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अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान ]
[अनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धि
१ चौदह मार्गणात्रों से सम्बद्ध जितने पदों के द्वारा जो अर्थ जाना जाता है उन पदों की और उनसे उत्पन्न ज्ञान की 'अनुयोगद्वार' यह संज्ञा है । प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के होने पर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है। प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान के जितने अधिकार होते हैं उनमें प्रत्येक का नाम श्रनुयोगद्वार है । अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान -- १, तस्स (अणियोगस्स) उवरि एगक्खरसुदणाणे वड्ढिदे श्रणियोगसमासो होदि । ( धव. पु. ६. पू. २४); अणियोगद्दारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे प्रणियोगद्दार - समासो णाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगुत्तरक्खर - वड्ढी अणियोगद्दारसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणपाहुडपाहुडे त्ति । (धव. पु.१३, पृ. २७० ) । २. तद्द्वयादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासाः | (कर्मवि. दे. स्वो. टी. गा. ७) । श्रनुयोगद्वार श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान होता है । इसी प्रकार से श्रागे उत्तरोत्तर एक-एक प्रक्षर की वृद्धि होने पर एक अक्षर से हीन प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान तक सब विकल्प श्रनुयोगद्वारसमास के होते हैं । अनुयोगसमासावररणीय कर्म - प्रणियोगसमाससुदणाणस्स संखेज्जवियप्पस्स जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावरणं तमणियोगसमासावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २७८ ) ।
इन्द्रियों को श्रानन्द उत्पन्न करने वाले अनुकूल सुनने योग्य काकलि गीत आदि विषयोंको अनुलोम कहते हैं । अनुवाद - प्रसिद्धस्याऽऽचार्य परम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चाद्वादोऽनुवादः । ( धव. पु. १, पू. २०१ ) | प्राचार्य परम्परागत प्रसिद्ध अर्थ का पीछे उसी प्रकार से कथन करना, इसका नाम अनुवाद है । अनुबी चिभाषण - १. अनुवीचिभाषणं निरवद्यानु भाषणम् । ( स. सि. ७-५) । २. अनुवीचिभाषण - मनुलोमभाषणमित्यर्थः । XXX विचार्य भाषणमनुवीचिभाषणमिति वा । (त. बा. ७-५; सुखबो. ७- ५ ) । ३. अनुकूलवचनं विचार्य भणनं वा निरवद्यवचनमनवीचिभाषणमित्युच्यते । (त. सुखबो. वृत्ति ७ - ५ ) । ४. वीची वाग्लहरी, तमनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचीभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचीभाषा । (चा. प्रा. टी. ३२ ) । ५. अनुवीचिभाषणं विचार्य भाषणमनवद्यभाषणं वा पञ्चमम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-५) ।
१ जिनागम के अनुसार निरवद्य वचन बोलने को अनुवीचिभाषण कहते हैं । अनुशिष्टि - १. अणुसिट्ठी सूत्रानुसारेण शासनम् । ( भ. प्रा. विजयो. ६८ ) । २. अनुशासनं शिक्षणं निर्यापकाचार्यस्य । (भ. प्रा. विजयो. ७० ); श्रणुसिट्ठी सूत्रानुसारेण शिक्षादानम् । ( भ. प्रा. मूला. टी. २ - ६८ ) । ३. अणुसिट्टी निर्यापकाचार्येणाराधकस्य शिक्षणम् । (भ. प्रा. मूला. ७०; श्रन. ध. Fat. t. 19-58) I
संख्यात विकल्पस्वरूप अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान के आच्छादित करने वाले कर्म को अनुयोगद्वारसमासावरणीय कहते हैं ।
अनुयोगावरणीय कर्म – प्रणियोगसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तमणियोगावरणीयकम्मं । ( धव. पु. १३, पृ. २७८ ) ।
३ निर्यापकाचार्य के द्वारा प्राराधक को जो सूत्रानुसार शिक्षा दी जाती है उसे अनुशिष्टि कहते हैं । श्रनुश्रेणि - १. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पंक्तिः श्रेणि रित्युच्यते । अनुशब्दस्य अनुपूर्व्येण वृत्तिः श्रेणेरानु
२६, १-२ ) । २. श्राकाशप्रदेशपंक्ति श्रेणिः ॥ १ ॥ XXX श्रनोरानुपूर्व्ये वृत्तिः ॥ २॥ (त. वा. २ - २६; त. इलो. २ - २६ ) ।
अनुयोग श्रुतज्ञान को रोकने वाला कर्म अनुयोगाव- पूर्व्येणानुश्रेणीति । ( स. सि. २- २६; त. वा. २, रणीय कहलाता है । अनुलोम – १. XXX अणुलोमोऽभिपेनो X X X ॥ सव्वा श्रसहजुत्ती गंधजुत्ती य भोयणविही य । रागविहि गीय-वाइयविही अभिप्पेयमणुलोमो || (उत्तरा. नि. १, ४३-४४ ) । २. अनुलोमं मनोहारि । ( दशवं. हरि. वृ. ७ - ५७ ) । ३. 'अनुलोम' इन्द्रियाणां प्रमोदहेतुतया श्रनुकूलश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्र ेतः । (उत्तरा. नि. वू. १ - ४३ ) ।
लोक के मध्य भाग से लेकर ऊपर, नीचे श्रौर तिरछे रूप में जो श्राकाशप्रदेशों की पंक्ति अनुक्रम से अवस्थित है उसे अनुश्रेणि कहते हैं । श्रनुश्रोतः पदानुसारिबुद्धि-तत्रादिपदस्यार्थं ग्रन्थं च परत उपश्रुत्य श्रा अन्त्यपदादर्थ- ग्रन्थविचारणा
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८०, जैन-लक्षणावली
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