी, मणि एवं रत्न श्रादि सम्पदा को तथा उक्त सम्पदा के कारणों को ऋद्धि कहते हैं । ऋद्धिगारव - ऋद्धिगारवं शिष्य-पुस्तक- कमण्डलुपिच्छ-पट्टादिभिरात्मोद्भावनम् । ( भा. प्रा. टी. १५७) ।
शिष्य, पुस्तक एवं कमण्डलु श्रादि के द्वारा अपने बड़प्पन के प्रगट करने को ऋद्धिगारव कहते हैं । ऋद्धिगौरव - १. तत्र ऋद्धया - नरेन्द्रादिपूज्याचार्यादित्वाभिलाषलक्षणया - गौरवम् ऋद्धिप्राप्त्यभिमानाप्राप्तिसंप्रार्थनद्वारेणऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवम् । (प्राव. हरि वृ. पू. ५७६ ) । २. ऋद्धित्यागासहता ऋद्धिगौरवं परिवारे कृतादरः, परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन । (भ. प्रा. विजयो. ६१३ ) । ३. वन्दनामकुर्वतो महापरिकरश्चातुर्व
श्रमण संघो भक्तो भवत्येवमभिप्रायेण यो वन्दनां विदधाति तस्य ऋद्धिगौरवदोषः ॥ (मूला. वृ. ७, १०७) । ४. तत्र ऋद्ध्या नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमान तदप्राप्तिप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरव मित्यर्थः । (समवा. श्रभय. वृ. ३) । ५. भक्तो गणो मे भावीति बन्दारोॠ द्धिगौरवम् ।। ( अन. ध. ८-१०३) ।
१ नरेन्द्र या पूज्य श्राचार्यादि पदों की प्राप्ति की अभिलाषारूप ऋद्धि से जो गौरव - उसकी प्राप्ति से श्रभिमान तथा प्रप्राप्ति में उसकी प्रार्थना के निमित्त से अपने अशुभ भावों की गुरुता - होती है उसे ऋद्धिगौरव कहा जाता है । ५ मेरे साधु रूप से वन्दना करने पर साधुसंघ मेरा भक्त हो जायगा, इस प्रकार के विचार से वन्दना करने को ऋद्धिगौरव दोष कहते हैं ।
ऋषभनाराच - १. यत्र तु कीलिका नास्ति तदृषभनाराचम् । ( कर्मस्तव गो. वृ. ६ - १० ) । २. ऋषभः परिवेष्टनपट्टः, नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः, X XX यत्पुनः कीलिका रहितं सहननं तत् ऋषभनाराचम्, तन्निबन्धनं नाम ऋषभनाराचनाम । (षष्ठ क. मलय. वृ. ६, पृ. १२४) । ३. रिसहो पट्टो
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ऋषि]
२६२, जैन-लक्षणावली
[एकत्ववितर्कावीचार
य कीलिमा वज्जं। (संग्रहणी सू व. ११७)। पयोग कहते हैं। ४. यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनारा- एकत्वप्रत्यभिज्ञान-१. दर्शन-स्मरणकारणकं संकचम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३; जीवाजी. लनं प्रत्यभिज्ञानम् ।। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं मलय. वृ.१-१३, सप्तति. मलय. व. पु. १५१; तत्प्रतियोगीत्यादि । यथा स एवायं देवदत्तः ॥ संग्रहणी दे. वृ. ११७)।
गोसदशो गवयः।। गोविलक्षणो महिषः॥ इदमस्माद् १ कीलिका रहित संहनन को ऋषभनाराच- दूरम् ।। वृक्षोऽयमित्यादि ।। (परीक्षामुख ३, ५ से संहनन कहते हैं।
१०)। २. अनुभव-स्मृतिहेतुकं संकलनात्मकं ज्ञानं ऋषि-१. ऋषयः ऋद्धिप्राप्ताः, ते चतुविधा:- प्रत्यभिज्ञानम्। xxx यथा स एवायं जिनदत्तः, राज-ब्रह्म-देव-परमभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रिया- xxx गोसदशो गवयः, गोविलक्षणो महिष क्षीद्धिप्राप्ता भवन्ति, ब्रह्मर्षयो बुद्धयौषधि ऋद्धि- इत्यादि । अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य युक्ता कीर्त्यन्ते, देवर्षयो गगनगमनद्धिसंयुक्ता कथ्य- पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः। न्ते, परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । (चारित्रसार तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । (न्यायदी. ३, पृ. ५६)। पृ. २२) । २. रेषणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषि- १ प्रत्यक्ष और स्मृति के निमित्त से जो संकलनाणः। (उपासका. ८६१)।
त्मक (जोड़रूप) ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्य१ ऋद्धिप्राप्त साधुओं को ऋषि कहते हैं, जो चार भिज्ञान कहते हैं । जो प्रत्यभिज्ञान 'यह वही है इस प्रकार के हैं-१ राषि-विक्रिया व अक्षीण- प्रकार से पूर्व व उत्तर दशाओं में व्याप्त रहने वाले ऋद्धिप्राप्त ऋषि । २ ब्रह्मर्षि-बुद्धि व प्रौषधि- एकत्व (अभेद) को विषय करता है वह एकत्वऋद्धिप्राप्त ऋषि । ३ देवषि-पाकाशगमन ऋद्धि प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। से युक्त ऋषि । ४ परमषि-केवलज्ञानी। एकत्वभावना-देखो एकत्वानुप्रेक्षा। एकाक्येव एकक्षेत्रस्पर्श-१. जं दव्वमेयवेत्तेण पुसदि सो जीव उत्पद्यते, कर्माणि उपार्जयति, भुङ्क्ते चेत्यादि सम्वो एयक्खेत्तफासो णाम । (ष. खं. ५, ३, १४- चिन्तनमेकत्वभावना (सम्बोधस.व. १६.प.१८)। पु. १३, पृ. १६) । २. एक्कम्हि आगासपदेसे ट्ठिद- जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही कर्मों अणंताणंतपोग्गलक्खंधाणं समवाएण संजोएण वा । का उपार्जन करता है, और अकेला ही उन्हें भोगता जो फासो सो एयक्खेत्तफासो णाम । बहुप्राणं वव्वा- है; इत्यादि विचार करने का नाम एकत्वभावना णं अक्कमेण एयक्खेत्तपुसणदुवारेण वा एयक्खेत्त- है। फासो वत्तव्यो। (धव. पु. १३, पृ. १६)।
एकत्वविक्रिया-तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथ२ एक आकाशप्रप्रदेश में स्थित अनन्तानन्त पुद्गल- ग्भावेन सिंह-व्याघ्र-हंस-कररादिभावेन विक्रिया । स्कन्धों के समवाय अथवा संयोग से जो परस्पर (त. वा. २, ४७, ६)। स्पर्श होता है, इसे एकक्षेत्रस्पर्श कहते हैं। बहुत अपने शरीर से अभिन्न सिंह-व्याघ्रादिरूप विक्रिया द्रव्यों का एक साथ एक-क्षेत्रस्पर्श के द्वारा जो के करने को एकत्वविक्रिया कहते हैं। परस्पर स्पर्श होता है उसे भी एक-क्षेत्रस्पर्श कहा एकत्ववितर्कावीचार-१. जेणेगमेव दव्वं जोगेजाता है।
णेक्केण अण्णदरएण । खीणकसानो झायइ तेणेयत्तं एकक्षेत्रावधिज्ञानोपयोग-१. श्रीवृक्ष-स्वस्तिक- तगं भणिदं । जम्हा सुदं बितक्कं जम्हा पुव्वगयनन्द्यावर्ताद्यन्यतमोपयोगोपकरण एकक्षेत्रः । (त. वा. प्रत्थगयकूसलो। झायदि झाणं एवं सविदक्कं तेण १-२२, पृ. ८३, पं. २५-२६)। २. जस्स अोहि- तं ज्झाणं ॥ अत्थाण वंजणाण य जोयाण य संकमो णाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमो- द वीचारो। तस्स प्रभावेण तगं झाणमवीचारमिदि हिणाणमेगवखेत्तं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २६५)। वुत्तं ॥ (भ. पा. १८८३-८५ धव. पु. १३, पृ. १ जिस अवधिज्ञान के उपयोग का श्रीवृक्ष, स्वस्तिक ७६ उद.) । २. स एव पुनः समूलतूलं (त. वा.व नन्द्यावर्त प्रादि चिह्नों में से कोई एक उपकरण सतूलमूलं) मोहनीयं निदिधक्षन् अनन्तगुणविशुद्धिहोता है उसे एकक्षेत्र-अवधि या एकक्षेत्रावधिज्ञानो- योगविशेषमाश्रित्य बहतराणां ज्ञानावरणसहायी
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एकत्ववितर्कावीचार ]
भूतानां प्रकृतीनां बन्धं निरुन्धन् स्थितेर्हास-क्षयो च कुर्वन् श्रुतज्ञानोपयोगो (त. वा. - गवान् ) निवृतार्थ - व्यञ्जन- योगसंक्रान्तिरविचलितमना क्षीणकयो मणिरिव निरुपलेपो ध्यात्वा पुनर्न निवर्तते इत्युक्तं एकत्ववितर्कम् । ( स. सि. ९-४४; त. वा. ६-४४) । ३. एगभावो एगत्तं, एगम्मि चेवं सुय गाणपत्ये उवउत्तो भायइत्ति वृत्तं भवइ । ग्रहवा एगम्म वा जोगे उवउत्तो भाइ । वितक्को सुयं ; अविचारं नाम अत्थान अत्यंतरं न संकमइ, वंजणाश्रो वंजणंतरं जोगाओ वा जोगंतरं । तत्थ निदरिसिणं - सुयणाणे उवउत्तो प्रत्थं म य वंजणमि य श्रविचारि | झायइ चोट्सपुव्वी बितियं झाणं विगतरागो ।। अत्थसंकमणं चेव तहा वंजणसंकमं । जोगसंकमणं चेव बितिए झाणे न विज्जइ । ( दशवै चू. प्र. १, पृ. ३५ ) । ४. जं पुण सुणिप्पकंपं णिवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पाय- द्विदिभंगादियाण
गम्म पज्जा ।। अवियारमत्थ- वंजण जोगंतर श्री विइयसुक्कं । पुव्वगय सुयालं बणमे यत्तवियक्कमवि यारं || ( झाणज्झयण ७९-८०; लोकप्र. पू. ४४२ उद्) । ५. एकस्य भावः एकत्वम्, वितर्को द्वादशाङ्गम्, श्रसङ्क्रान्तिरवीचारः एकत्वेन वितर्कस्य अर्थव्यञ्जन-योगानामवीचारः प्रसंक्रातिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कावीचारं ध्यानम् । (धव. पु. १३, पृ. ७६; चा. सा. पू. ६२)। ६. एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्य द्वादशाङ्गादे: अविचारोऽर्थ व्यञ्जन- योगेष्वसङ्क्रान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कावीचारं ध्यानम् । ( जयध. पु. १, पृ. ३४४) । ७. एकत्वेन वितर्कोऽस्ति यस्मिन् वीचारवजिते । तदेकत्व - वितकवीचारं शुक्लं तदुत्तरम् । ( ह. पु. ५६ - ६५ ) । ८. एकत्वेन वितर्कस्य स्याद् यत्राऽविचरिष्णुता । सवितर्कमवीचारमेकत्वादिपदाभिधम् ।। (म. पु. २१, ७१) ६ स एवाऽऽमूलतो मोहक्षपणाऽङ्गुर्ण मा नसः । प्राप्यानन्तगुणां शुद्धि निरुन्धन् बन्धमात्मनः ॥ ज्ञानावृतिसहायानां प्रकृतीनामशेषतः । ह्रासयन् क्षपयंश्चासां स्थितिबन्धं समन्ततः ॥ श्रुतज्ञानोपयुक्तात्मा वीतवीचारमानसः । क्षीणमोहोऽप्रकम्पा त्मा प्राप्तक्षायिकसंयमः ॥ ध्यात्वकत्ववितर्काख्यं ध्यानं घात्यघघस्मरम् । दधानः परमां शुद्धि दुरवा प्यामतोऽन्यतः ॥ ( त. इलो. ६-४४, ६-९) । १०. णीसेसमोहविलए खीणकमाए य अंतिमे काले ।
२६३, जैन-क्षणावली
[ एकत्ववितर्कावीचार
ससरूवम्मि णिलीणो सुक्कं झाएदि एयत्तं ॥ ( कार्तिके. ४८५ ) । ११. श्रविकम्प्यमनस्त्वेन योगसङ्क्रान्तिनिःस्पृहम् । तदेकत्ववितर्काख्यं श्रुतज्ञानोपयोगवत् ॥ ( त. भा. सिद्ध. वृ. ९-४३ उद्) । १२. द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च । ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत् । श्रुतं यतो वितर्कः स्याद्यतः पूर्वार्थशिक्षितः । एकत्वं ध्यायति ध्यानं सवितकं ततो हितम् ॥ अर्थ-व्यञ्जन- योगानां विचार: संक्रमो मतः । वीचारस्य ह्यसद्भावादवीचारमिदं भवेत् ॥ (त. सा. ७, ४८ - ५० ) । १३. प्रवीचारो वितर्कस्य यत्रैकत्वेन संस्थितः । सवितर्क मवीचारं तदेकत्वं विदुर्बुधाः ।। (ज्ञानार्णव ४२-१४) । १४. द्रव्यसंग्रहटीकायाम् — निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदन गुणे वा यत्रकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचारं गुण-द्रव्यपर्याय परावर्तनं करोति यत्तेदकत्ववितर्क वीचार (कार्तिके - वितर्कावीचार ) संज्ञ क्षीणकषाय-गुणस्थानसम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८; कार्तिके. टी. ४८५ उद्) । १५. किं चार्थप्रमुखेप्यसङ्क्रम मिहैकत्वश्रुतालम्बनम्, प्राहैकत्ववितर्कणाविचरणाभिख्यं द्वितीयं जिन: । (आत्मप्रबोध ६५ ) । १६. एवं श्रुतानुसारादेकत्ववितर्कमेकपर्यायम् । अर्थ- व्यञ्जन-योगान्तरेष्वसङ्क्रमणमन्यत्तु ।। (योगशा. ११-७; गु. गु. षट्. स्वो. बृ. २, पृ. ११ उ.) ; उत्पाद स्थिति भङ्गादिपर्यायाणां यदेकयोगः सन् । ध्यायति पर्ययमेकं तत्स्यादेकत्वमविचारम् || (योगशा. ११ - १८ ) । १७. एकत्वेन न पर्ययान्तरतया जातो वितर्कस्य यद्, यो वीचार इहैकवस्तुनि वचस्येकत्र योगेऽपि च । नार्थव्यञ्जन- योगजालचलनं तत्सार्थनामेत्यदो ध्यानं घातिविघातजातपरमार्हन्त्यं द्वितीयं मतम् ।। (प्राचा. सा. १० - ४९ ) । १८. निजात्मद्रव्यमेकं वा पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र तदेकत्वं विदु र्बुधाः ॥ ( गुण. क्र. ७६, पृ. ४७ ) । १६. अनेकेषां पर्ययाणामेकद्रव्यावलम्बिनाम् । एकस्यैव वितर्कों यः पूर्वगतश्रुताश्रयः ।। स च व्यञ्जनरूपोऽर्थंरूपो वैकतमो भवेत् । यत्रैकत्ववितर्काख्यं तद् ध्यानमिह वर्णतम् ।। ( लोकप्र. पू. ४४२ ) ; न च स्याद् व्यञ्ज
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एकत्वानुप्रेक्षा ]
नादर्थे तथाऽर्थाद् व्यञ्जनेऽपि वा । विचारो ऽत्र तदेकत्ववितर्कमविचारि च ॥ मनःप्रभृतियोगानामप्येकस्मात् परत्र नो । विचारोत्र तदेकत्ववि - तर्कमविचारि च ॥ ( लोकप्र. ३०, ४८६ - ६० ) । २ मोहकर्म का समूल नाश करने का इच्छुक होकर अनन्तगुणी विशुद्धि सहित योगविशेष के द्वारा ज्ञानावरण की सहायक बहुतसी प्रकृतियों के बन्ध का निरोध और उनकी स्थिति के ह्रास व क्षय का करने वाला, श्रुतज्ञानोपयोग से सहित तथा अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति-रहित जो केवल एक द्रव्य, गुण या पर्याय का चिन्तवन करता है - ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनिके जो निश्चल शुक्लध्यान होता है उसे एकत्ववितर्कावीचार ध्यान कहते हैं । एकत्वानुप्रेक्षा- देखो एकत्वभावना । १. सयणस्स परियणस्स य म एक्को स्वंतत्रो दुहिदो । वज्जदि मच्चु - वसगदो ण जणो कोई समं एदि । एक्को करेदि कम्मं एक्को डिदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य एवं चितेहि एयत्तं ॥ ( मूला. ८, ८- ६ ) । २. एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुंजदे एक्को । एक्को करेदि पावं विसयणिमित्तेण तिव्व लोहेण । णिरय-तिरिएसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को । एक्को करेदि पुण्णं धम्मणिमित्तेण पत्तदाणे | मणुव-देवेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ एक्कोऽहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो । सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चितेइ संजदो ।। ( द्वादशा. १४-१६ वं २०) । ३. जन्म-जरा-मरणानुवृत्तिमहादुःखानुभवं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्वः परो वा विद्यते । एक एव जायेऽहम् क एव म्रिये, न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा ब्याधि-जरा-मरणादीनि दुःखान्यपहरति, बन्धु-मित्राणि स्मशानं नातिवर्तन्ते धर्ममेव मे सहायः सदा अनुयायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा ॥ ( स. सि. - ७ ) । ४. एक एवाहं न मेकश्चित् स्वः परो वा विद्यते । एक एवाहं जाये, एक एव म्रिये, न मे कश्चित् स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा, व्याधि-जरा-मरणादीनि दुःखान्यपहरति प्रत्यंशहारी वा भवति, एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत् एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहा - नुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानु
[ एकबन्धन
बन्धः । ततो निःसङ्गतामभ्युपगते मोक्षायैव यतेत इत्येकत्वानुप्रेक्षा । ( त. भा. 8-७ ) । ५. इक्को जीवो जायदि एक्को गन्भम्हि गिरहदे देहं । इक्को बाल- जुवाणो इक्को बुड्ढो जरागहिश्रो ॥ इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे । इक्को मरदि वराम्रो णरय-दुहं सहदि इक्को वि । इक्को संचदि
एक्को भुंजेदिविहि- सुर- सोक्खं । इक्को खवेदि कम्मं इक्को विपायए मोक्खं । सुयणो पिच्छंतो विहु ण दुक्खलेसं पिसक्कदे गहिदु । एवं जाणंतो विहु तोपि ममत्तं ण छंडेइ ।। ( कार्तिके. ७४-७७)। ३ जन्म, जरा और मरण रूप महान् दुःख का सहने वाला मैं एक ही हूं - इसके लिये न मेरा कोई स्व है और न पर भी है; मैं श्रकेला ही जन्म लेता हूं और अकेला ही मरता हूं— कोई भी स्वजन और परजन मेरे रोग, जरा एवं मरण श्रादि के कष्ट को दूर नहीं कर सकता है; बन्धुजन व मित्रजन अधिक से अधिक स्मशान तक जाने वाले हैं - श्रागे कोई भी साथ जाने वाला नहीं है; हां धर्म एक ऐसा अवश्य है जो मेरे साथ जाकर भवान्तर में भी सहायक हो सकता है; इत्यादि प्रकार निरन्तर विचार करना, इसका नाम एकत्वानुप्रेक्षा है । एकदेशच्छेद - निर्विकल्पसमाधिरूप सामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशच्छेदः । (प्र. सा. जय. वृ. ३-१० ) । निर्विकल्प समाधिरूप सामायिक के एक अंश के विनाश को एकदेशच्छेद कहते हैं । एकपादस्थान - एगपादं एगेन पादेनावस्थानम् । ( भ. प्रा. विजयो. २२३) । एक पैर से स्थित होकर तपश्चरण करना, इसका नाम एकपाद ( कायक्लेशविशेष) है । एकप्रत्यय ( ज्ञान ) - १. एकाभिधान - व्यवहारनिबन्धनः प्रत्यय एकः । (धव. पु. ६, पृ. १५१ ) ; एकार्थविषय: प्रत्ययः एकः ( अवग्रहः ) | ( धव. पु. १३, पृ. २३६ ) । २. बह्न व्यक्तिविज्ञानं बह्न कं चक्रमाद्यथा । (श्रा. सा. ४-१७ ) । जो प्रत्यय एक नाम और व्यवहार का कारण होता है वह एकप्रत्यय कहलाता है । एकबन्धन - छण्णं जीवणिकायाणं सरीरसमवाश्रो एयबंधणं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४६१) । पृथिवीकायिकादि छह जीवसमूहों के शरीरसमवाय का नाम एकबन्धन है ।
२९४, जैन-लक्षणावली
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एकभक्त] २६५, जैन-लक्षणावली
[एकविधावग्रह एकभक्त-१उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जिय- ष्ठेत्, सुष्ठु प्राणिहितचित्तश्चतुर्विधोपसर्गसहो न म्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहत्तकालेय- चलेन्न पतेत् यावत् सूर्य उदेति, सैषा एकरात्रिकी भत्तं तु ।। (मूला. १-३५)। २. उदयकालं नाडी- भिक्षुप्रविमा । (भ. प्रा. विजयो. ४०३, मूलारा. त्रिकप्रमाणं वर्जयित्वा अस्तमनकालं च नाडीत्रिक- ४०३)। प्रमाणं वर्जयित्वा शेषकालमध्ये एकस्मिन् महतद्वयो- जो तीन उपवास करके चौथी रात्रि में ग्राम-नगरादि मुहूर्तयोस्त्रिषु वा मुहूर्तेषु यदेतदशनं तदेकभक्तसंज्ञ- के बाहिर किसी भी स्थान में अथवा स्मशान में कं व्रतमिति । xxx अथवा नाडीत्रिकप्रमाणे पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख अथवा जिनचैत्याभिमुख उदयास्त मन काले च वजिते मध्यकाले त्रिषु मुहूर्तेषु होकर पांवों के बीच चार अंगुल प्रमाण अन्तर भोजनक्रियाया या निष्पत्तिस्तेदकभक्तमिति । अथवा रखते हुए नासिका पर दृष्टि रख कर स्थित अहोरात्रमध्ये द्वे भक्तवेले, तत्र एकस्यां भक्तबेला होता है व शरीर से निर्ममत्व होकर प्राणिहित में याम् आहारग्रहणमेकभक्तमिति । (मूला. वृ. १-३५)। निमग्न होता हुआ चारों प्रकार के उपसर्ग को सहता ३. उदयास्तोभयं त्यक्त्वा त्रिनाडीभॊजनं सकृत् । है तथा सूर्य का उदय होने तक निश्चलतापूर्वक एक-द्वि-त्रिमहर्त स्यादेकभक्तं दिने मूनेः। (प्राचा. उसी प्रकार से स्थित रहता है, वह एकरात्रिकी सा. १-४७)।
भिक्षुप्रतिमा का निर्वाहक होता है। २ उदय और प्रस्तमनकाल सम्बन्धी तीन-तीन नाड़ी एकविध प्रत्यय-१. एकजातिविषयत्वादेतत-(बह(घटिका) प्रमाण काल को छोड़ कर शेष काल में विध-) प्रतिपक्षः प्रत्ययः एकविधः। (धव. पु.६, एक, दो अथवा तीन महों में भोजन करना एक- पृ. १५२); एकजातिविषयः प्रत्ययः एकविधः। भक्त कहलाता है। अथवा उदय व अस्तमन (धव. पु. १३, पृ. २३७)। २. बह्व कजातिविज्ञानं सम्बन्धी तीन घटिकामों को छोड़कर मध्य के तीन स्याद् बह कविधं यथा। वर्णा नृणां बहुविधाः महतों में भोजनक्रिया के करने को एकभक्त कहते गौर्जात्येकविधेति च ।। (प्राचा. सा. ४-१५)। हैं। अथवा दिन-रात में दो बार भोजन किया १ जो ज्ञान बहत जातिभेदों को विषय करने वाले जाता है, उसमें एक ही बार भोजन करना, इसे बहुविधप्रत्यय से पृथक् होकर एक ही जाति के एकभक्त कहा जाता है।
पदार्थ को ग्रहण करता है, उसे एकविध प्रत्यय कहा एकभिक्षानियम (क्षुल्लक)-१. जइ एवं ण जाता है। रएज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए । पविसत्ति एय- एकविध बन्ध- एकस्या: सातवेदनीयलक्षणाया:
प्रकृतेर्बन्धः एकविधबन्धः। (शतक दे. स्वो.ब. ३०६)। २. यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमुन्य- २२)। सौ। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ।। (सा. एक मात्र सातावेदनीय प्रकृति के बन्ध को एकविध ध. ७-४६); एकस्यां एकगृहसम्बन्धिन्यां भिक्षायां बन्ध कहते हैं। नियमः प्रतिज्ञा यस्य स एकभिक्षानियमः । (सा. ध. एकविधावग्रह- १. एयपयारग्गहणमेयविहावग्गस्वो. टी. ७-४६)।
हो।xxxएगजाईए ट्ठिदएयस्स बहूण वा गह२ एक ही घर पर भिक्षा के नियम वाले क्षुल्लक णमेयविहावग्गहो । (धव. पु. ६, पृ. २०)। २. को एकभिक्षानियम वाला क्षुल्लक कहते हैं। यह अल्पविशद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारण मात्मा मनियों के प्राहार करने के अनन्तर भिक्षार्थ नगर ततादिशब्दानामेकविधावग्रहणादेकविधमवगृह्णाति । में जाता है और एक ही घर में प्राहार ग्रहण (त. वा. १, १६, १६)। ३. एकजातिग्रहणमेककरता है व भोजन के प्रभाव में उपवास करता है। विधाबग्रहः। (मला. व. १२-१८७) एकरात्रिको भिक्षुप्रतिमा - उपवासत्रयं कृत्वा १ एक प्रकार के पदार्थ के जानने का नाम एकचतुर्थ्या रात्री ग्राम-नगरादेर्बहिर्देशे श्मशाने वा विधावग्रह है। वह एक जाति का पदार्थ चाहे एक प्राङ्मुखः उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो भूत्वा चतुरंगुल- हो चाहे बहुत हों, उसका ज्ञान एकविधावग्रह ही मात्रपदान्तरो नासिकाग्रनिहितदृष्टिस्त्यक्तकायस्ति- कहलाता है।
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एक विहारी ]
एकविहारी - तव सुत्त -सत्त- एगत्त-भाव-संघडण घिदिसमग्गो य । पवित्रा - आगमवलियो एयविहारी अण्णादो || सच्छंद गदागदी सयण- णिसयणादाणभिक्ख-वोसरणे । सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तू वि
गागी । (मूला. ४, २८ - २६ ) । जो तप, श्रुत, सत्व, एकत्व, भाव, संहनन एवं धैर्य श्रादि गुणों से संयुक्त होकर तप से वृद्ध और श्रागम का ज्ञाता हो ऐसे साधु को एकविहारी होने की अनुज्ञा प्राप्त है । किन्तु जो सयन, श्रासन, ग्रहण, भिक्षा और मल-मूत्र का त्याग, इन कार्यों में स्वछन्द होकर प्रवृत्ति करता है व मनमाने ढंग से बोलता है वह एकविहारी नहीं हो सकता है । एकसिद्ध - १. एकसिद्धा इति एकस्मिन् समये एक एव सिद्ध: । ( नन्दी. हरि. वू. पृ. ५१; श्रा. प्र. टी. ७७)। २. XXX हिया इग समय एग सिद्धा य। ( नवतत्त्वप्र. ५६ ) । ३. एकस्मिन् एकस्मिन् समये एकका एव सन्तः सिद्धा एक सिद्धाः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-७, पृ. २२; शास्त्र. समु. टी. ११, ५४. पृ. ४२५) ।
१ एक समय में जो एक ही मुक्त होता है, उसे एकसिद्ध कहते हैं । एक सिद्धकेवलज्ञान एक सिद्ध केवलज्ञानं नाम यस्मिन् समये स विवक्षितः सिद्धस्तस्मिन् समये यद्यन्यः कोऽपि न सिद्धस्ततस्तस्य केवलज्ञानमेकसिद्धकेवलज्ञानम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ.
