________________
प्रागमद्रव्यस्कन्ध]
१७५, जैन-लक्षणावली [आगमद्रव्याल्पबहुत्व ज्ञाता होकर वर्तमान में जो उसके उपयोग से रहित तद्विषयक उपयोग से रहित है, वह प्रागमद्रव्याध्ययन है उसे पागमद्रव्यसिद्ध कहते हैं।
कहलाता है। नैगम नय की अपेक्षा एक दो प्रादि प्रागमद्रव्यस्कन्ध-से किं तं प्रागमतो दव्वक्खं- जितने भी अध्ययन उपयोग से रहित होते हैं उतने धे ? जस्स णं खंधे त्ति पयं सिक्खियं सेसं जहा (एक-दो आदि) वे आगमद्रव्याध्ययन कहे जाते हैं। दव्वावस्सए (सू. १३-१४) तहा भाणिदव्वं । प्रागमद्रव्यानन्त-तत्थ पागमदो दव्वाणंतं अणंनवरं खंधाभिलावो जाव । (अनुयो. सू. ४६)। तपाहुडजाणो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ३, पृ. १२)। जिसे 'स्कन्ध' यह पद शिक्षितादि के क्रम से वाच- जो जीव अनन्तविषयक प्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तनोपगत तक ज्ञात है, पर वर्तमान में जो तद्विषयक मान में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे पागमउपयोग से रहित है, उसे आगमद्रव्यस्कन्ध । द्रव्यानन्त कहते हैं। कहते हैं।
प्रागमद्रव्यानुपूर्वी-से किं तं आगमयो दव्वाणुप्रागमद्रव्यस्तव-चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभृत- पुवी ? जस्स णं आणुपुव्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं ज्ञाय्यनुपयुक्त आगमद्रव्यस्तवः । (मला. वृ. ७-४१)। जियं मियं परिजियं जाव, नो अणुप्पेहाए । कम्हा ? चौबीस तीर्थंकरों के स्तवनविषयक प्राभत का ज्ञाता अणवनोगो दवमिति कट । णेगमस्स णं एगो होकर भी जो वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से। अणुवउत्तो पागमयो एगा दव्वाणुपुव्वी जाव 'कम्हा'। रहित हो उसे पागमद्रव्यस्तव कहते हैं।
जइ जाणए अणुवउत्ते ण भवइ, से तं प्रागमयो प्रागमद्रव्यस्पर्शन - तत्थ फोसणपाहुडजाणगो दव्वाणुपुब्बी। (अनुयो. सू. ७२)। अणुवजुत्तो खग्रोवसमसहिरो आगमदो दव्वफोसणं जिसके प्रानुपूर्वी पद शिक्षित व स्थित आदि के क्रम णाम । (धव. पु. ४, पृ. १४२)।
से वाचनोपगत तक गुणों से सहित हैं, परन्तु जो स्पर्शनविषयक प्राभूत के ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से रहित है; उसे पागमद्रव्यानुउसके उपयोग से रहित, क्षयोपशमयुक्त पुरुष को पूर्वी कहते हैं। पागमद्रव्यस्पर्शन कहते हैं।
प्रागमद्रव्यानुयोग - आगमतोऽनुयोगपदार्थज्ञाता प्रागमद्रव्याङ्ग-अंगसुदपारो अणुवजुत्तो भट्ठा- तत्र चानुपयुक्तः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६) । भट्ठसंसकारो आगमदव्वंग । (धव. पु. ६, पु. १६२)। अनुयोग पद के अर्थ के जानने वाले, किन्तु वर्तमान जो अंगश्रुत का पारगामी होकर उसके विनष्ट में उसके उपयोग से रहित जीव को पागमद्रव्यानुअथवा अविनष्ट संस्कार से सहित होता हा वर्त- योग कहते हैं। मान में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागम- प्रागमद्रव्यान्तर–अंतरपाहुडजाणो अणुवजुत्तो द्रव्यांग कहते हैं।
अंतरदव्वागमो वा आगमदव्वंतरं। (धव. पु. ५, प्रागमद्रव्याध्ययन-से कि तं प्रागमयो दव्वज्झ- प. २) । यणे ? जस्स णं अज्झयणेत्ति पयं सिक्खियं ठियं अन्तरविषयक पागम के ज्ञायक, किन्तु वर्तमान में जियं मियं परिजियं जाव एवं जावइया अणुवउत्ता अनुपयुक्त जीव को प्रागमद्रव्यान्तर कहते हैं। आगमग्रो तावइग्राइं दव्वज्झयणाई । एवमेव ववहा- अथवा अन्तरविषयक द्रव्य-पागम को प्रागमद्रव्यारस्स वि । संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा जाव, से न्तर कहते हैं। तं आगमयो दव्वज्झयणे । (अनुयो. सू. १५०, पृ. प्रागमद्रव्याहन - आगमद्रव्याहन्नर्हत्स्वरूपव्या२५०)।
वर्णनपरप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तदर्थेऽन्यत्र व्याप्तः । (भ. जिस जीव के 'अध्ययन' यह पद शिक्षित, स्थित, प्रा. विजयो. टी. ४६)।। जित, मित व परिजित आदि गुरुवाचनोपगत तक अर्हन्त के स्वरूप का वर्णन करने वाले प्रागम के है, इस प्रकार नैगम नय की अपेक्षा जितने भी ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित अध्ययन उपयोग से रहित हैं वे सब द्रव्य-अध्ययन होकर अन्य विषय में उपयुक्त जीव को प्रागमहैं । अभिप्राय यह है कि जो जीव अध्ययन पद का द्रव्यार्हन् कहते हैं। शिक्षित-स्थित प्रादि के क्रम से ज्ञाता तो है; पर प्रागमद्रव्याल्पबहुत्व - अप्पाबहुअपाहुडजाणो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org