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अनेकान्त ] ८३, जैन-लक्षणावली
[अन्तकृत शय्या को अनेकाङ्गिक-अपरिशाटिरूप संस्तारक थाप्यत्र युक्तोऽनकान्तिकः स तु ।। (न्यायाव. २३) । कहते हैं।
२. विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः । (परीक्षा. अनेकान्त-१. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय- ६-३०)। ३. यस्यान्यथानुपपत्तिः सन्दिह्यते सोऽनसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्न- कान्तिकः । (प्र. न. त. ६-५४; जैनतर्कप. पु.
1॥ (स्वयम्भः १०३) । २. अनेकान्त इति १२५)। ४. नियमस्यासिद्धौ सन्देहे वाऽन्यथानुपपद्यकोऽर्थः इति चेत् एकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादक- मानोऽनकान्तिकः । (प्रमाणमी. २, १, २१) । अस्तित्व-नास्तित्वद्वयादिस्वरूपं परस्परविरुद्धसापेक्ष- ५. यः पुनरन्यथापि–साध्यबिपर्ययेणापि युक्तो घटशक्तिद्वयं यत्तस्य प्रतिपादने स्यादनेकान्तो भण्यते। मानकः, आदिशब्दात् साध्येनापि, सोऽत्र व्यतिकरे (समयप्रा. जय. व. गा. ४४५) । ३. सर्वस्मिन्नपि अनैकान्तिकसंज्ञो ज्ञातव्य इति । (न्यायाव. सिद्धर्षि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नि- वृत्ति २३) । ६. सब्यभिचारोऽनकान्तिकः । (न्यात्यानित्यरूपत्वमित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । यदी. पृ. ८६); पक्ष-सपक्ष-विपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः । (न्यायदी. पृ.६८)।
(न्यायदी. पु. १०१); ७. तथा च अन्यथा चोप२ एक वस्तु में मुख्यता और गौणता की अपेक्षा पत्त्या अनैकान्तिकः । (सिद्धिवि. वृ. ६-३२, पृ.४३)। अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों के १ जो हेतु साध्य से विपरीत के साथ भी रहता है प्रतिपादन को अनेकान्त कहते हैं।
वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है। ३ जिस अनेकान्त-प्रसात-कर्म-जं कम्मं असादत्ताए बद्धं हेतु की अन्यथानुपपत्ति सन्दिग्ध हो, वह भी अनकाअसंछुद्धं अपडिच्छद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- न्तिक हेत्वाभास होता है। ६ पक्ष और सपक्ष के असादं । तव्वदिरित्तमणेयंतप्रसादं। (धव. पु. १६, समान विपक्ष में भी रहने वाले हेत को अनैकान्तिक पृ. ४६८)।
हेत्वाभास कहते हैं। जो कर्म असातस्वरूप से बांधा गया है उसका संक्षेप अनैकाग्रच-अनैकाग्रथमपि अन्यमनस्कत्वम् । (सा. और प्रतिक्षेप से सहित होकर अन्य (सात) स्वरूप ध. स्वो. टी. ५-४०)। से उदय में प्राना, इसका नाम अनेकान्त-सात एकाग्रता के प्रभाव को या चित्त की चंचलता को कर्म है।
अनैकाग्रय कहते हैं। अनेकान्त-सात-कर्म-जं कम्मं सादत्ताए बद्धं अनोजीविका-देखो शकटजीविका । अनोजीविका प्रसंछुद्धं अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- शकटजीविका, शकट-रथ-तच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा सादं । तव्वदिरित्तं अणेयंतसादं । (धव. पु. १६, निष्पादनेन वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिर्बहुभूतग्रामोप. पृ. ४६८)।
मर्दिका गवादीनां च बन्धादिहेतुः। (सा. ध. स्वो. जो कर्म सातस्वरूप से बांधा गया है, उसका संक्षेप टी. ५-२१)। और प्रतिक्षेप से परिवर्तित होकर अन्य (असात) गाड़ी, रथ और उनके पहियों आदि को स्वयं बना स्वरूप से उदय में आना, इसका नाम अनेकान्त- कर या दूसरे से बनवा कर, उन्हें स्वयं चला कर या सातकर्म है।
बेचकर आजीविका करने को अनोजीविका कहते अनेषग तप-देखो अनशन । चउत्थ-छट्टम- हैं। यह प्राजीविका बहुतसे त्रस जीवों की हिंसा दसम-दुवालस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छरेसु एस- का और बैल-घोड़े आदि पशुओं के बन्धादि का णपरिच्चामो अणेसणं णाम तवो। (धव. पु. १३, कारण होने से हेय है। पृ. ५५)।
अन्त-यस्मात्पूर्वमस्ति, न परम्, अन्तः सः । (अनुयो. एक, दो, तीन, चार और पांच दिन तथा पक्ष, हरि. व. पृ. ३२)। मास, ऋतु, अयन और संवत्सर के प्रमाण से जिसका पूर्व है, किन्तु पर नहीं है, उसका नाम भोजन का परित्याग करने को अनेषण या अनशन अन्त है। तप कहते हैं।
अन्तकृत-अष्टकर्मणामन्तं विनाशं कुर्वन्तीत्यन्तअनेकान्तिक हेत्वाभास-१. xxx योऽन्य- कृतः । अन्तकृतो भूत्वा सिझंति सिध्यन्ति, निस्ति
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