८५)।
२९६, जैन- लक्षणावली [ एकादशी प्रतिमा ग्रमस्येत्येकाग्रः, नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्नग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते । ( स. सि. ६-२७) । २. एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकाग्रः, चिन्ताया निरोधः चिन्तानिरोधः, एकाग्रे चिन्तानि - रोधः एकाग्र चिन्तानिरोधः । (त. वा. ६-२७ ) । ३. एकाग्रेणेति वा नानामुखत्वेन निवृत्तये । क्वचि - चिचन्ता निरोधस्याध्यानत्वेन प्रभादिवत् ॥ ××× एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकाग्रः, चिन्ताया निरोधः [ चिन्तनिरोधः ], एकाग्रश्चासौ चिन्तानि रोघश्च स इत्येकाग्र चिन्तानिरोध: । (त. इलो. ६, २७, ६) । ४. एकस्मिन्नग्रे प्रधाने वस्तुन्यात्मनि परत्र वा चिन्तानिरोधो निश्चलता चिन्तान्तरनिवारणं चैकाग्रचिन्तनिरोधः । (त. सुखबो. वृ. ९ - २७ ) । ५. एकमग्रं मुखमवलम्बनं द्रव्यं पर्यायः तदुभयं स्थूलं सूक्ष्मं वा यस्य स एकाग्रः, एकाग्रस्य चिन्तानिरोधः आत्मार्थं परित्यज्यापर चिन्ता निषेधः × × × चिन्ताया: श्रपरसमस्त मुखेभ्यः समग्रावलम्बनेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन् अग्रे प्रधानवस्तुनि नियमनं निश्चलीकरणमेकाग्र चिन्तानिरोधः स्यात् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२७ )
१
का अर्थ मुख या प्रधान होता है, अनेक विषयों के आलम्बन से चिन्ता चलायमान होती है, इसीलिये उस चिन्ता को अन्य सब विषयों की ओर से हटा कर एक प्रमुख विषय में लगाना, इसे एकाग्रचिन्तानिरोध ( ध्यान ) कहा जाता है । एकाग्रमन - जहा उ पावगं कम्मं रागदोससमज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू तमेगग्गमणो मुण || (उत्तरा ३० - १, पृ. ३३७) ।
जो साधु तप के द्वारा राग-द्वेष से उपार्जित पाप कर्म को नष्ट करता है उसे एकाग्रमन जानना चाहिये ।
एकादशी प्रतिमा - एकादशमासान् व्यक्तसङ्गो रजोहरणादिमुनिवेषधारी कृतकेशोत्पाटः स्वायत्तेषु गोकुलादिषु वसन् प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपास काय भिक्षां दत्त' इति वदन् धर्मलाभ शब्दोच्चारणरहितं सुसाधुवत् समाचरतीत्येकादशी । उक्तं चएक्कासीइ निस्संगो घर लिंगं पडिग्गहं । कयलोश्रो सुसाहुव्व पुव्वुत्तगुणसायरो || (योगशास्त्र स्वो. विव. ३-१४८, पु. ३७२ ) ।
जिस समय में विवक्षित कोई एक जीव सिद्ध होता है उस समय में यदि अन्य कोई सिद्ध नहीं होता है तो उसके केवलज्ञान को एकसिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है ।
एकस्थिति - एया कम्मस्स द्विदी एयट्ठिदी णाम । ( जयध. ३, पृ. १६१ ) ।
कर्म की एक स्थिति को एकस्थिति कहते हैं । एकस्वभाव- १. भेदसंकल्पनामुक्त एकस्वभाव श्राहितः । ( द्रव्यानु. त. १३ - ३ ) । २. भेदकल्पनारहितशुद्धद्रव्यार्थिकनये भेदकल्पनामुक्त एकस्वभावः कथितः । (द्रव्यानु. त. टी. १३-३ ) ।
२ भेद की कल्पना से रहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नय में भेदकल्पना से रहित को एकस्वभाव कहा जाता है । एकाग्र चिन्ता निरोध - १. ग्रं मुखम् एकम
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एकान्त २६७, जैन-लक्षणावली
[एकाश (स)न जो उपासक ग्यारह मास तक परिग्रह से रहित तमिथ्यात्वम् । (गो. जी. म. प्र. टी. १५)। ८. होकर मनि के वेषस्वरूप रजोहरणादि को धारण इदमेव इत्थमेवेति धमिधर्मयोविषये अभिप्रायः, पुमाकरता है, केशलोंच करता है, स्वाधीन गोकुल आदि नेवेदं सर्वमिति, नित्य एवानित्य एवेतिवाऽभिनिवेश में रहता है, तथा 'धर्मलाभ' शब्द का उच्चारण न एकान्तमिथ्यादर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-१)। करके 'प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो' ६. जीवादि वस्तु सर्वथा सदेव सर्वथाऽसदेव, ऐसा कहता है; इस प्रकार जो उत्तम साधु के सर्वथा एकमेव सर्वथा अनेकमेवेत्यादि प्रतिपक्षसमान पाचरण करता है; वह ग्यारहवीं प्रतिमा निरपेक्षकान्ताभिप्राय एकान्त मिथ्यात्वम् । (गो. का धारक होता है।
जी. जी. प्र. टी. १५)। एकान्त-जं तं एयाणंतं तं लोगमज्झादो एगसेढिं २ पदार्थ अस्तिरूप ही है अथवा नास्तिरूप ही है, पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणंतं । (धव. पु. ३, एक ही है अथवा अनेक ही है, सावयव ही है अथवा
निरवयव ही है, तथा नित्य ही है अथवा अनित्य ही लोक के मध्य से एक ओर आकाशप्रदेशपंक्ति के है। इत्यादि प्रकार के एक ही धर्म के अभिनिवेश देखने पर चूंकि अन्त सम्भव नहीं है, अतः इसे या आग्रह को एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं। एकानन्त कहा जाता है।
एकान्तसात-जं कम्मं सादत्ताए बद्धं असंछुद्ध एकान्त-प्रसात-जं कम्मं असादत्ताए बद्धं असं. अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतसादं । छुद्ध अपडिच्छुद्धं प्रसादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- (धव. पु. १६, पु. ४९८)। असादं । (धव. पु.१६, पृ. ४९८)।
जो कर्म सातास्वरूप से बन्ध को प्राप्त होकर संक्षेप जो कर्म असातारूप से बन्ध को प्राप्त होकर संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होता हा सातास्वरूप से वेदा व प्रतिक्षेप से रहित होता हुआ असातस्वरूप से जाता है— अनुभव में प्राप्त होता है-उसे एकान्तवेदा जाता है-अनुभव में प्राता है-उसे एकान्त- सात कहते हैं। प्रसात कहते हैं।
एकावग्रह–एकस्सेव वत्थुवलंमो एयावग्गहो । एकान्त मिथ्यात्व-१. तत्र इदमेव इत्थमेवेति xxx एयवत्थुग्गाहो अवबोधो एयावग्गहो घमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः। (स. सि.८-१: उच्चदि।xxxविहि-पडिसेहारद्धमेयं वत्थ, तस्स त. वा. ८, १, २८)। २. अत्थि चेव णत्थि चेव, उवलंभो एयावग्गहो । (धव.पु. ६, पृ. १६)। एगमेव अणेगमेव, सावयबं चेव णिरवयवं चेव, विधि-प्रतिषेधात्मक एक ही वस्तु के उपलम्भ कोणिच्चमेव अणिच्चमेव, इच्चाइग्रो एयंताहिणिवेसो जानने को-एकावग्रह कहते हैं। एयंतमिच्छत्तं । (धव. पु. ८, पृ. २०)। ३. एका- एकाश (स)न-१. एक्कं असणं अहवा वि आसणं न्तमिथ्यात्वं नाम वस्तुनो जीवादेनित्यत्वमेव स्व. जत्थ निच्चलपूयस्स । तं एक्कासणमुत्तं इगवेलाभावो न चानित्यत्वादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. भोयणे नियमो ॥ (प्रत्याख्यानस्व. १०७)। २. -१-२३)। ४. यत्राभिसन्निवेश: स्यादत्यन्तं धर्मि- २. एकस्थानं स्थितभोजनम् । (प्राय. स. टी. १, धर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ॥ (त. २)। ३. एकस्थानं सकृदभुक्तम् । (अमित. श्रा. सा. ५-४)। ५. क्षणिकोऽक्षणिको जीवः सर्वदा ६-६१)। ४. एकं सकृदशनं भोजनम्, एक वाऽऽसनम् सगुणोऽगुणः । इत्यादिभाषमाणस्य तदैकान्तिकमि- पूताचलनतो यत्र तदेकाशनमेकासनं च। (योगशा. ष्यते ॥ (अमित. श्रा. २-६)। ६. इदमेवेत्थमेवेति स्वो. विव. ३-१३०); एक्कासणगं पच्चक्खाइ चउसर्वथा धर्मधर्मिणोः । ग्राहिका शेमूषी प्राज्ञैरकान्ति- विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थकमुदाहृतम् ।। (पंचसं. अमित. ५-२६) । ७. सर्व- णाभोगेण सह सागारेण सागारि अगारेणं आउंटणथाऽस्त्येव नास्त्येवैकमेवाऽनेकमेव नित्यमेवाऽनित्य- पसारणणं गुरु अब्भदाणेणं पारिद्रावणियागारेणं मेव वक्तव्यमेवाऽवक्तव्यमेव जीवादिवस्तु इत्यादि- महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्ति अगारेणं बोसिरइ । प्रतिपक्षनिरपेक्षसर्वथानियम एकान्तः, तच्छद्धानमेका- (योगशा. स्वो, विव. उद. ३-१३०, पृ. २५२)।
ल, ३८
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एकासंख्यात] २९८, जैन-लक्षणावली
[एवम्भूतनय १ जिस नियमविशेष में एक भोजन अथवा पुतों xxx॥ (कर्मवि. ग. ८७)। पर स्थिर रहते हुये भोजन के लिये एक १ जिस कर्म के उदय जीव 'एकेन्द्रिय' कहा जाता आसन को स्वीकार किया जाता है उसे एकाशन है उसे एकेन्द्रियजाति नामकर्म कहते हैं । या एकासन कहते हैं।
एकेन्द्रियलब्धि - पासिंदियावरणखग्रोवसमेण समुएकासंख्यात-जं तं एयासंखेज्जयं तं लोयावा- प्पण्णा सत्ती एइंदियलद्धी णाम । (धव. पु. १४, सस्स एगदिसा। कुदो ? सेढिागारेण लोयस्स एग- पृ. २०)। दिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखातीदादो । स्पर्शनेन्द्रियाववण के क्षयोपशम से जीव को जो (धव. पु. ३, पृ. १२५)।
स्पर्श के जानने की शक्ति प्राप्त होती है उसका प्रदेशपंक्ति स्वरूप से लोक की एकदिशा की ओर नाम एकेन्द्रियलब्धि है। देखने पर चूंकि प्रदेशों की गणना सम्भव नहीं है, एलमक-यस्त्वेलक इबाव्यक्तमूकतया शब्दप्रतएव उसे एकासंख्यात कहा जाता है। मात्रमेव करोति स ए लमूकः । (गु. गु. षद. स्वो. एकेन्द्रिय-१. इंदियाणुवादेण एइंदियोxxx वृ. २२) । णाम कधं भवदि ? | खग्रोवसमियाए लद्धीए । (ष. भेड़ की तरह अव्यक्त शब्द करने वाले व्यक्ति को खं. पु. २, १, १४-१५ पु. ७, पृ. ६१)। २.x एलम्क (भाषाजड़) कहते हैं। ऐसा व्यक्ति जिनXX पूढविकाइयादीया। मणपरिणामविरहिदा दीक्षा के योग्य नहीं होता है। जीवा एगेंदिया भणिया ।। (पञ्चा. का. ११२)। ३. एवम्भूतनय-१. येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययएकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकेन्द्रियः । (धव. पु. १, तीति एवम्भूतः । (स. सि. १-३३; त. वा. १, पृ. २४८); ए देण एक्केण इंदियेण जो जाणदि ३३, ११) । २. वंजण-प्रत्थ तदुभयं एवंभूमो विसेपरसदि सेवदि जीवो सो ए इंदिनो णाम । (धव. पु. सेइ । (अनुयो. गा. १३८, पृ. २६६; प्राव. नि. ७, पृ. ६२)। ४. पृथिवीकायिकादयो हि जीवा: स्पर्श- ७५८)। ३. ब्यञ्जनार्थयोरेवभ्भूतः ।xxxतेषानेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइ मेव व्यञ्जनार्थयोरन्योन्यापेक्षार्थग्राहित्वमेवम्भतः । न्द्रियावरणोदये च सत्ये केन्द्रिया अमनसः । (पंचा. का. (त. भा. १-३५)। ४.xxx इत्थंभूतः क्रियाअमृत. व. ११२) । ५. एकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्या- श्रयः ॥ (लघीय. ४४)। ५. एवं जह सइत्थो संतो वरणक्षयोपशमात्तदेकविज्ञानभाजः एकेन्द्रियाः । (कर्म- भूमो तदन्नहाऽभूयो। तेणेवंभूयनो सइत्थपरो स्तव गो. वृ. ६-१०, पृ. ८४; शतक. मल. हेम. विसेसेणं । (विशेषा. २७४२)। ६. व्यज्यतेऽनेन वृ. ३७-३८, पृ. ३७) ।
व्यनक्तीति वा व्यञ्जनं शब्दः, अर्थस्तु तद्गोचरः, ३ जो जीव इस एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा जानता तच्च तदुभयं च, तदुभयं शब्दार्थलक्षणम्, एवम्भूतः देखता है व सेवन करता है वह एकेन्द्रिय कहलाता -यथाभूतो नयो विशेषयति । इदमत्र हृदयम्है। यह एकेन्द्रिय अवस्था एकेन्द्रिय जातिनामकर्म शब्दमर्थेन विशेषयति, अर्थं च शब्देन, 'घट चेष्टाके उदय से हुआ करती है। ४ स्पर्शनेन्द्रियावरण के याम्' इत्यत्र चेष्टया घटशब्दं विशेषयति, घटशब्देक्षयोपशम और शेष इन्द्रियावरणों व नोइन्द्रिया- नापि चेष्टाम्, न स्थानभरणक्रियाम्, ततश्च यदा वरण के उदय से युक्त पृथिवीकायिकादि पांच योषिन्मस्तकव्यवस्थितः चेष्टावानर्थों घटशब्देनोच्यते प्रकार के जीव एकेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। तदा स घटः, तद्वाचकश्च शब्दः, अन्यदा वस्त्वन्तएकेन्द्रिय जातिनाम-१. यदुदयादात्मा एकेन्द्रिय रस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं तद्ध्वनेश्चावाचकत्वम् । इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । (स. सि. ८-११: (पाव. नि. हरि. वृ. ७५८, पृ. २८४; अनुयो. हरि. त. वा. ८, ११, २; भ. प्रा. मूला. टी. २०६६)। वृ. गा. १३८, पृ. १२५-२६)। ७. व्य ञ्जनं शब्दः २. एइंदियाणमे इंदियहि एइंदियभावेण जस्स कम्मस्स तदभिधेयोऽर्थः तयोर्व्यञ्जनार्थयोः, एवंपर्यायाभावउदएण सरिसत्तं होदि तं कम्ममेइंदियजादिणामं । वद्वाच्य वाचकप्रवृत्तिनिमित्तभावे, भूतो यथार्थ (धव. पु. ६, पृ. ६७)। ३. एगिदियेसु जीवो एवम्भूत इति । यथा घटशब्दो न कुटार्थवाचकः, जस्सिह उदयेण होइ कम्मस्स। सा एगिदियजाई, प्रवृत्तिनिमित्तभावात्; एवं नाचेष्टावदर्थवाचको
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एवम्भूतनय]
२६६, जैन-लक्षणावली
[एवम्भूतनयाभास
ऽप्यत एव हेतोः, अर्थोऽपि तक्रियाशन्यो न स इति, मेवम्भूतमभ्यधुः ।। (त. सा. १-५०)। १५. एवतथार्यमाणत्वाभावात् । अतो यदैव योषिन्मस्तका- मित्थं विवक्षितक्रियापरिणामप्रकारेण भूतं परिणतघिरूढो जलाद्यानयनाय चेष्टते तदैव घटः, घटवाच. मथं योऽभिप्रेति स एवम्भूतो नयः । (प्र. क. मा. कोऽपि घटशब्दोऽस्य तदैवेत्यध्यवसाय एवम्भतः। ६-७४, प. ६८०)। १६. तक्रियापरिणामकाल: xxx तेषामेव-अनन्तरनयपरिगृहीतघटादी- तदित्थंभूतो यथा कुर्वत एव कारकत्वमिति । (मूला. नाम्- यो व्यञ्जनाौँ, तयोर्व्यञ्जनार्थयोरन्योन्या- वृ. ६-६७)। १७. क्रियाश्रयेण भेदप्ररूपणमित्थंपेक्षार्थग्राहित्वमिति स्वप्रवृत्तिनिमित्तभावेन यथा भावः (एवम्भूतः)। (प्र. र. मा. ६-७४) । १८. व्यञ्जनं तथाऽर्थो यथार्थः तथा व्यञ्नम्, एवं सति पुनरित्थंभूतो नाम नयः-- क्रियाश्रयो विवक्षितक्रियावाच्य-वाचकसम्बन्धो नान्यथा, प्रष्टप्रवृत्तिनिमित्त. प्रधानः सन्नर्थभेदकृत् । यथा-यदैवेन्दति तदेवेन्द्रः, भावेनेत्यध्यवसायः एवम्भूतः। (त. भा. हरि. व. नाभिषेवको न पूजक इति । अन्यथापि तद्भावे १-३५) । ८. तेषामेव-अनन्तरनयपरिगृहीतघटा- क्रियाशब्दप्रयोगनियमो न स्यात् । (लघीय. अभय. दीनाम् -यौ व्यञ्जनायौँ तयोरन्योन्यापेक्षार्थग्राही वृ. ४४, पृ. ६४); क्रियाशब्दभेदादर्थभेदकृदेवम्मूतः । योऽध्यवसायः स एवम्भूतः परमार्थः, व्यञ्जनं घाच- (लघीय. अभय. वृ. ७२)। १६. एवमिति तथाभूतः कः शब्दः, अर्थोऽभिधेयो वाच्यः । अथ का पुनरन्यो- सत्यो घटादिरों नान्यथाप्येवमभ्युपगमपरः एवम्भूतो न्यापेक्षा ? यदि यथा व्यञ्जनं तथार्थों यथा चार्थ- नयः । अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं व्युत्पत्त्यर्थास्तथा व्यञ्जनम्, एवं हि सति वाच्य-वाचकसम्बन्धो विष्ट मेवार्थमिच्छति, जलाहरणादिचेष्टावन्तं घटमिघटते, अन्यथा न; योग्य क्रियाविशिष्टमेव वस्तुस्व- वेति । (स्थानां. अभय. व. १८६, पृ. १५३) । रूपं प्रतिपद्यते इति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-३५)। २०. यदैव शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं चेष्टादिकं तस्मिन् ६. तरिक्रयापरिणामोऽर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् । घटादिके वस्तुनि तदैवासौ युवतिमस्तकारूढ उदकाएवम्भूतेन नीयेत क्रियान्तरपराङ्मुखः ।। (त. श्लो. द्याहरणक्रियाप्रवृत्तो घटो भवति, न निर्व्यापारः, १, ३३, ७८)। १०. एवं भेदे भवनादेवम्भतः। एवम्भूतस्यार्थस्य समाश्रयणादेवम्भूताभिधानो नयो Xxx पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय भवति । (सूत्रकृ. शी. व. २, ७,८१ पृ. १८६)। एवम्भूतनयः । xxxपदगतवर्णभेदाद वाच्यभेद. २१. शब्दाभिधेयक्रियापरिणतवेलायामेव 'तद्वस्तु' स्याध्यवसायकोऽप्येवम्भूतः । (धव. पु. १, पृ. ६०); णिरयगई संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं । र्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वातइया सो रइौ एवंभूदो णो भणदि ।। (धव. देवम्भूतोऽभिमन्यते । (सम्मति. अमय. व. ३, पृ. पु. ७, पृ. २६ उद्.); वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य ३१४ उद.)। गवाद्यर्थभेदेन गबादिशब्दस्य च भेदक! एवम्भूतः। १ जो द्रव्य जिस प्रकार की क्रिया से परिणत हो, (धव. पु.६,पृ. १८०)। ११. एवम्भवनादेवम्भूतः। उसका उसी प्रकार से निश्चय कराने वाले नय को Xxx एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगत- एवम्भूत नय कहते हैं। वर्णमात्रार्थ एकार्थ इत्येवम्भूताभिप्रायवान् एवम्भूत- एवम्भूतनयाभास-१. क्रियानिरपेक्षत्वेन क्रियानयः । (जयध. पु. १, ५, २४२)। १२. यदेन्दति वाचकेष काल्पनिको व्यवहारस्तदाभासः । (प्र. र. सदैवेन्द्रो नान्यदेति कियाक्षणे । वाचकं मन्यते त्वेवै- मा. ६-७४)। २. क्रियाऽनाबिष्टं वस्तु शब्दवाच्यवम्भूतो यथार्थवाक् ।। (ह. पु. ५८-४६)। १३. जं तया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभासः । (प्र. न. त.७-४२)। जं करेइ कम्म देही मणवयणकायचिद्राहि । तं तं ३. क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु खु णामजुत्तो एवंभूमो हवे स णो। पण्णवण तदाभास इति । स्वकीयक्रियारहितं तद्वस्त्वपि शब्दभाविभूदे अत्थे जो सो हु भेदपज्जायो । अह तं एवं वाच्यतया प्रतिक्षिपति तच्छब्दवाच्यमिदं न भवत्येभूदो संभवदो मुणह प्रत्येसु ।। (ल. न. च. ४३ व ४५; वैतादृश एवम्भूताभासः । उदाहरणं यथा-विशिबृ. न. च. २१६ व २१६) । १४. शब्दो येनात्मना ष्टचेष्टाशन्यं घटाख्यवस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटभतस्तेनैवाध्यवसाययेत् । यो नयो मुनयो मान्यस्त- शब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाशून्यत्वात् पटवदित्यादि
