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ऊर्ध्वव्यतिक्रम] २८७, जैन-लक्षणावली
[ऋजुमति १ मध्य लोक के ऊपर जो खड़े किये हुए मृदंग के वेति च' । (परीक्षामुख ३-७)। ३. विज्ञातमर्थमसमान लोक है उसे ऊर्ध्वलोक कहते हैं।
वलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविधवितर्कणमूहः । ऊर्ध्वव्यतिक्रम-१. तथा ऊर्ध्व पर्वत-तरु-शिख- (नीतिवा. ५-५०)। ४. उपलम्भानुपलम्भसम्भवं रादेःXxx योऽसौ भागो नियमितः प्रदेशः, तस्य त्रिकालीकलितसाध्य- साधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमव्यतिक्रमः। (योगशा. स्वो. विव. ३-६७) । २. स्मिन् सत्येव भवतीत्याधाकारं संवेदनमूहाऽपरनामा ऊवं गिरि-तरुशिखरादेर्व्यतिक्रमः। सा. घ. ५, तर्कः। (प्र.न. त.३-५) । ५. ऊहो विज्ञातमर्थम५)। ३. शैलाधारोहणमूर्ध्वव्यतिक्रमः । (त. वृत्ति वलम्ब्यान्येषु तथाविधेषु व्याप्त्या वितर्कणम् ।xx श्रुत. ७-३०) । ४. वृक्ष-पर्वताद्यारोहणमूवंव्यति- Xअथवा ऊहः सामान्यज्ञानम् । (योगशा. स्वो. विव
(कातिके. टी. ३४१-४२)। ५. उच्चर्धात्री- १-५१, पृ. १५२, ललितवि. पंजि. म. पु. ४३%3B धरारोहे भवेदूर्ध्वव्यतिक्रमः । (लाटीसं. ६-११८)। धर्मसं. मान. १-११, पृ. ६) । ६. उपलम्मानुप१ ऊंचे पर्वत और वृक्ष के शिखर आदि क्षेत्र में लम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः । (प्रमाणमी. १, जो जाने का नियम किया गया है उसके उल्लंघन २,५)। करने को ऊर्ध्वव्यतिक्रम कहा जाता है। यह एक १ अवग्रह से गहीत पदार्थ का जो विशेष ग्रंश दिग्वत का अतिचार है।
नहीं जाना गया है, उसका विचार करने को कहा ऊर्ध्वशायी-१. स्थित्वा शयनं चोर्ध्वशायी। (भ. जाता है। यह ईहा मतिज्ञान का नामान्तर है। प्रा. विजयो. ३-२२५) । २. उद्भीभूय शयनमूर्ध्व- २ उपलम्भ (अन्वय) और अनुपलम्भ (व्यतिरेक) शायी । (भ. प्रा. मूला. टी. ३-२२५)। के निमित्त से होने वाले 'यह (धूम) इसके (अग्नि खड़े होकर शयन करने को ऊर्ध्वशायी कहते हैं। के) होने पर ही होता है और उसके न होने पर ऊर्ध्वसूर्यगमन-उड्ढसूरी य ऊवं गते सूर्ये गम नहीं होता' इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान को ऊह या नम् । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २२२)।
ऊहा कहते हैं। सूर्य के ऊपर स्थित होने पर- दो पहर में-गमन ऋजुक मन(उज्जुग-मरण)-जो जधा प्रत्थो द्विदो करने को ऊर्ध्वसूर्यगमन कहते हैं।
तं तधा चिंतयंतो मणो उज्जुगो णाम । (धव. पु. ऊर्वातिक्रम-१. पर्वताद्यारोहणा तिक्रमः । १३, पृ. ३३०)। (स. सि. ७-३०; श्लो. वा. ७-३०)। २. तत्र जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप पर्वताद्यारोहणा तिक्रमः । पर्वत-मरुभूम्यादी- से चिन्तन करने वाला मन ऋजक मन कहलाता है। नामारोहणादूर्वातिक्रमो भवति । (त. वा. ७, ३०, ऋजुता-अथ ऋजुता-ऋजुरवक्रमनोवाक्काय२)। ३. पर्वत-मरुभूम्यादीनामारोहणादू तिक्रमः। कर्म, तस्य भावः कर्म वा ऋजुता, मनोवाक्काय(चा. सा. पृ. ८)। ४. पर्वत-तरुभूम्यादीनामारोह- विक्रियाविरह इत्यर्थः, मायारहितत्वमिति यावत् । णादूर्ध्वातिक्रमो भवति । (त. सुखबो. व.७-३०)। (योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। १ पर्वत प्रादि ऊंचे स्थानों पर जाने-माने की ग्रहण मायाचार से रहित मन-वचन-काय की सरल प्रवृत्ति की हुई मर्यादा के उल्लंघन करने को ऊर्ध्वातिक्रम को ऋजुता कहते हैं । कहते हैं।
ऋजुमति-१. ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । ऊपर-ऊषरं नाम यत्र तृणादेरसम्भवः । (श्रा. प्र. कस्मान्निर्वतिता ? (त. बा.-कस्मात् ? निर्वतिटी. ४७)।
त.) वाक-काय-मनस्कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य जिस भूमि पर घास प्रादि कुछ भी उत्पन्न न विज्ञानात् । ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजु मतिः । हो, उसे ऊपर भूमि कहते हैं।
(स. सि. १-२३; त. वा. १-२३)। २. उजु मती ऊह, ऊहा- १. अवगृहीतार्थस्यानधिगतविशेषः -उज्जुमती, सामण्णगाहिणि त्ति भणितं होति । एस उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा।। (धव. पु. १३, मणोपज्जयविसेसो त्ति प्रोसण्णं उवलभति, णातीव पृ. २४२)। २. उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्ति- बहुविसेसविसिटु अत्थं उवलब्भइ त्ति भणितं होति । ज्ञानमूहः 'इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति न भवत्ये. घटोऽणेण चितिमो त्ति जाणइ। (नन्दी. चणि प्र.
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