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एषण ३००, जैन-लक्षणावलो
[एसणासमिति रिति । अनेन हि वाक्येन स्वक्रियारहितस्य घटादेर्व- ८. पिण्डशुद्धिविधानेन शरीरस्थितये तु यत् । पाहास्तुनो घटादिशब्दवाच्यतानिषेधः क्रियते, स च रग्रहणं सा स्यादेषणासमितियते: ।। (ह. पु. २, प्रमाणबाधित इत्येवं भूतनयाभासतयोक्तमिति । (नय- १२४)। ६. अन्नादावदगमादिदोषवर्जनमेषणासमिप्रदीप पृ. १०४)।
तिः । उद्गमादयो हि दोषा उद्गमोत्पादनैषण१ क्रियावाचक शब्दों में क्रिया-निरपेक्ष काल्पनिक संयोजन-प्रमाणाङ्कार-कारण-धूमप्रत्ययास्तेषां नवभिः व्यवहार को एवम्भूतनयाभास कहते हैं।
कोटिभिः वर्जनं एषणासमितिरित्यर्थः। (त. श्लो. एषरण-किमेषणम् ? असण-पाण-खादिय-सादियं । ६-५)। १०. पिण्डं तथोपधि शय्यामुद्गमोत्पाद(धव. पु. १३, पृ. ५५)।
नादिना । साधोः शोधयतः शुद्धा ह्यषणासमितिर्भप्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चार प्रकार के वेत् ॥ (त. सा. ६-६)। ११. एतैर्दोषैः (उद्गपाहार को एषण कहते हैं।
मादिषट्चत्वारिंशद्दोषः) परिवजितमाहारग्रहणमेषएसरणासमिति-१. कद-कारिदाणुमोदणरहिदं तह णासमितिः । (चा. सा. पृ. ३१)। १२. उद्पासुगं पसत्थं च । दिण्णं परेण भत्तं संभुत्ती एसणा. ममोत्पादसंज्ञेस्तैर्धमाङ्गारादिगैस्तथा । दोषमलविसमिदी ।। (नि. सा. ६३;) । २. छादालदोस- निर्मुक्तं विघ्नशंकादिवजितम् ॥ शुद्धं काले परैर्दत्तसुद्धं कारणजुत्तं विशुद्धणवकोडी । सीदादी समभुत्ती मनुद्दिष्टमयाचितम् । अदतोऽन्नं मुनेशैंया एषणापरिसुद्धा एसणा समिदी ॥ (मूला. १-१३)। समितिः परा ॥ (ज्ञानार्णव १८, १०-११) । १३. ३. उग्गम-उप्पायण-एसणाहिं पिंडमुवधि सेज्जं च । षट्चत्वारिंशद्दोषोना प्रासुकान्नादिकस्य या। एषणासोधितस्स य मुणिणो विसुज्झए एसणासमिदी। समितिभुक्तिः स्वाध्याय-ध्यानहेतवे ।। (प्राचा. सा. (भ. प्रा. ११९७; मूला. ५-१२१) । ४. अन्न-पान- १-२४)। १४. एषणायाः समितिरेषणासमितिः, रजोहरण-पात्र-चीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य लोकजुगुप्साादिपरिहीनविशुद्धपिण्डग्रहणम् । (मूला. चोद्गमोत्पादनेषणादोषवर्जनमेषणासमिति: । (त. बृ. १-१०) । १५. एषणा विशुद्धपिण्डग्रहणलक्षणा, भा. ६-५)। ५. अन्नादावुगमादिदोषवर्जनमेषणा- तस्यां या समितिः । (योगशा. स्वो. विव. १-२६); समितिः । अनगारस्य गुणरत्नसंचयसंवाहिशरीर- द्विचत्वारिंशताभिक्षादोषैनित्यमदूषितम् । मुनिर्यद. शकटिं समाधिपत्तनं निनीषतोऽक्षम्रक्षणमिव शरीर- नमादत्ते सैषणासमितिमता॥ (योगशा. १-३८) । धारणमौषधमिव जाठराग्निदाहोपशमनिमित्तमन्ना- १६. विघ्नाङ्गारादिशङ्काप्रमुखपरिकरैरुद्गमोत्पादद्यनास्वादयतो देश-कालसामर्थ्यादिविशिष्ट महितमा दोषः, प्रस्मार्य वीरचर्याजितममलमधःकर्ममुग्भावभ्यवहरत उद्गमोत्पादनैषणा-संयोजन-प्रमाण-कार- शद्धम् । स्वान्यानग्राहि देहस्थितिपट विधिवत्तमन्यणाङ्गार-धूमप्रत्ययनवकोटिपरिवर्जनमेषणासमितिरि- श्च भक्त्या, कालेऽन्नं मात्रयाइनन् समितिमनुषजत्येति समाख्यायते । (त. वा. ६, ५, ६)। ६. एषणा षणायास्तपोभृत् । (अन. ध. ४-१६७)। १७. गवेषणादिभेदा शङ्कादिलक्षणा वा, तस्यां समिति- बायालमेषणाओ भोयणदोसे य पंच सोहेइ । सो एसरेषणासमितिः । xxx उक्तं च-एषणासमिति- णाइसमियो।xxx॥ (उपदे. मा. २९८; गु. तिर्नाम गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटि- गु. षट्. व. ३, पृ. १४ उ.)। १८. षट्चत्वारिंशपरिशुद्धं ग्राह्यमिति । (प्राव. हरि. वृ. पृ. ६१६)। ता दोषैरन्त रायमलैश्च्युतम् । पाहारं गृह्णतः साधो७. तत्रासमितस्य षण्णामपि कायानामुपघातः स्याद रेषणासमितिर्भवेत् ।। (ध. सं. था. ६-६)। १९. अतस्तत्संरक्षणार्थमेषणासमितिः समस्तेन्द्रियोपयोग- गवेषणग्रहणग्रासैषणादोषैरदषितस्यान्न-पानादेः रजो लक्षणा । (त. भा. हरि. व सिद्ध. बु. ७-३); हरण-मूखवरित्रकाद्यौधिकोपधेः शय्या-पीठ-फलकसम्यगेषणा गवेषणा आगमविधिना पिण्डादीनाम्। चर्मदण्डाद्यौपग्रहिकोपधेश्च विशद्धस्य यद् ग्रहणं सा XXX एतद्देषपरिहारेणान्न-पानादिग्रहणमेषणा- एषणा समितिः । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-४७, समितिः । उक्त च-उत्पादनोद्गमैषणधुमाङ्गार पु. १३१)। २०. एषणासमितिः-चर्मणाऽस्पृष्टप्रमाणकारणतः। संयोजनाच्च पिण्डं शोधयतामेष- स्योद्गमोत्पादादिदोषरहितस्य भोजनस्य पुनः पुनः णा समितिः ।। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-५)। शोधितस्य प्रासुकस्य भोजनस्य ग्रहणं या समितिर्भव
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ऐकान्तिक मिथ्यात्व] ३०१, जैन-लक्षणावली
[ौघोद्देशिक ति सा तृतीया समितिः । (चा. प्रा. टी. ३६)। भिधानम् । (दशवं. नि. हरि. वृ. १-२६)। ३. २१. सम्यगेषणासमिति रुच्यते-- शरीरदर्शनमात्रेण प्रोघं वृन्दं समूहः संपातः समुदयः पिण्ड: अवशेषः प्राप्तमयाचितममृतसंज्ञं उद्गमोत्पादनादिदोषरहित- अभिन्नः सामान्यमिति पर्यायशब्दाः । (धव. पु. ३, मजिनहिंग्वादिभिरस्पृष्टं परार्थं निष्पन्नं काले भोजन- पु. ६); ओघणि सो दव्वट्टियणयपदुप्पायणो, संगग्रहणं सम्यगेषणासमितिर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. हिदत्थादो। (धव. पु. ४, पृ. ३२२); अोघेण ८-५) । २२. षट्चत्वारिंशद्दोषपरिवजितम् आहार- पिंडेण अभेदेणेत्ति एयट्ठो। (धव. पु. ४, पृ. १४४)। ग्रहणं देश-कालसामर्थ्यादिविशिष्टं अहितं नवकोटि- अोघेन द्रव्यायिकनयावलम्बनेनXXXI(धव. पु.
द्धं एषणासमितिः । (कार्तिके. टी. ३६६)। ४, पृ. ६); संखित्तवयणकलावो दव्वट्रियणिबंधणो २३. एषणा समिति म्ना संक्षेपाल्लक्षणादपि । अोघो णाम । (धव. पु. ५, पृ. २४३)। आहारशुद्धिराख्याता सर्वव्रतविशुद्धये ।। (लाटीसं. १ सामान्य श्रुत का जो कथन है उसे प्रोघ कहा ५-२३१)।
जाता है। वह चार प्रकार का है-अध्यन, अक्षीण, १ कृत, कारित व अनुमोदना दोषों से रहित दूसरे प्राय और क्षपणा । ३ द्रव्याथिक नय के प्राश्रय से के द्वारा दिये गये प्रासुक व प्रशस्त भोजन को ग्रहण जो कथन किया जाता है वह अोघ कहलाता है। करना, इसका नाम एषणासमिति है। ३ उद्गम, ओघ, वृन्द, समूह, सम्पात, समुदाय, पिण्ड, अवशेष, उत्पादन और एषण (प्रशन) दोषों से रहित आहार, अभिन्न और सामान्य; ये पर्याय शब्द हैं। उपधि एवं शय्या आदि के शद्धिपूर्वक ग्रहण करने अोघभव--प्रोघभवो णाम अटकम्माणि अटकम्मजको एषणासमिति कहते हैं।
णिदजीवपरिणामो वा । (धव. पु. १६, पृ. ५१२)। ऐकान्तिक मिथ्यात्व-देखो एकान्तमिथ्यात्व। पाठ कर्मों को अथवा पाठ कर्मों से उत्पन्न हुये ऐदंपर्यवद्ध-इदं परं प्रधानमस्मिन् वाक्य इतीदं- जीव के परिणाम को प्रोघभव कहते हैं। परम्, तद्भाव ऐदंपर्य वाक्यस्य तात्पर्य शक्तिरित्य- प्रोघमरण-अघमरणं प्रोधः संक्षेपः पिण्ड इत्यर्थस्तेन शुद्धम् आगमतत्त्वम् । (षोडशक वृत्ति १, नर्थान्तरम् । जहा सव्वजीवाणं वि णं आउक्खए १०) ।
मरणं ति। (उत्तरा. चू. ५, पृ. १२६-२७)। जो वाक्य अपने तात्पर्यरूप अर्थ से शुद्ध हो, अर्थात् प्रोध से—सामान्य से-मृत्यु का निर्देश करना, अपने अभिप्राय को स्पष्ट व्यक्त करे, उसे ऐदंपर्यः प्रोघमरण कहलाता है। जैसे-पायु का क्षय होने शुद्ध (प्रागमतत्त्व) कहते हैं।
पर सभी का मरण होता है। ऐन्द्रध्वज-१. महानन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो प्रोघसंज्ञा-१. प्रोघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा महः। (म. पु. ३८-३२)। २. ऐन्द्रध्वज इन्द्रादिभिः वल्लिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानावरवणीयाल्पक्षक्रियमाणो वलि-स्नपनं सन्ध्यात्रयेऽपि जगत्त्रयस्वा- योपशमसमूत्था। (प्राचारा. शी. वृ. १, १, १, १, मिनः पूजाभिषेककरणम्।(चा. सा.प. २१; कातिके. पृ. १२)। २. ज्ञानोपयोगरूपा अोघसंज्ञा संचरज्जनटी. ३६१)। ३.XXX सेन्द्राद्यैः साध्या विन्द्र- मार्ग परिहरन्त्या वृत्त्याचारोहन्त्या लतादेरिव । (ग. ध्वजो महः॥ (सा. ध. २-२६) । ४. अकृत्रिमेषु गु. षट्. स्वो. वृ. १६, पृ. ४७)। चैत्येषु कल्याणेषु च पंचसु । सुरविनिर्मिता पूजा १ ज्ञानावरण कर्म के अल्प क्षयोपशम से जो अव्यक्त भवेत् सेन्द्रध्वजात्मिका ।। (भावसं. वाम. ५५६)। ज्ञानोपयोगरूप संज्ञा होती है उसे प्रोघसंज्ञा कहते ५. इन्द्राद्यैः क्रियते पूजा सेन्द्रध्वज उदाहृता॥ हैं। इसका निश्चय लतासमूह के आरोहण आदि (धर्मसं. श्रा. ६-३१)।
रूप लिंग के द्वारा होता है। १ इन्द्रादि देवताओं के द्वारा की जाने वाली महती श्रोघौद्द शिक- सामान्येन स्व-परविभागकरणापूजा को ऐन्द्रध्वज कहते हैं।।
भावरूपेण स्वार्थ एव पाकादौ कियद्भागभिक्षादानपोहो ज सामण्ण सुपाभिहाणं चउव्विहंत बुद्धया कतिपयतण्डुलाधिकप्रक्षेपेण निवृत्तमोघोद्दच । अझयणं अज्झीणं प्राय झवणा य पत्तेयं ।। शिकम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-२२, पृ. ३६)। (दशवै. नि. १-२७)। २. तत्रौघः सामान्यं श्रुता- स्व और पर का विभाग किये बिना अपने लिये
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प्रोज
३०२, जैन-लक्षणावली
[ोषधिप्राप्त
पकाये जाने वाले चावल प्रादि में से कुछ भाग को जन्तुर्यत् प्रथममौदारिकशरीरयोग्यान् पुद्गलाना. भिक्षार्थ देने के उद्देश से कुछ और चावल मिला हरति यच्च द्वितीयादिसमयेष्वौदारिकादिमिश्रेणाकर पकाने को प्रोद्यौशिक कहते हैं।
हारयति यावच्छरीरनिष्पत्तिः । यदूक्तम्-जोएण प्रोज- प्रोजं विहं तेजोज कलिग्रोज चेदि । तं कम्मएणं पाहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं जहा-जम्हि रासिम्हि चदुहि अवहिरिज्जमाणे जाव सरीरस्स निप्फत्ती ।। एष सर्वोऽप्योजस्तैजसतिण्णि टांति सो तेजोज । चदुहि अवहिरिज्जाणे सरीरम्, तेन आहार भोजप्राहारः। (संग्रहणी दे. जम्हि एग ठादि तं कलिप्रोज। (धव. पु. ३, पृ. वृ. १४०); अोज उत्पत्तिप्रदेशे स्वशरीरयोग्यपुद्२४६)।
गलसलातस्तदाहारयन्ति, यद्वा प्रोजस्तैजसशरीरम, जिस राशि में ४ का भाग देने पर ३ या १ शेष तेनाऽऽहारो येषामित्योजनाहाराः । (संग्रहणी दे. बु. रहता है वह प्रोजराशि कही जाती है । वह तेजोज १४१)। ८. स सर्वोऽप्योजसाहार भोजो देहाहपुदऔर कलिनोज के भेद से दो प्रकार की है। जिस गलाः । प्रोजो वा तेजसः कायस्तद्रूपस्तेन वा कृतः॥ राशि में चार का भाग देने पर ३ अंक शेष रहें (लोकप्र. ३-११२५) । वह तेजोज तथा जिसमें ४ का भाग देने पर एक १प्रारोह-शरीर की ऊंचाई, परिणाह-दोनों अंक शेष रहे वह कलिनोज राशि कहलाती है। भुजाओं का विस्तार, इन दोनों की हीनाधिकता के प्रोज पाहार-१. आरोह-परीणाहा चियमंसो बिना तुल्यता; चितमांसत्व-शरीर में पांशुलि. इंदिया य पडिपुण्णा। यह प्रोयो।xxx॥ कानों का न दिखना; और परिपूर्ण इन्द्रियां; इन (बहत्क. २०५१)। २. तत्रौज पाहारोऽपर्याप्तका- सब प्रारोहादि को प्रोज कहा जाता है। ७ पूर्व वस्थायां कार्मणशरीरेण अम्बुनिक्षिप्ततप्तभाजनवत् शरीर को छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के पुदगलादानं सर्वप्रदेशर्यत् क्रियते जन्तुना प्रथमोत्पा- साथ मोडा लेकर या बिना मोड़े के-ऋजगति सेदकाले योनौ, अपूपेनेव प्रथमकालनिक्षिप्तेन घृतादे- ही अपने उत्पत्तिस्थान को प्राप्त हा जीव प्रथम रिति । एष चान्तर्महर्तिकः । (त. भा. सिद्ध. व. समय में प्रौदारिकशरीर के योग्य तथा द्वितीयादि २-३१)। ३. यस्तू घ्राण-दर्शन-श्रावणरुपलभ्यते समयों में प्रौदारिकमिश्र रूप से शरीर के पूर्ण होने धातभावेन परिणमति स प्रोज आहारः । (सूत्रकृ. शी. तक जो प्राहार ग्रहण करता है, यह सब प्रोजवृ. २, ३, १७० पृ.८८)। ४. सरिरेणी पाहारोx तेजसशरीर- कहलाता है ; इससे जो प्राहार होता है xx। (संग्रहणी सूत्र १४०, पृ. ६७) । ५. पक्खी- वह प्रोज प्राहार कहलाता है । णुज्जाहारो अंडयमझेसु वट्टमाणाणं । (प्रा. भाव- प्रोवेल्लिम-एक्क-दू-तिउणसुत्त-डोरा-वेदादिदव्वसं. ११२) । ६. पारोहो नाम शरीरेण नाति- मोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम । (धव. देयं नातिह्रस्वता, परिणाहो नाम नातिस्थौल्यं पु. ६, पृ..२७३)। नातिदुर्बलता, अथवा आरोहः शरीरोच्छ्रायः, परि- प्रोवेल्लण क्रिया से उत्पन्न इकहरे, दुगुने और तिगुने णाहः बाह्वोविष्कम्भः, एतौ द्वावपि तुल्यो, न हीना. सूत, डोरा एवं वेष्टन प्रादि द्रव्य प्रोवेल्लिम कहधिकप्रमाणो Xxx चितमांसत्वं नाम वपुषि लाते हैं। पांसुलिका नावलोक्यन्ते, तथा इन्द्रियाणि च प्रति- प्रोषधदान-रोगिभ्यो भैषज देयं रोगो देहविनाशपूर्णानि, न चक्षुः श्रोत्राद्यवयवविकलतेति भावः। कृत् । देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निवं तिः।
पथ' एतद् प्रारोहादिकमोज उच्यते । (बृहत्क. क्षे. तस्मात् स्वशक्तितो दानं भैषज्यं मोक्षहेतवे । देहः व. २०५१) । ७. शीर्यते उत्पत्तिक्षणादूचं प्रतिक्षणं स्वयं भवेऽन्यस्मिन् भवेद् व्याधिविवर्जितः ।। (उपानश्यतीति शरीरम् । तेनव केवलेन य आहारः स सका. पू. ६५-६६)। प्रोज पाहारः । इदमुक्तं भवति-यद्यपि शरीरमौ- रोगी के लिये शक्ति के अनुसार औषधि का देना दारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणभेदात् पञ्चधा, प्रोषधदान कहलाता है। तथापीह तेजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन च शरीरेण प्रोषधिप्राप्त-एए अन्ने य बहू जेसि सव्वे वि पूर्वशरीरत्यागे विग्रहेण अविग्रहेण वोत्पत्तिदेशं प्राप्तो सूरहिणोऽवयवा। रोगोवसमसमत्था ते हंति तमो.
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श्रोसण्णमरण] ३०३, जैन-लक्षणावली
[प्रौदयिक असंयत सहि पत्ता ॥ (प्रव. सारो. १४६७)।। परिग्रहस्योत्सर्गः, उत्सर्गे त्यागे सकलग्रन्थपरित्यागे जिनके शरीर के सभी सुगन्धित अवयव जीवों के भवं लिङ्गमौत्सर्गिकम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. अनेक रोगों के नष्ट करने में समर्थ होते हैं उन ७७)। साधुओं को प्रोषधिऋद्धिप्राप्त कहते हैं। सकल परिग्रह के त्यागपूर्वक गृहीत यथाजात वेष को प्रोसण्णमरण-देखो अवसन्न व आसन्न मरण । श्रौत्सगिक लिङ्ग कहते हैं । औत्पत्तिकी (अउप्पत्तिको, उप्पत्तिया)- औदयिक प्रज्ञान- १. ज्ञानावरणकर्मण उदयात १. अउप्पत्तिको भवंतरसुदविणएणं समुल्लसिदभा- पदार्थानवबोधो भवति तदज्ञानमौदयिकम्। (स. वा । (ति. प. ४-१०२०)। २. औत्पत्तिकी अदृ- सि. २-६)। २. ज्ञानावरणोदयावज्ञानम् । ज्ञस्वष्टाश्रुतपूर्वे वस्तुन्युपनते तत्क्षण एव समासादितोप- भावस्यात्मनः तदावरणकर्मोदये सति नावबोयो यतनाऽव्याहतफला। (त. भा. हरि. व.६-६, पृ. भवति, तदज्ञानमौदयिकम्, घनसमूहस्थगितदिनकर४३३)। ३. पुव्वं अदिट्ठमसुअमवेइतक्खणविसुद्धग- तेजोऽनभिव्यक्तिवत् । तद्यथा-एकेन्द्रियस्य रसनहियत्था । अव्वाहयफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिा नाम ॥ घ्राण-श्रोत्र-चक्षुषामिन्द्रियाणां प्रतिनियताभिनिबो(प्राव. नि. ६३६; गु. गु. षट्. स्वो. वृ. पृ. २८; धिकज्ञानावरणस्य सर्वघातिस्पर्धकस्योदयात् रसनन्दी. गा. ६, पृ. १४४; उपदेशपद ३६)। ४. गन्ध-शब्द-रूपाज्ञानं यत्तदोदयिकम् । xxx(त. तत्थ जम्मंतरे चउव्विहणिम्मलमदिबलेण विणएणा- वा. २, ६, ५) । ३. जाव दु केवलणाणस्सुदनो ण वहारिददुबालसंगस्स देवेसुप्पज्जिय मणुस्सेसु अवि- हवेदि ताव अण्णाणं । (भा. त्रि. १८) । ४. ज्ञाना. णट्ठसंसकारेणुप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढण-सुणण- वरणसामान्यस्योदयादुपवणितम् । जीवस्याज्ञानसापुच्छणवावारविरहियस्स पण्णा अउप्पत्तिया णाम। मान्यमन्यथानुपपत्तितः ॥ (त. श्लो. २, ६, ६)। (धव. पु. ६, पृ. ८२)। ५. उत्पत्तिरेव प्रयोजनं ५. ज्ञानावरणकर्मोदयात् पदार्थाऽपरिज्ञानमज्ञानमोयस्याः सा प्रोत्पत्तिकी बुद्धिः। (प्राव. नि. मलय. दयिकम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-६)। ६. अस्ति वृ. ६३, पृ. ५१६)।
यत्पुनरज्ञानमर्थादोदयिकं स्मृतम् । तदस्ति शून्यतारूपं ४ पूर्व जन्म में चार प्रकार की निर्मल मति के बल यथा निश्चेतनं वपुः॥ (पञ्चाध्यायी २-१०१६); से विनय के साथ जिसने द्वादशांगश्रुत को अवधारण अज्ञानं जीवभावो यः स स्यादोदयिकः स्फुटम् । किया है, पश्चात जो मरकर देवों में उत्पन्न हा लब्धजन्मोदयाद्यस्माज्ज्ञानावरणकर्मणः ।। (पञ्चा
और फिर उस पूर्व संस्कार के साथ मनुष्यों में ध्यायी २-१०६६)। उत्पन्न हुना, उसके इस भव में पढ़ने, सुनने व पूछने १ ज्ञानावरण कर्म के उदय से जो पदार्थों का बोष प्रादि व्यापार के बिना ही जो सहज स्वभाव से नहीं होता है उसे औदयिक अज्ञान कहते हैं। प्रकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है उसे औत्पत्तिकी प्रज्ञा औदयिक प्रसंयत- १. चारित्रमोहस्य सर्वघातिकहते हैं।
स्पर्धकस्योदयात् असंयत औदयिकः । (स. सि. प्रौत्पत्तिको छेदना (उप्पाइया छेदणा-रत्तीए २-६; त. वृत्ति श्रुत. २-६) । २. चारित्रमोहोइंदाउहधमके उशादीणमुप्पत्ती पडिमारोहो भूमि- दयादनिवृत्तिपरिणामोऽसंयतः। चारित्रमोहस्य सर्वकंप-रुहिरवरिसादयो च उप्पाइया छेदणा णाम, एतै- घातिस्पर्धकस्योदयात् प्राण्यपघातेन्द्रियविषये द्वेषारुत्पातः राष्ट्रभङ्ग नृपपातादितर्कणात । (घव. पु. भिलाषनिवृत्तिपरिणामरहितोऽसंयतः प्रौदयिकः । १४, पृ. ४३६)।
(त. वा. २, ६, ६)। ३. वृत्तिमोहोदयात् पुंसो. रात्रि में इन्द्रायुध और धूमकेतु आदि की उत्पत्ति, संयतत्व प्रचक्षते । (त. इलो. २, ६, १०)। ४. प्रतिमारोध, भूकम्प और रुधिरवर्षा प्रादि का होना; ४. असंयतत्वमस्यास्ति भावोऽप्यौदयिको यतः । इसका नाम प्रौत्पत्तिकी छेदना है। कारण यह कि पाकाच्चारित्रमोहस्य कर्मणो लब्धजन्मवान् ॥ (पंचाइन उपद्रवों के द्वारा राष्ट्रविनाश और राजा के ध्यायी २-१११६)। पतन का अनुमान होता है।
२ चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के श्रौत्सगिक -उत्कर्षेण सर्जनं त्यागः सकल- उदय से जो प्राणिपीडन और इन्द्रियविषय से
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औदयिक प्रसिद्ध] ३०४, जैन-लक्षणावली [ौदयिकी भावलेश्या विरक्ति नहीं होती है, यह प्रौदयिक असंयत भाव है। इग्रो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८५)। ५. ये पुनः प्रौदयिक प्रसिद्ध-१. कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्ध पुद्गला: गति-कषायादिपरिणामकारिणः तेषामुदयः प्रौदयिकः । (स. सि. २-६)। २. कर्मोदयसामा- अनुभूयमानता या स उदयस्तेन निर्वृत्तोऽध्यवसाय न्यापेक्षोऽसिद्धः । अनादिकर्मबन्धनसन्तानपरतंत्र- औदयिक इति । (त. भा. सिद्ध. व. १-५)। ६. स्यात्मनः कर्मोदयसामान्ये सति प्रसिद्धत्वपर्यायो कम्मुदयजकम्मिगुणो प्रोदयियो तत्थ होदि भावो भवतीत्यौदयिक: । (त. वा. २, ६, ७) । ३. कर्म- दु। (गो. क. गा. ८१५)। ७. उदयेन निवृत्त मात्रोदयादेवासिद्धत्वं प्रणिगद्यते । (त. श्लो. २, ६, प्रौदयिकः । (पञ्चसं. मलय. व. २-३)। ८. सर्वः १०)। ४. कम्माण विप्पमुक्को जाव ण ताव दु शुभाशुभभेदेन द्विप्रकारोऽपि उदयलक्षणः कर्मोदयप्रसिद्धत्तं । (भा. त्रि. १८)। ५. कर्मोदयसाधारणा- निष्पन्नत्वरूप औदयिकः । (प्राव. भा. मलय. . पेक्षयाऽसिद्धः सोऽप्यौदयिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २-६)। १८६, पृ. ५७८); कर्मण उदयेन निर्वृत्त प्रौद६. प्रसिद्धत्वं भवेद् भावो नूनमौदयिको यतः । व्यस्ता- यिकः । (प्राव. भा. मलय. वृ. २०२, पृ. ५९३)। द्वा स्यात्समस्ताद्वा जात: कर्माष्टकोदयात् ॥ (पंचा- १. कर्मोदयाद भवो भावो जीवस्यौदयिकस्तु यः । ध्यायी २, ११३८)।
(भा. सं. वाम. ६)। १०. नारकादौ कर्मण उदये सति १ कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा होने वाली प्रसिद्धत्व जीवस्य जायमानो भावः ओदयिकः । (त. वृत्ति श्रुत. अवस्था को औदयिक प्रसिद्धभाव कहते हैं। २-१)। ११. कर्मणामुदयाद्यः स्याद् मावो जीवस्य प्रौदयिक गुण-कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः प्रौद- संसृतौ। नाम्नाऽप्यौदयिकोऽन्वर्थात् परं बन्धाधियिकः। (धव. पु. १, पृ. १६१) ।
कारवान् । (पञ्चाध्यायो २-६६७)। . कर्मों के उदय से उत्पन्न हुये गुण को प्रौदयिक गुण ४ कर्म के उदय से उत्पन्न भाव औदयिक भाव कहे कहा जाता है।
जाते हैं। प्रौदयिक गुरणयोग-तत्थ गदि-लिंग-कसायादीहिं प्रौदयिक मिथ्यादर्शन-१. मिथ्यादर्शनकर्मण जीवस्स जोगो प्रोदइयगुणजोगो। (धव. पु. १०, उदयात् तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनमौदयिपृ. ४३३)।
कम् । (स. सि. २-६) । २. दर्शनमोहोदयात् गति, लिङ्ग और कषाय आदि प्रौदयिक भावों के तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम् । तत्त्वार्थसाथ जो जीवका सम्बन्ध होता है उसे औदयिक रुचिस्वभावस्यात्मनस्तत्प्रतिबन्धकारणस्य दर्शनमोहो. सचित्तगुणयोग कहते हैं।
दयात् तत्त्वार्थेषु निरूप्यमाणेष्वपि न श्रद्धानमूत्पद्यते प्रौदयिक भाव-१. तत्थ उदइय त्ति उदये भवः तन्मिथ्यादर्शनमौदयिकम् इत्याख्यायते । (त. वा. प्रौदयिकः । अटविहकम्मा पोग्गला संतावत्थातो २-६)। ३. मिच्छत्तकम्मस्स उदएण उप्पण्ण मिच्छ- उदीरणावलियमतिकांता अप्पणो विपागेण उदया- त्तपरिणामो कम्मोदयजणिदो त्ति प्रोदइयो । (धव. वलियाए वट्टमाणा उदिन्नामो त्ति उदयभावो भन्न- पु. ५, पृ. १९४)। ४. दृष्टिमोहोदयात् पुंसो मिथ्याति, उदयणिप्फण्णो णाम उदिण्णण जेण अण्णो दर्शनमिप्यते । (त. श्लो. २, ६, ६)। ५. तत्त्वार्थाणिप्फादितो सो उदयणिप्फण्णो। सो विहो जीव- नामश्रद्धानलक्षणपरिणाम निर्वर्तकमिथ्यात्वमोहकर्मो. दवे अजीवदवे वा। तत्थ जीवे कम्मोदएण जो दयान्मिथ्यादर्शनमौदयिकम् । (त. वृ. श्रुत. २-६)। जीवस्स भावो णिवत्तितो, जहा रइते इत्यादि । १ मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के प्रश्रद्धानरूप (अनुयो. चू. पृ. ४२) । २. कर्मविपाक उदयः, उदय जो परिणाम होता है उसे प्रौदयिक मिथ्यादर्शन एव प्रौदयिकः, स चाष्टानां कर्मप्रकृतीनामूदयः, तत्र कहते हैं। भवस्तेन वा निर्वत प्रौदयिकः। (अनयो. हरि. व. प्र. प्रौदयिको भावलेश्या-१. भावलेश्या कषायोद• ३७) । ३. कर्मविपाकाविर्भाव उदयः, तत्प्रयोजन- यरज्जिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा प्रौदयिकी। (स. स्तन्नित्तो वा प्रौदयिको भावः । (त. भा. हरि. व सि. २-६)। २. कषायोदयरज्जिता योगप्रवत्तिल सिद्ध.व. २-१)। ४. कम्मोदयजणिदो भावो प्रोद- श्या ॥xxxभावलेश्याकषायोदयरज्जिता योग
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श्रयिकी वेदना]
प्रवृत्तिरिति कृत्वा प्रदयिकीत्युच्यते । (त. वा. २, ६, ८) । ३. कषायोदयतो योगप्रवृत्तिरुपदशिता । लेश्या जीवस्य कृष्णादिषड्भेदा भावतोऽनघैः ।। (त. इलो. २, ६, ११) ।
१ कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को श्रदयिक भावलेश्या कहते हैं । प्रौदयको वेदना - श्रट्टकम्मजणिदा प्रदइया वेणा । ( धव. पु. १०, पृ. ८) ।
आठ कर्मों के उदय से उत्पन्न हुई वेदना को श्रदfast वेदना कहते हैं । श्रदारिककाययोग- १. पुरु महमुदारुरालं एयट्ठ तं वियाण तहि भवं । श्रोरालियं त्ति वृत्तं प्रोरा लियकायजोगो सो । (प्रा. पञ्चसं. १-६३ ; धव. पु. १, पृ. २६१ उद्.; गो. जी. २२९ ) । २. श्रदारिककायेन योग: श्रदारिककाययोगः - श्रदारिककायावष्टम्भोजातक्रियाभिसम्बन्धः श्रदारिककाययोगः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६- १ ) । ३. श्रदारिकशरीरजनितवीर्याज्जीव प्रदेश परिस्पन्द निबन्धन प्रयत्न श्रोदारिककाययोगः । ( धव. पु. १, पृ. २६६ ) ; प्रौदा रिककाययोगो निष्पन्नशरी रावष्टम्भवले नोत्पन्नजीवप्रदेशपरिस्पन्देन योगः श्रदारिककाययोगः । ( धव. पु. १, पृ. ३१६) । ४. उदारैः शेषपुद्गलापेक्षया स्थूलः पुद्गलैनिर्वृत्तमोदारिकम्, तच्च तच्छरीरं चेति समासस्तस्य काययोगः औदारिकशरीरकाययोग: । ( श्रौपपा. श्रभय. वृ. ४२, पृ. ११० ) 1 ५. उदारं प्रधानम्, उदारमेवीदारिकम् । प्राधान्यं चेह तीर्थकर गणधरशरीरापेक्षया वेदितव्यम् । X X X अथवा उदारं सातिरेकयोजन सत्र मानत्वाच्छेषशरीरेभ्यो बृहत्प्रमाणम्, उदारमेवौदारिकम् । XXX प्रदारिकमेव चीयमानत्वात्काय:, तेन सहकारिकारणभूतेन तद्विषयो वा योगः श्रदारिककाययोगः । ( षडशीति हरि व मलय. वृ. ३४, पृ. १६३ व १६५; शतक. मल. हेम. वृ. २, पृ. ५) । ६. श्रदारिककायार्था या श्रात्मप्रदेशानां कर्म-नोकर्माकर्षणशक्तिः स एव काययोगः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टीका २३० ) ।
३ श्रदारिक शरीर के श्राश्रय से उत्पन्न हुई शक्ति से जो जीव के प्रदेशों के परिस्पन्दन का कारणभूत प्रयत्न होता है, उसे श्रदारिककाययोग कहते हैं ।
ल. ३६
३०५, जैन-लक्षणावली [ श्रदारिक- तैजस - कार्मणशरीर. श्रौदारिक- कार्मरणबन्धन - १. तेषामेवौदारिकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह सम्बन्ध प्रदारिककार्मणबन्धनम् | ( कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७; पंचसं. मलय. वृ. ३-११) । २. येनौदारिकपुद्गलानां कार्मणशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धो विधीयते तत् श्रदारिक कार्मणबन्धननाम । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ३६, पृ. ४८ ) ।
२ जिसके द्वारा प्रौदारिक पुद्गलों का कार्मणशरीर सम्बन्धी पुद्गलों के साथ सम्बन्ध किया जाता है उसे श्रदारिक- कार्मणबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्रदारिक कार्मणशरीर नोकर्मबन्ध - श्रदारिक-कार्मणशरीर- नोकर्मप्रदेशानामन्योन्यानुप्रवेश प्रोदारिक- कार्मणशरीर नोकर्मबन्ध: । (त. वा. ५, २४, ६ ) ।
श्रदारिकशरीर और कार्मणशरीर नोकर्मप्रदेशों के परस्पर में प्रवेशरूप बन्ध को श्रदारिक- कार्मणशरीरनोकबन्ध कहते हैं । श्रौदारिक कार्मरणशरीरबन्ध
- ओरालियखंधाणं कम्मइयखंधाणं च एक्कम्हि जीवे ट्ठिदाणं जो बंधो सो प्रोरालिय- कम्मइयशरीरवंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४२ ) ।
एक जीव में स्थित प्रौदारिक और कार्मण स्कन्धों का जो बन्ध होता है उसका नाम श्रदारिक कार्मणशरीरबन्ध है । प्रदारिक-तैजस-कार्मणबन्ध - -- प्रोदारिकपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां कार्मणपुद्गलानां च गृहीत- गृह्यमाणानां यो मिथः सम्बन्धस्तदौदारिक-तैजस-कामबन्धनं नाम । ( कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७) । पूर्वगृहीत और गृह्यमाण श्रदारिक: तेजस व कार्मण पुद्गलों का जो परस्पर में सम्बन्ध होता है उसे श्रदारिक- तैजस- कार्मणबन्ध कहते हैं । श्रदारिक-तैजस- कार्मणशरीरनोकर्मबन्ध - प्रदारिक तैजस- कार्मणशरीर-नोकर्मप्रदेशानामन्योन्यानुप्रवेश प्रौदारिक तैजस-कार्मणशरीरनोकबन्ध: । (त. वा. ५, २४, ९ ) । श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर के नोकर्मप्रदेशों के परस्पर में प्रवेशरूप बन्ध को श्रदारिक- तैजस कार्मणशरीर नोकर्मबन्ध कहते हैं ।
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प्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरीर.] ३०६, जैन-लक्षणावली
[औदारिकशरीर प्रौदारिक-तैजस-कार्मरणशरीरबन्ध- पोरालिय- वियाण मिस्सं अपरिपुण्णं त्ति। जो तेण संपयोगो तेया-कम्मइयसरीरखंधाणं एक्कम्हि जीवे णिविट्ठाणं ओरालियमिस्सकायजोगो सो ॥ (प्रा. पंचसं. १, जो अण्णोण्णेण बंधो सो अोरालिय-तेया-कम्मइय- ६४; धव. पु. १, पृ. १६१ उद्.; गो. जी. २३१)। सरीरबंधो णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४३)।
२. सः (प्रौदारिककाययोगः) एव कार्मणसहचरित एक जीव में स्थित प्रौदारिक, तैजस और कार्मण औदारिकमिश्रकाययोगः केवलिसमुदघाते द्वितीय-षष्ठशरीर सम्बन्धी स्कन्धों का जो परस्पर में बन्ध सप्तमसमयेषु समस्ति । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६.१)। होता है, उसे प्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरीरबन्ध ३. कार्मणौदारिकस्कन्धाभ्यां जनितवीर्यात्तत्परिस्पकहते हैं।
न्दनार्थः प्रयत्नः प्रौदारिकमिश्रकाययोगः । (धव. पु. औदारिक-तैजसबन्धननाम-१. येनौदारिकपुद- १, पृ. २६०); कार्मणौदारिकस्कन्धनिबन्धन जीवगलानां तैजसशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धो विधी- प्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिकमिश्रकाययोगः । यते तत् प्रौदारिक-तैजसबन्धनं नाम । (कर्मवि. दे. (धव. पु. १, पृ. ३१६) । ४. xxx मिश्रोऽपस्वो. वृ. ३६, पृ. ४८)। २. तेषामेवौदारिकपुद्- र्याप्त इष्यते ।। (पंचसं. अमित. १-१७२)। ५. गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलै- औदारिक मिश्रं यत्र, कार्मणेनेति गम्यते, स भवत्यौगुंह्यमाणः पूर्वग्रहीतश्च सह सम्बन्ध प्रौदारिक-तैजस- दारिकमिश्रः । (शतक. मल. हेम. वृ. २-३, पृ. ५)। बन्धनम् । (कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७; पंचसं. ६. तदेवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तमपूर्णमपर्याप्तं तावन्मिश्रमिमलय. वृ. ३-११)।
त्युच्यतेऽपर्याप्तकालसम्बन्धिसमयत्रयसम्भविकार्मण१ जिसके द्वारा प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी पुद्गलों का काययोगाकृष्टकार्मणवर्गणासंयुक्तत्वेन, परम गमरूतेजसशरीर सम्बन्धी पुद्गलों के साथ सम्बन्ध किया ढ्या वा ऽपर्याप्तम्, अपर्याप्तशरीरं मिश्रमित्यर्थः। जाता है, उसे औदारिक-तैजसबन्धन नामकर्म ततः कारणादौदारिककायमिश्रेण सह तदर्थं वर्तमानो कहते हैं।
यः संप्रयोग प्रात्मनः कर्म नोकर्मादानशक्तिप्रदेशपरिऔदारिक-तैजसशरीरबन्ध-ओरालियसरीरपो. स्पन्दयोगः स शरीरपर्याप्तिनिष्पत्यभावेनौदारिकग्गलाणं तेयासरीरपोग्गलाणं च एक्कम्हि जीवे जो वर्गणास्कन्धानां परिपूर्णशरीरपरिणमनासमर्थ प्रौदापरोप्परेण बंधो सो पोरालिय-तेयासरीरबंधो णाम। रिकमिश्रकाययोगः । (गो. जी. जी. प्र. टी. २३१) । (धव. पु. १४, पृ. ४२)।
३ कार्मण और प्रौदारिक स्कन्धों से उत्पन्न हुई एक जीव में स्थित प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी पुदगलों शक्ति से जो जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन के लिये प्रयत्न का और तैजसशरीर सम्बन्धी पुदगलों का जो होता है, उसे औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। यह परस्पर में बन्ध होता है उसे मौदारिक-तैजसशरीर- अपर्याप्त अवस्था में हुमा करता है। बन्ध कहते हैं।
औदारिकशरीर-१. उदारं स्थूलम्, उदारे भवप्रौदारिकनाम-ओरालियं सरीरं उदएण होइ मौदारिकम्, उदारं प्रयोजनमस्येति वा प्रौदारिकम् । जस्स कम्मरस । तं पोरालियनामंxxx॥ (स. सि. २-३६) २. उद्गतारमुदारम्, उत्कटार(कर्मवि. ग. ८६, पृ. ३६)।।
मुदारम्, उद्गम एव वोदारम्, उपादानात्प्रभृति जिस कर्म के उदय से प्रौदारिकशरीर होता है. अनूसमयमुद्गच्छति वर्धते जीर्यते शीर्यते परिणमतीउसे प्रौदारिकनामकर्म कहते हैं।
त्यूदारम, उदारमेवौदारिकम । xxx यथोदगमं औदारिकमिश्र-यदोदारिकमारब्धं न च पूर्णीकृतं वा निरतिशेषम्, ग्राह्य छेद्यं भेद्यं दाह्य हार्यमित्युभवेत् । तावदीदारिकमिश्रः कार्मणेन सह ध्रुवम् ॥ दाहरणादौदारिकम् । XXX उदारमिति च (लोकप्र. ३-१३०८)।
स्थूलनाम स्थूलमुद्गतं पुष्टं बृहन्महदिति, उदारप्रारम्भ किया हुआ प्रौदारिकशरीर जब तक पूर्ण मेवौदारिकम् । (त. भा. २-४६)। ३. उदारात् नहीं होता है तब तक वह कार्मणशरीर के साथ स्थलवाचिनो भवे प्रयोजने वा ठञ् । उदारं स्थूल. औदारिकमिश्र कहलाता है।
मिति यावत्, ततो भवे प्रयोजने वा ठञि प्रौदारिकमौदारिकमिश्रकाययोग--- १. अंतोमुहृत्तमज्झं मिति भबति । (त. वा. २, ३६, ५) । ४. उदारं
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औदारिकशरीर] _३०७, जैन-लक्षणावली [ौदारिकशरीरनाम बृहत्, स्थूरद्रव्यमित्यर्थः, तन्निवृत्तमौदारिकम् ; प्रौ- पेक्षया । उदारं सर्वतस्तुङ्गमिति चौदारिकं भवेत् दारिकशरीरनामकर्मोदयनिष्पन्नं वौदारिकम् । (त. (लोकप्र. ३-६६)। १६. प्रौदारिकनामकर्मोदयभा. हरि. वृ. २-३७)। ५. प्रसारस्थूलवर्गणानि- निमित्तम् प्रौदारिकम्, चक्षुरादिग्रहणोचितं स्थूलं
पितमौदारिकशरीरम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. शरीरम् औदारिकशरीरमित्युच्यते । उदारं स्थूलवृ.८-१२)। ६. तत्थ ताव उदारं उरालं उरलं मिति पर्यायः, उदारे भवं वा औदारिकम्, उदारं उरालियं वा उदारियं, तित्थगर-गणधरसरीराइं स्थूलं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम् । (त. वृत्ति पडुच्च उदारम्, उदारं नाम प्रधानं, उरालं नाम श्रुत. २-३६)। २०. औदारिककायः प्रौदारिकशरीरविस्तरालं विशालं ति वा जं भणितं होति, xx नामकर्मोदयसम्पादितः औदारिकशरीराकारः स्थूल
X उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्वाच्च पुद्गलस्कन्धपरिणामः । (गो. जी. म.प्र. व जी. प्र. भिण्डवत, उरालं नाम मांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्ध- टी. २३०)। त्वात् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ८७) । ७. पुरुमहदु- १ उदार का अर्थ स्थूल होता है, उदार में जो होता दारुराल एयट्ठो संविजाण तम्हि भवं । अोरलियं है अथवा जिसका प्रयोजन उदार या स्थूल है वह तमुच्चइ अोरालियकायजोगो सो॥ (प्रा. पंचसं. औदारिकशरीर कहलाता है। ४ उदार का अर्थ १-६३; गो. जी. २३०)। ८. उदारैः पुद्गलैनि- स्थूल द्रव्य होता है, उस स्थूल द्रव्य से जो शरीर वृत्तमौदारिकम् । (प्राव. नि. हरि. व. १४३४, पृ. निर्मित होता है उसे औदारिक शरीर कहते हैं। ७६७)। ६. खुद्दाभवग्गहणप्पहडि जाव तिण्णि अथवा प्रौदारिकशरीरनामकर्म के उदय से पलिदोवमसंचिदपदेसकलायो ओरालियसरीरं णाम। होने वाले शरीर को औदारिकशरीर जानना (धव. पु. १४, पृ. ७८)। १०. उरालैः पुद्गलैंनि- चाहिए। वत्तमौदारिकम, उदारनिवत्तमौदारिकं च । (पंचसं. औदारिकशरीरनाम-१. तत्प्रायोग्य- (प्रौदास्वो. वृ. १-४, पृ. ३)। ११. उदारं स्थूलं प्रयो- रिकशरीरप्रायोग्य-)पुद्गलग्रहणकारणं यत् कर्म तदोजनमस्येत्यौदारिकम्, उदारे भवमिति वा । (त. दारिकशरीरनामोच्यते । (त. भा. हरि. व सिद्ध. श्लो. २-३६)। १२. उदारं बृहदसारं यद् द्रव्यं वृ. ८-१२) । २. जस्स कम्मस्स उदएण आहारतन्निर्वृत्तमौदारिकमसारस्थलद्रव्यवर्गणासमारब्धमौ- वग्गणाए पोग्गलक्खंधा जीवेणोगाहदेसटिदा रसदारिकप्रायोग्यपुद्गलग्रहणकारणपूदगल विपाक्यौदा- रुहिर-मांस-मेददि-मज्ज - सुक्कसहावोरालियसरीरिक शरीरनामकर्मोदयनिष्पन्नम। (त. भा. सिद्ध. रसरूवेण परिणमंति तस्स ओरालियसरीरमिदि व. २-३७)। १३. उदारे यो भवः स्थूले यस्योदारं सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६६)। ३. यस्य कर्मण प्रयोजनम् । प्रौदारिकोऽस्त्यसौ कायः xxx॥ उदयादौदारिकवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा प्रौदारिक(पंचसं. अमित. १-१७२) । १४. औदारिकवर्गणा- शरीरत्वेन परिणमयति तदौदारिकशरीरनाम । पुद्गलः जातं औदारिकशरीरम् । (कर्मस्तव गो. (प्रव. सारो. वृ. १२६३; कर्मस्तव गो. वृ. ६-१०, वृ. ६-१०, पृ. ८४)। १५. उदारं प्रधानं यद्वा पृ. ८५, शनक. मल. हेम. वृ. ३७-३८, पृ. ४८) । उदारं बृहत्प्रधानम्, उदारमेवौदारिकम् । (जीवाजी. ४. यदुदयवशादौदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलामलय. व. १-१३)। १६, उदारं प्रधानम, प्राधान्यं नादाय प्रौदारिकशरीररूपतया परिणमयति परितीर्थकर-गणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानत्तर- णमय्य च जीवप्रदेश सहान्योऽन्यागमरूपतया सम्बशरीरस्याप्यनन्त गुणहीनत्वात् । यद्वा उदार साति- न्धयति तदौदारिक शरीरनाम । (षष्ठ कर्म. मलय. रेकयोजनसहस्रमानत्वात्, शेषशरीरापेक्षया वृहत्प्र- वृ.६; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६८%; माणम् बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहज- पंचसं. मलय. वृ. ३-६, प. ११४; कर्मप्र. यशो. टी. शरीरापेक्षया दृष्ट व्या। xxx उदारमेव प्रौदा-१, पृ. ४) । ५. यदुदयादाहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धा रिकम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २१-२६७, पृ. ४०६)। जीवगृहीता रस-रुधिर-मासास्थि मज्जा-शस्वभावो१७. स्थूलपुद्गलोपचित मूत्यौदारिकम् । (संग्रहणी दारिकशरीरं भवन्ति तदौदारिक शरीरनाम । (मूला. दे. वृ. २७२)। १८, उदारैः पुद्गलतिं जिनदेहाद्य- व. १२-१९३)।
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श्रदारिकशरीरबन्धननाम ]
२ जिस कर्म के उदय से जीव के द्वारा ग्रहण किये गये आहारवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध जीव के द्वारा वाहित देश में स्थित होते हुए रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और शुक्र स्वभाव वाले प्रौदारिक शरीररूप से परिणत होते हैं उसे श्रौदारिकशरीर नामकर्म कहते हैं । श्रदारिकशरीरबन्धननाम – १. जस्स कम्मस्स उदएण श्रोरालियसरीरपरमाणू अण्णोष्णबंध मागच्छंति तमोरालियसरीरबंधणं णाम । ( धव. पु. ६, पू. ७० ) । २. यस्य कर्मण उदयेनौदारिकशरीरपरमाणवोऽन्योन्यबन्धमा गच्छन्ति तदौदारिकशरीरबन्धनं नाम । (मूला वृ. १२ - १६३ ) । ३. पूर्वगृहीत रौदारिकपुद्गलः सह गृह्यमाणानौदारिकपुद् गलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्मा - परस्परसंसतान् करोति - तदौदारिकबन्धनं नाम । ( प्रव. सारो. वृ. १२६३) । ४. यदुदयादौदारिकशरीर पुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिशरीरपुद्गलंश्च सह सम्बन्धः तदौदारिकबन्धनम् । (षष्ठ कर्म. मलय. वृ. ६, पृ. १२४; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३ - २६३, पृ. ४७० ) । ५. पूर्वगृहीतै रौदारिकपुद्गलः सह परस्परं गृह्यमाणान् औदारिकपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति - आत्माऽन्योन्यसंयुक्तान् करोति, तद् प्रदारिकशरीरबन्धननाम. दारु- पाषाणादीनां जतु-रालाप्रभृतिश्लेषद्रव्यतुल्यम् । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ३४, पू. ४६) । १ जिस कर्म के उदय से श्रदारिकशरीर के परमाणु परस्पर बन्ध को प्राप्त होते हैं, उसे श्रौदारिकशरीरबन्धन नामकर्म कहते हैं । श्रदारिकशरीरसंघातनाम - १. जस्स कम्मस्स उदएण प्रोरालियवखंधाणं सरीरभावमुवगयाण बंध
कम्मोदएण एगबंधणबद्धाणं मट्ठत्तं होदि तमोरा लिक्सरीरसघादं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७० ) । २. यस्य कर्मण उदये नौदा रिकशरीरस्कन्धानां शरीरभावमुपगतानां बन्धननामकर्मोदयेनैकबन्धनबद्धानामौदार्यं भवति तदौदारिकशरीरसंघातनाम । ( मूला. बृ. १२ - १९३ ) । ३. यस्य कर्मण उदयादौदारिकशरीरपरिणतान् पुद्गलानात्मा संघातयति पिण्डयत्यन्योन्यसंनिधानेन व्यवस्थापयति तदौदारिकसंघातनाम । ( प्रव. सारो. वृ. १२६०; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ३४, पृ. ४७) । ४. यदुदयादौद रिकमुद्गला ये
३०८, जैन- लक्षणावली [ श्रदारिकौदारिकबन्धननाम
यत्र योग्यास्तान् तत्र संघातयति XX X तदौदारिकसंघातनाम | ( षष्ठ क. मलय. वृ. ६) । ५. यदुदयवशादौदारिकपुद्गला श्रदारिकशरीररचनानुकारिसंघातरूपा जायन्ते तदौदारिकसंघातनाम । (प्रज्ञाप. मलय. बृ. २३-२६३, पृ. ४७० ) ।
१ शरीरभाव को प्राप्त तथा बन्धननामकर्म के उदय से एकबन्धनबद्ध श्रदारिकशरीर के स्कन्ध जिस कर्म के उदय से पुष्टता को प्राप्त होते हैं--छिद्र - रहित एकरूप होते हैं. उसे श्रदारिकशरीरसंघात नामकर्म कहते हैं । श्रदारिकशरीरांगोपांगनाम- १. जस्स कम्मस्स उदएण श्रोरालिय सरीरस्स अंगोवंग-पंचंगाणि उप्पज्जंति तं श्रोरा लियशरीरगोवंगणामं । ( धव. पु. ६, पृ. ७३) । २. यस्य कर्मण उदयेनौदारिकांगोपांगानि भवन्ति तदौदारिकांगोपांगं नाम । (मूला. वृ. १२ - १६४ ) । ३. यदुदयादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागेन परिणतिरुपजायते तदौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६८; पंचसं. मलय. वृ. ३ - ६; प्रव. सारो वृ. १२६३; कर्मस्तव. गो. वृ. ६- १०, पृ. ८५ शतक. मल. हे. वृ. ३७-३८, पृ. ४८ कर्मवि. दे. स्वो वृ. ३३, पृ. ४६; कर्मप्र. यशो. टी. १, प. ४)।
१ जिस कर्म के उदय से प्रौदारिकशरीररूप से परिणत पुद्गलों के अंग, उपांग और प्रत्यंग उत्पन्न होते हैं उसे प्रदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं ।
श्रदारिकौदारिकबन्धननाम- १. पूर्वगृहीतानामौदारिकपुद्गलानां स्वैरेवीदारिकपुद्गलं गृह्यमाणः सह यः सम्बन्धः स श्रदारिकौदारिकवन्धनम् । (पंचस. मलय. वृ. ३-११, पृ. १२१; कर्मप्र. यशो. टी. १, पृ. ७) । २. पूर्व गृहीतै रौदारिकशरीरपुद्गलैः सह गृह्यमाणौदारिकपुद्गलानां बन्धो येन क्रियते तद् प्रदारिकौदारिकबन्धननाम । (कमवि. दे. स्वो वृ. ३६) ।
१ पूर्वगृहीत औदारिक शरीर के पुद्गलों का गृह्यमाण अपने ही श्रीदारिक पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे श्रीदारिकौदारिकबन्धन कहते है । यह जिस कर्म के उदय से होता है वह श्रौदाfraौदारिकबन्धन नामकर्म कहलाता है ।
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श्रदारिकौदारिकशरीर नोकर्म. ] श्रदारिकौदारिकशरीरनो कर्मबन्ध - प्रौदारिकशरीरनो कर्म प्रदेशान। मौदारिकशरीरनो कर्म प्रदेश र न्योन्यानुप्रवेशादौदारिकौदारिकनो कर्मबन्धः । ( त वा. ५, २४, ९ ) । श्रदारिकशरीर के नोकर्मप्रदेशों का अन्य श्रदारिकशरीरनोकर्मप्रदेशों के साथ परस्पर में परस्पर अनुप्रवेशरूप जो बन्ध होता है उसे श्रदारिकौदारिकनोकबन्ध कहते हैं ।
श्रौदार्य - प्रौदार्यं कार्पण्यत्यागाद्विज्ञेयमाशय महत्त्वम् । गुरु- दीनादिष्वौचित्यवृत्ति कार्ये तदत्यन्तम् || ( षोडशक ४-३, पृ. २५) ।
कृपणता को छोड़कर उदार हृदय से जो गुरु एवं दीन आदि जनों के विषय में यथोचित व्यवहार किया जाता है उसे श्रौदार्यगुण कहते हैं । प्रौद्दे शिक - १. देवद- पासंडत्थं किविण चावि जंतु उद्दिदियं । कदमणसमुद्देशं चदुव्विहं वा समासेण ॥ जावदियं उद्दे सो पासंडोत्ति य हवे समुसो । समणोति य श्रादेसो णिग्गंथो त्ति य हवे समादेसो || ( मूला. ६, ६-७ ) । २. उद्देशनं सा ध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्द ेशः, तत्र भवमौद्द - शिकम् । ( दशवै. हरि. वृ. ३- २, पृ. ११६) । ३. श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् उद्दे सिगमित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ४२१ ) । ४. आत्मार्थं यत्पूर्वसिद्धमेव लड्डुक चूर्णकादि साधुमुद्दिश्य पुनरपि [ संत ] गुडादिना संस्क्रियते तदुद्दे शिकं सामान्येन विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्यमिति । ( श्राचा. शी. बु. २, १, २६६, पृ. ३१७) । ५. उद्देशेग साधु संकल्पेन निवृत्तमौद्द शिकं श्रधाकर्म । ( जीतक. चू. fr. व्याख्या, पू. ५३ ) । ६. देवतार्थं पाखण्डार्थं कृपणार्थं चोद्दिश्य यत्कृतमन्नं तन्निमित्तं निष्पन्नं भोजनं तदोद्द शिकम् । ( मूला. घू. ६ - ६ ) ; सामान्यमुद्दिश्य पाषण्डानुद्दिश्य श्रमणानुद्दिश्य निर्ग्रन्यानुद्दिश्य यत्कृतमन्नं तच्चतुर्विधमौद्द शिकं भवेदन्नमिति । (मूला. वृ. ६-७ ) । ७. उद्देश : साध्वर्थं संकल्पः, स प्रयोजनमस्य श्री सिकं यत्पूर्वकृतमोदन - मोदक क्षोदादि तत्साधूद्देशेन दध्यादिना गुडपाकेन च संस्कुर्वतो भवति । (योगशा. स्वो विव. १-३८ ) । ८. उद्देशिकं श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् । (भ. प्रा. मूला. ४२१) । ६. तदौशिकमन्नं यद्ददेवतादीन- लिङ्गितः । सर्वपाषण्डपार्श्वस्यसाधून वोद्दिश्य
[ पक्रमिकी
साधितम् ।। (न. ध. ५ - ७ ) । १०. यत्पुनर्गृहिणा स्वार्थकृतं पश्चाद्यत्युद्देशेन पृथक् क्रियते तदौदेशिकम् । ( गु. गु. षट्. स्व. वृ. २०, पृ. ४८) । १ देवता, पाषण्ड - जैनमत से बहिर्भूत अनुष्ठान करनेवाले वेषधारी साधुजन - और कृपण ( दोन ) जन के उद्देश से किया गया भोजन प्रौद्द शिक कहलाता है । (१) उद्देश - जो भी भोजन के लिए श्रावेंगे उन सबको दूंगा, इस प्रकार के उद्देश से बनाया गया भोजन । ( २ ) समुद्देश- पाषण्डियों के उद्देश से बनाया गया भोजन । (३) प्रदेश - प्रजीवक श्रावि अन्य साधुवेषधारी अथवा छात्रों के उद्देश से बनाया गया भोजन । ( ४ ) समादेश — जो भी निर्ग्रन्थ मुनि आवेंगे उन सबको आहार दूंगा; इस प्रकार के उद्देश से बनाया जाने वाला भोजन । उक्त चार प्रकार का भोजन श्रौद्दे शिक कहलाता है । श्रनोदर्य- देखो अवमौदर्य । १. ऊनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरस्तस्य भाव श्रीनोदर्य्यम् । (योगशा. स्वो विव. ४-८९ ) । २. प्रमाणप्राप्त प्राहारो द्वा त्रिशत् कवलाः, स चैकादिकवलैरूनश्चतुर्विंशतिकबलान् यावत् प्रमाणप्राप्तात् किंचिदूनम् श्रनोदर्य्यम् । . (योगशास्त्रो. विव. ४-८६, पृ. ३११) । प्रमाणप्राप्त प्रहार ३२ ग्रास है । उसे एक-दो ग्रामों से कम करते हुए चौबीस ग्रास पर्यन्त ग्रहण करना, यह श्रनोदर्य बाह्य तप कहलाता है । तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेन गणी की वृत्ति ( ६-१६) के अनुसार प्रमोद ( श्रौनोदर्य ) तीन प्रकार का है - १ अल्पाहार अवमौदर्य - प्राठ ग्रास प्रमाण । २ उपार्थ प्रवमौदर्य - बारह ग्रास ( ३३३ - ४ =१२) प्रमाण | ३ किंचिदूनावमौदर्य - बत्तीस ग्रास जो पुरुष का प्रमाणप्राप्त आहार है उसमें एक ग्रास से
कम ।
श्रपक्रमिकी - उपक्रमणमुपक्रमः स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनम्, तेन निर्वृताः श्रौपक्रमिकी — स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीय कर्मणो विपाकानुभवनेन निर्वृता इत्यर्थ: । ( प्रज्ञाप कलय. वृ. ३५-३२६, पृ. ५५७ ) ।
स्वयं समीप में होना श्रथवा उदीरणाकरण के द्वारा समीप में ले श्राना; इसका नाम उपक्रम है । इस उपक्रम से होने वाली वेदना श्रीपक्रमिकी कहलाती
३०६, जैन-लक्षणावली
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औपचारिक विनय ]
३१०,
I
उप
है । अभिप्राय यह है कि स्वयं उदय को प्राप्त हुए श्रथवा उदीरणाकरण के द्वारा उदय में लाये गये वेदनीय कर्म के फल के अनुभवन से रचित वेदना को श्रपक्रमिक वेदना कहा जाता है । श्रौपचारिक विनय — देखो उपचारविनय । चरणम् उपचार: – श्रद्धानपूर्वकः क्रियाविशेषलक्षणो व्यवहारः, स प्रयोजनमस्येत्यौपचारिकः । × × × विनीयते क्षिप्यतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनयः । X X x विनीयते चास्मिन् सति ज्ञानावरणादिरजोराशिरिति विनयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३) । उपचार का अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया विशिष्ट क्रियारूप व्यवहार तथा जिसके द्वारा या जिसके होने पर आठ प्रकारका कर्म-रज विनष्ट होता है उसे विनय कहते हैं । उपर्युक्त उपचाररूप प्रयोजन जिससे सिद्ध होता है वह औपचारिक कहलाता है । श्रमिक-उपमया निर्वृत्तमीपमिकम्, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना गृहीतुं न शक्यते तदीपमिकमिति । (श्रनुयो. हरि. वृ. पृ. ८४; जम्बूद्वी. शा. वृ. २- १८ ) । उपमा से निर्मित काल को श्रौपमिक काल कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि साधारण बुद्धि वाला प्राणी पल्य व सागर श्रादि उपमा के विना जिस कालप्रभाण को नहीं जान सकता है उसे श्रौपमिक काल कहते हैं । औपम्योपलब्धि - १. पुव्वं पि श्रणुवलद्धो धिप्पइ श्रत्थोउ कोइ प्रवम्मा । जह गोरेवं गवयो किंचिविसेसेण परिहीणो । (बृहत्क . ५२ ) । २. × × × अत्रेयं भावना - 'यथा गौस्तथा गवयः' इति श्रुत्वा कालान्तरेणाटव्यां पर्यटन् गवयं दृष्ट्वा ' गवयोऽयम्' इति यदक्षरजातं लभते एषा श्रौपम्योपलब्धिः । (बृहत्क. वृ. ५२ ) ।
पूर्व में कभी नहीं जाना गया कोई पदार्थ उपमाके बल से जो जाना जाता है, इसे श्रौपम्योपलब्धि कहते हैं । जैसे- 'गवय गौ के समान होता है' इस उपमान के आश्रय से पूर्व में अज्ञात गवय का यह गवय है' । इस प्रकार जो अक्षरज्ञान हुआ करता है, इसी का नाम श्रौपम्योपलब्धि है । श्रीपशमिक श्रविपाकप्रत्यधिक जीवभावबन्धजो सो श्रो समिश्र अविवागपच्चइम्रो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देशो से उवसंत कोहे उवसंत
जैन - लक्षणावली
[ श्रपशमिक भाव
माणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरागे उवसंतदोसे उवसंतमोहे उवसंतकसायवीय रायछदुमत्थे उवसमियं सम्मत्तं उवसमियं चारितं जे चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सव्वो उवसमियो अविवागपच्चइम्रो जीवभावबंध णाम । ( ष. खं. ५, ६, १७– पु.१४, पृ. १४) ।
क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मोह; इनमें से प्रत्येक के उपशान्त होने पर तथा उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ के जो श्रौपशमिक सम्यक्त्व व श्रीपशमिक चारित्र तथा और भी जो इसी प्रकार के अन्य श्रपशमिक भाव होते हैं उन सबको प्रौपशमिक श्रविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं । श्रौपशमिकगुणयोग- श्रोवसमियसम्मत्त-संजमे हि जीवस्स जोगो प्रोवसमियगुणजोगो । ( धव. पु. १०, पृ. ४३३) ।
जीव का जो श्रपशमिक सम्यक्त्व और श्रौपशमिक संयम के साथ सम्बन्ध होता है उसे श्रौपशमिकगुणयोग कहते हैं।
श्रौपशमिक चारित्र - १. कृत्स्नस्य मोहनीयस्योपशमादोपशमिकं चारित्रम् । ( स. सि. २-३) । २. श्रष्टाविंशतिमोहविकल्पोपशमादोपशमिकं चारित्रम् । अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-संज्वलनविकल्पाः षोडशकषायाः, हास्य- रत्य रति-शोकभय- जुगुप्सा स्त्री-पुंनपुंसक वेदभेदाः नवनोकषाया इति एवं चारित्रमोहः पंचविंशतिविकल्पः । मिथ्यात्वसम्यङ् मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृतिभेदात् त्रितयो दर्शनमोहः । एषामष्टाविंशतिमोहविकल्पानां उपशमादौपशमिकं चारित्रम् । (त. वा. २, ३, ३) । ३. चारित्रमोहोपशमादोपशमिकचारित्रम् । (त. इलो. २, ३) । ४. उपशमश्रेण्यां त्रिषूपशमकेषु उपशान्तकषाये चैकविंशतिचारित्रमोहप्रकृतीना मुपशमादुत्पन्नसंयम रूपं निर्मलतरं सकलचारित्रमपसमिको भावः । ( गो . जी. म. प्र. टी. १४) । ५ षोडशकषायाणां नवनोकषायाणां च उपशमादीपशमिक चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ३ ) ।
१ समस्त मोहनीय के उपशम से जो चारित्र (यथाख्यात) प्रादुर्भूत होता है वह प्रपशमिक चारित्र कहलाता है ।
श्री शमिक भाव - १. आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुद्भूतिरुपशमः । यथा कतक्रादिद्रव्य
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औपशमिक भाव] ३११, जैन-लक्षणावली
औपशमिक सम्यक्त्व सम्बन्धादम्भसि पङ्कस्योपशमः । xxx उपशमः औपशमिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २-१)। ११. कर्मप्रयोजनमस्येत्यौपशमिकः । (स. सि. २-१)। २. णां प्रत्यनीकानां पाकस्योपशमात् स्वतः । यो भाव: कर्मणोऽनुभूतस्ववीर्यवृत्तितोपशमोऽधःप्रापितपङ्क- प्राणिनां स स्यादौपशमिकसंज्ञकः ।। (पञ्चाध्यायी वत् । यथा सकलुषस्याम्भस: कतकादिद्रव्यसंपर्कात् २-६७२)। अधःप्रापितमलद्रव्यस्य तत्कृतकालुष्याभावात् प्रसाद प्रात्मा में कारणवश कर्म की शक्ति का अनुभूत उपलभ्यते, तथा कर्मणः कारणवशादनुभूतस्ववीर्यव- होना-सत्ता में रहते हुए भी उदयप्राप्त न होना, त्तिता प्रात्मनो विशुद्धिरुपशमः । (त. वा. २, १,१); इसका नाम उपशम है। जैसे कतक प्रादि के xxx स उपशमः प्रयोजनमस्येत्यौपशमिकः ।(त. सम्बन्ध से जल में कीचड़ का उपशम-नीचे बैठ वा. २, १, ६) । ३. उपशमनमुपशम:-कर्मणोऽनु- जाना। जिस भाव का प्रयोजन प्रकृत उपशम हो दय-क्षयावस्था, स प्रयोजनमस्येति प्रौपश मिकः, तेन । उसे प्रौपशमिक भाव कहते हैं। वा निवृत्त इति । (त. भा. हरि. व. २-१)। प्रोपशामिक सम्यक्त्व-१. सप्तानां अनन्तानुबन्ध्या४. तेषां (कर्मणां) उपशमादौपशमिकः । (धव. पु. दिप्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् । (स. सि. १, पृ. १६१); कम्मुवसमेण समुन्भूदो प्रोवसमियो २-३)। २. सप्तप्रकृत्युपशमादौपशमिक सम्यक्त्वम् । णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८५); कम्माणमुवसमेण (त. वा. २, ३, १)। ३. उवसमसेढिगयस्स होइ उप्पण्णो भावो प्रोवसमियो। (धव. पु. ५, पृ. उवसामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अख२०५) । ५. तत्रोपशम: पुद्गलानां सम्यक्त्व-चारि- वियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ (बहत्क. ११८; श्रा. प्र. त्रविघातिनां करणविशेषादनुदयो भस्मपटलाच्छादि- ४५; धर्मसं. ह. ७९८)। ४. तेसिं चेव सत्तण्डं पयताग्निवत्, तेन निर्वृत्त औपशमिकः परिणामोऽध्य- डीणमुवसमेणुप्पण्णसम्मत्तमुवसमियं । (धव. पु. १, वसाय इत्युच्यते । (त. भा. सिद्ध, वृ. १-५), पृ. १७२) । ५. दर्शनमोहस्योपशमादौपशमिकसम्यतत्रोपशमनमुपशमः कर्मणोऽनुदयलक्षणावस्था भस्म- क्त्वम् ।। (त. श्लो. २-३)। ६. अनादिमिथ्यापटलावच्छन्नाग्निवत्, स प्रयोजनमस्येत्यौपशमिकस्तेन दृष्टेरकृतत्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्त करणक्षीणशेषकर्मणो वा निवृत्तः । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१); उपशमे देशोनसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकस्यापूर्वकरणभिन्नभवः उपशमेन वा निवृत्तः औपशमिकः । (त. भा. ग्रन्थेमिथ्यात्वानुदयलक्षणमन्त रकरणं विधायानिवत्तिसिद्ध. व. १०-४)। ६. विपाक-प्रदेशानुभवरूपतया करणेन प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयत प्रौपशमिकं दर्शनम्। द्विभेदस्याप्युदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्तः xxxउपशमश्रेण्यां चोपशमिकम् । (प्राचा. शी.
औपशमिकः । (उत्तरा. नि. शा. व.पु. ३३)। ७. उप- व. ४, १, २१०, पृ. १५६)। ७. सत्तण्हं उवशम एवौपशमिकः, स्वार्थिक इण्प्रत्ययः, यद्वा उपश- समदो उवसमसम्मो XXXI (गो. जी. २६) । मेन निवृत्तः औपशमिकः क्रोधाद्युदयाभावफलरूपो ८. अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्व-सम्यमिथ्यात्वजीवस्य परमशान्तावस्थालक्षण: परिणामविशेषः। सम्यक्त्वानामुपशमाज्जातं विपरीताभिनिवेशविविक्त(प्रव. सारो. व. १२६०)। ८. मोहनीयकर्मोपशम- मात्मस्वरूपलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानमौपशमिकम् । (भ. स्वभावः शुभः सर्व एवौपशमिको भावः । (प्राव. पा. मला. १-३१)। ६. शमान्मिथ्यात्व-सम्यक्त्वभा. मलय. वृ. १८६, पृ. ५७८); तथा उपशमेन, मिश्रानन्तानुबन्धिनाम् । शुद्धेऽम्भसीव पङ्कस्य पुंस्यौपकर्मण इति गम्यते, निवत्त औपशमिकः। (प्राव. शमिकं भवेत् । (अन. घ. २-५४) । १०. अनन्ताभा. मलय. वृ. २०२, पृ. २६३) । ६. शान्तदृग्वृत्त- नुबन्धिनां दर्शनमोहस्य चोपशमेन निवृत्तमोपशमिमोहत्वादत्रौपशमिकामिधे । स्यातां सम्यक्त्व-चारित्रे कम् । xxx यो वा ऽकृतत्रिपुञ्जः-तथाविधभावश्चौपशमात्मकः ।। (गण. मा. ४३, प. ३२)। मन्दपरिणामोपेतत्वादनिर्वतितसम्यक्त्वमिथ्यात्वोभ१०. कर्मणोऽनुदयरूपः उपशमः कथ्यते । यथा कत- यरूपपुञ्ज त्रयोऽक्षपितमिथ्यात्व-अक्षीणमिथ्यात्वःX कादिद्रव्यसम्बन्धात् पङ्क अधोगते सति जलस्य स्व. xx लभते प्राप्नोति यत्सम्यक्त्वं तदोपशमिकम् । च्छता भवति तथा कर्मणोऽनुदये सति जीवस्य स्व. (धर्मसं. मलय. व. ७६८)। ११. उदीर्णस्य मिथ्याच्छता भवति । स उपशमः प्रयोजनं यस्य भावस्य सः त्वस्य क्षये सत्यनदीर्णस्य च उपशमो विपाक-प्रदेश
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श्रपशमिक सम्यक्त्व ]
रूपतया द्विविधस्याप्युदयस्य विष्कम्भनम् तेन निर्वृत्तमौपशमिकम् । (पञ्चसं. मलय. वृ. १-८, पृ. १४; (षडशीति मलय. वृ. १७, पृ. १३७ ) । १२. तत्रोपशमो भस्मच्छन्नाग्निवत् मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धि नां च क्रोधमानमायालोभानामनुदयावस्था | उपशमः प्रयोजनं प्रवर्तकमस्य श्रौपशमिकम् । (योगशा. स्वो विव. २-२ ) । १३. मोहनीयकर्मणः अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं मिथ्यात्वत्रयं चेति सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् । ( श्रारा. सा. टी. ४) । १४. अनादिकालसम्भूतमिथ्याकर्मोपशान्तितः । स्यादोपशमिकं नाम जीवे सम्यक्त्वमादितः ॥ ( गुण. क्रमा. १०) । १५. अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं च एतासां सप्तानां प्रकृतीनाम् उपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् उत्पद्यते । (त. वृत्ति श्रुत २-४ ) ; तेषां (सम्यक्त्व - मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वादीनां ) उदया भावे अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभानां चोदयाभावे सति प्रथमसम्यक्त्वमौपशमिकं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. 8- १) । १६. तत्रोपशमिकं भस्मच्छन्नाग्निवत् मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धिनां च क्रोधमानमायालोभानामनुदयावस्था ( स ) उपशम: प्रयोजनं प्रवर्तकमस्य पशमिकम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३३ ) । १७. मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वं प्राक्कषायचतुष्टयम् । तेषामुपशमाज्जातं तदौपशमिकं मतम् ॥ (ध. सं. श्री. ४-६६ ) । १८. न विद्यतेऽन्तोऽवसानं यस्य तदनन्तं मिथ्यात्वम्, तदनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः, मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्व प्रकृतिनामदर्शन मोहत्रयं चेति सप्तप्रकृतीनां सर्वोपशमेनोपशमिकसम्यक्त्वम् । (गो.
३१२, जैन-लक्षणावली
जी. जी. प्र. टी. २६) ।
१ अनन्तानुवन्धी आदि -- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति ये दर्शनमोहनीय की तीन; तथा चारित्रमोहनीय को श्रनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार- इन सात प्रकृतियों के उपशम से होने वाले सम्यक्त्व को श्रौपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं ।
श्रौपशमिकी वेदना -- तदुवसम - (अट्ठकम्मुवसम - ) जणिदा उवसमिया । ( धव. पु. १०, पृ. ८) । श्राठ कर्मों के उपशम से जो वेदना उत्पन्न होती है, वह श्रपशमिकी वेदना कहलाती है । श्रौपशमिकी श्रेणी - श्रेणिरपि द्विप्रकारा श्रपशfoot क्षायिकी च । तत्रोपशमिकी अनन्तानुबन्धिनो मिथ्यात्वादित्रयं नपुंसक - स्त्रीवेदी हास्यादिषट्कं पुंवेद : अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्चेति । अस्याश्चारम्भकोऽप्रमत्तसंयतो भवति । अपरे ब्रुवते - प्रविरत-देश-प्रमात्ताप्रमत्त विरतानामन्यतमः प्रारभते । XXX ततः प्रतिसमयमसंख्येयभागमुपशमयन् समस्तमन्तमुहूर्तेन शमयति । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-१८ ) ।
अनन्तानुबन्धिचतुष्टय, मिथ्यात्वादि तीन, नपुंसक व स्त्री वेद, हास्यादि छह, पुंवेद, श्रप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन; इन कर्मप्रकृतियों का जहां यथाक्रम से उपशम किया जाता है वह उपशमश्रेणी कहलाती है। इस उपशमश्रेणी का प्रारम्भक श्रप्रमत्तसंयत हुआ करता है । अन्य किन्हीं प्राचार्यों के मतानुसार अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और प्रप्रमत्तविरत; इनमें से कोई भी उसका प्रारम्भक होता है ।
$ &
[ श्रपशमिकी श्रेणी
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लक्षणावली में उपयुक्त ग्रन्थों की अनुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
अध्यात्मक.
अध्यात्मकमल मार्तण्ड
कवि राजमल्ल
वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा
ई. १६४४
अध्यात्मर.
अध्यात्मरहस्य (योगो- पं. आशाधर द्दीपन शास्त्र)
वीर सेवा-मन्दिर दिल्ली
अध्यात्मसा.| अध्यात्मसार
उ. यशोविजय
जैनधर्म प्रसारक सभा
भावनगर
वि. १९६५
| अन. ध. | अनगारधर्मामृत
पं.प्राशाधर
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला
समिति, बम्बई
५ अन. घ. स्वो. अनगारधर्मामृत टीका
टी.
६ | अनुयो.
अनुयोगद्वारसूत्र
आर्यरक्षित स्थविर |आगमोदय समिति बम्बई | ई. १६२४
७ अनुयो. मल. | अनुयोगद्वार टीका
| हेम. वृ. ८ | अनुयो. चू. | अनुयोगद्वार चणि
मलधारगच्छीय
हेमचन्द्र
ऋषभदेवजी केसरीमलजी | ई. १९२८ श्वे. संस्था रतलाम
अनुयो. हरि. | अनुयोगद्वार टीका
हरिभद्र सूरि
१० | अने. ज. प. अनेकान्तजयपताका
सेठ भगुभाई तनुज मनसुख
भाई अहमदाबाद
| अमित. श्रा. अमित गति श्रावकाचार | प्राचार्य अमितगति | दि. जैन पुस्तकालय, सूरत वी. नि. २४८४ (भागचन्दकृत टीका सहित)
वि. २०१५
१२ अष्टक.
अष्टकानि ।
हरिभद्र सूरि
| जैनधर्म प्रसारक सभा,
भावनगर
वि.सं.१९६४
१३ | अभि. रा. | अभिधान राजेन्द्रकोष | श्री विजय राजेन्द्र
(सात भाग) सूरीश्वर
श्री जैन श्वेताम्बर समस्त
संघ, रतलाम
| ई. १९१३-३४
|
अष्टश.
अष्टसती
भट्टाकलंकदेव
भा. जैन सिद्धान्त प्र. संस्था ई. १६१४
अष्टस.
अष्टसहस्री
प्रा. विद्यानन्द
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई | ई. १९१५
१६ | अष्टस. वृ. | अष्टसहस्री तात्पर्यविवरण| उ. यशोविजय जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, ई. १६३७
राजनगर १७ प्राचा. सा., प्राचारसार
वीरनन्दि सैद्धान्तिकचक्र-मा.दि.जैन ग्रंथमाला, बम्बई । वि. १६७४" | आ. सा.
वर्ती
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________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
१८ प्राचारा. सू. आचाराङ्गसूत्र (प्रथम व
द्वितीय श्रुत.) १९ प्राचारा.नि. प्राचाराङ्ग नियुक्ति | भद्रबाहु प्राचार्य
सिद्धचक साहित्य प्रचारक | वि.सं. १९३५
समिति, मुम्बई
२० प्राचारा. शी. प्राचारांग वृत्ति
शीलांकाचार्य
२१ / आचार्यभ. | प्राचार्यभक्ति (क्रियाक.)| - | संपा. पं. पन्नालाल जी सोनी | वि. सं. १९९३ २२ प्रात्मानु. प्रात्मानुशासन गुणभद्राचार्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ, | ई. १९६१
सोलापुर प्रात्मानु. वृ. | प्रात्मानुशासन वृत्ति प्रभाचन्द्राचार्य प्रा. मी. आप्तमीमांसा (देवागम) | समन्तभद्राचार्य भा. जैन सि. प्रकाशिनी संस्था| ई. १९१४
काशी प्रा. मी. वृ. | आत्ममीमांसा पदवृत्ति | वसुनन्दी सैद्धान्तिक
चक्रवर्ती २६ प्राप्तस्व. । प्राप्तस्वरूप
मा. दि.जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि. १९७९
२७ प्रा. सा.
पाराधनासार
देवसेनाचार्य
वि. १९७३
२८ प्रा. सा. टी. पाराधनासार टीका
श्रीरत्नकीतिदेव
२६ प्रालाप.
पालापपद्धति
देवसेनाचार्य
वि. १९७७
३० प्राव. सू.
।
आवश्यक सूत्र (मा
दे. ला. जन पुस्तको. फंड सूरत वि. १९७६
३१ माव. नि. ।
आवश्यकनियुक्ति ,
आ. भद्रबाहु
३२ प्राव. भा. .
प्रावश्यक भाष्य
आवश्यक वृत्ति , हरिभद्र सूरि आवश्यकसूत्र (अध्य.२,३,४) - आवश्यक नियुक्ति , प्रा. भद्रबाहु
आगमोदयसमिति मेहसाना | ई० १९१७
३६ प्राव. भा.
आवश्यक भाष्य
३.प्राव. वृ.
३८ प्राव. सू.
आगमोदय समिति बम्बई ई.१६२८-१९३२
आवश्यक वृत्ति , हरिभद्रसूरि | आवश्यकसूत्र (भा. १,२)
मावश्यकसूत्र वृत्ति | प्रा. मलयगिरि पावश्यकसूत्र (भा. ३) -
प्राव. सू.
दे. ला. जैन पुस्तको. फंड सूरत ई.
१६३६
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________________
संख्या
४६
४१ श्राव. वृ.
आवश्यक सूत्र वृत्ति
४२ प्राव. हरि वृ. मल. हेम. टि.
आवश्यकसूत्र हरिभद्रविर - चित वृत्ति पर टिप्पण
४३ इष्टोप.
इष्टोपदेश
४४ इष्टोप. टी. इष्टोपदेश टीका
४५ उत्तरा.
संकेत
४५
४७ उत्तरा. सू.
उत्तरा. नि.
४६ उत्तरा. शा. वृ
५० उपदे. प., उप.
प.
५१ उपदे. प. टी.
५२ उपदे. प., उप. ५३ उपदे. प. टी.
प.
५४ उपदे. मा.
५७
५५ उपासका.
५६ ऋषिभा.
प्रोघनि. वृ.
ग्रन्थ नाम
उत्तराध्ययन सूत्र
उत्त. ने. वृ. उत्तराध्ययन सुबोधा वृत्ति नेमिचन्द्राचार्य
५८ प्रोपपा.
५६ प्रोपपा. अभय
वृ. अंगप.
६०
६१ कर्मप्र.
६२ | कर्मप्र. चू.
उत्तराध्ययन सूत्र (प्रथम विभाग ) उत्तराध्ययननियुक्ति
11
33
73
ग्रन्थानुक्रमणिका
उत्तराध्ययन नि. वृति
उपदेशपद ( प्रथम वि . )
टीका
मुनिचन्द्र सूरि
( द्वितीय वि . ) हरिभद्र सूरि
टीका
मुनिचन्द्र सूरि
धर्मदास गणी
सोमदेव सूरि
उपदेशमाला
ग्रन्थकार
उपासकाध्ययन
आ. मलयगिरि
मलधारगच्छीय हेमचन्द्र सूरि
पूज्यपादाचार्य
पं. आशावर
भद्रबाहु
शान्तिसूरि
हरिभद्रसूरि
ऋषिभाषित सूत्र
प्रोघनिर्युक्ति ( सभाष्य ) वृत्तिकार द्रोणाचार्य
प्रोपपातिक सूत्र
प्रोपपातिकसूत्रवृत्ति
अंगपण्णत्ती
कर्म प्रकृति
कर्म प्रकृति चूर्णि
वृत्तिकार प्रभयदेव
शुभचन्द्राचार्य
प्रकाशक
दे. ला. जैन पुस्तकोफंड सूरत ई. १९३६
ई. १६२०
11
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, वम्बई वि. १६७५
"3
पुष्पचन्द खेमचन्द, वलाद
"
"1
11
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत ई. १९१६
"1
प्रकाशन काल
11
12
ग्रन्थमाला, सूरत प्रागमोदय समिति, बम्बई
"
}
श्रीमन्मुक्तिकमल जैन मोहन- वि. १९७६ माला, बड़ौदा
"
T
33
ני
33
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता.
जैन संस्था, रतलाम भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
ऋषभदेव केशरीमल संस्था, ई. १६२७
रतलाम
श्रा. विजयदान सूरीश्वर जैन ई. १९५७
ई. १९१६
वि. १६८१
39
ई. १६२६
ई. १६६४
11
भा. दि. जैन ग्रंथमाला समिति वि. १६७६
बम्बई
वाचक शिवशमं सूरि मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई ई. १९३७
(गुजरात)
""
.
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________________
४
संख्या
६३ कर्मप्र. मलय. कर्मप्रकृति वृत्ति
वृ.
६४ कर्मप्र. यशो. कर्मप्रकृति टीका टी.
६५ कर्मवि. ग.
कर्म विपाक:
६६ कर्म वि. पू. कर्मविपाक व्याख्या
व्या.
६७ कर्मवि. ग.
कर्मविपाक वृत्ति
कर्मविपाक
कर्मविपाक वृत्ति
कर्मस्तव
७१ कर्मस्त. गो. कर्मस्तव वृत्ति
वृ.
७२ | कल्पसू.
७०
६८
६६ कर्मवि. दे.
स्वो. वृ. कर्मस्त.
७३
संकेत
७५
७६
७४ कल्पसू.
परमा. व.
कर्मवि. दे.
५ ८३
कल्पसू. स.
वृ.
८४
७७ जयध.
७८ कार्तिके.
७६ कार्तिके. टी.
क्षत्रचू.
८१ गद्यचि.
८२ गुण. क्र.
गु. गु. ष.
ग्रन्थ नाम
विनय. वृ.
कसाय. पा. कसायपाहुड सुत्त
1
कसाय.पा. कसायपाहुड चूर्णिसूत्र
चू.
गु. गु.ष.
स्वो वृ.
कल्पसूत्र
कल्पसूत्रवृत्ति
""
कसा पाहुड टीका ( जयधवला ) कार्तिकेयानुप्रेक्षा
"
टीका
क्षत्रचूडामणि...
गद्य चिन्तामणि
गुणस्थानकमारोह
गुरुगुणपत्रिशिका
गुरुगुणषट्त्रिंशिका वृत्ति
जैन - लक्षणावली
ग्रन्थकार
मलयगिरि
उपाध्याय यशोविजय
गर्ग महर्षि
परमानन्द सूरि
देवेन्द्रसूर
12
गोबिन्द गणी
भद्रबाहु
समयसुन्दर गणी
विनयविजय गणी
गुणधराचार्य
यतिवृषभाचार्य
वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्य स्वामिकुमार
शुभचन्द्राचार्य
वदर्भासह सूरि
| रत्नशेखरसूरि
27
"
प्रकाशक
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई ई. १९३७ (गुजरात)
जैन आत्मानन्द सभा, भाव
नगर
"1
"
आत्मानन्द जैन सभा, भाव
नगर वीर शासन संघ, कलकत्ता
प्रकाशन काल
33
"
वि. १९७२
17
"
"
प्राचीन पुस्तकोद्धारफंड, सूरत ई. १६३६
ई. १९३४
"
वि. १९७२
"
ई. १६१५
ई. १६५५
दि. जैन संघ चौरासी- मथुरा ई. १९४४ प्रादि वि. सं. २०१६
राजचन्द्र जैन ज्ञास्त्रमाला, अगास
35
"
टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री, ई. १६.०३ तंजोर
ई. १९१६
आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी, वि. सं. १६७५ अहमदाबाद
जैन आत्मानन्द सभा,
वि.सं. १९७१
भावनगर
Page #426
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________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
।
।
गो. जी. गोम्मटसार जीवकांड प्रा. नेमिचन्द्र सि. च. भा. जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी
संस्था, कलकत्ता ८५ | गो. जी. मं. गो. मन्दप्रबोधिनी टीका | अभयचन्द्राचार्य - प्र. टी. (ज्ञानमार्गणा पर्यन्त)
गो. जी. जी. गो. जीवतत्त्वप्रकाशिनी | केशवर्णी[भ. नेमिचंद्र] | प्र.टी. टीका ८८ | गो. क. गोम्मटसार कर्मकांड प्रा. नेमिचन्द्र सि. च.
।
। ।
८९ गो. क. जी. गो. जीवतत्त्वप्रकाशिनी केशववर्णी[भ. नेमिचंद्र]
| प्र. टी. | टीका | चन्द्र. च. चन्द्रप्रभचरित्र
प्रा. वीरनन्दी निर्णय सागर प्रेस, बंबई ई. १९१२ | चा. सा. पृ. | चारित्रसार
चामुण्डराय मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बंबई वि.सं. १६७४ | जम्बूद्वी. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
जैन पुस्तकोद्धारफंड, बम्बई | ई. १९२० जम्बूद्वी. शा. जम्बूद्वीप वृत्ति शान्तिचन्द्र | जम्बू. चं. जम्बूस्वामिचरित पं. राजमल्ल मा. दि. जैन ग्रन्थमाला | वि. सं. १९६३
समिति, बम्बई ५ | जं. दी. प. जंबदीव-पण्णत्ति-संगहो पा. पद्यनन्दि जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
" २०१४
सोलापुर जीतक. जीतकल्प सूत्र जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण जैन साहित्य संशोधक समिति ई. १९३६
अहमदाबाद जीतक. चू. | जीतकल्पसूत्र चूर्णि
सिद्धसेन सूरि जीतक. वि. जीतकल्प-विषमपदव्याख्या | श्रीचन्द्र सूरि
व्या. जीव. च. जीवन्धरचम्पू
कवि हरिचन्द्र | टी. एस. कुप्पूस्वामी, तंजोर | ई. १६०५ | जीवस. जीवसमास (मूल)
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १९२८
संस्था, रतलाम १०१ | जीवाजी. जीवाजीवाभिगम
जैन पुस्तकोद्धारफंड, बम्बई १९१६
व्या
प्रा. मलयगिरि
जीवाजी. जीवाजीवाभिगम वत्ति मलय. वृ. जैनत. जनतर्कपरिभाषा
प्रा. यशोविजय
वि.सं. १९६५
जैनधर्म प्रसारक सभा,
भावनगर मा. दि.जैन ग्रन्थमाला, बम्बई
ज्ञा. सा.
ज्ञानसार
पद्मसिंह मुनि
| "
१९७५
ज्ञानसार सूत्र
उ. यशोविजय
प्रात्मानन्द सभा, भावनगर | वि. सं. १६७१
१०६ | ज्ञा. सा. टी. ज्ञानसार टीका
देवभद्र मुनीश शुभचन्द्र प्राचार्य
१०७ ज्ञाना.
ज्ञानार्णव
परमश्रुत प्रभावक मंडल, बंबई ई. १९२७
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________________
६
संख्या
१०८ ज्योतिष्क.
१०६ ज्योतिष्क
११०
११३
१११ तत्त्वानु.
११२
११६
संकेत
११४
वृ. ११५ त. वा.
मलय. वृ.
११६. वृत्ति
११७
त. इलो.
११८ त. सा.
19
त. सा.
31
13
१२०
त. सू.
१२१ ति.प.
"1
त. भा.
त. भा. सि. तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति
वृ. त. भा. हरि.
37
"
دو
"
ग्रन्थ नाम
ज्योतिष्करण्डक
ज्योतिष्करण्डक वृत्ति
त. सुखबो. त. सुखबोधा वृत्ति
11
तत्वसार
१२२
१२३ त्रि. सा.
त्रिलोकसार
१२४ त्रि. सा. टी. त्रिलोकसार टीका
१२५ त्रि.ष. श. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र | हेमचन्द्राचार्य
च.
( पर्व १, आदीश्वरचरित्र)
हरिभद्रसूरि
तत्त्वार्थवार्तिक ( भा. १२) कलंक देव
तत्वार्थवृत्ति
17
जैन - लक्षणावली
मलयगिरि आचार्य
श्रीदेवसेन
तत्त्वानुशासन
रामसेन मुनि
तत्त्वार्थभाष्य ( भा. १,२ ) स्वोपज्ञ ( उमास्वाति ) दे. ला. जैन पुस्तको फंड, बंबई वि. १९८२-८६
सिद्धसेन गणी
वि. १९८२
ग्रन्थकार
"
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक
तत्त्वार्थसार ( प्रथम गु. ) अमृतचन्द्रसूरि
भास्करनन्दी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (द्वि. पर्व, अजितनाथचरित्र)
पर्व ३-६ (३-१९ तीर्थंकरों का चरित्र) पर्व ७ (जैन रामायण नमिनाथ आदि का चरित्र )
पर्व ८, ९ (नेमिनाथ प्रदि का चरित्र )
श्रुतसागर सूरि
विद्यानन्द आचार्य
तत्त्वार्थ सूत्र (प्र. गुच्छक) उमास्वामी
तिलोयपण्णत्ती (प्र. भाग) यतिवृषभाचार्य
(द्वितीय भाग )
""
33
19
प्रकाशक
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. संस्था, रतलाम
"
ई. १९५३-५७
ई. १६४६
ई. १९१८
ई. १९०५
ई. १९४४
ई. १६०५
ई. १९४३
ई. १९५१
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रव. मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बंबई वी. नि. २४४४ माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव
वी. नि. २४४४
वि. सं. १९६९
वि. सं. १९६१
"}
31
भा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई वि. सं. १९७५
91
भारतीय ज्ञानपीठ काशी
"
नि. सागर यन्त्रालय बम्बई
"
ओरियन्टल लायब्रेरी मैसूर निर्णय सागर यन्त्रालय
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
"
21
जैनधर्म प्रसारक सभा, (भावनगर)
33
प्रकाशन काल
""
ई. १६२८
11
"
"
22
वि. सं. १९६२
वि. सं. १९६३
वि. सं. १६६४
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
त्रि. प. श. च. पर्व १० (महावीर आदि | हेमचन्द्राचार्य जैनधर्म प्रसारक सभा | वि. सं. १९६५ का चरित्र)
(भावनगर) परिशिष्ट पर्व (स्थविरा
वि. सं. १९६८ वली चरित्र) दशवै. सू. | दशवकालिक सूत्र | शय्यम्भव सूरि जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई | ई. १९१८ । दशव. नि.
| दशवकालिक नियुक्ति भद्रबाहु दशव. नि. | दशवकालिक वृत्ति हरिभद्र हरि. वृ. दशव. चू. | दशवकालिक चूणि जिनदास गणि महत्तर ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १९३३
संस्था रतलाम द्रव्यसं. द्रव्यसंग्रह
नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देव जैन हितैषी युस्तकालय बंबई | ई. १६००
१३.
१३१ | द्रव्यानु. त. | द्रव्यानुयोगतर्कणा
भोजकवि
परमश्र तप्रभावक मंडल बंबई | वी. नि. २४३२
१३२ | द्वात्रिं. द्वात्रिंशतिका (तत्त्वानूशा-अमितगतिसरि
नादिसंग्रह में) १३३ | द्वादशानु. द्वादशानुप्रेक्षा कुन्दकुन्दाचार्य
| मा. दि.जैनग्रन्थमाला समिति वि.सं. १९७५ बम्बई
वि. सं. १९७७
धम्मर, धर्म. धम्मरसायण
पद्मनन्दी मुनि
वि. सं. १९७६
१३५ धर्मप. धर्मपरीक्षा
अमितगत्याचार्य जैन हितैषी पुस्तकालय बंबई । ई. १९०१ . घ. बि. धर्मबिन्दुप्रकरण
हरिभद्र सूरि
प्रागमोदय समिति, बम्बई | ई. १६२४ घ. बि. मु. वृ. | धर्मबिन्दु मुनिचन्द्र वृत्ति | मुनिचन्द्र सरि
धर्मश. | धर्मशर्माभ्युदय कवि हरिचन्द्र | निर्णयसागर प्रेस, बम्बई ई. १८६६ १३६ धर्मसं.
| धर्मसंग्रह (दो भागों में) | उपाध्याय मानविजय | जैन पुस्तकोद्धार संस्था, दंबई| ई. १९१५-१८ " स्वो. वृ. धर्मसंग्रह टीका स्वोपज्ञ (मानविजय) धर्मसं. धर्मसंग्रहणी हरिभद्र सूरि
| ई. १९१६ १४२ , मलय. व धर्मसंग्रहणी वृत्ति मलयगिरि
पं. मेधावी
धर्मसं. श्रा. | धर्मसंग्रह श्रावकाचार ध्यानश. ध्यानशतक
१४४ |
बा. सूरजभान वकील, देवनन्द वी. २४३६ . प्राव. हरि. वृत्ति में (पृ.५८२
से ६११ पर) प्रागमोदय समिति, बम्बई | ई. १६१७
देववाचक गणी
नन्दी. सू., नन्दी सूत्र
नन्दी गा. १४६ नन्दी. मलय. नन्दीसत्र वृत्ति
प्रा. मलयगिरि
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
८
संख्या
संकेत
१४७ नन्दी. चू. नन्दीसूत्र चूर्णि
१४८ नन्दी. हरि.वृ. नन्दीसूत्र वृत्ति
१४६ नयप्र.
नयप्रदीप
37
१५० नयर.
१५१ नयोप.
१५२
१५३ नवत.
१५४ नंदी चू.
नंदीसुत्त चुण्णि
१५५ नारदाध्ययन नारदाध्ययन
१५६
नि. सा.
नियमसार
१५७ नि. सा. वू. नियमसार वृत्ति
१५८ निर्वाणक.
निर्वाणकलिका
१५६ निशीथचू. निशीथचूर्णि
१६० नीतिवा.
नीतिवाक्यामृत
१६१ नीतिवा. टी. नीतिवाक्यामृत टीका
१६२ नीतिसा.
नीतिसार
१६३ न्यायकु.
१६४
१६५ न्या. दी.,
न्यायदी. १६६ न्यायवि.
स्वो. वृ.
3:
१६७ न्यायवि. वि.
१६८
१६६
६७०
ग्रन्थ नाम
"
नयरहस्य प्रकरण
नयोपदेश
नयोपदेश वृत्ति
नवतत्त्वप्रकरण
17
न्यायदीपिका
न्यायविनिश्चय
"
33
जैन - लक्षणावली
न्यायाव.
न्यायावतार
न्यायाव. वृ. | न्यायावतार वृत्ति
ग्रन्थकार
भट्टारक इन्द्रनन्दी
न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भाग प्रभाचन्द्राचार्य
द्वितीय भाग
37
जिनदास गणि महत्तर ऋ. के. जैन श्वे. संस्था, रतलाम ई. १८२८
हरिभद्र सूरि
उ. यशोबिजय
यशोविजय गणी
जिनदास गणी
कुन्दकुन्दाचार्य
पद्मप्रभ मलधारी देव
पादलिप्ताचार्य
जिनदास गणि महत्तर
सोमदेव सूरि
अभिनव धर्मभूषण
भट्टाकलंकदेव
विवरण प्र. भा. वादिराज सूरि
"1
द्वि. भाग
"
"
सिद्धसेन दिवाकर सिद्धर्षि गणी
प्रकाशक
31
33
जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर वि. १९६५
आत्मवीर सभा, भावनगर
31
नथमल कन्हैयालाल, बंबई
खीमजी भीमसिंह माणकें, बबई ई. १९४६
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्-वाराणसी ई. १६६६
ا"
जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय ई. १९१६
बंबई
"
प्रकाशन काल
ور
"
17
शंका
"
ई. १६१६
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, वि. १९७६
बंबई
श्वे. जैन महासभा, बंबई
""
11
वि. सं. १९७५
ई. १६३८
ई. १६४१
वीर सेवा मन्दिर
ई. १६४५
सिंघी जैनग्रन्थमाला, कलकत्ता ई. १९३ε
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
37
دو
ई. १९२६
ई. १६४६ ई. १६५४ वि. सं. १६८५
را
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
पउमच.
पउमचरिय
विमलसुरि
पद्म. पं.
पद्मनन्दि-पंचविंशति पद्मनन्दी मुनि पद्मपुराण (भा. १,२,३) श्रीर विषेणाचार्य
जैनधर्म प्रसारक सभा | ई. १९१४
भावनगर जैन संस्कृति संध, सोलापुर | ई. १९६२ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ई. १६४४,
ई. १९५३ परमश्र तप्रभा क मंडल बंबई वि.सं. १९९३
पद्म. पु.
परमा.
परमात्मप्रकाश
श्रीयोगीन्द्र देव
परमा. वृ.
परमात्मप्रकाश वृत्ति
श्री ब्रह्मदेव
१७६ | परीक्षा.
श्रीमाणिक्यनन्द्याचार्य | बालचन्द्र शास्वी, बनारस
ई. १६२८
परीक्षा (प्र.र.मा.
सहित) पचवस्तुकग्रन्थ
पंचव.
हरिभद्र सूरि
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई ई. १९२७
१७८ | पंचव. वृ. | पंचवस्तुकवृत्ति
| हरिभद्र सूरि
भारतीय ज्ञानपीठ, काशो
ई. १६६०
१७१ । प्रा. पंचसं. पंचसंग्रह (प्राकृतवृत्ति,
संस्कृतटीका व हि. अनु.) १८० पंचसं. पंचसंग्रह
चन्द्रर्षि महत्तर
आगमोदय समिति, बम्बई
ई.१६२७
पंचसं. स्वो. पंचसंग्रह वृत्ति
वृ. १८२ | पंचसं. पंचसंग्रह(प्र. व द्वि. भाग)
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई | ई. १९३८
(गुजरात)
पंचसं.स्वो..| पंचसंग्रह वृत्ति
| पंचसं. मलय
मलयगिरि
| पंचसंग्रह (संस्कृत)
अमितगति
पंचसं.
अमित. १८६ | पंचसू.
मा. दि. जैनग्रन्थमाला समिति ई. १९२७
बम्बई जैन आत्मानन्द सभा, वि. सं. १९७०
भावनगर
पंचसूत्र
अज्ञात
पंचसू. द. | पंचसूत्रवृत्ति
हरिभद्र सूरि
१८८ | पंचाध्या. पंचाध्यायी
कवि राजमल्ल
ग. वर्णी जैन ग्रंथमाला, वी. नि. २४७६
बाराणसी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम ई. १६२८
पंचाश. पंचाशकमल पंचाश. वृ. पंचाशक टीका पंचा. का. पंचास्तिकाय
हरिभद्र सूरि अभयदेव मूरि
कुन्दकुन्दाचार्य
परमश्रृत प्रभावक मण्डल
वि. सं. १९७२
बम्बई
अमृत चन्द्राचार्य
| पंचा.का. पंचास्तिकाय वृत्ति
अमृत.व. १६३ पंचा. का. पंचास्तिकाय वत्ति
| जय. वृ. ।
जयसेनाचार्य
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
संख्या संकेत
१६४ पाक्षिकसू.
१६५
वृ.
१६६ पिडनि.
१६७
२००
२०१
२०२
२०३
पिडनि.
मलय. वृ. १६८ पु. सि.
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
१६ पू. उपासका पूज्यपाद उपाकाचार
२०४
"
प्रज्ञाप.
मलय. वृ. प्रत्या. स्व.
प्र. न. त.
२०६ प्रमाल.
२१० प्र. क. मा.
२१४
पूज्यपाद
सं. प्रकृति प्रकृतिविच्छेद प्रकरण (सं.) जयतिलक वि. जयति.
प्रज्ञाप.
श्यामाचार्य
मलयगिरि
यशोदेव प्राचार्य
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार वादिदेवसूरि
वादिराजसूरि
विद्यानन्द स्वामी
२११ प्र. र. मा.
२०५ | प्रमाणनि.
प्रमाणनिर्णय
२०६ प्रमाणप. पू. प्रमाणपरीक्षा
२०७ प्रमाणमी.,
प्रमाणमीमांसा
प्र. मी. २०८ प्रमाणसं.
( स्वोपज्ञ वृत्ति सहित ) प्रमाणसंग्रह
२१२ प्रव. सा.
२१३
ग्रन्थ नाम
प्रव. सा.
पाक्षिकसूत्र
पाक्षिकसूत्र वृत्ति
पिण्डनियुक्ति
पिडनियुक्तिवृत्ति
असृत. वृ.
प्रव. सा.
प्रज्ञापना
प्रज्ञापना वृत्ति
प्रत्याख्यानस्वरूप
प्रवचनसार वृत्ति
प्रवचनसार वृत्ति
जय. वृ.
२१५
प्रव. सारो. प्रवचनसारोद्वार
२१६ प्र. सारो वृ. प्रवचनसारोद्वार वृत्ति
प्रमालक्ष्म
प्रमेय कमलमार्तण्ड
प्रमेय रत्नमाला
प्रवचनसार
जैन - लक्षणावली
ग्रन्थकार
यशोदेव
भद्रबाहु
मलयगिरि
श्रमृतचन्द्राचार्य
श्री हेमचन्द्राचार्य
अकलंक देव
श्री प्रभाचन्द्राचार्य
अनन्तवीर्य प्राचार्य
श्री कुंदकुंदाचार्य
अमृतचन्द्र
जयसेन
नेमिचन्द्रसूरि
सिद्धसेन सुरि
प्रकाशक
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत ई. १६११
"2
"
2)
परमश्रुत प्रभावकमण्डल,
बम्बई कल्लप्पा भरमप्पा निटवे नादणीकर कोल्हापुर
"
जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, काशी सिंधी ग्रंथमाला, कलकत्ता
प्रकाशन काल
ग्रामोदय समिति, मेहसाना ई. १६१८
परमश्रु प्रभावक मण्डल,
बबई
31
"
ई. १६१८
ऋषभदेव केशरीमलजी श्वे.
ई. १९२७
ई. १६०४
सस्था, रतलाम यशो. श्वे. जैन पाठशाला, काशी मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई | वि. सं. १६७४
ई. १९१४
ई. १६३६
जीवनचन्द साकरचन्द जव्हेरी, बंबई
"
वी. नि. २४३१
ई. १६०४
"
मनसुखभाई, भगुभाई, ग्रहमदाबाद
निर्णयसागर मुद्रणालय, बंबई | ई. १९४१
बालचन्द्र शास्त्री, बनारस
ई. १६२८
वि. सं. १६६६
"
ई. १६२ :
35
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
सकेन
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
२१७
प्रशमर.
प्रशमरतिप्रकरण
उमास्वाति प्राचार्य
| परमश्रुत प्रभावक मण्डल,
| ई. १९५०
२१८ | प्रश्नव्या.
प्रश्नव्याकरणांग
२१६ प्रश्नो. मा. प्रश्नोत्तररत्नमालिका
राजर्षि अमोघवर्ष
जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, | ई. १९०८
बम्बई
२२० प्रायश्चित्तच. प्रायश्चित्तचूलिका
प्रायश्चित्त
वि. वृ. २२२ । बन्धस्वा. बन्धस्वामित्व
(तृतीय कर्म ग्रन्थ) बन्धस्वा. वृ. | बन्घस्वामित्व वृत्ति | हरिभद्र सूरि
जैन प्रात्मानन्द सभा,
भावनगर
वि.सं. १९७२
२२४ वन्धस्वा. बन्धस्वामित्व
देवेन्द्र सूरि
(तृ. क. ग्रन्थ) बृहत्क. बृहत्कल्पसूत्र, नियुक्ति व | प्राचार्य भद्रबाहु
ई. १९३३-४२ भाष्यसहित (छह भाग) बृहत्क. वृ. बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति मययगिरि-क्षमकीति २२७ बृहत्स. बृहत्सर्वज्ञसिद्धि
अनन्तकीर्ति | मा. दि.जैन ग्रंथमाला समिति वि. सं. १९७२
बम्बई २२८ बृ. द्रव्यसं. बृहद् द्रव्यसंग्रह
नेमिचन्द्रसैद्धान्तिकदेव | परमश्रुत प्रभावक मण्डल, वी.नि. २४३३
बम्बई २२६६. द्रव्यसं. , टीका । ब्रह्मदेव
टीका २३० | बोधप्रा. बोधप्राभत
मा.दि. जैन ग्रंथमाला समिति, वि. सं. १९७७
वम्बई बोधप्रा. टी. बोधप्रामृत टीका भ. श्रुतसागर
कुन्दकुन्दाचार्य
२३२
भ. प्रा.
भगवती-आराधना
शिवकोटि प्राचार्य
बलात्कार जैन पब्लिकेशन | ई. १६३५
सोसायटी कारंजा
भगवती-पाराघनाटीका अपराजितसूरि
पं. आशाधर
२३३ भ.पा.
विजयो. २३४ भ. प्रा.मूला. २३५ | भगवतीसू. २३६ | भगव.
- । ।
जिनागम प्र. सभा अहमदाबाद
भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) प्रथम खण्ड भगवतीसूत्र टीका
भगव. वृ.
अभयदेव सूरि
वि. सं. १६७४
भगव.
२३६ भगव.
भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति तृ.खंड ७-१५श.) भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति च.खं.१६-४१श.)
नरहरिद्वारकादास पारेख महा| वि.सं. १९८५ मात्र गृजरात वि., अहमदाबाद गोपालदास जीवाभाई पटेल, | वि.सं. १९८८ जैन सा.प्र. ट्र. अहमदाबाद
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन-लक्षणावलो
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
| भगव. दा. वृ. भगवती सूत्र वृत्ति
दानशेखर सूरि
२४१ | भावत्रि.
भावत्रिभंगी
श्रुतमुनि
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई| वि. सं. १९७८
देवसेनसूरि
प्रा. भावसं. भावसंग्रह
दे. २४३ | भावसं.
, (संस्कृत) वाम. २४४
भाषारहस्य
| वामदेवसूरि
भाषार.
यशोविजयगणी
| मनसुखभाई भगुभाई,
अहमदाबाद भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
२४५ | म.पु.
ई. १९५१
महापुराण (भा. १, २) | जिनसेनाचार्य महापुराण (उत्तरपुराण)
गुणभद्राचार्य
२४६ | म पु.
ई०१९५४
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई ई. १९३७
ई. १६४०
ई. १९४१
२४७ | म. पु. पुष्प. | महापुराण प्रथम खण्ड महाकवि पुष्पदन्त
(१-३७ प.) २४८
, द्वि. खण्ड
(३८-८० प.) २४६
, तृ. खण्ड
(८१-१०२ प.) मूलाचार (प्र. भा. वट्टके राचार्य
१-७ अधिकार) मूला. वृ. मूलाचार वृत्ति वसुनन्द्याचार्य | मूला. मूलाचार (द्वि. भा. | वट्टकेराचार्य
८.१२ अधि.) २५३ मूला: वृ. मूलाचार वृत्ति
| वसुनन्द्याचार्य
मूला.
वि. सं. १९७७
वि. सं. १९८०
मोक्षप.
मोक्षपंचाशिका
वि. सं. १९७५
मोक्षप्रा.
मोक्षप्राभृत
कुन्दकुन्दाचार्य
वि. सं. १९७७
| भ. श्रुतसागर
२५६ । मोक्षप्रा. | मोक्षप्राभृत वृत्ति
श्रुत. वृ. यतिधर्मवि. | यतिधर्मविशिका
२५७
निर्णयसागर प्रेस, बम्बई
| ई. १६०१
२५८ | यशस्ति. | यशस्तिलक (पूर्व खण्ड | सोमदेवसरि
१.३ अाश्वास) २५६ यशस्ति. व. यशस्तिलक वत्ति भट्टारक श्रुतसागर
| यशस्ति.
ई. १९०३
यशस्तिलक (उ. खण्ड) | सोमदेवसूरि युक्त्यनुशासन
समन्तभद्राचार्य
| युक्त्यनु.
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई| वि. सं. १९७७
२६२ | युक्त्यनु. टी. युक्त्यनुशासन टीका
विद्यानन्दाचार्य
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
१३
संख्या
संकेत
ग्रन्य नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
ई. १६४०
२६३ योगदृ.,
| योगबि. २६४ योगवि.
योगदृष्टिसमुच्चय व योग- हरिभद्र सूरि बिन्दु (स्वो वृत्ति सहित) योगविशिका
जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था,
अहमदाबाद आत्मानन्द जैन पुस्तक
प्रसारक मण्डल, आगरा अत्मानन्द जैन पुस्तक प्रसारक मण्डल, आगरा
ई. १६२२
२६५
योगविशिका व्याख्या
यशोविजय गणी
२६६ योगशा. । योगशास्त्र (त. प्रकाश के | हेमचन्द्राचार्य
१२० श्लोक तक) योगशा.स्वो.| योगशास्त्रविवरण
विव. २६८ | योगशा. योगशास्त्र
२६७
जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर ई. १९२६
| योगशा.स्वो. योगशास्त्र विवरण
विव. | योगशा. | योगशास्त्र (गुजराती
भाषान्तर सहित) योगिभ. प्रा० योगिभक्ति(क्रियाक.)
श्रीभीमसिंह माणेक बम्बई
ई. १८६६
पं०पन्नालालजी सोनी
वि.सं. १९९३
१७२
सं० योगिभक्ति
| रत्नक.
रत्नकरण्डश्रावकाचार | प्राचार्य समन्तभद्र
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बबई
वि.सं. १९८२
| रत्नक. टी. रत्नाकरण्डश्रावकाचार प्रभाचन्द्राचार्य
टीका २७५ रत्नाकरा. | रत्नाकरावतारिका श्रीरत्नप्रभाचार्य
| रायप.
रायपसेणी
श्रेष्ठि हर्षचन्द्र भूराभाई, वी.नि. २४३७
वाराणसी Khadayata Book Depott
Ahmedabad मा. दि. जैनग्रन्थमाला, बंबई वि.सं. १९७२
| लघीय.
लघीयस्त्रय
| भट्टाकलंकदेव
अभयचन्द्र
२७८ लघीय. अभय. लघीयस्त्रय वृत्ति २७६ । लघुस. | लघुसर्वज्ञसिद्धि
लब्धिसा. लब्धिसार (क्षपणासार
अनन्तकोति
गभित)
नेमिचन्द्राचार्य सि.च. | परमभुत प्रभावक मण्डल
बंबई हरिभद्रसूरि जैन पुस्तकोद्धार संस्था बंबई ई. १९१५
ललितवि. ललितविस्तरा
२८२ ललितवि.मु. ललितविस्तरापंजिका मुनिचन्द्र २८३ | लाटीसं. लाटीसंहिता
राजमल्ल कवि २८४ लोकप्र. | लोकप्रकाश (भाग १,२,३) विनयविजय गणी
मा.दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि.सं. १९८४ द. ला.जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, ई. १९२६,२८, बम्बई
१९३२ मा.दि. जैनग्रन्थमाला समिति, वी.नि. २४६५
बम्बई
२८५ वरांगच.
वरांगचरित्र
जटासिंहनन्दी
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
वसुश्रा.
वसुनन्दिश्रावकाचार
बसुनन्दी
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
ई. १९५२
२८७ वाग्भ.
वाग्भटालंकार
वाग्भट कवि
निर्णयसागर प्रेस, बम्बई
ई. १८९५
२८१
२८८ विपाक. विपाकसूत्र
गुर्जर ग्रन्थरत्न-कार्यालय ई. १६३५
अहमदाबाद विपाक. | विपाकसूत्र-वृत्ति अभयदेव सूरि अभय. व. विवेकवि. विवेकविलास जिनदत्तसूरि परी. बालाभाई रामचन्द्र वि.सं.१९५४
अहमदाबाद विशेषा. | विशेषावश्यक भाष्य जिन द्रगणि-क्षमाश्रमण | ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १६३६, (भा. १, २)
संस्था, रतलाम
१६३७ विशेषा. को विशेषावश्यक भाष्य कोटयार्य
| वृत्ति २९३ | व्यव., व्यव. व्यवहार सूत्र (नियुक्ति, मलय. व. भाष्य और मलयगिरि
विरचित वृत्ति सहित
१-१० उद्देश) २६४ | शतक. दे. शतक (पंचम कर्मग्रन्थ) | देवेन्द्रसूरि
जैन अात्मानन्द सभा, ई. १६४१
भावनगर २६५ | शतक. दे. | शतक वृत्ति
स्वो. वृ. शतक. शतकप्रकरण | शिवशर्म सूरि वीरसमाज, राजनगर ई. १९२३
२६७ | शतक. मल. शतकप्रकरण वत्ति
मलधारीय हेमचन्द्र
| शतक. चू.
शतकप्रकरण चूणि
२६६/शास्त्रवा. शास्त्रवार्तासमुच्चय
हरिभद्र सूरि
जैनधर्म प्रसारक सभा, वि. सं. १६६४
भावनगर प्रात्मानन्द सभा, भावनगर | वि. सं. १६७०
श्राद्धगु.
| ज्ञानप्रसारकमण्डल, बम्बई । वि. सं. १९६१
श्राद्धगुणविवरण महोपाध्याय जिन
मण्डनगणी श्रा. प्र. वि. श्राद्धप्रकरणविशिका
श्रा. प्र. श्रावकप्रज्ञप्ति | हरिभद्र सूरि | श्रा. प्र. टी. श्रावकप्रज्ञप्ति टीका बृ. श्रुतभ. बृहत् संस्कृत श्रुतभक्ति
(क्रियाक.) ३०५ श्रुत. श्रुतस्कन्ध ५. खं. पट्खण्डागम (भा. १-१६) श्रीभगवत् पुष्पदन्त
भूतबलि प्राचार्य ३०७ धव. पु. , टीका (प. खं.) । वीरसेनाचार्य
पं. पन्नालालजी सोनी ।
वि.सं. १९९३
जैन साहित्योद्धारक फण्ड, | ई. १६३६ से अमरावती
१९५८
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
१५
सख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
३०८ षडशी.
षडशीति कर्मग्रन्थ
जिनवल्लभगणि
प्रात्मानन्द सभा, भावनगर वि.सं.१९७२
३०६ षडशी.हरि.वृ. षडशीति वृत्ति
हरिभद्र
३१० षडशी.मलय.
मलयगिरि
| षडशी. दे. | षडशीति (चतुर्थ क.प्र.) | देवेन्द्रसूरि
ई. १९३४
३१२ - षडशी. दे षडशीति वत्ति
___ स्वो. व. षड्द. स. | षड्दर्शनसमुच्चय
हरिभद्र सूरि
जैनधर्म प्रसारक सभा,
भावनगर
वि. १६६४
३१४ | षष्ठ.क. | षष्ठकर्म ग्रन्थ (सप्ततिका)/ चन्द्रषि महत्तर
वि.सं. १९६८
३१५ षष्ठ.क.मलय.
"
वृत्ति
मलयगिरि
३१६ । षोडश.
षोडशकप्रकरण
जैन शेताम्बर संस्था, रत्नपूर वि. सं. १९६२
| हरिभद्र सूरि | यशोभद्रसरि
षोडश. वृ.
"
वृत्ति
३१८ सप्ततिः । सप्ततिकाप्रकरण
चन्द्रर्षि महत्तर
ई. १६४०
जैन प्रात्मानन्द सभा,
भावनगर
सप्ततिका प्रकरण वृत्ति
मलयगिरि
सप्तति.
मलय.व. सप्तभं०
सप्तभंगीतरंगिणी
विमलदास
वी. नि. २४३१
परमश्रुत प्रभावक मण्डल
बम्बई भा. जैन सिद्धांत प्रकाशिनी
___ संस्था, काशी
समयप्रा.
समयप्राभूत
कुन्दकुन्दाचार्य
ई.१६१५
समयप्राभत टीका
अमृतचन्द्र सूरि
३२२ | समयप्रा.
अमृत. वृ. ३२३ समयप्रा.
जय.व. समय.क.
"
वृत्ति
प्रा० जयसेन
समयसारकलश
अमृतचन्द्र सरि
| निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई ई. १६०५
| समवा.
| समवायांग सूत्र
ई १९३८
| भयेर चन्द ठे.भीनीवारी,
अहमदाबाद
३२६ | समवा. अभ.
"
वत्ति
अभयदेव सूरि
| समाधि. समाधितन्त्र
पूज्यपाद
वीरसेवामन्दिर, सरसावा
ई.१६३६
३२८ समाधि. टी. समाधितन्त्र टीका
प्रभाचन्द्राचार्य
३२६ सम्बो. स. सम्बोधसप्तति
रत्नशेखर सरि
| आत्मानन्द जैन सभा, भाव.वि.१९७२
नगर
३३० सम्बो.स.टी.
" टीका
गुणविनयवाचक
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
संख्या संकेत
३३१
स. सि.
३३२ संग्रहणी.
६३३
३३४
३३५
३३६
३४०
" दे. कृ.
सा. ध.
" स्त्रो. टी.
३३७
३३८ सुभा. सं
३३६ | सूत्रकृ.
३५०
सिद्धिवि.
३५१
"
"
23
३४१
३४२ सूर्यप्र
३४३
31
वृ.
३४४ स्थाना.
३४५
३४६
11
नि.
शी. वृ
मलय.
अभय.
वृ.
स्या. मं.
ह. पु.
ग्रन्थ नाम
सर्वार्थसिद्धि
संग्रहणीसूत्र
संग्रहणी वृत्ति
सागारधर्मामृत
71
सूत्रकृताङ्ग
"
टीका
सिद्धिविनिश्चय ( भाग १-२ ) अकलंकदेव
सिद्धिविनिश्चय वृत्ति
अनन्तवीर्य
सुभाषितरत्नसंदोह
अमित गत्याचार्य
"
"1
निर्युक्ति
वृत्ति
सूर्य प्रज्ञप्ति
३४७
३४८ | स्वयंभू बृ. स्वयम्भू स्तोत्र
स्वयंभू स्वरूपसं.
३४६
स्वरूप संबोधन
स्वरूपसं.
स्वरूप संवेदन
हरिवंशपुराण
मलय वृत्ति
स्थानाङ्गसूत्र
स्थानाङ्गसूत्र वृत्ति
स्याद्वादमंजरी
जैन - लक्षणावली
अभयदेव सूरि
हेमचन्द्र सूरि
स्या. र. वृ. | स्याद्वाद रत्नाकर प्र. परि. त्रादिदेव सूरि
समन्तभद्राचार्य
अकलंक देव
ग्रन्थकार
पूज्यपाद
स्त्रीचन्द्रसूरि
देवभद्र मुनीश
पं. आशाधर
भद्रबाहु
शीलांकाचार्य
मलयगिरि
"
जिनसेनाचार्य
प्रकाशक
भा. ज्ञानपीठ, काशी
ई. १६५ :
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई ई. १६१५
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई
"
भा. ज्ञानपीठ, काशी
33
प्रकाशन काल
"
दोशी सखाराम नेमिचंद, सोलापुर
| मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई
"
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई
ई. १६०३
श्री गोडी जी पार्श्वनाथ जैन ई. १९५०.५३ देरासर पेढो, बम्बई
वि. स. १६७२
प्रकाशचन्द शीलचन्द जैन सर्राफ, दिल्ली भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
1
सेठ माणिकलाल चुन्नीलाल व ई. १६३७ कान्तिलाल चुन्नीलाल अह.बा.
ई. १३५६
ई. १९३५
परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई मोतीलाल लाधा जी, पूना वी. नि. २४५३
17
वि. सं. १६७२
ई. १९६२
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________________
अन्यकारानुक्रमणिका प्रग्थकारों में अधिकांश का समय अनिश्चित है । यहां उसका निर्देश अनुमान के माधार से किया जा रहा है। संख्या प्रन्थकार ___ समय (विक्रम संवत्)
ग्रन्धकार समय (विक्रम संवत्) १ भकलंकदेव ८.६वीं शती (ई.७२०-७८० १६ उमास्वाति
२-३री शती २ प्रजितसेन १४वीं शती
२. कुन्दकुन्दाचार्य प्रथम शती ३ अनन्तकीति
१०.११वीं शती २१ कुमारकवि (पा. प्र.) १४५० + लगभग ४ प्रनम्तवीर्य (सिद्धिवि. ११वीं शती
२२ कोटपाचार्य सम्भवतः हरिभद्र के पूर्ववत के टीकाकार) ५ अनन्तवीयं (प्र.र.मा.) ११-१२वीं शती २३ क्षेमकीति (बृहत्क. १३-१४वीं शती (वि.सं.
टीकाकार)
१३३२ में टी. समाप्त) ६ अपराजित सूरि वीं शती
२४ गर्षि
सम्भवत: १०वीं सती ७ अभयचन्द्र (लघीय. टी.) १३-१४वीं शती २५ गुणधराचार्य प्रथम शती ८ अभयचन्द्र (मन्दप्र.) १३-१४वीं शती (ई. १२७६ | २६ गुणभद्र
९-१०वीं शती में स्वर्गवास) ६ अभयदेव सूरि (सन्मति. १०-११वीं शती २७ गुणरत्न सूरि १५वीं शती (१४५९)
टीका) १० अभयदेव सूरि (प्रागमों १२वीं शती
२८ गोविन्द गणि १३वीं शती (सम्भवतः के टीकाकार)
१२८८ के पूर्व) ११ अमितगति (प्रथम) १०-११वीं शती | २६ चक्रेश्वराचार्य ११९७ में शतक का भाष्य
पूर्ण किया) १२ अमितगति (द्वितीय) ११वीं शती (१०५० में सु.] ३० चन्द्रर्षि महत्तर सम्भवतः १०वीं शती
र.सं. और १०७० में घ. प. रची) | ३१ चामुण्डराय
१०-११वीं शती १३ अमृतचन्द्र सूरि १०वीं शती
३२ जटासिंहनन्दी ८वीं शती १४ प्रमोधवर्ष (प्रथम) वीं शती (जिनसेन समकालीन) ३३ जयतिलक
१५वीं शती का प्रारम्भ १५ प्रायंरक्षित स्थविर वि.की २री शती
३४ जयसेन
१२वीं शती १६ माशापर १३वीं शती (ई. ११८८ से
३५ जिनदत्तसरि (विवेकवि.) १३वीं शती (उदयसिंह के १७ इन्द्रनन्दी (छेदपिन्छ) १०वीं शती
राज्य में ई.१२३१) १५ इन्द्रमन्दी (नीतिसार) १३वीं पाती
३१ जिनदास गणि महत्तर ६५०-७५० (जिनभद्र के
पश्चात व हरिभद्र के पूर्व)
१२५०)
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________________
१८
संख्या
ग्रन्थकार
३७
जिनभद्र क्षमाश्रमण ( भाष्यकार )
३८
जिन मण्डन सूरि
३६ जिनवल्लभ गणि
४० जिनसेन (हरि. पु.)
४१ जिनसेन ( महापुराण)
४२ दानशेखर
४३ देवगुप्त सूरि
४४ देवनन्दी ( पूज्यपाद )
४५ देवभद्र सूरि
४६ देवद्धिगणी
४७ देववाचक गणि
४८ देवसेन
४६ देवेन्द्रसूरि
५० द्रोणाचार्य
५१ धर्मदासगणि
५२ धर्म भूषण यति
५३ नेमिचन्द्र सिद्धान्तच. ( गोम्मटसार ) ५४ नेमिचन्द्र ( द्रव्यसं.)
५५ नेमिचन्द्र (गो. के टीकाकार) ५६ नेमिचन्द्र ( उत्तरा. टी.)
समय (विक्रम संवत् )
७वीं शती (६५० - ६६० के पूर्व ) १५वीं शती (१४६६)
१२वीं शती
हवीं शती (शक सं. ७०५) ६३
जैन - लक्षणावली
संख्या
ग्रन्थकार
६० पद्मनन्दी ( पद्म पञ्च. ) १२वीं शती
६१ पद्मप्रभ मलधारी
६२ पद्मसिंह मुनि
परमानन्द सूरि
६४ पादलिप्तसूरि
६५ पुष्पदन्त
प्रथम शती
६६ पूज्यवाद ( उपा.)
१६वीं शती
६७
प्रभाचन्द्र (प्र.क. मा . ) ११वीं शती (ई. १८० से १०६५) ६८ प्रभाचन्द्र (र.क. आदि के १३वीं शती (आशाघर के टीकाकार) पूर्व)
प्रभाचन्द्र ( श्रुतभ. टीका )
ब्रह्मदेव
ब्रह्म हेमचन्द्र ( श्रुतस्कन्ध के कर्ता) भद्रबाहु (द्वितीय)
वीं शती (शकसं. ७०० से
७६०)
अज्ञात
१३-१४वीं शती (वि. सं. १३२७ में स्वर्गवास) ११-१२वीं शती
१३ के पूर्व
१४-१५वीं शती
११वीं शती
११-१२वीं शती
१६वीं शती
१२वीं शती (वि.सं. १२२६) में टीका समाप्त की ) ५७ नेमिचन्द्र ( प्रव. सारो.) १२वीं शती (श्रास्रदेव के शिष्य श्रौर जिनचन्द्र सूरि के प्रशिष्य )
अज्ञात
११वीं शती (१०७३) ५-६ शती
१३वीं शती (श्रीचन्द्र सूरि के शिष्य ) ५वीं शती ( इन्होंने वी. नि. ६८० के आसपास श्रुतका संकलन किया) छठी शताब्दी (५२३ के
पूर्व ) १०वीं शती (६६० में दर्शनसार रचा )
५८ पद्मनन्दी ( धर्म रसा.)
५६ पद्मनन्दी ( जम्बूद्वीप. ) सम्भवतः ११वीं शती
६६
७०
७१
७२
७३ भास्करनन्दी
७४ भूतबलि
७५ भोजकवि
७६ मलघारीय हेमचन्द्र
७७ मलयगिरि
७८ महासेन ( स्व. सं.)
७६ माणिक्यनन्दी
माधवचन्द्र विद्य
८१ मानविजय महोपा.
८२ मुनिचन्द्र (उ. प. टी.)
८०
समय (विक्रम संवत् )
१३वीं शती (१२४२)
११वीं शती ( १०८६ )
१२-१३वीं शती
अज्ञात
अज्ञात
११-१२वीं शती
सम्भवतः १२-१३वीं शती
छठी शती (वराहमिहिर के सहोदर) १३-१४वीं शती
प्रथम शती
१८वीं शती ( १७८५ से १८०६)
१२वीं शती
१२-१३वीं शती (हेमचन्द्र सूरि के समकालीन) हवीं शती
११-१२वीं शती ( ६६३ से १०५३ ई.)
१३वीं शती
१०वीं शती
१२वीं शती (१९७४ में उप.प. व १९८१ में धर्मबिन्दुकी टीका रची )
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________________
सख्या
म
."
शती
ग्रन्थकारानुक्रमणिका ग्रन्थकार
समय (विक्रम संवत्) | संख्या ग्रन्थकार समय (विक्रम संवत् ) ८३ मुनिचन्द्र (ललितवि. १२वीं शती (११६८ से | १०, विमलसूरि
प्रथम शती पंजिका) ८४ मेधावी १६वीं शती (१५४१)
११वीं शती (नेमिचन्द्र सि.
च. के गुरुभाई) ८५ यतिवृषभ
छठी शती
१०९ वीरनन्दी (प्रा. सा.) १२-१३वीं शती ८६ यशोदेव (प्रत्या. स्व.) १२वीं शती
११० वीरसेन
हवी ती (शकसं. ७१७
से ७४५) ८७ यशोभद्र (षोड. बृ.) १२वीं शती (११८२)
१११ शय्यम्भव मूरि जम्बस्वामी के बाद प्रभव ८८ यशोविजय १८वीं शती
और तत्पश्चात् शय्य
म्भव हुए ८६ योगीन्दुदेव ७वीं शती (ई. छठी श.) |११२ शान्तिचन्द्र (ज. द्वी. प्र. १७वीं शती (सं. १६६०
के टीकाकार)
में टीका पूरी की) ६० रत्नकीति (प्रार. सा. टी.) १५वीं शती
११३ शान्तिसूरि (वादिवेताल) ११वीं शती (वि सं. ११ रत्नप्रभ १२-१३वीं शती
१०६६में स्वर्गवासी हुए) ११४ शिवशर्म
सम्भवत: वि. की ५वीं ६२ रत्नशेखर सूरि १५वीं शती(१४४७, वज्रसेन सूरि के शिष्य) |११५ शिवार्य
२.३री शती ६३ रविषेण
७-८वीं शती ११६ शीलांकाचार्य
६.१०वीं शती ६४ राजमल
१७वीं शती (१६३५)
| ११७ शुभचन्द्र (ज्ञाना.) संभवत: १०-११वीं शती ६५ रामसेन
१०वीं शती
११८ शुभचन्द्र (काति. टी.) १७वीं शती (१५७३ से वट्टकेर १-२री शती ११६ श्यामाचार्य
विक्रम पूर्व प्रथम शती ६७ वर्धमान सूरि (प्रा. दि.) ११वीं शती(जिनेश्वर सूरि
(वी. नि.३७६के पश्चात्) के गुरु १०८०) | १२० श्रीचन्द्रसूरि १२-१३वीं शती (जीतक. ६८ वसुनन्दी १२वीं शती
वि. पदव्याख्या सं. EE वाग्भट १२वीं शती
१२२७ में पूर्ण की)
१२१ श्रुतमुनि (भा. त्रि.) १४वीं शती (१३६८) १०० वादिदेव सूरि
१२वीं शती (ई.१०८६ से | १२२ श्रुतसागर
१६वीं शती १०१ वादिराज
११वीं शती - | १२३ समन्तभद्र
२री शती १०२ वादीसिंह १०:११वीं शती .
| १२४ संघदास गणि
७वीं शती (जिनभद्र के १०३ वामदेव १५वीं शती का पूर्वार्ष
पूर्ववर्ती).
१२५ सिद्धसेन (सन्मति.) ६-७वीं शती १०४ विद्यानन्द
हवीं शती (ई.७७
१२६ सिद्धसेन सूरि (न्यायाव.) ७-८वीं शती १०५ विनयविजय गणि १७वीं शती (१६६६)
१२७ सिद्धसेन गणि
हवीं शती १०६ विमलदास
प्लवग संवत्सर वैशाख
शुक्ल ८, बृहस्पतिवार | १२८ सिर्षि गणि (न्याव. वृ.) १०-११वीं शती
११३०)
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
जैन-लक्षणावली १२६ सिद्धसेन सूरि (जी. क. १२२७ के पूर्व १३४ हरिभद्र सूरि ८-९वीं शती
चूणि) १३० सिद्धसेन सूरि (प्र. सारो. १३वीं शती (१२४८ या | १३५ हरिभद्रसूरि(षड. वृत्ति) १२वीं शती
१२७८) १३१ सोमदेव सूरि
१३६ हेमचद्रसूरि (कलिकाल स.) ११४५-१२३० (ई. १०-११वीं शती
१०८८.११७३) १३२ स्वामिकुमार सम्भवतः १०-११वीं शती
| १३७ हेमचन्द्रसूरि (मलधारीय) १२वीं शती (अभयदेव के १३३ हरिचन्द १३वीं शती
पश्चात्)
टीका)
शताब्दीक्रम के अनुसार ग्रन्थकारानुक्रमणिका
प्रथम शताब्दी १ कुन्दकुन्द २ गुणधर ३ पुष्पदन्त ४ भूतबली ५ वट्टकेर ६ विमल सूरि
द्वितीय शताग्दो ७ प्रार्यरक्षित स्थविर ८ समन्तभद्र
द्वितीय-तृतीय शताब्दी ९ उमास्वाति १० शिवार्य
पांचवीं शताब्दी ११ शिवशर्म
पांचवीं-छठी शताब्दी १२ देवद्धि गणि
छठी शताब्दी १३. देवनन्दी (पूज्यपाद) १४ देववाचक गणि १५ भद्रबाहु (द्वितीय) १६ यतिवृषभ
छठी-सातवीं शताब्दी १७ योगीन्दुदेव १८ सिद्धसेन दिवाकर
सातवीं शताब्दी १६ संघदास गणि २० जिनभद्र क्षमाश्रमण
सातवीं-आठवीं शताब्दी २१ जिनदास गणि महत्तर
पाठवीं शताब्दी २२ कोटपाचार्य २३ जटासिंहनन्दी २४ रविषण २५ सिद्धसेन (न्यायाव. के कर्ता)
पाठ-नौवीं शताब्दी २६ अकलंकदेव २७ हरिभद्र सूरि
नौवीं शताब्दी २८ अपराजित सूरि २६ अमोघवर्ष (प्रथम) ३० जिनसेन (ह. पु.) ३१ जिनसेन (म. पु.) ३२. महासेन (स्व. सं.) ३३ विद्यानन्द ३४ वीरसेन ३५ सिद्धसेन गणि
नौ-दसवीं शताब्दी ३६ गुणभद्र ३७ शीलांकाचार्य
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________________
शताब्दीक्रम के अनुसार ग्रन्थकारानुक्रमणिका दसवीं शताब्दी
७२ नेमिचन्द्र (उत्तरा. वृ.)
७३ नेमिचन्द्र (प्रव. सारो.) ३८ अनन्तकीर्ति
७४ पद्मनन्दी (प.पं. वि) ३६ अभयदेव सूरि (सन्मति-टीकाकार)
७५ मुनिचन्द्र ४० अमितगति (प्रथम)
७६ यशोदेव (प्रत्या. स्व.) ४१ अमृतचन्द्र
७७ यशोभद्र (षोड. वृ.) ४२ इन्द्रनन्दी (छेदपिण्ड)
७८ वसुनन्दी ४३ गर्षि
७६ वाग्भट ४४ चन्द्रषिमहत्तर
८० वादिदेव सूरि ४५ देवसेन
८१ हरिभद्र (षडशीति वृ.) ४६ रामसेन
८२ हेमचन्द्र मलघारगच्छीय ग्यारहवीं शताब्दी ४७ अनन्तवीर्य (सिद्धिवि. टीकाकार)
बारह-तेरहवीं शताब्दी ४८ अमितगति (द्वितीय)
८३ चक्रेश्वराचार्य ४६ चामुण्डराय
२४ परमानन्द सूरि ५० देवगुप्त सूरि
८५ रत्नप्रभ ५१ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
८६ वीरनन्दी (आचारसार) ५२ पद्मनन्दी (जं. दी. प.)
८७ श्रीचन्द्र सूरि ५३ पद्मसिंह मुनि
८८ हेमचन्द्र सूरि ५४ प्रभाचन्द्र (प्र. क. मा.)
८६ हेमचन्द्र (श्रुतस्क.) ५५ वर्धमान सूरि
तेरहवीं शताब्दी ५६ वादिराज ५७ वादीभसिंह
६० पाशाघर ५८ वीरनन्दी (चन्द्र.)
६१ इन्द्रनन्दी (नीतिसार) ५६ शान्तिसूरि वादिवेताल
६२ गोबिन्द गणि ६० शुभचन्द्र (ज्ञानार्णव)
६३ जिनदत्त सूरि (वि. वि.) ६१ सिद्धर्षि गणि
९४ देवभद्र सूरि ६२ सोमदेव सूरि
६५ पद्मप्रभ मलधारी ६३ स्वामिकुमार
६६ प्रभाचन्द्र (रत्नक. टी.) ___ ग्यारह-बारहवीं शताब्दी
९७ मलयगिरि ६४ अनन्तवीर्य (प्र. र. मा.)
१८ माधवचन्द्र विद्य
६६ सिद्धसेन सूरि (जीत. पूणि) ६५ द्रोणाचार्य ६६ नेमिचन्द्र (द्रव्यसंग्रह)
१०० सिटसेन सूरि (प्र. सारो..)
१०१ हरिचन्द्र ६८ माणिक्यनन्दी
तेरह-चौदहवीं शताब्दी बारहवीं शताब्दी
१०२ अभयचन्द्र (लघीय. टीका) ६६ अभयदेव सूरि (आगम. टी.)
१०३ क्षेमकीति ७० जयसेन
। १०४ देवेन्द्र सुरि ७१ जिनवल्लभ गणि
१०५ भास्करनन्दी
। ६७ ब्रह्मदेव
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________________
२२
चौदहवी शताब्दी
१०६ अजितसेन
१०७ श्रभयचन्द्र ( गो . मं. प्र. टीका )
१०८ नेमिचन्द्र (गो. जी. त. प्र. टी. ) १०६ श्रुतमुनि ( भावत्रिभंगी )
चौदह-पन्द्रहवीं शताब्दी
११० धर्मभूषण
पन्द्रहवीं शताब्दी
१११ कुमार कवि
११२ गुणरत्न सूरि
११३ जयतिलक
११४ जिनमण्डन सूरि ११५ रत्नकोति
११६ रत्नशेखर
११७ वामदेव
सोलहवीं शताब्दी
११८ पूज्यपाद ( उपासकाचार ) ११६ मेघावी
१२० श्रुतसागर
जैन - लक्षणावली
सोलह-सत्रहवीं शताब्दी
१२१ शुभचन्द्र ( कार्ति. टी. व अंगप.) सत्रहवीं शताब्दी
१२२ राजमल
१२३ विनयविजय गणि
१२४ शान्तिचन्द्र
अठारहवीं शताब्दी
१२५ भोजकवि
१२६ मानविजय
१२७ यशोविजय उपाध्याय
विशेष १. दशवैकालिक के कर्ता शय्यम्भव सूरि नन्दीसूत्र
गत स्थविरावली के अनुसार सुधर्म गणधर की चौथी पीढ़ी में हुए हैं ।
२. प्रज्ञापना के कर्ता श्यामार्य उक्त स्थविरावली
के अनुसार सुचर्म गणधर की तेरहवीं पीढ़ी में हुए हैं।
३. उपदेशमाला के कर्ता धर्मदास गणि के समय का निश्चय नहीं किया जा सका। वे उक्त ग्रन्थ के टीकाकार जयसिंह (वि. सं. ११३) के निश्चित पूर्ववर्ती है ।
Page #444
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वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जैनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोंके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द ।
८-०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित।
१-५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १-५० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द ।
१२५ श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : आचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित ।
'७५ शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ...
३-०० जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ...
४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४.०० अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित "२५ तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
२५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य
१६ अध्यात्मरहस्य : पं० आशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द । कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... २०-०. Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में मनूवाद बड़े भाकार के ३०. पृ. पक्की जिल्द ६.०० जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
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